“साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है.” – प्रेमचंद
“भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।” – भगतसिंह
‘तमस’ भीष्म साहनी का बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास को अधिकांश रूप में साम्प्रदायिकता एवं विभाजन के समय के दस्तावेज के रूप में देखा गया है। इसके अतिरिक्त भी इस उपन्यास को कई और कोणों से समझा जा सकता है, पढ़ा जा सकता है। आज जिन परिस्थितियों में हमारा समाज साँस ले रहा है, इस प्रकार के उपन्यासों का पाठ वर्तमान सन्दर्भों में करना अनिवार्य होता जा रहा है।
प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में कांग्रेस कमेटी के दो गिने-चुने लोग ही पहुँचे थे। “खुफ़िया पुलिस के दो सिपाही साधारण कपड़े पहने थोड़ी दूरी पर अभी से खड़े थे।”(साहनी, 2011:18) कौन थे वे लोग जो राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेनेवालों की खुफिया ख़बरे अंग्रेज़ अफसरात तक पहुँचाते थे? क्या वे अंग्रेज थे? नहीं। वे भारतीय लोगों में से ही कोई थे। क्या यही कारण है कि रिचर्ड अक्सर कहता रहता है कि उसे सब पता है कि कौन क्या कर रहा है और वह सबकुछ जानकर भी कुछ नहीं करता है। यह उसके चरित्र में था कि व्यक्तिगत मानवीय संवेदनाओं से उसने अपने व्यवसाय को अलग कर लिया था।
कांग्रेस में प्रत्येक धर्म के लोग शामिल थे। बख्शी, जनरैल, शंकर, अजीज़, मास्टर रामदास, मेहताजी (बीमा एजेन्ट), कश्मीरीलाल। इनमें जनरैल और बख्शी छोड़कर अधिकांश का अपना अपना स्वार्थ था कांग्रेस में रहने के लिए। मेहता अपने आप को नेहरु जैसा दिखनेवाला समझता है किन्तु गुणों का क्या? उनको लगता है कि उन्हें देखकर “बहुत लोगों को मुग़ालता हो जाता है” कि “क्या वह जवाहरलाल नेहरू खड़ा है।”(साहनी, 2011:19) वह अपने बीमा के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कांग्रेस के टिकट और उससे बननेवाली पहचानों का उपयोग करता है । शंकर और मेहता में कांग्रेस-कमेटी के पद एवम् उससे मिलनेवाले पैसे को लेकर भी कहा-सुनी हो जाती है । कोहली का नाड़ा दिखाकर शंकर ने उसे अपने को न चुने जाने का बदला लिया था, अन्यथा रेशम का नाड़ा पहननेवाला “कोहली जरूर जिला कमेटी की ओर से चुन लिया जाता अगर शंकर बेहूदगी न करता ।”(साहनी, 2011:23) “उस दिन से शंकर मेहताजी को फूटी आँख नहीं सुहाता था ।”(साहनी, 2011:25) कांग्रेस कमेटी के लैम्प का तेल खर्च करने में बख्शी को कोई दिक्कत नहीं, किन्तु देशसेवा और तामीरी काम का ढोंग करनेवाले बख्शी को अपने लैम्प का तेल खर्च करने में दिक्कत है । वह कहता है, “तेल जाया होता है । यह कांग्रेस-कमेटी का लैम्प नहीं है, मेरा अपना लैम्प है । कांग्रेस-कमेटी से तेल की मंजूरी ले दो, मैं इसे दिन रात जलाए रखूँगा ।”(साहनी, 2011:21) जनरैल गलत राजनीति का शिकार है या फिर गलत लागों की संगत और उसकी अपनी पद्धति की अपूर्णता और गलत प्रयोग का शिकार है और इसी कारण मारा जाता है । जनरैल की मौत अधीर गाँधीवादी की मौत है, तो बख्शी आदि की असफता अत्यन्त धैर्यवान गाँधीवाद की मौत है । दोनों ओर से भारतीय समाज में गाँधीवाद साम्प्रदायिकात रोकने में क्यों असफल रहा, इसके कई कारण इन पात्रों के माध्यम से निकलते हैं । प्रत्येक पात्र अपनी पद्धति से गाँधीवाद और कांग्रेस के ढाँचे को प्रयोग में लाता है, प्रत्येक व्यक्ति उसे अपने स्वार्थानुसार व्याख्यायित करता है । और अऩ्त में गाँधी के विचार और कांग्रेस का पूरा ढाँचा झुनझुना बनकर रह जाता है ।
यह कह पाना मुश्किल है कि धर्म राजनीति का विभाजन करता है या राजनीति धर्म का, किन्तु दोनों का मिश्रण समाज-संस्कृति में विभेद निर्माण करता है । तमस में तमाम धर्मों और राजनीतिक दलों के लोग हैं, लेकिन इऩके आधार पर अपना भौतिक एवं सांस्कृतिक विकास करने की बजाए, औपनिवेशिक सत्ता से लड़ने की बजाए तमाम तरह के विभेद उस समाज में इऩ्हीं के कारण उत्पन्न होते हैं । मध्यकाल में राजनीति का अर्थ और आधुनिक समाज में राजनीति का अर्थ में काफी अन्तर है । इतिहास की धर्माधारित व्याख्या प्रत्येक देश की औपनिवेशिक सत्ता ने कर अपने मातहत समाज में फूट डालने का कार्य किया । इसके लिए उसने इतिहास की धर्म एवं साम्प्रदायों पर आधारित व्याख्या की, जिसे मध्यवर्गीय शिक्षित समाज में शिक्षा के नाम पर प्रसारित किया गया, जिसमें अकादमिक लेखन के साथ-साथ प्रसार माध्यमों का भी यथेच्छ प्रयोग किया गया । इस नीति ने विभिन्न धर्म के लोगों किन्तु एक ही संस्कृति में साँस लेनेवालों में इतने विभेद निर्माण किए हैं कि सारे समाज की आँखों में खून उतर आता है । इसी क्रम में राजनीतिक दल एक-दूसरे में विभेद का एक और कारण बने जिस कारण मुस्लिम लीगवाले कांग्रेस में धार्मिक विभेद भूलाकर काम करनेवालों को ही अपना दुश्मन समझते हैं । लीगियों का मत है, “अज़ीज और हाकिम हिन्दुओं के कुत्ते हैं । हमें हिन्दुओं से नफरत नहीं, इनके कुत्तों से नफरत है ।”(साहनी, 2011:36) इतना ही नहीं तत्कालीन कांग्रेस प्रेसिडंट मौलाना आज़ाद के बारे में उनकी राय है, “मौलाना आज़ाद हिन्दुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है । गाँधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है, जैसे ये कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं ।”(साहनी, 2011:36) वे कांग्रेसी होने के कारण इन दोनों को अपने मुहल्ले में तामीरी काम के लिए भी नहीं आने देना चाहते । यहाँ प्रश्न यह है मुस्लिम समाज के इस मानसिकता और सोंच का कारण क्या हैं? क्या यह एक दिन में बनी है? क्या इसके पीछे धर्म एवं राजनीति मात्र कारण है? क्या यह प्रत्येक मुसलमान की मानसिकता का अंग है ? यही विभेदीकरण की मानसिकता सामान्य-से-सामान्य मुसलमान की भी है? इस प्रकार के कई प्रश्न इस ऐतिहासिक क्रम में उपस्थित होते हैं । एक तरफ लीगी हैं, जो कांग्रेस को हिन्दुओं की ‘पार्टी’ मात्र मानते हैं, तो दूसरी ओर हिन्दू महासभा और गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी है, जो अपने को क्रमशः हिन्दूओं और सिखों की नुमाइन्दगी करनेवाले दल मानते हैं । ऐसे में कांग्रेस की राजनीतिक दृष्टिकोण की समफलता कही जाए या सफलता? इनके अतिरिक्त कम्यूनिस्ट भी हैं, जो अपने अमन के तमाम प्रयासों के बावजूद बकौल जनरैल “देशद्रोही” हैं । कर्मण्यता के बावजूद उनकी स्थिति त्रिशंकु जैसी है, तो कांग्रेस की स्थिति अकर्मण्यता के कारण ऐसी ही है ।
उच्चवर्गीय हिन्दुओं का मुस्लिमों के प्रति, उच्चवर्गीय मुस्लिमों का हिन्दुओं और सिखों के प्रति, उच्च वर्गीय सिखों का मुस्लिमों के प्रति विशेष दृष्टिकोण से परिचालित राजनीतिक-धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण तो इस उपन्यास में अभिव्यक्त हुआ ही है, किन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कांग्रेस और कम्यूनिस्टों के सन्दर्भ में अधिकांश इन सभी धर्म के लोगों का नजरिया भी इस उपन्यास में कई स्थानों पर चित्रित किया गया है । इस उपन्यास में कम्यूनिस्ट अपनी वर्गों को नष्ट करनेवाली विचारधारा के साथ समन्वयवादी विचारधारा के साथ आते हैं, जो धर्म, संस्कृति और राजनीति से परे जाकर समाज में ‘अमन’ कायम करने का प्रयास करते हैं । इस कार्य में वे धर्म, जाति, परिवार के जान भी दाँव पर लगा देते हैं । ये कम्यूनिस्ट हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी हैं ।
सारे उपन्यास में ‘तमस’ यानी अँधेरा छाया हुआ है । इसका आरंभ भी रात से होता है और अन्त भी किसी उम्मीद की किरण से नहीं होता । रात के अँधेरे में होनेवाले सारे कारोबार थम जाते हैं । दंगों की राजनीति करनेवाले ही अमन कमेटी की बस में सबसे आगे बैठे होते हैं । दंगा पीड़ितों के लिए कैम्प लगता है, अस्पताल खुलता है । सभी धर्म और राजनीतिक दलों के रहनुमा इकठ्ठा आते हैं । यहाँ स्वाभाविक रूप से सब शान्त दिखाई देता हैं, किन्तु क्या वास्तव में यह उजाले की तरफ जाता हुआ समाज है? इसका सकारात्मक उत्तर देना असंभव है । यह अँधेरा है तमाम पात्रों के भीतर है, जो उनकी दृष्टिकोण और विचारधाराओं, संवेदनाओं, कृत्य से होते हुए सारे वातावरण में छाया हुआ है । गाँव-गाँव हथियारों के साथ घूमती ‘नीली कार’, मुरादअली का पूरे शहर की गलियों में अपनी छड़ी के साथ घूमना, बुद्ध की मूर्ति का एक खास कोण एवं बल्ब के जलाए बगैर न मुस्कराना इस अँधेरे को फैलाने के कारण हैं । यह अन्दर का अंधेरा धीरे धीरे सारे वातावरण में फैलकर कई मासूमों के मन में भी भर जाता है । किसी छूत की बीमारी की तरह । इसके उदाहरण रूप में शाहनवाज़ के सन्दर्भ को देखा जा सकता है । शाहनवाज के सारे कारोबार हिन्दुओं के साथ हैं । उसके सबसे करीबी दोस्त हिन्दू हैं । इतना ही नहीं हिन्दू महासभा के लाला जी और उनकी पत्नी और बेटी के साथ दंगों के आपातकालीन समय में जान बचाकर “मुस्लिम बहुल” इलाके में से उसी “नीली ब्यूक” कार से निकालता है, जिस पर दूसरे गाँवों में असला-हथियार पहुँचाने का संदेह उपन्यास के दूसरे भाग में खुलकर आता है । “शाहनवाज़ के चेहरे की ओर देखते हुए यह नहीं लगता था कि कभी उसके मन में भी ओछे या क्षुद्र विचार उठ सकते होंगे । रोबीला जावन, छाती तनी रहती, तुर्रा लहराता रहता, बूट चमचमाते रहते, सदा सरसराते धोबी के धुले कपड़े पहनता था ।”(साहनी, 2011:150) अर्थात्, उसे पैसे और रुतबे की कमी न थी, किन्तु जब सारा माहौल ही जहरीला हो, तब शाहनवाज पर भी उस ज़हर का असर होता है । वह जब रास्ते से गुजरते हुए मय्यत देखता है, “जनाज़े के के पीछ दो छोटे-छोटे लड़के भी जा रह थे जो जरूर उसके बेटे होंगे”(साहनी, 2011:151), मस्जिद में रखा जनाज़ा और तमाम अफवाहों को सुनकर “डिब्बे को दोनों हाथों से उठाए शाहनवाज़ पीछे पीचे चला आ रहा था जब सहसा उसके अन्दर भभूका-सा उठा । न जे ऐसा क्यों हुआ : मिलखी की चुटिया पर नज़र जाने के कारण, मस्जिद के आँगन के लोगों की भीड़ देखकर, या इस कारण कि जो कुछ वह पिछले तीन दिन से देखता-सुनता आया था वह विष की तरह उसके अन्दर घुलता रहा था । शाहनवाज़ ने सहसा ही बढ़कर मिलखी की पीठ में जोर से लात जमाई । मिलखी लुढ़ता हुआ गिरा और सीढ़ियों के मोड़ पर सीधा दीवार से जा टकराया ।”(साहनी, 2011:159) किन्तु वह क्या था जो इस परिवार से इतना घुला-मिला था, “शाहनवाज़ का गुस्सा, जिसका कारण स्वयं नहीं जानता था, बराबर बढ़ता जा रहा था”(साहनी, 2011:159), जो उससे उसी परिवार के उसी घर के नौकर की हत्या कर देता है । वह जेवर उसी रात लौटाकर अपने सामाजिक सम्बन्ध पूर्ववत बनाए रखता है । इतना ही नहीं मिलखी के ज़ख़्मी होने की खबर और उसके इलाज के इन्तेज़ाम की सूचना भी देता है । “भाभी इस बात पर भी शाहनवाज़ की कृतज्ञ थी और उसके ऊँचे प्रशस्त ललाट, दमकते चेहरे को देख-देखकर उस लग रहा था जैसे वह किसी पुण्यात्मा के दर्शन कर रही है ।”(साहनी, 2011:160) इस टिप्पणी द्वारा लेखक ने उपन्यास में व्यंग्य के तापमान को बरकरार रखा है, जिस पर आगे सविस्तार चर्चा की जाएगी । कुछ-कुछ ऐसी ही नीति उपन्यास के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की भी है ।
उपन्यास में कम्यूनिस्ट पात्रों की उपस्थिति के अतिरिक्त और भी कई वर्गीय सन्दर्भ हैं । उपन्यास में मारे जानेवाले और सबसे अधिक साम्पत्तिक लूट का शिकार बननेवाले पात्रों की वित्तीय पृष्ठभूमि देखा जाए तो सब-के-सब गरीब, मेहनकश, मजदूर, छोटे-मझौले किसान, श्रमिक वर्ग से सम्बन्ध हैं । जानवरों की खाल निकालनेवाला नत्थु चमार, चाय के दुकान चलानेवाला हरनाम सिंह-राजो, बूढ़ा धोबी, बजाजी की दुकान चलानेवाला इकबाल सिंह, निहंग सिंह, इत्रवाला बूढ़ा, किशन सिंह, हरीसिंह, सोनसिंह आदि कई ऐसे पात्र हैं, जो मारे जाते हैं । इन पात्रों की स्पष्टतः पृष्ठभूमि निम्न वर्ग की है । और देखनेवाली बात यह है कि यही वर्ग मध्यवर्ग द्वारा फैलाए गए ज़हर का शिकार भी है, शिकारी भी और तारनहारी भी है । “शहर में लगी आद दो दिनों में गाँवों तक फैल गई । गाँवों में भी वही भय, असुरक्षा, अशंका का वातावरण बनय गया । मस्जिद और गुरुद्वारे में लोग इकठ्ठा होने की जगह बन गए । सुरक्षा की चिन्ता बढ़ी और यहाँ हथियार जुटाए जाने लगे । मोर्चेबन्दी बढ़ गई । जैसे-जैसे तनाव गहराता जा रहा था, सिक्ख परिवार अपने घरों की महिलाओं और बच्चों को गुरुद्वारे में इकट्ठा करने लगे । समूह में सुरक्षा का विश्वास होता है । पूरे गाँव का पूरे सिक्ख परिवार अनपे कृपाणों और बन्दुकों के साथ गुरुद्वारे में जमा हो गए थे । ऐसे में धर्म का भरोसा प्रबल हो जाता है, धार्मिक भजन-कीर्तन इसे और भी अधिक तीव्र कर देते हैं ।”(राय, 2015:14) उधर कसाइयों के मोहल्ले में भी इसी प्रकार का जमावड़ा होता है । इसी प्रकार का जमावड़ा मस्जिद में भी होता है । इसी प्रकार का जमावड़ा मन्दिर में भी होता है । इसी प्रकार का जमावड़ा आर्यवीर के गुरुजी भी करते हैं । इसी प्रकार का जमावड़ा कांग्रेस कार्यकर्ताओं के कार्यलय में, कम्यूनिस्टों के कम्यून में, रिचर्ड के घर-कार्यलय पर आदि कई जगहों होता है । अकेले होते हैं तो वह शिकार नत्थु, हरनाम सिंह, इकबाल सिंह आदि । मध्यवर्ग इस उपन्यास में अधिकांश साम्प्रदायिकता का जहर फैलानेवाला तो है किन्तु इसका न के बराबर प्रभाव इस वर्ग पर होता है । नत्थु को झूठ बोलकर सुअर मरवानेवाला मुरादअली, हिन्दू महासभा के दानवीर प्रधान लाला लक्ष्मी नारायण, लाला और उसके परिवार को दंगों से बचाकर अपने धर्मात्मा होने को सिद्ध करनेवाला किन्तु गरीब नौकर की हत्या करनेवाला, लीग का कार्यकर्ता मौलादाद, बिशनसिंह मनिहारवाले आदि स्थिति को सँभालनेवाले नहीं बल्कि आग में घी का काम करनेवाले साबित होते हैं । जब लाला जी के अपने परिवार और स्वयं पर बात बन आती है तो ये उन्हीं तथाकथित दुश्मनों का सहारा लेकर सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाते हैं ।
दंगों का सर्वाधिक शिकार महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्ग व्यक्ति होते हैं और इसके जहर के शिकार युवा वर्ग के लोग । कुएँ में अपने बच्चों समेत कूदकर अपना प्राण न्यौछावर कर देनेवाली महिलाएँ और राजो, नत्थु की पत्नी हो या लाला जी की बेटी और पत्नी, सभी इसकी शिकार होती हैं । युवावर्ग में लाला जी के पुत्र आर्यवीर के साथ काम करनेवाले सभी लड़के कच्ची उम्र के युवा थे । गुरुद्वारे में युद्ध कमेटी बनाई जाती है, जिसमें मेहनकश वर्ग के सिख सरदार अपने अतीत में लौट जाते हैं, योद्धाओं में परिवर्तित हो जाते हैं । इसका बेहतरीन उदाहरण सरदार हरनाम सिंह और बन्तों को सहारा देनेवाले करीमखान के परिवार से लिया जा सकता है । बलात्कार, खून-खराबे के बीच अल्लाहरक्खा और प्रकाशो की कहानी आती है । प्रकाशो गरीब ब्राह्मण की बेटी थी, जिस पर ताँगा चलानेवाले अल्लाहरक्खा की कई दिनों से नज़र थी । दंगों की आड़ में वह उसे उठा लाता है और जबरदस्ती विवाह कर लेता है । इस स्थिति को स्वाकार करने के अतिरिक्त प्रकाशो के पास क्या कोई और उपाय था? क्या उसके माता-पिता ऐसी भ्रष्ट हो चुकी बेटी को स्वीकार करते ? वे कहते हैं, “हमारे पास आकर क्या करेगी दी, बुरी वस्तु तो उसके मुँह में उन्होंने पहले से ही डाल दी होगी ।”(साहनी, 2011:292) जबकि अल्लाहरक्खा उसे मिठाइयाँ खिलाता है और प्रकाशों अपने माता-पिता की सीमाओं को समझकर स्थिति को स्वीकार कर लेती है । दूसरी तरफ इकबाल सिंह का वाक़या है, जहाँ उसके मुँह में खून टपकता हुआ माँस का लोथड़ा डाला जाता है । वह इस्लाम कुबूल कर लेता है या जान की धमकी देकर करवाया जाता है । कुएँ में कूदकर जान देनेवाली स्त्रियों को कौन कुएँ में धक्का देता है, कौन इकबाल सिंह को इस्लाम कबूल करवाता है? क्या यह इस्लाम या किसी भी धर्म की नैतिकता है? निरीह और मजबूर लोगों के सताए जाने में क्या धर्म एक मूल कारण नहीं है?
दंगा ऐसा मानवनिर्मित आपातकाल होता है, जब सबकी मनुष्यता या इन्सानियत की परीक्षा होती है । यही इन्सानियत रिश्तों की कसौटी बन जाती है । इसे जिन्दा रखने की जद्दोजहद ही आगे के रिश्तों का ग्राफ तय करती है । अपने जीवन भर की मेहनत की कमाई जमीन में घर के पीछ गाड़कर बूढ़ी सिक्ख दम्पत्ति अपना जलता हुआ घर-मकान छोड़कर निकल पड़ती है, विस्थापित होती है । ठीक उसी मैना की भाँति, जो रब्ब राखा का जाप कर रही है । उसी निरीह पंछी की तरह, जिसे रब्ब राखा तो रटा दिया गया है, किन्तु उसी रब्ब के नाम हो रहे दंगों ने ऐसी आजादी दे दी है, जो उसे अपनी ही जड़ों से उखाड़ देती है, अनचाहे एक नयी जीवन-शैली में झोंक देती है, जिसकी वह अब आदि हो चुकी थी । सामाजिक विभेद मनुष्य को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, जहाँ दीवारे ही दीवारे हैं । ऐसे में हरनाम सिंह और बन्तों “तभी वे, गाँव के बार ही, पहले घर के सामने रूक गए । दरवाज़ा बन्द था । बदरंग-सा मोटी लकड़ी का दरवाज़ा । न जे किसका घर था, कौन लोग दरवाज़े के पीछे थे । दरवाज़ा खुलेगा तो क़िस्मत जाने क्य गुल खिलाएगी ।”(साहनी, 2011:206) कम-से-कम एक दीवार में एक दरवाजा तो उन्होंने खोज लिया, जैसे रेग़िस्तान में प्यासे को जज़ीरा मिल जाए । दरवाज़ा खुलता है और उनके द्वारा लगाई गई मदत की आवाज़ को जैसे जवाब मिलता है । इस बूढ़ी दम्पत्ति को सहारा मिलता है, डर क साथ खाट पर बैठाया जाता है “औरत अभी भी लस्सी का कटोर हाथ में पकड़े बन्तों के सामने खड़ी थी । लस्सी के कटोरे की ओर देखकर बन्तों असमंजस में पड़ गई । बन्तों ने आँखें उठाकर पति की ओर देखा, उसका पति उसी की ओर देख रहा था । मुसलमान के हाथ से कटोरा कैसे ले ले? उधर रात-भर की थकान, हलक सूख रहा था । उनकी झिझक को घर की औरत समझ गई ।”(साहनी, 2011:230) वह उन्हें अपने बरतन में पीने को कहती है । तब छूआछूत के मसले को भूलकर वास्तविक दुनिया में आते हैं और उसे ‘अमृत’ समझकर पी लेते हैं और बाद में भी खाना खाते हैं । लेकिन उसके साथ ही वह चेतावनी भी देती है कि “मेरा घरवाला तो अल्लाह से डरनेवाला है, तुम्हें कुछ नहीं कहेगा, पर मेरा बेटा लीगी और उसके साथ और भी लोग भी हैं । तुमसे वे कैसा सलूक करेंगे, मैं नहीं जानती । तुम अपना नफा-नुकसान सोच लो ।”(साहनी, 2011:231) और उसकी चेतावनी सही साबित होती है । आँकरा उसे बता देती है और उसे लूटपाट से वापिस आया उसका बेटा घर से निकल जाने के लिए कहता है । वह हरनाम सिंह के घर और दुकान को लूटकर ही वापस आ रहा था । जब उसे घर से निकाल दिया जाता है, वह और उसे छोड़ने कुछ दूर तक आती है और साथ में उसकी सन्दुक में से निकली गहनों की पोटली उनकी खैरीयत की दुआओं को साथ लौटा देती है । यह मानवता का गुण, संकट में भी मदत करने की परम्परा यदि सदियों तक भी चलती रही, तो हमें परम्परावादी होने में कोई शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए । जहाँ मुस्लिमों को अति-सम्प्रदायिक कह कर, क्रूर कौम कहकर धुतकारा जाता है, वहीं ऐसा प्रसंग भी कम नहीं है, इसे भी याद रखना चाहिए । इसके बरअक्स इसी उपन्यास का वह प्रसंग भी याद करना चाहिए जब एक व्यक्ति कुएँ में कूदकर शहादत देनेवाली अपनी पत्नी जेवर काटकर निकालने के लिए रिश्वत तक देने के लिए तैयार होता है । जब अधिकारी मना करता है और लानतें-मलामतें भेजते हुए कहता है कि लाशें फूलकर बाहर आ रही होगीं तो वहह बड़ी बेशर्मी से जवाब देता है, “यह तुम मुझ पर छोड़ दो वीरजी, मैं कड़े देखकर ही पहचान लूँगा । पाँच-पाँच तोले का एक कड़ा है । कले में सोने की ज़जीरी है । अब घरवाली डूब मरी, जो सबके सामने हुई है, वह मेरे साथ भी हुई है, पर ये कड़े और ज़जीरी मैं कैसे छोड़ सकता हूँ वीरजी?... घन्ना-हथौड़ी साथ लेकर चलेंगे । कहोगे तो किसी सुनार का कोई छोकरा भी साथ ले लेंगे । मिनटों में काम हो जाएगा । काम करने की नीयत हो तो सब-कुछ हो सकता है ।”(साहनी, 2011:287) यहाँ यह स्पष्ट करना हमारा उद्देश्य है कि मानवता किसी का धर्म देखकर नहीं देखी जानी चाहिए । वक्त-ए-जरूरत में कहीं किसी के काम बिना किसी भेदभाव के आना चाहिए, मदत करनी चाहिए । इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानवतावादी होने के लिए किसी खास धर्म के अनुयायी होनी की आवश्यकता भी नहीं, किसी भी धर्म का व्यक्ति मानवतावादी हो सकता है । इन्सानियत के नाते इन्सान के काम आ सकता है, यह उसकी फितरत में होता है, किन्तु धर्म उस पर कुछ देर के लिए पर्दा डाल देता है । ठीक इसी प्रकार किसी खास धर्म के लोग कट्टर अथवा अमानवीय नहीं होते है । हर पत्थर के नीचे एक झरना बहता है । कुछ अधिक गहरा होता है, कुछ सतह पर । किसी खास धर्म के कारण लोगों को अमानवीय या अधिक मानवीय नहीं कहा जाना चाहिए । इन दो प्रसंगों की तुलना से इस बात को सीखा जा सकत है ।
उपन्यास में रिचर्ड कई बुद्ध की मूर्ति और भारतीय उप-महाद्वीप के सुदूर अतीत, इतिहास, विभिन धर्मों के बावजूद भारतीय लोगों के एक ही नस्ल के होने, थोड़े से भड़काने से आपस में लड़ने, राष्ट्रीयता के उभार, भारतीयों के एक होने के खतरे आदि बातों की चर्चा अपनी पत्नी लीज़ा से करता है । वह भारतीयों के बारे में बहुत कुछ जानता है । वह प्रशासन के सर्वोच्च पद पर ब्रिटीश हुकुमत के नुमाइंदे के रूप में विराजमान है । न केवल पद में बल्कि काम करने का ढंग और राजनीति करने की पद्धति दोनों स्तरों पर वह औपनिवेशिक शासन के प्रतीक रूप में आया है । रिचर्ड का निजी जीवन पूर्णतः अस्तव्यस्त है और यही व्यवहार उसके जनता के नुमाइंदों से मिलने के क्रम में दिखाई देता है । उसका सम्पूर्ण व्यवहार औपनिवेशिक शासन की नीतियों से तय होता है । रिचर्ड की बहानेवाज़ी शहर से लेकर गाँव तक मौत का तांडव खड़ा कर देती है । दंगों में हुई मौतों को जिम्मेदार जितना दंगे भड़काने के लिए सुअर कटवाकर डलवानेवाला मुरादअली है, नीली ब्यूकवाला हथियार बाँटनेवाला है, उतना ही रिचर्ड माना जाना चाहिए । वक्त रहते यदि वह यह सब रुकवा देता तो इतनी मौते नहीं होती । किन्तु उसके आकाओं की नीति इसकी इजाज़त नहीं देती । डिप्टी कमीश्नरी के पद पर रहकर उसने जो छल-प्रपंच का वातावरण निर्माण किया है, लीज़ा भी उसकी शिकार होती जाती है, उसका नर्वस ब्रेकडाउन होता है । लीज़ा ठीक उसके उल्टे हैं । वह जितना इतिहास का ज्ञान रखता है उतना लीज़ा को नहीं है । यही अज्ञान उसे भोला, यथार्थ वादी और आज की दुनिया में बनाए रखता है । रिचर्ड खंड़हरों में दिलचस्पी रखता है । इतिहास उसकी रुचि का विषय है । नतिजतन वह वर्तमान को इतिहास बना देना चाहता है । समाज को खण्डहर के रूप में देखता है । प्रत्येक व्यक्ति की धार्मिक पहचान उसने अपने दिमाग में बसा रखी है । प्रत्येक भारतीय उसके लिए हिन्दू, मुसलमान या सिक्ख है । व्यक्ति नहीं । उसके व्यंग्य मे काँइयाँपन झलकता है । वह मशीन की तरह व्यक्तिगत भावनाओं के परे जाकर काम करने का आदि हो गया है । उत्तेजनापूर्ण वातावरण भी उसमें इन्सानियत का निर्माण नहीं कर पाता है । वह कहता भी है “इसमें कोई विशेष बात नहीं है लीज़ा, सिविल सर्विस हमें तटस्थ बना देती है । यदि हम हर घटना के प्रति भावुक होने लगे तो प्रशासन एक दिन भी नहीं चल पाएगा ।”(साहनी, 2011:228) कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत ने यही प्रशासन का ढांचा आज़ादी के बाद भी स्वीकार किया, जिसके साथ सारी प्रवृत्तियाँ भी चली आयी हैं । रिचर्ड जैसे पात्रों के सन्दर्भ में भीष्म साहनी ने अपे एक साक्षात्कार में कहा था, “रागात्मक संबंध केवल उन्हीं पात्रों से नहीं होता, जिन्हें आप चाहते हैं, यह उनके साथ भी होता है जो उनके जीवन में विष घोलते हैं, ऐसे पात्रों को लेकर आप क्रुद्ध नहीं होते, लज्जित महसूस करते हैं, क्योंकि वे आपके अपने लोगों में से हैं । उनके दुर्व्यवहार की चोट आप कहीं ज्यादा महसूस करते हैं ।”(साहनी, 2004:243)
वक्त के बीत जाने और अपना काम कर जाने के बाद आखिरकार अमन कमेटी प्रशासन की मदत से अपना रेफ्यूजी कैम्प खोलती है । यहाँ लोगों के जान-माल के नुकसान की सूचना एकत्रित की जाती है । वह आंकड़े चाहती है, भावनाएँ नहीं । वह सूचना एकत्रित करना चाहती है, कहानियाँ नहीं । किस्से नहीं । वह इन्सान को आँकड़ों में बदल देती है । देवदत्त जब कहता है कि एक कॉलम और जोड़ जोड़ दो अपने रजिस्टर में कि कितने गरीब मरे हैं और कितने अमीर, तब सूचना इकठ्ठा करनेवाला इसकी आवश्यकता महसूस नहीं करता । तब देवदत्त कहता है, इससे बहुत कुछ सामने आएगा । वह सामने आता है, सूचनाओं में नहीं, अमन कमेटी की मीटिंग के बाहर प्रांगण में । यहाँ प्रत्येक पार्टी के नामी-गिरामी व्यक्ति इकठ्ठा होते हैं । शहर के तथाकथित इज्जतदार लोग । घर, मिल्कियत खरीदी बेची जाती है । दंगों के पीछे के मूल कारण के रूप में अन्ततः सम्पत्ति सामने आती है । “शहर में फ़साद होने के बाद एक लहर-सी चल पड़ी थी, जिस इलाके में मुसलमानों की अक्सरियत थी, वहाँ से हिन्दू-सिक्ख निकलने लगे थे, और जिन इलाकों में हिन्दू-सिक्खों की अक्सरियत थी, वहाँ से मुसलमान घर-बार बेचकर निकल जाना चाहते थे ।”(साहनी, 2011:299) अमन कमेटी का दिखावा और राजनीतिक रोटियाँ सेकने की सभी पार्टियों के कार्यकर्ताओं की पोल इस बात से भी खुल जाती है कि अमन कमेटी का अध्यक्ष कौन होगा और कितने उपाध्यक्ष होंगें इस विषय पर नूराकुश्ती लड़ते हैं । प्रत्येक को अमन कमेटी में प्रतिनिधित्व चाहिए, क्योंकि सबको अपने अपने धर्मों का मसीहा बनना है । अमरिकन प्रिंसिपल को अध्यक्ष बनाया जाता है । उसे रचनाकार बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से निरपेक्ष लिखते हैं । वह भी रिचर्ड जितने की पढ़े लिखे और प्रभावी हैं, किन्तु दंगों के दौरान नदारत रहते हैं । जैसे जलते रोम में नीरो बाँसुरी बजा रहा हो ।
दंगों का मकसद क्या हो सकता है सिवाए इसके कि जनता की एकता को तोड़ा जाए । सालों से बेहिचक, बेझिझक साथ रहने-खाने-खेलनेवालों के मन में भय, संशय और टूटन निर्माण कर दिया जाए । “क्या बातें करते हो बाबूजी, अब यह ख़्याल ही दिमाग़ से निकाल दो । अब हिन्दुओं के मुहल्ले में न तो कोई मुसलमान रहेगा और न मुसलमानों के मुहल्ले में कोई हिन्दू । इसे पत्थर पर लकीर समझो । पाकिस्तान बने या न बने, अब मुहल्ले अलग-अलग होंगे, साफ़ बात है ।”(साहनी, 2011:300) यह हासिल कर लिया जाता है । शहरों में भी और गाँवों में भी । इतिहास के प्रति भावनात्मक रवैये का फायदा उठाकर उसे विषैला बना दिया जाता है । लेकिन क्या इस समस्या को औपनिवेशिक शासन या मुरादअली पर थोपकर हम चैन से बैठ जाए, उपन्यास में आए कांग्रेसियों की तरह, या फिर बक्शी, खुदाबक्श, देवदत्त जैसे इससे निपटने के लिए तैयार रहे । क्या मुरादअली के मात्र सुअर कटवाकर डाल देने से दंगे भड़के या फिर बक्शी जी के उसे हटा दिए जाने से टले क्यों नहीं । दरअसल हमारे समाज में इतनी नफरत भर दी गई है, इतिहास और अन्य कौमों-धर्मों के प्रति हमें इतना मुर्ख बना दिया गया है कि हमें सिर्फ एक ‘ट्रिगर’ की आवश्यकता है । एक चिन्गारी मात्र की । हमारे मनों में बारूद भर गया है । हम मुरादअली जैसों को रहनुमा बना बैठेंगे और औपनिवेशिक शासन की तरह अपने ही लोगों धर्म मात्र के विभाजन से देखते रहेंगे, तब तक यह जहर फैलता रहेगा । जहाँ लगता है सारे वातावरण में तुफान के बाद की शान्तता छायी हुई है, दंगे थम गए हैं, वहाँ उपन्यास के अन्त में भी बक्शी जी द्वारा “चीलें उड़ेंगी, और अभी उड़ेंगी”(साहनी, 2011:310) किस और इंगित करता है । बक्शी जी ने ऐसा मुरादअली को देखकर कहा, जहाँ “तभी ड्रायवर की साथ वाली सीट पर बैठे मुरादअली ने फिर नारे लगाना शुरु कर दिया और गूँजते नारों के बीच अमन की बस अपने शान्ति-अभियान पर निकल पड़ी ।”(साहनी, 2011:310)
जैसाकि पहले संकेत किया जा चुका है, उपन्यास के सारे वातावरण में अँधेरा छाया हुआ है । ऐसा नहीं है कि रचनाकार आशावादी नहीं है, किन्तु वह झूठे आशावाद से कठोर यथार्थ अधिक बेहतर होता है । खासकर जब उस यथार्थ के प्रति समाज को संगठित करना हो, उसके खिलाफ प्रतिरोधी स्वर को अधिक मुखर करना हो । वह लीजलीजी नालियाँ, सुअर को मारने से शुरु होनेवाला सामाजिक वातावरण, वातावरण में उमस छाते ही पीर, बाबाओं, स्वामियों का वृत्त में प्रवेश, वह अंग्रेज परस्ती और उसे पुख्ता करती मिथकीय कहानियाँ, अँधेरे में टिका दी गई बुद्ध की प्रतिमाओं की भाँति बुत बना प्रशासन-शासन, पश्चाताप की आग में झुलसकर शराबखानों से रंडिखानों तक जाते नत्थु के लड़खड़ाते पैर, हरनाम सिंह-बन्तों का पिंज़रों के क्यारियों में लगती आग, इकबाल सिंह के मुँह में ठूँसा जाता खून से सना माँस का टुकड़ा, जनरैल का समाज से बेसुरा राग, कुएं में बच्चों समेत कूदती स्त्रियाँ-बालिकाएँ, पिता की उम्र के इत्रवाले को मारता आर्यवीर, बेबस नौकर को धोखे से क़त्ल करता शाहनवाज़, अपनी माँ की रक्षा न कर पाने के कारण बूढे धोबी के सीने में तलवार उतारता नीहाल सिंह, फूली हुई लाश से गहने उतारता पति जैसे अमानवीय महौल में रचनाकार सारे गाँव-शहर घूमता है । देखता-दिखात हुआ, ढूँढ़ता हुआ कि कहाँ इन्सानियत जिन्दा है । वह कांग्रेसियों के तामीरी काम, बक्शी जी के मस्जिद की सीढ़ियों से सुअर निकालकर सीढ़ियों के ढोने, इकबाल सिंह की जीजीविषा और सहनशक्ति, बुद्ध की मूर्ति पर लटके लैम्प, लीज़ा के उसके प्रति भयावह व्यवहार, नत्थु के अपनी पत्नी के आगे किए गए ‘कन्फेशन’, बन्तो-हरनाम के सहारा बनकर आनेवालों, बन्तों के गहने लौटानेवालों, नीहाल सिंह के फुफकारों में आशावाद देखता दिखाता है । जिन्हें ‘अछूत’ मानकर गाँव-गली-शहर से बाहर रखा जाता है ऐसी भंगी बस्तियों, चमार बस्तियों में कोई दंगा नहीं होता । न कोई खून खराबा, न कोई डर । “आगे चलकर कुछ कच्चे घर थे, जिनकी दिवारों पर गोबर की थापियाँ लगी थीं, यह इलाका सुनसान पड़ा था । यह भंगियों की बस्ती थी । ...बिजली की खम्भों की इर्द-गिर्ग बच्चे, एक दूसरे को पकड़ने की कोशिश करते हुए घूम रहे थे ।”(साहनी, 2011:149) यह वर्णन देखने से सिर्फ वातावरण निर्माण या शाहनवाज की आँखों देखी लग सकता है, किन्त वास्तव में यह एक कन्ट्रास्ट है । कन्ट्रास्ट उस स्वयं को सभ्य माननेवाले समाज से, जो दंगों की आग में खुद को खत्म कर रह है, और इन अछूत कहेजानेवाले, कई बार तो इन्सान ही नहीं मानेजानेवाले लोगों में इन्सानियत का । यहाँ दिखता है रचनाकार का आशावाद । वास्तव में यह उपन्यास मानवनिर्मित अमानवीय समय में मानवीयता की तलाश करता हुआ गली-कूचे-गाँव-शहर, मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारे सभी जगहों पर पहुँचता है । जहाँ कहीं उसे थोड़ी-सी रौशनी मिलती है, वहाँ थोड़ा ठहकर निहारता है और आगे अपने मिशन पर निकल पड़ता है । वह ऐसे लोगों को ढूँढ़ता फिरता है “जो मुसिबत में लोगों का हाथ पकड़ते हैं ।”(साहनी, 2011:148) ऐसे हाथ पकड़नेवालों को सराहता है, तलाशता है और अविश्वास के वातावरण में विश्वास जगाता है ।
संदर्भः-