बलवंतराय कल्याणराव ठाकोर की आलोचना दृष्टि
(23-10-1869, 02-01-1952)
गुजराती आलोचना में रमणभाई नीलकंठ, आनंदशंकर ध्रुव, नरसिंहराव दिवेटिया जैसे साक्षरयुग के आलोचकों में ब.क. ठाकोर का महत्त्वपूर्ण स्थान है । ब.क. ठाकोर साक्षरयुग के आलोचकों में प्रतिभाशाली आलोचक माने जाते हैं । गुजराती की समकालीन ही नहीं परवर्ती आलोचना पर भी अन्य समीक्षकों की तुलना में उनका गहरा प्रभाव पड़ा है । उन्होंने अपने साहित्य विवेचन में ऐतिहासिक और तुलनात्मक दृष्टि से साहित्य की आलोचना की है । गुजराती साहित्य में ब.क. ठाकोर ने कवि, नाटककार, कहानीकार, निबंधकार, चित्रकार, इतिहासकार, व्याख्यानकार, प्रवेशककार, अवलोकनकार, संचयकार, संशोधक, अनुवादक के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है । ब.क. ठाकोर ने गुजराती साहित्य में एक कवि के नाते महत्त्वपूर्ण तो है ही, एक आलोचक के रूप में भी अपनी कलम चलाई है ।
ब.क. ठाकोर के विवेचन ग्रंथों में ‘कविता शिक्षण’ (1924),‘लिरिक’ (1928), ‘नवीन कविता विशे व्याख्यानों’ (1943), ‘विविध व्याख्यानों’ गुच्छ 1 (1945), ‘विविध व्याख्यानों’ गुच्छ 2 (1948), ‘विविध व्याख्यानों’ गुच्छ 3 (1956), ‘प्रवेशकों’ गुच्छ 1 (1959), ‘प्रवेशकों’ गुच्छ 2 (1961) आदि का समावेश होता है ।
ब.क. ठाकोर की आलोचना पर भारतीय काव्यमीमांसा और पाश्चात्य काव्यमीमांसा का गहरा प्रभाव पड़ा है । उन्होंने इस बात का खुद स्वीकार किया है कि ‘‘मेरे काव्यतत्व पर यूरोप के साहित्यकारों और दर्शन की सौंदर्यमीमांसा का गहरा प्रभाव है ।’’[1] आगे लिखते हैं : ‘‘प्लेटो और एरिस्टोटल से लेकर आज तक पाश्चात्य मीमांसा की मैंने कई बार छानबीन की है । ‘काव्यप्रकाश’ और ‘रसगंगाधर’ की सौंदर्य पर्येषणा में प्रवेश किये पचास से ज्यादा वर्ष बीत गये है । बीच-बीच में मैंने भरत से लेकर क्षेमेन्द्र तक के चिंतकों के मौलिक सिद्धांतों के बारे में भी सोचा है..... सौंदर्य और कला की भारतीय पर्येषणा इन विषयों की यूरोपीय पर्येषणा के मुकाबले में जरा भी निम्न और कम नहीं है ।’’[2] इस प्रकार ब.क. ठाकोर की आलोचना दृष्टि तुलनात्मक रही है । उनको भारतीय और पाश्चात्य साहित्यमीमांसा का ज्ञान था, इन दोनों मीमांसाओं से परिचित थे । इसलिए उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यमीमांसा की परस्पर तुलना की है । इन दोनों विचारधारा में से किस विचारधारा का अधिक प्रभाव पड़ा होगा, यह एक जटिल प्रश्न है । किन्तु ब.क. ठाकोर ने अपने आपको अज्ञेयवादी कहा है । इसलिए उपर्युक्त प्रश्न का समाधान अपने आप ही हो जाता है ।
ब.क. ठाकोर का प्रथम आलोचना ग्रंथ ‘कविता शिक्षण’ 1924 में प्रकाशित हुआ था । शीर्षक से ही पता चलता है कि इस ग्रंथ में कविता की शिक्षा देने की बात कही गई है । उन्होंने जगह जगह पर काव्य की अनेक परिभाषाएं दी है । ‘लिरिक’ निबंध में उत्तम कविता की परिभाषा देते हुए वे लिखते हैं : ‘‘सुस्पष्ट, कल्पनोत्थ, मधुर, सुष्ठु, तेजोमय, हृदयवेधी, भव्य गंभीर गुणोंवाली कविता ही उत्तम कविता है, ऐसी ही कविता, कविता ही उत्तम कविता है, ऐसी ही कविता, कविता का गौरव बढ़ा सकती है।’’[3] जिस कविता में उपर्युक्त लक्षण या गुण होंगे उस कविता को उन्होंने श्रेष्ठ कहा है । उपर्युक्त कविता की परिभाषा को देखते हुए एक बात तो स्पष्ट है कि ब.क. ठाकोर ने उसमें कविता के लिए विशेषणों का ढेर लगा दिया है, जो कतई आवश्यक नहीं था । एक और काव्य की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं : काव्य कोई अलौकिक, दिव्य या रहस्यमय वस्तु या पदार्थ नहीं है किन्तु काव्य तो कला और कल्पना के सुभग समन्वय से विशिष्ट शैली में सृजित, सहृदय को पसंद आये ऐसी सुन्दर मूर्ति है ।’’[4] आगे वे लिखते हैं “ काव्य यानि सीमाओं से स्पष्ट अंकित पद या एक पुद्दगल अर्थात् व्यक्तित्व या आत्मा जैसी है ऐसा प्रतिबिंब शक्तिशाली, कल्पना और कला के सहधर्म से सिद्ध, विशिष्ट शैलियों से सृजित देखते ही देखते समझ बढ़े ऐसा चमत्कार करनेवाली, सहृदय के स्मरणों और स्वप्न में भी याद रह जाये और किमपि द्रव्य बने ऐसी सुन्दरमूर्ति है ।’’[5]
गुजराती आलोचना में ब.क. ठाकोर विचार प्रधान कविता के आग्रही रहे हैं । उन्होंने कविता में विचार अर्थात् बुद्धितत्व का स्वीकार किया है । विचार प्रधान कविता पर बल देने के कारण ही उन्होंने सर रमणभाई तथा नर्मद ने गुजराती आलोचना में जिस काव्य सिद्धांत की स्थापना की थी, उसका खंडन किया है । गुजराती आलोचना में ब.क. ठाकोर द्वारा विचार अर्थात् बुद्धितत्व का स्वीकार करने से एक भ्रम यह भी फैला कि उन्होंने गीतितत्त्व का त्याग कर दिया है, किन्तु यह बात सच नहीं है । उन्होंने काव्य में गीतितत्त्व का आंशिक स्वीकार भी किया है । इस संबंध में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं - ‘‘काव्य में गीतितत्त्व होना चाहिए गीति शून्य तो कविता नहीं, कविता हृदय का व्यापार है और उसमें हृदय को स्पर्श करने की शक्ति होनी चाहिए ।’’[6] उन्होंने ‘लिरिक’ की चर्चा करते समय कविता में गीतिप्रधानता को आवश्यक माना है । वे कहते हैं कि : ‘‘मैं तो कविता में दूसरे गुणों के साथ-साथ उर्मिवत्तता का गुण आवश्यक मानता हूँ, और किसी भी कविता को लिरिक कह सकूँ इसके लिए उसमें गीतिवत्तता से ज्यादा गीतिप्रधानता को जरूरी मानता हूँ ।’’[7]
ब.क. ठाकोर ने कविता में विचार को अत्यधिक महत्त्व दिया है । उन्होंने विचारप्रधान कविता को ‘उत्तम द्विजोत्तम कविता’ कहा है । उनका स्पष्ट मानना है कि ‘‘कविता ही है विचारप्रवाह’’ और ‘‘विचार प्रवाह ही कविता की आत्मा है ।’’ उन्होंने कविता में विचार के साथ-साथ कल्पना और गीतितत्त्व को भी आवश्यक माना है। ऐसा कौन सा कारण था कि उन्होंने विचार प्रधान कविता को आवश्यक माना ? इस प्रश्न का उत्तर है कि सुधारक युग और उसके बाद के आलोचकों ने कविता में संवेदना, गीतितत्त्व और भावुकता को ही सब कुछ मान लिया था । कविता में बुद्धि तत्त्व अर्थात् विचार को गौण मान लिया गया था । ब.क. ठाकोर की विचारप्रधान कविता पर टिप्पणी करते हुए शिरीष पंचाल ने अपनी पुस्तक ‘वात आपणा विवेचननी’ में लिखा हैं : ‘‘गुजराती कविता को गेयता, भावुकता के अधिक आक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने विचारप्रधान कविता का बलपूर्वक प्रचार किया था, उन्होंने एक प्रकार से विचारप्रधान कविता के लिए जेहाद यहां तक लगायी कि जिससे उनकी खुद की कविता विचारप्रधान बन गई, उनके काव्य विभावन के केन्द्र में विचार प्राधान्य ही रहा ।’’[8]
ब.क. ठाकोर ने कला के बारे में सूक्ष्म चिंतन किया है । उन्होंने कला में ‘धर्मभावना’ और ‘नीतिभावना’ को अनिवार्य माना है । प्लेटो और टोल्सटोय ने कला पर जो आक्षेप किये थे उसका खंडन करते हुए उन्होंने कला को हीन नहीं बल्कि पूज्य और देवी के रूप में कल्पना की है । वे कहते हैं कि ‘‘काव्य और कला तो देवियाँ है, दीर्ध, अविरत श्रद्धा की, जिस पर जितनी रीझती है उसका उतना अहोभाग्य ।’’[9] उनके मतानुसार कला तो धर्म और दर्शन की भाँति मति, हृदय, कल्पना और आत्मा का आविर्भाव है । सभी कलाओं में धर्म और दर्शन मनुष्यात्मा की उच्च भावनाओं में से प्रकट होती है और वे सर्व मानव संस्कृति के उन्नति साधक है । फिर भी प्रत्येक का धर्म और लक्षण भिन्न-भिन्न होता है । इस प्रकार ब.क. ठाकोर ने धर्म, दर्शन और कला के बीच एक सूक्ष्म भेद रेखा खींच दी है ।
ब.क. ठाकोर ने कला और जीवन के बीच अभिन्न संबंध माना है । परंपरागत भारतीय कला विचार का आधार लेकर वे कहते हैं - ‘‘कला की जड़ों के लिए जीवन ही जमीन है, कला अपने पोषण के लिए रस से भरपुर जीवन जमीन और जीवन रूपी परिवेश में से प्राप्त करती ।साथ ही साथ यह भी सही है कि कला उस रस से भरपूर पोषण के कर्ज का बदला ब्याज के साथ दे देती है । उच्चकोटि के सर्जन द्वारा, जो जीवन को भी शोभायमान करने, व्यवस्थित करने, सजावट करने, सुधार करने में और इससे भी ज्यादा समृद्ध और उदात्त बनाने में समर्थ होती है । कला प्रवृत्ति जीवन के मुख्य प्रवाह से बदल जानेवाली हीन प्रवृत्ति नहीं है ।’’[10] साक्षरयुग के किसी भी विवेचक ने कला और नीति के प्रश्न की चर्चा करते समय कला की स्वायत्तता का स्वीकार नहीं किया । उनकी दृष्टि में तो कला नीति विरोधी नहीं हो सकती । ब.क. ठाकोर ने कभी भी कनैयालाल मुनशी की तरह कला और नीति के बीच संघर्षात्मक भूमिकाओं की बात नहीं की है ।[11]
रस विषयक चिंतन में ब.क. ठाकोर ने मुख्यतः शृंगार, करूण, वीर, हास्य आदि रसों की चर्चा की है । उन्होंने शृंगार और करूण को मुख्य रस माना है । ये दोनों रस कविता से अधिक संगीत के द्वारा बहुत ही सुन्दर ढ़ंग से व्यक्त हो सकते हैं । लिखते हैं : ‘‘शृंगार रस और करूण रस जितने प्रमाण में शब्दों में आविर्भाव होता है उतना ही रक्त में भी । रक्त के प्रवाह को रसमय करने का काम स्फुटार्थ कविता से भी अधिक संगीत का तान करता है । कविता जहाँ नहीं पहुँच पाती वहा रस में संगीत अधिक गहराई तक पहुँच जाता है । क्योंकि वह रक्त के प्रवाह के साथ रस के स्वामित्व की स्थापना करता है ।’’[12] ब.क. ठाकोर ने रस की ‘आत्मा’ के रूप में ‘जीवनरस’ का उल्लेख किया है ।
ब.क. ठाकोर ने कवि के तीन भेद किए हैं (1) कवि (2) उपकवि और (3) महाकवि । इन तीनों को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं : ‘‘अनेक जमाने तक जिसकी सर्जकता सजीवन और असरकारक रहे, काल की परम्परा को जो तैरते-तैरते पार कर ले वो ही सर्जक सच्चा कवि है, जुगनू, कीड़े जैसे थोड़े और अल्पजीवी दीप्ति वाले तो मात्र उपकवि है और विरोध दिशा में जो स्थिर तेजस्वी कृतियों, उदात्त भावों, भव्य ध्वनियों और समुचित कला के द्वारा हृदय, बुद्धि, कल्पना और समग्र चित्ततंत्र को सदियों तक अनन्य मुद्रा और विशिष्ट पोषण करने में समर्थ हो ऐसी कृतियों के सर्जक ही महाकवि होते हैं ।’’[13]
उन्होंने महाकवियों के दो भेद किये हैं : (1) अमर कवि और (2) विशिष्ट युग के महाकवि । कालिदास, होमर और शेक्सपीयर जैसे कवियों को अमर महाकवियों में स्थान दिया है, जबकि प्रेमानंद को विशिष्ट युग का महाकवि माना है । इसके अलावा कवि और महाकवि के भेद में उन्होंने नर्मद, नरसिंहराव और कलापी को कवि तथा वाल्मीकि, भवभूति और कालिदास को महाकवि माना है ।
गुजराती आलोचना में ब.क. ठाकोर ने अपनी विशिष्ट विचारधारा प्रस्तुत करके कविता के संदर्भ में नवीन प्रयोग किये हैं । उनका मानना था कि पद्य की अनियंत्रित और प्रवाहित रचना से ही कविता माधुर्य साध्य होती है । महाकाव्य की रचना नहीं हो सकती ऐसे ब्लेंक वर्स (Blank verse) का उचित पर्याय मुक्त छंद या अप्रास छंदरचना नहीं, किन्तु अगेय अथवा तो यति स्वातंत्र्य विशिष्ट छंद रचना है । ब.क. ठाकोर ने कविता के लिए छंद का बंधन जरूरी नहीं माना है । रूढ़ छंदों में गेयता का बंधन होता है । छंद में प्रवाहिता के प्रयोग को आवश्यक माना है । उन्होंने कविता में प्रास को आवश्यक नहीं माना है । ब.क. ठाकोर ने पिंगलशास्त्र का भी अभ्यास किया था, जिसका स्पष्ट प्रभाव उनकी छंद चर्चा पर देखा जा सकता हैं । उन्होंने शुद्ध अगेय पद्य की तुलना अंग्रेजी के ब्लेंक वर्स (Black verse) के साथ की है । उनके अनुसार अगेय और प्रवाही पद्य प्राचीन छंदों और मध्यकालीन गुजराती छंदों में नहीं मिलता है । ऐसा पद्य तो एकमात्र ‘पृथ्वी’ छंद में ही लिखा जा सकता है ।
तत्कालीन गुजराती साहित्य पर ब.क. ठाकोर का गहरा प्रभाव पड़ा था । वे एक विद्वान कवि, आलोचक और अनुवादक थे । नवीन सर्जकों को प्रेरणा देते हैं कि उनको दूसरी भाषा की कृतियों का अनुवाद करना चाहिए । उनकी दृष्टि में अनुवाद की प्रवृत्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने खुद दूसरी भाषा की महत्त्वपूर्ण कृतियों का अनुवाद किया है तो कई अनुवादित कृतियों पर प्रवेशक भी लिखे हैं । उन्होंने बंकिमचन्द्र कृत ‘रजनी’ और ‘आनंदमठ’, गोल्डनस्मिथ कृत ‘तजायेलु तिलक’, टागोर कृत ‘कुमुदिनी’ तथा ‘मेघदूत’ आदि अनुवादित कृतियों पर प्रवेशक लिखे हैं । ब.क. ठाकोर एक ऐसे आलोचक थे जो सिर्फ मातृभाषा तक ही सीमित नहीं रहते । उनके समय में गुजराती कविता पर संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी साहित्य का प्रभाव पड़ा था पर इससे उनको संतोष नहीं हुआ । वे जर्मन कवि गेटे की तरह विश्व साहित्य के आदर्श को अपनाने की बात करते हैं । वे अंग्रेजी की तरह यूरोपीयन भाषा का ही नहीं, बल्कि चीनी, जापानी, अरबी, हिब्रु आदि भाषाओं में से उत्तम साहित्य का अनुवाद करने पर बल देते है । इस संदर्भ में वे लिखते हैं : ‘‘प्रत्येक भाषा के इतिहास में अनुवाद का युग आता है और आना चाहिए । किसी किसी प्रजा में प्रतिभा-संपन्न साहित्यकार पैदा होते हैं और उसका साहित्य एकदम नया प्रकाश फैलाता है, जिससे उसकी किरणें महदअंश में अविकसित भाषाओं और उसकी सजीवन प्रजा पर पड़ती है । भाषा अधिक समृद्ध, सजीवन और विकसित हो तो उनमें जिज्ञासा को तृप्त करने की शक्ति अधिक होती है । इससे विपरित, जो साहित्य और जो प्रजा कमजोर है उसको दूसरों से डर लगता है, उसको लगता है कि दूसरे के स्पर्श से तो अस्पृश्य हो जाएगा, फिर भी चोरी छूपी लाभ लेता है, अपनी स्वतंत्र शक्ति के बारे में कोई क्या सोचेगा, इन सबका स्पष्ट कारण संकोच है ।’’[14]
ब.क. ठाकोर ने आलोचना का धर्म, उसकी कार्य पद्धति की विस्तार से चर्चा की है । उनका मानना है कि ‘साहित्य की शुद्धि का संरक्षण करना और उसका पोषण करना’ समीक्षा का धर्म है । उन्होंने विवेचन को कलासखी तथा शास्त्रसखी माना है । लिखते हैं : ‘‘विवेचना कलासखी है उसी प्रकार शास्त्रसखी भी है, कविता और साहित्यकृतियों के गुण-दोष, नीति, प्रकार, सिद्धि, कलासामग्री की जाँच करना आलोचना का प्रिय कार्य है । प्रसिद्ध उदाहरणों के साथ नवीन उदाहरणों को रखकर उसकी तुलना करके उसमें भेद देखना, साम्यता दिखाना विवेचना की प्रिय पद्धति है । ऐसा करते करते कलामीमांसा, रसशास्त्र और वाङमय से संबंधित वर्णनप्रधान और व्यवस्थापक (Normative) विज्ञान की रचना होती है ।’’[15] ब.क. ठाकोर ने विवेचक कैसा होना चाहिए ? उसका विवेचन साहित्य के लिए कितना उपयोगी हो सकता है? आदि प्रश्नों पर भी अपने विचार व्यक्त किये हैं । उनके मतानुसार आलोचक साहित्य का मनन और मार्ग सूचन करनेवाला होना चाहिए ।
गुजराती आलोचना में ब.क. ठाकोर ने सैद्धांतिक आलोचना के साथ व्यावहारिक आलोचना भी की है । उन्होंने अपनी आलोचना में मूर्त विवेचन पद्धति को अपनाया है और यही पद्धति उनको वस्तुलक्षी विवेचन की और ले जाती है । उनकी आलोचना में कोई निश्चित मानदंड नहीं दिखाई देता । ऐतिहासिक, कृतिनिष्ठ, तुलनात्मक और प्रकारनिष्ठ आलोचना के सिद्धांत उनकी आलोचना को परस्पर उपकारक हुए है ।
साक्षरयुग के लगभग सभी आलोचकों ने ‘सरस्वतीचन्द्र’ उपन्यास की आलोचना की थी ।‘सरस्वतीचन्द्र’ उपन्यासकार की प्रशंसा करते हुए ब.क. ठाकोर ने लिखा है : ‘‘कर्ता की कल्पना में वास्तविकता का गुण ‘सरस्वतीचन्द्र’ में जहाँ देखते है वहाँ हमारी आँखों को प्रिय लगे उतने प्रकाश को प्रकाशित कर देता है ।’’[16] किन्तु एक बात यह भी है कि ‘सरस्वतीचन्द्र’ उपन्यास की विस्तृत आलोचना करनेवाले इस आलोचक ने कनैयालाल मुनशी और रमणभाई की लोकप्रिय उपन्यासों की कोई चर्चा नहीं की है, लगभग मौन बने रहे हैं । शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ की उन्होंने प्रशंसा की है, तो उनके द्वारा की गई कालिदास के ‘मेघदूत’ की चर्चा भी आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण बनी हुई है । प्रेमानंद कृत ‘नलाख्यान’ में कृत्रिम अलंकार कारीगीरी की टीका भी की है।
साक्षरयुग के इस आलोचक पर भारतीय काव्यशास्त्र और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का प्रभाव पड़ा है फिर भी उनके काव्यचिंतन पर भारतीय काव्यशास्त्र की अपेक्षा पाश्चात्य ग्रीक चिंतकों और दर्शन की सौंदर्य मीमांसा का अधिक प्रभाव पड़ा है । उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि ‘मैं पश्चिम के प्रभाव में आलोचना करता हूँ ।’[17] उनके काव्य चिंतन पर प्लेटो और एरिस्टोटल का प्रभाव देखा जा सकता है । गुजराती आलोचना में इस प्रयोगशील आलोचक ने विचारप्रधान कविता को प्राधान्य देकर शुद्ध अगेय पद्य को कविता के लिए अनिवार्य माना । साक्षरयुग की आलोचना में ब.क. ठाकोर का व्यक्तित्व विश्वनाथ भट्ट के अनुसार बंडखोर और प्रयोगशील आलोचक का रहा है ।[18] साक्षरयुग के अंतिम साक्षर ब.क. ठाकोर एक साथ कला सर्जक, कला चिंतक और कला विवेचक थे। साक्षरयुग के साक्षरों में वे अग्रिम पंक्ति के साक्षर थे, इसमें संदेह नहीं ।
बलवंतराय कल्याणराय ठाकोर साक्षर युग के एक ऐसे आलोचक है जिन्होंने काव्य एवं साहित्य के बारे में गंभीर विश्लेषण किया । वे भारतीय काव्यशास्त्र के गंभीर अध्येता तो रहे हैं लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रति उनका विशेष झुकाव दृष्टिगोचर होता है ।
संदर्भ-ग्रंथ सूची::
- बात आपणा विवेचननी, पृ. 2 से उद्धृत
- गुजराती विवेचनना केटलाक सम्प्रत्ययो, पृ.124 से उद्धृत
- नवीन कविता विशे व्याख्यानो, पृ.2
- कविता शिक्षण, पृ.42
- वही, पृ.42
- कविता समृद्धि, प्रवेशक, पृ.16
- लिरिक, पृ.160
- वात आपणा विवेचननी, पृ.31
- कविता शिक्षण, पृ.10,11
- नव्य काव्य विवेचनो, पृ.25
- वात आपणा विवेचननी, पृ.22
- नवीन कविता विशे व्याख्यानो, पृ.151
- वही, पृ.96, 97
- कविता शिक्षण, पृ.16
- आपणुं विवेचन साहित्य, पृ.142 से उद्धृत
- विशिष्ट व्याख्यानो-1, पृ.79
- वात आपणा विवेचननी, पृ.29 से उद्धृत
- आपणुं विवेचन साहित्य, पृ.144