हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासऔर वृंदावनलाल वर्मा
1. हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक अन्वेषण
डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने लिखा है वंदावनलाल वर्मा का ऐतिहासिक उपन्यासकारों में विशेष स्थान प्राप्त है “वर्माजी ने अपनी शोध प्रवृत्ति और सहानुभूति लेकर ही युग विशेष की सभ्यता संस्कृति और जीवन दर्शन से प्रभावित होकर उनके पुनःसंस्थान का प्रयास किया है । उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा नहीं है, अपितु सरल एवं प्राकृत रूप में प्रस्तुत करने का कार्य किया है ।” वर्माजी के लिए इतिहास अतीत का एक जड आख्यान मात्र नहीं था । बल्कि जीवन वर्तमान का ठोस आधार था । वृंदावनलाल वर्मा ने लिखा है कि जो ऐतिहासिक उपन्याल लिखे उनमें कई कहानियाँ अपनी दादी माँ से सुनी हुई थी । वृन्दावनलाल वर्मा ने लिखा है “उन्ही दिनों झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ परदादी और दादी से सुनी थीं । परदादी ने लक्ष्मीबाई को कई बार देखा था ।” वृंदावनलाल वर्मा ने गढ़ कुण्डार में शिका के शौक का उल्लेख किया है । वर्माजी को शिकार का शौक था । अतः वे ज्यादातर इधर-उधर घूमते रहते थे । अतः उन्होंने झाँसी के आसपास घूमकर ऐतिहासिक सामग्री की खोज की थी । जिसका उन्होंने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में उल्लेख किया है । वृंदावनलाल वर्मा ने लिखा है “उपन्यास में जितने वर्णित चरित्र इतिहास प्रसिद्ध हैं उनका नाम ऊपर आ गया है । मूल घटना भी एक ऐतिहासिक सत्य है, परन्तु खंगारो के विनाश के कुछ कारणों में थोड़ा-सा मतभेद हैं।”2 निष्कर्षतः हम कह सकते है कि वर्माजी ने, जितने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे वे सभी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर है । जो उनके द्वारा लिखे उपन्यासों के परिचय से ज्ञात होता है ।
वर्माजी का बचपन अपनी परदादी के साथ वीरांगनाओं की कहानियाँ सुनते हुए बीता था । परदादा की कथानुसार उनके घर में कई सैनिक हुए । कुछ महाराज क्षत्रसाल की फौज में थे, जो लड़ाईयों में मारे गये अथवा घायल हुए । परदादा श्री आनन्दराय झाँसी की रानी के दीवान र मऊ की सेना के संचालक थे । 1857 के स्वाधीनता संग्राम में रानी के अस्तके समाचार से भी उनके साहस और उत्साह में कोई कमी नहीं आई । मऊ दमन के लिए आये अंग्रेजों के अनुसार मऊ की समीपवर्ती पहाड़ियों में लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए थे । 15-16 वर्ष की आयु के दादा श्री कन्हैयालाल भी इस लड़ाई में लड़े और बन्दी बना लिये गये थे । वर्माजी की परदादी ने झाँसी की रानी को कई बार देखा था । उनकी वीरता, सम्बन्धी कहानियाँ, बालक वृन्दावन ने मातामही के मुख से बार-बार सुनी र बालपन से गुनी थी । इन्हीं से सुने आल्हा, रामायण और महाभारत के भीम, अर्जुन,राम, कृष्ण आदि की कहानियों के शौर्यदीप्त, औजस्वी चरित्रों ने वृंदावनलाल वर्मा के व्यक्तित्व और साहित्य को स्वाभिमान, निर्भीकता और तेजस्विता की भावना से अनुप्राणित किया । घर में परदादी, दादीऔर माता का लाड, दुलार बहुत मिला, साथ ही पिताश्री का अनुशासन भी । इन कहानियों एवं कथाओं के अनुसार वर्माजी ने प्रेरणा प्राप्त करके रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, अहिल्याबाई आदि ऐतिहासिक उपन्यासों का लेखन किया । जिनमें वर्माजी का अनुभव विशेष दृष्टिगोचर होता है ।
डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने वर्माजी के बारे में लिखा है कि वर्माजी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में तत्कालीन वातावरण की स्वाभाविक सृष्टि की है । रहन-सहन का सटीक वर्णन किया है । तत्कालीन वेश-भूषा का सही-सही निरूपण किया है । युगानुकूल, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों का यथातथ्य वर्णन किया है, युग का गहराई से चिन्तन किया है । भौगोलिक स्थानों का विशेष ज्ञान प्राप्त करके उनका सत्य निरूपण किया है, अतीत के मुर्दों में जान डाली है । मानवतावादी दृष्टि से वर्तमान के सन्दर्भ में अतीत का चित्रण किया है । ‘‘वर्माजी हिन्दी के पहले ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं, जिनकी रचनाओं में इतिहास और साहित्य पारस्परिक विरोध को भूलकर एक दूसरे में घुल-मिल गए हैं ।”
वर्माजी के उपन्यासों में ऐतिहासिक बातों के अतिरिक्त अधिकांश घटनायें और पात्र भी ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं, और अपने ऐतिहासिकता तथ्यों को सजीव एवं श्रृंखलाबद्ध रूप प्रदान किया है । इसी कारण वर्माजी हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासकारों में शीर्षस्थ स्थान पर स्थित हैं ।
2. हिन्दी साहित्य के विविध ऐतिहासिक उपन्यास :
गढ़कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, मुसाहिबजू, झाँकी की रानी, कचनार, मृगनयनी, टूटे कांटे, अहिल्याबाई, माधवजी सिंधिया, भवन-विक्रम, रामगढ़ की रानी, महारानी दुर्गावती, सोतीआग, कीचड़ और कमल, देवगढ़ की मुस्कान, अब क्या डूबता सिंहनाद, ललितादित्य, अब क्या है ?
3. हिन्दी साहित्य में अनुभव द्वारा ऐतिहासिक उपन्यासों का लेखन :
वर्माजी 17-18 की आयु में आने पर वाल्टर स्कॉट के प्रायः सभी ऐतिहासिक उपन्यासों को पढ़ा । उस अनुभव के साथ वर्माजी के हृदय में एक भावना जागृत हुई कि जिस तरह स्कॉट ने स्कॉटलेन्ड के सुन्दर वातावरण का चित्रण किया है, उसी तरह में भी मेरे विविध क्षेत्रों के अनुभव के द्वारा में भी बुन्देलखण्ड के मनोहर वातावरण का चित्रण करते हुए ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करूँ । वर्माजी ने वाल्टर स्कॉट के उपन्यासों को पढ़कर जो अनुभव जीवन में प्राप्त किया उसका उपयोग करके स्वयं ने उपन्यासों की रचना कर डाली । वर्माजी के ऐतिहासिक उपन्यासों में उनका अनुभव प्रतीत होता है ।
वर्माजी ने अपनी परदादी से जो कहानियाँ सुनी वे वीरांगनाओं की थीं । झाँसी की रानी, दुर्गावती, अहिल्याबाई आदि के अनुभव काम में आये जो आज भी स्मृति चिन्ह बनकर रह चुके हैं जो लेखन में एक आधार स्तंभ बन चुके हैं । इस प्रकार वर्माजी जीवन के विविध क्षेत्रों का अनुभव अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में निरूपित करते हैं ।
वृंदावनलाल वर्मा मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद मुहर्रिर के पद नियुक्ति हुए । परन्तु यहाँ पर रिश्वत-भ्रष्टाचार का माहौल होने के कारण खराब अनुभव हुआ और 12 महीने की मुहर्रिर के पद पर कार्य करने के बाद त्याग पत्र दे दिये । फिर वन विभाग में छोटे बाबू के पद पर नियुक्ति ली । परन्तु अअच्छा न लगने के कारण छोड़ दिया । 25 महीने तक क्लर्क पद पर कार्य किया । और इसे भी छोड़कर छुट-पुट ट्युशन और अध्यापिकी का कार्य किया । विविध क्षेत्रो में कार्य किया परन्तु अनुभव एक कॉलेज में एल.एल.बी. प्रवेश लेकर कानून की डिग्री ली और अधिवक्ता का व्यवसाय प्रारंभ किया । शुरू में यह व्यवसाय ठीक नहीं चला । परन्तु कुछ समय बाद काफी जम गया, यहाँ तक कि मुकदमें अन्य वकीलों को देने पड़ते थे ।
4. विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों की मुलाकात द्वारा ऐतिहासिक उपन्यास लेखन :
वर्माजी को भ्रमण-पर्यटन से लगाव था । पुराने भवन, किले, मन्दिर, महलों आदि के अवशेष, अभिलेख, मूर्तिओं, मुद्राओं आदि द्वारा ऐतिहासिक उपन्यास लेखन में मदद मिली थी । वर्माजी का सतत जागरूक प्रकृति प्रेम तो था ही, बुन्देलखण्ड के चप्चे-चप्पे से परिचित होने की लालसा थी । वर्माजी के विधिवत् लेखन का भी श्री गणेश होने से पूर्व ही देवगढ का सुनसान सौन्दर्य और पुरातन जन्म कला के मोहक भग्नाशेष उनके मन को मुग्ध कर चुका था ।
यदि यह कहा जाय कि वर्माजी के औपन्यासिक जीवन का जन्म ही पुरातत्व की प्रेरणा से हुआ है तो अत्यक्ति न होगी । अपनी कहानी में इस प्रक्रिया का शब्द चित्र वे इस प्रकार खींचते हैं – शिकार के लिए बेतवा नदी के पास एक गढ्ढ़े में जा बैठे । तारे चमक रहे थे, ठंडी हवा चल रही थी । मेरा ध्यान उस पार के पहाडों की ओर गया । पहाडों की श्रेणियाँ एक-दूसरे के पीछे कुछ-कुहासों में थी । सोती हुई जान पड़ी । उनके पीछे एक शिखर पर कुण्डार का गढ़ सोता हुआ जान पड़ा । अब गढ़कुण्डार वीरान है, परन्तु किसी युग में चंदेलकाल के इदर-उधर इसमें कितनी चहल-पहल, न रही होगी । 17 अप्रैल, 1927 से लिखित रूप प्राप्त हुआ, विराटा की पद्मिनी की कथा भी शिकार भ्रमण के दौरान विराटा के महत्वपूर्ण स्थानों जिनमें वह स्थान भी था जिसका वर्माजी ने भ्रमण किया था । जहाँ पर पद्मिनी के चरणचिन्ह एक चट्टान पर खुदे हैं, यह देखकर ही, वर्माजी की रचना साकार हुई । पहाड़ी-चट्टानों, घनी हरियाली के बीच, व चक्कर काटती बेतवा नदी के पास टापू पर बने पुराने मन्दिर आदि से सारी कथा चुपचाप वर्माजी के कानों में कह दी जिसकी नक लुधियाई गाँव में पाये गये 16वी शदी के सती शिलालेख से मिली थी ।
5. हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों का अध्ययन एवं लेखन :
वर्माजी ने सात वर्ष की उम्र में ‘अश्रुमती’ नामक नाटक पढ़ा, जिससे काफी प्रभावित हुए और लेखन कार्य के लिए प्रेरित हुए । यह ‘अश्रुमती’ एक ऐतिहासिक नाटक था । जिसमें राणा प्रताप की पुत्री ‘अश्रुमती’ अकबर के पुत्र सलीम से प्रेम करने लगी थी । यह बात वर्माजी को अच्छी न लगी और अपने चाचा के द्वारा इस नाटक के बारे में जाना की प्रस्तुत ‘अश्रुमती’ नाटक में बहुत कुछ गलत है । इसी समय उनके हाथ में इतिहासकार ‘इमार्सडन’ की ‘हिस्ट्री ऑफ इन्डिया’ पुस्तक आई । इसमें भी भारतीयों को अंग्रेजों के सामने दुर्बल बताने की बात से अपने मन में निश्चित कर लिया कि मैं ऐसा गलत-सलत नहीं लिखूँगा । वर्माजी ने सत्तरह-अठ्ठारह वर्ष की आयु में वॉल्टर स्कॉट के लिखे गये ऐतिहासिक उपन्यासों का गहरा अध्ययन किया और वर्माजी के मन में ख्याल आया कि यदि वोल्टर स्कॉट ने स्कॉटलेन्ड के वातावरण का मार्मिक चित्रण किया है तो मैं भी बुन्देलखण्ड के मनोहर वातावरण का चित्रण करते हुए ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करूँ । वर्माजी पर सर्वाधिक प्रभाव वाल्टर स्कॉट का ही है । स्कॉट ने जिस तरह अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में मुख्य रूप से स्कॉटलेन्ड का वर्णन किया है । उसी तरह वर्माजी ने भी प्रेरणा लेकर अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में भी बुन्देलखण्ड को मुख्य रूप से आधार बनाकर वर्णन किया है । स्कॉट की तरह ही वर्माजी को भी सफलता मिली है । इस प्रकार स्कॉट से वर्माजी के उपन्यासों में पर्याप्त साम्य होते हुए भी वर्माजी एक मौलिक ऐतिहासिक उपन्यासकार है ।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य इतिहासकारों और आलोचकों ने वर्माजी के कृतित्व पर अपने अपने दृष्टिकोण से विचार किया है तथापि ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में उनकी श्रेष्ठता और वैशिष्ट्य को सभी ने स्वीकार किया है । आचार्य शुक्ल ने मात्र दो उपन्यासों के आधार पर ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में एक मात्र वर्माजी के अस्तित्व को मान्यता देते हुए लिखा है “वर्तमान काल में ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में केवल बाबू वृन्दावनलाल वर्मा दिखाई दे रहे हैं । उन्होंने भारतीय इतिहास के मध्ययुग के आरम्भ में बुन्देलखण्ड की स्थिति को देखकर दो उपन्यास लिखे । गढ़कुण्डारा और विराटाकी पद्मिनी दो बड़े सुन्दर उपन्यास लिखे हैं । विराटा की पद्मिनी की तो कल्पना अत्यन्त रमणीय है ।”
साहित्य के इतिहास में संस्मरणीय ऐतिहासिक उपन्यास लेखक केवल चार-पाँच ही है और वे है, राहुल सांकृत्यायन, भगवतशरण उपाध्याय जिनके उपन्यास से अधिक बड़ी कहानियाँ है । हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल, रांगेय राघव, चतुरसेन शास्त्री और इन सबमें गुण और परिमाण दोनों दृष्टियों से सर्वाधिक और अच्छा लिखनेवाले श्री वृन्दावनलाल वर्मा है । उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि वर्माजी के ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य में आरम्भ से ही चर्चा का विषय रहे और विद्वानों को भुला दिया गया है, यद्यपि उनका महत्व भी नगण्य नहीं है । वैसे भी वर्माजी के सम्पूर्ण साहित्य सृजन की मूल प्रेरणा सामाजिक चेतना से अनुप्राणित है।
वर्माजी लोकसत्य पर विश्वास राखनेवाले बहुदृष्टा कलाकार है । वे कला का महत्व कला के लिए स्वीकार नहीं करते, तथापि सुधारवादी या प्रयोजनवादी के रूढ़ अर्थो की प्राचीर में घेरकर उनके साहित्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता । किसी आर्थिक, सामाजिक या नैतिक समस्या पर अर्थशास्त्री या समाज सुधारक का दायित्ववहन करने का दम्भ उन्होंने नहीं किया पर मानव जीवन को अधिक सुखी, सुन्दर, उज्जवल और स्वस्थ बनाने का महत्व उद्देश्य उनकी दृष्टि से कहीं ओझल भी नहीं हुआ । इसकी सिद्धि के लिए जैसा उचित समझा वैसा माध्यम उन्होंने अपनाया । अतीत और वर्तमान वर्माजी के लिए जड़ कालावधियाँ न होकर एक प्रवहमान वास्तविक जीवन क्रम के परस्पर समन्वित आयाम है । उन्होंने मृगनयनी, झाँसी की रानी आदि उनके श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है, जिनके आधार पर हिन्दी के शीर्षस्थ आलाचकों ने उनका साहित्यिक महत्व स्वीकार किया है । वर्माजी से पूर्व किशोरीलाल गोस्वामी, गंगाप्रसाद गुप्त, जयरामदास गुप्त, मिश्रबन्धु, ब्रजनन्दन सहाय आदि लेखक इस क्षेत्र में पर्याप्त साहित्य की रचना कर चुके थे ।
ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम से मानवीय जीवन के आन्तरिक सत्यों की खोज वं किसी युग के सांस्कृतिक निर्माण जैसे गम्भीर लक्ष्यों को ध्यान में रखकर इतिहास और कल्पना के मधुमय संयोग से उच्चकोटि के ऐतिहासिक उपन्यासों का सूत्रपात वृन्दावनलाल वर्मा द्वारा हुआ डॉ. शिवनारायण श्रीवास्तव की इस औचित्यपूर्ण स्थापना का समर्थन प्रकारान्तर से हिन्दी के अनेक आलोचकों ने किया है । उनके लिये इतिहास न तो कल्पना की विलास स्थली मात्र है और न निर्जीव तथ्यों का संग्रह बल्कि वह अतीत और वर्तमान के मध्य कार्य कारण की अविच्छिन्न श्रृंखला है । वर्माजी ने चतुरसेन के समान इतिहास-रस के निमित सत्य को मनमाने ढग से तोड मरोड़कर प्रस्तुत करने में रूचि नहीं दिखाई, तथापि उनके साहित्य पर नीरसता का आरोप नहीं लगाया जा सकता । एक सिद्ध कलाकार के समान उन्होंने इतिहास के रूखे-फीके तथ्यों को सरस प्रसंगो, मार्मिक स्थितियों एवं विवेक सम्मत कल्पनाओं से संवारकर इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि तथ्य और कल्पना के जोड़ पहचाने नहीं जा सकते हैं ।
संदर्भ-ग्रंथ
- कचनार – वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2008
- गढ़ कुण्डार - वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2008
- झाँसी की रानी - वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2010
- मृगनयनी - वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009
- विराटा की पद्मिनी - वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009
- अपनी कहानी - वृन्दावनलाल वर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-1990
- आधुनिकताबोध और आधुनिकीकरण – रमेश कुन्तल मेघ, अक्षर प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1969
- अमृतलाल नागर के उपन्यासों में आधुनिकता – डॉ. अनीता रावत, चन्द्रलोक प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण-1998
- आधुनिकता बोध एवं मोहन राकेश का कथा साहित्य – राजनारायण शुक्ल, बी.आर.पब्लिशिंग कोर्पोरेशन, दिल्ली ।
- आधुनिक हिन्दी उपन्यास – संपादक डॉ. नामवरसिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2010