गुजरात की स्त्री संतो का राष्ट्र जागरण में योगदान
भारतीय समाज और संस्कृति में स्त्री संतो रत्नों
का विशिष्ट योगदान रहा है । संत का कार्य स्थूल से सूक्ष्म तथा
प्रत्यक्ष से परोक्ष तरीके से समाज के सभी वर्गो को एकसाथ ले के
चलने का है । स्वामि विवेकानंद जी ने अमेरिका में अपने एक वक्तव्य
में कहा था कि – ‘‘मुझे यह कहते आनंद हो रहा है कि भारतीय वेद रुचा
की रचनाओं में स्त्री संतो का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है ।’’
मध्यकालीन गुजराती कविता श्रद्धा-भक्ति और ज्ञान का प्रकाश लेकर आई
है । विषम परिस्थितियों के कारण संरक्षणात्मक वत्ति से संकुचित बना
समाज उस समय अनेक प्रकार की रूढ़िचुस्तता और उदासीनता में डूबा था
। ऐसे समय में स्त्री संत भक्तों की वाणी ने समाज में चेतनात्मक
जागृति लाने और वेद-उपनिषदों के ज्ञान को सहज-सरल भाषा में समाज तक
पहुँचाने का मूल्यवान कार्य किया है । असुरक्षा और हताशा से ग्रसित
लोगों को उनकी वाणी ने श्रद्धा की शक्ति प्रदान की । परम सत्य को
प्रकट करने वाले मानवीय मूल्यों का जन साधारण के हृदय में सींचन
करने वाली स्त्री संतों और भक्तों की यह वाणी अपने देश के
सांस्कृतिक इतिहास की एक मूल्यवान घटना है । इस काल में भारत वर्ष
अध्यात्म की ऊँचाई, ज्ञान की गहराई और भक्ति की समरसता से जीवंत और
सक्रिय रहा है । मध्यकालीन भारत में सगुण भक्ति, निर्गुण भक्ति,
ज्ञानसाधना, योगसाधना जैसी परम्पराएँ देखने को मिलती हैं । अपने
यहाँ साधना की अनेक धाराएँ एक ही धारा में मिलती है और वह है
भारतीय साधना धारा । इन तमाम धाराओं ने एकरूप राष्ट्रीय चेतना का
निर्माण कर ‘एकात्म मानव’ का दर्शन कराया है ।
गुजरात में सिद्ध परम्परा, साधु परम्परा, नाथ परम्परा, रामानन्दी
परम्परा, कबीरिया के रूप में जानी जाने वाली कबीरपंथी परम्परा,
महापथ की परम्परा, रविभाण सम्प्रदाय की परम्परा तथा मार्गी परम्परा
का विकास हुआ है । सरल और लोकभाषा में इन स्त्री संत रत्नों ने
गूढ़ तत्वज्ञान, जीवनपोषक मानवीय मूल्य और जातिगत भेदभाव रहित
सामाजिक समरसता को सामान्य जीवन में गूँथ दिया है । गुरुमुख से ही
जिसका अर्थ प्रकट हो सके ऐसी रहस्यमय गूढ़ता भी इसमें है । मौखिक
रूप से पीढी-दर-पीढ़ी चली आ रही इस भक्ति ज्ञान धारा ने समाज जागरण
का उत्तम कार्य किया है । सामाजिक जड़ता के सामने
आत्मविश्वासपूर्ण, भक्तिरस की मधुरता का पान कराती एक सशक्त वाणी
सदियों से सुनाई दे रही है ।
गुजरात के स्त्री रत्नों में मीराबाई, सती तोरल, रूपाबाई, पुरीबाई,
नानीबाई, फूल कुँवर बाई, रतनबाई-2, रतनबाई-3, दिवालीबाई, अमरबाई,
गंगा (दासी)1 / गंगाबाई, सुन्दरबाई, राधीबाई, गवरीबाई, जनीबाई,
लोयणबाई, जतुभाई, गंगासती-2, पानपाई, जेबाई, जमुनाबाई, जसोमा,
तेजबाई, ईच्छाबाई, भुबुबाई, पंखीबाई, रूमामबेगम, प्रेमाबाई,
हूरबाई, अजानबीबी, कलाबाई, कृष्णबाई, जानकीबाई, जेकीबाई, देवलदे
बाई, मोबीबाई, मानबाई, मालीबाई, मांगलबाई, रतनीबाई, राधाबाई,
रामबाई, रूपाबाई, रूपांदे, मीरल, लीलावतीबाई, शिवलक्ष्मीबाई,
सुरदाराणी आदि स्त्री रत्नों ने यहाँ के लोगों को समाज के रूप में
जीवंत रखा है ।
गुजरात की पावनधारा पर संत महात्माओं का एक विशिष्ट स्थान रहा है ।
ऐसे संतो का जीवन समय और स्थान के बन्धनों से मुक्त होता है ।
गुजरात के आर्मत प्रदेश के वडनगर की रहनेवाली कृष्णबाई प्रसिद्ध है
। उन्होंने ‘सीताजीनी कांचड़ी’ श्रीकृष्णना हालरड़ा (श्रीकृष्ण) की
लोरी), ‘श्रीकृष्ण की घोड़ी, जैसे गीतों में राम और कृष्ण की भक्ति
की महिमा गाई है ।
‘श्री रामजी केरे चरणे नमीने, सीता काचली प्रीते रे’
‘हरि हालो रे, कान्हाजी हालो रे’
– – –
‘गोविन्द गुण गाँऊ सदा, ने गरबा गुला भंडार
‘देवकीकुँवर दया करो, नन्द-जशोदा ने द्वार’– श्री कृष्णनी घोड़ली’
– – –
‘पान सँवारे पद्मिनि, ने टपकुं कीधु गाल
आँखे अंजन सारीयाँ पहेर्या केशरी वाघा लाल….’
कृष्णाबाई का जन्म वडोदरा के महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था ।
बचपन से ही उन्हें बालगोपाल के दर्शन होते थे । सांसारिक जीवन में
सुख सम्पन्नता होने पर भी ईश्वर आराधना में लग गई । सांसारिक जीवन
में सुख सम्पन्नता होने पर भी ईश्वर आराधना में लग गई । और पू.
विमलाबाई की साधना के रंग में रंग गई । माता-पिता के बारे में
शालिनी, श्वसुर गृह में सीता और साधक अवस्था में कृष्णा नाम धारण
किया । अनेक मुश्किलों के बीच भी ईश्वर साधना में लीन रही ।
सती तोरल एक भक्त कवयित्री थी जो तोरलदे, तोली राणी आदि नामों से
भी प्रसिद्ध है । उनके पति संत राजा साँसलिया सौराष्ट्र के सरली
गाम के रहने वाले थे । उनका जीवन का पवित्र था । तोरल दे के जीवन
में तीन लोगों का आना हुआ । एक उसका पति साँसलिया, दूसरा गाम का
व्यापारी सधीर और जेसल बहारवटिया । गुजरात के कौने-कौने में
जेसल-तोरल की कथा प्रसिद्ध है । तोरल के भजन लोगों में खूब प्रचलित
हैं , जैसे –
‘जेसल करीले विचार, माथे जम केरो भार,
सपना जेवो आ संसार, तोरी राणी करे छे पोकार…’
– – –
पाप त्यारुँ प्रकाश जाडेजा, पाप त्यारूँ प्रकाश रे,
त्हारी बेलड़ीने बुडवा नहीं दऊँ जाड़ेजा रे, तोरल कहे छे…’
सती लोयण आटकोट की रहनेवाली और जाति से लुहार थी । संत शेलर्षी के
साथ भेट हुई औऱ उनको गुरु बनाया । उनके जीवन के अनेक चमत्कार लोगों
की जीभा पर आज भी हैं । इनके भजनों में लोयण लाखो का कहता है, ऐसा
लगता है । सारे जनपद में भजन लोकप्रिय है । इन भजनों में ज्ञान और
योग की भाषा में निर्गुण भक्ति की महिमा गाई है । जैसे –
‘जी रे लाखा ! ब्रह्म मां भळवुं होय तो, हेत वधारो जी हो जी
अने मनना प्रपंच ने मेलो रे हाँ ।’
– – –
‘जी रे लोयण ! सीरख तळायुँ मारे, संगे न चाले ए जी,
कोक दी साधु, म्हारी मुक्ति करशे हाँ ।’
– – –
‘जी रे लोयण ! धरम करो तो तमे धणी पणुँ मेलो जी,
तमे गुरुचरणे चित्त धारों हाँ ।’
– – –
‘जी रे लाखा ! दुधे भरी तलावड़ी रे जेनी मोतीड़े बाँधी पाळ,
सुगरां हशे रे ई तो भरी-भरी पीशे ने, नुगराँ पियासा जाय, ला…खा…
लोयण के पदों में सदगुण की महिमा भी हुई है और उनकी भक्ति में जो
हृदय को अद्वेता है । वह उनकें भजनों में अच्छी पुकार अनुभव की जा
सकती है ।
जेठोबा का जन्म कच्छ के भोजाय गाँव में जाडेजा जागीरदार कलाजी के
घर हुआ था । माता नानोबा और चाची से भक्ति के संस्कार जन्म से ही
मिले थे, परन्तु क्षत्रिय कुल में स्त्री की योग्य वय में शादि कर
दी जाती है । परन्तु जेठोबा के पिता समझदार थे । तो भी जब राज्य के
नियमानुसार शादि करने का आदेश आया तो जेठोबा की शक्ति का चमत्कार
मिला । फिर जेठोबा ने बांढ्य के महात्मा ईश्वरदासजी से गुरुमंत्र
लिया । प्रेम में पड़ी । उनकी वाणी में गुरु महिमा का सुन्दर वर्णन
हुआ है । जैसे –
‘सत्यदेव गुरुनी हुँ चिदानन्द बालकी रे,
गुणियल गुरुजी म्हारा, सत्-चित्-आनन्द-सत्य,
हरि हजु नव आविया, पूरण ब्रह्म कृपाल,
नहीं बिसारो नाथजी, निज जन ना प्रतिपाल’
माता लीरबाई कच्छ के संत मेकण दादा की शिष्या थी । उनका जन्म
लोड़ाई गाम में हुआ था । आहिर जाति की थी । दस-बारह वर्ष की उम्र
हुई तो उनके दादाजी कावड़ लेकर भिक्षा माँगने आए । यह दृश्य उनको
आकर्षित कर गया । लीरबाई दादा के साथ भक्ति में लीन हो गई । कुटुंब
परिवार की की परवा किए बिना दादा के आश्रम में जाकर भक्ति रस में
डूब गई । कच्छ के स्त्री संतों में उनका नाम अमर हो गया ।
मध्यकालीन स्त्री संत कवयित्रियों में लीरलबाई । लीलणबाई के नाम से
सुपरिचित हैं । लुहार भक्त देवतणरवी की पुत्री तथा देनायत पंडित को
शिक्षा के रूप में उनका जाना जाता है । उनके भजनों में गुरुभक्ति,
अलखधणी और सत तत्व की महिमा पाई जाती है । जैसे –
देख्या रे मेवाड़ी रामा, निरख्या रे हाँ,
श्रीगणपति आवे झूलता हो रे होजी जी…’
– – –
‘रमतो जोगिड़ों क्याँथी आव्यो,
आवी म्हारी नगरीमां अलख जगायो रे,
वेरागण हुँ तो बनी, काची केरी रे आंबा डाले,
ए नी रक्षा करे कोयल राणी रे….’
– – –
‘वीरा ! सूरता राणी ने सपनु लाध्युं,
ए नां परभाते परसन पुछाया’
– – –
‘गुरुजी सतनी बेलडी रे आवा रुंडा
दत फल लाग्या रे हाँ….’
भायला तमे भाव राखो, डालु मेली फल चाखो,
बोल्या लीलळबाई, संतों चरण मां राखो ।’
बाला जोगण अमरबाई की सेवा सुश्रुषा आज भी बिलखा के पास परबबावड़ी
में चर्चित है । अमरबाई संत देवीदास के सानिध्य में सेवा कार्य में
संलग्न हुई और संत देवीदास के साथ ही जीवंत समाधि ली । अमरबाई की
शक्ति का परिचय बगसरा की एक स्त्री को हुआ था, जो प्रसंग आज भी
सुनाया जाता है । सत् गुरु की सेवा करते-करते करुणा मूर्ति का रूप
लेकर दुखियों, कोढ़ियों, रक्तपित्त के रोगियों की सेवा कर समाज के
सामने आदर्श प्रस्तुत किया । इनके भजनों में शास्त्रों का सार
समाया हुआ है ।
स्वामीनारायण संप्रदाय की लाइवा तथा जीजुबा का नाम बहुत प्रसिद्ध
है । दोनों बहनों को सहजानन्द स्वामी की भक्ति का रंग लगा था ।
संसार का त्याग कर स्त्री भक्तों के मंडल में ज्ञान, वैराग्य और
भक्ति को त्रिवेगी बहाकर श्री चरणों में रहती थी ।
शिहोर के पास का काटोड़िया गाम जिसे आज रामपुर के नाम से जानते है
। वहाँ पूंजा भगत और कोया भगत के साथ वाघजी महाराज रहते थे, जो
पूर्वाश्रम में मोंघीबा के चाचा लगते थे । मोंघी बा ने खांडा के
साथ दो फेरे लेकर बिदाली और बाघजी स्वामी के दर्शन करने गई तथा
वहीं रुक गई । मोंघीबा की सेवा की सुगंद आज भी सारे इलाके में फैली
है । बोटाबदर गाम की रामबाई माँ और सरस्वती बेन का नाम भी मोंघीबा
के साथ जुड़ा हुआ है ।
भावनगर के पास बुघेल गाम भी एक सोलह वर्ष की कृषक कन्या ने
हरिदासजी महाराज के पास आकर दीक्षा ली, जिसका नाम ‘माँ गंगादासजी’
माता गंगादासजी की सेवाभक्ति अति प्रसिद्ध है । वे अल्पवस्त्र ही
धारण करती थी । उनके व्यक्तित्व और जीवन से एक संयमशील और
त्यागमूर्ति के दर्शन होते है । इसी प्रकार योगीनी आनन्द लहरी भी
विशुद्ध ज्ञान की महमा को प्रगट करनेवाली हुई । उनका पूर्वाश्रम का
नाम जयालक्ष्मी था । सांसारिक सुखो से विरक्त होकर ज्ञान और भक्ति
की साधना में रत हुई और जन सामान्य में भक्ति की सुगन्ध का प्रसार
किया ।
माँ गंगा सती वाघेला राजपूत की सुपुत्री थी । उनकी शादी घोळा जंकशन
के पास समढियाला के कहनसंग गोहेल के साथ हुई थी । संती गागा सती को
पिहर और श्वसुर दोनों तरफ से भक्ति के संस्कार मिले थे । इस प्रकार
प्रभु भक्ति के लिए अनुकूलता मिली । एक संतमन्डल समढियाळा में आया
और संत भक्त के घर के बारे में पूछने पर सबने कहलसंग का घर बताया ।
दूर से संतो को आते देखकर गंगा सती का हृदय आनन्द से भर गया ।
उन्होंने संतो की चरण वंदना की । तब गाँवके लोगो ने टोना मारा यदी
तुम्हारी भक्ति सच्ची हो तो मरी हुई गाय को जीवीत करो । तब गंगा
सती ने चरणो को धोकर उस चरणामृतको गाम पर छिडका और गाय जीवीत हो गई
। इस चमत्कार के बाद कहलसंग ने स्वैच्छिक समाधि ले लीं । फिर पति
के पिछे ही 53वें दिन गंगा सती ने समाधि ले ली । गंगासती की बा का
मर्म दर्शनशास्त्रीयों के अनुसार अत्यंत गहन और सत्यपूर्ण था ।
इनकी भजनबानी में सती के आत्मतेज की झलक दिखाई देती है । उनके भजनो
में अध्यात्म की गहरी छाप मिलती है । उन्होंने सरल भाषा में पानबाई
को साधना के लिए मार्गदर्शन किया ।
दृष्टांत
मेरे रे डगे ने जेनां मन नो डगे
मरने भांगी रे पडे भरमांड रे
विपद पडे पण वणसे नहि,
ई तो हरिजननां परमाण रे….
– – –
वीजळी ने चमकारे मोती परोववुं पानबाई
नहितर अचानक अंधारां थाशे रे…
जोतजोतामां दिवस वया गया, पानबाई
एकवीस हजार छसो ने काळ खाशे…
– – –
सतगुरु चरणमां शीश नमावे,
त्यारे पूर्ण निजारी केवाय….
– – –
मनने स्थिर करी आवो रे मेदानमां ने
मिटावुं सरवे कलेश रे,
हरिनो देश तमने एवो देखाडुं ने
ज्यां नहि वर्ण ने वेश रे….
ध्यान धारणा कायम राखवी ने
कायम करवो अभ्यास रे…
– – –
कुपात्र आगळ वस्तु न वावीए न
समजीने रहीए चूप रे
मरजो आवीने द्रव्यनो ढगलो करे ने
भले होय मोटो लूप रे….
इसके अतिरिक्त गुजराती स्त्री संत धारा में कीतने ही ऐसे नाम है ।
जो अभी तक संशोधको नहीं मिल पाये । ऐसे कुछ स्त्री संत रत्न जिसमें
मालबाई, सती राजबाई, सती पूंजीमा, सती रुडीबाई, जीवीमा, पालबाई,
लासुमा, मा रामबाई, अमरबाई आदि स्त्री संतरत्न रबारी और समाज से
मिले है ।
गुजराती स्त्री संत रत्नो ने गुजरात के भक्ति आन्दोलन में
महत्वपूर्ण योगदान दिया है और गुजरात में सामाजिक समरसता की
पृष्ठभूमि बनाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है । भारतीय समाज और
संस्कृति की धरोहर के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय एकात्मक का स्वर
विश्व के जनसमूदाय तक पहुँचाने का काम किया है ।
एकात्म मानवदर्शन की ज्योती जलाने वाले भारतीय तत्वचिंतक पंडित
दीनदयाल उपाध्यायजी का आज के अवसर पर मुझे विशेष स्मरण हो रहा है ।
यह वर्ष उनकी जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है ।
पंडित दीनदयालजी ने भारतीय चिंतनधारा को युगानुरूप स्वरूप देकर
विश्व के सामने रखा जिससे पूंजीवाज और समाजवाद के अधूरेपन से
दिग्मूढ़ बने समाज चिंतको को एक तीसरा उपयुक्त मार्ग मिला । आज
अनेक शोधक उनके द्वारा प्रतिपादित चिंतन पर शोध एवं प्रयोग कर रहे
है ।