(નરેશ શુક્લની ગુજરાતી ટૂંકી વાર્તાનો અનુવાદ)
रोंग नम्बर
बाहर बाथरूम का दरवाजा खुला और उसकी आवाज़ से मेरी आँखें खुल गई । लगता है माँ जाग गई हैं । मैंने आँखें छोटी करके घड़ी में देखा । रेडियम वाले काँटे पाँच और दस का समय बता रहे थे । पहले तो उठने को मन नहीं हुआ । वे तो सोए हुए थे, हमेशा की तरह । कई रातों में मैंने उन्हें देखा है सोते हुए । छोटे बच्चे की तरह, मेरी बगल में सटकर सो रहे होते । कभी ज्यादा थके हुए होते तो खर्राटें भी लेते.....मुझे यह अच्छा लगता । मैं उन्हें देखती रही, हलके उजाले में, उनकी मूछों में कुछ बाल सफेद हो गए हैं । कुछ भी करो तो भी ब्लेंकेट पूरा नहीं ओढ़ते । बंद आँखों में भी उनकी पुतली थोड़ी थोड़ी देर में इधर-उधर होती रहती । मैंने धीरे से उनके गालों पर अपनी लट का स्पर्श होने दिया, थोड़ी हल-चल हुई, मुझे उनके सीने पर सिर रखने का मन हुआ पर जाग जाएँगे तो इस डर से ऐसा नहीं किया । तभी उन्होंने करवट बदली और उनका माँसल हाथ मेरी देह पर....मुझे खींच लिया, मैं उन्हें लिपटकर सो गई ।
माँ अब नहाने की तैयारी कर रही हो ऐसा लगा । नल के साथ बाल्दी टकराने की आवाज़ आई इसलिए मैं सतर्क हो गई । माँ को रोज़ जल्दी उठने की आदत । हालांकि, हमें कभी डिस्टर्ब नहीं करतीं । सावधानी से तैयार होकर उनके पूजा खंड में चली जातीं । दिवाली नजदीक आ रही है इसलिए सरलाबहन ने कल गद्दे रजाई धूप में तपाने डाले थे । यह मैं देख गई थी इसलिए मुझे भी हुआ ‘घर का काम शुरू करना पड़ेगा, जल्दी जाग जाउँगी । ‘धीरे से उनका हाथ हटाकर मैं ब्लेकेंट से बाहर निकलने गई तभी उन्होंने वापस खींच लिया । नींद में ही मुझे कीस की । “सो जाओ चुपचाप मुझे जाने दो" कहते हुए मुश्किल से खड़ी हुई । हाथ छुड़ाया । गाउन ठीक करते हुए आईने के सामने आकर लाइट जलाई । बिखरे बालों को समेटकर जुडा बाँधा और मेरी नज़र आईने में दिखते हुए उनके प्रतिबिंब पर पड़ी । कई बार मेरे बालों को वे सुन्दर ढंग से सँवार देते, उन्हें इसका लगाव है । अब तो हरित भी बड़ा हो गया, बिल्कुल मेरे कंधे तक पहुँचे इतना लंबा हो गया फिरभी उसके पिता तो वैसे ही रहे ।
अब भी बेडरूम से बाहर निकलने से पहले आईने में देखे बिना नहीं रह सकती । मुई लाज नहीं आएगी ?
हरित भी अपने पिता जैसा ही । आठ साढ़े आठ तक सोता ही रहता । मैंने आज गद्दे रजाई धूप में तपाने डालने का तय कर लिया था इसलिए कामवाली बाई के आते ही उसे तुरन्त काम पर लगा दिया । माँ भी जल्दी जल्दी पूजा निपटाकर आ गई साथ । कुछ ही देर में सबकुछ छत पर पहुँचा दिया । हरित को जगाकर उसके पिता के साथ सुला दिया और दूसरे रूम में धूल झाड़ना शुरू कर दिया ।
उन्हें पढ़ने का शौक पहले से ही नहीं है । सिर पर आ जाए तो पढ़ते हैं । उसमें भी पढ़ाई छूटी और बिज़नेस शुरू किया उसके बाद तो वे किताब को छूते तक नहीं । हाँ सिने मैगज़िन वे नहीं चुकते । हिन्दी ,अंग्रेजी और गुजराती के कूड़े जैसे सिने साप्ताहिक भी चाट जाते । फिर यह सब पड़ा रहता इस नीचे वाले कमरे की बड़ी सी अलमारी में । मुझे हुआ इसे पहले साफ कर लूँ और बेकार का रद्दी वाले को दे दूँ । इसलिए माँ को कामवाली बाई के पीछे लगाया और मैं जुट गई इन किताबों पत्रिकाओं की अलमारी खाली करने में । सभी बेकार की रद्दी गेलेरी में निकाली । अच्छे थे उन्हें धूप खिलाने के लिए अलग किए । फिर कपड़े से धूल झाड़ रही थी तभी एक पुरानी डायरी को झापड़ लगते ही वह नीचे गिरी और उसके पन्नों में से बिखर पड़े कुछ पीले पड़ गए फोर्मस.....मैं रूक गई वहीं ।
उस फोर्मस् के पन्ने पलटे वहीं मेरे चित्त में एक साथ घमासान शुरू हो गया । मैं सहम गई । कुछ साल पहले आए हुए भूकंप से भी बड़ा झटका खा गई मैं । सबकुछ घूमता हुआ सा लगा मुझे और मैं बैठ पड़ी । अभी तो एक ही पन्ना मैंने देखा होगा कि वहीं माँ आ गई ।
“सुमी, ज़रा यहाँ आओ तो, मैंने यह रद्दी निकाली है, उसमें कोई काम की चीज़ तो नहीं है, ज़रा देख लेना ।"
“हाँ, माँ आ रही हूँ । “कहते ही उठना चाहा पर उठ नहीं पाई ।
“क्या हुआ सुमी ? “कहते हुए माँ दौड़ आई । मुझे पकड़ लिया ।
“कुछ नहीं, यह तो बैठे बैठे झुनझुनी चढ़ गई । कुछ नहीं हुआ ।"
-वे मेरी आँखें न देख सके इसलिए नज़रें चुराकर जवाब दिया, फिर धीरे से खड़ी होकर अन्दर गई पर मन उसी डायरी में रहा ।
“माँ, दूसरा कल कर लेंगे । मुझे इतना करते ही थकान लग गई है ।"
“तुझे ठीक नहीं है तो रहने दे बेटा, क्या जल्दी है ? रोज़ एक कमरा करेंगे तो भी निपट जाएगा । चिंता मत करना ।"
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वे गए ओफिस । हालांकि, जाने से पहले थोड़ी थोड़ी देर में आकर पूछ जाते थे कि, “क्या हुआ है तुम्हें ?”, “जाना है डॉक्टर को दिखाने ?” – पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया । वे निकले तब रोज़ की तरह विदा करने भी नहीं गई । कल की घटना के बाद मेरा मन अस्वस्थ हो गया था । उन्होंने मोजे पहनकर बूट दो-तीन बार पटके भी, यह मुझे बुलाने का संकेत था फिर भी मैं नहीं गई । कुछ भूल गए हो ऐसा ढोंग करके तीन-चार सीढ़ी उतरने के बाद भी वापस आए पर मुझे उनका चेहरा देखने का मन नहीं हुआ । माँ ने भी घूमा फिराकर जानने की कोशिश की कि “कुछ हुआ है हमारे बीच ?” पर मैंने टाल दिया । मैं समझ सकती थी उनकी उलझन पर मैं खुद ही अपना व्यवहार नहीं समझ सकती थी तो उन्हें कैसे समझाऊँ ? फौरन हरित को तैयार किया, नास्ते में आज बिस्कीट और चबैना दे दिया, खाना बनाने का मन बिल्कुल नहीं हुआ । उसे स्कूल बस तक भी माँ छोड़ आईं और सीधे वहाँ से ही “मैं मंदिर जाकर आ रही हूँ" कहकर चली गईं ।
मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था । दो-तीन दिन से बेचैन थी ही, उसमें फिर यह डायरी बीच में आ गई । मैंने ही उसे बरसों पहले छुपा दी थी । भूल जाना भी चाहा था । सच सच बता रही हूँ मुझे अब कुछ भी याद नहीं करना था । मेरा छोटा-सा सुन्दर परिवार है । प्यारा-सा और सरल पति है । कमा रहा है वह इतना कि हम मज़े से रह सके । हाँ, उन्हें एक शौक है : फिल्में देखने का । हर फिल्म वे एक ही रूचि से देखते हैं । और वह भी पहले ही शो में देखते हैं ! हर शुक्रवार को वे ओफिस से सीधे ही पहुँच जाते थियेटर में । मैं साथ जाउँ तो ठीक वरना अकेले ही – पर देखे बिना न रहते । मुझे अच्छा नहीं लगता ......पर ठीक है, वे दूसरा फिजुल खर्च कहाँ करते हैं ? एक बेटा और ऐसी ही अच्छी मेरी सास हैं । ज्यादा जिम्मेदारियाँ भी नहीं और नही कोई ज्यादा अपेक्षाएँ । मैं शादी करके इस घर में आई तब से आज तक पूरे परिवार का मैं ही केन्द्रबिंदु हूँ – इसलिए मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई ।
पर, भगवान किसी को भी कहाँ छोड़ता है ? ह्रदय के कोने में कहीं कुछ तो ऐसा होता ही है, जो किसी से भी कह नहीं सकते । बिल्कुल अपना, अभिन्न माने जाने वाले से भी छुपाना पड़े ऐसा ! हालांकि समाज जिसे गलत कहता है ऐसा मैंने कुछ भी नही किया । मैं कर भी नहीं सकती । मुझे अपना स्वमान प्यारा है । कोई ज़रा सा भी कुछ कह जाए तो सात बार खाना न खाऊँ ऐसी जिद्दी हूँ बचपन से ही । फिर भी...
वह दिन मेरी ज़िन्दगी में आया ही न होता तो ? ऐसा होता है मुझे ।
मैं कोलेज के दूसरे साल में पढ़ती थी । बहुत सजना-सँवरना मुझे पहले से ही अच्छा नहीं लगता था पर थोड़ी सुन्दर तो मैं थी ही । कोलेज में मेरा कोई ग्रुप नहीं था । एक-दो फ्रेन्ड थी, उनके साथ बस में अप-डाउन करने तक का ही सम्बन्ध । एक लड़का- किशोर- अपने आपको हिरो मानता । स्कूल से ही हम साथ पढ़ते थे इसलिए एक दूसरे को पहचानते थे बस इतना ही । बात तो उससे शायद ही की होगी वह भी स्कूल के दिनों में । वह भी काम बिना मुझे बुलाता नहीं था । वह देखते ही पसंद आ जाए ऐसा हेन्डसम था, सुन्दर, वाकपटु और कोलेज की सब इवेन्टस् में नाम कमाने वाला । उसके कई मित्र थे । वह अच्छा-खासा अमीर भी होगा ऐसा उसके बाह्य-रूप और व्यवहार से लगता । मैं उससे दूर ही रहती ।
उस दिन मैं कोलेज गई ही नहीं होती तो कितना अच्छा होता......
पर गई थी –यह हकीकत है । मुझे पता नहीं था कि कोलेज में स्ट्राइक की वजह से छुट्टी हो गई थी । पहुँची तब केम्पस बिल्कुल खाली था इसलिए मुझे हैरानी हुई पर वजह जानने के लिए मैं अन्दर नोटिस बोर्ड तक पहुँच गई । पूरी गेलेरी में कोई नहीं था । बारिश के दिन थे वे । मैंने पढ़कर जाना कि, स्टुडन्ट युनियन की किसी माँग के संदर्भ में कोलेज बंद करवा दी गई है । एक चौकीदार चाचा “बेटा बारिश रूक जाए तब चली जाना, आज तो छुट्टी है” ऐसा कहते हुए वे ऊपरी मंजिल पर दरवाजे चेक करने के लिए चले गए । बारिश ज़ोरों से शुरू हो चुकी थी । मैं छाता भूलकर आई थी । ऐसे में एक बाइक की आवाज़ सुनाई दी और बारिश से बचते हुए एक युवक जल्दी से छज्जे में घूस आया । मैंने बाद में देखा तो वह किशोर था । वह भी मुझे देखकर चौंका । “क्यों सुमित्रा आज तुम भी कोलेज आ गई हो ?” हम एक दूसरे को सालों से जानते थे इसलिए मुझे शान्ति हुई । “सुमित्रा, मुझे स्ट्राइक का पता तो चल ही गया था पर, नाटक की एन्ट्री आज ही भेजनी थी इसलिए सर ने बुलाया था । पर लगता है यहाँ तो कोई नहीं है ।“
मैंने कोई जवाब नहीं दिया ।
वह आकर मुझसे थोड़ी दूर बारिश की फूहार से बचता हुआ खड़ा रहा । पूरा ही भीग चुका था । शर्ट का ऊपरी बटन खोलकर अन्दर से एक डायरी निकालकर मुझसे कहा : “इसमें फोर्मस् हैं, अपने पास रखोगी ? वरना भीग जाएँगे ।“
मैंने लेकर पानी झटककर, डायरी के बीच में पड़े हुए फोर्मस् की किनार को दुपट्टे में दबाकर सूखाने के बाद वापस रखते हुए उसे पर्स में डाल दी । फिर बरसती बारिश को देखती रही । केम्पस् में रखी हुई बैन्च खाली थी । उसके ऊपर के वृक्ष शान्त खड़े रहकर भीग रहे थे बारिश में ।
वह पहले से ही चंचल । एक पल भी स्थिर नहीं रह सकता था । निरन्तर हिलता रहता और कुछ न कुछ गुनगुनाता ही रहता । कुछ वक्त ऐसे ही बीत गया । उस दौरान मैंने दो-एक बार उसकी तरफ देखा तो उसका ध्यान भी बारिश देखने में ही था । मैं उसे देखती रही । उसके भीगे घूंघराले बालों में से पानी की बूँदें धीरे से फिसलकर कान के पास से गिर रही थी । कान की लौ गुलाबी होकर हल्के से थिरक रही थी । लाइट क्रीम कलर की शर्ट पहनी हुई थी वह भीगकर उसके शरीर से चिपक गई थी इसलिए उसमें से उसके सीने के काले बालों की नक्काशी झलक रही थी ! अचानक ही उसने मेरी ओर देखा और जैसे मैं पकड़ी गई ! कुछ नहीं हुआ हो इसतरह मैंने कहा,
“ओह, शीट यह बारिश तो रूक ही नहीं रही !”
“चलो सुमित्रा बाइक पर चलोगी, तुम्हें घर तक छोड़ दूँगा ?”
मैंने कोई जवाब नहीं दिया । सामने के वृक्ष पर दुबककर बैठे हुए कौए को देखती रही । वह बिल्कुल भीग चुका था !
मैं कुछ समझ सकूँ इससे पहले ही उसने मेरा हाथ पकड़ा । मैं उसके पीछे हो गई । गेलेरी पार करते हुए गेट के करीब बड़े छज्जे के नीचे हम पहुँचे । मैं विचारशून्य थी । मैं अभी तय नहीं कर पाई थी कि उसके बाइक पर जाना या नहीं ।
“चलो सुमित्रा, यह रूके ऐसा लगता नहीं है । निकल चलें.......”
मैं उसके साथ कुछ कदम चली और बीच में आए हुए पिलर के पास रूक पड़ी । मैंने उसके सामने देखा । वह बिल्कुल मेरे पास था । मेरी ओर झुका । दोनों हाथों में मेरा चेहरा थामकर मैं कुछ समझ पाऊँ उससे पहले तो........
मेरे होठ उसके बाद कँवारे नहीं रहे......!
पूरे शरीर में से एक भयंकर करंट जैसे गुजर गया । मैंने रिएक्शन के रूप में चाटा लगाया या धक्का दिया –मुझे पता नहीं है । बारिश की परवा किए बिना मैं वहाँ से दौड़ते हुए भाग निकली ।
कई दिनों तक घरवालों से भी छुपने की कोशिश करती रही । किसीसे बात करने में भी संकोच होता था । आईने में अपने होठों को देखकर पोंछती रहती । बिस्तर में सोते हुए कई बार उस दृश्य को चित्त से मिटा देने के लिए कोशिश की, पर व्यर्थ । फिर गुस्सा भी कहाँ तक आएगा ? अब कभी कभी तो उसके भीगे शर्ट में से दिखता मांसल, रोंयेदार सीना और थिरकती कनपट्टी- प्रयत्न करने पर भी आँखों से हटते नहीं थे । मेरी इच्छा के विरूद्ध मेरा शरीर रोमांचित हो उठता था । मैं उस घटना को भूल जाने की कोशिश करती रही, हमेशा ।
एक्सटर्नल परीक्षा देकर शादी भी कर ली अपने प्रवीण के साथ ।
कई साल बीत गए ।
फिर से यह जख़्म हरा हो गया है तीन दिन से । दोपहर के समय लेटे हुए अखबार पढ़ रही थी । फिल्म देखने का शौक उन्हें है इसलिए जाना पड़ता है । मुझे पढ़ने का शौक है । हालांकि इस घर में इसके लिए माहौल ही नहीं है इसलिए अखबार पढ़ने तक सीमित हो गया है । फिल्म की पूर्ति में अचानक ही किशोर की तसवीर देखकर मैं चौंक उठी !
पूरा लेख पढ़ गई । “के. के. के नाम से इस नवोदित दिग्दर्शक ने अपनी पहली ही फिल्म ‘पहली बूँद' से खलबली मचा देने के समाचार थे । उस फिल्म में टिनएज प्रेम का अदभूत आलेखन किए जाने के फिल्मी आलोचकों के मत इस लेख में उद्धृत किए गए थे । उसकी सुदीर्घ रंगमंच यात्रा और विदेश में नाट्य के क्षेत्र में उसने प्राप्त की हुई सफलता की बात उसमें थी । वर्षों बाद अचानक आई हुई किशोर की तसवीर ने मुझे झकझोर कर रख दिया ।!
बस तब से स्वस्थता खो चुकी हूँ । उस नालायक ने उस फिल्म में ऐसा तो क्या चित्रित किया होगा ? मेरे बारे में तो कुछ नहीं होगा न ? उस विचार ने मुझे बेचैन बना दिया है । डर लगने लगा है । यह सब प्रवीण को पता चलेगा तो –इस विचार मात्र से कांप उठती हूँ । प्रवीण बेचारा कुछ नहीं जानता है इसलिए वह बेचैन हो रहा है, हरित भी “चलो मम्मी मेरे साथ चेस खेलो ना......” कहते हुए गले से लिपटना चाहता है पर चेहरा देखकर दूर भाग जाता है । माँ भी बात करने से बचती रहती हैं और पूजा या टी.वी. के सामने बैठी रहती हैं ।
मैं क्या करू ?
मेरे सुखी संसार में वह क्यों आग लगाना चाहता होगा ? उसे दूसरे विषय नहीं मिलते कि इसी विषय पर फिल्म बनाने का सूझा ? यहाँ क्या बचा था जिसे लेने वह विदेश से वापस आया होगा ?
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मुझे आशंका थी ही कि उनका अब भी एकबार फोन आएगा । उन्हें चैन आ ही नहीं सकता । अब तक तीन बार फोन आ चुका है । हर बार वही प्रश्न,
“अब कैसी हो सुमी ? डोक्टर के पास जाना है ?”
मैंने अपना मन मजबूत करने का प्रयास किया । मुझे क्यों आज अपने पंद्रह साल लम्बे दाम्पत्य जीवन को दांव पर लगाना चाहिए । महज कोरी कल्पना करके दुखी होने का कोई मतलब सही ? उस किशोर को तो वह घटना याद भी नहीं होगी । वह तो कितनी लड़कियों को.......जाने भी दो । फिल्म लाइन में तो ‘कास्टींग काउच’ कहाँ अनजाना है ? मैं बेकार ही दिमाग में सारा बोझ लेकर घूम रही हूँ । बाद में उससे कहाँ कभी संपर्क हुआ है, वह तो यह डायरी या फोर्मस् लेने के लिए भी कभी आया नहीं । मैं ही बावली हूँ, क्यों मैंने इस डायरी को आजतक ज्यों का त्यों सँभालकर रखा ?!
देखो फिर से फोन की रींग बजी । वे आज ओफिस में शान्ति से काम भी नहीं कर सकेंगे । मुझे थोड़ी-सी कोई तकलीफ हो वह भी उनसे सही नहीं जाती । उनका ही होगा......
“हाँ बोलिए.....मुझे फोन करने के अलावा कोई काम-काज है या नहीं ?”
“…….?”
“हाँ, मैं अच्छी भली हूँ । शान्ति हुई ?”
“........”
“हरित माँ के पास सोया है । नहीं, आज नहीं ।"
“..............”
“अरे पर अभी पंद्रह दिन पहले ही तो साथ चली थी । माँ को कैसा लगेगा ? नहीं, इस तरह जितनी फिल्में आए वे सब देखने थोड़ी जा सकते हैं ?”
“............”
“हाँ......हाँ .....तुम चले जाना, मैं नहीं आउँगी । सोरी ।
चाहे पहली बूँद हो या आखरी बूँद हो... मुझे नहीं देखनी ।"
“………….”
“तुम क्या जिद लेकर बैठ गए हो ? ऐसा कुछ भी नहीं है । मेरा मूड अपने आप बदल गया है । अगर ऐसा हो तो हम सब समुन्दर किनारे चले....!”
“…………..”
“अच्छा, तुम नहीं मानोगे ? मैं तैयार रहूँगी ठीक है ? अब रखूँ ?”
-अब भी वैसे के वैसे ही है । मूइ, शर्म भी नहीं आती उन्हें । मुझे जाना ही पड़ेगा फिल्म देखने । हालांकि कहीं न कहीं मुझे भी चाह थी ही कि, ‘इस के.के. के बच्चे ने ऐसा तो क्या कमाल किया है इस फिल्म में, कि लोग पागल हुए होंगे ?’
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माँ से कहकर मैं फौरन तैयार हो गई । हरित को ट्यूशन क्लास जाना था । वहाँ से आज म्यूजिक के क्लास में । माँ तो पिछले एक हफ्ते से चल रही कथा में रोज चली जाती थी । उन्होंने कहा कि “हरित और मेरा खाना मैं ही बना लूँगी आप लोग बाहर ही खाना खाकर आना । अच्छा किया, बाहर घूमने जाओगे तो फ्रेश हो जाओगे ।“
मैं उनकी पसंदीदा ज्योर्जेट की साड़ी पहनकर तैयार हो गई । आज थोड़ा कुछ ज्यादा ही समय लिया । उनकी पसंद का स्प्रे और ऐसा सब....
प्रवीण भी वक्त पर आ गए । जल्दी से फ्रेश होकर वापस तैयार हो गए बाहर जाने के लिए । तैयार होते समय भी वे फिल्म देखकर आए हुए मित्रों द्वारा की गई तारीफ ही सुनाते रहे । मेरे मना करने के कारण आज नई फिल्म तीन-तीन दिन बीत जाने के बाद देखने जा रहे थे । इसलिए उनकी बेताबी नज़र आ ही जाती थी । पर, हमेशा से इसी फिल्म के बारे में वे क्यों इतने ज्यादा उत्साही होंगे ? क्यों अकेले जाने के बजाय मुझे साथ ले जाने के लिए इतने दिन राह देखी होगी ? वे कुछ जान गए होंगे ? पर कैसे जानते, कुछ हो तो न ?!
मैं निकलते समय ऐसे विचारों से सहम –सी गई । हरित कब ‘बाय...बाय’ कहते हुए चला गया, ट्यूशन जाने के लिए- यह भी पता नहीं चला । माँ भी घर की दूसरी चाबी लेकर चली गई । वे भी कार में बैठकर होर्न पर होर्न बजाते हुए उतावले हो रहे थे । ‘आ रही हूँ बस, दो मिनट....घर बन्द कर लूँ ...’
अभी तो इन्टरलोक में चाबी डाली ही थी कि अन्दर फोन की रींग सुनाई दी ।
‘एक मिनट प्रवीण । किसी का फोन आया है । मैं रिसिव करके आती हूँ ।’ –कहते हुए अन्दर जाकर फोन उठाया और सामने से आवाज़ सुनाई दी ......
“सुमी.....सोरी....सुमित्रा पटेल से बात कर सकता हूँ ?”
“हाँ, पर आप ?”
“के. के......ओह सोरी, किशोर बोल रहा हूँ सुमी....!”
“……….!”
“कितनी कोशिशों के बाद तुम्हारा नंबर मिला । मुझे हुआ कि चलो बात कर लूँ तुम्हारे साथ । याद आया ? मैं किशोर.... किशोर जोशी । कोलेज.....स्कूल में.....! ”
“………….!”
“सुमी प्लीज़ कुछ तो बोलो .....इतने सालों के बाद तुम मिली.....कुछ तो .....!”
“………..!”
“सुमी तुम्हें पता है ? इन्डिया में आकर मैंने अपनी पहली ही फिल्म.....'पहली बूँद’ तुम देखना.....प्लीज़....!”
“मुझे नहीं देखनी......नालायक.....नहीं देखनी तुम्हारी फिल्म.....आई हेट इट...”
-कहते हुए ज़ोर से रिसिवर पटक दिया क्रेडल पर ।
वे भागते हुए घर में आ गए तब मैं सोफे के पास ही गिर पड़ी थी । उन्होंने मुझे बाहों में ले लिया और कहा.....
“प्लीज़ सुमी, इस तरह चिल्लाओ मत । तुम्हें नहीं देखनी तो कुछ नहीं । आसपास के लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे ? इतना सारा गुस्सा ?!”
“अब कभी तुम्हें फोर्स नहीं करूँगा । अरे मैं भी कभी फिल्म देखने नहीं जाऊँगा बस, अब तो ........” उनका मुरझाया हुआ चेहरा देखकर मैं उनकी गोद में सिर रखकर रो पड़ी.......देर तक रोती ही रही । वे मेरी पीठ सहलाते रहे । कुछ देर रोने के बाद स्वस्थ होकर मैंने उनसे कहा “चलो, मैं मुँह धो लूँ, हम अब हर फिल्म साथ ही देखेंगे । जाओ गाड़ी में बैठो ।”
वे हैरान होकर मुझे देखते रहे । बाहर निकलते हुए कहा, “हाँ, सुमी फोन किसका था ? यह तो पूछना ही भूल गया था ।”
नेपकीन खूँटी पर लगाकर हँसते हुए मैंने कहा : “रोंग नंबर !”
अनुवाद---- फरहीन नियाज़ पठान