विद्रोही भक्त-कवियत्री मीरां
(गुजराती-हिन्दी रचनाओं के संदर्भ में)
-डो. बिन्दु भट्ट
पीछे मुड़कर जब हम भारत के इतिहास पर एक दृष्टि डालते हैं तब दो महान घटनाएँ हमें चौंकाती हैं । एक है मध्यकाल का भक्ति-आंदोलन और दूसरा है आधुनिक काल का स्वतंत्रता-आंदोलन । ये दोनों आंदोलन भारतीय अस्मिता का चमत्कार बनकर आते हैं ! ‘अनेकता में एकता’ का यह करिश्मा है । भारत जैसे विशाल देश में अनेक जातियाँ, वर्ग, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, भाषाओं में समाज बँटा हुआ है वहाँ एक ही समय में भूगोल का अंतर, जाति और वर्ण का अंतर, धर्म और संप्रदाय का अंतर, स्त्री-पुरुष का अंतर, भाषा-भाव का अंतर विलीन हो जाता है और समग्र भारत-वर्ष मानों एक हृदय बन धड़क रहा है, एक मस्तिष्क बन सोच रहा है । जब-जब भारत सांस्कृतिक संकट से, अस्तित्त्व के संकट से गुजरा है तब-तब संक्रान्ति की कोख से एक जन-आंदोलन ने जन्म लिया है । महान प्रतिभाओं के प्रखर प्रकाश ने संधि काल को उदभासित किया है और एक नये भविष्य का संकेत दिया है ।
भक्तिकाल की भक्त कवि मीरां ऐसी ही एक प्रज्वलित दीपशिखा है जो भारत की मूर्छित स्त्री-चेतना को सुबह के उजाले की दिशा दिखाती है ।
प्रेमचन्द शताब्दी के एक परिसंवाद में गोदान के स्त्री चरित्रों की बात करते हुए डो. नामवरसिंह ने कहा था ‘उच्चवर्ग और मध्यमवर्ग की महिलाएँ क्रान्ति नहीं कर सकती ।’ मीरां इस प्रकार के कथन के सामने प्रश्न-चिह्न खड़ा करती है । कहीं बदनामी तो कहीं सुरक्षा, कहीं वैभव-विलास-सुविधाओं का लालच तो कहीं झूठी शान बनाए रखने की विवशता में उच्च वर्ग की स्त्री 1929 में बकौल वर्जिनिया वुल्फ के न तो ‘अपने कमरे’ की मांग करती है, न तलाश और न ही संघर्ष ।ये स्त्री दूसरों द्वारा दिये गए विचार, मूल्य, आदर्श और धर्म को आभूषणों की तरह धारण कर लेती है और उसी चौखटे में अँट जाती है । मीरां ने इस प्रकार के आभूषणों और चौखटों को अस्वीकार करने का साहस दिखाकर अपने लिए ‘एक कमरा’ अर्जित किया है ।
खूणे रे बेसीने में तो झीणुं रे कांत्यु
नथी राख्यु कंई काचु रे....
वर्जिनिया वुल्फ ने 1929 में स्त्री के ‘निजी कमरे’ की बात कही थी । मीरां ने बहुत पहले अपने लिए कृष्णभक्ति का कोना तलाश लिया था ।
मीरां के विषय में गुजराती के मूर्धन्य कवि तथा आलोचक श्री निरंजन भगत का कथन है “समाज, राज्य और धर्म के बंधन में मीरां बद्ध नहीं थी, स्थल और काल की सीमा में मीरां सीमित न थी । मीरां इस पृथ्वी पर निर्वासित थी, चिर निर्वासित थी । मीरां परमेश्वर नामक प्रदेश की नागरिक थी । परमेश्वर मीरां का स्वदेश था । स्वतंत्रता, समानता, बंधुता के लिए रूढ़ि भंग, प्रणालिका भंग और क्रान्ति द्वारा उन्होंने कुलनाशी का बिरूद प्राप्त किया था, वे बदनामी और मखौल का पात्र बनी थी । इस राजपूत स्त्री ने आजीवन हर क्षण का जौहर रचा था । इस मेडतणी ने जीवनभर प्रत्येक पल जल-जलकर सतीत्त्व प्रकट किया था । परमेश्वर मीरां का इल्म था, परमेश्वर मीरां का शौर्य था, परमेश्वर मीरां की मिरात (पूँजी), बड़ी पूँजी थी । परमेश्वर मीरां का सुकून था, सबसे बड़ी आश्वस्ति था ।” ‘मीरां’-पृ.49
भक्ति काल के कवियों की तरह मीरां के लिए कविता साध्य नहीं बल्कि साधन है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो ‘यहाँ कविता बाय प्रोडक्ट है’ । इन भक्त कवियों का साध्य है भक्ति । इसीलिए तो कबीर कहते हैं ‘तुम जिन जानौ गीत है यह निज ब्रह्म विचार’ । माधुर्य भावकी उपासिका मीरां अपने साँवरे प्रीतम को रिझाने के लिए जो सौ-सौ जतन करती हैं उनमें से एक है उनकी कविता । जिस तन्मयता से वह अपने केश सँवारती है, सेज सजाती है उसी तन्मयता से गीत रचती है । जिस व्याकुलता और भावावेग में आँसुओं की माला पिरोती है, उसी व्याकुलता और भावावेग में वह गा उठती है, नाच उठती है । परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि उसे साहित्य, संगीत, धर्म आदि का ज्ञान नहीं था । मीरां का एक-एक पद सर्वांग सुन्दर कलाकृति है । कुछ लोगों को मीरां से शिकायत है कि उसमें विषय-वैविध्य नहीं, एकविधता है । परन्तु हमें याद रखना चाहिए कि मीरां का लक्ष्य कविता करना नहीं है । मीरां और उसकी रचना दोनों के विषय में गांधीजी कहते हैं “ Mira’s songs are always beautiful . They are so moving because they are so genuine. Mira sang because she could not help singing. Her songs well forth straight from the heart – like a spray. They were not composed for the lure of fame or popular applause as are some other’s songs. There lies the secret of her lasting appeal.”
मीरां की भक्ति के बारे में डो. विद्यानिवास मिश्र का कथन है- ‘उनकी रचनाओं में व्यक्त भक्ति भाव किसी भी संप्रदाय के चौखटे में अँट नहीं पाता । मीरां सगुण- निर्गुण के बीच की कड़ी ज़रूर जोड़ती है क्योंकि उनके अनुभव में निराकार और साकार रूप दोनों आँख मिचौनी खेलते रहते हैं ।’
मीरां राज-परिवार की पुत्री और वधू थी, समाज में प्राप्त भूमिका और पद दोनों के अनुसार उसे शिक्षित किया गया था । धर्म, युद्ध, साहित्य, संगीत आदि के विषय में उसे काफी जानकारी थी । भक्तिमार्ग ग्रहण करने के बाद तीर्थ-यात्रा, साधु संतों का सत्संग, श्रवण आदि के कारण समकालीन धर्म, संप्रदाय, पंथ-सबसे भलीभाँति परिचित थी । समय-समय पर उसके पदों में तत्कालीन धार्मिक संदर्भों से जुड़े पारिभषिक शब्द मिलते हैं । परन्तु एकाध पद या पंक्ति के आधार पर उसे किसी संप्रदाय से जोड़ना मुग्धता होगी । जैसे गुजराती का यह पद :
मळ्यो जटाधारी जोगेश्वर बावो, मळ्यो रे जटाधारी
हाथमां झारी, हुं तो बाळ कुंवारी, देवळ पूजवाने चाली
साडी फाडी में कफनी कीधी, अंग पर विभूति लगाडी
आसन वाळी बावो मढीमां बेठो, घेर घेर अलख जगाडी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, प्रेमनी कटारी मुने मारी । (भूपेन्द्र त्रिवेदी ,28,पृ-13)
या फिर हिन्दी में :
जोगिया ने कहियो आदेस ।
आऊँगी म्हे नाहिं रहूँ रे, कर जटाधारी भेस ।
चीर को फाडूँ, कंथा पहिरूँ, लेऊँगा उपदेस ।
मुद्रा, माला, मेखला, खप्पर सब धारण करने की बात करने के बाद अंत में तो वही ध्रुव पंक्ति है :
दास मीरां स्याम भजिबै, तण मण कीन्हौ पेस । (परशुराम चतुर्वेदी. 117 पृ.135)
दरअसल मीरां की रूचि किसी संप्रदाय या पंथ के खंडन-मंडन में नहीं है । यहाँ ‘सर्वधर्मसमभाव’ और ‘सर्वधर्म ममभाव’ का दर्शन है ।
मीरां की भक्ति माधुर्य भाव की है और उसका आराध्य है सगुण-साकार कृष्ण । यह कृष्ण ब्रजवासी कृष्ण है । उसे कृष्ण के न तो राजनीतिज्ञ-रूप से कुछ लेना-देना है और न ही योगेश्वर कृष्ण से । यह कृष्ण ब्रजनाथ है, मोहन है, नटवर है, गिरिधर है,( कहीं-कहीं राम है, सीता-पति भी है ) और मीरां स्वयं को पूर्वजन्म की गोपिका मानती है:
‘राणाजी ! हुं तो गिरिधर ने मन भावी ।
पूर्व जनमनी हुं व्रजतणी गोपी चूक थतां अहीं आवी रे....’ ( भूपेन्द्र त्रिवेदी,11 पृ.6)
यहाँ गौरतलब बात यह है कि मैं गिरिधर के मन को भा गयी हूँ । गिरिधर ने मेरा वरण किया है । परमेश्वर द्वारा चुने जाने का सौभाग्य किसी बिरले को ही मिलता है ! और आगे देखिए सूक्ष्म व्यंग्य –( यह स्त्री ही कर सकती है ) मैं पूर्वजन्म की गोपी हूँ और ग़लती से ( किसी और की, मेरी नहीं और विडंबना यह है कि मैं तो दूसरे की ग़लती सुधार रही हूँ और आप मुझे कोस रहे हैं ।) यहाँ आ गयी हूँ ।
यह तो पूर्वजन्म का पुण्य है जो बड़े घर ताली लगी है । अपनी भक्ति का प्रमाण देते कहती है मीरां ‘ पूर्व जन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय ।’ स्त्री सहज अंदाज में मीरां की विवशता का बयान देखिए :
‘हेरी म्हासूँ हरि बिनि रह्यो न जाय ।।
सास लड़े मेरी नन्द खिजावै, राणा रह्या रिसाय ।
पहरो भी राख्यो चौकी बिठार्यो, ताला दिया जड़ाय ।।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी सो क्यूँ छोड़ी जाय ।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर, अवर, न आवे म्हाँरो दाय ।।’ (परशुराम चतुर्वेदी,42,पृ.113)
इस पूरे पद में रूचिकर बात तो यह है कि मीरां अपने सामने खड़े अवरोधों की बात तो करती है पर कहीं भी दीनता-लाचारी नहीं है । अपने तइँ वह एकदम खरी है । अब आप ही बताइए, क्या पूर्व जनम की प्रीत को छोड़ना आसान है ?
मीरां का प्रेम स्वकीया का प्रेम है । उसका कृष्ण के साथ विवाह हुआ है । हिन्दी और गुजराती के इस विवाह विषयक पदों में एक अन्तर है । दिन्दी में जहाँ ‘सुपणा मां दीनानाथ परण्याँ’ (परशुराम चतुर्वेदी,27.पृ.108) वहाँ गुजराती के पदों में मीरां पहले विट्ठल का वरण करने की, उससे विवाह करने की इच्छा व्यक्त करती है ।
‘मारे वर तो विट्ठल ने वरवुं छे रे
हां, हां रे मारे ।
बीजा ने मारे शुं रे करवुं छे ? मारे ।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी. 2.1)
यहाँ तो का स्वरभार गौरतलब है ।
विट्ठल के वरण के पीछे मीरां का तर्क है : उस मोहनी मूरत की माया हो गई है और फिर :
‘संसारी नुं सुख काचु, परणी ने रंडावुं पाछुं;
तेने तो हुं शीद जाचुं रे ?
मुखडा नी माया लागी रे,
मोहन ! तारा मुखडा नी माया लागी रे ।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी. 1.पृ.1)
मीरां के लिए अन्य पुरूष (अवर), अ-वर अयोग्य है ।
“हुं तो परणी मारा प्रीतम नी संगाथ, वहालमजी ।
बीजा नां मींढळ नहि रे बांधु ।
चारे चारे जुग नी राणा, चोरीओ चितरावी रे हां ।
वहालमजी, हुं तो मंगळ वरती छुं बे ने चार
बीजा नां मींढळ नहि रे बांधु ।”(भूपेन्द्र त्रिवेदी.9 .पृ.5)
मीरां के माधुर्य भाव के विषय में डो. विद्यानिवास मिश्र का निरीक्षण है कि, ‘एक और विशेषता मीरां के माधुर्य भाव की है, वह बहुत असांसारिक है, उसमें कहीं भी देह नहीं है और न कहीं देह का व्यापार ।’ ‘श्याम रसायन .पृ. 56’
हिन्दी के पदों की जहाँ तक बात है उनकी बात ठीक है परन्तु गुजराती के कुछ पदों में संयोग शृंगार का निरूपण मिलता है :
‘ओ आवे हरि हसता, ओ आवे हरि हसता ।
मुज अबला एकलडी जाणी पीतांबर केडे कसता ।
प्रीत करे तेनी पूंठ न मेले, पासेथी रे नथी खसता ।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, व्हाला हृदय कमलमां वसता ।।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी 67. पृ.30)
कृष्ण दूर से मुस्कुराता हुआ आ रहा है । ‘ओ’ शब्द द्वारा दूरी का संकेत मिलता है । उसकी मुस्कुराहट बता रही है कि उसके इरादे कुछ ठीक नहीं है । मीरां अपने लिए ‘अबला’ और ‘एकलडी’ शब्द का प्रयोग करती है । कृष्ण को मौका मिल गया है, वह कमर पर पिताम्बर कस रहा है । मीरां को इस बात का आश्चर्य नहीं है क्योंकि कृष्ण जिससे भी प्रेम करता है उसका पीछा नहीं छोड़ता ।मीरां भले ही कहें कि कृष्ण मेरे पास ही रहता है, परन्तु वह भी चाहती है कि कृष्ण उसकी आँखों से एक पल के लिए भी ओझल न हो ।
मीरां की शिकायत में वही ‘स्त्री’ स्वभाव है जहाँ ‘ना’ का अर्थ होता है ‘हाँ’ । एक पद में वह कहती है :
“कानुडे वनमां लूंटी ।
हाथ झाली मारी बाह्य मरोडी, मोती नी माळा तूटी ।
आगळथी मारो पालवडो साह्यो, मही नी मटुकी झूंटी ।” (भूपेन्द्र त्रिवेदी 111 पृ. 47)
दहीं बेचने गयी मीरां की कृष्ण मटकी झपटता है, बांह मरोड़ता है, पल्लू पकड़ता है, मोती की माला तो कभी हियड़ा का हार तोड़ता है । कभी हाथ की अंगूठी पकड़ता है । ( मीरांना पदो, भूपेन्द्र त्रिवेदी पृ.47, 45, 40, 44) पनघट लीला, दधिबेचन-लीला,(मीरांबाइ की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी, पग.176 पृ.151) दानलीला, रासलीला में संयोग शृंगार के पद मिलते हैं ।
“लूंटी लूंटी लूंटी, का’नाए रंग रसकी बाजी लूंटी ।
आंगळी पकड़ी मेरा पहोंचा बी पकड्या
पकड़ी हाथ अंगूठी ।” (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 107,45)
कृष्ण की मोहनी मूरत, उसकी बंकीम छवि और मुरली की तान ने क्या जादु टौना कर दिया है कि मीरां सबकुछ भूल गई है, बावली-सी घूमती है । एक पल भी कृष्ण का विरह उसके लिए सह्य नहीं है ।
“मारी नजरुं आगळ रहेजो रे, नागरनंदा ।
मारा नेणा सन्मुख रहेजो रे, बालमुकुंदा ।
भुराटी थै ने हुं रे फरुं छुं, लोको करे छे मारी निंदा ।
काम ने काज मने कांइ न सूझे, भूली छुं घर केरा धंधा ।” (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 42 पृ.19)
प्रेम की उन्माद अवस्था के लिए ‘भूराटी’ शब्द का प्रयोग पूरा चित्र खड़ा कर देता है । तन-मन से बेखबर, संसार व्यवहार छोड़ कृष्ण दीवानी मीरां का इससे बेहतर बयान क्या हो सकता है ।
मीरां के काव्य में स्थायी भाव है विरह का । प्रेम की कटारी लगी और जीवनभर की पीड़ा दे गयी । कभी तो लगता है कृष्ण शिकारी है और मीरां घायल हरिणी । नयनों के बाण से घायल । हिन्दी में मीरां का प्रसिद्ध पद है :
“हे री म्हाँ दरद दीवाणाँ, म्हाँ दरद न जाण्या कोई ।” (परशुराम चतुर्वेदी, 70, पृ 121)
रातभर कृष्ण के विरह में मीरां जागती रहती है । प्रेम की आँच में तपती रहती है । सारा संसार सो रहा है और विरहिणी बैठी बैठी आँसुओं के मोती की माला पिरोती रहती है । त्यौहार आते हैं, ऋतुएँ आती हैं और विरहिणी की पीड़ा बढ़ती है :
‘बोले झीणा मोर राधे ।
तारा डुंगरिया पर बोले झीणा मोर रे ।
मोर ही बोले, बपैया ही बोले, कोयल करे कलशोर रे ।
माझम राते भली वीजळी चमके, बादल हुआ घनघोर रे ।
झरमर झरमर मेहुलो वरसे, भीजें मारा साळुडानी कोर रे।
बाई मीरां के प्रभु गिरिधर नागर, तुं तो मारा चित्तडानो चोर ।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 245, पृ.91)
इस ‘राधा’ के डुंगर पर आगे चलकर और भी विषम स्थिति पैदा होती है । विरह-व्यथा की अकथ कहानी का इतना मर्मस्पर्शी चित्र दुर्लभ है :
दव तो लाग्यो डुंगरिये, अमे केम करिए ?
हालवा जइए तो वहाला हाली न शकीए.
बेसी रहीए तो अमे बळी मरीए रे ।
आ रे वस्तीए नथी ठेकाणु रे वहाला हेरी
पर वस्तीनी पांखे अमे फरीए रे ।
संसार-सागर महा-जळ भरीओ वहाला हेरी
बांहेडी झालो नीकर बूडी मरीए रे ।
बाइ मीरां के प्रभु गिरिधर नागर हेरी
वहाला तारो तो अमे तरीए रे । ‘मीरां’ निरंजन भगत, पृ. 85
पर्वत-सी पीर हो गई है । यहाँ आग लगी है पर कहाँ जाएँ ? कहना चाहे तो कह नहीं सकते और अगर चूप रहे तो संभव है हिया ही वेदना से फट जाए ?
विरह निवेदन में मीरां कृष्ण को याद दिलाती है कि तुम तो दिनानाथ हो । तुमने कितने सारे लोगों की व्यथा मेटी है । अहल्या, सुदामा, शबरी, द्रौपदी, ध्रुव, प्रहलाद.......तो फिर मैं ही वंचित क्यों ?
कृष्ण के मथुरागमन पर मीरां ने कुब्जा को निशाना बनाकर काफी उपालम्भ दिया है । हिन्दी के पदों में उद्धव है परन्तु कुब्जा नहीं ।
‘वेरण कुब्जाने कोई वारो रे, ओ पेली कुबडी ने कोई वारो रो ।
ओधव जइने एटलुं रे कहेजो, कहान मोहन नथी तारो रे....’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 183, पृ.70)
कृष्ण पर अपना अधिकार जताते हुए मीरां कुब्जा के रूप-रंग का वर्णन करते हुए कहती है :
काळी शी कुब्जा ने अंगे छे कूबडी, ए शुं करी जाणे लटको
ए छे काळो ने ते छे कूबडी, रंगे रंग बनयो चटको रे...... (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 189, पृ.72)
उस कूबडी को क्या आएगा कृष्ण को रिझाना ? वह तो मैं ही जानती हूँ । फिर सोचती है काले कृष्ण और कूबडी की अच्छी बनी जोडी है ! असूया, क्रोध मिश्रित कसक हाहाकार बनकर यहाँ आती है ।
कभी कभी मीरां ज्योतिषी को पूछती है :
क्यारे मळशे का’न जोशीडा ! जोश जुओने ।
देह तो वहाला दुर्बल थइ छे, जेवा पाकेला पान ।
सुख तो वहाला सरसव जेटलुं, दुख तो दरिया समान ।
सेजलडी वहाला सूनी रे लीगे, रजनी युग समान ।
बाइ मीरां कहे प्रभु गिरिधर ना गुण, चरण कमळमां ध्यान । (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 52, पृ.23)
अपने भक्ति मार्ग में मीरां दो स्तर पर संघर्ष का सामना करती है । एक निजी साधना के स्तर पर जहाँ उसे अपने आराध्य प्रियतम का निरन्तर विरह झेलना है, और दूसरे सामाजिक स्तर पर जहाँ राणा है, परिवार है, समाज है । सामाजिक संघर्ष आग में घी का काम करता है । उसकी पीड़ा तो बढ़ाता है परन्तु साथ ही साथ साहस भी बढ़ाता है ।
मीरां के देवर राणा ने उसे रोकने के लिए और फिर उसे मार डालने के लिए भाँति-भाँति के षडयंत्र रचे पर वह सफल नहीं हुआ । एक अर्थ में मीरां शायद भारतीय साहित्य में प्रथम आत्मकथा लिखने वाली स्त्री है । देवर, ननद के नामों के उल्लेख और उनके द्वारा दी गई यातनाएँ उन्होंने बेबाक होकर पदों में कही है । मीरां को कुल परिवार, समाज, राज्य, वैधव्य धर्म की दुहाई देकर रोकने के जो प्रयत्न किए गए उनके कुछ संवाद-काव्य गुजराती में मिलते हैं ।
मीरां-राणा संवाद में राणा मीरां को धन संपत्ति का लालच देकर साधुसंगत छोड़ने को कहते हैं तो उत्तर में मीरां उन्हें संपत्ति की व्यर्थता बताकर खुद राणा को भक्ति-मार्ग अपनाने को कहती है । लेकिन एक क्षण आता है जब वह अनुभव करती है कि राणा के राज्य में अब तो पानी पीना भी पाप है और वह मेवाड़ छोड़ने का निर्णय लेती है :
भाई रे साथीडा सांढणी शणगारो, मारे जावुं ते सो-सो कोस
राणाजी, तारा राजमां रे मारे पाणी पीधानुं छे दोष रे
राणा घेर नहीं आवुं । (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 5, पृ.3)
मीरां खूब जानती है कि राणा को नाराज किया जा सकता है, हरि को नहीं । क्योंकि हरि अगर रूठ गया तो फिर कहाँ जाऊँगी ? – भूपेन्द्र त्रिवेदी, 22 पृ.11
इस खारे समुद्र में भक्ति ही एकमात्र अमृत का स्रोत है । मीरां संसार की व्यर्थता जान गई है और अपनी भक्ति की उपलब्धि भी पा गई है । कृष्ण को पाने के बाद अब कुछ भी पाना शेष नहीं है ।
‘मुज अबळाने मोटी मिरात बाइ,
शामळो घरेणुं मारे साचुं रे ।
वाळी घडावुं विट्ठलवर केरी, हार हरिनो मारे हैये रे,
चित्तमाळा चतुर्भूज चूडलो, शीद सोनी घेर जइए रे ?
झांझरियां जगजीवन केरा कृष्णजी कल्लांने कांबी रे,
वीछुवा घूघरा रामनारायणना, अणवट अंतरजामी रे
पेटी घडावुं पुरूषोत्तम केरी, त्रिकम नामनुं ताळु रे
कुंची करावुं करूणानंद केरी, तेमां घरेणुं मारुं घालुं रे
सासरवासो सजीने बेठी, हवे नथी कांइ काचु रे
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर हरिने चरणे जाचुं रे ।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 35, पृ.16)
मीरां नखशिख कृष्ण-प्रेम के आभूषण से सज गई है । यह माधुर्य उपासना की उपलब्धि है । कल तक अबला थी, अब संसार की सबसे बड़ी पूंजी पा गई है । मीरां कृष्ण के विरह में तड़पती है, कृष्ण के सामने दीनभाव से गिड़गिड़ाती है पर उसे अपनी भक्ति पर पूरा भरोसा है । भले ही कृष्ण ने कच्ची डोर से बाँधा है पर वह जितना खींचता है मीरां उसकी ओर और खींची चली जाती है :
‘काचे ते तांतणे हरिजी ए बांधी
जेम खेंचे तेम तेमनी रे
प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे मने लागी कटारी प्रेमनी रे ।’ (भूपेन्द्र त्रिवेदी, 136, पृ.54)
मीरां को अपनी भक्ति पर दृढ आस्था है । कहीं कोई शंका नहीं है ।
कबीर अपने को सुर, नर, मुनि से बड़ा बताकर बलंद स्वर में कहते हैं ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ और मीरां किसीको बिना चोट पहुँचाए स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करती है कि उसने कहीं कुछ ‘कच्चा’ नहीं छोड़ा । तन-मन-धन देकर कृष्ण को खरीदा है , कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं, कहीं कुछ भी बचाकर चलना नहीं है, उस साँवरे के हाथों में सबकुच सौंप दिया है, वो जो पहिरावे वही पहना है, जो दे वही खाया है, उसके एक-एक ईशारे पर सांस ली है तभी तो यह आत्मविश्वास है कि कहीं कोई कमी रही नहीं है । मीरां किसी पहाड़ की चोटी से घोषणा नहीं करती । उसके पैर ठोस जमीन पर है और उसी ठोस जमीन पर खड़ी होकर वह सिर उठाकर अपना आकाश-सा आत्मविश्वास प्रकट करती है । आकाश किसी पर हावी नहीं होता , उम्मीद का आधार देता है । मध्यकाल की एक स्त्री ने अपने पैरों पर खड़े होकर सर उठाने का साहस दिखाया है ।
डा. बिन्दु भट्ट, विभागाध्यक्ष, उमा आर्ट्स एन्ड नाथीबा कामर्स कालेज, सेक्टर-23, गांधीनगर-382016