प्रस्तुत लेख में दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथात्मक कृति जूठन को निम्नवर्गीय अध्ययन एवं इतिहासलेखन के लिये एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में देखने की कोशिश की जा रही है। इस आत्मकथा का जितना महत्व साहित्यिक विधा के स्वरूप में है उतना महत्व हम इसे इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में देख सकते हैं। जबकि अब इतिहासलेखन की विषयवस्तु के लिये किसी भी तरह से मुख्यधारा का अंग या सत्ता का ईर्द-गिर्द होना आवश्यक नहीं रहा है। मानव समाज के वो हर एक परिवर्तन जो व्यवस्थाओं में परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता के कारण बनते हैं वो भी इतिहास की विषयवस्तु हैं। इस संदर्भ में इतिहास को महज उपर से नहीं बल्कि नीचे से देखने का चलन यद्यपि नवीन है किन्तु अब जोर पकड़ रहा है। इसी संदर्भ में जूठन भी भारतीय समाज व्यवस्था को अधिक नजदिकी से जानने और उसकी वास्तविकताओं को अंकित करने का एक महत्वपूर्ण साधन है जो इतिहास की अनेक भ्रमणाओं को न सिर्फ तोड़ता है बल्कि समाज की उस तस्वीर को वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है जिसे मुख्यधारा के इतिहासलेखन में उचित स्थान नहीं मिल पाया।
आत्मकथा और इतिहास
इतिहासलेखन में सदैव स्रोतों की अहम भूमिका रही है। समकालीन साहित्य आलोच्य काल के इतिहास जानने का महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। साहित्य और इतिहास के बीच का अन्तर दोनों के पद्धतिशास्त्र में नीहित है इसलिये समकालीन साहित्य इतिहास न हो कर इतिहास जानने का साधन होता है। इसी तरह के साहित्यिक साधनों में जीवनवृत्त एवं आत्मकथाएं महत्वपूर्ण मानी जाती है। भारतीय इतिहास के संदर्भ में पहला ऐतिहासिक जीवनवृत्त संभवतः बाणभट्ट रचित हर्षचरित माना जाता है। चरित साहित्य में शासक अथवा स्वामी का जीवनवृत्त अंकित करने का श्रम साहित्यकारों के द्वारा किया गया था किन्तु इस आलेखन का पद्धतिशास्त्र साहित्य का रहा इसलिये ये सदैव साहित्यिक कृतियाँ रही एवं इतिहास के लिये सहायक सामग्री की तरह प्रयुक्त हुईं। जीवनवृत्त और आत्मकथा का काल-संदर्भ इतिहासलेखन में दोनों के महत्व को अलग-अलग स्तर पर लाकर खड़ा कर देता है। आत्मकथा पूरी तरह से प्राथमिक स्रोत है जो समय विशेष को व्यक्ति विशेष की दृष्टि और संदर्भ में देखा गया होता है किन्तु उसकी पद्धति उसे साहित्य का हिस्सा बना देती है जबकि प्राथमिक दृष्टि से देखा जाए तो वो इतिहास ही प्रतित होता है। इतिहास एक अधिक व्यापक सरोकारों को पोषित करते हुए समय विशेष में व्यक्ति के समष्टि के साथ संबंधों के आधार पर प्रस्तुत किया गया ऐसा कथन होता है जो उस समय-विशेष के चरित्र को तार्किक एवं प्रासंगिक रूप से प्रस्तुत करता है। भारत के इतिहास को चाहे जिस धारा के तहत लिखा गया हो लेकिन सभी में आत्मकथाओं के संदर्भ अवश्य आए हैं। मध्यकालीन आत्कथाओं में बाबरनामा को एक श्रेष्ठ आत्मकथात्मक कृति माना जाता है। समय के साथ हुए सांस्कृतिक बदलावों और इतिहासलेखन में आई नवीनतम धाराओं, विवेचनात्मक विमर्शों ने आत्मकथाओं की इतिहास में उपयोगिता को और भी बढ़ा दिया। वस्तुतः आत्मकथाएँ एक व्यक्ति की दृष्टि से समकालीन समाज को देखने, समझने और उसमें अपनी भूमिका को सिद्ध करने की गाथाएँ हैं। अतः उस काल के इतिहासलेखन के लिये ये कृतियाँ प्राथमिक स्रोत की तरह उपयोग में लाई जाती रही हैं। मुख्यधारा के इतिहास के अनुरूप ही इन कृतियों का उपयोग इतिहासलेखन में किया गया है। आत्मकथात्मक कृति अपने समय में घटित घटनाओं का एक पक्षीय नजरिये से प्रस्तुत एक दस्तावेज होता है जो इतिहासकार को उसके महत्व एवं जरूरत की सामग्री प्रदान करता है। इतिहासकार उस कृति को आधार बनाता है, इतिहासलेखन के पद्धतिशास्त्र का उपयोग करता है और उस समय का वो रेखाचित्र अंकित करने का प्रयास करता है जिसे वो अपनी दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता है। अतः आत्मकथात्मक कृतियाँ समकालीन इतिहासलेखन का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होती हैं।
सबाल्टर्न अध्ययन और इतिहासलेखन
भारतीय इतिहासलेखन में इतिहासलेखन की नवीनतम धारा निम्नवर्गीय इतिहासलेखन या सबाल्टर्न इतिहासलेखन एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है। अस्सी के दशक में औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के सामने सवाल खड़े करने की श्रृंखला में इतिहासलेखन की एक नई धारा का विकास हुआ जिसके तहत उसके पूर्व हुए इतिहासलेखन को अभिजनवादी या इलीट इतिहासलेखन बताते हुए निम्नवर्गीय इतिहासलेखन की तार्किकता और आवश्यकता को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। मार्क्सवादी इतिहासकार रणजीत गुहा के द्वारा शुरू किये गए सबाल्टर्न स्टडीज़ में जो लेख प्रकाशित हुए उससे सबाल्टर्न इतिहासलेखन का एक आधारभूत ढ़ाँचा तैयार होता है। मूल रूप से सैन्य दल में निचले क्रम के सैनिकों के लिये प्रयोग किये जाने वाले शब्द सबाल्टर्न का गैर-सैन्य संदर्भ में सबसे पहले प्रयोग इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी ने किया था। प्रिजन नोटबुक में उन्होंने निम्नवर्गीय इतिहास के पद्धतिशास्त्रीय मापदण्डों की बात की और उसी में निम्नवर्ग को परिभाषित भी किया। ग्राम्शी के अनुसार निम्नस्तरीय वर्ग संगठित नहीं हैं और जब तक वे राज्य बनने के योग्य नहीं हो जाते तब तक संगठित हो भी नहीं सकते। ग्राम्शी के द्वारा उदधृत निम्नवर्ग न सिर्फ शासित हे बल्कि सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से वंचित भी है। ग्राम्शी ने वर्ग-संघर्ष की सैद्धान्तिक ढ़ाँचे में इसे व्याख्यायित किया था। 1963 में प्रकाशित ई.पी.थाम्पसन की पुस्तक दि मेकिंग ऑफ दि इंग्लिश वर्किंग क्लास के बाद नीचे से इतिहासलेखन के लिये एक नया रास्ता तैयार होना शुरू हुआ। इसका प्रभाव भारतीय इतिहासकारों पर भी पड़ा। अस्सी के दशक में कतिपय इतिहासकारों ने श्रृंखलाबद्ध तरीके से इस संदर्भ में लेखों को सबाल्टर्न स्टडीज पुस्तक श्रृंखला में प्रकाशित किया और निम्नवर्गीय इतिहासलेखन का एक सैद्धान्तिक ढ़ाँचा विकसित करने का प्रयास किया। रणजीत गुहा, शाहिद अमीन, पार्था चटर्जी, ज्ञानेन्द्र पाण्डे, डेविड हार्डीमन, गायत्री चक्रवर्ती स्पीवेक, सुमित सरकार, सुदिप्त कविराज आदि इतिहासकारों ने सबाल्टर्न स्टडीज पुस्तक श्रृंखला में सबाल्टर्न इतिहास को व्याख्यायित और प्रस्तुत किया।
मुख्यधारा के इतिहासलेखन की प्रकृति, पद्धति और विषयवस्तु के आधार पर आलोचना करते हुए उस वर्ग के इतिहास पर जोर दिया गया जिसे हाशियाकृत माना जाता रहा। प्रारम्भ में इस अध्ययन में राजनीतिक-आर्थिक वर्चस्व द्वारा शोषित वर्गों के संघर्षों को प्राथमिकता दी गई लेकिन बाद में सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के महत्व को भी स्वीकार किया गया और इस अध्ययन की पहुँच को और अधिक व्यापक बनाने के प्रयास किये गए। यद्यपि इस अध्ययन में औपनिवेशिक संदर्भों को अधिक स्थान मिला किन्तु उत्तर-औपनिवेशिक संघर्षों को अस्वीकार नहीं किया गया। सामाजिक रूप से हाशियाकृत एवं उपेक्षित समुदायों के इतिहास को भी इसी संदर्भ में हम सबाल्टर्न अध्ययन का हिस्सा मान सकते हैं। समकालीन इतिहास को इतिहासलेखन की विभिन्न धाराओं के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें सबाल्टर्न धारा इतिहास को अधिक व्यापक पटल पर ले जाती है। आजादी के बाद के इतिहास में अब राजनीतिक इतिहासलेखन की अपेक्षा सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहासलेखन को अधिक महत्व दिया जा रहा है। नीचे से इतिहास लेखन को इतिहास की व्यापक दृष्टि के रूप में माना जा रहा है। मुख्यधारा के इतिहास के साधन ठीक उसी तरह से सरकारी अभिलेख, प्रलेख, सरकारी दस्तावेज आदि रहे हैं किन्तु निम्नवर्गीय इतिहास जानने के लिये तो अभी भी व्यक्तिगत विवरणों, अलिखित अथवा मौखिक स्वरूप में उपस्थित कथनो, कथानकों पर अधिक निर्भर रहना होता है। इस स्थिति में आत्मकथात्मक कृतियाँ और अधिक महत्व की हो जाती हैं।
जूठनः एक सबाल्टर्न ऐतिहासिक दस्तावेज
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन शीर्षक से सन् 1997 में प्रकाशित हुई। साहित्य जगत में इस आत्मकथा पर पर्याप्त विमर्श हुए और इसे दलित साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति भी माना जाता है। यहाँ हम इस कृति को एक ऐतिहासिक दस्तावेज के नजरिये से देखने का प्रयास करेंगे, खास तौर पर सबाल्टर्न अध्ययन के ढाँचे में इसकी महत्ता को समझने की कोशिश रहेगी। पूरी आत्मकथा अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज है किन्तु यहाँ हम ओमप्रकाश वाल्मीकि के गाँव बरला से संबंधित विवरणों को ही केंद्र में रख कर बात करेंगे।
भारत का स्वातन्त्र्योत्तर काल का इतिहास समकालीन इतिहास का हिस्सा माना जाता है। सबाल्टर्न अध्ययन में प्रारम्भिक इतिहासकारों ने मुख्य रूप से औपनिवेशिक काल को ही अपना संदर्भ बनाया और राजनीतिक-आर्थिक वर्गीय संघर्षों के ईर्द-गिर्द अपनी विषयवस्तु को सीमित रखा। किसान, मजदूर, आदिवासी आन्दोलनों, परिवर्तनों को मुख्य रूप से केन्द्र में रखा गया। किन्तु पश्चातकालीन इतिहासकारों ने उसे और अधिक व्यापक बनाया और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों और संघर्षों को भी इस अध्ययन में स्थान दिया जाने लगा। यद्यपि जाति के प्रश्न पर इस अध्ययन में कतिपय चर्चाएँ हुई है किन्तु वंचितता का अध्ययन जितना आर्थिक एवं राजनीतिक संदर्भ में किया गया उतना सामाजिक संदर्भ में नहीं किया गया और इसके एक परिणाम के रूप में हम ये भी देख सकते हैं कि दलितों का प्रश्नों को लेकर एक अलग अध्ययन की शाखा का विकास हुआ जिसकी समस्या को देखने, समझने और पेश करने की अपनी अलग पद्धति थी जो सबाल्टर्न से भिन्न रही। इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि सबाल्टर्निटी को और अधिक सूक्ष्मता से देखने का प्रयास किया गया जिसकी पद्धति सबाल्टर्न से भिन्न थी। इस सब के बावजूद भी दलित समस्या और उसके सामाजिक व्यवस्था संबंधी अध्ययनों को सबाल्टर्न संदर्भ में समझा जा सकता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वयं लिखते हैं कि, दलित-जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। सबाल्टर्न अध्ययन मे भी अभिजन इतिहास के समकक्ष उपेक्षितों के इतिहास को दर्शाने का उद्देश्य सर्वोपरी रहा है। इस आधार पर ओमप्रकाश वाल्मीकि जो लिख रहे हैं वो उपेक्षितों के इतिहास को जानने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
उपेक्षितों की वसाहतों और उस वसाहत की भू-राजनीति के वर्णन से ही आत्मकथा की शुरूआत होती है। एक व्यक्ति के रूप में खुद की समस्याओं का वर्णन करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी समस्या को कभी भी व्यवस्था से अलग करके नहीं देखते बल्कि उसे व्यवस्थामूलक ही दर्शाते हैं। बेगार एक आर्थिक शोषण है और वो सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन कर अंततः एक वर्ग का राजनीतिक-सामाजिक एवं आर्थिक वर्चस्व बरकरार रखता है। इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं,
“घर में सभी कोई न कोई काम करते थे। फिर भी दो जून की रोटी ठीक ढ़ंग से नहीं चल पाती थी। तगाओं के घरों में साफ-सफाई से लेकर खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी सबी काम होते थे। उपर से रात-बेरात बेगार करनी पड़ती थी। बेगार के बदले मेंकोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था। बेगार के लिये ना कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। गाली-गलौज, प्रताड़ना अलग।......सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।“
आजादी के संघर्ष में वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व एवं उनके अधिकारों को लेकर हमेशा अंतर्संघर्ष की स्थिति बनी रही। संघर्ष का नेतृत्व अभिजनवादी बना रहा और इसीलिये संघर्ष के उद्देश्य से लेकर उसके परिणामों तक में वंचितों का स्थान हाशिये पर ही रहा। अम्बेडकर ने दलित प्रश्न को आन्दोलन के समय में भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनाने में सफलता अर्जित की और आजादी की राजनीतिक आजादी के रूप में संकुचित अवधारणा को चुनौति दी। सामाजिक स्तर पर शोषण के उन्मूलन को भी उन्होंने राजनीति का प्रश्न बनाया और इसी वजह से इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये सार्वभौमिक शिक्षा को एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा गया। ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रारम्भिक वर्षों के विवरण से इस बात को अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि किस तरह से समकालीन परिस्थितियों में शिक्षा को एक समाधान के रूप में देखा जा रहा था लेकिन सामाजिक व्यवस्थाएँ भले ही ढाँचागत बदलावों को स्वीकर कर ले लेकिन इतिहास की विडम्बनाओं से मुक्त नहीं हो सकती। वाल्मीकि लिखते हैं कि, “उन दिनों देश को आजादी मिले आठ साल हो गए थे। गांधीजी के अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती थी। सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिये खुलने शुरू हो गए थे, लेकिन जनसामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था।”
मुख्यधारा के लेखन ने फिर चाहे वो साहित्यिक कृति हो या फिर इतिहास हो हमेशा कुछ दोष रहित सामाजिक प्रतीकों को स्थापित किया है। जूठन में इस तरह के ही एक प्रतीक ‘शिक्षक’ को सामाजिक व्यवस्था के ही ऐसे अंग के रूप में प्रस्तुत कि जो शोषण और भेदभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के एक प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शिक्षक किसी भी तरह से समाज की विद्रुपताओं से परे नहीं है बल्कि कई मायनों में उस सामाजिक व्यवस्था को बरकरार रखने का एक महत्वपूर्ण साधन तक बन जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के शिक्षा प्राप्ति को लेकर संघर्षों के लगभग सभी वाकये इस बात को बहुत ही साफ तरह से बताते हैं। ये वाकये भले ही एक व्यक्ति के साथ घटित घटनाएँ थी किन्तु वो समकालीन व्यवस्थाओं का ही एक हिस्सा थीं। जूठन का सबाल्टर्न इतिहास के संदर्भ में विश्लेषण करते समय कलीराम हेडमास्टर की ऐतिहासिकता सिद्ध करने से अधिक महत्वपूर्ण कलीराम का ओमप्रकाश के प्रति व्यवहार है। कलीराम एक ऐसी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो कार्य-विभाजन के आधार पर बनी है और जो सामाजिक स्तरीकरण को स्वीकार करते हुए अधिकारों को व्याख्यायित करती है। अश्वत्थामा वाला वाकया ये बताता है कि किस तरह से जन-चेतना को संकुचित रूप में परिभाषित किया जा रहा था और उस खण्डित जन-चेतना को स्थापित सामाजिक मान्यता के रूप में सहजता से स्वीकार किया जा रहा था। एक अछूत के सवाल करने को एक अनहोनी घटना के रूप में देखना और उसे चारों युगों में सबसे निकृष्ट युग माने जाने वाले कलियुग के रूप में पेश करना, इस बात का स्पष्ट निर्देश देता है कि आजादी अभिजात वर्ग के लिये राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण थी न कि एक नवीन समतामूलक समाज के निर्माण की कोई कवायद थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि के पिता का बार-बार ये कहना कि, पढ़-लिख कर जाति सुधारनी है, शिक्षा के करिश्माई चरित्र के प्रति अगाध श्रृद्धा को इंगित करता है। वंचित वर्गों में सुधार के विचार का उद्भव आजादी के आन्दोलन के दौरान हुए विविध आन्दोलनों की ही देन रही होगी। ओमप्रकाश जब अपने पिता के समक्ष सलाम की व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है तो पिता के द्वारा उसकी इस चेतना का श्रेय शिक्षा को देना इस बात को स्पष्ट करता है कि सामाजिक न्याय प्राप्ति के लिय अम्बेडकर द्वारा educate, agitate, organize की बात किस तरह से तार्किक एवं वैज्ञानिक थी। बस्ती के लोगों के द्वारा बेगार में जाने से इनकार कर देने पर प्रभु वर्ग ने इस समस्या का जो व्यवस्थामूलक हल निकाला वो इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि मुख्यधारा के इतिहास में जब आजादी के बाद नये भारत के निर्माण की संघर्ष गाथाएँ लिखी जा रही थी तब उसी भारत में छद्म-आजादी की व्यथाएँ विषयवस्तु बनने की राह देख रहीं थी। मुख्यधारा के इतिहासलेखन ने सत्ता को समग्र के रूप में प्रस्तुत किया किन्तु सत्ता एक बहुत ही छोटे वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। सबाल्टर्न ने मुख्य रूप से दो वर्गों की बात कही जिसमें इलीट और सबाल्टर्न दोनो वर्ग एक-दूसरे के सामने खड़े हैं। संसाधनों और सत्ता पर अधिकार वाला वर्ग इलीट और जो इस सब से वंचित है वो सबाल्टर्न। धर्म के मुद्दे को लेकर भी ओमप्रकाश ने अनेक उद्धरण दिये हैं जिनसे भारत में किसी एक प्रतिनिधि धर्म होने की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। जन-जीवन में धर्म की अनिवार्यता, उसका महत्व कभी भी उसकी एकरूपता का प्रतीक नहीं होता है। अगल-अलग सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ आस्थाओं के निर्माण और उसके अमलीकरण का मुख्य आधार होती हैं। सबाल्टर्न अध्ययन श्रृंखला में भी इसी तरह की हाशियाकृत आस्थाओं के महत्व को उजागर किया गया है। जूठन इस संदर्भ में भी एक महत्वपूर्ण कृति है। ओमप्रकाश के बरला गाँव को छोड़ कर शहर जाने की की परिस्थिति का वर्णन एक व्यक्ति की दुखद गाथा न होकर सबाल्टर्न और इलीट के बीच होने वाले संघर्ष का सजीव चित्रण है।
जूठन की कथानकता में भी लेखक का इतिहासबोध दृष्टिगोचर होता है। घटनाओं का विवरण उन पर अपनी स्वतन्त्र टिप्पणियाँ और उन घटनाओं के व्यापक ऐतिहासिक, व्यवस्थामूलक संदर्भ लेखक की इतिहास-दृष्टि को बताते हैं। यद्यपि जूठन को दलित साहित्य की एक कृति के रूप में अधिक मान्यता प्राप्त है किन्तु सबाल्टर्न अध्ययन एवं इतिहासलेखन के लिये इस कृति में भरपूर सामग्री की संभावनाएँ हैं। भविष्य में जब भी कभी स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक इतिहास का लेखन सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य में किया जाएगा तब इस कृति के संदर्भ उस अध्ययन को ठोस बनाएंगे और तार्किक आधार प्रदान करेंगे।
संदर्भ
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