Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature
अपने-अपने पिंजरे – व्यथा की कथा
हिन्दी दलित साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर मोहनदास नैमिशराय ने 1995 में प्रथम हिन्दी दलित आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ लिखकर आत्मकथा की विधा में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । यह आत्मकथा दो भागों में प्रकाशित हुई है जिसका दूसरा भाग 2000 में प्रकाशित हुआ जिसमें मोहनदास नैमिशराय ने ओजस्वी शब्दों एवं भाव अर्थों द्वारा दलितों में एक नूतन क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है । मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा दलित आंदोलन की भांति आक्रामक है । यह आत्मकथा रोचक व वर्णनशैली में लिखी गई तथ्यपूर्ण घटनाओं पर आधारित है । ‘पिंजरे’ को आत्मकथा में प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है । हर एक व्यक्ति अपनी जाति रूपी पिज़ड़े के अन्दर कैद है और चाहकर भी मुक्ति उसे नहीं मिलती । समाज का हर व्यक्ति खासकर दलित समाज का हर व्यक्ति अपने-अपने ‘पिंजरे’ में कैद है।

आत्मकथा एक ऐसा दस्तावेज है जो लेखक के अनुभवों को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है । यह विधा क्षोभ के तीव्र उद्गारों को उनके कारणों सहित अनुभवों के साथ एकाकार करके उल्लेखनीयता, प्रदान कर देती है । ‘अपने-अपने पिंजरे’ आत्मकथा में जिस भाव प्रवणता, प्रखरता तथा मुखरता से अपने जीवन के समस्त कटु अनुभवों को लेखक ने सहेजकर व्यक्त किया है वह प्रशंसनीय है । वास्तव में यह सराहनीय एवं साहसिक कार्य है । ‘अपने-अपने पिंजरे’ नितान्त मोहनदास नैमिशराय जी की व्यक्तिगत रचना होते हुए भी सकल दलित समाज की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करती है । इसमें लेखक ने अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम कटु सच्चाइयों को इतने निर्भीकता से उकेरा है कि उसमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता के साथ व्यक्त हुई है ।

‘अपने-अपने पिंजरे’ वर्णन शैली में लिखी रोचक आत्मकथा है जो तथ्यपूर्ण घटनाओं पर आधारित है । इस कृति में गाँव की जर्जर अवस्था से लेकर शहर की चकाचौंध कर देनेवाली संस्कृति का चित्रण लेखक ने बखूबी किया है । लेखक ने अपनी आत्मकथा का प्रारंभ अपने शहर मेरठ के छोटी सी बस्ती से किया है । छोटी सी गन्दी सी बस्ती जिसका नाम ‘चमार गेट’ जो अपने अन्दर दुःख और बाहर दुःख समेटे हुए है । चमार जाति का सम्पूर्ण व्यथा-कथा, दुःख दर्द उसकी पूरी आक्रोश के साथ व्यक्त किया है । लेखक अपने पूरी जाति को हारे हुए लोग के रूप में चित्रित करते हैं, जो लंबे समय से अपमान सहते आए थे । लेखक के चमार जात के लोग महाजनों के सामने गिड़गिड़ाते, कभी उनके पैरों को छूते कभी उनके कदमों में सिर झुका देते । उनको अपनी चमार जात की दुरअवस्था पर अत्यन्त दुःख था जिसका जिक्र वे आत्मकथा में निसंकोच करते हैं ।

‘अपने-अपने पिंजरे’ आत्मकथा में हमें दो आवाजें सुनाई देती है । दलित समाज की वेदना को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिनिधिक विद्रोही आवाज़ और दूसरी उनकी अपनी गहरी अन्तर्वेदना को मुखरित करनेवाली आर्त आवाज़ । प्रत्येक दलित आत्मकथा प्रकारान्तर से दुःख यात्रा ही होती है । दलितों की राह पर उनकी जिन्दगी पर जो पत्थर रौंदे गये हैं वे मात्र दःख की दूरियों को ही बढ़ाते हैं ।

‘अपने-अपने पिंजरे’ की कथावस्तु में मेरठ के चमार गेट में जन्में, पले बड़े हुए बालक मोहनदास के जीवन की विभिन्न घटनाऐं चित्रित की गई है । चमारों के अर्थाभाव, शोषण और बेगारी का यथार्थ चित्रण इसमें मिलता है । जैसे कि अन्य दलित जातियों में जाति प्रथा से जुड़ी विषम परिस्थिति सबसे ज्वलंत है ठीक उसी प्रकार चमारों को भी जाति के कारण स्कूल, समाज सभी जगह अपमानित होना पड़ता था । स्कूल से जुड़े नैमिशराय का अनुभव काफी दर्द भरा था । जो स्कूल दलित गाँवों में थी वहाँ पर सवर्ण अध्यापक अपनी ड्यूटी कभी ठीक से नहीं निभाते । उनकी कोशिश होती की बच्चों को घेरकर बैठाया रखा जाए ,उनको पढ़ाया न जाए । शिक्षा व्यवस्था में आए दर्दनाक अनुभव के बारे में वे कहते हैं कि शिक्षा जैसा पवित्र क्षेत्र फिर भी वहाँ ऊँच - नीच का व्यवहार होता रहा है । जहाँ भेद को मिटाने के पाठ पढाने चाहिए वहीं शिक्षक जातिभेद को बढ़ावा देते हैं । शिक्षक की प्रताड़ना कुछ इस प्रकार होती है – “अब तुमसे पढ़ने के लिए कौन कहता है । बस जूते चप्पल बनाओ और आराम से रहो । चले आते हैं ससुरे न जाने कहाँ-कहाँ से ।”[1]

दलित आत्मकथा का अर्थ समझने के लिए यह देखना जरूरी है कि उसका जन्म क्यों हो गया है ? कोई व्यक्ति अपनी आत्मकथा क्यों लिखता है ? मोहनदास नैमिशराय ने अपने-अपने ‘पिंजरे’ आत्मकथा क्यों लिखी ? आत्मकथा लेखन की प्रेरणा के बारे में बताते हुए वे लिखते हैं – मेरे भीतर बरसों से जो बादल उमड़ रहे होते हैं, वे बरस उठते हैं । बादल नहीं बरसेंगे तो विस्फोट हो सकता है । आत्मकथा लिखने से मेरे भीतर का विस्फोट बाहर आ रहा है । दलित अस्मिता के सवाल उभर रहे हैं । वे अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं । यहाँ दलित जीवन की नकार, वेदना ही लेखक के मन में घनीभूत बादल बनकर उभरे हैं । अपनी चमार जात से जुड़ी पीड़ा वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं – ‘हमारी जात के हिस्से में कंगाली की ऐसी चादर जिसमें से एक के बाद एक संकट झांक रहे थे । संकटों के साथ-साथ अस्पृश्यता का भी शिकार थे क्योंकि वे अछूत थे ।’ एक दिन प्रसाद देते हुए पुजारी की अंगुलियाँ लेखक के हाथ से छू गई । बस पुजारी का पारा चढ़ गया । नाराज़ होते हुए वह चिल्लाया – ‘तू चमार का है न । सब कुछ भरस्ट कर दिया । कितनी बार कहा तुम ढोरों से, प्रसाद दूर से लिया करो’ । यह सुनकर मोहनदास के बाल मन में आक्रोश की ज्वालामुखी उग आयी थी । आवेश में आकर बालक नैमिशराय ने पूजारी के सामने थूकते हुए कहा – ‘थू तुम्हारा मन्दिर और तुम्हारा प्रसाद’ । इस प्रकार के गंभीर घाव बाल बन को चिन्तित करने लगे । स्कूल में भी कई ऐसे अनुभवों से उनका सामना होता था जहाँ जात के कारण उन्हें अपमानित होना पड़ता था । लोग उसे चमारों का स्कूल कहा करते थे । जात पहले आती थी, स्कूल बाद में । बस्ती की हालत जानवरों से बदत्तर थी । गर्मी का मौसम हो या बरसात का, दोनों ही चमारों के लिए दर्दनाक था । कुत्तों की तरह जीवन जीने पर बाध्य ये चमार जन स्वयं अपने-आप को ही दुत्कारते, कोसते रहते थे ।

दलितों का शोषण भी कई प्रकार से होता था । औरतों को कई प्रकार के काम के लिए बुलाया जाता । उनका यौन शोक्षण होता । विद्रोह करने की शक्ति वे नहीं जुटा पाते । महाजनों के हाथ में हंटर, चाकू वगैरह होते, लाठी बल्लम होते । मार के डर से चमार जाति के लोग चुपचाप शोक्षण का शिकार होते जाते । चमार बस्ती में बिजली न था । हगन हट सार्वजनिक, टीन की दीवार और टूटी छतोंवाला । उसका अधिकांश भाग खुला होता । औरतें अपनी लाज मुश्किल से छुपा पातीं । रह-रहकर लेखक के उद्धिग्न मन में कहीं भागने के विचार आने लगे । उनके लिए उनका शहर एक पिंजरा बन गया था । जिस प्रकार किसी पिंजरे में कोई परिन्दा बन्द हो, तो वह आकाश में स्वच्छंद उड़ते परिन्दों को देख, पंख फड़फड़ाऐं और स्वतंत्र होना चाहे वैसे ही लेखक का मन करता था । लेखक का ही नहीं बस्ती के सभी लोग अपनी गरीबी, विवशता और जात रूपी पिंजरे में बन्द थे । पिंजरा एक प्रतीक है । जो आदमी को स्वतंत्रता की सांस लेने नहीं देता । आदमी चाहकर भी उस पिंजरे से पीछा नहीं छुड़ा पाता ।

पिंजरे रूपी बस्ती से छुटकारा लेखक को चन्द दिनों के लिए तब मिली जब वे मुंबई गए । मुंबई शहर की तमक झमक ने लेखक के किशोर मन को चकित कर दिया । वहाँ उनको ऐसे ईसाई परिवारों से हिलने-मिलने का अवसर मिला जो जीवन के प्रति संकुचित न थे और जहाँ उनकी जात अछूत नहीं माना जाता था । लेकिन उन्होंने पाया कि शहर में गरीबों की अवस्था उनकी बस्ती से बदत्तर थी । गाँवों के जैसा ही दृश्य । रेल्वे लाइन के पास खुला हगन हट ( शौच मैदान ) था । रेल्वे के पुलिस हगन करते लोगों को डंडा मार मारकर भगाते थे । बरसात में मैला बहकर झोपड़ियों में भर जाता था । मच्छरों का प्रकोप अलग से होता । महानगरीय भोग और संभोग की चरम संस्कृति का यह लेखक का पहला अनुभव था । मुंबई में भूख, गरीबी बेरोज़गारी थी, लेकिन आदमी-आदमी के बीच जातियों की दीवारें न थीं । लेखक से किसी ने उसकी जाति नहीं पूछी । यहाँ आदमी सस्ता था । यहाँ दो ही जाति थी । औरत और आदमी । लेखक ने यहाँ कुछ राहत महसूस की ।

यत्र-तत्र लेखक के किशोर मन में उठे प्रेम भावना का भी भावुक वर्णन लेखक ने निसंकोच किया है । सूजी नामक ईसाई लड़की से उनकी मुलाकात और प्रेम पूर्ण भावना, मुंबई छोड़ने पर हुई विरह सब कुछ का वर्णन आत्मकथा में पाया जाता है । मुंबई की कुछ सुखद स्मृतियों को संजोए वापस मेरठ की अपनी बस्ती में आने पर लेखक का मन फिर पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह हो गया ।

आत्मकथा में लेखक ने अपने दलित जीवन की पीड़ा को सही मायने से व्यक्त किया है । दलित सदा से ही धन, मान, आदर, योग्य व्यवसाय, अर्थ, शिक्षा से हीन-दीन रहे, उनके हिस्से में पीड़ा, त्रासदी, कष्ट, यंत्रणाऐं ही आई । वहीं सवर्ण ऐशोआराम की ज़िन्दगी बिता रहा था ।

कॉलेज में भी लेखक को अपनी जात के कारण अपमानित होना पड़ता था । आरक्षण एवं फीस मनाफ की लिस्ट जब टंगती तो दूसरे छात्रों से वे अलग हो जाते । अन्य सवर्ण छात्रों के पास अच्छे कपड़े, जूते वगैरह होते लेकिन पेशे से चमड़े से काम करने वाले चमार के अपने बच्चों के बास जूते नहीं होते । दलित स्त्रीयों की अवस्था तो और अधिक शोचनीय थी । जंगल लकड़ी काटने जाती स्त्रीयों में से किसी को अकेला पाकर ऊँची जाती के लोग उसके शरीर को गिद्ध की तरह नोंच डालते । जिस औरत की इस प्रकार इज्ज़त नष्ट हो जाती उसके घर ज़मीन्दार, नवाब आदि खुले आम आ धमकते और अपना रुआब गाँठते । कई बार इस प्रकार के वाक्या होने पर चमार बस्ती भी प्रतिशोध की ज्वाला में जलकर मारने-पीटने पर तुल जाते ।

दलित समाज से जुड़े कई रीति रिवाजों का सजीव वर्णन आत्मकथा में मिलता है । विवाह एवं बारात से जुड़े आचार-प्रथा, हुक्का पीने की प्रथा आदि का वर्णन चमारों की सामाजिक प्रथाओं पर प्रकाश डालती है । जिस घर में हुक्का परंपरा का खास हिस्सा था वहां ब्याह शादियों में हुक्के के बिना नहीं चलता था । लेखक की शिक्षा के बाद नौकरी लगने का विशद वर्णन आत्मकथा में मिलता है । लेखक की नियुक्ति दिल्ली के दरियागंज एम्प्लायमेंट एक्सचैंज में लग जाती है । उन दिनों दलितों में राजनैतिक चेतना आ रही थी । देश भर में फैले छोटे-बड़े संगठन सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत थें । लेखक का मन थानेदार बनने का था लेकिन उनका प्रयास असफल हो गया ।

लेखक ने आत्मकथा में भोग-संभोग का चित्रण किया है जो भद्र समाज को अश्लील लगे । कहीं-कहीं लेखक ने खड़ी बोली में गालियों का भी प्रसंगानुसार प्रयोग किया है । अपनी आप बीती सुनाते, लिखते हुए मोहनदास नैमिशराय ने सामाजिक चित्रण, राजनैतिक व्यवस्था, धार्मिक पाखंड, शैक्षणिक बाधाऐं, सांस्कृतिक परिवेश, साहित्यिक गति विधियों पर सविस्तार, साधिकार, यथार्थ पूर्वक निष्ठा से लिखा । वेश्याओं, लावारिस बालकों की मनोव्यथा को भी लिखा । इस भद्र समाज के विरूप चेहरों के दर्शन कराए । लेखक ने अपनी जाति के विषय में यह भी बताया कि दलितों में भी भेद भाव होता है । दलितों के भीतर भी जाति तथा उपजातियों की अनगिनत सुरंगे थी । हर जाति के अपने-अपने अंतर्द्वद्व थे । किसी भंगी की पंगत में चमार नहीं बैठ सकता और किसी चमार की शादी में भंगी नहीं जा सकता ।

समाज के हर वर्ग के लोग अपने-अपने पिंजरे में छटपटाने के लिए मज़बूर थे । इन पिजरों में बन्द व्यक्ति किसी परकटे पंक्षी जैसा घुट-घुट के जीता है, मौत का अहसास लेकर । जाति व्यवस्था के कारण व्यक्ति पिंजरों को तोड़कर बाहर नहीं जा सकता । अंत में इस आत्मकथा का समापन बच्चे की मृत्यु से शोकातुर लेखक के ही शब्दों में किया जाता है – “बेटे की मौत का मुझे अफसोस था । पर मैं तो समाज का एक टुकड़ा था । मेरे और अन्य टुकड़ों को मिलाकर ही तो समाज बनता था । अंततः अपने आँसू पोंछकर मैं पुनः उसी संघर्ष पथ पर अग्रसर होने लगा था । दलित आन्दोलन की कोई जीवंत तस्वीर हम सभी ने मिल जुलकर बनानी थी । किसी के मरने से दलित आंदोलन थोड़ा ही मरता है, मरना भी नहीं चाहिए । उसमें हर किसी को कोई न कोई रंग तो भरने ही होते हैं । मैंने खून का रंग भर दिया तो क्या । किसी न किसी को तो कीमत चुकानी पड़ती है ।”[2] और लेखक का यह आत्म बलिदान व्यर्थ नहीं गया – बन्द पिंजरे धीरे-धीरे ही सही खुलने लगे हैं ।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि दलित साहित्य सोद्देश्य साहित्य है ।इसके अनेक उद्देश्यों में सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य दलित समाज में जागृति लाना है ।हिन्दी दलित आत्मकथाओं में अनेक समस्याओं का चित्रण हुआ है और होता आ रहा है जिसका मूल कारण बेमेल समाज व्यवस्था है । ये कथाऐं जन मानस को चौकाने वाली है एवं जनवादी एवं मानवतावादी भूमिका के लिए प्रतिबद्ध है ।

संदर्भ
  1. मोहनदास नैमिशराय, अपने-अपने पिंजरे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,सं1995,पृ सं 58
  2. मोहनदास नैमिशराय,अपने-अपने पिंजरे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,सं1995,पृ सं 160
डॉ सोफिया राजन, गवर्नमेंट आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज, तानूर, केरल | Email sophirajan@gmail.com Ph No.9605304429