भारतीयसाहित्य में ‘दलित साहित्य’ की तलाश का काम बहुत तेजी से हो रहा है। मराठी, कन्नड, गुजराती, हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं के साथ उडिया भाषा में भी दलित साहित्य का लेखन कार्य हो रहा है। उड़िसा में दलित साहित्यकार दलित राजनीति, दलित कला, दलित साहित्य, दलित चेतना, दलित विरोधी आंदोलन आदि शब्दों का प्रयोग हो रहा है। आज उड़िया साहित्यकार दलित साहित्य का लेखन कर रहा है।
गैर-दलित साहित्यकार गोपीनाथ महांति का सन् 1948 में ‘हरिजन’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में गोपीनाथ महांति ने उड़ीसा के अक बसे-बसाये शहर कटक के हरिजनों एवं संभ्रांत घरानों के सभ्य व्यक्तियों से उनके अप्रत्यक्ष संबंध दिखा कर एक सामाजिक सत्य से परदा हटाये हुए अपनी सशक्त लेखनी का परिचय दिया है। समाज के शोषित, दलित वर्ग के प्रति पूरी सहानुभूति रखते हुए उन्होंने यह उपन्यास लिखा है। सत्तावन अध्यायों में लिखे अपने इस उपन्यास में महांति जी ने दलित हरिजन समाज पर हो रहे अत्याचार एवं शोषण का मार्मिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है।
“पाँचवें दशक के बाद उड़िया में कुछ गैर-दलितों द्वारा दलितों पर कविताएं एवं कहानियां लिखी जाती रही हैं, लेकिन वे समाज के दलित वर्ग पर कोई खास असर नहीं डाल सकीं। विभिन्न प्रदेशों में दलितों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य से प्रभावित होकर उड़िया में भी विचित्रानंद नायक तथा रामचंद्र सेठी जैसे प्रतिभावान दलित लेखक पिछले दो दशकों से कला-साधना कर रहे हैं। इसके अलावा दलित न होते हुए भी कुमार हसन खुद दलित चेतना को जगाने में जुटे हैं। उड़िया पाठक उन्हें दलित साहित्यकार के रूप में जानते हैं। जब महाराष्ट्र में दलित साहित्य की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, उड़ीसा में दलित कवि विचित्रानंद नायक का काव्य-संग्रह ‘अनिवार्यण’ सन् 1973 में प्रकाशित हो चुका था। इस आधुनिक उड़िया साहित्य में प्रथम दलित काव्य-संग्रह के रूप में मान्यता दी गई। हालांकि इससे पहले भक्तिकाल से उड़िया साहित्य में ‘दलित साहित्य’ की तलाश शूद्रमुनि सारलादास, पंचसखा साहित्य और उसके बाद भीम भोई की साहित्यिक कृतियों में की जा सकती है, किन्तु बाबा साहेब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित जिस ‘दलित साहित्य’ की बात यहाँ की जा रही है विचारधारा के स्तर पर वह ‘उड़िया भक्तिकाल’ के साहित्य से कुछ भिन्न अवश्य है पर भावना दोनों की एक ही है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह उड़िया में भी ‘दलित साहित्य’ के नाम पर कविताओं की ही भरमार है। ऐसा नहीं है कि दलितों द्वारा कविताओं के अलावा कहानियाँ उपन्यास या नाटक लिखने के प्रयास नहीं हुए। हुए हैं, पर बहुत कम। एकाध दलित लेखक ने अपने जीवन की अनुभूति आत्मकथा के जरिये प्रकाशित की है। लेकिन यह सच है कि सदियों के दुख-दर्द और यंत्रणा को कविता के जरिये निचोड़ना इन लेखको के लिए सहज और सरल बन पड़ा है। जातिवाद के नाम पर ‘दलित’ को किसी तरह ‘अछू’ बनाकर सभी तरह के हीन काम करने को मजबूर किया गया, उसके विरूद्ध भारतीय दलित कवि आज विद्रोह कर उठा है।”
किसी भी भाषा की दलित-कविता में दलितों की तिलमिलाहट व आक्रोश के स्वर साफ-साफ सुनाई देंगे। हालांकि अन्य भारतीय भाषाओं की तरह आज उड़िया दलित काव्य-लेखन भी अपनी शैशवावस्था में है, पर रचनात्मकता की दृष्टि से इसमें परिपक्वता दिखाई पड़ती है। निश्चित ही इसका श्रेय उड़िया दलित कवियों को जाता है। इस संदर्भ में विचित्रानंद नायक की उड़िया दलित कविता ‘मुक्ति’ देखी जा सकती है -
“वे हैं उतप्त आज परित्यक्त सरहद तले
वे लोग निश्चित ही जगेंगे कल सबेरे।
हुत-हुत जला डालेंगे रोटी के लिए मजदूर सभी
उस पूर्वाशा के निकट आह्वान का लाल रक्त सारा”
वैदिक युग से आज तक ऊँची जाति के लोगों ने दलितों का लगातार शोषण किया है। शिक्षा और संस्कृति ही नहीं, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी दलितों को ऊँची जाति के लोगों पर ही पूरी तरह निर्भर होना पड़ा है। लेकिन जब जमाना बदल रहा है। अब दलित मुक्ति चाहता है। उड़िया दलित कवि सिर्फ उड़िया समाज में हो रहे अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध ही आवाज नहीं उठाता, बल्कि पूरी दुनिया में हो रही अमानवीय घटनाओं को भी अपनी कविता में स्थान देता है। दलित कवि अपने जीवन के अनुभव के सहारे अपना काव्य संसार रचता है। इसलिए उसकी कविता के प्रतीक, रूपक, छंद और राग जीवंत हो उठते हैं। कभी-कभी उसका विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष या जाति-विशेष के विरुद्ध न होकर संपूर्ण समाज-व्यवस्था के प्रति होता है। विचित्रानंद नायक अपनी कविता ‘समाज व्यवस्था’ में कहते हैं -
“ए समाज
तेरी सीने पर है पूंजीपति की खुजली
भरा है पेट में दलाली का अम्ल,
अंदर उमड़ रही है आँधी
चारों ओर शवों का पहाड़।”
जहाँ एक ओर उड़िया काव्य के क्षेत्र में विचित्रानंद नायक का स्वर मुखर है, वहीं दूसरी ओर उड़िया दलित कहानीकारों में रामचंद्र सेठी एक जाना-पहचाना नाम है। रामचंद्र सेठी ने अपनी कहानी ‘द्रितीय बुद्ध’ में श्रीजगन्नाथ जी को एक कल्पना सामग्री मात्र माना है। दलित जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता। दलित लेखक अपनी कल्पना में ढूँढ़ते हुए अंत में जगन्नाथ जी को पाता है। इस कहानी द्वारा पता चलता है कि रामचंद्र सेठी परंपरा विरोधी कथाकार हैं। धर्म के नाम पर सैकड़ों दीवारें बनाकर जिस तरह लोगों को बाँटा जा रहा है, उसके विरुद्ध रामचंद्र सेठी ने अपनी कहानी ‘नास्तिकता की तीर्थयात्रा’ में अनेक महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। अन्य भाषाओं की तरह उड़िया में भी ऐसे दलित साहित्यकार हैं जिन्होंने मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित होकर वर्गहीन समाज के निर्माण के लिए अपनी कविताओं और कहानियों के माध्यम से नारे लगाए हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अन्य भाषाओं की तरह उड़िया दलित साहित्य भी लाचारी, छुआछूत, कपट और सामाजिक शोषण को अपने लेखन का आधार बनाकर अपने पथ पर आगे बढ़ रहा है। सदियों से प्रचलित परंपरा व विचारधारा का खुलकर विरोध करना ही आज दलित साहित्य का प्रमुख उद्देश्य बन गया है। अन्य भाषाओं की तरह उड़िया में ‘दलित साहित्य’ अधिक नहीं लिखा गया।
संदर्भ ग्रंथ :
- बेचैन, श्यौराज सिंह और चौबे, देवेन्द्र, चिन्तन परंपरा और दलित साहित्य, संस्करण-2004, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- बेचैन, श्यौराज सिंह, स्त्री विमर्श और पहली दलित शिक्षिका, संस्करण-2009, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- बैसंत्री, कौशल्य, दोहरा अभिशाप, संस्करण-1999, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली
- भारती, सी.बी., आक्रोश, संस्करण-1996, लोक सूचक प्रकाशन, फरूखाबाद