सुशीला टाकभौरे जी हिंदी दलित साहित्य की अग्रणी महिला साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी प्राथमिक शिक्षा बानापुर के ही ‘गंज प्राथमिक शाला’ में हुई। ‘कुसुम महाविद्यालय’, सिवनी, मालवा से उन्होंने वर्ष 1974 में बी.ए. की डिग्री हासिल की। 1976 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से बी.एड. की डिग्री हासिल की। ‘प्रकाश हाई स्कूल’ में उनका चयन अध्यापिका के रूप में हो गया जहाँ उन्होंने 1986 तक आध्यापन का कार्य किया।तदुपरांत 1986 में उन्होंने एम.ए. और फिर वर्ष 1992 में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। वर्ष 2012 तक उन्होंने कॉलेज में अध्यापन का कार्य किया ।
सुशीला जी का प्रारम्भिक जीवन बहुत ही संघर्षमय रहा है । वे ‘वाल्मीकि’ समाज से आती हैं जो वर्ण व्यवस्था में निम्न माना जाता है। इस सामाजिक विसंगति का दंश उन्होंने भी बचपन से ही झेला है। गरीबी, उनकी जाति को लेकर किये जाने वाले निरादर और उपेक्षा, एक स्त्री होने के नाते होने वाली कठिनाइयों, आदि घटनाओं का उनके जीवन पर गहरा असर रहा है। अपने विचारों और अनुभूतियों को प्रकट करने हेतु उन्होंने लेखन का मार्ग चुना।उनकी वेदना, उनका क्रोध उनकी रचनाओं में भली-भांति परिलक्षित होती है। उनके जीवन के अनुभव, एक दलित और स्त्री होने के नाते उनके जीवन का संघर्ष उनकी रचनाओं में भली-भांति परिलक्षित होती हैं। उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार तथा कवयित्री के रूप में उन्होंने हिंदी साहित्य की विधाओं में अपनी लेखनी चलायी है।‘नीला आकाश’, ‘वह लड़की‘ और ‘तुम्हें बदलना ही होगा’ आदिउनके उपन्यास हैं। ‘अनुभूति के घेरे’, ‘टूटा वहम’, ‘संघर्ष’, ‘जरा समझो’ आदि उनकी कहानी संग्रह हैं। ‘नंगा सत्य’ और ‘रंग और व्यंग्य’ उनके नाटक हैं। सुशीला जी की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुयी| सुशीला जी मध्य प्रदेश दलित साहित्य अकादमी विशिष्ट सेवा सम्मान, सावित्री बाई फुले सम्मान, डॉ. उषा मेहता हिन्दी सेवा सम्मान आदि सम्मानों से सम्मानित हुई हैं। इनकी कई रचनाओं को विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है। ‘स्वाती बूंद और खारे मोती’, ‘यह तुम भी जानो तुमने उसे कब पहचाना’, ‘हमारे हिस्से का सूरज’ आदि उनके काव्य संग्रह हैं। सुशीला जी ने कविताओं के माध्यम से अपने जीवन के संघर्ष और कटु अनुभवों को साझा किया है।वइनकी कविताएं अम्बेडकरवादी विचार धारा से ओत-प्रोत हैं जिसमें दलित उद्धार, सामाजिक समरसता तथा जातिगत व्यवस्था के उन्मूलन की चेतना की गयी है ।
सामाजिक चेतना
हिंदी साहित्य जगत में दलित लेखकों में सुशीला जी का अपना अलग स्थान है।साहित्य समाज का दर्पण है।तो सुशीला जी ने समाज रूपी दर्पण में जो भी देखा है उसे दलित साहित्य के लेखन की नींव बनाया। उन्होंने अपने कटु अनुभवों के आधार पर यथार्थ जीवन को लेखन में अंकित किया। सुशीला जी ने अपनी कविताओं को कल्पना के आधार पर न रचकर कांटे से भरे अपने वास्तविक जीवन को उभारने का माध्यम बनाया। अपनी जाति और अपने समाज के उत्थान के लिए उन अनुभवों को कविता के रूप में गूंथकर आने वाले पीढ़ी के लिए सीढियों के रूप में प्रस्तुत किया। सुशीला जी ने अपनी कविता ‘कविता धारा’ में रचनाधर्मिता के बारे में इस प्रकार से उल्लेख किया है-
'मेरी कविता कल्पना नहीं
प्रवंचना नहीं
झूठे ज्ञान का प्रदर्शन नहीं
सत्य के धरातल की
कठोर बात है!
मेरी कविता
मनोरंजन नहीं
लोकरंजन नहीं
श्रम से उपजे
पसीने की बात है।'
सुशीला जी ने अनुभव किया कि युगों-युगों से गुलाम रहने के कारण दलितों में मानसिकता का विकास नहीं हो पाया।फलस्वरूप वे स्वाभिमान और आत्म सम्मान की बातों से अनभिज्ञ रहे। समय के फेर और कानून के तहत वे आज सम्मान और समता की भावना को समझ पाये हैं। उनको भी इस समाज में दूसरे वर्णों की तरह समानता और सम्मान से जीने का अधिकार है। सुशीला जी का विचार है कि वे अपनी योग्यता के बल पर पुरानी परंपराओं को तोड़कर स्वाभिमान से जीने की उम्मीद कर सकते हैं।ऐसा करते वक्त सदियों की दासता के कारण उत्पन्न कुंठित मानसिकता से उन्हें आजादी मिलेगी। शोषित, वंचित और शापित जिंदगी से स्वयं मुक्ति पाकर वे अपना भविष्य संवार लेंगे | पुरानी परम्पराओं को तोडकर आगे बढने की चेतना देते हुए सुशीला जी ने ‘बदलेगा कुंठित मानस’ नामक कविता में इन बातों को कुछ इस प्रकार चित्रित किया है-
'समाज परिवर्तन ही
प्रगति की दिशा है
बदलेगा कुंठित मानस
स्वाभिमान के संदेश से
समता-सम्मान का अधिकारी
दलित शोषित या इंसान
जब जाएगा-
शेर की तरह दहाड़ेगा
अब वह चूहों की
राह नहीं देखेगा
अपने तन मन के बंधन
स्वयं तोड़ेगा।
पुरानी परंपराओं को तोड़कर
वह
पुरानी कहानी का
अंत बदलेगा।
अपना इतिहास बदलेगा।
अपना भविष्य बदल लेगा।
दलितों को धर्म के नाम से समाज में अछूत घोषित करके उन्हें सवर्णों ने अपने से दूर रखा। उनके अधिकारों से उन्हें वंचित किया। अपना पूरा काम उनके द्वारा निपटाकर उन्हें भूखा और नंगा रखा। अपने घरों और मंदिरों में उन्हें प्रवेश करने से निषेध किया। समाज की सफाई करने वाले को समाज से दूर रखकर उन्हें अपना गुलाम या अधीन रखा। दलितों को धर्म के नाम पर शिक्षा से दूर किया। दिन रात शारीरिक श्रम करके भूखा सोने वाले उन दलितों के प्रति किसी के मन में सहानुभूति का भाव लेश मात्र भी नहीं उठा। बड़े-बड़े शास्त्रों को पढ़कर मंदिरों की स्थापना कर, उन मंदिरों की मूर्तियों में भगवान को पूजने वाले अपने सामने रहने वाले मनुष्य के प्रति कभी सोचते तक नहीं। ज्ञान की खोज में वन में भटकर गुफ़ओं में रहने वाले बड़े-बड़े ज्ञानी लोगों ने कभी भी दलितों को मनुष्य के रूप में नहीं स्वीकारा। सुशीला जी ने अछूतों को इंसान न माननेवाले समाज के प्रति अपना गुस्सा प्रकट किया। उन्होंने सवाल किया है कि पत्थरों और गुफाओं में भगवान को खोजने वाले अपने समक्ष खडे इंसान से मुंह मोड़ कर क्यों रह गए? सुशीला जी ने ‘अछूता इंसान’ नामक कविता में चित्रित किया है कि
'जो पत्थर में
भगवान खोजते हैं
कंदराओं में ज्ञान खोजते हैं
क्यों नहीं
अछूतों में इंसान खोजते हैं ?'
'
धर्म के नाम से दलितों को सदियों तक शिक्षा से वंचित रखा गया। पर अब समाज में आए परिवर्तन के अनुसार उन्हें शिक्षा पाने से कोई नहीं रोक पाएंगे। सुशीला जी का विचार है कि शिक्षित होकर मनुष्य अपनी स्थिति को बदल सकता है और हर अपमान के खिलाफ संघर्ष कर सकता है। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए कोई संघर्ष नहीं करेगा तब तक वह अपने अधिकारों को नहीं पाएगा। अपने गुरु स्वरूप डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने जो उपदेश दिया है उसी को वेद के समान आत्मसात कर अपने समाज में चेतना जगाने की कोशिश कवयित्री सुशीला ने किया है। उन्होंने ‘यातना के स्वर’ नामक कविता में चित्रित किया है कि
'क्रांति सूर्य
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने
पूरे विश्व के समक्ष
दलितों की पीड़ा को बताया
तथा सम्मान के अधिकार के लिए
दलितों को लड़ना सिखाया
फिर भी मेरा समाज
आज तक नहीं समझ सका
अपना हित
हिंदू धर्म और नीति के बहकावे में
नहीं देख सका
अपना वर्तमान और भविष्य।'
समाज में धर्म के नाम से लोगों को गुरु मिल जाते थे।पर दलितों के उत्थान के लिए न कोई गुरु थे और ना कोई मार्गदर्शक। ऐसी स्थिति में डॉ.भीमराव अंबेडकर जी भारतीय समाज में दलितों के भगवान बनकर आए। उनके आने के पूर्व लोग विचार शून्य होकर हवा में उड़ रहे तिनके के समान दिशाहीन भटक रहे थे। पर बाबा साहब के आने के बाद दलितों के उपेक्षित जीवन को आधार मिला। उन्होंने दलितों को उनके अधिकारों से सचेत कर जीने की राह बताया। अंधकारमय इनके जीवन में दीपक का काम किया। अपने अधिकार के लिए संघर्ष करने की सीख देकर उन्होंने पथ प्रदर्शक बनकर शोषित लोगों को जीवनदान दिया। उपदेशों से दलितों का आत्मबोध कराया। ज्ञान और बुद्धि से दलितों के जीवन में युगांतर परिवर्तन लानेवाले डॉ.भीमराव अंबेडकर जी को दलितों को चेतना का कारण बताते हुए सुशीला जी ने ‘जय भीम’ नामक कविता में चित्रित किया है-
'मिलता है आपसे हमें
प्रेरणा का प्रकाश है
बाबा साहब आपका
जीवन-पुंज-प्रकाश है।
प्रगति की राह दिखाई
दीया समता का संदेश
आप के पद-चिन्हों पर चलते रहें
हमारा यही उद्देश्य है।
आपने जीना सिखाया
आपने लड़ना सिखाया
ज्ञान बुद्धि विवेक से
प्रगति-परिवर्तन कर दिखाया।'
कवयित्री ने अपनी कविताओं में अपनी जाति के लोगों में चेतना लाने की भरसक कोशिश की। अब जमाना बदल गया है। संविधान के अधिकार के कारण उन्हें पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ है। उस अवसर का प्रयोग करते हुए दलितों को जिंदगी में आगे बढ़ना चाहिए। समाज व्यवस्था और कानून व्यवस्था में जो परिवर्तन आया है उसको समझ कर दलितों को समाज में आगे बढ़ना चाहिए।डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने चेतना रूपी मशाल जलाकर इनको रास्ता दिखाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। मशाल का प्रकाश सर्वत्र व्याप्त होने से अपने दुश्मन को दलितों ने पहचान लिया जो आगे उनको उनकी प्रगति से रोक नहीं सकता है।सुशीला जी ने ‘वाल्मीकि’ नामक कविता में दलितों को अपने अस्तित्व को पहचानकर सही दिशा में आगे बढने को कुछ इस प्रकार प्रेरित किया है-
'बाल्मीकियों
समय की मांग और
परिवर्तन की दिशा को पहचानो
अपने अस्तित्व को पहचानें
अपने दुश्मन को पहचानें
अभी भी समय है जागो
अपने सच्चे गुरु
बाबा साहब को पहचानो
समाज परिवर्तन की
सही दिशा को अपनाओ
शिक्षित बनों, संघर्षशील बनो,
मनुवादी, जातिवादी, विषमतावादी
समाज नीतियों को बदल डाले।'
सुशीला जी ने देखा है कि जागरण के कारण आज दलित मानव के बीच में जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण आया है। युगों-युगों से गुलाम रहकर अत्याचार अनाचार सहने के बाद आज अन्याय के खिलाफ आधुनिक पीढ़ी सजग हो उठी है। उनमें आये परिवर्तन की रोशनी अभी कई पीढ़ी तक उन्हें सचेत बनाकर रखेगी। प्रथम पीढ़ी ने जो चेतना पायी उसे आने वाली पीढ़ियों को हस्तांत्रित करती रहेगी। उस चेतना के फ़लस्वरूप भावी पीढ़ी संसार में युग परिवर्तन लाएगी। शिक्षा के कारण एक पीढ़ी में आए बदलाव उन्हें कई पीढियों तक शोषण के खिलाफ लड़ने की ताकत देगी। इस विचार को सुशीला जी ने ‘बुद्धिवादी चिंतन’ नामक कविता में चित्रित किया है
'ये कोटि-कोटि दलित शोषित मानव
स्वयं
सूरज बन जाएंगे
इनसे उपजी संतान
भावी पीढ़ी
संसार में
युग परिवर्तन लायेगी
जीवन में सुख की
प्रगति परिवर्तन की
सरिता बहायेगी
काल को जीत लेगी।
समाज में शिक्षा और संविधान के कारण दलितों के जीवन में परिवर्तन आया है। शिक्षित होकर नौकरी भी हासिल कर लिया है। फिर भी समाज में आज तक दलितों को दूसरे दर्ज से ही देखा जा सकता है। जीवन संघर्ष है, पर दलितों के लिए दोगुना संघर्ष करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सुशीला जी ने कविताओं के द्वारा समाज में चेतना लाने की कोशिश की है। उनका कहना है कि अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी अलग पहचान बनानी चाहिये। क्योंकि प्रकृति, धरती, आकाश, हवा इन सब पर किसी का वश नहीं है। जैसे यह सब समाज के सब लोगों के लिए है वैसे ही हमें अपना मूल्य समाज के सामने साबित करना पड़ता है। अपने ज्ञान और प्रतिभा से जीवन में हर कहीं सफलता पाकर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। अपनी योग्यताओं के बल पर किसी के गुलाम नहीं स्वामी बनकर आगे बढ़ना चाहिए। सुशीला जी ने ‘उगते अंकुर की तरह जीना है’ कविता में इन बातों को इस प्रकार चित्रित किया है-
‘माने गए अब तक दलित
पग पग पर अपमानित
समाज में अपनी नई पहचान बनाओ।
धरती और आकाश सबका है
हवा प्रकाश किसके वश का है
सब पर अपने अधिकार बताओ।
अपने जीवन का मूल्य समझ
उसे बहुमूल्य बनाओ
सेवक नहीं, स्वामी बन जाओ।
सबलता में सदा
दृढ़ निश्चय जागे
तन मन में ऊंचे भाव बसाओ।’
व्यक्तिगत चेतना
जब तक व्यक्ति में व्यक्तिगत रूप से परिवर्तन नहीं आयेगा तब तक समाज में परिवर्तन लाना असंभव है। तो सुशीला जी ने जहां एक ओर समाज में दलितों के प्रति हो रहे अत्याचारों का विरोध किया तो कहीं-कहीं इन्हीं लोगों के मन में चेतना जगाने की भी कोशिश की है।वह चाहती है कि दलितों की मानसिकता में भी परिवर्तन की जरूरत है।वसदियों से आ रहे परम्पराओं और विचारों को एकदम जोड़ने में ये असमर्थ हैं। उनके नस-नस में अभी भी गुलामी का खून बह रहा है। जिसके कारण तुरंत वे उस मानसिकता से बाहर आने में असमर्थ हैं। डर और अज्ञानता उनकी प्रगति में रोडा बनकर खडा है। इन बाधाओं को तोडकर उन्हें आगे बढ़ने की जिज्ञासा और काम करने की कोशिश करना चाहिए। जब तक स्वयं इनमें परिवर्तन नहीं आएगा तब तक इनकी स्थिति को सुधार पाना मुमकिन नहीं है। तो सुशीला जी ने ‘समष्टि की संतान’ नामक कविता के जरिये दलितों में चेतना लाने का इस प्रकार प्रयत्न किया है-
‘तो सबसे पहले
‘संकीर्णता,
विकलांग मानसिकता
अकर्मण्यता को
त्यागना होगा
स्वयं को ।’
21वीं सदी में औद्योगिकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण आदि के कारण समाज में सर्वोन्मुखी विकास हुआ है। समाज में सभी वर्ग और जाति के लोग सभी क्षेत्रों में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। तो दलित समाज को इस अवसर का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें अपनी स्थिति और औकात को पहले समझना चाहिए। अभी भी उनमें सुधार नहीं आएगा तो जैसे युगों-युगों गुलाम बन के जीते थे वैसा दोबारा मजदूर बनकर जीने के लिए विवश हो जाएंगे। समाज की हवा के मुताबिक उन्हें भी अवसर का उपयोग कर प्रगति करना चाहिए। पहले इनकी मानसिकता और सोच विचार में बदलाव लाना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हो पाएगा तो इनका विकास होना मुश्किल है। सुशीला जी ने अपने समाज के लोगों को अज्ञानता से बाहर आने की चेतना देने का प्रयास ‘हमारे हिस्से का सूरज’ नामक कविता में कुछ इस प्रकार से किया गया है-
‘उदारीकरण, निजीकरण
भूमंडलीकरण की नीतियां
कहीं का नहीं छोड़ेगी इन्हें
बनकर रह जाएंगे
बंधुआ मजदूर।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
गरीबी, भुखमरी और
गुलामी से
मुक्त नहीं हो पायेंगे
मगर
अनभिज्ञ हैं ये
अपनी स्थिति से।’
समाज में पूरा परिवर्तन आ गया है। आज दलित किसी भी विषय में किसी से भी कम नहीं है। शिक्षा रूपी सूरज ने ज्ञान रूपी प्रकाश से उसके तन-मन में परिवर्तन कर दिया है। डॉ.भीमराव अंबेडकर के अमृत वचन से प्रेरित युवा पीढ़ी आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। उनकी चेतना से प्रभावित होकर कई लोग आशावादी बन रहे हैं। चेतना एक दीपक के समान चारों तरफ रोशनी भी देती है और दूसरे दीपक को जलाने का कारण भी बनती है। तो उसी तरह आत्मज्ञान से प्रेरित पीढ़ी समाज को और आने वाली पीढ़ी को दीपक के समान राह दिखाने में कार्यरत है। सुशीला जी ने ‘आग का धर्म’ नामक कविता में चित्रित किया है कि-
‘तमसोमा ज्योतिर्गमय
की बात से
आगे बढ़कर
तुमने कहा-
स्वयं दीपक बनो,
स्वयं प्रकाशित हो,
दीप से दीप जलाकर
पूरे समाज को
प्रकाशित कर दो।’
सुशीला जी ने दलित लोगों में आत्मावलोकन की आवश्यकता को जरूरी माना। जब तक व्यक्ति में चेतना नहीं जगाई तब तक समाज में परिवर्तन नहीं आएगा। व्यक्ति चेतना का मतलब उनकी आदतों, विचारों और जीवन शैली में परिवर्तन लाना है। अकर्मण्यता को दूर कर, बुरे व्यसनों से मुक्ति पाना है। विडंबना या विधि के नाम पर जैसे के तैसे रहने से कोई बदलाव नहीं आने वाला है। अपने ऊपर हो रहे शोषण से अवगत होना जरूरी है। श्रम के बदले जूठन कब तक खाते रहेंगे? जाति के नाम पर कब तक अमानवीय व्यवहार को सहते रहेंगे? व्यक्तिगत चेतना पर बल देते हुए सुशीला जी ने ‘यह तो शर्म की बात है’ नामक कविता में चित्रित किया है कि
‘मां बहने गुलामी करें
कठोर श्रम के बदले पाये
जूठन और उतरन।
सदा सिर झुका रहे
जाति व्यवस्था के अनुसार
मूल्यांकन हो समाज का,
उपेक्षा और ग्लानी के आधार पर
जो तुम्हें अमानव समझे
उसे तुम भगवान मानो-
यह तुम नहीं हो सकते
यह तो शर्म की बात है।’
जो पीढ़ी गुलाम, गरीबी और शोषण से संघर्षरत है उसका अंत अभी हो गया है। चेतना रूपी बीज जो आज बोया गया है वह आने वाली पीढ़ी के लिए छायादार वृक्ष बनेगा। शोषण संघर्ष से मुक्ति पाकर नई पीढ़ी ज्ञान से भरे अजस्र धारा से पृथ्वी को लहरायेंगे। सुशीला जी ने ‘अंतराल के पार’ नामक कविता में चित्रित किया है कि
‘गरीबी भूख और
अन्याय अत्याचार की पीड़ा
सहते हैं संतप्त जन
इस आशा में
आज नहीं तो कल
हम न सही हमारी पीढियों
सुख पाएंगी
देश की स्वतंत्रता का
संविधान का
अधिकार पा सकेंगे वे
जीवन को संवार सकेंगे ।’
सुशीलाजी ने अपने जीवन में आरंभ से ही पग-पग पर अनेक प्रकार के संघर्षों को झेला है । भोगे गए यथार्थ जीवन के दर्द भरे अनुभवों को उन्होंने अपनी कविताओं में चित्रित किया है। भारत में वर्णाश्रम के कारण शूद्रों का जीवन संघर्षमय था । उन्हें शिक्षा से वंचित कर सवर्णों ने अत्याचार और अनाचार से दलितों के जीवन को नरक बना दिया । धर्म के नाम पर उनके अधिकारों से वंचित कर दिया था । शिक्षा और अज्ञानता के कारण युगों-युगों से सवर्णों की सेवा में लगे दलितों को जगाने के लिये सुशीलाजी ने अपनी कवितओं को अस्त्र के रूप में प्रयोग किया । सुशीलाजी ने अपनी कविताओं के द्वारा दलितों में व्यक्तिगत चेतना लाने की कोशिश की ।अपनी दुर्बलताओं से उन्हें मुक्ति पाने का संदेश देकर उन्हें पग-पग पर अम्बेडकर के उपदेशों से अवगत कराती रहती हैं । समाज में परिवर्तन लाने के लिए व्यक्तिगत चेतना की अनिवार्यता को सुशीलाजी ने बखूबी जाना है। अम्बेडकर के अमृत वचनों को आधार मानकर आनेवाली पीढी को गुलामी और अत्याचारों के खिलाफ़ संघर्ष करने अथवा प्रगति के पथ पर अग्रसर होने की चेतना उन्होंने अपनी कविताओं के द्वारा देने का प्रयत्न किया।
संदर्भ
- यह तुम भी जानो तुमने उसे कब पहचाना ( काव्य संग्रह), सुशीला टाकभौरे, द्वितीय संस्करण, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली ।
- हमारे हिस्से का सूरज ( काव्य संग्रह), सुशीला टाकभौरे, द्वितीय संस्करण, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली ।