भारतीय समाज व्यवस्था में जब से वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति व्यवस्था है तब से ही वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आवाज भी उठती रही है। हिन्दी साहित्य में भले यह संघर्ष नया हो पर वैचारिक एवं दार्शनिक स्तर पर इसका विरोध बहुत पुराना हैं। आधुनिक काल में भारतीय नव जागरण के साथ निम्नवर्ण की दुरावस्था की ओर सुधारकों का ध्यान आकृष्ट हुआ। इस सन्दर्भ में एक ओर तो अस्पृष्यता एवं वर्णगत असमानता को दूर करने हेतु राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी प्रभृति विभूतियों ने -समाज सुधार’ के प्रयत्न किये तो दूसरी ओर ज्योतिबा फुले, पेरियार, नारायण गुरू तथा डॉ भीमराव अम्बेडकर जैसे दलित वर्ग की विभूतियों ने ‘परिवर्तन’ का स्वर बुलन्द किया। उत्तर आधुनिक दलित विमर्श ने हाशिये के वर्गों को केन्द्र में लाने के लिये ‘व्यवस्था परिवर्तन’ पर बल दिया और बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित-विमर्श तीव्रता से उभरा।
विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार, ‘दलित’ शब्द का अर्थ - जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ आदि है। इस समूह के लिए जहाँ गाँधी जी ने 'हरिजन' शब्द तो वहीं बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने 'बहिष्कृत' और 'अछूत' शब्द का प्रयोग किया है। दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी लिखते हैं, "दलित शब्द भाषावाद, अलगावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को नकारता है तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है। दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है जिनकी पहचान इतिहास के पृष्ठों में सदा के लिए मिटा दी गई हैं, जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गई है।"[1]
साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं अपितु परिवर्तन और सुधारक का प्रेरक भी है। यह समाज के वास्तविक एवं सुन्दर रूप के अलावा उसके विकृत विसंगति तथा असमानता के रूप को भी तटस्थता के साथ प्रकट करता है। यह एक कारण है कि सदियों से जिसे साहित्य और समाज के हाशिये पर फेंक दिया गया था, जिसे शूद्र, चाण्डाल, भंगी, चूहड़ा, हरिजन आदि नामों से निहित करके घृणा और दया का पात्र बना दिया गया था, समकालीन युग में वही प्रखर आत्मबोध के साथ 'दलित' नाम से साहित्य, समाज और राजनीति तीनों ही स्तरों पर अपना स्थान बना रहे हैं। समकालीन हिंदी साहित्य आंदोलन में दलित शब्द नवीन अर्थवत्ता के साथ प्रयुक्त हो रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में -"दलित' शब्द हमारे लिए एक बहुत ही प्रेरणादायक शब्द है। हम इसे दल के साथ जोड़ते हैं, जो सामूहिक तौर पर कार्य करता है, जीवन को सामाजिक तरीके से जीता है और समाज से अलगाव दूर करता है। इसी के आधार पर हमने 'दलित' शब्द को स्वीकार किया है और दलित एक आंदोलन का प्रतीक है हमारे लिए। और ऐसा पहली बार हुआ है इतिहास में कि दलितों ने अपने लिए एक अपना शब्द चुना है। अभी तक वे अपने लिए दूसरे के दिए शब्दों को स्वीकार करते रहे हैं। यहां तक कि उनके बच्चों के नाम भी दूसरे रखते थे। अपने नाम रखने के लिए भी वे स्वतंत्र नहीं थे। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि उन्होंने अपने लिए एक शब्द चुना है, जो उनके लिए एक संघर्ष का प्रतीक है।" [2]
हिन्दी साहित्य में जिस दलित संघर्ष की बात कुछ वर्षों से हो रही है उसका मुख्य उद्देश्य विषमता पर आधारित समाज को नष्ट करना है। यह विषमता सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि किसी भी स्तर का हो सकता है। दलित लेखन पर मूलतः बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के दर्शन का प्रभाव है – ‘शिक्षित बनो ! संगठित रहो ! संघर्ष करो !’
बीसवीं दशक के अंतिम दशक में हिंदी में दलित विमर्श का उदय होता है। दलित चेतना और संवेदना हिंदी साहित्य में बहुत पुराना है। मगर एक आंदोलन के रूप में दलित साहित्य सिर्फ ढाई दशक पुराना है। दलित -साहित्य से दलित समाज यह समझने लगा कि अपने दुख, दर्द, तनाव, संघर्ष आदि छिपाने की चीजें नहीं हैं बल्कि रूढिग्रस्त समाज के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की चीजें हैं। जब वे अपने खुरदरे यथार्थों के साथ समाज के सामने आकर आक्रोश करने लगे तब रूढिग्रस्त परंपरा की दीवार हिलकर धीरे-धीरे दुर्बल होने लगी है। दलित साहित्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ जयप्रकाश कर्दम कहते हैं, "दलितों द्वारा लिखा गया ऐसा साहित्य दलित साहित्य है जो उन्हें अपना दमन और शोषण करने वालों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित करे। उनके अंदर सम्मान और स्वाभिमान से जीने की भावना पैदा करे। भाग्य, भगवान, पुनर्जन्म, परलोक आदि में विश्वास की बजाय वैज्ञानिक सोच का विकास करें। वर्ण व्यवस्था, जाती व्यवस्था सहित उन तमाम शोषण मूलक व्यवस्थाओं का विरोध करने की सीख दे जो असमानता, अन्याय और अमानवीयता की जनक या पोषक है।" [3]
दलित साहित्य वस्तुतः दलित चेतना का परिणाम है। आज हिंदी का दलित साहित्य तेजी से उभरती हुई एक धरा है। जिसने पूरे हिंदी साहित्य की अंतर्वस्तु एवं समझ को नए सिरे से देखने के लिए मजबूर किया है। दलित संघर्ष एवं चेतना के कई आयाम हैं। एक ओर यह वर्णाश्रम, पुरुषार्थ, पुनर्जन्म, भाग्य, कर्मफल, भेदभाव, छुआछूत, घृणा, शोषण, रूढ़िवाद आदि सिद्धांतों को चुनौती देकर नकारती है तो दूसरी ओर स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, न्याय और मानवतावाद को प्रतिष्ठित करने वाली सोच है। जो अम्बेडकरवादी विचारधारा से उत्पन्न एवं पूर्ण प्रभावित है। यह सोच दलितों में स्वाभिमान जगाती है, उनकी हीन भावना एवं संर्कीणता को दूर करती है। इस विषय में डॉ ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, "दलित की व्यथा दुःख पीड़ा का भावुक और अश्रुविगलित वर्णन, जो मौलिक चेतना से विहीन हो। चेतना का सीधा सम्बन्ध दृष्टि से होता है, जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छवि के तिलस्म को तोड़ती है वह है 'दलित चेतना'। यही दलित चेतना, दलित साहित्य की अंतः ऊर्जा में नदी के तेज बहाव की तरह समाविष्ट है, जो उसे पारम्परिक साहित्य से अलग करती है।" [4]
दलित साहित्य को समृद्ध बनाने में आत्मकथा लेखन का सबसे बड़ा योगदान है। वाल्मीकि जी लिखते हैं, "गैर-दलितों के जीवन में दलितों का प्रवेश सिर्फ पिछले दरवाजे के बाहर तक है, ठीक वैसे ही दलितों के जीवन में गैर-दलितों का प्रवेश नहीं के बराबर है। इसलिए जब कोई गैर-दलित दलित विषयों पर लिखता है तो उसमें कल्पना अधिक होती है", [5] जबकि आत्मकथा में व्यक्ति के साथ समाज व परिवेश को भी समेटने की प्रवृति होती है। वर्तमान में अतीत की अनेक स्मृतियों का समावेश तथा जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों का इतिहास छिपा रहता है। दलित साहित्यकारों ने अपनी ही कहानी और अपने अनुभव के माध्यम से दलित उत्पीड़न और दलित संघर्ष को रेखांकित किया। प्रारंभिक दलित आत्मकथाओं में 'मैं भंगी हूँ' (डॉ भगवानदास), 'अपने-अपने पिंजरे' (मोहनदास नैमिशराय), 'जूठन' (ओमप्रकाश वाल्मीकि), 'दोहरा अभिशाप' (कौशल्या बैसत्री), 'तिरस्कृत' ( सूरजपाल चौहान) आदि प्रमुख स्थान रखते हैं।
डॉ ओमप्रकाश वाल्मीकि ऐसे दलित रचनाकार हैं जिन्होंने आत्मकथा, कहानी, कविता, आलोचना जैसी महत्वपूर्ण विधाओं में अपना योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में वाल्मीकि जी ने ब्राह्मणवाद एवं सामंतवाद पर आक्रमण करते हुए दलितों पर हुए दमन और अत्याचार का मार्मिक जिक्र किया है। इस दिखावे और भेदभाव के समाज से थक चुके हैं। वे कहते हैं,
"स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना, मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में!
वहां भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से।" [6]
वास्तव में ओमप्रकाश वाल्मीकि का जीवन एक दलित के जीवन संघर्षों की जिन्दा मिसाल बनकर हमारे सामने खड़ा है। जो परंपरागत ब्राह्मणवादी मूल्यों को नए समतावादी मूल्यों की टकराहट से ध्वस्त करती है। यह नए सामाजिक ही नहीं, नए साहित्यिक मूल्यों की भी स्थापना करती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिंदी क्षेत्र के दलितों और वंचितों को अपनी आवाज प्रदान की है। पहला खंड 1997 में और दूसरा खंड 2015 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'जूठन' उनके जन्म के आत्मकथात्मक लेख और 1950 के दशक के नए स्वतंत्र भारत में अस्पृश्य, दलित के रूप में अभिषेक, भारत के अंदरूनी सूत्र के नजरिये से दलित जीवन के पहले चित्रणों में से एक है। उन्होंने 'जूठन' में साहसपूर्वक अपने जीवन के कटु अनुभवों का समावेश किया है तथा अपनी लेखनी से दलितों को एक नयी दिशा प्रदान की है।उसमें कल्पना नहीं बल्कि जैसा भोगा वैसा ही लिखा गया है। यहाँ तक कुछ उन तथ्यों को भी उठाया गया जिसका जिक्र साहित्यिक समाज में शायद उचित नहीं माना जाता था। अपनी आत्मकथा के बारे में खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि जी लिखते हैं. "दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी…। अपनी व्यथा कथा को शब्द बद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा ही थी।…इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उघेड़ते हुए कई बार लगा- कितना दुखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।" [7] वास्तव में 'जूठन' जातिगत उत्पीड़न और अतिदलित समाज के संघर्ष का आख्यान है। यह आत्मकथा नहीं अतीत की घटनाओं और पीड़ादायी अनुभवों से उपजी कराह है, जहां यातनामय भयावहता के साथ लेखक ही नहीं समय- समाज भी उपस्थित है।
जयप्रकाश कर्दम 'जूठन' के बारे में लिखते हैं –
‘‘हिन्दी साहित्य में अनेक आत्मकथाएँ लिखी गयी हैं, किन्तु अपनी विषेशताओं के कारण यह हिन्दी में लिखी गयी समस्त आत्मकथाओं में सबसे अलग और उच्च स्थान रखती है। यह कहना शायद अतिशायोक्तिपूर्ण नहींहोगा कि आत्मकथा साहित्य में 'जूठन' एक मील का पत्थर है। अमानवीय औरजड समाज की चेतना को जिस वेग और तीव्रता के साथ इसने झकझोरा है,यह किसी बडी उपलब्धि से कम नहीं है। जिस प्रकार का अभावग्रस्त, घृणित, तिरस्कारपूर्ण, अपमानजनक और नारकीय जीवन ओमप्रकाष वाल्मीकि ने जिया तथा जिस प्रकार वहाँ से निकलकर समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया, वह अनुकरणीय है तथा बहुतों की प्रेरणा का आधार हो सकता है। .... संक्षेप में कहा जा सकता है कि 'जूठन' सामाजिक बदलाव की पटकथा है।’’ [8]
'जूठन' में तथाकथित सवर्ण वर्ग के खोखलेपन तथा जाति व्यवस्था के नाम पर दलितों को दिए गए घावों के बारे में वाल्मीकि जी कहते हैं, "अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैंस को छूना बुरा नहीं था। लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाये तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर ईमानदारी का दर्जा नहीं था, वह सिर्फ जरुरत कि वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग ख़त्म, इस्तेमाल करो और दूर फेंको।" [9] लोग दलितों को जानवर से भी बदत्तर मानते थे। उनकी ईमानदारी का कोई लेखा-जोखा नहीं। दलित जाति को हमेशा सवर्ण जाति से डर कर रहना पड़ता था। समाज में उनका कुछ भी हक नहीं। उनका अपना कुछ नहीं। अपनी कविता 'ठाकुर का कुआँ' में वाल्मीकि जी इस भाव को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं,
"चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब का, तालाब ठाकुर का ।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का ।
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का
हल के मुठ पर रखी हथेली अपनी,
फसल ठाकुर का ।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर का
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गांव? शहर? देश?"
दरअसल यह उस समाज का आईना है जहाँ दलित का कुछ भी नहीं। उसे सिर्फ मेहनत करना है। सच तो यह है कि "भारतीय समाज में 'जाति' एक महत्वपूर्ण घटक है। 'जाति' पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है।" [10]
तमाम कष्टों, पीड़ाओं, यातनाओं, प्रताड़नाओं और उपेक्षाओं से दलित जीवन को वाल्मीकि जी ने 'जूठन' के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की है। स्वतंत्रता के पूर्व देश ने सुनहरे भविष्य का जो सपना देखा था, वह आजादी के कुछ वर्षों पश्चात टूटता बिखरता दिखाई देने लगा। आज भी दलितों के ऊपर अत्याचार देखने को मिलते हैं। आज भी दलित तरह-तरह के अन्याय तथा अमानवीय अत्याचारों और शोषण के शिकार होते आ रहे हैं, जिसमें महिलाएं और बच्चे ज्यादातर शामिल हैं। ऐसे समाज में 'जूठन' सिर्फ ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ही नहीं बल्कि पूरे दलित समाज का भोगा सच है, जहां जाति व्यवस्था की खतरनाक खायी है और वहां से आने वाली दर्दनाक चीखें भी हैं।
नाम व्यक्ति की पहचान होता है। किन्तु नाम में जब जातीयता का भाव आ मिलता है, तब नाम केवल नाम नहीं रह जाता, बल्कि वह व्यक्ति, समाज या जाति का प्रतिनिधित्व करने लग जाता है। दरअसल देखा जाये तो यह समस्या न नाम की है, न व्यक्ति की, बल्कि उस सोच की है जो वर्षों से भारत की रूढ़िवादी परंपरा में किसी जंग की तरह लगी हुई आ रही है। डॉ भीमराव अंबेडकर के विचार इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं –
‘‘ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति से दुखी हो, यह चिल्लाकर अपना जी हल्का करते फिरते हैं कि हमें अस्पृश्यों के लिए कुछ करना चाहिए, लेकिन इस समस्या को जो लोग हल करना चाहते हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह कहता हो कि हमें स्पृश्य हिन्दुओं को बदलने के लिए भी कुछ करना चाहिए। यह धारणा बनी हुई है कि अगर किसी का सुधार होना है तो वह अस्पृश्यों का ही होना है, अगर कुछ किया जाना है तो वह अस्पृश्यों के प्रति किया जाना है और अगर अस्पृश्यों को सुधार दिया जाए तो अस्पृश्यता की भावना मिट जाएगी। सवर्णों के बारे में कुछ भी नहीं किया जाना है। उनकी भावनाएँ, आचार-विचार और आदर्श उच्च हैं। वे पूर्ण हैं। उनमें कहीं भी कोई खोट नहीं है। क्या यह धारणा उचित है? यह धारणा उचित हो या अनुचित, लेकिन हिन्दू इसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहते। उन्हें इस धारणा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वे इस बात से आश्वस्त हैं कि वे अस्पृश्यों की समस्या के लिए बिल्कुल उत्तरदायी नहीं हैं।’’ [11]
इन विचारों के द्वारा उस संकीर्ण सोच को इंगित किया गया है जो मानव को मानव से दूर करती है, उनमें भेदभाव करती है। समाज में ऊंच-नीच की खायी पैदा करती है।
वाल्मीकि जी एक दलित समुदाय के 'चूहड़ा' जाति से हैं, जिनका कार्य गंदगी साफ करना, झाडू लगाना, साफ- सफाई के कार्य करना, जूठन साफ करना, सूअर चराना आदि कार्य करना था, जिससे स्वयं को अपमानित महसूस करना होता था। ऐसे में उनके बचपन का माहौल ऐसा था कि चारों ओर गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गन्ध की एक मिनट में साँस घुट जाती थी। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंगधडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े आदि। ऐसे गंदे वातावरण में वाल्मीकि जी का बचपन बीता। वे कहते हैं,
"बरसों-बरस चावल के मांड से बनी सब्जी खाकर अपने जीवन के अँधेरे तहखानों से फूल जाते थे भूख मर जाती थी। यही गाय का दूध था हमारे लिए, यही था स्वादिष्ट भोजन भी। यही था दारुण जीवन जिसकी दग्धता में झुलसकर जिस्म का रंग बदल गया है।" [12]
बचपन के दिनों को बताते हुए वे कहते है कि कैसे उनके माता और पिता दोनों कड़ी मेहनत करते थे, पर उसके बाद भी दोनों समय का निवाला मिलना दुष्कर कार्य था। उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरों में झाड़ू -पोछे का काम करती थीं और बदले में मिलता था उन्हें रुखी-सुखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थी।उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था। ऐसे समय में जब किसी सवर्ण के घर बारात आती थी या उत्सव का कोई अवसर आता था तो उस क्षेत्र के सारे दलित खुश हो जाते थे, क्योंकि भोजन के बाद फेंके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके 'जूठन' को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते। भूख-प्यास का यह दृश्य कल्पना की चीज नहीं, दलित समाज की हकीकत है—
"पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछें खिल जाती थीं। जूठन चटकारे लेकर खाई जाती थी।" [13]
वाल्मीकि जी ने अपने जीवन में कई कष्टपूर्ण अनुभवों को दर्ज किया है, जिनका उन्हें अपने बचपन और युवाकाल के दौरान सामना करना पड़ता था, क्योंकि वह 'चुहड़ा' समुदाय से थे। किन्तु उनके भीतर जाति को लेकर कोई हीनता का बोध नहीं है, कहीं भी यह एहसास नहीं है कि वे निम्न जाति में पैदा हुए हैं। वे अपनी पहचान मानवीय धरातल पर बनाना चाहते हैं न कि जातिगत स्तर पर। यही कारण है कि ओमप्रकाश के साथ 'वाल्मीकि' शब्द जुड़कर जाति हीनता का नहीं बल्कि आत्मगौरव, स्वाभिमान का पर्याय बन चुका था। संघर्षों और सरोकारों का साथी बन गया था। उनकी अपनी जातीय अस्मिता और पहचान का प्रतीक बनकर उभरा, जो वर्ण-व्यवस्था, द्वेष और घृणा को नाकाम कर रहा है। इस प्रकार आत्मकथा का अंत ओमप्रकाश के 'वाल्मीकि' सरनेम को लेकर उठे विवाद के साथ उनके आत्मसंघर्ष से होता है। यह सरनेम उनके संघर्षों और सरोकारों का साथी बन गया था, इसलिए उन्हें आत्मीय भी लगा।
इसलिए वह अपना सरनेम बदलने के लिए कभी तैयार नहीं हुए, इसके लिए उन्हें भले ही दोस्तों, रिश्तेदारों से भी अपमान के घूंट क्यों न पीने पड़े। वाल्मीकि जी की पत्नी चंदा अपने नाम के आगे 'खैरवाल' सरनेम लिखना पसंद करती हैं और तो और उन्हें भी 'खैरवाल' लगाने की सलाह देती हैं। यहाँ तक की एक बार सरनेम को लेकर बहस की, क्योंकि वह इस सरनेम को आत्मसात नहीं कर पाई और उन्होंने ने कहा कि 'यदि हमारा कोई बच्चा होता तो मैं उसका सरनेम जरूर बदलवा देती।' वाल्मीकि जी अपनी 'वाल्मीकि' पहचान के चलते तरह-तरह का अपमान अपने ऑफिस में भी सहते थे। वाल्मीकि जी को सबसे अधिक परेशानी मकान मिलने में हुई थी क्योंकि मकान मालिक कमरा देने के लिए जाति पूछता था जब यह जाति 'वाल्मीकि' बताते तो मकान देने से इंकार कर देता। वाल्मीकि जी से बहुत लोगों ने कहा कि वाल्मीकि नाम हटा दीजिये लेकिन वे नहीं माने। और उन्होंने अपनी पहचान जाति नहीं बल्कि कर्म से बनायीं।
वाल्मीकि जी की भतीजी अपनी कक्षा में अपनी जाति छुपाती है। यहाँ तक की अध्यपिका से पूछे जाने पर सीमा अपने चाचा को भी पहचानने से इंकार कर देती है। अपने चाचा से संवाद में वह कहती है, "सभी के सामने अगर मान लेती कि आप मेरे चाचा हैं तो सहपाठियों को मालूम हो जाता कि मैं वाल्मीकि हूँ आप फेस कर सकते हैं मैं नहीं कर सकती गले में जाति का ढोल बांधकर घूमना कहाँ की बुद्धिमानी है ?" [14] इस विषय में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं,
‘‘जाति को लेकर समाज में जो स्थिति है, मैं उससे इनकार नहीं कर रहा हूँ लेकिन जितना डरोगे, लोग उतना ही तुम्हें डराएँगे। एक बार मन से डर निकाल दो, फिर देखो, तुमसे डरने लगेंगे। डर-डरकर हजारों साल से जी रहे हो, क्या मिला? पढ़-लिखकर अच्छे पद पर काम कर रहे हो, फिर भी डरे हुए हो? अपने भीतर के हीनता-बोध से बाहर आकर देखो।… जरा एक बार विरोध करके तो देखो। शायद स्थिति में कोई अंतर आ जाए। जिस बात से टकराना चाहिए, उससे डरकर भाग रहे हो? क्यों? इससे मुक्त होने का क्या यही रास्ता बचा है, इस समस्या से पलायन करके भाग लो। इससे क्या समस्या खत्म हो जाएगी। नहीं, खुलकर कहो जो भी कहना है, अपनी काबिलियत साबित करो। स्थितियाँ बदलेंगी, यही तो जीवन-संघर्ष है।’’ [15]
जाति सम्बंधित एक और घटना का बयान 'जूठन में मिलता है। वाल्मीकि जी महाराष्ट्र से ट्रेन में लौट रहे थे। सामने वाली सीट पर अधिकारी की पत्नी बैठी थीं। वाल्मीकि जी की पत्नी चंदा के बीच अच्छा माहौल था। लेकिन बात ही बात में उन्होंने जाति पूछ ली। चंदा अपने पति की तरफ देखने लगीं। तब तक वाल्मीकि जी ने तुरंत कहा कि मैं भंगी हूँ। अचानक सारा माहौल बिगड़ गया "जैसे अचानक स्वादिष्ट व्यंजन में मक्खी गिर गई। जब तक मेरी पत्नी कुछ उत्तर देती, मैंने उत्तर दे दिया भंगी। भंगी शब्द सुनते ही सन्नाटा छा गया।" [16] इस दृश्य से पता चलता है कि इतने ऊँचे पदों पर आसीन रहते हुए भी लोग जाति को अधिक महत्त्व देते हैं। शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी जातिगत भेदभाव कायम है।
'जूठन' के माध्यम से ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म और इतिहास में पवित्र तथा उत्कृष्ट समझे जाने वाले तीन प्रतीकों -क्रमशः शिक्षण संस्थान, गुरु यानि शिक्षक एवं प्रेम पर कड़ा प्रहार किया है। साथ ही इसमें यह दिखाने का प्रयास किया है कि दलित समाज को अपने व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में इन तीनों प्रतीकों को नकारात्मक भूमिकाओं का सामना करना पड़ता है।
शिक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है। समाज में दलितों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था, तथाकथित सवर्णवादी समाज को डर था कि यदि निम्न वर्गीय बच्चे आगे बढ़ेंगे। शिक्षा प्राप्त करेंगे तो वे उनके खिलाफ आवाज उठाने लगेंगे। बचपन में जब ओमप्रकाश को प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाने के लिए उनके पिताजी गये तब उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया गया। क्योंकि वह एक दलित समुदाय से थे। “हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, 'ले जा इसे यहाँ से चूहड़ा होक पढ़ने चला है… जा चला जा… नहीं तो हाड़-गोड तुड़वा दूंगा’ … ‘क्या करोगे स्कूल भेज के' या 'कौवा बी कबी हंस बण सके', 'तुम अनपढ़ गंवार लोग क्या जाणो, विद्या ऐसे हासिल न होती।’’ [17] शिक्षक का व्यवहार दलितों के लिए रक्षक की गरिमा के एकदम विपरीत रहा है। कोई दलित रक्षा ग्रहण करने का विचार भी लाता था तो सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रक्षक दलितों को विद्यालय की देहरी से ही वापिस कर देता था। किन्तु बच्चे को शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से उनके पिताजी ने कई बार स्कूल के चक्कर काटे और हेडमास्टर से अनुरोध किया तब जाकर ओमप्रकाश को विद्यालय में प्रवेश मिला।
विद्यार्थी जीवन में कक्षा की चार दीवारी के भीतर भी उन्होंने भेदभाव और अस्पृश्यता का अनुभव किया। अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखते हैं –
‘‘जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था मुझे स्कूल के कार्यक्रम से बाहर रखा जाता था। मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों क्रियाकलापों से दूर रखा जाता था। ऐसे वक्त मैं सिर्फ किनारे खड़ा होकर दर्शक बना रहता था। स्कूल के वार्षिक उत्सव में जब नाटक आदि का पूर्वाभास होता था, मेरी भी इच्छा होती थी कोई भूमिका मिले। लेकिन हमे दरवाजे के बाहर खड़ा रहना पड़ता था।दरवाजे के बाहर खड़े रहने की इस पीड़ा को तथाकथित देवताओं के वंशज नहीं समझ सकते।’’ [18]
उच्चवर्ग के विद्यार्थियों के द्वारा स्कूल में बिना किसी कारण के उन्हें पीटा जाता था। वाल्मीकि जी को बचपन में ही ऐसे शिक्षक मिले जिससे उन्हें शिक्षक नाम से ही घृणा होने लगी। विद्यालय में ही एक दिन उनसे शीशम के पेड़ से पत्ते-डालियाँ तोड़वाकर झाडू बनवाया गया और लगातार तीन दिन तक पूरे स्कूल में झाड़ू से साफ-सफाई करवायी गई साथ ही तीन दिन तक पढ़ने भी नहीं दिया गया।
'जूठन' पूरी शिक्षा पद्धति और शिक्षकों की घिनौनी मानसिकता को उजागर करती है। गुरु शिष्य की जो पवित्र छवि हमें दी गई है या जिस छवि का निर्माण किया गया है, वह बाहर से देखने पर बहुत सुहावनी, निर्दोष और प्रशंसनीय लग सकती है लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, "अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा था, वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो माँ- बहन की गलियां देते थे। सुन्दर लड़कों के गाल सहलाते थे और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे बहितापन करते थे।" [19] जबकि दूसरी तरफ चौथी कक्षा के छात्र ओमप्रकाश को हेडमास्टर पैतृक धंधे का एहसास कराता, काम करवाता और साथ ही गन्दी गलियां भी देता। हेडमास्टर की दहाड़ सुनकर वह बालक थर-थर कांपने लगता है,
"अबे ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया… अपनी माँ…।
…हेडमास्टर ने लपक कर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था, जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, जा लगा पूरे मैदान में झाडू… नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल के बाहर काढ़ (निकल) दूंगा।" [20]
इन सब अत्याचारों का विद्रोह करने तथा सवाल पूछने पर एक अध्यापक छात्र वाल्मीकि के 'पीठ पर छड़ी से महाकाव्य' रच देता है। जिसका जिक्र वाल्मीकि जी इस प्रकार करते हैं ,"वह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के घृणित क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।" [21] कुछ इसी तरह सवर्ण अध्यापकों के जैसा ही सवर्ण जाति के विद्यार्थी भी दलित वर्ग के विद्यार्थियों को जहाँ-तहाँ उपेक्षा करते हैं और गाली-गलौज और मार-पीट भी कर लेते हैं। पी. टी. मास्टर फूल सिंह त्यागी ने दलित छात्र सुरजन सिंह की जमकर पिटाई की जिससे इनकी हालत गंभीर हो गई फिर भी इस पर प्रिंसिपल यशवीर त्यागी कोई कार्यवाही नहीं करते हैं। ऐसे व्यवहार प्रायः सभी सवर्ण शिक्षकों में दलित विद्यार्थियों के प्रति रहे हैं। वैसे तो गुरु ईश्वर का रूप है,
"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागु पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।"
किन्तु वास्तव में कबीरदास जी ने जिस गुरु को ईश्वर का दर्जा दिया है, 'जूठन' में वे मनुष्य कहलाने के लायक भी नहीं लगते।
परिणामतः प्राकृतिक है कि ऐसे परिवेश में एक ओर सवर्णवादी मानसिकता का विकास होगा, तो दूसरी ओर दलित विद्यार्थियों के अंदर हीनता-कुण्ठा का भाव विकसित होगा। कितने दुःख की बात है कि शिक्षित लोग भी जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। बात- बात में जाति का एहसास करवाना शिक्षित लोगों की पहचान नहीं हो सकती। वाल्मीकि जी सच ही कहते हैं, "उस समय मुझे लगता था जैसे मेरे सामने कोई शिक्षक नहीं, जातीय अहम में डूबा हुआ कोई अनपढ़ खड़ा है।" [22] समाज में ऊंच-नीच, भेदभाव नहीं होता यदि हम कबीरदास जी के शब्दों को अपने आचरण में लाते।
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।"
किन्तु वास्तव में दलितों का जीवन ऐसा था कि किसी सामन्त व सेठ-साहूकार को दलितों को नाम से पुकारने की आदत नहीं थी। उनके संबोधन का तरीका यह होता था, अगर उम्र में बड़ा हो तो ‘ओ चूहड़े’, बराबर या उम्र में छोटा है तो ‘अबे चूहड़े के’। यानी दलितों का समाज में कोई मान-सम्मान, ईज्जत, अस्मिता, तथा अपनी पहचान कुछ भी नहीं थी सिवाय 'चूहड़े’ के। सामाजिक स्तर पर इंसानी दर्जा खत्म कर दिया गया था।
पढ़ाई के दौरान के संघर्षों को याद करते हुए वाल्मीकि जी लिखते हैं कि “तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे; ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊं और मैं उन्हीं कामों में लग जाऊं, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था। उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।” [23]
विद्यार्थी जीवन में अभाव और आर्थिक विवशता के कारण ओमप्रकाश को मरे हुए पशु की खाल उतारकर मुजफ्फरनगर बाजार में बेचने भी जाना पड़ा। पशु बली के एक प्रसंग में - सूअर आर्थिक आय का प्रतीक है, जिसकी बली चढाने का कार्य भी बालक ओमप्रकाश ने किया। परीक्षा के समय शिक्षक द्वारा जबरन बेगार भी करवाया गया। अतः अभाव और आर्थिक हालात के कारण ओमप्रकाश को बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। तथा उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण के लिए तैयार होना पड़ा। इस प्रकार उन्हें अपने विद्यार्थी जीवन में भी दलित जीवन की त्रासदियों का सामना करना पड़ा।
'जूठन' ने प्रेम की सारी परिभाषाओं एवं उसके अर्थों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। दो युवा मनों में उपजे प्रेम को समाज की तथाकथित संकीर्ण जाति व्यवस्था ने चूर- चूर कर दिया। इस व्यवस्था में मानव की स्वाभाविक मनोवृत्तियाँ दफ़न कर दी जाती हैं और सारी स्वतंत्रता छीन ली जाती है। ऐसे लगता है जैसे सवर्ण घरों में स्त्रियों को घर की चारदीवारी में बंद करके जातिगत मानसिकता से संस्कारित किया जाता है। महाराष्ट्र के कुलकर्णी परिवार की बेटी सविता ओमप्रकाश की ओर इसलिए आकृष्ट हुई थी कि वे एस. सी. हो ही नहीं सकते। लेकिन जब ओमप्रकाश को पता चलता है तो वे सविता को स्पष्ट रूप से बता देते हैं कि मैं ब्राह्मण नहीं एस. सी. हूँ। इस बात से सविता को धक्का लगता है। उसे यकीन नहीं होता क्योंकि उसे हमेशा से ये सिखाया गया है कि इतने सभ्य और सुशील तो सिर्फ ब्राह्मण ही होते हैं, एस. सी. तो अनकल्चर्ड (असभ्य) होते हैं। उसके संस्कार तो दलितों से घृणा का भाव और उनसे दूर रहने को सिखाते हैं। "घर में जितने भी एस. सी. और मुसलमान आते हैं, उन सबके लिए अलग बर्तन रखे गए हैं।" सविता ने सहज भाव से कहा।
"यह भेदभाव तुम्हें सही लगता है?" मैंने पूछा। मेरे शब्दों के तीखेपन को उसने महसूस कर लिया था।
"अरे… तुम नाराज क्यों होते हो?"… उन्हें अपने बर्तनों में कैसे खिला सकते हैं ?" उसने प्रश्न किया।
"क्यों नहीं खिला सकते?"… होटल में… मैस में तो सब एक साथ खाते हैं फिर घर में क्या तकलीफ है?" मैंने तर्क किया।
सविता इस भेदभाव को सही और संस्कृति का हिस्सा मान रही थी। उसके तर्क मुझे उत्तेजित कर रहे थे। फिर भी काफी संयत था उस रोज। उसका कहना था, एस. सी. अनकल्चर्ड (असभ्य) होते हैं। गंदे होते हैं।" [24]
दरअसल सविता और उसका परिवार तो एकमात्र उदाहरण हैं। ऐसे कितने लोग और परिवार होंगे जो दलितों से इस प्रकार की भावना रखते हैं। सोचने की बात है कि समाज में जिन वर्गों को सबसे गन्दा माना जाने वाला काम सौंप दिया जाता है इन्हीं कामों को करने वाले लोगों से घृणा किया जाता है। उन्हें गन्दा और असभ्य कहकर उनके साथ घृणित व्यवहार किया जाता है। सच तो ये है कि यदि दलित सवर्णों के घर की ये गन्दगी न साफ करें तो उनकी सारी-की- सारी शानो- शौकत बिगड़ जाएगी। वास्तव में दलित ये तथाकथित गंदे काम मजबूरी में नहीं करते उन्हें बेगार के रूप में कराया जाता रहा है। फिर भी बदले में घृणा, गाली और अपमान ही मिलता है।
यह सोच प्रेम जैसे पवित्र सम्बन्ध पर भी भारी पड़ जाती है। सविता और उसके परिवार को लगता है कि ओमप्रकाश ब्राह्मण है। सविता को यकीन नहीं होता की ओमप्रकाश ब्राह्मण नहीं एस. सी. हैं।
"मैं एस. सी. हूँ …मैंने पूरी शक्ति से कहा था। मेरे भीतर जैसे कुछ जल रहा था।
"ऐसा क्यों कहते हो?" उसने गुस्सा किया।
"मैं सच कह रहा हूँ… तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा। न मैंने कभी कहा कि मैं ब्राह्मण हूँ।" मैंने उसे समझाना चाहा।
वह आश्चर्य से मेरा मुंह ताक रही थी। उसे लग रहा था, जैसे मैं मजाक कर रहा हूँ।
मैंने साफ शब्दों में कह दिया था कि मैंने उत्तर प्रदेश के 'चूहड़ा' परिवार में जन्म लिया है।
सविता गंभीर हो गई थी। उसकी आँखे छलछला आयीं। उसने रुआँसी होकर कहा, "झूठ बोल रहे हो न!"
"नहीं सवि… यह सच है… जो तुम्हें जान लेना चाहिये…" मैंने उसे यकीन दिलाया था।
वह रोने लगी थी। मेरा एस. सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफी देर सुबकती रही। हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफरत हमारे दिलों में भर गई थीं। एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।" [25]
इस तरह की सोच और संस्कृति ने दलितों को सदियों तक रिसने वाले दर्द दिए हैं। न जाने कितने ओमप्रकाशों और सविताओं के प्रेम को दफ़न किया है। इस प्रकार के जातिगत भेदभाव मन में तरह -तरह के सवाल तथा टीस भर देता है। यहाँ तक कि वे अपने हिन्दू होने पर भी सवाल करते हैं। वे अपने को हिन्दू धर्म से अलग करके देखते हैं। क्योंकि यदि हिन्दू होते तो फिर इतना भेदभाव, ऊंच-नीच और घृणा न होती। धार्मिकता के इस आडम्बर के बारे में वे कहते हैं, "पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को पूजने वाला हिन्दू दलित के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है? आज जाति एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित हैं तो सब कुछ 'ठीक' रहता है, 'जाति' मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है।" [26]
ओमप्रकाश वाल्मीकि 'जूठन' में मानव-गरिमा को समाप्त करने वाले रीति- रिवाजों, प्रथाओं तथा परम्पराओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। साथ ही इन प्रथाओं के पीछे मानव विरोधी धारणाओं को उजागर भी करते हैं। 'जूठन' शब्द इस आत्मकथा का नाम भी इसी कुप्रथा या रीति- रिवाज की देन का प्रतिफलन है। ऐसी अमानवीय प्रथा है कि इस वर्ग या जाति के लोग, सवर्ण लोगों के घर जूठी पत्तलों को निहारते हैं और जूठन खाने के लिए विवश किया गया है, जो उनके संस्कार में ढल गया है। 'जूठन' उठाना और 'चटखारे लेकर' जूठन खाना दलितों के जीवन का एक हिस्सा बन गया और ये मानो जूठन पर ही अपना अधिकार समझने लगे। इस परिवेश में बराबरी की बात करना सरासर झूठ लगता है।
समाज में व्याप्त इस वर्ण-व्यवस्था की ठोकरों से ओमप्रकाश वाल्मीकि बार- बार आहत होते हैं, उनकी पीड़ा से कराहते भी हैं, लेकिन टूटते नहीं, बल्कि चेतना का वेगमयी प्रवाह निरंतर बढ़ता जाता है। उन्हें महसूस होता है कि शोषित वर्ग शिक्षा से वंचित होने तथा एक दायरे तक सीमित होने के कारण संघर्ष की परंपरा से परिचित नहीं हो पाता। वह धीरे-धीरे इस व्यवस्था का आत्मसातीकरण कर लेता है, क्योंकि गुलामी करते-करते उसकी चेतना जड़ हो जाती है। प्रश्न करने की आदत खत्म हो जाती है। उसे अपनी स्थिति का एहसास तक खत्म होता चला जाता है, लेकिन अभावग्रस्त, उत्पीड़न की मार झेल चुके तथा व्यवस्था की वीभत्सता को महसूस कर चुके ओमप्रकाश वाल्मीकि इस व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाते हैं। उन्हें ये प्रेरणा बाबा साहेब अम्बेडकर से मिलती है। बाबा साहेब को पढ़ते हुए, वाल्मीकि जी स्वीकार करते हैं कि, "डॉ अम्बेडकर के जीवन- संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था। मेरे भीतर एक प्रवाहमयी चेतना जागृत हो उठी थी। इन पुस्तकों ने मेरे गूंगेपन को शब्द दे दिए थे। व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना मेरे मन में इन्हीं दिनों पुख्ता हुई थी।" [27]
'जूठन' में इस समाज में व्याप्त असमानता एवं दोयम दर्जे के व्यवहार के प्रति विरोध दिखाई देता है। स्कूल में दलित बच्चों से झाडू लगवाया जाता है। एक दिन अचानक वाल्मीकि के पिता स्कूल पहुंचे तो उन्होंने जो देखा उससे वे अपना आपा खो देते हैं और ऊँची आवाज में अध्यापकों से कहते हैं कि "कौण सा मास्टर है, वो द्रोणाचार्य की औलाद जे मेरे लड़के से झाडू लगवाये है?" यह आवाज ही प्रतिरोध का प्रतीक है। उनके लिए पढ़ाई का मतलब सिर्फ नौकरी पा लेना नहीं था, बल्कि सच्चे अर्थों में 'जाति सुधारना' था। दलितों में आत्मसम्मान लौटने का कार्य करना था। जो आगे चलकर वाल्मीकि जी ने किया भी। अपने परिवार के भरोसे और त्याग को व्यर्थ नहीं जाने दिया।
इसी प्रकार वाल्मीकि जी की माँ के अंदर आत्मसम्मान और हक के लिए उपजा स्वाभाविक आक्रोश दलित के साथ -साथ नारी चेतना का भी एक अद्भुत उदाहरण है। अपने बचपन की एक घटना का वर्णन करते हैं। इनकी माँ सुखदेव सिंह के यहाँ काम करती हैं लेकिन बदले में उनको सिर्फ जूठन ही मिलता है। उनकी माँ एक बार सुखदेव सिंह के यहाँ शादी में बारातियों के खाने का इंतजार कर रहीं थी कि मुझे भी खाना मिले और बच्चों को खिला सकूं। जब सब बाराती खाना खाकर उठ गए तो पत्तल पर पड़े जूठन के साथ ही खाना भी मांग लीं। इस पर सुखदेव सिंह ने बोला, "टोकरा भर तो जूठन ले जा रही है ऊपर से जातकों (बच्चों) के लिए खाना मांग रही है? अपनी औकात में रह चुहड़ी! उठा टोकरा और दरवाजे से चलती बन।" इन वाक्यों ने उनके दिलोदिमाग को भेद दिया। "माँ ने भी शेरनी की तरह डटकर जवाब दिया था और जूठन से भरे टोकरे को उसकी ओर फेंकते हुई बोली, "इसे उठाकर धर ले। कल नाश्ते में बारातियों को खिला देणा…और हम दोनों भाई-बहनों का हाथ पकड़ के तीर की तरह उठकर चल दी थी। सुखदेव सिंह माँ पर हाथ उठाने के लिए झपटा था, लेकिन माँ ने शेरनी की तरह सामना किया था।" [28] ओमप्रकाश वाल्मीकि बताते हैं कि उस दिन से आक्रोश और बदलाव की चिंगारी फूट पड़ी थी। जूठन का सिलसिला बंद हो रहा था।
इस तरह 'जूठन' में एक तरफ यातनामयी चीखें हैं तो दूसरी तरफ इनसे होड़ लेने की चेतना और अद्भुत साहस भी व्याप्त है, जो हर दलित और पीड़ित वर्ग को उठ खड़े होने की प्रेरणा देता है। मन में आक्रोश और अपमान की धधकती ज्वाला के बीच भी वाल्मीकि जी की मनुष्यता कहीं खोती नहीं है, बल्कि और निखरती है।
निष्कर्ष
दलित साहित्य वह माध्यम है जिसके द्वारा दलित वर्ग के शोषण एवं उत्पीड़न का यथार्थ चित्रण होता है साथ ही उसे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी करता है। अतः दलित लेखकों ने अपनी आत्मकथाओं के जरिए समाज में एक नई सोच एवं बदलाव लाने का प्रयास किया है, जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि एक महत्वपूर्ण नाम है। वाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' शीर्षक से ही अन्याय, भेदभाव, अत्याचार एवं पीड़ा की बू आती है; साथ ही इस रचना के माध्यम से समाज में एक नई चेतना का उदय एवं विकास भी हुआ। दरअसल यह मात्र एक व्यक्ति की आत्मकथा ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण दलित समाज का कारुणिक दस्तावेज है। जिसमें दलित उत्पीड़न तथा अभाव के साथ-साथ समकालीन धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी हमारे सामने रखती है। इसमें परंपरागत सामाजिक- सांस्कृतिक दासता की बेड़ियों से मुक्ति पाने की कोशिश दिखाई पड़ती है, जिसके लिए वाल्मीकि जी ने मुख्य हथियार के रूप में 'शिक्षा' को अपनाया है। वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने तथा समाज में अपना स्थान बनाने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' उसे गंभीरता से प्रकट करता है।
सन्दर्भ:
- ओमप्रकाश वाल्मीकि (2001), दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र (पहला संस्करण) दिल्ली राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ 40
- वही, पृ 13
- वाड्.मय - दलित विषेशांक (2006), जनवरी-मार्च- अंक 8, पृ 124
- दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ 29
- ओमप्रकाश वाल्मीकि (2014), मुख्यधारा और दलित साहित्य, दिल्ली सामायिक प्रकाशन
- देवेंद्र चौबे (2009), आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, हिंदी बुक सेंटर, पृ 58
- ओमप्रकाश वाल्मीकि (2014), जूठन- पहला खंड (छठी आवृत्ति) नई दिल्ली,राधाकृष्ण प्रकाशन, भूमिका
- जयप्रकाश कर्दम (2016), दलित साहित्य:सामाजिक बदलाव की पटकथा (प्रथम संस्करण) कानपुर, अमन प्रकाशन, पृ 125
- जूठन- पहला खंड, पृ 12
- वही, पृ 159
- डॉ बी.आर. अम्बेडकर (2013), अस्पृश्यता अथवा भारत में बहिष्कृत बस्तियों के प्राणी (आठवाँ संस्करण), नई दिल्ली, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान, पृ 170
- जूठन- पहला खंड, पृ 35
- वही, पृ 19
- वही, पृ 153
- ओमप्रकाश वाल्मीकि (2015), जूठन- दूसरा खंड (प्रथम संस्करण), नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ.सं. 17-18
- जूठन- पहला खंड, पृ 158
- वही, पृ 16,17
- वही, पृ 35
- वही, पृ 14
- वही, पृ 14
- वही, पृ 35
- वही, पृ 78
- वही, पृ 13
- वही, पृ 118
- वही, पृ 119
- जूठन- दूसरा खंड, पृ 160
- जूठन- पहला खंड, पृ 89
- वही, पृ 21