दलित चेतना, इसकी मूल प्रेरणा और आंदोलन को हिंदी के दलित लेखक कवि और आलोचक ओमप्रकाश वाल्मीकि के कथनों से समझा जा सकता है कि दलित चेतना एक प्रति सांस्कृतिक चेतना है, बल्कि एक वैकल्पिक जितना भी है । इस कारण विद्रोही है इस खंड में भारतीय सामाजिक संरचना है । परंपरा से भी दलित चेतना का स्वरूप बना है । दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है । यह भारतीय विमर्श है, क्योंकि जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है । इस विमर्श में भारत की अधिकांश भाषाओं में दलित साहित्य को जन्म दिया है । हिंदी में दलित साहित्य के विकास की दृष्टि से बीसवीं सदी के अंतिम दशक बहुत महत्वपूर्ण है । दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है । इसके केंद्र में दलित जाति से अंतर्गत शामिल मनुष्यों के अनुभवो, कष्टों और संघर्षों को स्वर देने की संगठित कोशिश की गई है । यह एक भारतीय विमर्श है, क्योंकि जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है । परंतु साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है, परंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यत: बीसवीं, सदी की दैन है । रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास 'ताकि बचा रहे लोकतंत्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की विस्तृत चर्चा किया है । वहीं डॉ एन.सिह ने अपनी पुस्तक में 'दलित साहित्य के प्रतिमान' में हिंदी दलित साहित्य के इतिहास को बहुत ही विस्तार से लिखा है ।
दलित साहित्य की अवधारणाओं को लेकर लंबी चर्चा चली, परन्तु यह प्रश्न दलित साहित्य में प्रमुखता से छाया रहा कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है, अर्थात स्वानुभूति ही प्रमाणिक होगी या सहानुभूति को भी स्थान प्राप्त होगा । प्रमुख दलित साहित्यकारों ने कहा सवर्णो ने दलितों की पीड़ा को भोगा नही, इस कारण वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते, अर्थात यह मता अधिक दिनों तक टिका नहीं, परंतु आरंभ में चर्चा का मुद्दा बना रहा । यह प्रश्न मराठी की तुलना में अधिक उठ, अंत में इस बात पर राय बनती नजर आई कि दलित साहित्य अस्सी और नब्बे के दशक में उभरा एक साहित्यिक आंदोलन है जिसमें प्रमुखता से दलित समाज में पैदा हुए रचनाकारों ने हिस्सा लिया और उसे अलग धारा मनवाने के लिए संघर्ष किया । इस प्रकार मराठी दलित साहित्य हिंदी दलित साहित्य तेलुगु दलित साहित्य गुजराती दलित साहित्य कन्न्ड दलित साहित्य आदि भाषाओं में भी दलित साहित्य की रचना हुई है । हिंदी दलित साहित्य में निम्नलिखित साहित्यकार हुए जो इस प्रकार से बिहारीलाल हरित महाश्य नत्थू राम ताम्र मेली, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. धर्मवीर मोहनदास, नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, जयप्रकाश कर्दम, तुलसीराम, असंग घोष, डॉ. उमेश कुमार सिंह, कर्मानंद आर्य, डॉ. राजू कुमार आदि प्रमुख हिन्दी दलित साहित्यकार है । भारतीय समाज में व्यात्र वर्ण-व्यवस्था, जाति अस्पृश्यता, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है । इस पूर्व गौतम बुद्ध के समय से आज तक अन्याय और वर्चस्व के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन के लिए धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन चलते रहे हैं । समय और काल के परिवेश में अपने दबावों के परिणाम स्वरूप पर आंदोलन तीव्रता और ठहराव से गुजरते हुए नया आकार पाता रहा है । सामाजिक परिवर्तन के प्रक्रियाओं को अग्रसर करते हुए आज दलित साहित्य भी वर्ण-व्यवस्था के संदर्भ में एक सशक्त आंदोलन है । हिंदू धर्म प्रणित समाज व्यवस्था जटिल है कि आज भी भारतीय समाज हजारों जातियों में बंटा हुआ है । जातिगत भेदभाव इस युग में आज भी जड़ लगाए हुए हैं । दलित साहित्य इस जड़ को उखाड़ फेंकने के लिए कृत संकल्प है । दलित साहित्य के प्रखर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में "भारतीय समाज में व्यवस्था के आधार पर बंटवारा हुआ, उसकी ही देन है जातिभेद । जो असमानता, वर्चस्व और शोषण पर आधारित है । वर्ण व्यवस्था के पक्षघर यह मानने को तैयार ही नहीं है कि विकास को रोक देने वाली यह व्यवस्था प्रगति पथ को सीमित कर देती है और समाज को संकीर्णता में बांध देती है" दलित साहित्य की दार्शनिक और वैचारिक पृष्ठभूमि को समझे बिना आप हम दलित चेतना आंदोलन और उससे प्रेरित दलित साहित्य आंदोलन को समझ नहीं सकेंगे । दलित चेतना की उत्पत्ति के स्रोतों को जानना होगा तभी हमे दलित साहित्य की विशिष्टता और सामाजिक न्याय के लिए तत्पर साहित्य विचारधारा को समझने का अवसर प्राप्त होगा । दलित चेतना के दार्शनिक और वैचारिक आधार का स्त्रोत गौतम बुद्ध ही रहे हैं । बुद्ध भारतीय इतिहास के प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को औचित्य को चुनौती दी और उसे अवैज्ञानिक अमानवीय बताया । श्रावस्ती प्रवास के दौरान सुनित नामक भंगी को अपने संघ में शामिल करके दलितोद्वार का वह मार्ग प्रशस्त किया जो आने वाले युगों-युगों तक दलित-मुक्ति का मार्ग अवलोकन करता रहा है । भक्तिकाल में दलित संत कवियों की बानियों में चेतना की वह चिनगारी सुलगती रही जो आधुनिक काल तक आते-आते डॉ. आंबेडकर का युग प्रवर्तक व्यक्तित्व के रूप में आगे बढे । आधुनिक दलित चेतना की प्रबल प्रेरणा डॉ. आंबेडकर का युग प्रवर्तक व्यक्तित्व और कृतित्व है । विशेष रूप से महाराष्ट्र से शुरू हुए दलित साहित्य आंदोलन पर उनके विचार एवं दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ।
दलितों का अस्पृश्ता मानकर उन्हें समाज और धर्म से बहिष्कृत किया गया । यहाँ तक कि विधो पार्जन पर भी रोक थी । धार्मिक संस्कार जैसे उपनयन संस्कार दलित के लिए नहीं थे । मंदिरों में पूजा करना निषेध था । धनो पार्जन प्रतिबधित था । बस्तियों से बाहर रहने का बाध्य किया जाता था । तमाम अनुष्ठानों से वंचित रखना व्यवस्था का हिस्सा था । तब उनकी भाषा, उनके संस्कार, उनका जीवन, पारंपरिक साहित्य की कल्पना और मापदण्डो में कैसे समाविष्ट हो सकता है । उनका अलग अस्तित्व सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर साफ-साफ दिखाई पड़ता है । गौतम बुद्ध के बाद डॉ. आंबेडकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में अपना सारा जीवन लगा दिया । लेखकीय चेतना और सामाजिक-राजनीतिक चेतना के बीच का गहरा अंतसंबंध है, जो विचार तर्क और स्थापना, सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में राजनीति को प्रेरित करते हैं वे ही लेखन को भी प्रेरित करते हैं । यदि दलित राजनीति के प्रेरणा पुरुष डॉ. आंम्बेडकर है तो दलित साहित्य में भी उन्होंने विचारों की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा है । दलित साहित्य का मुखर स्वर वही है जो, सामाजिक विभेद वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी, नैतिकता, सामाजिक संरचनात्मक अन्याय और शोषण के विरुद्ध तैयार हुई विचार प्रक्रिया से निर्मित हुआ है । क्योंकि दलित चेतना विरोध और प्रतिकार की चेतना है, इसलिए दलित साहित्य में साहित्य भी विरोध और प्रतिकार का साहित्य है । सवर्णों का श्रेष्ठत्व, सामाजिक जीवन में बेमेल आचार-विचार, स्त्री और शूद्रों की प्रतिष्ठा का अवमूल्यन, पवित्रता और अपवित्रता की भ्रामक कल्पनाएँ आदि सामाजिक व्यवस्थाओं को डॉ. अम्बेडकर ने सदैव नकारने का संघर्ष किया। वे मनुष्य और मानवतावाद को सर्वोच्च मानते थे। अतः जो संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था मनुष्य को उसके आत्मसम्मान से अपदस्थ करें, उसके प्रति डॉ. अम्बेडकर ने विद्रोह किया, अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध डॉ. अम्बेडकर की विद्रोह चेतना ही दलित साहित्य की मुख्य शक्ति है। अतः डॉ. अग्बेडकर के विचारों और दर्शन को समझे बिना दलित साहित्य की मुख्य चेतना को समझना कठिन नहीं तो आधा-अधूरा अवश्य कहा जाएगा।
हिन्दी साहित्य में दलित जीवन को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ सामने आई हैं- प्रेमचन्द, निराला, अमतृलालनागर, गिरिराज किशोर जैसे कथाकारों ने दलित प्रसंगों को लेकर अनेक कहानियाँ, उपन्यास लिखे गए हैं, इसलिए हिन्दी साहित्य के लिए दलित विमर्श नया नहीं हैं किन्तुविगत दो दशकों में दलित विमर्श इतना महत्त्वपूर्ण हो गया कि उसने एक स्वतंत्र धारा के रूप में अपनी पृथक् पहचान स्थापित कर ली है । हिन्दी साहित्य में दलितों को केन्द्र में रखकर जिस साहित्य की रचना की गई है, उसे दलित साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि प्रश्न दलित चेतना का है, मानवीय दृष्टि या । प्रगतिशील दृष्टि का नहीं । दलित साहित्य का आधार डॉ. अम्बेडकर का दर्शन है। डॉ. अम्बेडकर के चिन्तन की स्थापना ही दलित साहित्य की मुख्य अवधारणा हैं, "आधुनिक हिन्दी दलित साहित्य वह है जो दलित मुक्ति के सवालों पर पूरी तरह अम्बेडकरवादी हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उसके सरोकार वहीं है जो अम्बेडकर के थे, "दलितों के प्रति सामाजिक अन्याय और आर्थिक शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध अम्बेडकर की विद्रोह चेतना ही दलित साहित्य की मुख्य शक्ति है।
हिन्दी में विगत दो-ढाई दशकों में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, आलोचना, पत्रकारिता आदि सभी विधाओं में प्रचुर दलित साहित्य लिखा गया है। जहाँ तक हिन्दी कथा साहित्य का प्रश्न है तो उसे दो भागों में विभक्त किया गया है। पहला भाग हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श को लेकर है जिसके बारे में पहले संकेत किया जा चुका है और जिसे दलित साहित्य के अन्तर्गत नहीं माना जाता । वस्तुतः हिन्दी में प्रेमचन्द के कथा साहित्य से दलितों के प्रति मानवीय दृष्टि की अभिव्यक्ति मिलने लगती है। प्रेमचन्द ने अपनी अनेक कहानियों और उपन्यासों में दलितों पर होने वाले अन्याय, शोषण और उत्पीड़न का चित्रण किया है। आजादी के बाद भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतलालनागर और नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में जमींदारों द्वारा दलितों के आर्थिक और दैहिक शोषण का गहरी सहानुभूति और वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ अंकन किया है, नागार्जुन के 'बलचनमा' और 'वरूण के बेटे' उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं, निराला के उपन्यास 'चतुरी चमार' और 'बिल्लेसुर बकरिहा' को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। अमृतलाल नागर का उपन्यास "नाच्यौ बहुत गोपाल" दलित जीवन का महाकाव्य कहा जा सकता है। इसमें भंगी जीवन को नारकीय यथार्थ का बहुत सटीक और संवेदनापूर्ण चित्रण हुआ है, गिरीराज किशोर के उपन्यास 'यथा प्रस्तावित' और 'परिशिष्ट' में सामाजिक उत्पीड़न और क्रूरता के शिकार दलितों का चित्रण हुआ है, रमेशचन्द्र शाह के 'किस्सा गुलाम' में दलित जाति में जन्मे कुन्दन की कुंठा और विद्रोह की भावना का ।
प्रभावपूर्ण चित्रण हुआ है। जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास 'छप्पर' दलित लेखक द्वारा दलित जीवन पर लिखा पहला उपन्यास कहा जाता है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन में भोगे हुए अनुभव के आधार पर सवर्ण समाज द्वारा दलित समाज के उत्पीड़न तथा उसके विरुद्ध दलितों के सक्रिय विरोध का चित्रण किया है, इसके अतिरिक्त दलित लेखकों के उपन्यासों में 'जसतस भई सबेर' (सत्यप्रकाश) , 'थमेगा नहीं विद्रोह' (उमराव सिंह जाटव), 'छप्पर' और 'करुणा' (जयप्रकाश कर्दम), 'शपथ' (विपिन बिहारी), 'मुक्तिपर्व' (मोहनदास नैमिशराय) और 'भंवर' (कैलाशचन्द चौहान) आदि उल्लेखनीय उपन्यास हैं। दलित विचारकों, चिंतकों और लेखकों को संबोधित करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था- "हमारे देश में उपेक्षितों और दलितों की बहुत बड़ी दुनिया है इसे भूलना नहीं चाहिए। उनके दुःखों को, उनकी व्यथाओं को पहचानना जरूरी है और अपने साहित्य के द्वारा उनके जीवन को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए। इसी में सच्ची मानवता है।" डॉ. अम्बेडकर ने दलित चिंतकों, लेखकों को लेखकीय कर्तव्य के प्रति न केवल सचेत किया बल्कि शोषण मूलक संस्थाओं को समूल उखाड़ने का आहवान भी किया । संघर्ष, विद्रोह और नकार ने सृजन की भूमि तैयार की और इस सृजित दलित साहित्य के दो लक्ष्य थे । दलित-वंचितों की व्यथा, पीड़ा, यातनाजनित अनुभवों की अभिव्यक्ति और सोपानीकृत समाज व्यवस्था को बदलने के लिए धर्मसंस्थाओं का विरोध तथा परंपराओं से विद्रोह। यह सामाजिक-साँस्कृतिक बदलाव के लिए चुनौती भरा आहवान था, जिसने थोड़े ही समय में आन्दोलन का रूप ले लिया था। सामाजिक न्याय के लिए दलित वर्ग को स्वयं ही यह निर्णय लेना था और चातुर्वर्ण्यव्यवस्था द्वारा निर्मित अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्था और ब्राह्मणवादी मानसिकता को बदलना था ।
वर्ण-जाति व्यवस्था की ही क्रूरता का परिणाम है कि तीन हजार से अधिक समय तक अछूत इस व्यवस्था में उत्पीड़न के शिकार हुए और बहिष्कृत बस्तियों में रहने की अपमानजनक त्रासदी को आज तक झेल रहें है। दलित वर्ग के पास यातना और वेदना के अनुभवों का उफनता हुआ समुंदर है। जीवन के किनारे को छूती हुई पीड़ा की एक दर्दभरी कहानी है। इन विशिष्ट त्रासद अनुभवों की अभिव्यक्ति ने मानव जीवन के छिपे हुए सत्य को उजागर कर दिया। सृजन के क्षेत्र में पहली बार इस विशिष्ट अनुभव की अभिव्यक्ति से उजागर हुए समाज व्यवस्था के इस सत्य को कोई नकार नहीं सका और न ही रोक सका। मराठी तथा अन्य भाषाओं में भी इस अनोखी अनुभूति की अभिव्यक्ति से लेखन का क्षेत्र चकित था। उन्हें दर्द का यह उफनता समुंदर कभी नज़र नहीं आया, यह उनकी संकुचित दृष्टि ही थी। दलित उपन्यासों में आत्मसजग अभिव्यक्तियों में एक प्रखर स्वर सम्मिलित है, शोषण के प्रतिरोध के लिए फूट पड़ा है। मनु द्वारा लादी गई उत्पीडित, अपमानित, शोषित जीवन की तलहटी से उठता यह तीव्र स्वर दलित चेतना को विकसित ही नहीं, अधिक तेजस्वी बना रहा है। जाति, लिंग और वर्ग आधारित शोषण को झेलती-दलित स्त्री उन विषमतावादी नैतिक मूल्यों, पुरुषसत्ताओं की आधीनता की राजनीति को नकारती है। एक स्वतंत्रचेता मानवी के रूप में सामाजिक समता, आर्थिक समता और लिंग आधारित समता की हकदार वह इस सामाजिक यथार्थ को बदलना चाहती है।
दलित लेखन व्यापक परिवर्तनकारी उद्देश्यों को लेकर चल रहा है। दलित लेखन जहां एक ओर समाज में सकारात्मक परिवर्तन करके समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहता है वहीं वर्चस्ववादी उत्पीड़नकारी संस्कृति और मूल्य व्यवस्था को भी समाप्त करना चाहता है। यह एक ऐसे समाज की संकल्पना का पक्षधर है जिसमें कोई किसी का शोषण न करे। किसी विशेष जाति को ही 'योग्यता' का आधार न माना जाये। जाति, वर्ग, लिंग, रंग और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो। इन्हीं सब उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दलित साहित्य एवं लेखन निरंतर प्रयासरत हैं। दलित उपन्यासों में ऐतिहासिक और पौराणिक पात्रों के साथ उनके मिथकों का प्रयोग युगीन सत्य की अभिव्यक्ति के लिए किया गया। शंबूक, एकलव्य, वाल्मीकि, व्यास, चार्वाक, कर्ण जैसे पात्रों की चारित्रिक विशेषता और क्रांति धर्मिता की युगीन संदर्भ में महत्त्वपूर्ण मानकर परंपरागत मूल्यों के विरोध के लिए उपयुक्त माना। दलित उपन्यासकारों के साहित्य में दलितों के प्रति हुए शोषण का चित्रण, स्थानीय परिवेशगत शब्दावली - और भाषा का प्रयोग व वातावरण को प्रस्तुत करने की क्षमता के कारण यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इस शब्द का व्यापक विश्लेषण किया जाए। प्रतिरोधी शब्द का अर्थ नकार, विद्रोह, विरोध, आक्रोश, विक्षोभ, वेदना आदि हैं, किन्तु विधिगत रूप में 'प्रतिरोध' शब्द का प्रयोग अपने मूल रूप से होता है। वह मूल्य-चेतना भी 'प्रतिरोध' के अन्तर्गत आती हैं जो दलित साहित्य के विरोध में है या फिर दलित साहित्य द्वारा किसी मूल्य चेतना का विरोध किया जाता हैं।
दलित लोगों की प्रतिष्ठा में रोड़ा साबित होने वाले मूल्य चेतना का दलित साहित्यकारों ने प्रतिरोध करके दलित समाज को प्रतिष्ठित किया अर्थात् वह मूल्य चेतना की प्रतिरोध के अन्तर्गत आ जाते हैं जो दलित लोगों को प्रतिष्ठित करने में कारगर सिद्ध होते हैं और अपनी आवाज़ को उजागर करते है। दलित को स्थापित करने हेतु बनाये गये लोकतांत्रिक नियम भी प्रतिरोध कहलाते है अथवा दलित लोगों को समाज में सम्मानित करने हेतु तन्त्र भी प्रतिरोधी मूल्य ही होते है ।
दलित साहित्य दलितों में जीवन और उनकी समस्याओं को केंद्रों में रखकर दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य है । वास्तव में देखा जाए तो दलित साहित्य सामाजिक अन्याय के विरुद्ध विद्रोह और आक्रोश है । यदि दलित समस्याओं पर लिखा गया है तो उसमें सहानुभूति यदि गैर-दलित लेखक दलित साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए कुछ दलित लेखकों के विचार पर ध्यान देना जरूरी है । दलित साहित्य का स्वरूप का रेखांकन करते हुए कुंवल भारती ने लिखा है - दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें स्वयं अपनी पीड़ा को स्थापित किया है, अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उसी की अभिव्यक्ति करता है, यह कला के लिए कला का नहीं बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है । यह करना तर्क संगत है कि जीवन भर सामाजिक विधि व्यवस्था से पीड़ित अछूत या नीच कहे जाने वाले लोगों में सदियों से संचित विद्रोह की भावना दलित साहित्य में दलितों की लेखनी से भडक उठी है । दलित साहित्य की अवधारणा पर अपना विचार विशिष्ट दलित साहित्यकार डॉ दयानंद बटोही में अनुरूप भावना पाई जाती है । उनके शब्दों में - दलित साहित्य दलितों की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान करता है । इसमें दलित मानवता का स्वर है एक नकार है । एक विद्रोह है । यह विद्रोह उस व्यवस्था के प्रति है जो सदियों से दलितों से दलितों का शोषण कर लाभ की स्थिति में है । दलित साहित्य में गांवों का अधिकतर वर्णन देखने को मिलता है । प्रत्येक गाँव में दलितों की बस्ती है । दलितों की बस्तियाँ प्राय: गांव के बाहर ही होती है । इनके लिए अलग कुंआ, अलग स्मशान भी होता है । इसके गांव में दलितों के प्रति अन्य सवर्ण जातियों का मनोभाव स्पष्ट हो जाता है । दलित साहित्य शरणकुमार ने इस पत्रिका में लिखा है - दलित साहित्य का जन्म अस्पृश्यता की कोख से हुआ है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए वे आगे भी कहते हैं कि दलितों की परेशानी, गुलामी पारिवारिक विघटन, दु:ख, गरीबी और उपेक्षापूर्ण जीवन का वास्तविक चित्रण करने वाला साहित्य दलित साहित्य है । पीडा और आह का उदात्र स्वरूप अर्थात दलित साहित्य है । दलित साहित्यकारों का मानना है कि एक दलित साहित्यकार ही अपने जीवन मन को लेकर दलित साहित्य लिख सकता है । दलित साहित्य दलितों को ह्रदयहीन ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था के भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए लिखा जाता है । दलितों का आजभी गैर दलित की सहानुभूति एवं करुणा में बहुत कम विश्वास है । नीलमसिंह द्वारा प्रस्तुत दलित विमर्श सिद्धांत स्वरूप प्रासंगिक लेख में भग्नसिंह से कहीं गई बात इस सत्य को परिपूर्ण करती है । इस प्रकार हिन्दी साहित्य में विविध दलित साहित्यकार हुए है, जिन्हों ने अपना विविध प्रकार से योगदान दिया है । दलित समाज की समस्याओ को दृष्टिगोचर करने का प्रयास किया है । इस प्रकार हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श हमे देखने को मिलता है ।
संदर्भ ग्रंथ
- ठाकूर का कुंआ - ओमप्रकाश बालमीकि
- मुर्द हिया - तुलसीराम
- जूठन - ओमप्रकाश बालमीकि
- अपना गाँव - मोहनदास निमिशराय
- दोहरा अभिशाप - कौशल्या वैसन्त्री
- शिकंजे का दर्द - सुशीला टाकभौरे
- अछूट - दया पवार