माघ महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी थी। अच्छी खासी ठंड पड़ रही थी। सांसणगीर में रात
के 9:00 तो बहुत हो गए। जंगल में अंधियारा गहरा दिखता। कृष्ण पक्ष में अँधेरा तो और भी गहन
हो जाता। जीव-जंतु, पशु-पक्षी सब अपने-अपने घर में कब के सिमट चुके होते। जंगल पूरा सुनसान
और डरावना लगता था। किसी शियार के रोने की आवाज से तो रोएँ खड़े हो जाते। कँपकँपी छा
जाती।
मैं और मित्र अल्केश बाइक पर सवार जसाधार के पास के गाँव को जा रहे थे। कच्चे, उबड़-
खाबड़ रास्ते पर हेड लाइट के धीमे प्रकाश में, बिना कुछ भी बोले धीरे-धीरे हम आगे बढ़ रहे थे।
इतने में सामने से एक साइकल-सवार आता दिखाई दिया। पहनावे से वह किसान लग रहा था।
"राम-राम भैया! अकेले अकेले कहाँ?" मैंने बाइक खड़ी करके उससे पूछा।
"राम-राम भैया! मेरी भैंस खो गई है। ढूँढने निकला हूँ।"
मेरे मन में सोई हुई इच्छा जाग गई। यहाँ आया तब से सोच रहा था कि कहीं से शेर
देखने को मिल जाए। लोभ जागा। मैंने अल्केश की तरफ देखा और आँखों ही आँखों में पूछा। उसने
भी वैसा ही इशारा किया। मैंने कहा, "इसके साथ चलना है?" वह सोच में पड़ गया। मैंने धीरे से
कहा, "शायद शेर देखने मिल जाए। जाने में हर्ज़ ही क्या है?" उसका चेहरा चमका।
मैंने किसान से कहा, "तुम्हारी भैंस ढूँढने हम भी आएँ?"
"क्यों नहीँ भाई! नेकी और पूछ-पूछ! चलो भाई चलो।"
मैंने बाइक को एक तरफ खड़ा किया। थोड़ा आगे बढ़, टॉर्च के प्रकाश में छड़ी जैसी लकड़ी
ढूँढ निकाली। एक मैंने ली, एक अल्केश को पकड़ा कर हम आगे बढ़े।
किसान आगे बढ़ते जा रहा था। टाॅर्च को पास और दूर तक घुमाए जा रहा था। हमारी
छहों ऑंखें पेड़-पौधों के बीच भैंस को ढूँढने के लिए घूम रही थी। मेरे मन में तो अलग ही दृश्य चल
रहा था: "आहहा! कितना मज़ा आएगा! जँगल के इस भाग में जहाँ शेर की अच्छी खासी बस्ती है,
यहाँ भैंस थोड़ी ही जिंदा मिलेगी? कब की वह परलोक सिधार गई होगी। एक नहीं, चार-पाँच शेर
होंगे। भैंस को फाड़ कर खाते हुए शेर देखने को मिलेंगे।
हम फुसफुसाते हुए इधर-उधर भटक रहे थे। अलग-अलग जगहों पर गए। खेतों में, मेड़ पर,
पेड़ों के बीच, संभवतः हर कहीं घूमे। लगभग एक घंटा बीत गया। कहीं कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़ा।
मेरी शेर देखने की अभिलाषा अँधेरे में घुली जा रही थी। जैसे ही हम लौटने लगे कि सामने की ओर
टाॅर्च के मंद प्रकाश में किसी जानवर के होने का अहसास हुआ। मेरे मन का शेर फिर से सटाक से
उठ कर बैठ गया। किंतु दूसरे ही क्षण भेंस की अलमस्त आकृति दिखाई दी।
"हे जगजननी, कोटि कोटि, वंदन! मेरी भैंस को जिंदा रखा।"
भैंस हमारी ओर ही आ रही थी। लेकिन मुझे लगा जैसे कि मेरे सपनों पर शेर टूट पड़ा था
।