पाखंडी-धर्मगुरुओं और पोंगा पंडितों की जमातों ने हमेशा सनातनी धर्म का चोगा ओढ़, समाज में धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा किया है। स्वाधीनता के 72 वर्ष बीत जाने के उपरांत भी इन तथाकथित पंडितों ने संविधानिक मानवाधिकार और न्याय व्यवस्था की खुल्लमखुल्ला धजिया उड़ाई है।अपने ब्राह्मणवादी वर्चस्व और स्वार्थपूर्ति हेतु शताब्दी से वे मानवता का हनन करने से नहीं कतराएं हैं।वे धर्म को सुरक्षा देने की बात कुछ इस प्रकार करते हैं जैसे कालापहाड़ का आक्रमण आरम्भ कर दिया हो।धर्म कीआड़ में दास प्रथा की निरंतरता,वर्ण-व्यवस्था के साथ मनुष्य को दलित बना प्रताडित करने से ही धर्म उन्हें मोक्ष प्रदान कर सकता है शायद।रामायण में राम को शबरी द्वारा झूठा बैर खिलवा दिया गया! ताकि राम की श्रेष्ठता, दया, करुणा को प्रस्तुत कर कह सकें दलितों का उद्धार भी राम की भक्ति में ही निहित है। भक्ति काल में रामानंद ने भक्ति का द्वार सबके लिए खोल दिया परन्तु समानता का अधिकार का द्वार बंद ही रहा। वर्णाश्रम व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रही। तुलसीदास को शिष्य रूप से स्वीकार कर लिया था नरहरिदास ने चूंकि वे ब्राह्मण वंशज थे।परंतु कर्ण और एकलव्य जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्वों को इनकी संस्कृति ने दलित बना कर सहज शिक्षा से भी वंचित रखा।अगर दलितों को शिक्षा मिलने लगेगी तो विद्रोह को नहीं रोका जा सकता ।तो क्या आज उनकी उद्देश्य पूर्ति हो गई…!उनको स्वर्ग मिल गया?सवर्णों ने अपने प्रत्येक कुकर्मको मनुस्मृति एवँ अन्यान्य ब्राह्मण-ग्रंथो के खाई में पाट रखा है। वे समाज को नैतिक और आत्मिक मूल्यों की दुहाई देते रहते हैं एवं स्वयं उनके ही हॄदय में शताब्दियों से वासनाओं से लैस अहँ-ब्रह्मास्मि के कीड़े कुलबुला रहे हैं।
वर्णाश्रम व्यवस्था को अगर सनातन सम्प्रदाय से हटा दिया जाए तो सम्प्रदाय का अस्तित्व कहाँ रह जाता है? अभी ही की घटना का मूल्यांकन कर लिया जाए तो देखा जा सकता है कि 21वीं सदी में भी धर्म के नाम पर राजनीति कितनी प्रबल है। करोना महामारी के दौरान जब गैर हिन्दू सम्प्रदायों द्वारा सेवा कार्य किया गया तो ठेकेदारों की चिंता बढ़ गई।अब क्या होगा? उनकी वौखलाहट कुछ इस प्रकार सामने आई कि सेवा की आड़ में मिशनरियों ने हिंदुओं के धर्म-परिवर्तन का नया मुहिम छेड़ा है। हिन्दू धर्म खतरे में है!पर हिंदुओं के तीन वर्ण ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों को तो हिन्दू सनातनी धर्म से कोई खतरा नहीँ है। खतरा तो शूद्रों को है।चूंकि अनंतकाल से उनका ही शोषण होता आया है।तो अगर शूद्रों ने हिन्दू धर्म का बहिष्कार कर दिया तो हिन्दू धर्म खतरे में कैसे पड़ सकता है?चार वर्णों में वे सिर्फ एक वर्ण ही हैं। उनके धर्म परिवर्तन से क्या ही हो जाएगा जो हिन्दू सम्प्रदाय सिंह के मुख में जा पहुंचेगा?क्या अशूद्र वर्ण हिन्दू धर्म की रक्षा एक जुट हो कर भी करने में असक्षम होंगे?तब तो पुनः धर्म, जाति,वर्ण को लेकर उनके कर्तव्यों के बंटवारे को लेकर, अंतर-विरोधाभास सामने आता है। जिन शूद्रों को शादियों से दलित और अछूत बना दिया गया है, जो संपत्ति-शिक्षा-समानता आदि सभी मनुष्यगत अधिकारों से वंचित रखे गये। पोंगा ओर व्यभिचारी पंडित और महंतों ने जिनका जन्म ब्रह्मा के पैरों से और उनका धर्म अन्य तीनों वर्णो की सेवा में बतलाया असल में क्या हिन्दू सनातनी सम्प्रदाय का सारा बोझ उन्ही के कंधों पर टिका है? इसी कुचक्रांत को वे समझ न जाएं इसीलिए शायद उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया।गौरतलब तो यह रहेगा कि कोई अहिन्दू जब हिन्दू धर्म में दीक्षित होना चाहेगा तो क्या होगा?उसका स्थान कौन से वर्ण में होगा?क्या उसे अन्य धर्मों के समान हिन्दू धर्म के किसी वर्ण या जाति में स्वीकार कर लिया जा सकेगा?इस जाति-व्यवस्था को बनाए रखने में हमारे पूर्वजों में बहुत पापड़ बेले हैं। उनके उस बलिदान को वे कैसे भूला सकते हैं भला? इसीलिए शायद हिन्दू सम्प्रदाय एक स्थिर सम्प्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित है।
महाभारत में शम्भुक की हत्या, एकलव्य का अंगूठा-दान वर्णाश्रम धर्म को सुदृढ़ करने की सोची-समझी कूटनीति थी।ऐसे कितने ही आख्यान भरे पड़े हैं जो सवर्णों की पैरवी और दलितों का शोषण करते दिखाई पड़ते है।कर्ण की शिक्षा सिर्फ उसकी जाति-कुल के कारण सही ढंग से नहीँ हो पाई थी। दुर्योधन समेत सौ कौरवों को विलयन बना देने की प्रवंजना इसलिए गढ़ी गई के वे दलित पुत्र थे। महाभारत स्वयं अपने ही उक्तियों से विरोधाभास करता है।महाभारत ने कई स्थानों पर धर्म संबंधी परिभाषा को पुष्ट किया है। जिसके तहत यह कहा जा सकता है कि धर्म धारण करना है-"धरायती इति धर्म:"। मनुष्य को क्या धारण करना उचित है? उक्त प्रश्न के उत्तर में व्याख्या की गई कि- मनुष्य को दया, क्षमा, दान, करुणा, सत्य को धारण करना चाहिए। सरल अर्थों में मनुष्य स्वयं की मनुष्यता को धारण कर ले तो वही धर्म कहलाने के लिए पर्याप्त है।
परन्तु आज हम सरकारी दस्तावेजों में धर्म के रूप में किसी एक सम्पदाय को चुनते के लिए बाध्य हैं। राजनीति विज्ञान कहती है राजनीति जीवन और जगत सभी स्तरों पर मौजूद रहती है। तो कहा जा सकता है राजनीति ने धार्मिक सम्प्रदायों को आगे कर धर्म का व्यापार करने में भी सफलता हासिल कर ली है।देखा जाए तो राजनीति बनिया का दिमाग है। राजनीति की आंखे मनुष्यता देखने की आदि नहीं है, क्योंकि उसे उसका कोई लाभ नही। उसकी आंखें केवल मुनाफा देख सकती हैं।जिसकी आँच में वह अपनी रोटी सेंक सकें। इसलिए उसे धर्म की समझ हो आशा करना व्यर्थ है।
सम्प्रदायों द्वारा लिखित ग्रंथों की मानें तो श्रेष्ठ केवल एक है-वह है ईश्वर! ईश्वर के अतिरिक्त क्या मानव उच्च जाति,कुल के नाम पर श्रेष्ठ हो सकता है?अगर हाँ! तो क्या मानव ने ईश्वर को समकक्षता की चुनौती दे डाला है और चूंकि अभी तक विधाता मौन है तो, या तो वह गहरी नींद में है या क्षयग्रस्त है।ईश्वर कण-कण में व्याप्त हैl उसका निवास हर प्राणी के हृदय में है।फिर मनुष्य; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र में क्यों विभाजित है? ब्रह्मा कैसे अपनी संतानों को मुख, बाहु, उदर, पैरों से उत्पन्न कर अन्याय की पुरोधा बनने की जोखिम उठा सकते हैं?हमारे धार्मिक ग्रंथ सच में अन्तर्विरोधात्मक हैं।क्यों न हों! आखिर, धार्मिक ग्रंथों के रचनाकार भी तो मनुष्य के साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। रावण-कंस जैसे असुरों का संहार उनके अहं भाव के कारण हुआ था यह ब्राह्मणों द्वारा लिखित ग्रंथों का चीत्कार हैं।परंतु उच्च ओर श्रेष्ठ होने के अहं के साथ आज भी ब्राह्मण खोखला स्वाभिमान लिए बेशर्म नंगा खड़ा है। उसके अहं का नाश करने वाला कोई अवतार अभी तक जन्म नहीं लिया है।तो क्या यह सोची-समझी राजनीति या यूं कहें कूटनीति नहीँ है?
सभ्यता के निष्ठर थपेड़ों के साथ कोई मनुष्य का समूह स्वामी बना तो कोई दास और इसी प्रकार शुरू हुई दास-प्रथा जो आगे चलकर बंधुआ प्रथा में चल निकली।ब्राह्मण कुल में पैदा हुए तो चाहे आप पशुवत भी हों तो जनेऊधारी ही रहेंगे और दलित का बच्चा अछूत।अजीब बिडम्बना का मारा है हमारा समाज।हारी हुई भीड़ का मोक्ष-द्वार उच्च वर्ग की सेवा के मार्ग से गुजरना चाहिए। जो पीढ़ी दर पीढ़ी दोनों वर्गों को मानसिक रूप से बीमार करता गया।कालांतर में एक वर्ग शोषण को अपना अधिकार और दूसरा वर्ग शोषित होने को अपना कर्म फल स्वीकार करता गया।एक वर्ग उच्च होने का उत्सव मनाने लगा तो दूसरा वर्ग स्वयं को नीच मानने के लिए बाध्य होता गया।
ऐसे समय जहाँ जीवन गुजारना आसान नहीं हो वहाँ अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना आसान कैसे हो सकता था। फिर भी अंबेडकर का कठिन परिश्रम कुछ हद तक आज सफल माना जा सकता है। आज दलित अपना पक्ष और अधिकार के लिए आंदोलन कर पाने में सक्षम है।आज का समय संभावनाओं का है। लोहिया, फुले, बुद्ध, अम्बेडकर आज वे मिशाल हैं जो मशाल बन अंधेरे को चीरने में मदद कर रहे हैं।
आज भी गाँवों और छोटे शहरों में जातिवाद की मानसिकता ज्यों की त्यों बनी है। किसी अनजाने व्यक्ति के बारे में ज्यादातर औरतों को पूछ लिया जाए तो वह अमुक व्यक्ति की पहचान उसकी जाति बता कर देने लगती है। उदाहरण आपने पूछा कि "वहाँ किसने नई दुकान खोल दिया"?उत्तर देती हुईं कहती हैं "अरे वह दुकान अमुक जाति के लड़के ने खोला है"। गौर फरमाने वाली वहाँ बात यह हो जाती है कि, जिस व्यक्ति को आप उसके नाम से भी शायद पहचान न पाएँ, आपसे यह उम्मीद की जाती है कि जाति बताने पर आप पहचान जाओगे। यानी हमारे समाज ने जाति को पहचान से जोड़ कर देखने के नजरिये से बोझिल कर रखा है।औरतों के लिए शिक्षा का अवलम्ब आज भी कई मायनों में श्रुति परम्परा ही रहती है क्योंकि वर्तमान में भी नारी शिक्षा से वंचित की जाती है। वे जाति प्रथा की शिक्षा उत्तराधिकार में प्राप्त करती है।कभी अपनी माँ से दादी से या परिवार के अन्य नारी पुरुष सदस्यों से सुनती-देखती सीख जाती हैं। घर-परिवार की 80 प्रतिशत जिम्मेदारी औरत जो निभाती है। व्रत,पार्वण, बुजुर्गों की सेवा, खाना, पालन-पोषण सभी जिम्मेदारी औरत के भरोसे ही तो होती है। इसीलिए चाहे किसी भी जाति से औरत सम्बन्ध रखती हो प्रभावित और प्रताड़ित औरत ही प्रत्यक्ष होती है।जिसका प्रभाव सबल रूप से हमे देखने को मिलता है। जाति-प्रथा का सम्पूर्ण विनाश तभी संभव हो सकता है जब समाज नारी-शिक्षा को प्राधान्य देगी। बिल्कुल वैसे भी जैसे पुत्र को उच्च से उच्च शिक्षा दिलाने के लिए माता-पिता प्रतिबद्ध होते हैं। हमारा संविधान हमें कर्तव्यों और अधिकारों का चाहे कितनी ही सुगमता उपलब्ध करा दे पर हम अपने नाम के साथ सरनेम भी जोड़ने के लिए बाध्य किए जाते है।अगर कोई आपसे आपका नाम पूछता है तो आप उत्तर देते है अमुक, पर आपसे दूबारा पूछा जाता है "पूरा नाम बताएँ"।ये पूरा नाम आपके सरनेम से ही पूरा होता है। भारत में समाज द्वारा अपनाया गया यह तरीका नाम की राजनीति नहीं तो और क्या है! सरकारी दस्तवेज़ों पर भी आपको आपका सरनेम लिखना अनिवार्य कार दिया जाता है। जिससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि शासन और सरकारी व्यवस्था भी समाज का अंधानुकरण ही करती है।
हिन्दू सम्प्रदाय को विडंबनाओं की महारत हाशिल है।गाय पशु संपदा है। जो मनुष्य समाज द्वारा माता रूपेण पूजनीय है।गाय की हत्या करने पर मनुष्य पर गौ-हत्या का पाप लगता है।जिसका प्रयाश्चित किये बिना वह स्वर्ग का भागी नही बन सकता। यहाँ तक कि ऋषि-युग से गाय ब्राह्मणों द्वारा सेवी गई है। पर दलित मानव होते हुए भी अस्पृश्य है।ईश्वर की चमत्कारिक सृष्टि मानव को मानी गई। परंतु मानवों का एक समूह सनातन सम्प्रदाय के ऊंचे आसनों पर बैठे लकड़बग्घों द्वारा अस्पृश्य बना दिया जाता है।एक समाज जहाँ पशु की सेवा की जाती है और इंसानों का पशुवत शोषण होता है। यह विडंबना नहीँ तो और क्या है!गाय द्वारा मनुष्य लाभान्वित होता आया है इसीलिए उसने गाय की देखभाल की हैl वह सेवा कैसे हो सकती है? सेवा तो प्रतिदान की आशा किये बिना की जाती है।गाय की देखभाल करना मनुष्य की सेवा भावना नहीं उसकी स्वार्थ सिद्धि है या आज की शब्दावलियों में कहें तो निवेश है। परंतु राहत की बात यह है कि कमोवेश शिक्षित दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग है। भारतीय समाज में समानता लाने का एक मात्र मार्ग शिक्षा ही है।यहाँ सिर्फ जातिगत असमानता नहीँ राज करती बल्कि सबसे अधिक जुल्म सहती हैं औरत।औरत का सामाजिक ओहदा जाति के स्तर पर नहीँ तय होता बल्कि लिंग के आधार पर होता है। भारत जैसी तीसरी दुनिया में जाति-धर्म-वर्ण-स्थान निर्विशेष में पितृसत्तात्मक समाज का शासन है।जो दलित समाज में अधिक दलन का शिकार होती है। जिसे कौशल्या बसंती की आत्मकथा के वाया दोहरे रूप में अभिशापित भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीँ होगी।इसलिए सही मायनों में स्त्री को शिक्षित करना आज समय की अनिवार्य माँग है।
हिन्दू सम्प्रदाय में प्रकृति-उपासना की परंपरा आरंभ से ही अपने अस्तित्व से दीप्तियमान रही है। प्रकृति ने प्राणि-मात्र में बिना किसी भेद के संसाधनो को दान में दिया है।सूरज,चाँद, समुद्र, नदी, आसमान, मिट्टी, जंगल, बारिश बिना किसी असमंजस के प्राणी के जीवन को गतिमय बनाए रखे हैं।परंतु मानव ने प्रकृति का दोहन करने में कोई कसर नहीँ छोड़ा। स्वयं को अतिरिक्त रूप से सवर्ण घोषित कर इंसान खुद अपनी ही प्रजाति को भी दलन करने से भी पीछे नहीं रुका।प्रकृति के संसाधनों में भी अपना एकाधिकार जमा कर अवर्णो को जल-जमीन-जंगल से मरहूम रखने की गंदी साजिस रची।आश्चर्य एवं अचरज की बात वर्तमान में यह है कि अभी भी उनकी इंसानियत की आंखे श्रेष्ठता की किरकिरी से ढंकी हुई कैसे है?
शिक्षा का नाजायज फायदा उठाते हुए कई मनुस्मृति जैसे ग्रंथ ऐसे रच दिए गए जिसे वे उत्तराधिकार रूप से अपनी आगामी पीढ़ी को सौंप सकें।अतीत को इतिहास के पन्नो में इसलिए समेटे रखा जाता है ताकि वर्तमान में उसका मूल्यांकन कर भविष्य को बेहतर बनाया जा सके।परंतु हृदय एवं संवेदनाओं से शून्य स्वयं को सवर्ण समझ कर वे अतीत में अपने पूर्वजों द्वारा किये गए अमानविकता से गौरवान्वित महसूस करने की गलती कर बैठे। करुणा, दया, विश्वास, अहिंसा को उन्होंने पुस्तकाकार रूप से हिन्दू सम्प्रदाय की आधारशिला घोषित किया।परंतु वास्तविक जीवन में उसी आधारशिला को स्वयं के ही पैरो तले रौंध भविष्य का महल खड़े करने से नहीँ ठिठके।ताकि उनकी संतति भी उसी अमानवता, संस्कृति एवं परंपरा के नाम पर हस्तांतर करते चलें।
पूरे भारत में मीडिया और सँचार माध्यम के प्रचार-प्रसार के साथ न जाने कितने ऐसे दुःखद एवं रोंगटे खड़े कर देने वाली दुर्घटनाऐं सिर उठाए सुनने,देखने और पढ़ने को मिल जाती हैं जो इंसानियत को शर्मसार आये दिन करते रहते हैं। मफ़सलों में ऐसे कितनी औरतों या दंपत्तियों को इस लिए लोगों द्वारा मार डाला दिया जाता आ रहा है कि उनके ऊपर गुणि-गारेडी (कालाजादु) का संदेह था।कितने दलित नावालिग लड़कियों की हत्या, गणधर्षण, ऑनर किलिंग, शोषण, अपमान उनकी जातियों को आधार बना कर आये दिन समाचार-पत्रों में हेडलाइन में छपते रहे हैं। ये कौन सी मानसिकता है लोगों की,युवाओं को कौन सी दिखाओं में ठेला जा रहा है। इन सब पर हद तो तब होती है जब सवर्ण समाज द्वारा सवाल ये उठाया जाता है कि "लड़की के पहले समाचार पत्रों में दलित क्यों लिखा जाता है?क्या मीडिया द्वारा ये राजनीति नहीं चलाई जा रही है?मीडिया संवेदना बटोरने के लिए ये कुचक्रांत कर रही है।" और भी न जाने कितने अनगिनत इल्ज़ामों का बौछार जिससे अपने समाज द्वारा किये गए अमानवीय कृत्यों पर पानी डाल सके। आरक्षण हटाने की पैरवी कुछ इस भांति वे करते हैं जैसे सरकारी और शासनतंत्रों से उनका हाथ फिसला जा रहा है।आज सवर्ण समाज की हीन भावना प्रयत्क्ष दिखाई दे रही है।आज उनके हौसले का महल जीर्ण होने की तीव्र आभास उनके मन-मस्तिष्क को रौंध रहा है।उनको अब पता चल चुका है कि उनके पाप का घड़ा अब फूटने को है।
आधुनिक अंग्रेजी आलोचना के जनक मैथ्यू आर्नोल्ड ने अपना साहित्य संबंधी विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि साहित्य जीवन की आलोचना करता है इसीलिए साहित्य की समस्याएँ जीवन की समस्याओं से अविछिन्न होती हैं।साहित्य यथार्थ जीवन से जन्म लेता है एवं उसके जीवन का नैतिक लक्ष्य जीवन के ही आदर्श रूप को यथार्थ का कलेवर प्रदान करना होता है। दलित साहित्य का आरंभ सहानुभूति से हुआ था।पर आज दलित साहित्य की कलम स्वानुभूति की उँगलियाँ थाम चुकी हैं।आज दलित साहित्य का विषय अनुभूति के यथार्थ से लिखा जाता है।जो सही मायने में यथार्थ जीवन की आलोचना प्रस्तुत करता हैं।दलित साहित्य की आलोचना बने-बनाए सौदर्यशास्त्र के प्रतिमानों से संभव नही है। बने-बनाए प्रतिमान पुरानी, जीर्ण और रूढ़िवादी है। जबकि स्वयं दलित साहित्य ने मिट्टी से जन्म लेते समय उस पुराने पारंपरिक इतिहास का मुँह अपनी और मोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। उसके मूल्यांकन के लिए भी नए प्रतिमानों का निर्माण करना जरूरी हैं और वे जरूरतों को स्वानुभूति की उंगलियों द्वारा ही लिखी जाएगी।इस संदर्भ में अनायास ही मुक्तिबोध की यह कविता कितनी सही ठहरती है -
"मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से
मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न हैं
कि जो तुम्हारे लिए विष है,
मेरे लिए अन्न है।"
यह कविता दलित जीवन के यथार्थ के साथ ही दलित साहित्य के प्रतिमानों के संदर्भों को भी उचित मायनों में प्रस्तुत करती है।सत्यम-शिवम-सुन्दरम का सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान आभिजात्यवादी दर्शनों का परिणाम है। दलित साहित्य समाजशास्त्रीय निकषों का मांग करता है। जिसके प्रतिमानों को भौतिक संसार से ग्रहण किया जाएगा।दलित साहित्य निराला के काव्य का कुकुरमुत्ता है जो स्वयं बिना खाद-स्वेद अपनी जिजीविषा के बल पर ब्राह्मणवादी गुलाब से प्रतिस्पर्धा रखता है।
सामग्री
- नैमिशराय, मोहनदास. हिंदी दलित साहित्य. साहित्य अकादेमी. नई दिल्ली. 2011.पृष्ठ संख्या- 238 से 252
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