Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature

प्रसाद

(गुजराती कहानी का हिंदी में अनुवाद)

मन शंकित था – कोई नहीं बुलाएगा तो ? संबंध नहीं रखेंगे तो ? पर यह शंका गलत सिध्ध हुई। पडौसी ने दरवाज़े की जाली खोली। 'रमीलाबेन, आपका ही नाम रमीलाबेन है न ? कल हमारे घर पूजा रखी है, आप आना, सुबह आठ़ बजे, ज़रुर से !' आमंत्रण मिलते ही आशंका मीट गई। रमीला ने आमंत्रण देने आये रीटाबेन को चाय पीने का आग्रह किया, किन्तु 'मुझे जल्दी है, अभी तो सोसायटी में घर –घर जाकर आमंत्रण देना है। फिर कभी।' एसा कहकर रीटाबेन चली गई थी। रमीला को लगा था कि बात तो सही थी। घर में कोई छोटा – बड़ा प्रसंग हो तो काम तो रहता ही है। कम समय में सबकुछ करना होता हैं। इसलिए इस तरह सबके घर चाय पीने बैठै तो काम कम हो और फिर टल्ले चढ़ जाए। इसलिए स्वाभाविक ही है कि रीटाबेन चाय पीने न रुके।

रमीला को आज कुछ अच्छा लगने लगा था। तीन – चार महीने में जैसे कि पहली बार उसे आज अच्छा दिन उग निकला हो एसा एहसास होने लगा था। पति नौकरी से शाम को घर आये तब जैसे कि उनको बधाई देने हेतु ही यह बात कहने का रमीला ने मन ही मन तय कर लिया था। इतना ही नहीं पति के साथ किस तरह का संवाद करना वो भी तय कर लिया। 'आप तो कहते थे न कि कुछ भी हो पर इन लोगों के मन मे से भेद जाएगा ही नहीं। यह बात गलत है, बिलकुल गलत है। ऊंच – नीच का भेद तो अनपढ़ या पुरानी पीढ़ी के सवर्ण ही रखे। नई पीढ़ी के पढ़े – लिखों में तो यह भेद ही नहीं है। बेकार मे आप जिदृ करके मेरी बात नहीं मानते।' बाद में रमीला को हुआ कि उनका पति इस पर दलील करके कहेगा, 'देखो, हम तीन – चार महीने से इस सोसायटी में रहने आये हैं, तो अभी तक पड़ौसिओने हमें बुलाया ? – वो तीसरे घरवाले ने तो किसी के साथ बात करते – करते मुझे आता हुआ देखकर ही सुनाने के स्वर में कहाँ था - 'परमार यानी सुड़तालीस के बाद के ही बापू !' वो तुम भूल गई ?' इस संभवित दलील का भी उत्तर रमीला ने मन ही मन तैयार रखा था। 'न बुलाये, एक तो हम बिलकुल नये, आगे – पीछे का कोई सम्बन्ध नहीं। हम नये-नये रहने आये और रहते – रहते पहचान हो तब सब बुलाएंगेन......और देखा न ? हम रहने आये उसके बाद यह पहला प्रसंग पड़ौसी के घर हो रहा है और बुला लिया ! आपको तो हर बात की जल्दि।' इस बात पर तो पति को हार मनवायी जा सक्ती है कि बात की तसल्ली होने पर रमीला में थोड़ा – सा उत्साह बढ़ा। शाम होते होते तो पति के इंतजार में दो बार वह दरवाज़े तक भी जाकर आई। एक बार तो सामनेवाले घर में अचानक नज़र जाने पर देखा तो सोसायटी में घर – घर आमंत्रण देने निकले रीटाबेन उस बहन के साथ बैठ़कर उनके दीवान खण्ड़ में हँस – हँस कर बातें करते हुए चाय के प्याले में से चाय पी रही थी। रमीला को एक बार तो मन में आ गया कि – मेरे घर रीटा बेन ने चाय क्यों नहीं पी ? – पर फिर से उस विचार को उसने मन में ही दबा दिया, इस बात का कारण भी ढूँढ लिया – ये लोग तो सालों से एक साथ रहते हैं इसलिए संबंध हो यह स्वाभाविक है और आग्रह करे तो पी भी ले ! हमारा संबंध बनेगा तो....

उत्साहित रमीला ने अपने घर के दीवान खण्ड़ के फर्नीचर को हाथों से इधर – उधर किया इतना ही नहीं महेंगे स्वच्छ सोफासेट को ऊपर ऊपर से साफ किया। खिड़की के नये महँगे परदें को भी ठीकठाक किया। शो केईस, पारदर्शक टीपोई, टेलीफोन का महँगा सेट और एसे ही महँगे टेलीफोन स्टेन्ड़ को भी, जो ठीक तरह से रखा हुआ था तो भी ठीकठाक किया। घर पर कोई आये तो घर स्वच्छ – सुंदर तो होना ही चाहिए न ! यह तो ठीक है कि रीटाबेन को जल्दी थी इसलिए घर में नहीं आये, पर मान लो आ जाते तो ? पर तुरन्त ही मन में आया कि खुद के घर में महँगी चीज़ें हैं और अच्छी तरह से रखी हुई भी है ! अरे, मनोज सरकारी ओफिस में ऊँची पोस्ट पर है इसलिए 18 – 20 हज़ार के आसपास पगार आती है, कार लिये भी महिनाभर हो गया है, सोसायटी में तो दो – तीन लोगों के पास ही कार है, वह भी पुरानी ! और हमारे पास तो ? छह रुमवाला बड़ा बंगला भी है ! एसा सोचने में रमीला को अपना पलड़ा भारी लगा। उसने तो उल्टा अपनी बी.ए. की डिग्री को भी याद कर लिया। आबू में पढ़ने के लिए रखे खुद के अकेले बेटे की टाई से लेस युनिफोर्मवाली तस्वीर भी उसके मन में चौंध गई। अपने पति की जी.ए.एस की डिग्री और जनरल यादी में प्राप्त किया हुआ ध्वितीय क्रमांक भी उसे याद आ गया। उसे पुत्र के नाम वीनेश में भी कुछ पुराना नहीं लगा। अरे, रमीला और मनोज में भी उसे कुछ अजीब नहीं लगा। तो फिर ?...... उसने इस प्रकार की सोच को मन में से निकाल दिया। एसी सोच में उसे एक छुपा घमंड़ दिखाई देने लगा। उनको इस सोसायटी में बंगला मिला उसकी खुशी मन के किसी कोने में से आज फिर एक बार उभर कर आ गई। बंगला देनेवाले की मानसिक उदारता के कारण छह महिने पहले की खुशी आज फिर से मन में व्याप्त हो गई। पूरी सोसायटी में वो ही एक मात्र परमार थे, तो भी आज तक किसी ने कोई झगड़ा – बगड़ा या विरोध किया नहीं उसकी खुशी भी उसके मन में रमने लगी।

पर हुआ यह कि रात को पति मनोज ओफिस से देर से आए और खाने की तैयारी करने में व्यस्त हो जाने से रीटाबेन ने आमंत्रण दिया था की बात कहने की इच्छा को दबा दिया। सोने के समय कहूँगी एसा सोचकर घर के काम में लग गई, रात को सारे काम निपटाकर जब वह सोने के लिए गई उस समय पति मनोज को सोया हुआ देखकर तथा दिनभर के परिश्रम की थकान की वजह से खुद भी सो गई।

सुबह जल्दी उठकर तैयार हुई रमीला को देखकर मनोज ने पूछा भी 'क्या बात है आज तो रानी जी जल्दी – जल्दी तैयार हो गए हैं !' मनोज की बातों में रात की उन्मत्तता का भाव दिखाइ दे रहा था। जिस प्रश्न का रमीला इंतज़ार कर रही थी वही प्रश्न पूछने पर तुरन्त रमीला ने उत्साह में आकर उत्तर दिया 'कल अपने पडौसी रीटाबेन आये थे। आज उनके घर पूजा – पाठ है, उनके घर जाना है, आठ बजे।'

मनोज आश्चर्याघात से मौन रहा। उसके दिमाग में बात आ ही नहीं रही थी ! थोड़ी देर बाद बोला, 'क्या बात है ? आमंत्रण और वह भी धार्मिक पूजा – पाठ का ?' फिर बोला, 'आज सूर्य कौन – सी दिशा में निकला है ? जाओ देखो तो सही....'

मनोज को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन उत्साहित रमीला, 'इसमें कौन – सी नई बात है ?..... वो तो नये थे इसलिए नहीं बुलाते थे, पर काम – प्रसंग में तो पड़ौसी को तो बुलाएंगे न!'

रमीला तो गृहिणी इसलिए स्वाभाविक रूप से पूरा दिन घर में ही रहे इसलिए आसपास की स्त्रियाँ के साथ मैत्री, अरे मैत्री नहीं तो कुछ नहीं पर मात्र औपचारिक सम्बन्ध रहे उसमें भी उसे अच्छा लगे ! जहाँ रहना है वहीं पर बिलकुल अनजान और अकेले बनकर रहना भी रमीला को थोड़ा अजीब – सा लगता। स्त्री सहज स्वभाव के मुताबिक कुछ चुगली करनेवाली स्त्री उसकी सखी न हो यह बात उसको कुछ उदासीन कर देती। ऊपर से सवर्ण कहे जानेवाले लोगों की सोसायटी में अवर्ण बनकर रहना, उसे दुष्कर भी लगने लगा था। इसलिए पूजापाठ के लिए इक्कठे होनेवाले इस प्रसंग में बंधनेवाले पास पड़ौस की स्त्रिओं के साथ के संबंध को लेकर रमीला आशास्पद थी। मनोज का समय तो ओफिस में और मित्रों के बीच बीत जाता, पर एक गृहिणी के लिए पूरा दिन निकालना एक कश्मकश – सा होता। मनोज के चले जाने पर दोपहर में आनेवाली कामवाली बाई के साथ गप – शप करने में समय चला जाता। पर बाकी का समय तो टी.वी. की चेनल के साथ बीतता। कामवाली बाई ने भी एकबार , बेन आप परमार यानी कौन से? खत्री ? एसा पूँछ लिया था, तब क्यों एसा पूँछना पड़ा? एसा पूँछकर रमीला ने अपनी जाति को लेकर मौन धारण कर लिया था। लेकिन कुछ नहीं बुन, वो तो पास वाले रिटाबेन है.....न.....वो....आपके बारे में पूँछ रहे थे.....जाति को लेकर......इसलिए....हमें.... क्या....हमें तो इस घर का काम .....उस घर का.....काम ही तो करना है....

रमीला ने शुरु शुरु में तो खाना खाने का कईबार आग्रह किया था। कुछ दिन तो उसने मना किया था। लेकिन एक दिन उसे पैसों की ज़रुरत थी और कहीं से मदद न मिली, तब उसने रमीला के सामने हाथ फैलाया था उस समय रमीला के आग्रह के कारण उसने शब्जी – दाल खाये और खाते हुए बोल पड़ी 'बुन, तुम्हारे शब्जी – दाल में मिर्च ज्यादा है.....बस....बाकि तो इतना स्वादिष्ट तो ओर किसीके घर नहीं मिलता ! दुसरे के वहाँ तो बिलकुल फिक्का....उबला हुआ हो एसा....'

रीटाबेन के घर पूजा में आई हुई बहनों में से कुछेक के साथ रमीला ने मुस्कुराते चहेरे के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया, तो कुछेक ने रमीला के सामने उसी प्रकार मुस्कुराते हुए..... पूजा के दौरान सामान्य बातचीत में कैसे हो? के स्त्री सहज उद्गार के साथ चलाया। रमीला को लगा कि सम्बन्ध बनाने की शुरुआत हो गई हैं। आरती के दौरान रीटाबेन ने कुछ बहनों को आग्रह किया, कुछ बहनों ने उसका लाभ भी लिया। रमीला को लगा कि उसे आग्रह करे उससे पहले ही आरती पूरी हो गई, उसमें रीटाबेन क्या करें? रीटाबेन ने प्रसाद का हलवा सभी के साथ रमीलाबहन को भी दिया। बहोत सारी स्त्रीओं को रीटाबेन ने कटोरे में हलवा दिया, खुद के हाथ में केले के पत्ते में रखे हलवे को देखकर रमीलाबेन को लगा कि रीटाबहन एसे कितनों – कितनों को कटोरे दे? और वह तो रीटाबहन के खास पड़ौसी इसलिए रीटाबेन दूर के पड़ौसिओं को पहले सम्हाले उसमें बुरा क्या है? कोईबात नहीं उसे प्रसाद अंत में दिया, पर थाली को अच्छी तरह से साफ करके पूरा पौने भाग का कटोरा भर जाए उतना, सबसे ज्यादा तो दिया?! रमीला को प्रसाद देने की रीटाबहन की बुद्धी क्षमता पर गर्व हुआ और इस बात पर मनोमन अहोभाव भी व्यक्त करने लगी।

रमीला रीटाबेन के पूजा - प्रसंग में से वापिस आई तब तो मनोज ओफिस के लिए निकल चुका था।

ओफिस से आये मनोज की थाली में फ्रिज़ में से हलवे का प्रसाद निकाल कर देते समय रमीला को एक प्रकार का संतोष हो रहा था। मनोज ने, 'अरे वाह ! हलवा ? पर ठण्डा क्यों ? गरम क्यों नहीं ? गरम तो कर दो।' एसा आश्चर्य के साथ कहाँ, तब रमीला ने कहाँ, 'प्रसाद को गरम नहीं किया जा सक्ता, इतना भी नहीं समझते ?'

'प्रसाद का हलवा ?'

'भूल गये ? आज रीटाबेन के वहाँ पू.......'

'हाँ, याद आया, याद आया..... अच्छा तो यह हलवा रीटाबेन के वहाँ हुई पूजा का है ?'

'हाँ।'

'कैसा रहा ?'

'क्या ?'

'वही।' मनोज हँसने लगा। रमीला ने आप तो 'वैसे के वैसे ही' कहा। बाद में तो पूजा के पूरे प्रसंग का अथ से इति तक का पूरा वर्णन करके रमीला ने आज ग्यारस थी तो चार दिन बाद आनेवाली पूनम को और ऊपर से रवीवार भी आ रहा था इसलिए सत्यनारायण की कथा अपने घर करवाने के लिए पति मनोज को मना लिया। भोजन करके उठते – उठते हँसते हुए तुम्हारी ये नई सहालियाँ कथा में तो आएगी न ? पूँछ भी लिया और फिर ज़ोर ज़ोर से हँसते हुए बोलने लगा अरे हाँ, वो तो सवर्ण.....सुवर्ण ! रमीला जानती थी कि मनोज ने जानबुझकर सवर्ण की जगह सुवर्ण शब्द प्रयोग किया था। वॉश बेसिन की ओर जाते हुए, हँसते हँसते सुवर्ण शब्द का अनेकोक्ति करता क्या जाने क्या छू ले और लोहा हो जाए कहकर मनोज आनंद ले रहा था।

रमीला ने उसकी ओर झपटते हुए, उसे रोक दिया। स्वयम् को आज हुए भेदभावरहित अनुभव की खुशी को रमीला साफ करना नहीं चाहती थी।

पूनम की सुबह अपने घर शाम को रखी सत्यनारायण की कथा में बैठ़ने आने का आमंत्रण देकर आने के बाद रमीला गाँव से आये सात – आठ महेमानों की आगता - स्वागता में लग गई। परदा किए अथवा सिर पर ओढ़े हुए दो – तीन स्त्रोओं को और धोती – खमीस पहने हुए दो – तीन पुरुषो को रमीला बेन के कम्पाउन्ड़ में घूमते हुए देखकर सोसायटी को हुआ आश्चर्य एक घर से दूसरे घर तक पहुँच गया।

कथा समापन हो गया था। थाली में कथा का महाप्रसाद काफी बच गया था। रात दस बजे पति के स्कुटर पर बैठ़कर घर आये रीटाबेन को देखते ही रमीला ने आवाज़ दी, 'रीटाबेन खड़े रहना'। कटोरा भरकर महाप्रसाद रीटाबेन को देते हुए रमीला ने कहाँ, 'अभी प्रसाद न ले तो, सुबह ले लेना, फ्रीज़ में रख देना।'

'कथा अच्छी तरह से हो गई न ? सोरी, हमारे उनको, रींकु के पापा को कथा के बारे में पता नहीं था तो उन्होंने अपने आप बहार खाना खाने का प्रोग्राम उनकी ओफिस के मित्रों के साथ बना दिया, इसलिए हम कथा में नहीं आ सके। सोरी....'

रमीला को हुआ कि कथा में उपस्थित न रह सकने के कारण रीटाबेन शर्म महेसुस कर रही हैं, अत: कुछ नहीं, कुछ नहीं कहकर उसने उनकी उस शर्म को कम करने का प्रयत्न किया।

दूसरे दिन सुबह साड़े नौ को हाथ में एटैची लेकर ओफिस जा रहे मनोज ने आँगन में से ही रमीला को आवाज़ दी। रमीला का बाहर आते ही मनोज ने पडौसी रीटा बेन के घर के कम्पाउन्ड़ बाहर रखे पत्थर पर उंगली से इशारा करते हुए उस ओर ध्यान खींचा।

रमीला ने देखा तो उस पत्थर पर महाप्रसाद पड़ा हुआ था। एक – दो कौए प्रसाद की लिज्ज़त ले रहे थे। एक कौए की चोंच में काजु का टुकड़ा था। शायद वह उसे हड्डी का टुकड़ा समझ रहा था। दूर से एक गाय दौड़ती हुई और शींग घुमाती हुई आई और कौए को उड़ाती हुई, बचा खुचा प्रसाद जीभ के एक झटके से झपट गई और चली गई। पत्थर पर महाप्रसाद में रहे घी की चीकनाहट के धब्बे दूर से दिख रहे थे।
मूल लेखक – विनोद गाँधी

अनुवादक - डॉ. मनीष गोहिल, श्रीमती आर.डी.शाह आर्टस् एण्ड़ श्रीमती वी.डी.शाह कोमर्स कॉलेज, धोलका, (अहमदाबाद)