बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया था । उद्देश्य था दलितों का उत्कर्ष । उसी दौर में गांधीजी ने इन्दुलाल याज्ञिक से उनकी ’नवजीवन और सत्य’ नामक पत्रिका माँगकर ’नवजीवन’ नाम से नयी पत्रिका का आरंभ किया था । उसका संपादकत्व उन्होंने स्वीकार किया । सितम्बर 1919 में ‘नवजीवन’ का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ । संपादकश्री मो. क. गांधी ने उस अंक में ‘हमारा उद्देश्य’ शीर्षक से संपादकीय लिखा था ।
“मुझे तो ‘नवजीवन’ किसानों के झोंपडों और बुनकरों के घरों तक पहुँचानी है । मुझे उनकी भाषा में लिखना है ।”
गांधीजी ने ‘उनकी’ भाषा में नहीं लिखा, पत्रिका उनके घर तक भी नहीं पहुँची । ’पत्रिका’ आज़ादी के प्रचार-प्रसार का साधन बनी रही । उन्होंने लोक बोलियों से दूर रहकर, लोगों के लिए ’नयी गुजराती भाषा’ (संशोधित गुजराती भाषा) का आविष्कार किया । वे ’उस’ भाषा में लिखते रहे । नयी संशोधित गुजराती भाषा का 1929 में ’सार्थ गूजराती वर्तनी कोश’ नामक शब्दकोश तैयार करवाया और व्याकरण के 33 नियम तय कर दिए । आदेश भी किया कि अब किसीको अपने ढंग से वर्तनी लिखने का अधिकार नहीं है, सार्थ कोश का ही अनुसरण करना है । एक तरह से कहा जा सकता है कि इससे गुजराती की भाषाकीय अनियमितता और संस्कृत के पांडित्य का बोझ दूर हुआ । यही नयी भाषा शिक्षा की भाषा के रूप में स्वीकृत हुई इसलिए उसका प्रचार-प्रसार तेजी से हुआ । मान्य गुजराती भाषा के रूप में उसे स्थायीत्व मिला ।
झवेरचंद मेघाणी ने उनके लोक-साहित्य के शोध-कार्य और साहित्य में सौराष्ट्र की स्थानीय भाषा-लोकबोली का प्रयोग किया था । पन्नालाल पटेल ने ईडर क्षेत्र की स्थानीय भाषा में संशोधन करते हुए एक निजी मिश्र बोली ईजाद की । और जब डॉ. बाबासाहब का निर्वाण (1956) हुआ तब दलितों द्वारा लिखे गए लगभग सौ के करीब अंजलि काव्यों में गुजराती भाषा और लोकबोली का संयोजन किया था । 1974-75 के बाद जिस दलित साहित्य का उदभव हुआ (नाम के साथ) और अब तक जिनती रचनाएँ लिखी गई हैं उनमें दलित साहित्यकारों ने ठेठ दलितों की बोली (लोकबोली) को संवादों में प्रयुक्त किया है और वर्णन-आलेखन में शिष्ट गुजराती को अपनाया है । यह शिष्ट गुजराती भाषा किसी भी गुजराती की मातृभाषा नहीं है । असल में उनका जन्म जिस क्षेत्र में हुआ है उस स्थान विशेष की लोकबोली ही उनकी मातृभाषा है । इसे और अधिक स्पष्ट करें तो सामाजिक रचना के तहत जिस जाति या धर्म में उनका जन्म हुआ है उसकी अपनी लोकबोली है और यह सहज बात है कि हर जाति की, हर धर्म की बोली का लहजा और उच्चारण भिन्न है ।
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भले ही अन्य ’किसीने’ दलितों की भाषा-बोली को शब्ददेह देकर या पुस्तक के रूप में लोगों और दलितों तक न पहुँचाया हो, परन्तु हम दलित साहित्यकार दलित साहित्य उन तक पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध है । उनके जीवन के अच्छे-बुरे हर अंश को शब्दबद्ध करते हुए उसका ऐतिहासिक मूल्य निर्धारित करने और उसका यथार्थ, हूबहू आलेखन करने का कार्य दलित साहित्यकार के हिस्से आया है । इस कार्य में दलित साहित्यकार अवश्य सफल होंगे । अब इस दलित साहित्यधारा को समझने का प्रयत्न करते हैं ।
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गुजराती दलित साहित्यधारा के आविर्भाव से ही एक सवाल निरंतर चलता रहा है । आजकल तो प्रतिष्ठित साहित्यकार ही नहीं, परन्तु नयी नयी कलम पकड़ने वाले और एक गज़ल पढ़कर दो बार वाह वाह बटोरने वालों में भी ऐसा सवाल करने का उत्साह देखा जाता है कि “दलित साहित्य है क्या ? दलित साहित्य जैसा साहित्य हो सकता है क्या ?” चलिए, ऐसी बड़बड़ाहट को साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं । यहाँ दो नाटकों के एक-एक दृश्य को एक साथ रखते हुए देखते हैं –
एक दृश्य है ‘उर्फे....आ.....लो!’ (नाटककार, निदेशकः मौलिकराज श्रीमाली) नाटक से और दूसरा दृश्य है कृष्णलीला के कई नाटकों से ।
दृश्यः 1
खुली गटर में कमर तक गंदे पानी में कथानायक खड़ा है । गटर के ढक्कन के पास गटर में से बाहर निकाला हुआ कूड़ा-कीचड़ पड़ा हुआ है । पास ही उसकी साईकल स्टेन्ड पर खड़ी हुई है । लोग आते-जाते हैं, नाक भौं चढ़ाते हैं, वहाँ से गुजरते हुए पीछे मुड़कर देखते हैं । कथानायक के हाथ में बाँसुरी है, वह उसे बजा रहा है । मानो इस गंदगी में अपनी विडंबना को भूलने का प्रयास और बाँसुरी के मीठे सूर की भाँति नवजीवन की लालसा ।
दृश्यः 2
यमुना के किनारे कन्हैया कदंब की डाल पर अर्द्ध नग्न अवस्था में बैठा है । यमुना नदी में नग्न अवस्था में नहा रही गोपियों को बाहर निकलने के लिए बाँसुरी बजाते हुए, उनके चोरी किए हुए वस्त्र दिखाते हुए इशारे कर रहा है । कभी कोई गोपी बाहर भी आ जाती है परन्तु अपने शरीर की तरफ देखते हुए, लजाकर पुनः यमुना नदी में कूद जाती है । कन्हैया की बाँसुरी बजती रहती है ।
ये दोनों दृश्य भारतीय जीवन के प्रमुख दृश्य हैं । बीभत्स और समाज की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले दृश्य । पहले दृश्य को देखकर लोग अपनी नाक भौं चढ़ाते हुए चले जाते हैं । दर्शकों को भी इसे देखकर घिन आती है । जब कि दूसरे दृश्य को लोग-दर्शक लोलुपता से देखते हैं । चटखारे भरते हैं और गोपियों के जल से बाहर निकले का इन्तजार करते हैं । बाँसुरी के सूर में वे झूम उठते हैं ।
देखिए इन्हीं दृश्यों में है दलित-ललित का भेद । पहले दृश्य में समाज के दलित-पीडित समाज का दलित नाट्य (साहित्य) सर्जन है, तो दूसरे में शिष्टमान साहित्यधारा का धृणित दृश्य है । आपने/ समाज ने कभी इस भेद को जी भरकर देखा है सही ? या फिर सब कुछ हवाई किले की तरह ?
सवाल यह है कि क्यों दृश्य ‘एक’ रचा गया । आज़ादी से पहले इस तरह का कोई साहित्य होता है और दलित साहित्यकार द्वारा रचा जाता है ऐसा कोई स्वप्न किसी दलित को कभी नहीं आया था । (बाबासाहब आंबेड़कर को अपवाद मान सकते हैं) परन्तु आज़ादी के तीस साल बाद दलितों में साहित्य रचने की लालसा जागी थी, उसके बाद इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में इस दृश्य एक का मंचन होता है । इससे पूर्व अनेक दृश्य प्रस्तुत हुए हैं परन्तु ‘उर्फे....आ.....लो!’ का यह दृश्य दलित साहित्य के लिए ‘लेन्डमार्क’ है । मैं कहता हूँ कि जब तक दलित समाज का अस्तित्व रहेगा तब तक समस्या रहेगी और उसके हल भी मौजूद रहेंगे । उनके क्रियान्वयन में गरबड़ हो सकती है ।
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“साहित्यिक कृति का उदभव साहित्यिक स्तर की सामग्री से ही नहीं होता बल्कि उसकी जड़ें उसके रचनाकार के अनुभव में होती हैं और रचनाकार की जड़ें उसके अपने समाज में होती है, उसकी अपनी संस्कृति में होती है ।” (तीसवाँ साहित्य संमेलन, आलोचना विभाग, अध्यक्षः धीरूभाई ठाकर)
और इसीलिए दलितों ने अपनी जड़ें खोजने का स्वयं प्रयत्न किया है । जड़ों को जमीन में दबाकर ऊपरी जमीन को समतल करते हुए वे विकसित हुए हैं । वैसे भी गुजराती साहित्य की रचनाएँ देखते हैं तो लगता है कि रचनाकार राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार और जिस जाति में उनका जन्म हुआ है उसकी ही कथा लिखते हैं । कवियों ने थोड़ा बड़ा ह्रदय रखते हुए प्रकृति-फूल-पौधों की कविता की है । इस प्रकार गुजराती साहित्य की रचनाएँ अपने उदगम काल से ही जातिवादी धारा में बहती रही है । हाँ, उसे नाम नहीं दिया गया । जब कि दलित साहित्य के लेखकों ने साहित्य के इस प्रकार को नाम देकर उसका आरंभ किया और गैरदलित साहित्यकारों, ब्राह्मणवादी साहित्यकारों के बीच अपना स्थान प्राप्त करने का पुरुषार्थ किया है, उसमें सफलता भी प्राप्त की है । इस दलित साहित्यधारा को साहित्य के मुख्य प्रवाह में स्वीकृति मिली है वही उसकी बड़ी उपलब्धि है । जो गुजराती साहित्यकार दलित समाज का हिस्सा नहीं थे उन्होंने दलित समाज का चित्रण-आलेखन करना छोड़ दिया । जो प्रगतिशील साहित्य गांधी युग में जन्म ले चुका था उसके खिलाफ गुजराती साहित्य के कुछ तथाकथित मूर्धन्य साहित्यकारों ने शाब्दिक प्रहार किए और कालान्तर में आज़ादी के बाद के वर्षों में आधुनिकता के नाम से एक नयी साहित्यधारा अस्तित्व में आई, जिसमें से दलित के साथ साथ सामान्य जन को भी गायब कर दिया गया । समाज साहित्यकार और साहित्य से दूर होता गया । फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि इस आधुनिकता के अतिरेक से दलित साहित्य अस्तित्व में आया है । दलित समाज साहित्य में निरूपित हो यह समय की माँग थी । ऐसा भी नहीं है कि दलित साहित्यकार भी एक ही रात में साहित्य लिखकर साहित्यकार बन गए हैं । उसके पीछे भी अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, (विशेष रूप से अस्पृश्यता) आर्थिक (गाँव से बाहर बसना) और मनोवैज्ञानिक कारण और इसके साथ उस समय की परिस्थितियाँ और घटनाएँ जिम्मेदार हैं । आज़ादी से दो दशक पूर्व (तीन भी हो सकते हैं) दलितों में प्राथमिक शिक्षा को लेकर जागृति आई थी । आज़ादी ने उन्हें आगे पढ़ने की सुविधा प्रदान की । इसके अलावा कस्बों और शहरों की ओर उनके स्थानान्तरण से तथा आज़ादी के संग्राम और आंबेडकर-गांधी के प्रयासों से गुजरात का दलित विचारशील होता गया । 1956 दिसम्बर में बाबासाहब डॉ.आंबेडकर का निर्वाण होने पर गुजरात के दलित सिहर उठे । डॉ. आंबेडकर को अंजलि देते हुए और उनके जीवन कार्य को सराहते हुए सैंकडों कविताएँ दलित मिल कामदारों और अन्य दलितों ने लिखी थी । पत्रिकाओं के रूप में प्रकाशित भी हुई, उनकी बिक्री भी हुई, हर गली मुहल्ले में उनका गान हुआ । मानो कविता की बाढ़ आ गई । काव्य-स्पर्धाएँ आयोजित हुई । पुरस्कार घोषित हुए । कविताएँ भजन की धुन में, लोकगीतों की धुन में, पद, दोहों और फिल्मी तानों में रची गई । 1987 में रमेशचन्द्र परमार ने इन कविताओं का संपादन करते हुए ‘अंजलि’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की थी । बाबासाहब को ‘अंजलि’ काव्यों के द्वारा अंजलि देने वाले कवियों ने उसके बाद कविताएँ नहीं लिखी । वे दलित कविता के प्रवाह को प्रवाहित नहीं कर पाए । डॉ. बाबासाहब के निर्वाण से पहले और उसके बाद भी दलितों की विडंबनाओं को उजागर करने वाली कविताएँ दलित लिखते रहे हैं । बीसवीं सदी के आठवें दशक में ‘तमन्ना’, ’गरुड’, ’दलितबंधु’, ‘अभ्युदय’, ’आर्तनाद’ आदि पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रही और ’आर्तनाद’ (1974) पत्रिका में ’दलित कविता’ नामक स्थायी स्तंभ (कॉलम) भी शुरू किया गया । उसमें प्रथम दलित कविता के रूप में मनसुख वाघेला की कविता प्रकाशित हुई । ’आर्तनाद’ के कार्यकारी संपादक रमेशचन्द्र परमार थे । 1972 में मुम्बई में दलित साहित्यकार नामदेव ढसाळ, दया पवार, राजा ढाले आदि द्वारा ’दलित पेन्थर’ की स्थापना की गई । उसी दौरान महाराष्ट्र (मुम्बई) और गुजरात (अहमदाबाद) में दलितों के खिलाफ गैरदलितों के हुल्लड़ भी कराए गये । माईसाहब आंबेडकर दलित कवियों के साथ अहमदाबाद आयीं । ’दलित पेन्थर’ संस्था के साथ मिलकर ’दलित पेन्थर’ (1975) नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया गया और उसमें दलित कविता, कहानी और एकांकी को प्रकाशित किया जाने लगा । उस मासिक पत्रिका के तंत्री नारण वोरा और संपादक रमेशचन्द्र परमार थे ।
14 अप्रैल, 1978 (आंबेडकर जयंती) के दिन दलित पेन्थर की पुस्तक ’प्रतिबद्ध कविता ऋतुपत्र-आक्रोश’ प्रकाशित हुई । जिसके संपादक थे- दलपत चौहाण, नीरव पटेल, प्रवीण गढवी और योगेश दवे । इस ऋतुपत्र के संपादकीय में दलित कविता की व्याख्या और उपयोगिता स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि,
“’दलित अस्मिता अभियान’ का यह प्रथम सोपान ‘आक्रोश’ कविता के माध्यम से व्यक्त होता है । काव्य-शिल्प और सशक्त अभिव्यक्ति तो साधना तथा प्रतिभा की अपेक्षा रखती है । परन्तु हम उसकी प्रतीक्षा कर सकने की स्थिति में नहीं है । दलितों के दुख-दर्द, अपमान, अन्याय, अत्याचार, अनाचार, तिरस्कार, धृणा, जुगुप्सा, बेगार-बेगारी, पराधीनता, अस्पृश्यता, हिंसा, गरीबी, निराशा, लाचारी, शोषण, भेदभाव, उपेक्षा, पूर्वग्रह, लघुताग्रंथि, नवब्राह्मणत्व – और दूसरी तरफ उनका भोलापन, सरलता, सहनशीलता, उदारता, सामाजिकता, स्वमान, कौशल्य, संस्कार और अस्मिता – इन सबको वर्षों से झेलते हुए व्यक्त होने वाला उनका मूक आक्रंद आज वाचा प्राप्त कर रहा है । और इसीसे रची गई है गुजराती दलित साहित्य की प्रथम कविताएँ – ‘आक्रोश’ ।”
आज इस कथन का उद्धरण देते हुए मुझे याद आ रही है ब्लैक फिल्म अभिनेत्री हेले । 2003 में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेत्री का ऑस्कार एवोर्ड स्वीकार करते हुए आँखों में आँसू के साथ उसने कहा थाः
“इस क्षण के लिए उसने और उसके समाज ने सत्तर वर्ष तक प्रतीक्षा की है ।”
हम दलितों ने इस क्षण के लिए हजारों वर्ष प्रतीक्षा की है । और सफलता भी प्राप्त की है ।
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‘आक्रोश’ ऋतुपत्र का विमोचन अहमदाबाद के आंबेडकर हॉल में 14-4-1978 के दिन शेखआदम आबुवाला, डॉ. माईसाहब आंबेडकर के आशीष वचनों द्वारा संपन्न हुआ था । शेखआदम के जनसत्ता दैनिक के स्तंभ ‘आदम से शेखआदम तक’ में इस घटना को उजागर किया गया था । कर्मशील और स्तंभकार भानुभाई अध्वर्यु ने ‘आक्रोश’ की कविताओं का अपने जनसत्ता दैनिक के स्तंभ ‘दुनिया जैसी देखी हमने’ में ‘रुद्रवीणा का प्रथम झंकार’ कहते हुए स्वागत किया था । प्रांतिज से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ’अरवरव’ (संपादकः प्रागजी भाम्भी, मोहम्मद इस्हाक शेख, महेन्द्र अमीन) में ‘आक्रोश’ की पाँच दलित कविताओं को (दलपत चौहाण और नीरव पटेल) 1979 में पहली बार प्रकट किया गया । ’अरवरव’ के माध्यम से ही ’फार्बस गुजराती सभा त्रैमासिक’ की मुम्बई की संपादिका मंजुबहन झवेरी को गुजराती दलित कविता के प्रकाशन की जानकारी मिली । उन्होंने ‘आक्रोश’ ऋतुपत्र मँगवाया । फार्बस गुजराती सभा त्रैमासिक के जुलाई-सितम्बर 1979 के अंक 3 की पुस्तक 44 के मुखपृष्ठ पर उन्होंने ‘आक्रोश’ की संपादकीय टिप्पणी को स्थान दिया । त्रैमासिक में संपादकीय लिखकर दलित कविताओं को सराहते हुए लिखाः
“’अरवरव’ में दलित कवियों द्वारा रची गई पाँच कविताएँ देखी तो आश्चर्य हुआ । पहली बार पता चला कि गुजराती में दलित साहित्य जैसा कुछ लिखा जा रहा है ।”
6 दिसम्बर, 1979 में लाल दरवाजा पोएट्स वर्कशोप की ’काळो सूरज’ (अस्पृश्य कविता की पत्रिका) अहमदाबाद से प्रकाशित हुई । (बाद में अस्पृश्य शब्द के स्थान पर दलित शब्द प्रयुक्त किया गया) इस ऋतुपत्र के चौदह अंक प्रकाशित हुए । इस दलित कविता को मुम्बई के दैनिक पत्र ‘जनशक्ति’ के स्तंभ ’अक्षय-गुर्जरी’ के कवि-लेखक अवन्ती दवे ने काले सूरज की टंकार कहकर सराहा था । इन अंकों में अलग अलग अंकों के लिए डॉ. पिनाकीन दवे, मोहम्मद इस्हाक शेख, शेखआदम आबुवाला, जोसेफ मेकवान, रमेश पारेख आदि लेखकों ने लेख लिखे थे । जो ’काळो सूरज’ में प्रकाशित हुए थे । 1981 में गुजरात में दलित बनाम सवर्ण के जातिवादी आरक्षण विरोधी दंगे हुए । इन दंगों ने दलितों को कविता और साहित्य लिखने की ओर प्रेरित किया और खेत मजदूर, मिल कामदार, चपरासी, आई.ए.एस. और सेवा निवृत दलितों ने कलम उठायी । 1982 में ’नया मार्ग’ साप्ताहिक पत्रिका (संपादकः इन्दुकुमार जानी, अरूणाबहन मेहता) ने दलित साहित्य की सभी विधाओं के लिए मार्ग खोल दिए । इस पत्रिका ने कई कवियों के साथ जोसेफ मेकवान जैसे लेखकों को प्रकाश में लाने का कार्य किया । ’अक्षय’ (दलित आलोचना) अनियतकालीन मासिक पत्रिका, ’समाजमित्र’ मासिक पत्रिका (संपादकः रसीलाबहन नटुभाई परमार) आदि ने दलित साहित्य के वाहक के रूप में दलित साहित्य के विशेषांक प्रकाशित किए । जूनागढ से ‘वाचा’ दलित कविता की मासिक पत्रिका (संपादकः नीलेश काथड), ’अनुगामी कोण ?’ दलित कविता की मासिक पत्रिका (संपादकः किशोर सोंदरवा), ’मुक्तिनायक’ दलित पत्रिका और राजकोट से ’अनुसूचित जाति सौरभ’ प्रकाशित होने लगी । गुजराती दलित साहित्य अकादमी, अहमदाबाद की मासिक पत्रिका ’हयाती’ (तंत्रीः हरीश मंगलम्) और दलित साहित्य प्रतिष्ठान, अहमदाबाद की मासिक पत्रिका ’दलित चेतना’ दलित साहित्य की तमाम विधाओं को संपादित-प्रकाशित करने लगी थी । कुछ विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं । आधुनिकवाद में दलित कविता ने स्थिरता प्राप्त की । गुजराती कविता में छठे दशक में ’छंदमुक्ति’ के जो प्रयोग हुए उससे कविता के वाहक के रूप में छंदहीन कविता ने लोकप्रियता हासिल की, उसका लाभ दलित कविता ने उठाया । गज़ल-बिम्ब में नये प्रयोग हुए, उसमें दलित कविता ने नये आयाम जोड़े । स्थानीय भाषा का स्वीकार किया । अपनी अलग छवि और पहचान बनायी । दलित कवियों के व्यक्तिगत काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए और कुछ दलित कविता के संचय भी प्रकाशित हुए ।
जिनमें सर्व प्रथम ’दलित कविता’ (1981) संपादक- गणपत परमार और मनीषी जानी । ’विस्फोट’ (1984) संपादक- चंदु महेरिया-बालकृष्ण आनंद, ’अस्मिता’ (1984) संपादक- चंदु महेरिया, ’अंजलि’ सं. रमेशचन्द्र परमार, ’माणस’ (1992) सं. वसंत पुराणी, ’दुंदुभि’ (2001) सं. दलपत चौहाण-हरीश मंगलम्-प्रवीण गढवी, ’एकलव्यनो अंगूठो’ (2001) नीलेश काथड, ’दलित गीत-गज़ल’ (2006) सं. पथिक परमार-हरीश मंगलम् ’संकलित गीत’ (1985) सं. राजु सोलंकी, ’श्रमिक कविता’ (1986) सं. रमेशचन्द्र परमार, ’श्रमिकसूर’ (1990) जयेन्द्र शेखडीवाला, ’गुजराती कविता’ (2009) सं. नीरव पटेल, ’शब्दे बांध्यो सूरज’ (डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को काव्यांजलि) सं. चंदु महेरिया-दलपत चौहाण, ’दलित कविता’ (2012) सं. प्रवीण गढवी आदि दलित कविता के संग्रह प्रकट हुए ।
दलित कवियों के कविता संग्रहों का प्रकाशन दलित कविता के प्रथम संकलन ’दलित कविता’ 1981 से माना जाना चाहिए । (हालांकि उससे पूर्व कुछ कवि स्वयं पहले कवि होने का दावा कर चुके हैं) और इस बात का स्वीकार करें तो लगभग सौ के आसपास कवियों के डेढ़ सौ के करीब कविता संग्रह उपलब्ध हो सकते हैं । परन्तु उसमें कुछ समस्या भी आ सकती है । कुछ कवि जनवादी साहित्यधारा, सम्यक साहित्यधारा, प्रतिबद्ध और प्रगतिशील साहित्यधारा से जुड़कर दोनों प्रकार की रचनाएँ लिखते हैं । और उन्हें एक ही कविता संग्रह में प्रकाशित करते हैं । इसलिए अगर कविता संगह के नाम के साथ चर्वणा करते हैं तो विवाद हो सकता है । यहाँ मात्र कविता के भाव-विश्व, विभावना को ध्यान में रखकर ही चर्चा की गई है । इसी अंक में अन्यत्र भी यह चर्चा की गई है ।
दलित कवियों की कविताएँ अपनी भाषा, लय, भाव, कथन-रीति, अभिव्यक्ति का सौष्ठव, बिम्ब की मौलिकता, लोकभाषा का संयोजन आदि के कारण अरूढ़ और विशिष्ट है । हर कवि की कविता का मिज़ाज़ अलग है । कवि गहराई में जाकर व्यक्त होता है । वह किसी प्रकार की लुकाछिपी में विश्वास नहीं रखता । गीत, गज़ल, हज़ल, छंदहीन या छंदबद्ध....वह कविता के हर स्वरूप पर हाथ आजमाता है और अपना श्रेष्ठ प्रदान करने का प्रयत्न करता है । गुजराती भाषा-साहित्य का गौरव बढ़ाने में इन कवियों का योगदान है । इन कवियों ने गुजराती भाषा को समृद्धि प्रदान की है । अपनी अलग प्रतिष्ठा और पहचान बनायी है । वस्तु (Content) और शिल्प में परंपराओं और रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है । बीसवीं सदी के अंतिम दशक से लेकर आज तक दलित कविता दलित समाज के प्रति प्रतिबद्ध रही है ।
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’दलित कहानी’ बीसवीं सदी में 1985 के आसपास जन्म लेती है । 1987 में प्रकशित ’गुजराती दलित वार्ता’ (संपादक- मोहन परमार, हरीश मंगलम्) संग्रह को हम गुजराती दलित कहानी का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं । इस गुजराती दलित कहानी संग्रह को प्रकाशित करने के लिए 13-4-1986 के दिन डॉ. रघुवीर चौधरी और डॉ. दिगीश मेहता के सान्निध्य में दलित कहानीकारों की कार्यशाला आयोजित हुई थी । उस कार्यशाला में प्रस्तुत हुई और लिखी गई कहानियों पर अलग अलग विद्वान अभ्यासी आलोचकों के मंतव्य और लेख मँगवाये गए थे । परिणाम स्वरूप गुजराती दलित कहानी का प्रथम संग्रह ’गुजराती दलित वार्ता’ (संपादक- मोहन परमार, हरीश मंगलम्) प्रकाशित हुआ । उससे पहले ’चांदनी’ (पाक्षिक पत्रिका, तंत्री- डॉ. कान्ति रामी, संपादक- विष्णु पंड्या) में उसके एक अक्तूबर 1983 के अंक से 15 जनवरी 1984 के अंक (कुल मिलाकर आठ अंक) तक पाठकों की पार्लामेन्ट विभाग में ’दलित साहित्य, साहित्य में इस नये वर्ग की आवश्यकता है सही’ इस शीर्षक से एक दीर्घ बहस चली थी । उस बहस में कई पाठकों ने अपने अभिप्राय प्रस्तुत किए थे । उसके फलस्वरूप ’चांदनी’ पाक्षिक के तंत्रीश्री और संपादकश्री द्वारा 7-2-1987 के अंक को ’दलित साहित्य और दलित चेतना’ के नाम से विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया था । उस विशेषांक में दलित कहानी, कविता, भेंट आदि को प्रकाशित किया गया था । उसके बाद का 21-2-1987 का अंक भी दलित साहित्य को समर्पित था । विशेषांक के संपादकीय (विष्णु पंड्या) ’अपनी बात’ में लिखा गया थाः
“समाज परिवर्तन के हर मोड पर नये नामकरण होते आये हैं । क्रांतिकारी, रोमांचदर्शी, विक्टोरियन, यथार्थवादी, छायावादी, जनवादी, निग्रो लिटरेचर जैसे कई वर्गीकरण होते रहे हैं । दलित साहित्य हमारे यहाँ बहुत विलंब से पारिभाषित हुआ है । परन्तु सामाजिक संदर्भ में उसके अस्तित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।”
गुजराती साहित्य में 1987 में पहला दलित कहानी संग्रह ’गुजराती दलित वार्ता’ प्रकट हुआ । जिसमें पंद्रह कहानीकारों की कहानियों को स्थान मिला था । उन पंद्रह कहानीकारों में दलपत चौहाण (बदलो), हरी पार (सोमली), हरीश मंगलम् (दायण), मोहन परमार (नकलंक), नैकल गांगेरा (आघात), अरविंद वेगडा (रखोपाना साप), नरसिंह परमार (शिल्पा, शीशमहेल,शंकर अने हुं), मधुकान्त कल्पित (अधूरो पूल), शिरीष परमार (फरज), पथिक परमार (उघाडा पगे), यशवंत वाघेला (अंध सूर्यनारायण), हरीशकुमार मकवाणा (मूंगी चीस), राघवजी माधड (मेली मथरावटी), रमण वाघेला (धंधो) और भी. न. वणकर (विलोपन) आदि थे । इस कहानी संग्रह ने गुजराती कहानी साहित्य में दलित कहानी का उल्लेखनीय, ऐतिहासिक और निजी स्थान स्थापित किया । इस संग्रह में हर दलित कहानी के बारे में गैरदलित लेखकों के लेख भी प्रकाशित किए गए । इसके अलावा ’गुजराती दलित कहानी – एक चर्चा’ (मोहन परमार) और ’दलित कहानीः शेष-विशेष’ (हरीश मंगलम्) के लेखों का भी समावेश किया गया था ।
’दलित गुजराती वार्ता 1995’ (संपादक- अजित ठाकोर और राजेन्द्र जाडेजा) में तेरह दलित कहानीकारों की कहानियों का समावेश किया गया था । इस संपादन में अजित ठाकोर द्वारा लिखे गए ’निजी आवाज़ प्राप्त करने की जद्दोजहद’ और मोहन परमार द्वारा लिखे गए ’गुजराती दलित साहित्य में कहानी’ इन लेखों को भी प्रकट किया गया था । इस दलित कहानी संग्रह में पहली बार जोसेफ मेकवान की दलित कहानी (रामराज) को स्थान दिया गया था । इसके बाद 1997 में ’प्रतिनिधि दलित कहानी’ (संपादक- हरीश मंगलम्) संग्रह प्रकाशित हुआ । जिसमें बारह दलित कहानीकारों की कहानियाँ संकलित की गई थी और इस संपादन की भूमिका में डॉ. प्रवीण दरजी द्वारा गुजराती दलित कहानी किस प्रकार सिद्ध हो सकती है उसकी आस्वादमूलक चर्चा भी की गई थी । ई. स. 2000 में ‘समाजमित्र’ मासिक पत्रिका (तंत्री- रसीलाबहन परमार) में प्रकाशित हुई लगभग पैंतीस के करीब दलित कहानियों का ’वणबोटी वारताओ’ (संपादक- दलपत चौहाण) नाम से संपादन किया गया । 2005 में ’दलित वार्तासृष्टि’ (सं. मोहन परमार) ग्यारह दलित कहानियों के साथ और 2008 में ’वार्तालोक’ (सं. हरीश मंगलम्, डॉ. पथिक परमार, मधुकांत कल्पित, अरविंद वेगडा) बयालीस दलित कहानियों के साथ प्रकट होते हैं । 2009 में ’गुजराती दलित टूंकी वार्ताओ’ (सं. दलपत चौहाण) नामक संपादन में अट्ठारह दलित कहानियाँ प्रकट होती हैं । इस पुस्तक का प्रकाशन साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा हुआ था । और 2016 में ’विस्मय’ (सं. मोहन परमार) नामक संपादन गुजरात साहित्य अकादमी गांधीनगर द्वारा प्रकाशित किया गया । इस संकलन में तैंतीस दलित कहानीकारों के प्रकाशित सभी कहानी संग्रहों में से बारहसौ कहानियों की जाँच-पड़ताल करते हुए उनमें से पाँचसौ कहानियाँ अलग चुनकर पचपन दलित कहानियों को स्थान दिया गया है । (यहाँ कुछ गैरदलित कहानीकारों की दलित कहानियों पर भी विचार हुआ था परन्तु उन्हें संग्रह में स्थान नहीं दिया गया ।) इस ’विस्मय’ दलित कहानी संग्रह को ई. स. 2016 तक प्रकाशित हुई दलित कहानियों का निचोड़ माना जा सकता है । उसके बाद के समय में धीरज वणकर, धरमसिंह परमार, राम सोलंकी, छगन बाजक, जेसंग जादव आदि को उभरते हुए दलित कहानीकार कहा जा सकता है ।
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नौवें दशक से गुजराती साहित्य में आधुनिक युग का प्रभाव कम होता है । कहानी का पोत बदलता है । उत्तर आधुनिक युग का आरंभ होता है । साहित्य की धारा परिवर्तित होती है । और जब साहित्य की धारा बदलती है तब साहित्यकार उस समय की युगीन परिस्थियों की ओर देखता है । अलग अलग नाम से वाद या प्रवाह अस्तित्व में आते हैं । इस उत्तर आधुनिक युग में भी दलित साहित्य, नारी-चेतना, ग्राम-चेतना, देशीवाद, विद्रोही साहित्य, परिस्कृत साहित्य, अपना साहित्य, जनवादी साहित्य और प्रगतिशील साहित्य जैसे अनेक आंदोलन अस्तित्व में आए । ऐसे में कहानी पारंपरिक या घटना प्रधान आलेखन की ओर मुड़ती है, परिणाम स्वरूप दलित साहित्य में भी दलित यथार्थवादी कहानियों की रचना होने लगती है ।
साहित्य में जब किसी ’नये वाद’ की चर्चा शुरु होती है तब उसकी ’कुछ’ जड़ें अतीत के साथ जुड़ी होती है । दलित चेतना/ दलित कहानी की जड़ें भी दलितों के जीवन, परंपराएँ, परिवेश, अतीतकालीन यथार्थ और वर्तमान स्थिति के साथ जुड़ी हुई हैं । दलित समाज या दलित वर्ग की अपनी व्यथा-कथाएँ, घटनाएँ, संवेदनाएँ, भाव-विश्व, रीत-रिवाज, रहन-सहन, अनुभव और अस्तित्व बनाए रखने का संघर्ष दलित साहित्य में मिलता है । अन्याय, अत्याचार की यथार्थ अभिव्यक्ति मिलती है । गली, मुहल्ले, आर्थिक कठिनाई, धार्मिक विचारधारा, राजनीतिक मान्यता और नवजागृति की आकांक्षा के बीच आगे बढ़ने की मनसा दिखाई देती है । कहानी कला के मानदंड और मापदंड अपनाते हुए दलित कहानी ने अपनी निजी पहचान बनायी है । दलित रचनाओं में देश, काल, बोली, लहजा तथा रचना का स्वरूप बदला है । भारतीय समाज की हर जाति में अलग बोली, उच्चारण, शब्दभेद है और जातिओं की विशिष्टता बोली, सिर की पगड़ी, वेशभूषा, घर आदि के द्वारा पहचानी जाती है । दलित कहानी को हम दलित परिवेश विशेष, बोली विशेष और घटना विशेष का जोड़ मान सकते हैं । गुजराती दलित कहानियाँ गुजरात के अलग अलग क्षेत्र-अंचलों का प्रतिनिधित्व करती है । जैसे जोसेफ मेकवान, रमण मेकवान, हरीश मकवाणा, रमण माधव, रमण नडियादी, अनिल वाघेला आदि गुजरात के चरोतर क्षेत्र की लोकबोली का प्रतिनिधित्व करते हैं, अमृत मकवाणा, जेसंग जादव, राम सोलंकी, जसुमती परमार आदि भाल प्रदेश और मध्य गुजरात की लोकबोली को उजागर करते रहे हैं, बी. केशरशिवम, मधुकान्त कल्पित, भी. न. वणकर, दशरथ परमार, मौलिक बोरिजा, दलपत चौहाण, मोहन परमार आदि उत्तर गुजरात के अलग अलग क्षेत्रों की लोकबोली का प्रतिनिधित्व करते हैं, धरमाभाई श्रीमाळी और धरमशी परमार पालनपुर के आसपास की लोकबोली प्रयुक्त करते हैं तो राघवजी माधड, अरविंद वेगडा, दान वाघेला, महेश दाफडा आदि सौराष्ट्र की लोकबोली का प्रयोग करते हैं, विनोद गांधी गोधरा क्षेत्र की लोकबोली, प्रागजीभाई भाम्भी हिम्मतनगर के आसपास की लोकबोली, मावजी महेश्वरी कच्छ क्षेत्र की लोकबोली एवं हरि पार सुरती बोली का प्रयोग करते प्रतीत होते हैं । इन सभी कहानीकारों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार गुजराती दलित कहानी और गुजराती साहित्य की सेवा करने का प्रयास किया है ।
दलित जीवन और दलित व्यक्ति की अपनी पीड़ा, गैरदलितों द्वारा दी जाने वाली यातनाएँ, रोजमर्रा के जीवन की विडंबनाएँ आदि को दलित कहानीकारों ने यथार्थ रूप से बखूबी, कला की शर्त पर, नये सर्जनात्मक मानदंडों और नयी संभावनाओं को तलाशकर निरूपित किया है । नारीवाद, देशीवाद और दलितवाद के आविर्भाव ने उत्तर आधुनिकता के दौर को साहित्यिक समृद्धि प्रदान की है । ऐसा कहा जा सकता है कि दलित कहानी ने सुवर्ण अक्षरों से लिखकर अपने दायित्व को बखूबी निभाया है ।
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गुजराती दलित उपन्यास का सम्बन्ध तो फ्रेन्च साहित्य के वाया अंग्रेजी-गुजराती अनूदित उपन्यास ’हिन्दुस्तान मध्येनुं झूंपडुं’ तक जाता है । गुजराती साहित्य के गांधीयुग में कुछ साहित्यकारों को दलित कथावस्तु के निरूपण की धुन सवार हुई थी । दलित पात्रों को उपन्यासों में स्थान मिला, परन्तु अधिक समय तक टिक नहीं पाया । आगे चलकर 1986 में ’आंगळियात’ (जोसेफ मेकवान) उपन्यास प्रकाशित हुआ, उसे ही प्रथम गुजराती दलित उपन्यास का श्रेय प्राप्त हुआ । परन्तु ’आंगळियात’ से पूर्व सुरेश बारिया नामक उपन्यासकार का ‘थोरनां धावण’ (1982) उपन्यास प्रकाशित हुआ था, उसकी ओर किसीने ध्यान नहीं दिया था ।
आधुनिक दौर में उपन्यासकार का लक्ष्य समाज-जीवन या घटना-यथार्थ का निरूपण नहीं है, परन्तु मनुष्य की अन्तर्चेतना, कपोलकल्पित वस्तु, आंतरिक संवेदना के तानेबाने या अतीन्द्रिय अनुभव विश्व का निरूपण रहा है । घटना से चेतना, निरूप्य से आकार की ओर जाना उसका लक्ष्य रहा है । कहीं कहीं घटना-आकार, रचना-रीति, यथार्थ-दर्शन के साथ सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक मूल्यों की देखभाल भी की गई है । वहाँ दलित समाज पूरी तरह अनुपस्थित रहा है । समग्र गुजराती समाज भी उसमें दिखाई नहीं देता । इन सबसे मुक्त होते हुए नौवें दशक में आधुनिक युग का आरंभ हुआ । उपन्यास ने नया रूप धारण किया । नवोन्मेष प्रकट किया और दलित उपन्यास, नारीवादी उपन्यास, आँचलिक उपन्यास और पारंपरिक उपन्यास जैसी धाराओं का उदय हुआ ।
उत्तर आधुनिक दौर के साहित्य में नवीनता यह है कि उस दौर में गुजराती साहित्य से ब्राह्मणवादी साहित्य का प्रभाव कम हो गया । हर साहित्यकार अंतर्मुख होकर अपने जीवन और अपने समाज का निरूपण करने लगा । राजा-महाराजा और उच्च वर्ग की कथाएँ लुप्त होने लगी । उपन्यास को अलग अलग नाम से पहचान मिलने लगी ।
गुजरात के सामाजिक जीवन में ग्राम्य संस्कृति का गहरा प्रभाव रहा है । सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषमता की जड़ें बहुत गहरी है । शहर भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं है । दलित जीवन की समस्याएँ शहरों और गाँवों में भिन्न भिन्न स्वरूप में दिखाई देती है । अस्पृश्यता और प्रच्छन्न अस्पृश्यता के भयंकर रूप यहाँ निरन्तर अनुभूत होते रहे हैं । दलित साहित्य लिखने वाले साहित्यकारों ने गाँवों से शहर की यात्रा की है इसलिए सबसे पहले ग्राम्य जीवन की कथाएँ मिली हैं । इन उपन्यासों में ग्राम्य जीवन में देखने मिलती अस्पृश्यता, असमानता, दमन, अभाव, संवेदना, आपसी व्यवहार में होता भेदभाव, ऊँच-नीच, तिरस्कार, विसंवादिता के साथ कहीं कहीं संवादिता का चित्रण देखा जा सकता है । जोसेफ मेकवान के उपन्यास (आंगळियात-1986) में दलित समाज के दुःख-दर्द, पीड़ा, संवेदना, शोषण आदि देखने मिलते हैं । उसके बाद प्रकाशित होने वाले उपन्यास भी दलित जीवन के शोषण का यथार्थ, अमानवीय तिरस्कार और मनुष्य-मनुष्य के बीच दिखाई देते अपमानपूर्ण व्यवहार, पीड़ा-संवेदना की कथा कहते हैं । इन उपन्यासों की रचना-रीति, कलागत लक्षण पारंपरिक है । देशकाल, परिवेश, बोली विशेष, लहजा आदि दलित समाज के हैं । घटना का यथार्थ गाँव और दलित मुहल्ले के बीच कटा हुआ है । कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है ।
यहाँ जितने भी उपन्याकार हैं उन सबकी अपनी अलग पहचान है, विशेषता है । उन्होंने अपने क्षेत्र की बोली का सर्जनात्मक विनियोग करते हुए नयी शुरुआत की है । जोसेफ मेकवान (आंगळियात-1986), दलपत चौहाण (मलक-1991), मोहन परमार (नेळियुं-1992), हरीश मंगलम् (तिराड-1992), बी. केशरशिवम् (शूळ-1995), रमण मेकवान (स्वराजनां समणां-1994), गणेश आचार्य (अस्तित्व-2000), दक्षा दामोदरा (शोष-2003), विट्ठलराय श्रीमाळी (शैलबाळा आईएएस-2003), प्रागजीभाई भाम्भी (दिवाळीना दिवसो-2004), हरीशकुमार सोलंकी (संघर्ष-2004), दिनु भद्रेसरिया (कीडीए खोंखारो खाधो-2005), अनिल वाघेला (ज्ञातिजंतु-2007), मावजी महेश्वरी (मेघाडम्बर-2008), रेमन्ड परमार (मूळियां अने पांखो-2008), कांतिलाल परमार (गेबी टींबो-2012), नरेन्द्र परमार (पीपळो-), विनोद गांधी (वास-2014), उमेश सोलंकी (फेरफार-2017) आदि उपन्यासकारों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार उचित और यथार्थ दलित कथाएँ प्रदान की हैं । इन उपन्यासों को साहित्यकारों की पहचान कहा जा सकता है, परन्तु उन्होंने एक से विशेष उपन्यासों के जरिए गुजराती भाषा को समृद्ध किया है ।
दलित उपन्यास वर्तमान स्थिति को नकारता है । विद्रोह का मार्ग अपनाता है । फिर भी सफलता-असफलता की असमंझस बनी हुई है । अतीत में गुजारे गए अत्याचार मनःस्थिति में घूमते रहते हैं । समस्या विकट है । उसमें से मुक्त होने के लिए मार्ग खोजता है । पूरी समाज व्यवस्था सड़ी-गली है । अन्य धर्म के लोग भी हिन्दुओं की देखादेखी दलितों को परेशान करने में, अस्पृश्यता का पालन करने में सहयोग करते हैं और उसका प्रभाव सबसे अधिक गाँवों में बना हुआ है । इसीलिए वह ग्राम्य-संस्कृति का तिरस्कार करता है, नयी समाज-व्यवस्था की आशा में धर्म की अवहेलना करता है, पूर्व दिशा की ओर देखकर अतीत को फेंकते हुए सूर्योदय की राह देखता है । इन उपन्यासों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि भोर का समय अब दोपहर की तरफ गति कर चुका है ।
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दलित नाटक या गुजराती नाटक की चर्चा करने से पहले गुजरात की एक गैरदलित जाति नायक (तरगाळा) द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली भवाई (गुजरात का लोकनाट्य) और दलित जाति तूरी समाज द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली भवाई की चर्चा करना आवश्यक है । नायक जाति की भवाई गाँव के बीच या मंदिर के आँगन में खेली जाती थी । उस भवाई को देखने दलित समाज नहीं जा सकता था । गाँव के द्वारा इसका निषेध किया हुआ था । दलितों की भवाई दलितों के मुहल्ले में खेली जाती थी । इस भवाई का वेश प्रस्तुत करने वाले नायक और तूरी जाति के लोगों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं था इसलिए वे मौखिक परंपरा में ऐसे भवाई वेश प्रस्तुत करते थे । परन्तु बाद में असाइत ठाकर ब्राह्मण से भ्रष्ट होकर नायक बन गया इसलिए उसने सारे वेशों में कुछ जोड़ते हुए उन्हें लिखित रूप दिया । हालांकि असाइत ठाकर की कथा कहीं भी लिखित में नहीं मिलती । 1872 में महिपतराम रूपराम ने नायक लोगों से सुनकर कुछ भवाई वेश लिख लिए और एक पुस्तक प्रकाशित की और इस तरह पहली बार भवाई के वेश हमें लिखित रूप में प्राप्त हुए । इन सभी वेशों में ’ढेडनो वेश’ और ’कंसारीनो वेश’ बहुत ही खराब और गंदी भाषा-प्रयोग वाले थे । इसलिए जब महिपतराम ने इस पुस्तक के दूसरे से पाँचवां संस्करण किया तब इसमें से ’दलितनो वेश’ को निकाल दिया । उसकी टिप्णियों को रहने दिया । रात के बारह बजे बाद जब बच्चे और स्त्रियाँ घर चले जाते तब इन वेशों को पुरुषों की उपस्थिति में प्रस्तुत किया जाता । उनमें जातिगत गंदी गालियों के साथ दलित स्त्री के साथ बलात्कार के दृश्यों को तीन बार प्रस्तुत किया जाता । (हालांकि इसमें स्त्री की भूमिका पुरुष कलाकार द्वारा ही अदा की जाती ।) इन दृश्यों के दौरान लोग चीखते-चिल्लाते, हल्ला मचाते और यह सब सुनकर भवाई का कलाकार और अधिक बीभत्स हरकतें करता था ।
इन दृश्यों में दलितों की भयंकर बदनामी होती थी और दलित स्त्री को उपभोग की चीज़ मानकर आए दिन उस पर बलात्कार होते रहते । भवाई के ये वेश अस्पृश्यता की आग को और हवा देने का काम करते थे ।
तूरी समाज के कलाकार ’भवाई से इन वेशों’ को’ प्रस्तुत न कर पाते और इनके स्थान पर जसमा ओडण और वीरमाया के वेश प्रस्तुत करते तथा नायक जाति के कलाकार जिन वेशों को प्रस्तुत करते उनकी नकल करते हुए उन्हें दलित मुहल्लों में प्रस्तुत करते थे ।
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दलित साहित्यकारों ने नाटक, एकांकी, नुक्कड नाटक, रेडियोनाटक, रेडियोरूपक आदि रूपों में लेखन किया है और उनकी प्रस्तुति भी हुई है । इतना ही नहीं पुस्तक रूप में उनका प्रकाशन भी हुआ है । इन दलित नाट्य रचनाओं में भी समकालीन और पुरातन समय की विडंबनाओं, शोषण, अतीत में हुए अत्याचार, अवहेलना, अत्याचार, सामाजिक-धार्मिक समस्याओं को उठाया गया है । महाभारत के पात्रों को आधुनिक संदर्भ में नयी व्याख्या के साथ उजागर किया गया है । वर्गविहीन समाज की रचना के लिए जिन महानुभावों ने, ज्योतिर्धरों ने अपना योगदान दिया है उनके जीवन, कवन और कार्यों को केन्द्र में रखकर, वीरमाया, डॉ. आंबेडकर, कबीर, रैदास, स्वामी तेजानंद, हवसी देगामा, महात्मा बुद्ध आदि महानुभावों पर नाटक/एकांकी लिखे गए हैं और उनकी प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं ।
श्रीकान्त शर्मा (एकांकी संग्रह- ’त्रिवेणी संगम’ 1977), शिवाभाई ना. परमार (मानवतानी ज्योत-1978), आलोक आनंद (क्रांतिवीर आंबेडकर-1990), कृष्णचन्द्र (टींपे टींपे शोणित आप्यां-1990), जयंति मकवाणा (युगपुरुष-1995), दलपत चौहाण (अनार्यावर्त- नाटकसंग्रह-2000) और (हरिफाई- एकांकी संग्रह-2001), मोहन परमार (बहिष्कार- एकांकी संग्रह- 2003), हर्षद परमार (राशवा सूरज- 2012) आदि नाट्य रचनाएँ पुस्तक के रूप में उपलब्ध हैं और कुछ नाटक और एकांकी की तो एक से अधिक बार प्रस्तुति भी हुई है । मौलिकराज श्रीमाळी के नाटक ’उर्फे....आ....लो’ और ’नाच’ के पचास से अधिक प्रयोग हुए हैं । इसके अलावा दलपत चौहाण के बीस से अधिक एकांकी, ’हुं माणस’ नुक्कड नाटक तथा रेडियो रूपक (घायल हंस तथागतने शरणे) प्रकाशित हुए हैं । चंदु महेरिया और रमेशचन्द्र परमार ने भी रेडियो रूपक लिखे हैं ।
राजु सोलंकी (ब्राह्मणवादनी बाराखडी -1982), कांतिलाल ’कातिल’ (आभडछेट -2002), बबलदास बी. चावडा (अंधकार, क्रांतिरथ), बी. केशरशिवम् (रामनी मूर्ति -2002), मौलिक बोरिजा (महेफिल -2002), राघवजी माधड (शोध -2002), लक्ष्मण परमार (अंग्रेज -2002), विट्ठलराय श्रीमाळी (मूठी ऊँचेरी बाळा -2002), हरिश मंगलम् (ल्यो, चांप पाडो -2002) आदि लेखकों ने एकांकी लिखे हैं और ये एकांकी प्रकाशित भी हुए हैं ।
दलित जीवन और उनके जीने का ढंग गैरदलित समाज से काफी भिन्न है । उनकी खान-पान की आदतें, पहनावा, बोलचाल, लहजा अलग है । उनकी लोक-संस्कृति, लोककथाएँ, लोकगीत, धार्मिक परंपरा के उत्सव, भवाई सबकुछ भिन्न ही है । मनोरंजन के साधन अलग है । भवाई, जातर, रामलीला, लोकसंगीत, उनके विभिन्न वेश अलग है । नाट्य/भवाई की परंपरा, कथा कहने की परंपरा, वंशावली का ब्यौरा रखने वाली जातियाँ सबकुछ यहाँ स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं । जजमानों की वंशावली लिखने के लिए बिना मात्राओं वाली गुजराती भाषा इस जाति के लोग जानते थे । इसीलिए दलित समाज को हिन्दू समाज का ही एक अंग माना जाना थोड़ा विचित्र लगता है ।
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गुजराती दलित निबंध साहित्य में कुछ संपादन मिलते हैं । गुजराती दलित निबंध-2013 (संपादक- भगीरथ ब्रह्मभट्ट), गाय-जो डेरो (बी. केशरशिवम्), भंडारियुं -2004 (धरमाभाई श्रीमाळी), हुं संभारणां अने सफर-2017 (दलपत चौहाण) आदि लेखकों ने दलित निबंध की पुस्तकें दी हैं । जब कि चरित्रात्मक निबंधों में जोसेफ मेकवान ने ’व्यथानां वीतक’ समेत कई पुस्तकें लिखी हैं । अन्य रेखाचित्र / चरित्रात्मक निबंधों में ’माडी मने सांभरे रे’ (1994) संपादक- चंदु महेरिया, ’पितृगाथा’ (2006) संपादक- बालकृष्ण आनंद, ’दीकरी हेतनी हेली’ (2013) संपादक- नटुभाई परमार आदि पुस्तकें उल्लेखनीय हैं ।
गुजराती दलित साहित्यकारों ने अन्य विधाओं की तुलना में आत्मकथा कम लिखी है । परन्तु जो आत्मकथाएँ लिखी गई हैं उनके लेखकों ने उन कथाओं को निष्ठापूर्वक लिखा है और आत्मश्लाघा, अतिरंजकता या आडंबर से दूर रहकर यथार्थ को प्रमाणिकता से अंकित किया है । बावजूद इसके यह कहा जा सकता है कि यदि आत्मकथाएँ अधिक संख्या में लिखी गई होती तो पूर्व स्वतंत्रता युग के और स्वातंत्र्योत्तर युग के बहुत सारे प्रामाणिक चित्र उपलब्ध हो सकते थे ।
जो आत्मकथाएँ लिखी गई हैं उनमें डाह्याभाई दीनबंधु (जीवनसंघर्ष- 2001), बी. केशरशिवम् (पूर्णसत्य-2002), खेमचंद चावडा (अतीतनां स्मरणो- 2005), नटुभाई परमार (मनस्थ- 2009), हरिशंकर पुराणी (मारी जीवनसाधना- 2010), विट्ठलराय श्रीमाळी (बजता जाए एकतारा- 2012), महेशचन्द्र पंड्या (पुरुषार्थनो पमराट- 2014), पी. के. वालेरा (थोरनां फूल- 2010-11-12) आदि उल्लेखनीय है । इसके अलावा ’समाजमित्र’ मासिक पत्रिका के आत्मकथात्मक लेखों के विशेषांक, 14 अप्रैल-2002, (सं. नीरव पटेल) में दलित समाज के साहित्यकारों, समाजसेवकों और सामान्य मनुष्यों के जीवन की कथाएँ मिलती हैं ।
इन आत्मकथाओं और आत्मकथात्मक लेखों में गुजरात के अलग अलग क्षेत्रों के दलित जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है । अस्पृश्यता, बचपन में झेला गया शोषण, अत्याचार, गरीबी, और इन सबसे जूझते हुए जीवन की जंग जीत जाने वाले मनुष्यों की कथाएँ समाज के लिए राहबर बनती है । यहाँ एक आम आदमी से लेकर बड़े अधिकारी, राजनेताओं के जीवन की सामान्य झलक देखने मिलती है ।
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जीवनी-साहित्य के लेखन में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर, वीरमाया, रमाबाई आंबेडकर और कुछ अन्य समाजसेवकों के जीवन का आलेखन हुआ है । किसी दलित साहित्यकार के जीवन का आलेखन नहीं हुआ है ।
बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के जीवन और कवन को लेकर कविताएँ लिखी गई थी ठीक उसी तरह उनके जीवन चरित्र का आलेखन हुआ है । डॉ. पी. जी. ज्योतिकर (आर्षदृष्टा आंबेडकर- 1990, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित्र- 1998), जयसिंह व्यथित (दलितोना मसीहा- 1991), डॉ. रमेशचन्द्र परमार (युगदृष्टा डॉ. आंबेडकर भाग- 1 से 4- 2000), चंदु महेरिया (डॉ. आंबेडकर- 2002) आदि जीवन चरित्रों का लेखन हुआ है । कवि गणेश परमार ने ’आर्षदृष्टा डॉ. आंबेडकर’ नामक छंदोबद्ध जीवन चरित्र लिखा है तो कवि विश्राम सोलंकी द्वारा ‘भीम भारत’ शीर्षक से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के जीवन को राग-रागिणी में अभिव्यक्त किया गया है ।
ब्रह्मदत्त वैश्य द्वारा ’गुरुजी मूळदास भूदरदास वैश्यनुं जीवनचरित्र’ (1985), राजन पटणी द्वारा ’पू. रमाबाई आंबेडकर’ (2004), जनबंधु कौसाम्बी द्वारा रामजीभाई मेव का जीवन चरित्र ’दलित आकाशमां एक तारक’ (2004), नरसिंह सोनारा द्वारा देहगाम के समाज सेवी हवसीभाई देहगामा का जीवन चरित्र ’हवसी देगामो’ और चारूल चौहाण द्वारा ’वीर माया अमरचरित्र’ (2004) का प्रकाशन किया गया है ।
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दलित साहित्य को आलोचना की कसौटी पर कसने के लिए आलोचना के नये औजारों की जरूरत होती है । परन्तु आज तक इस दिशा में कोई आलोचक इन नये मापदंडों की खोज करता प्रतीत नहीं हुआ है । गुजराती साहित्य के पुराने मापदंडों से दलित साहित्य को परखने से न तो उसे पूरी तरह से समझा जा सकता है और न ही उसके मूल अर्थ तक पहुँचा जा सकता है । उसमें नया क्या है और गुजराती साहित्य से वह किस मायने में अलग है इसे न तो ऊंगली रखकर बताया जा सकता है और न ही बताया गया है । उसके लिए योग्य शब्दावली की, आलोचना की एक निश्चित भाषा के प्रयोग की जरूरत है । यह कार्य अभी अधूरा है । सबकुछ हवा में चल रहा है । दलित साहित्य का मार्ग कैसे मूल गुजराती साहित्य से अलग है, उसके उदभव काल से आज तक उसका कैसे विकास हुआ है इसकी चर्चा आलोचना में होनी चाहिए । इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि दलित आलोचना दलित रचनाओं को उनका उचित मान-सन्मान या प्रसिद्धि दिलाने में असमर्थ रही है ।
पश्चिमी साहित्य-जगत में ब्लैक लिटरेचर की उपस्थिति है, उसी तरह भारतीय साहित्य-जगत में दलित साहित्य अपना अस्तित्व रखता है । दलित साहित्य और गुजराती साहित्य एक दूसरे से भिन्न नहीं है । बीसवीं सदी के नौवें-दसवें दशक और इक्कीसवीं सदी के आज तक के उत्तर आधुनिक दौर में लिखे गए गुजराती दलित साहित्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता । (फिर भी किया भी जा सकता है !)
कुछ गैरदलित आलोचकों/लेखकों ने दलित साहित्य की रचनाओं की आलोचना की है, उनका रसदर्शन और आस्वाद कराया है । उनमें दीपक मेहता, भरत मेहता, बाबु दावलपुरा, योसेफ मेकवान, जोसेफ मेकवान, डॉ. कांति मालसतर, डॉ. सतीश व्यास, सिलास पटेलिया, प्रा. जयंत जोशी, डॉ. अजित ठाकोर, डॉ. रघुवीर चौधरी, डॉ. रमेश र. दवे, विद्युत जोशी, मफत ओझा, डॉ. चन्द्रकान्त टोपीवाला, धवल मेहता, भानुभाई अध्वर्यु, अशोक हर्ष, मनीषी जानी, रमेश पारेख, शिरीष पंचाल, नरेश शुक्ल, सरूप ध्रुव, महावीरसिंह चौहाण, अवंति दवे, सुधा पंड्या आदि प्रमुख हैं ।
तो दलित साहित्यकारों द्वारा भी दलित साहित्य की समीक्षा की गई है, रसदर्शन कराया गया है । संविति- 1984 (लेखक, संपादक- मोहनपरमार, हरीश मंगलम्), विदित -1989 और अन्य पुस्तकें (लेखक-सं. हरीश मंगलम्), प्रत्यायन -1994 और अन्य पुस्तकें (ले. सं. भी. न. वणकर), गुजराती दलित साहित्य- स्वाध्याय अने समीक्षा- 2001 (लेखक,संपादक-मोहन परमार, हरीश मंगलम्), सांप्रत दलित साहित्यप्रवाह -2004 (ले. यशवंत वाघेला), पद चिह्न- 2004 और अन्य पुस्तक (लेखक- दलपत चौहाण), दलित संवेदना अने साहित्य – 2008 अने अन्य पुस्तक (डॉ. नाथालाल गोहेल), साहित्यतपास- 2009 (प्रागजीभाई भाम्भी), यथातथ- 2001 (नटुभाई परमार), गुजराती साहित्यमां दलित साहित्यनुं प्रागट्य (भीखुभाई वेगडा), दलित साहित्यनां लेखांजोखां – 2011 (संपादक- रमण वाघेला), प्रत्यक्ष -2008 (ले.सं. मधकान्त कल्पित), निरीक्षा -2014 (सं. वसंत रोहित), अनुमान -2016 अने अन्य पुस्तक (ले. सं. मोहन परमार) आदि रचनाओं में गुजराती दलित साहित्य की समीक्षा बखूबी की गई है ।
और अन्त में कह सकते हैं कि गुजराती दलित साहित्य में साहित्य की लगभग सभी विधाओं में काम हुआ है । इस संदर्भ में गुजराती भाषा-साहित्य के विद्वान दलित-गैरदलित आलोचकों द्वारा अपनी कई आलोचनात्मक पुस्तकों और लेखों द्वारा इस साहित्य को सराहा भी गया है बावजूद इसके, इन सबकी गहरी छानबीन करते हुए निकाले गए निष्कर्षों के आधार पर साहित्य के नये मानदंड या मापदंड तय करके दलित साहित्य के स्वतंत्र सौन्दर्यशास्त्र का आविष्कार होना अभी बाकी है, यह एक सच्चाई है । और उसकी प्रतीक्षा अभी जारी है ।