Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature
'डेथ कान्ट स्टाप मी' में व्याप्त दलित विमर्श
डॉ. अभय परमार जी ने हिन्दी, गुजराती साहित्यकार के रूप में एक विशिष्ट पहचान बनाई है। वे अत्यंत सरल, सहज स्वभाव के धनी है। डॉ. अभय परमार जी सामाजिक सुधारएवं परिवर्तन को जीवनमंत्र मानकर नित समाज कल्याण में प्रयासरत रहे हैं। डॉ. अभय परमार जी की आत्मकथा 'डेथ कान्ट स्टाप मी' सन्‌ 2017 में ज्ञान प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हुई। यह आत्मकथा एक साधारण दलित परिवार की व्यथा– कथा है। आमतौर पर आत्मकथाएं 'आत्म' का ही गुणगान करती है परन्तु दलित आत्मकथाएं एक पूरे समुदाय के इतिहास, उसकी वर्तमान परिस्थितियों से रूबरू कराती हैं। दलित आत्मकथा के माध्यम से दलितों पर हुए अत्याचार, दमन व पीड़ा की अनेक घटनाएं समाज की मानसिकता, व्यवस्था को बदलने की माँग करती है।आत्मकथा लिखना कोई सरल काम नहीं होता ओमप्रकाश वाल्मीकि जी इस विषय पर अपनी आत्मकथा 'जूठन' की भूमिका में लिखते है–"दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव–दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज–व्यवस्था में हमने सांसे ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी। ...........इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शु़रू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएँ मैंनें भोगीं। स्वंय को परत–दर–परत उधेड़ते हुए कई बार लगा–कितना दुखदायी है यह सब। कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।"1

इसी संदर्भ में दलित आत्मकथाकर मोहनदास नैमिशरायजी की आत्मकथा 'अपने– अपने पिंजरे' की भूमिका लेखन करते हुये महीप सिंह जी लिखते है–"अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम सच्चाईयों को इसमें उकेरा है जिनमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता से व्यक्त हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण व्यक्ति केऊपर सड़ी–गली व्यवस्था का वह आरोपण है जिसके प्रति वह विवश होकर सब कुछ सहते जाने के लिए अभिशप्त रहा है।"2

दोहरा अभिशाप की लेखिका इस विषय पर लिखती है–"मैं अतीत की यादोंके साथ अपना जीवन जी रही थी। अपने भोगे हुए यथार्थ को शब्दों में उतारने के द्वंद की पीड़ा में जीवन के 68 वर्ष बीत गए। ......................मैं लेखिका नहीं हूँ, ना साहित्यिक लेकिन अस्पृश्य समाज में पैदा होने से जातीयता के नाम पर जो मानसिक यातनाएँ सहन कर करनी पड़ी इसका मेरे संवेदनशील मन पर असर पड़ा। मैंने अपने अनुभव खुले मन से लिखे हैं।"3 इसप्रकार आत्मकथा लिखना कोई साधारण कार्य नहीं है। अतीत की यादों में तिल–तिल दहकना होता है क्योंकि आत्मकथा भोगे हुये यथार्थ की कथा होती है, उसमें कल्पना की कोई जगह नहीं होती।

डॉ. अभय परमार जी अपनी आत्मकथा की भूमिका में दया पवांर जी की बात को रखते हुये लिखते है– "प्रसिद्ध दलित साहित्यकार दया पवार अपने आत्मकथन 'बलुत' में लिखते हैं "एक दलित आत्म कथनकार की भूमिका उस पोरताज की तरह होती है जो पूरी ताकत से अपने नंगे बदन पर कोड़े बरसाता है और उन कोड़ों की मार की पीड़ा ही उसकी आत्माभिव्यक्ति है इसमें ललित साहित्यानंद ढूंढने वाले को निराशा ही हाथ लग सकती है। आत्मकथन लेखक को तनी डोर पर बिना किसी सहारे संतुलन बनाये निर्भीक होकर चलना होता है, एक क्षण की गफलत सारे किये कराये पर पानी फेर सकती है। कहा जाता है कि आत्मकथन साहित्य कीसर्वाधिक आसान और मुश्किल होते हुये भी लचीली विधा है। आत्मकथन के लेखक को हर–हाल में जीवन यथार्थ के अधीन रहना होता है। जिस तरह नैसर्गिक जिदंगी का पहले से सोचा समझा कोई शिल्प नहीं हो सकता ठीक उसी तरह अप्रत्याशित परिस्थितियों से सीधी मुठभेड़ होती है जिसमें सीखे हुए दांव–पेच बराबर बेकार जा सकते है। यह जरूर है कि इस संघर्ष से रीते–हाथ लेकर नहीं लौटता।"4

डॉ. अभय परमार अपनी आत्मकथा 'डेथ कान्ट स्टोप मी' मेंअपनेइन अनुभवों के संदर्भ में लिखते है–"जिन्दगी के आंगन में बेतरतीब बिखरे पड़े लम्हों को बटोरने में उनकी तपीश से कई बार ऊँगलियाँ झुलसी हैं तो कई बार यादों की जड़ो तक पहुँचने की जद्दोजहद ने हथेलियों को मिट्‌टी की सौंधी गंध से महका भी दिया है। मैंने वक्त को मुट्‌ठी में बांधकर धीरे–धीरे रेत की तरह सरकाने का उपक्रम किया है, पर वक्त तो आखिर वक्त ही है, भला वह कहाँ रूकता है किसी के लिए। फिर भी हवा में बिखरते अलफाज ज्यादातर अपनी मर्जी से तो कुछ–कुछ मेरे कहने पर रूके हैं पर अपनी–अपनी शर्त पर। जो भी हो पर इन लम्हों की लुका–छुपी के खेल ने बातों–बातों में मुझसे ऐसी अन्दरूनी चीजें उगलवा ली है जो मेरे लिए अभिव्यक्ति के दायरे से कोशों दूर थी। अपनी अनगिनत मर्यादाओं के साथ 'डेथ कान्ट स्टाप मी' के रूप में मैं आपकी हथेलियों और ऊँगलियों से होता हुआ दिल तक पहुँचान चाहता हूँ और मुझे यकीन है मैं सफल भी रहूँगा, क्योंकि जो बातें आपके सामने आयेंगी इसमें से थोड़ी बहुत तो आपको अपनी भी लगेगी। ..............................मैं भी उन सभी साहित्यिक विचारकों के साथ अपनी सहमति जताना चाहूँगा जो कहते हैं कि 'आत्मकथन' लिखने के लिए वैचारिक स्पष्टता–प्रतिबद्धता, प्रामाणिकता, निर्ममता और बेबाकपन की आवश्यकता होती है। यह विधा कई बार नंगी सच्चाई को प्रकट करने का साहस माँगती है।"5

जैसे कि, पहले ही मैंने कहा कि, डॉ.अभय परमार सीधे–साधे सरल स्वभाव के साहित्यकार है। उनकी आत्मकथा भी उनकी तरह ही सीधे–सरल शब्दों में व्यक्त एक दलित परिवार के शिक्षित युवक की कथा है। जिस प्रकार 'शिकंजे का दर्द ' की आत्मकथाकार सुशीला टाकभौरे जी लिखती है– "मेरे लेखन की सफलता कलात्मकता बताने में नहीं बल्कि मानवीय भावना–संवेदना को जगाने में है ताकि समाज की ऐसी परिस्थितियों का अवलोकन करके, चिंतन–मनन के साथ उसका खंडन किया जाए और समतावादी, मानवतावादी स्थितियों का नित्य–नवनिर्माण किया जाए।"6

इसी संदर्भ में डॉ. अभय परमार जी भी अपनी आत्मकथा की भूमिका में लिखते है–"यह आत्मकथन भले ही मुझे कोई प्रसिद्धि या धन संपदा न दे पाये, लेकिन अभिव्यक्ति की इस प्रतिबद्धता को लेकर मैं आश्वस्त हूँ कि यह रचना भोग–विलास मेंलीन चरित्रवालो की नहीं है, यह पाठकों को सम्मोहित करने के लिए कामुक प्रेम–प्रसंगों से कोसों दूर एक गरीब दलित परिवार में पैदा होकर कँटीली राहों पर चलकर शिक्षित हुए युवक के आत्म की आवाज है।"7

डॉ.अभय परमार जी की आत्मकथा 'डेथ कान्ट स्टाप मी' चौदह अध्यायों में विभक्त है। एक सौ बारह पेज की इस आत्मकथा में लेखक के दादाजी जेठाभाभा के जीवन प्रसंगो से लेकर लेखक का आट्‌र्स कॉलेज सन्तरामपुर के लिए अध्यापक के रूप में चयन हुआ, तब तक की जीवन कथा समाहित है। इस आत्मकथन में वह सब–कुछ है, जो एक दलित आत्मकथा में पाठकवर्ग को मिल सकता है। दलित समाज के जीवन व्यथा, वेदना, पीड़ा उनके शोषित जीवन की गाथा, मनुवादी मानसिकता के चलते हर कदम पर मिलता अपमान, चाहते हुए भी प्रगति के पथ पर आगे न बढ़ पाने की विवशता, उस विवशता और अपमान के चलते हीनता का अनुभव होना, खेलने–कूदने के बचपन के दिनों में मवेशियों कोचराना, घर के कामों में हाथ बटाँना आदि। अभय परमार जी ने इन सभी विकट परिस्थितियों के चलते भी अपना रास्ता स्वंय तय किया। शिक्षा का उजाला उनके परिवार में आ चुका था इसलिए शिक्षा के सूरज को लेकर आगे बढ़े और जीवन की उन कठिनाइयों का सामना करते हुए, अपमान सहते हुए भी दलित समाज के लिए ही नहीं समस्त मानव–जाति के लिए प्रेरणा रूप बने।

अभय जी अपने आत्मकथन की शुरूवात में लिखते हैं–"जिन्दगी के लगभग पचास साल के सफर के बाद मुड़कर देखता हूँ तो हैरान सा रह जाता हूँ। जिन्दगी के उन सभी अनगिनत अनुभवों को कलमबद्ध करना मेरे बस की बात तो नहीं है, फिर भी कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जिन पर से अगर समय की धूल को हटाया जाए तो वे आज भी उस मोड़ पर कायम खडी़ हैं ठीक वैसे ही जैसे वह दशकों पहले घटित हुई थी।"8 अर्थात्‌ आज भी मनुवादी मानसिकता का शिकार दलित समाज हो रहा है। जैसे दशकों पहले वह गुलाम था। देश को आजादी मिली परन्तु दलित समाज कोबेड़ीयों से मुक्त नहीं किया गया। आत्मकथाकार अभयजी का जीवन भी उनके समाज को मिली अभिशप्तता से ग्रस्त रहा है। शिकंजे का दर्द की आत्मकथाकार सुशीला जी भी इसी गुलामी रूपी शिकंजे के संदर्भ में लिखती हैं–"शिकंजा एक नहीं, कई थे। उन शिकंजों की जकड़न से जूझते हुए मैं किस तरह पढ़ सकी? किस तरह आगे बढ़ सकी यह मेरी लंबी कथा है शिकंजे तब भी थे, दर्द तब भी था। शिकंजे के दर्द की कथा चल रही है, जिन्दगी के साथ–साथ। "9

अभयजी के दादा जेठाभाभा स्वतंत्र मिजाजी और अन्याय के आगे कभी न झुकने वाले व्यक्ति थे। उनको शिक्षा में रूचि थी इसलिए उन्होंने एक बनिये के सहयोग से गुजराती और अंगे्रजी भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। लेखक के गाँव में मात्र जेठाभाभा ही ऐसे व्यक्ति थे जो पढ़ना–लिखना जानते थे इसलिए आजादी के बाद बनी पंचायती राज–व्यवस्था के सदस्य भी बने। अभयजी स्वंय उनके स्वभाव के बारे में लिखते हैं कि–"अपने स्वतंत्र मिजाज और अन्याय के आगे न झुकने की आदत के चलते वह अपने पुश्तैनी गाँव वाँसडोल को छोड़कर बगल के बड़ोली गाँव में रहने चले गये थे। जब मैं पांचवी या छठी क्लास में पढ़ता था तब हर रोज सुबह सात बजे उन्हें दूध पहुँचाने जाता था। शनि–रविमैं वहाँ ही रूक जाता। जेठाभाभा मुझे बेहद प्यार करते थे। बस–स्टैण्ड पर ही घर होने के कारण दिन भर असंख्य लोग आते–जाते रहते थे। उन्होंने आँगन में एक छोटी–सी कुँई बना के रखी थी जहाँ रस्सी और डोल बाल्टी भी रखी रहती थी। आने–जाने वाले सब लोग वहाँ पानी पीते थे। जेठाभाभा कबीर का दोहा अक्सर दोहराया करते थे–
'कबीर कहे कमाल को, दो बाते सीख ले
प्यासा को पानी और भूखे को अन्न दे।'"10
इसप्रकार उनके दादाजी सभी की सेवा करने वाले और सरल–स्वभाव के धनी थे। लेखक उनके लाडले थे। बचपन से ही लेखक अपने दादाजी को दूध पहुँचा कर उनकी सेवा करते यह गुण भी उन्हें उनके दादाजी से मिला था। लेखक के दादाजी से मिला था। लेखक के दादाजी हमेशा लेखक की तारीफ किया करते थे कि वह एक दिन जरूर कुछ बनेंगे। स्वंय लेखक के शब्दों में–"जब कोई जेठाभाभा से बच्चों और परिवार के बारे में पूछता तो वह मेरी ओर देखकर कहते 'देखो यह दिखने में काला जरूर है पर मन इसका साफ है। जरूर एक दिन कुछ करके दिखाएगा।' तब मुझे उनकी बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगती थी, पर जब आज मैं महाविद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर पहुँचा हूँ तो सोचता हूँ कि, कितनी ताकत होती है बुजुर्गो के आर्शीवचन में।"11

दलित समाज ने शिक्षा को मूलमंत्र बनाया और लेखक के दादाजी से लेकर सभी ने शिक्षा को महत्व दिया था। उनकी दादी की असामयिक मृत्यु ने उनके पिताजी को किसान बना दिया औरपढ़ने का अवसर नहीं मिल पाया लेकिन उनका गुजराती भाषा का ज्ञान गजब का था। उन्होंने अपनी चारोंसन्तानों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा। क्योंकि शिक्षा ही उनके अंधकारमय जीवन का उजाला थी। यह बात वे भली–भाँति जानते थे।

सदियों से गांवों से दूर हाशिये पर रहकर पशुवत्‌ जीवन जीते आया है। वर्ण–व्यवस्था का शिकार दलित समाज नारकीय जीवन बिताने को मजबूर रहा है। "वर्ण–व्यवस्था ने भारत को बिखरा कर रख दिया है और एकता को बुरी तरह कुचलडाला है जिसके परिणामस्वरूप भारत की हजारों वर्षो की नासूर बनी गुलामी का इतिहास और विभाजन की त्रासदी से राहत पाना मुश्किल हो रहा है। भारत को आजादी के पूर्व दो घड़ों में बिखराने की कवायत के बाद भी श्रमजीवी समाज के लगभग बीस फीसदी हिस्से को दलित– अछूत कहकर तिरस्कृत किया जार हा है। अपने ही देश की विशाल आबादी को अधिकार और आजादी से वंचित रखकर उस पर अन्याय–अतयाचार लगातार जारी है। चेतना शून्य दलित समाज के दमन औरउत्पीड़न की प्रक्रिया, दुत्कार और मानसिकता थमने के, समाप्त होने के आसार नज़र नहीं आते परिणामस्वरूप समतामूलक समाज की आधारशीला और नींव हाशिए में अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही है।"12

दलित समाज हजारों वर्षो से शिक्षाहीन रहा लेकिन जब उसके हिस्से शिक्षा आने का समय आया तो उनको कई ऐसे शिक्षक मिले जिन्होंने द्रोणाचार्य की भूमिका निभाई। दलित समाज के बच्चों को कक्षा में दूर सबसे पीछे बिठाना, उनका बात–बात पर अपमान करना, उन्हे यह एहसास दिलाना कि वे शिक्षा के लिए नहीं बने वे तो अपने परम्परागत कार्यो के लिए जन्मे हैं। वे पढ़–लिखकर क्या करेंगे? आदि बातोंका सहारा लेकर शिक्षा से वंचित रखा गया।वांसडोल जहाँ लेखक का जन्म हुआ उसके पास ही कुकड़िया गाँव के सरकारी स्कूल के बारे में बताते हुये वे लिखते है–"वाँसडोल से करीब आधा किलोमीटर दूर कुकडिया गाँव में सरकारी प्राइमरी स्कूल बना था। आज भी पुरानी पीढ़ी के लोग अपने बुरे अनुभवों को याद करते हैं–कुकडिया में ही सरकारी प्राइमरी स्कूल बना था जहाँ ब्राह्मण शिक्षक हुआ करते थे। दलितों के बच्चों को इतनी दूर बिठाया जाता कि जहाँ से इन्हें न तो ब्लैक बोर्ड सही ढंग से नजर आता था और न मास्टर साहब कीआवाज साफ सुनाई देती थी। बस सुनाई देती थी तो उनकी माँ–बहन की गालियाँ। ब्र्राह्मण शिक्षक यही चाहते थे कि कोई दलित बच्चे पढ़ न पाये। जब कभी अनपढ़ दलित अपने बच्चे को प्रवेश दिलवाने जाते तो वह पूछते–क्या नाम लिखूँ? अनपढ़ दलित बच्चे के नाम का उच्चारण स्पष्ट रूप से करना नहीं जानते थे, कुछ भी बोल देते थे और ब्राह्मण शिक्षक वही नाम लिख देता था। जैसे रामचंद के लिए रामसो, पुरूषोत्तम के लिए परसो। स्कूल सर्टीफिकेट में भी ऐसेजातिगत अपमान सूचक शब्द लिख देते थे कि दलित लड़का बड़ा होकर पढ़–लिखकर अफसर बने पर अपना स्कूल सर्टीफिकेट दूसरो को दिखाने में बड़ा ही संकोच अनुभव करे। ब्राह्मण मास्टर का यही मूलमंत्र था अगर दलित पढ़–लिख गये तोहमारी गुलामी कौन करेगा।"13 यही बात 'तिरस्कृत' के लेखक सूरजपाल चौहानजी बताते है कि, "स्कूल में दाखला बड़ी मुश्किलों से मिलता और जब मिलता तो अध्यापकगण जातीयबोध कराते रहते। संस्कृत पढ़ाने वाले वेदपाल शर्मा लेखक को बार–बार जाति याद करवाते एक दिन उन्होंने लेखक की तरफ इशारा करते हुए अन्य साथी अध्यापकों से कहा–"यदि देश के सारे चूहड़े–चमार पढ़–लिख गए तो गली–मुहल्लों की सफाई और जूते बनाने का कार्य कौन करेगा?"14

शिक्षा की समस्या दलित समाज की मुख्य समस्या है| शिक्षा प्रगति का द्वार है, जिसके खुलते ही विकास के अन्य सभी द्वार खुल जाते हैं| आज भारतीय समाज में परिवर्तन मिलता है| वह शिक्षा से जाग्रति के कारण ही सिद्ध हो पाया है| शिक्षा का अर्थ केवल डिग्रियाँ नहीं बल्कि उसका लक्ष्य नई चेतना का विकास होता है| शिक्षा अस्मिता के निर्माण के लिए आवश्यक है| शिक्षा का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव समस्त जीवन पर पड़ता है| दलित समाज ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कई कठिनाइयों का सामना किया और वे शिक्षा प्राप्त का आगे आए हैं|

मनुस्मृति में दलितों के आर्थिक पहलू के बारे में कहा गया है कि, धनोपार्जन में समर्थ होने पर भी शूद्र को संग्रह नहीं करना चाहिए क्योंकि वह धन प्राप्त कर ब्राह्मणों को पीड़ित करने लगता है| इस प्रकार इस समाज की आर्थिक स्थिति कमजोर ही रही| किसी भी समाज कि उन्नति एवं विकास में आर्थिक पक्ष का महत्वपूर्ण योग रहता है|आर्थिक स्थिति के आधार पर ही समाज व राष्ट्र प्रगति कर पाता है| हिंदी दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ पुस्तक में लिखते है- “ दलितों का जीवन जहाँ सामाजिक उत्पीड़न, शोषण, दमन से भरा हुआ है| वहीँ व्यवस्था के नाम पर लादी गई मर्यादाएं, बंधन दलित जीवन कि विपन्नताएं बनकर रहें हैं| आर्थिक विवशताओं और विसंगतिपूर्ण स्थितियों ने दलित जीवन को नरक बनाया है| ग्रामीण परिवेश के जातीय उत्पीड़न से पलायन कर शहरों, महानगरों की ओर आने वाले दलितों के भीतर हीनता भाव इतना गहरा होता है कि, उसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है|”15

हिंदी दलित आत्मकथाकारों ने जिस आर्थिक व्यवस्था को झेला, उसमें वे रात-दिन पसीना बहाने पर भी भूखे पेट सोएं हैं| साथ ही बेगार प्रथा ने उनका खून चूसा है| लेखक के पिताजी घर की जिम्मेदारीयों के कारण पढ़ नहीं पाये और लेखक के काका पढ़ कर अच्छी नौकरी करने लगे तो उनका परिवार आर्थिक रूप से सक्षम हो गया। कहने का आश्रय कि, शिक्षा मानव–जीवन की दशा बदलने में सहायक होती है। लेकिन जहाँ शिक्षा ना मिले वहाँ लेखक के परिवार की तरह आर्थिक बोझ व्यक्ति को उतरन पहनने पर मजबूर कर देता है व्यक्ति परिस्थिति के हाथों मजबूर हो जाता है। अपने परिवार की आर्थिक स्थिति का वर्णन करतेहुए वे लिखते हैं– "लगातार अकाल, सिर्फ दो एकड़ की जमीन और खाने वाले छः लोग। एक साधो तो तेरह टूटते थे। अगल–बगल के कुछ लोग हमें इन कपड़ों में देख थोड़ा बहुत मजाक भी कर लिया करते थे। मैं अर्पण की सफेद कमीजपहन कर स्कूल जाता था उसकी बाई तरफ सरस्वती विद्या मंदिर नरोडा का लोगो छपा होता था। टीचर उसे निकाल देने के लिए कहते थे, पर यह नामुमकिन था अगर लोगो निकाले तो शर्ट फट सकती थी। शंकरचार कपास या गंगा मकाई कीकाँटन की थैलियों को धो–धोकर साफ करके हम इनमें से अपने अंडरवियर सिलवा लेते थे। हालाँकि बस्ती के लोगो का यही हाल था। चुनाव प्रचार में काँग्रेस या दूसरी पार्टी वालों ने दीवारों पे या चौराहों पे लगाये बैनरों को निकलवाकर अपना चड्‌डी–बनियान बना लेते थे। यूरीया खाद की नायलोन की पच्चीस किलो की बेग से हम सभी भाई बहनों के स्कूल के बैग बन जाते थे। बस्ती में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था जिसकी पैन्ट में पीछे से थिगली नलगी हो। पैन्ट का कलर और उसके पीछे के भाग पर लगायी गयी थिगली का कलर भी ज्यादातर अलग ही होते थे। हाँलाकि इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता था, क्योंकि हर किसी का यही हाल था।"16

इसी संदर्भ में लेखक आगे लिखते है––"हम चारों भाई–बहन सहित माँ और पिताजी ने कभी नये कपड़े और जूते नहीं खरीदे थे। अहमदाबाद में रह रहे हमारे चाचा और फूफा का परिवार उनके पुराने कपड़े और जूते हमारे लिए भेज देते थे। हालाँकि वह इतने भीतो पुराने नहीं होते थे। कुछ तो बिल्कुल नये ही होते थे। राजेश फूफा के कपड़े पिताजी और सुरेशभाई पर सेट हो जाते थे, जबकि शान्ता भूवा और राजूकाकी के कपड़े मेरी माँ पहन लेती थी, कुछ–कुछ कल्पना और विलास केहिस्से में भी आता था। अर्पण के कपड़े मैं पहन लेता था। आज भी मेरे घर की गुदड़ी के टाँके उधेड़कर देखा जाये तो इनके अवशेष जरूर मिलेंगे। यह हमारी मजबूरी थी"17

दलितों में अर्न्तविरोध की बात प्रत्येक आत्मकथाकारने अपने आत्मकथन में कही है। जब दलित समाज के कुछ लोग शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ते हैं, अच्छे पदों पर कार्य करते हैं, तब वह अपने ही समाज से घृणा करने लगते हैं। क्या ऐसा व्यवहार उन्हें शोभा देता है? उन्हें चाहिए कि, जिस प्रकार वे आगे बढ़े हैं , वैसे ही अपने समाज के उत्थान में अन्य लोगों को भी आगे लेकर आए, उन्हें आगे आने में उनका मार्गदर्शन करे, उनकी सहायता करें। न कि अपने ही समाज के साथ सवर्णो जैसा व्यवहार करे।

लेखक के पिताजी को हिस्से में प्लोट मिला था लेकिन आर्थिक रूप से वे इतने समर्थ नहीं थे कि, उस पर मकान बनवा सके। लेखक के छोटे काका गोविन्दकाका के हिस्से मकान आया था जिसमें लेखक का परिवार रहता था क्योंकि गोविन्दकाका की नौकरी थी। इसलिए वे उनके परिवार के साथ बाहर रहते थे। लेकिन जब भी वे पूरे परिवार समेत गाँव आते तो उनका व्यवहार अलग ही होता वो लेखक के परिवार को अपने परिवार की तरह नहीं मानते। गोविन्दकाका, शान्ताभूवा, जशुभूवा, माणेकभूवा, कल्पना, विलास, सुरेश आदि लेखक के कुटुम्ब के सदस्य शिक्षित होने के कारण शहर में रहने चले गये थे। उनके विचार बदल चुके थे। वे सभी लेखक के परिवार के साथ सवर्णो जैसा बर्ताव करते।स्वंय लेखक के शब्दों में –"हम गोविन्दकाका के घर मेंही रहते थे। इसलिए उनका हम पर अबाधित अधिकार था। कल्पना, विलास, सुरेश और मैं उनके छोटे–मोटे कामों के लिए हरदम तैयार रहते थे। पूरा वेकेशन माँ चुप–चाप उन्हें रोटियाँ बनाकर खिलाया करती थी। इन सबके बावजूद भी उन लोगों का हमारे साथ व्यवहार कुछ अजीब–सा होता था। वे वैसा ही व्यवहार करते जैसा कोई सवर्ण अनपढ़ दलित के साथ करता हो। शान्ताभूवा, जशुभूवा, माणेकभूवा हमारी प्लेट में चाय नहीं पीती थी। या तो वे अलग माँजी हुई कटोरी मँगवाती या फिर ग्लास में ही चाय पीती थी। हाँलाकि उनके इस प्रकार के व्यवहार को लेकर माँ या बापूजी ने कभी भी आपत्ति नहीं की थी। नतमस्तक हम लोगों ने अपना स्थान स्वीकार कर लिया था और करें भी तो क्या करे? कोई चारा भी तो नहीं था। वे लोग सुबह जगने के तुरंत बाद शौच के लिए निकल पड़ते, बाद में नहाते और प्रेस किये हुए स्वच्छ कपड़े पहन रंगीन गोगल्स लगा लेतेऔर माथे पर धूप से बचने के लिए जींस की टोपियाँ भी पहन लेते। उनके बदन बिल्कुल सफेद थे, पास खड़े रहो उनसे घी–दूध की खूशबू आती थी। जबकि हमारा हाल बेहाल था। शौच का कोई ठिकाना नहीं जिसका खाने का कोई ठीकाना न हो भला उसके शौच का ठिकाना कैसे होगा?"18

हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था कोई प्रथा नहीं बल्कि गुलामी की निरंतर चलती रहने वाली व्यवस्था है| जिसका प्रभाव व्यक्ति के शरीर से लेकर आत्मा तक और जन्म से लेकर म्रत्यु तक चलता है| भारतीय समाज में जातीय व्यवस्था जीतनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी उसके विरोध की संघर्ष गाथा है| "हिन्दू धर्म में हजारों साल से जाति प्रथा विद्यमान है जिसके कारण ऊँच–नीच भी बहुत है। इस जाति प्रथा की सच्चाई यह है कि, इसे न तो मुसलमानों ने खत्म किया और न अंग्रेजों ने बल्कि यह भी सच है कि इसे खत्म करने के बारे में किसी ने सोचा तक नहीं। क्योंकि हर शासक यह मानकर चलता रहा है कि नियम कानून आर्थिक लूट और अनुशासन को अमलीजामा पहनाने के लिए होते हैं, समाज को बदलने के लिये नहीं। जिस दिन समाज को बदलने के बारे में सोचने लगेंगे उस दिन समाज की रुढ़ियों में विश्वास रखने वाले अधिसंख्य लोग सत्ता को ही बदल देंगे। .............तो जो अधिक हैं वे कम संख्या वाले क्रांतिकारीयों को क्यों चाहेंगे कि वे समाज को बदलें? वे तो चाहते हैं कि समाज जिस तरह चल रहा है, चलता रहे।"19 यही हमारे समाज की वास्तविकता है। इसलिए तो दलित समाज से जाति कभी जाती ही नहीं है। अभय परमारजी के जीजाजी को एम.बी.बी.एस. के फाइनल यर में साजिश के तहत फेल कर दिया जाता है। उनका गुनाह इतना था कि, वे दलित थे। उनकी जाति उनका पीछा नहीं छोड़ती। मेडिकल में दलित, आदिवासी छात्रों को फेलकर दिया जाता है ऐसा उनके जीजाजी आत्मकथाकार को बताते है। लेकिन वो अपने जीजाजी की बात पर विश्वास नहीं करते है। लेकिन आत्मकथाकार बताते है कि, यह बात उन्हे तब समझ आयी जब वे उच्च अभ्यास हेतु स्वंय अहमदाबादआते हैं वे लिखते है–"उस समय यह बात मेरी समझ में नहीं आयी थी, लेकिन जब मैंउच्च अभ्यास हेतु गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद गया और नरसिंह भगत छात्रालय में रहने लगा तह मुझे उनकी बात की सच्चाई मालूम हुई। हॉस्टल में अलग–अलग शाखाओंके छात्र रहते थे। और जात–पाँत को लेकर सबको परेशानी झेलनी पड़ती थी। कुछ छात्र तो अपना पता नरसिंह भगत हाँस्टल नहीं लिखवाते थे, क्योंकि इससे भी लोगों को पता चल जाता था कि यहअनुसूचित जाति या जनजाति का छात्र है। हॉस्टल में रहने वाले छात्रों में सर्वाधिक परेशान मेडिकल के ही छात्र होते थे।"20

भारतीय समाज में अंधविश्वास एवं रूढ़िगत मान्यताएं सदियों से व्याप्त हैं| उसमें भी दलित समाज कभी इससे अछूता नहीं रहा है| आज भी परिवार में किसी के बीमार होने पर, संतान प्राप्ति के लिए घर पर ओझा को बुलाया जाता है, जो तंत्र-मंत्र से कई दुःख-दर्द दूर करने का ढोंग करता है| कई बार तो उसके लिए निर्दोष मूक जानवरों की बलि भी दी जाती है|

लेखक बताते हैं कि, गाँव में सभी लोग भूत–प्रेत पर विश्वास करते ऐसे में लेखक की बहन कल्पना को बीमारी हो गई थी उसे दौरे पड़ने लगे थे। लेखक बताते है कि, "गर्मी के दिनों में कल्पना की बीमारी और बढ़ जाती। रात के आठ–नौ बजते ही सारा तमाशा शुरू हो जाता। बस्ती के सारे लोग इकटठे हो जाते। इन दिनों पास–पड़ोस के गाँव से भी कुछ लोग मेहमान बनकर बस्ती में आये होते। वे लोग भी अपनी–अपनी दैवी शक्ति का प्रयोग करते। दलित समाज में और कोई शक्ति हो न हो, परंतु हर तीन व्यक्ति में से एक के पास अपनी फेमिली प्रेतात्मा होती है और वह आँबिडियन्ट बनकर अपने मालिक की इच्छानुसार सब कार्य करती है। कुछ लोग कल्पना जिस चारपाई पर सोई होती उसके पास जाकर "हाट–हट,हू–हू" की आवाजें करते और उसके अंदर रही प्रेतात्मा को भगानेकी कोशिश करते, पर अंत में हर हार मान जाते। कहते–"मानो या न मानो चीज बड़ी खतरनाक है इतनी आसानी से लड़की का पीछा नहीं छोड़ेगी।"21

इसी सन्दर्भ में ओमाप्रकाश वाल्मीकि अपने समाज की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं- “भुत-प्रेत कि छायाओं के प्रति पूरी बस्ती में अजीब माहौल था| जरा भी किसी की तबियत खराब होती तो डॉक्टर कि बजाय किसी भगत को बुलाया जाता था| अक्सर किसी भूत का जिक्र करके भगत भूत पकड़ने की क्रियाएं करता था जिसके बदले में देवी-देवताओं पर सुअर, मुर्गे, बकरे और शराब चड़ाई जाती थी|”22कहने का तात्पर्य यह कि, आज भी दलित समाज अंधविश्वास व् रूढिगत मान्यताओं से दबकर ओझा जैसे शोषकों के हाथों शोषित होता है| ये अंधविश्वास यहाँ तक सीमित नहीं हैं| किसी के बीमार होने पर मूक पशुओं की बलि देना आम बात होती| देवी के नाम पर सुअर, बकरा, मुर्गा आदि की बलि दी जाती और बिरादरी के लोग शौक से भोज का आनंद लेते|

इसप्रकार लेखक ने अपने जीवन के अच्छे–बुरे सभी अनुभवों को इस आत्मकथा के माध्यम से हमारे समक्ष रखा है। दलित समाज के यथार्थ को, उनकी समस्याओं को, उनके साथ समाज में हो रहे र्दुव्यवहार, नवरात्रि उत्सव, खेतों में मवेशीचराना, खेत के काम करना, भूरी भैंस, प्रकृति–चित्रण, दलितों में "गरो" नामक जाति, "तुरी" नामक दलित कौम, गर्मी की छुटि्‌टयों में पक्षीयों के शिकार,आर्थिक बदहाली, आत्मकथाकार के अन्य तीन काकाओं का व्यवहार, लेखक की भाभी लाडू के ट्रांसफर, दलित छात्र के साथ भेदभाव, दसवीं की परीक्षा में फेल होने की घटना एवं नये मकान की नींव खुदाई, लेखक के नेतृत्व में कई बार कक्षाओं में संविधान निर्माता बाबा साहब आंबेडकर की तस्वीर लगाना, आरक्षण के समर्थन में रैली निकालने का निश्चय करना, मई के गर्मी के दिनों में अपनी सहपाठी सुरेखा मिस्त्री के आग्रह करने के कारण उसके साथ जीवन में प्रथम बार आइसक्रीम खाना, बीजली के बिल के लिए दी गई रकम को लेखकके द्वारा आइसक्रीम पर खर्च करना , पुलिसतंत्र के भ्रष्टाचार और अमानवीय व्यवहार, इडर में लगने वाले आठम के मेले का सौंदर्य, रानी तालाब, गंभीरपुरा की घाटियों, इडरीया गढ़, रूठी रानी का मालिया, पवित्र शिव मंदिर, जैनमंदिर, अंग्रेजों द्वारा निर्मित वूड हाउस लाइब्रेरी, खरादी बाजार, रामचन्द्र विहार नामक ऐतिहासिक स्थल आदि का वर्णन कर प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण किया है।

अंत मेंगुजरात युनिवर्सिटी में बिताए पल, नरसिंह भगत,छात्रालय में एडमिशन, हास्टेल मेदलित छात्रों के बीच अर्न्तविरोध, समाजशास्त्र विभाग के अध्यापक से युनिवर्सिटी छात्रालय में प्र्रवेश हेतु अरजी करना और उनके द्वारा अपमानित होना, रोहित साहब, रघुवीर चौधरी और महावीरसिंह चौहानसाहब का गुरू के रूप में मिलना, एम.ए. में लघुशोध प्रबंध के लिए लेखक का चुना जाना, प्रोफेसर रघुवीर चौधरी के निर्देश में लघुशोध प्रबंध कार्य करना, उनके साथ पढ़ने वाली छात्रा का डिजर्टेशन करवाने में आर्थिक सहयोग करना, एम. ए. में लेखक का फर्स्ट आना, और अंत में लेखक का आदिवासी आटर्‌स कामर्स कोलेज,संतरामपुर में नौकरी के लिए चुना जाना तक का वर्णन लेखक ने किया है।

अंत में यह कहना चाहूंगी कि–
"कत्ल केवल वो नहीं होता,
जख्म केवल वो नहीं होता, जो जिस्म से लहू को बहाए
कातिल वो भी होता है, जो लफ्ज़ों के तीर चलाये
जख्म वो भी होता है, जो रूह का नासूर बन जाए"23
यह आत्मकथा मात्र उनके जीवन की कहानी नहीं अपितु उनके पूरे समाज की गाथा का चित्रण है। यह आत्मकथा संघर्ष में घुटती जिन्दगी का यथार्थ प्रकट करती है। डॉ.अभय परमार ने अपने समाज के उत्पीड़न तथा नग्न सच्चाईयों को उकेरा है। आत्मकथाकार ने जातीय दंश झेले है| उन्होंने बार-बार ब्राह्मणवाद की साजिशों का सामना करना पड़ा है| डॉ. अभय परमार ने संघर्ष पर संघर्ष किया है लेकिन हार नहीं मानी| उन्होंने समाज के दोहरे चेहरे वाले लोगो को बेनकाब किया है| ये आत्मकथा व्यक्ति की नहीं बल्कि वर्ग विशेष की आपबीति है| जिसमे रुग्ण समाज और देश के कुरूप चेहरे उजागर हुए हैं| डॉ. अभय परमार संघर्ष करते-करते अपने जीवन को उज्जवल बना पाए हैं और इनका जीवन सिर्फ दलित बालकों, युवाओं के लिए ही नहीं अपितु समस्त समाज के लिए प्रेरणारूप बना हुआ है|

संदर्भ
  1. जूठन–ओमप्रकाश वाल्मीकि–भूमिका से
  2. अपने–अपने पिंजरे–मोहनदास नैमिशराय–भूमिका से
  3. दोहरा अभिशाप–कौशल्या बैसंत्री–भूमिका से
  4. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार–भूमिका से
  5. वही–भूमिका से
  6. शिकंजे का दर्द–सुशीला टाकभौरे–मनोगत से
  7. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार–भूमिका से
  8. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार–पृ–9
  9. शिकंजे का दर्द–सुशीला टाकभौरे–पृ–17
  10. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार –पृ–9
  11. वही–पृ–10
  12. आश्वस्त–फरवरी–2020,पृ–15
  13. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार –पृ–11
  14. तिरस्कृत–सूरजपाल चौहान–पृ–29
  15. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र–ओमप्रकाश वाल्मीकि–पृ–76
  16. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार –पृ–59
  17. वही–पृ–59
  18. वही–पृ–6
  19. पहल–117 पत्रिका ,जून–2019–पृ–215
  20. डेथ कान्ट स्टाप मी– डॉ.अभय परमार–पृ–61
  21. वही–पृ–43
  22. जूठन–ओमप्रकाश वाल्मीकि–पृ–37
  23. आश्वस्त मासिक पत्रिका–फरवरी–2020,पृ–8
डॉ. गायत्रीदेवी जे. लालवानी, आसिस्टंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्री कृष्ण प्रणामी आर्ट्स कॉलेज, दाहोद, गुजरात| सचलभाष- 7984498390