Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature
दलित कविता साहित्य का विकास
“हिन्दी दलित कविता मध्यकाल में निर्गुण संत रैदास और कबीर से होती हुई जिस तरह हीरा डोम और अछूतानन्द तक आयी है, इसके बीच में लगभग 500 वर्षों का अन्तराल है। निश्चित रूप से इस बीच भी कुछ कवि हुए होंगे, जिन्होंने वर्चस्ववादी हिन्दू धर्म और संस्कृति के विरूद्ध आवाज उठाई होगी। सन् 1914 के बाद भी दलित कविता कभी लोकगीत के रूप में, तो कभी रैदास और अम्बेडकर के जीवन और विचारों के काव्यात्मक आख्यानों के रूप में निरन्तर विकसित होती रही है, लेकिन साठ के दशक में मराठी के दलित कवियों ने अपनी विद्रोही चेतना से संपूर्ण मराठी साहित्य की नींव हिला दी, जिसके कारण उसे देश में ही नहीं, विदेश में भी मान्यता प्राप्त हुई। उसी से प्रेरणा लेकर हिन्दी के कवियों ने भी दलित कविता का सृजन किया जो अब प्रतिष्ठित होकर स्थापित हो गई है।”

हिन्दी दलित कविता की स्थापना में कुछ काव्य संकलनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें ‘पीडा जो चीख उठी’ और ‘दर्द के दस्तावेज’ महत्वपूर्ण हैं। ‘पीडा जो चीख उठी’ में पच्चीस दलित कवियों की दो-दो कविताएं संकलित हैं। यह पहला दलित कविता संकलन है, लेकिन इसका कोई संपादक नहीं है। डॉ. एन. सिंह द्वारा संपादित काव्य संकलन ‘दर्द के दस्तावेज’ को हिन्दी दलित कविता के पहले और प्रतिनिधि संकलन के रूप में मान्यता मिली है। डॉ. चरणसिंह वर्मा ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि- “अज्ञेय ने जिस प्रकार ‘तार सप्तक’ का संपादन कर हिन्दी साहित्य को नई कविता से परिचित करवाया था, ठीक उसी प्रकार डॉ. एन. सिंह ने भी ‘दर्द के दस्तावेज’ का संपादन कर हिन्दी को दलित कविता से परिचित करवाया है।” श्री राधेश्याम तिवारी ने लिखा है कि- “अनेक कवियों की कविताओं के इस संकलन का सम्पादन डॉ.एन. सिंह ने किया है। यह संग्रह दलित साहित्य के चयन की दिशा में एक स्मरणीय प्रयास है। संग्रह के कवि डॉ. प्रेमशंकर, डॉ. सुखबीर सिंह, डॉ.चन्द्रकुमार बरठे, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहन नैमिशराय, डॉ. राम शिरोमणि होरिल, डॉ.दयानन्द बटोही, डॉ.एन.सिंह, डॉ.भूपसिंह रघुनाथ प्यासा है।”

डॉ. एन. सिंह का ‘दर्द के दस्तावेज’ का मराठी अनुवाद डॉ. पद्मजा घोरपडे ने किया है। 1998 में एन.सिंह ने बारह प्रतिनिधि कवियों की कविताओं का संकलन ‘चेतना के स्वर’ सम्पादित किया है। इस कालावधि में जो दलित कवि प्रकाश में आये हैं, इनका विकास यहाँ प्रस्तुत है।

हिन्दी में दलित कविता का प्रारंभ बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में हुआ है। इसके प्रारंभिक दौर में श्रीमाताप्रसाद और डॉ. रामशिरोमणि ‘होरिल’ जैसे कवियों का सृजन देखा जा सकता है। डॉ. होरिल ने अपने काव्य में प्रेमानुभूति का चित्रण किया है। उनके काव्य संग्रहों में ‘कलील के काँटे’ और ‘जीवन राग’ मुख्य है।

“माप्रसाद राजनीतिक व्यस्तताओं के बीच उनका साहित्य सृजन निरन्तर चलता रहा, क्योंकि वे जानते हैं कि भारतीय समाज में विभाजन और विषमता का जो विष बीज हजारों वर्ष पूर्व बोया गया था, अब वह फल-फूल कर इतना व्यापक हो गया है कि उसे सहसा उखाडकर फेंका नहीं जा सकता। उसकी असर को धीरे-धीरे समाप्त किया जा सकता है और यह काम केवल साहित्य ही कर सकता है। अत: उन्होंने हिन्दी में दलित साहित्य की नींव उस समय डाली, जब शेष लोग सोच भी नहीं रहे थे। उनकी कृतियों में दलित समाज सम्बन्धी लोकगीत, ‘अछूत का बेटा’, ‘धर्म के नाम पर धोखा’, ‘प्रतिशोध’, ‘वीरांगना झलकारी बाई’, ‘वीरांगना ऊदा देवी पासी’, ‘धर्म परिवर्तन’(नाटक), तथा ‘हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा’, ‘उ.प्र.की दलित जातियों का दस्तावेज’, ‘मनोरम भूमि अरुणाचल’, ‘पूर्वोत्तर भारत के राज्य’ के अतिरक्त ‘एकलव्य’ खण्डकाव्य, ‘भीमशतक’, ‘दिग्विजयी रावण’ प्रबंधकाव्य, ‘राजनीति की अर्द्धसतसई’ तथा ‘परिचय सतसई’ आदि उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं।”

माताप्रसाद ने ‘राजनीति की अर्द्धसतसई’ में दलित नारी और राजनीति को अपने दोहों का विषय बनाया है। इन दोहों में उन्होंने बहुत ही प्रभावी चित्रण किया है। इनकी पीडा भी इनके दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है।

लालचंद्र राही का नाम हिन्दी दलित कविता के क्षेत्र में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी कविताओं का संग्रह ‘मूक नहीं मेरी कविताएँ’ नाम से प्रकाशित है। उनकी एक कविता ‘स्वतंत्रता के बाद’ की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
“पण्डे देवपाल के
अछूत को
उसकी बेटी के साथ
बलात्कार हुआ
और मंदिर अपवित्र नहीं हुआ
छब्बीस जनवरी की रात को
स्वतंत्र भारत के
एक छोटे से गाँव में”
डॉ. राजपाल सिंह ‘राज’ का नाम अग्रणी कवियों में लिया जाता है। उनकी कृतियों का उल्लेख श्री मोहनदास नैमिशराय ने इस प्रकार किया है- “संत रविदास और उनका साहित्य(1987), राजप्रिया(1985), जाटव जागृति(1986), भीम भारती(1987), समता स्त्रोत-बाबू जगजीवन राम(1988), दलित साहित्य की रूपरेखा(1989), बिहारीलाल हरित और उनका साहित्य(1989), सन्मार्ग (कहानी संग्रह), चौकसी और लांछन(उपन्यास)(1990), बाबा और ‘बाबू तथा बलिदानी ऊधम सिंह’ है।” काव्य में ‘भीम भारती’ ही राजपाल सिंह की कीर्ति का स्तम्भ है, जिसमें उन्होंने भीमराव अम्बेडकर के माध्यम से दलित जागृति का संदेश दिया है।

एन. आर. सागरने डॉ. अम्बेडकर की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया है। इनकी कृतियों में ‘अंतिम अवरोध’, ‘लाजवन्ती’, ‘भीम प्रशस्ति’, ‘आक्रोश’, ‘आजाद हैं हम’ मुख्य हैं। ‘आजाद हैं हम’ उनकी प्रतिनिधि रचनाओं का संग्रह है। लक्ष्मीनारायण सुधाकर अनुसूचित जाति के निर्धन परिवार में जन्मे थे। महाकवि बिहारीलाल हरितजी के सानिध्य में ही सुधाकर जी ने कई काव्यकृतियों का प्रणयन किया है। इनकी कृतियों में “बुद्ध और बोधिसत्व अम्बेडकर(संपादित), भीम सागर(प्रबंध काव्य), अम्बेडकर शतक(काव्य) तथा ‘उत्पीड़न की यात्रा’(काव्य संग्रह) महत्वपूर्ण हैं। डॉ. अम्बेडकर के संपूर्ण जीवनवृत पर आधारित ‘भीम सागर’ उनका प्रतिनिधि महाकाव्य है।” ‘उत्पीड़न की यात्रा’ काव्य संग्रह की ‘कब बीतेगा युग काला’ काव्य में दलितों की स्थिति का चित्रण किया है-
“मनुस्मृति की रीति नीति अब और सहीं नहीं जाती।
जातिवाद की नागिन दलितों पर ही घात लगाती।।
लोकतन्त्र का निकल चुका है जैसे आज दिवाला।
कब बीतेगा युग काला।।”
डॉ. दयानन्द ‘बटोही’ अपने सामाजिक जीवन की विसंगतियों के कारण कलम उठाने पर विवश हुए। अपनी सहज सरल प्रवृतियों के कारण साहित्य जगत में लोकप्रिय हुए। उनके काव्य संग्रह ‘यातना की आँखें’ नवगीत विधा में सामाजिक विसंगतियों को अभिव्यक्ति देता है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘द्रोणाचार्य सुनें उनकी परम्पराएं सुनें’ कविता में दलित छात्रों के साथ हो रहे अन्याय को अभिव्यक्त किया है।

हिन्दी दलित कवियों में डॉ. सोहनपाल ‘सुमनाक्षर’ का नाम अपना एक अलग महत्व रखता है। उनके दो महत्वपूर्ण काव्य संग्रह- ‘अंधा समाज : बहरे लोग’ तथा ‘सिन्धु घाटी बोल उठी’ प्रकाशित हुए है। उनकी कविता ‘फूलन हमारा आदर्श है’ में लिखते हैं -
फूलन
दलित शोषित समाज का प्रतीक है
चाहे उसे कितना भी बदनाम करो
तोहमत धरो वह
हमारी ही नहीं
सारी नारी जाति की
शौर्य गाथा है।”
कवि सुखबीर सिंह ने विपुल मात्रा में साहित्य सृजन किया है। उनकी कृतियों में ‘बयान बाहर’, ‘अनन्तर’ और ‘सूर्यांश’ काव्य संग्रह हैं। उनको कविता के क्षेत्र में पर्याप्त सम्मान प्राप्त हुआ है। उनकी काव्य कीर्ति का स्तंभ उनकी लम्बी कविता ‘बयान बाहर’ है। उनका एक अंश यहां प्रस्तुत है-
“खुद चाहे कीचड़ में
कांटों में
खड़े रहे एक पांव
पर अलग हटकर
जाति की श्रेष्ठता में अकड़े हुए
नीच से नीच व्यक्ति के लिए भी
राह बनानी है।”
प्रखर आलोचक और कवि डॉ. प्रेमशंकर का एक दलित परिवार में जन्म हुआ था। उन्होंने साहित्य में अपना सर्वोच्च स्थान बनाया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘नयी गंध’, ‘नयी कविता : नया मूल्यांकन’, ‘कविता : रोटी की भूख तक’, ‘अपनी शताब्दी से उपेक्षित’, ‘दलितों का चीखता अभाव’ तथा दलित साहित्य का पहला गीतिनाट्य ‘गरीब’ उनकी महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।

कवि पुरुषोतम ‘सत्यप्रेमी’ ने अपनी साहित्य यात्रा का प्रारंभ पत्रकारिता से किया था। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘द्वार पर दस्तक’, सवालों के सूरज’, ‘मूक माटी की मुखरता’ मुख्य काव्य संग्रह हैं। “डो.पुरुषोतम ‘सत्यप्रेमी’ संश्लिष्ट बिम्बों के कवि हैं, जो उनकी कविता को निरंतर धार प्रदान करते हैं। वे एक कथ्य को उठाते हैं, उसे शब्दों में पिरोते हैं, और एक बिम्ब धीरे-धीरे खुलता और खिलता जाता है। अन्त में जाकर एक ऐसा विस्फोट करता है कि पाठक हतप्रभ रह जाता है।”

डॉ. पुरुषोतम ‘सत्यप्रेमी’ की एक कविता ‘शस्त्रों और शास्त्रों का बोझ’ में लिखते हैं -
“कुछ परम्पराओं, रीति-रिवाजों और आस्थाओं को
हम ठीक समझकर
अपने गले में गण्डे-ताबीज-माला के रूप में लटका लेते हैं
और फिर बेआवाज
उम्र भर
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
उसका बोझ उठाए चलते हैं।”
मंशाम विद्रोही की महत्वपूर्ण प्रकाशित कृतियों में- ‘दलित पचास’(काव्य संग्रह), ‘दलित मंजरी’(संकलित कवि), ‘पीडा जो चीख उठी’(संकलित कवि) तथा ‘दलित दस्तावेज(शोध) आदि मुख्य हैं।

“श्री विश्वम्भर दत्त ने ‘वीर अर्जुन’ दैनिक में उनकी कविताओं पर दृष्टिपात करते हुए लिखा है कि – ‘मंशाराम विद्रोही’ द्वारा रचित कविताएँ सत्य घटनाओं पर आधारित है, जो बाकायदा संदर्भित हैं। उन्होंने रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं का वर्णन किया है। विद्रोही जी की कविताएँ सिर्फ कविता के अहसास से हटकर महज पाठकों को झकझोरने और ऐसी सड़ी-गली व्यवस्था के परखे उड़ाने के उद्देश्य से ही रची गई है।”

मलखान सिंह की पंद्रह कविताओं का संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ सन् 1996 में प्रकाशित हुआ, जिसमें संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी एक कविता में वे लिखते हैं -
“सुनो ब्राह्मण
हमारी दासत्ता का सफर
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अन्त भी
तुम्हारे अन्त के साथ होगा”
श्री मोहनदास नैमिशराय एक प्रसिद्ध दलित पत्रकार और एक सर्वश्रेष्ठ दलित कवि है। उनका कविता संग्रह ‘सफरदर का बयान’ प्रकाशित हुआ है। उनकी एक कविता ‘फर्क तय करना है’ में उन्होंने जीवन की एक महत्वपूर्ण समस्याओं को उठाया है। जो जाति सूचक शब्दों से गाँव में कस्बों में दलितों का अपमान किया जाता था। अब नगरों में भी किया जा रहा है-
“एक ही मनुष्य जाति के होने पर भी
जातिगत सम्बन्धों के आधार पर
कसैले से लगनेवाले स्वर
कल तक जो गाँव और कस्बों के
परिवेश में सुनाई देते थे आज उजाले
के प्रतीक
महानगरों में भी
वही जातिगत सम्बन्धों के आधार पर कसैले से
लगने वाले स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं।”
तेजपाल सिंह ‘तेज’ की कृतियों में ‘दृष्टिकोण’(गज़ल संग्रह)1995, ‘बेताल दृष्टि’(काव्य संग्रह)1996, इनके अतरिक्त ‘पथ पर’ तथा ‘धूप औसारे चढ़ी’ उनकी संपादित कृतिया हैं कविवर डॉ. धर्मवीर का ‘कम्पिला’ और ‘हीरामन’ काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है। उनका काव्य संग्रह ‘हीरामन’ अपने दलित सरोकारों के कारण पर्याप्त चर्चित रहा है। इसके विषय में रजत रानी मीनू लिखते है कि- “हीरामन में मजदूरों, किसानों, कारीगरों, बंधुआ मजदूरों की उस पीड़ा को रेखांकित किया गया है, जो वह भारतीय समाज व्यवस्था में दरिद्रता और जातीयता के चलते भोगते आ रहें हैं।”

प्रसिद्ध कवि और कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के अब तक तीन कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’, ‘बस्स ‍! बहुत हो चुका’ और ‘अब और नहीं’ प्रकाशित हुए है। धर्म, दर्शन और पौराणिक मिथक उनकी कविताओं की विशेषता है। उनकी एक कविता ‘शायद आप जानते हो’ में लिखते हैं -
“तुम्हारे रचे शब्द
तुम्हें डसेंगे साँप बनकर
गंगा किनारे कोई वृक्ष ढूंढ लो
कर लो भागवत का पाठ
आत्मतुष्टि के लिए
कहीं अकाल मृत्यु के बाद
भयभीत आत्मा... शायद आप जानते हो।”
कवि श्री चन्द्रकुमार बरठे के तीन काव्य संग्रह ‘अधूरी चिट्ठी रोशनी की’, ‘अनाम बस्तियों के देश में’ तथा ‘सूप भर धूप’ प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त डॉ. बरठे की कविताएँ- ‘दर्द के दस्तावेज’, ‘चेतना के स्वर’, ‘शहर चुप नहीं है’ तथा ‘दलित चेतना : कविता’ आदि संकलनों में भी संकलित की गई हैं। प्रखर दलित चिन्तक और कवि कंवल भारती का काव्य संग्रह ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती ?’ प्रकाशित हुआ है। इनके साथ ही उन्होंने डॉ. अम्बेडकर के संपूर्ण वांङमय से उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों का काव्यानुवाद ‘डॉ. अम्बेडकर की कविताएँ’ शीर्षक से किया है।

महिला साहित्यकारों में कवयित्री डॉ. सुशीला टाकभौरे का नाम महत्वपूर्ण है। उनके चार काव्य संग्रह – ‘स्वाति बून्द और खारे मोती’, ‘यह तुम भी जानों’, ‘इसको तुमने कब पहचाना’, ‘अनुभूति के घेरे’ महत्वपूर्ण है। उनके काव्य संग्रह ‘यह तुम भी जानो’ की कविता ‘धृतराष्ट्र ने कहा’ में कहते हैं –
“संजय
यह कौन सा समाज है?
बरसों से ठहरा है
दया और ग्लानि की जमीन पर
बरसों से
उसके पैरों में वही है
और सिर पर भी वही है
त्याज्य अपवित्रता का बोझ
कोई परिवर्तन नहीं।”
कर्मशील भारती की कविताएँ तीन काव्य संकलनों ‘दलित मंजरी’, ‘पीडा जो चीख उठी’ तथा ‘चेतना के स्वर’ में संकलित है। कवि सूरजपाल चौहान का ‘प्रयास’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त इनकी कविताएँ ‘दलित चेतना : कविता’ संग्रह में संग्रहीत है। कुसुम वियोगी कवि की कृतियों में ‘उत्थान के स्वर’(गीत संग्रह) और ‘व्यवस्था के विषधर’ काव्य संग्रह की रचना की है।

डॉ. एन. सिंह समीक्षक और कवि है। हिन्दी दलित साहित्य की स्थापना में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनका काव्य संग्रह ‘सतह से उठते हुए’ प्रकाशित हुआ है। उनकी संम्पादित कृतियों में – ‘सम्पुट’, ‘दर्द के दस्तावेज’ और ‘चेतना के स्वर’ महत्वपूर्ण है। उनकी कविता ‘सतह से उठते हुए’ में लिखते हैं –
“सतह से उठते हुए
मैंने जाना कि
इस धरती पर किए जा रहे श्रम में
जितना हिस्सा मेरा है
इस धरती के
हवा पानी और
इससे उत्पन्न होने वाले
अन्न और धन में भी है”
डॉ. श्यौराजसिंह ‘बेचैन’ हिन्दी कविता के श्रेष्ठ कवि हैं। उनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। एक ‘नई फसल’ और ‘क्रौंच हूँ में’। इनकी एक कविता में वे लिखते हैं –
“इन आँखों के
सपने तो टूट गए लेकिन
जिन आँखो में
जन्मे ही नहीं
उनकी सोचो
तुमने तो कह ली... मुहँ खोलो।”
डॉ. जयप्रकाश कर्दम के ‘गूंगा नहीं था मैं’ और ‘तिनका तिनका आग’ काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है। उनकी कविता में सच्ची अनुभूतियों और उत्पीड़न के विरुद्ध उठी हुई एक सशक्त आवाज है। वे अपनी कविता में कहते हैं –
“यदि यही रहा मेरे
दमन और शोषण का हाल, तो
आज नही तो कल
हरकत में जरुर आएँगे
मेरे हाथ।”
उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त अनेक कवियों के काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन कवियों में रघुनाथ प्यासा, डॉ. भूपसिंह, कुसुम मेघवाल, भगीरथ मेघवाल, रामभरत पासी, जयप्रकाश नवेन्दु, महेन्द्र बेनीवाल, रत्नकुमार सांभरिया, चिंरजी कटारिया, डॉ. हेमलता माहीश्वर, सुरेश पंचम, डॉ. सी. बी. भारती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

उपर्युक्त दलित कविता साहित्य के विकास के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मराठी साहित्य की प्रेरणा लेकर हिन्दी में भी अब दलित काव्यधारा का पर्याप्त विकास हुआ है। हिन्दी की दलित कविता का अपना पृथक् साहित्यशास्त्र एवं सौंदर्यशास्त्र भी निर्मित हुआ है। हिन्दी की दलित कविता का मूल स्वर ‘आक्रोश’ का है, जो शताब्दियों के शोषण एवं उत्पीड़न की घोर प्रतिक्रिया का परिणाम रहा है।

संदर्भ ग्रंथ :
  1. एन. सिंह, दलित साहित्य परंपरा और विन्यास, संस्करण-2011, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
  2. राही, लालचन्द, मूक नहीं मेरी कविताएँ, संस्करण-2003, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  3. नैमिशराय, मोहनदास, मुक्तिपर्व, संस्करण-1999, अनुराग प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. सागर, एन.आर., आजाद हैं हम, संस्करण-1995, संगीता प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली
  5. मनलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, संस्करण-1997, बौधि सत्व प्रकाशन, रामपुर
  6. टाकभौरे, सुशीला, यह तुम भी जानो, संस्करण-1994, शरद प्रकाशन, नागपुर
  7. एन. सिंह, सतह से उठते हुए, संस्करण-1991, राज पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  8. बेचैन, श्यौराज सिंह, क्रौंच हूँ मैं, संस्करण-1995, सहयोग प्रकाशन, दिल्ली
डॉ.भरतभाई सिघाभाई मकवाणा, मददनिश शिक्षक, कराडी प्राथमिक शाला, तहसिल-सायला, जिल्ला- सुरेन्द्रनगर | पिन: ३६३४४० फोन नंबर- ९४२९११८१०५