स्त्री लेखन, स्त्री के सघन सामाजिक सरोकारों का लेखाजोखा है । उत्तर-आधुनिक विकेंद्रण बताते हैं कि ‘पाठ’ सबका अलग-अलग होता है। स्त्रीत्ववादी पाठ और पुरुषवादी पाठ रचना के टेक्स्ट के भीतर छिपे समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और धर्मशास्त्र को अपने-अपने ढ़ग से अनूदित और प्रतिष्ठित करते चलते हैं । स्त्रीत्ववादी विमर्श अथवा नारी विमर्श अपने आप में एक जटिल विमर्श है । स्त्री विमर्श केवल स्त्री की मुक्ति या पुरुष की बराबरी का आख्यान नहीं है बल्कि अत्यंत गहन अर्थ वाला यह शब्द नारी मुक्ति के साथ-साथ नारी की अस्मिता व स्वाभिमान को भी अपने में समेट लेता है ।स्त्रीत्ववादी विमर्श सिर्फ समीक्षा नहीं है, वह लिंग अन्याय के विरुद्ध न केवल स्त्रीत्व का निर्माण है बल्कि उसके सशक्तीकरण का उपाय भी है। स्त्री के अस्तित्व के दृश्यमान हो उठने के पीछे विश्व के स्तर पर उस उत्तर-औद्योगिक यथार्थ का योगदान है जो औद्योगिक सभ्यता और युग के स्थापित जीवन मूल्यों को बदल रहा है । स्त्री का प्रश्न इस अर्थ में एक उत्तर-आधुनिक प्रश्न है ।
उत्तर-आधुनिक स्थितियों ने उन केंद्रों को व्यर्थ कर दिया जो मूलतः पुरुष केन्द्र थे । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में फेमिनिस्टों ने लिंग भेदी विचार को नया आयाम दिया।और इस प्रकार लिंग संबंधी एक उत्तर-आधुनिक मुद्दा सामने आया। हिन्दी के प्रमुख आलोचक सुधीश पचौरी जी लिखते हैं -
“स्त्री-केन्द्रिक लेखन ने सर्वाधिक तोड़-फोड़ विमर्श की भाषा में करनी चाही है। खासकर भाषा में रचना के ‘पाठ’ को लेकर स्त्रीवादी चिन्तन ने कुछ अभूतपूर्व आयाम खोजे हैं।’[1]
उत्तर-आधुनिक परिदृश्य का एक हिस्सा होकर स्त्री विमर्श ने संस्कृति के मर्द केंद्रित सामान्य सिद्धांतों को लात मारी है । उसमें तमाम सांस्कृतिक विमर्शों की चूलें हिल गई हैं। नारी विमर्श एक नया उत्तर-आधुनिक सामाजिक क्षेत्र है और उसकी अनदेखी संभव नहीं। नऐ स्त्री क्षेत्र का स्वीकार हमारी अर्थ व्यवस्था के नए चरण का ही स्वीकार है। इस अर्थ में स्त्री क्षेत्र और उत्तर-आधुनिकता की अपनी अर्थ-व्यवस्था है । यानि की स्त्री केंद्र के जागरण के पीछे ठोस,किन्तु अति-चंचल उत्तर-आधुनिक कारण सक्रिय है। उत्तर-आधुनिक दौर में फेमिनिस्टों ने लिंग भेदी विचार को नया आयाम दिया । साहित्य में अनुभव की प्रामाणिकता के आधार पर किया गया लेखन,साहित्य को एक प्रकार के छद्म से बचा लेने में काफी हद तक समर्थ भी हुआ। क्योंकि स्त्री स्वतंत्रता का अहसास आंतरिक होता है । वह अपने प्रति विश्वास में से गुज़रता हुआ दूसरों में अपना समर्थन और स्वीकार भी जगाता है । स्वतंत्रता का अधिकार मात्र व्यावसायिक दक्षता का पर्याय न हो कर बौद्धिक सजगता और दायित्व के बोध को प्रकाशित करता है ।इस प्रकार लिंग संबंधी एक उत्तर-आधुनिक मुद्दा सामने आया और परिणामस्वरूप नए सांस्कृतिक जनक्षेत्र का निर्माण हुआ। इसके पीछे निश्चित रूप से उपभोक्तावदी संस्कृति का योगदान है।
नया स्त्री विमर्श,जो नए मीडिया विमर्श के साथ-साथ आया है,में पहली बार स्त्री के अपने अनुभव ‘सिद्ध’ हो रहे हैं। अब तक का वृतांत ‘मर्द’ का ही था। अब तक की भाषा ‘मर्द’ की भाषा थी। इतिहास भी उसी का था। । देह की उत्तर-आधुनिक उपस्थिति प्रचलित सांस्कृतिक मर्दवादी दुनिया को किस तरह तोड़ती है यह देखना है। यहीं से उत्तर आधुनिक कथा बनती है। यही वे सांस्कृतिक नए रूप है। जहाँ नए अनुभव बनते हैं। मीडिया खासकर टी वी ने स्त्री अस्तित्व के प्रश्नों को जिस तीखे ढंग से उठाया है उससे बहुत हद तक स्त्री वर्ग का तादात्मय हुआ है और नया स्त्री लेखन इस वातावरण का हिस्सा है। महिलाओं के दुख दर्द से महिलाओं का तादात्मय टी वी ने संभव किया। पश्चिम के स्त्रीवादी चिंतन से भारतीय यथार्थ को अलग करने वाली बिंदु यही है। उत्तर आधुनिक सैद्धांतिक जॉ दरिंदा ने ‘पुनर्पाठ’ की बात कही है। विखंडन की पद्धति जो दरिंदा लागू करते हैं उसके तहत स्त्री का नितांत अलग किस्म का पाठ संभव करता है। किसी भी कृति का अर्थ- गति केंद्र तो कहीं नहीं होता है। उसे तो पाठक वर्ग अर्थ बहुलता के अनंत संसार में सृष्टित करता है। इसी सिलसिले में स्त्री अपना पाठ अलग गढ़ती है। इस पद्धति से पाठक निर्धारित अथवा पूर्वनिश्चित स्थापित अर्थ को ‘विस्थापित’ करने या ‘विपर्यस्त’ करने में सफल होता है। अब तक का साहित्य का केन्द्रवाद सार्वभौमिकता पर आधारित था जिसमें स्त्री के अनन्य पाठ का कोई स्थान नहीं था। बलात्कार के किसी वृत्तांत, अबॉर्शन का वृत्तांत, या फिर दहेज प्रथा से जुड़ी मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा का पाठ औरत के लिए मर्दों से एकदम अलग है। आज स्त्री जब अपना अलग पाठ रच रही है तो सारे प्रचलित पाठ भरभराकर गिर पड़े हैं। यही स्त्री लेखन का उत्तर यथार्थवाद है। स्त्री लेखन के उत्तर यथार्थवाद पर टिप्पणी करते हुए हिंदी के प्रमुख आलोचक सुधीश पचौरी जी लिखते हैं-
“स्त्री के अनन्य पाठ में इस केन्द्रवादी सार्वभौमिकता का कोई स्थान नहीं है. क्योंकि उसके पाठ से मूल्यों की सार्वजनिकता और सार्वकालिकता, प्रातिनिधिकता आदि भरभराकर गिर पड़ते हैं। ्रा यही स्त्री लेखन का उत्तर- यथार्थवाद है। एक विध्वंसक तत्व है।’[2]
अस्सी के दशक के बाद बहुतेरी नारीवादियों ने प्रतिनिधित्व का अधिकार एवं समस्या तथा सत्ता के विमर्श पर प्रश्न उठाए तथा वैचारिक स्तर पर सामाजिक संरचना, पितृसत्ता और पूंजीवाद के विश्लेषण के बदले विभिन्न संस्कृतियों के विमर्श विचारधारा और मनोविश्लेषण को प्रस्तुत किया। स्त्रीलिंगी भेद के नए केंद्र बनने से जाति, धर्म आदि के उपकेंद्र भी गड़बड़ाए है। या कहें कि विराट उत्तर- आधुनिक परिदृश्य में केंद्र विच्युति ने अनेक उपकेंद्रों को एक दूसरे में उलझा दिया है। इनमें सबसे सक्रिय उपकेंद्र स्त्री का ही है। स्त्री विमर्श जहाँ एक और मर्दवादी केन्द्रीयता को तोड़ता है, वहाँ वह उत्तर आधुनिक परिदृश्य का ही हिस्सा है। इस संदर्भ में, उत्तर आधुनिक सैद्धांतिक मिशेल फूको उल्लेखनीय है। क्योंकि उन्होंने ही अपने विमर्श सिद्धांत द्वारा चली आ रही सार्वभौमिक सत्य को नकारने की शक्ति प्रदान की।
नारी वादी सोच और अभिव्यक्ति की वर्तमान स्थिति पर तटस्थ एवं निर्मम विचार करते हुए मृणाल पांडेय जी लिखती है-
‘अपने मूल में नारीवाद एक विचारधारा से कहीं आगे जाकर एक स्त्री द्वारा अपने और दुनिया के बारे में अलग तरह से सोचने का ऐसा तरीका है जो स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए मात्र पुरुषों की बनाई परंपरा के समांतर। नया सोचने और रचने की नई राहें खोलता है।’[3]
स्त्री लेखन पर सबसे अधिक आरोप यही लगाया जाता है कि उनका यथार्थ सीमित है, उनकी अनुभूति सीमित है। उनका अनुभव जगत चार दीवारियों के बीच ही घूमता रहता है। इस प्रकार की अनेक गहरे प्रश्न स्त्री और उसके यथार्थ को लेकर उठते रहते हैं, जो काफी हद तक सच भी है। यहाँ देखना एवं समझना यह है कि स्त्री के यथार्थ सीमित है तो भी यही यथार्थ उसका अपना हैं। यही उसके अस्तित्व की सामाजिक, सांस्कृतिक सच्चाई है। यह विरोधाभास ही तो है कि एक और अनुभव की प्रामाणिकता और यथार्थ के ईमानदार आकलन की मांग की जाए और दूसरी तरफ जिस तरह का यथार्थ उसके हाथ में हो जैसा अनुभव प्रामाणिक हो, उसे सीमित कहकर अस्वीकार कर दिया जाता है जो स्त्री लेखन के प्रति नाइंसाफी है। उत्तर आधुनिकता के इस दौर में भी स्त्री की सामाजिक अवस्था उसका अनुभव जगत सीमित है, जिसके बारे में मृणाल पांडे जी यों जा़हिर करती है-
‘कुछ सीमित वर्गों को छोड़कर सोचें तो जीवनीशक्ति, शिक्षा, दर और रोजगार के स्थूल पैमानों पर स्त्रियों हमारे यहाँ ही नहीं, दुनिया के हर देश में सबसे निचली श्रेणी की नागरिक हैं।’[4]
स्त्रीवादी समीक्षा पर लगाए जाने वाले आरोपों का उत्तर अनामिका जी यों देती है-
‘स्त्रीवादी समीक्षा पर यह आरोप बार-बार लगाया जाता है कि यह अनुभवमूलक (इम्पेरिसिस्ट), है प्रपत्तिमूलक(पैरेडाइमबेस्ड) नहीं, इसलिए न इसकी मैथडॉलजी तय है, न शोध की दिशाएँ। इसका उत्तर स्पष्ट है-- प्रपत्तियाँ आकाश से नहीं टपकती, अनुभूतियां ही बीन-फटककर प्रपत्तियों के रूप में सजा ली जाती है।’[5]
उत्तर आधुनिकता के युग में प्रभा खेतान स्त्री का मसीहा स्वयं स्त्री को मानती हुई लिखती है-
‘अतः हम कैसे अपनी सत्ता को पुन परिभाषित करें? कैसे अपने और अपने समाज के लिए नई रूप रेखा तैयार करें? हमारे सामने पहले से कोई स्वस्थ एवं सम्पुष्ट आदर्श मौजूद नहीं---- हम जानती हैं कि हम केवल देह के कारण स्त्री नहीं है। हमारा स्त्री होना निर्भर करता है संस्कृति, वर्ग और जाति पर। लेकिन यह पितृसत्ता आज भी प्रत्येक स्तर पर स्त्री का दलन करती है। अतः स्त्री का मसीहा अन्य कोई नहीं स्त्री स्वयं है।’[6]
स्त्री केंद्र के जागरण पर विचार करते हुए प्रमुख उत्तर आधुनिक आलोचक सुधीश पचौरी लिखते हैं--
‘नए स्त्री क्षेत्र का स्वीकार हमारी अर्थव्यवस्था के नए चरण का ही स्वीकार है। इस अर्थ में स्त्री क्षेत्र और उत्तर आधुनिकता की अपनी ‘अर्थव्यवस्था’ है। सिर्फ राजनीति यह नहीं है, सिर्फ प्रचार यह नहीं है। यानी की स्त्री केंद्र के जागरण के पीछे ठोस किंतु अति चंचल उत्तर आधुनिक कारण (अकारण) सक्रिय है, जो आधुनिक भाषा से देखे नहीं जा सकते।’ [7]
स्त्री विमर्श अथवा नारीवादी विमर्श के आगे आने में कई उत्तर- आधुनिक सैद्धांतिकों का हाथ रहा है। उत्तर आधुनिक सैद्धांतिक जां फ्रांस्वा ल्योतार ने महाख्यानों के अंत(End of Metanarratives) की घोषणा अपनी पुस्तक ‘Postmodern Conditions’ में की। इस घोषणा के साथ ही स्त्री के पुराने महाआख्यान Metanarrative का अंत हो गया है। संरचनावादी रोला बार्थ ने अपने ग्रंथ ‘Fashion Systems’ में देह के विमर्श को रेखांकित करते हुए बताया है कि किस तरह स्त्री के शरीर को फैशन नियमित नियंत्रित करता है। रोला बार्थ ने एक अध्याय स्त्रीपन Femininity के बारे में लिखा है जिसमें वे यौन को निर्णायक नहीं मानते। इस प्रकार देखा जाए तो कई उत्तर आधुनिक सैद्धांतिकों ने स्त्री विमर्श को एक नया आयाम दिया जो उत्तर आधुनिक सैद्धांतिक वातावरण में पला और पनपा।
स्त्री विमर्श और उत्तर आधुनिकता का गहरा संबंध है। उपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक कृतियों के आलोचनात्मक पाठ और व्याख्या और व्याख्या का साहित्य अभियान स्त्री स्वर स्त्री दृष्टि को अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है। उत्तर औपनिवेशिक नारीवाद दृष्टिकोण साहित्य में स्त्रियों के निरूपण का पाठ करते हुए विषय के साथ- साथ अभिव्यक्ति के माध्यम पर भी निगाह रखता है। बहुत शुरू से ही स्त्री दृष्टिकोण उत्तर औपनिवेशिक अध्ययनों के केंद्र में रहा है। हिन्दी साहित्य में स्थित नारीवादी तत्वों पर विचार करते हुए सुधीश पचौरी जी लिखते हैं-
‘स्त्रीत्ववाद सहजात दशा नहीं है। वह एक ‘अर्जित’ केंद्र है। सभी औरतें औरत होने के नाते भर से स्त्रीत्ववादी नहीं होती। वे औरत होते हुए भी स्त्रीत्वाद के बाहर हो सकती है। यानी पुलिंग विमर्श की कैद में हो सकती है। इस अर्थ में स्त्रीत्ववाद एक सामाजिक, राजनैतिक विचार है, वह एक संघर्ष है, एक प्रतिबद्धता है। औरतें स्त्रीत्ववादी होती नहीं है, वे स्त्रीत्ववादी बनती है। औरतों का फेमिनिस्ट बनना इसलिए सहज हैं क्योंकि औरत होने का अनुभव उनके ही पास प्रकृत्या होता है। वे अपनी देह से उसे अर्जित कर सकती है। इसलिए देह के प्रति सजगता स्त्रीत्ववाद में एक अनिवार्य तत्व है।’ [8]
हिंदी साहित्य का इतिहास साक्षी है कि जब- जब स्त्रियों ने अपनी दैनिक जरूरतों को अपनी भाषा में पाठकों के सामने रखा है, उसकी निर्लज्जता पर अभिजात वर्ग ने छाती कूटी हैं। वास्तविकता तो यह है कि महिला रचनाकारों का सेक्स चित्रण रति क्रीड़ा का सामान नहीं जुटाता बल्कि उन सामाजिक विसंगतियों और अमानुकषिकताओं की ओर संकेत करता है जो सदियों से उसकी मानवीय अस्मिता और अधिकारों का हनन कर रही है। जो भी हो, स्त्री विमर्श का अपना महत्व है। विचार होगा तो विमर्श भी होगा, मत होगा तो भेद भी होगा। चिंता होगा तो चिंतन भी होगा। रचना के पुनर्पाठ से विमर्ष की उत्पत्ति होती है और हर विमर्श के दौरान नए विषय जन्म लेते हैं ।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आज स्त्री विमर्श हिंदी साहित्य में चर्चा का विषय बना हुआ है जिसपर मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, राजनीतिक वैधानिक और मानवीय दृष्टि से बहस हो रही है। स्त्री विमर्श एक और नारा है, दूसरी ओर गंभीर चिंतन का विषय बना हुआ है। स्त्रीत्ववाद पर सुधीश पचौरी जी का वक्तव्य उल्लेख करने योग्य है-
‘स्त्रीत्ववाद न मजाक है, न फैशन है। यह लिंग अन्याय के विरुद्ध एक न्याय की संघर्षपूर्ण पुकार है और एक विकट सैद्धांतिकी है, जिसके आने से साहित्य के पुराने तमाम मानक चरमरा कर गिर जाते हैं।’9 स्त्री लेखन स्त्री की आकांक्षाओं का दर्पण है । इसे मानवीय दुर्बलताओं की नैसर्गिक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है या फिर अंतर्विरोधों का स्वीकार । स्त्री लेखन का लक्ष्य पाठक में अब तक के अनदेखे को देखने और सुनने की संवेदनशीलता विकसित करना है ।
संदर्भ
- सुधीश पचौरी. उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, वाणी प्रकाशन. नई दिल्ली. 2016. पृष्ठ सं 123
- वही, पृष्ठ सं 123
- सं राजेन्द्र यादव, अर्चना वर्मा. अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, राजकमल प्रकाशन. 2018 पृष्ठ सं 281
- वही पृष्ठ सं 219
- वही पृष्ठ सं 164
- वही पृष्ठ सं 194
- सं राजेन्द्र यादव- औरत उत्तर कथा, राजकमल प्रकाशन. 2008 पृष्ठ सं 119
- सं राजेन्द्र यादव, अर्चना वर्मा- अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, राजकमल प्रकाशन. 2018 पृष्ठ सं 121
- सुधीश पचौरी. विभक्ति और विखंडन: हिन्दी साहित्य में उत्तर- आधुनिक मोड़, अनंग प्रकाशन. 2002. पृ 199