हम सब जानते हैं कि हमारे यहाँ शोधकार्य और शोध लेखन के अनुशासन – Discipline of Writing के बारे में काफी कुछ लिखा गया है । मुझे आपसे जो बातें करनी हैं वह Possibilities of Subjects in Research के बारे में है । हाँ आदतवश बीच में थोड़ी थोड़ी बातें Research Methodology के बारे में भी आयेंगी । But after all it’s a part of Research. शोधकार्य के क्षेत्र में आज क्या क्या खेल चल रहें हैं वह आपमें से बहुतेरे जानते होंगे । आप या तो Research कर रहे होंगे या तो आप Research मार्गदर्शक होंगे... तो थोडी बातों से, नंगी सच्चाई से आप भी बाखबर होंगे ही ।
विषय की बात पर जाने से पहले दो-एक ज़रूरी बातें भी ज़रा कर लें? मैं हमेशा विद्यार्थी से पूछती हूँ : ‘आपको सिर्फ डिग्री चाहिए? या आपको वाकई शोधकार्य में दिलचस्पी है? क्योंकि इन दो बातों के बीच में आसमान-ज़मीन का अंतर है ।’ यदि शोधकर्ता सिर्फ पदवीकेन्द्री नहीं है, वह सही मायने में कुछ करना चाहता है, उसको Research शब्द का अर्थ सही मायने में पता है तो फिर उसके लिए कई और सवाल तैयार हैं... क्या उसने उतना पढ़ा है कि वह अपना रस-रुचि का केन्द्र, अपना विषय तय कर पाए? जिस विषय या क्षेत्र में उसने काम करना तय किया है उस क्षेत्र में कितना काम हो चुका है? अभी कितनी और संभावनाएँ हैं उसके बारे में वह जानता है? अगर मैं गुजराती विषय की मार्गदर्शक हूँ तो मुझे पूछना पड़ेगा मेरे Student को – क्या आप हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत के ग्रंथ पढ़ पाएँगे? क्योंकि उसकी ज़रुरत पडेगी ।
एक बात पक्की है कि जो काम हो चुका है उसको दोहराना नहीं है... अपनी चारों ओर देखिए, एक सर्जक, या दो-चार कृतियाँ लेकर कितने लोगों को यह उच्चतम डिग्री मिल चुकी है? आप कोटेशन बिलकुल ले सकते हैं लेकिन यदि अनिवार्य लगे तभी... वर्ना तो वह शोधग्रंथ के बजाय अवतरण ग्रंथ = यानि कि कोटेशन ग्रंथ बन जाएगा ।
इसका मतलब है कि आपकी लेखनशैली से लेकर आप जिस नतीजे पर पहुँचे हैं वहाँ तक आपको मौलिकता प्रस्थापित करनी है । हम सब भाषा के अध्यापक हैं सो हम शोधकार्य की बातें भी उसी दायरे में रहकर करेंगे । लेकिन साहित्य को कभी भी भाषा की सरहदें रोकती नहीं है । इसलिए साहित्यिक शोधकार्य में उदाहरण अलग हो सकते है, लेकिन सैद्धांतिक चर्चा की बुनियाद एक समान रहेगी । इसलिए अच्छे साहित्यिक शोधकार्य के लिए बुनियादी तौर पर इतिहास = गुजराती साहित्य का इतिहास, या कन्नड साहित्य का इतिहास या बांगला – मराठी, उडिया साहित्य का इतिहास जानना अनिवार्य है, विविध साहित्यिक विधा = स्वरूप = प्रकार पता होने चाहिए । पूर्व और पश्चिम की काव्यमीमांसा और कुछ माइलस्टोन शोधग्रंथ – जो कि हर भाषा, हर क्षेत्र में होते ही है – पता होने चाहिए ।
अब बात करते है विषय के वैविध्य की । हम लोग आज इतने सारे विषय के बारे में बात करेंगे कि आपको आश्चर्य होगा कि अगर इतने सारे विषय एक अच्छे शोधकर्ता के इंतज़ार में ताक लगाए कतार में खड़े हैं तो फिर आज विद्यार्थी और मार्गदर्शक दोनों ही ज्यादा से ज्यादा आसान – सरल विषय की ओर क्यों जा रहें हैं ? पूरे भारत में एक वक्त था जब कठिन से कठिन विषय पर हमारे विद्वान काम करते थे और Ph.D. की डिग्री के वे बिलकुल ही मोहताज न थे । एरिस्टोटल और भरतमुनि की तुलना कर सकें, रीति विचार के साथ शैली विज्ञान की बात कर सकें ऐसे लोग हमारे यहाँ विद्यमान थे । दर्जनों मध्यकालीन कृतियों के पाठनिर्णय, कालनिर्णय करनेवाले हमारे जयंत कोठारी जैसे विद्वान ने Ph.D. नहीं किया था । इनके सामने हमारा आज का दारिद्र्य देखिए ।
सवाल यह उठता है कि हमारे शोधकार्य प्रति साल ज्यादा से ज्यादा गरीब क्यों होते चले...? हाँ इसमें ज्यादा दोष विद्यार्थी का है । लेकिन मार्गदर्शक और परीक्षक कोई कम दोषी नहीं हैं । एक मार्गदर्शक और दो परीक्षक = तीन तीन छलनी में छलने के बाद भी अगर हमारे यहाँ सिर्फ कथासार या तो कवितासार जैसे बडे बडे वज़नी थोथे डिग्री कमा रहे है तो हमें समझ लेना चाहिए कि हमारी छलनी के छिद्र कितने बड़े हो गए हैं । जबतक मार्गदर्शक और परीक्षक अपने मापदंड कड़े नहीं करेंगे तबतक शोध करनेवाला बंदा सरल रास्ते, सरल विषय पर चर्वितचर्वण करता रहेगा । यह सच्चाई को स्वीकार करने के बाद हम शोधकार्य के क्षेत्र में विषय के वैविध्य और शक्यताओं की बात शुरु करेंगे । यह सब ऐसे विषय हैं जो न जाने कब से किसी सज्ज और श्रम करनेवाले शोधकर्ता के इंतज़ार में खड़े हैं।
अब हम अलग अलग क्षेत्र की बात करेंगे :
- विवेचना : आलोचना - Criticism
यह एक ऐसा विषय है जिसको वैसे तो कोई पसंद नहीं करता है । लेकिन अगर कोई पसंद करे तो वह क्या क्या कर सकता है इस विषय में?
- आपकी भाषा में विवेचन में जो परिभाषाएँ (Terminology)आईं, जो विभावनाएँ (Concept) आईं वह समय समय पर किस तरह परिष्कृत होती गईं उसकी ऐतिहासिक जाँच हो सकती है । उदाहरणत: कल्पन, प्रतीक, आंतरचेतना प्रवाह, Psychological Novel, सन्निधिकरण, Story of Initiation etc.
- सब भाषा वाले अपने अपने साहित्य में आकार = Form की विभावना कैसे बदलती गईं हैं उसके बारे में अभ्यास कर सकते हैं । जैसे गुजराती विवेचना में नवलराम से ले के सुरेश जोशी तक आते आते यह विभावना बदली है वैसे सभी भारतीय भाषाओं में हुआ होगा ।
- किसी भी आलोचना में सर्जक-कृति-भावक यह तीन जो स्थान है उसका महत्त्व घटता-बढता रहा है । कभी हम कृतिकेन्द्री हो जाते हैं तो कभी कर्ताकेन्द्री । कभी रोलां बार्थ जैसे लोग ऑथर का डेथ डिक्लेर कर देते हैं । कभी Reader Response की बात कर के हम भावक केन्द्री बन जाते हैं और कृति+कर्ता का महत्त्व घटा देते हैं । यह बात हमारी सब भारतीय भाषाओं में भी हुई है । इस संदर्भ को लेकर हम संप्रेषण यानि Communication के बारे में बात कर सकते हैं । यह Concept किस तरह बदलता रहा, कब सर्जक केन्द्र में था, कब कृति, कब भावक – यह हर भाषा की खुद की कहानी होगी । हम यह दिलचस्प जाँच क्यों नहीं करते?
- Art for Art's Sake & Art for Life Sake यह विवाद जैसे पश्चिम में बदलता रहा वैसा ही हमारे यहाँ पर भी हुआ । गांधी के प्रभाव से साहित्य जीवनवादी बना । हम जिसे प्रतिबद्ध या Committed Literature कहते है । भारत की हर भाषा में थोड़े कालखंड़ के लिए प्रगतिवाद आया... बाद में टागोर के प्रभाव में हम सब कलावादी बनें । फिर आधुनिकता का आंदोलन हमें Commitment से दूर ले गया । Post modernism में हम सब फिर से वापिस चले अपने roots की ओर... तो ये दलित चेतना, नारी चेतना, देशी वाद... इन सब के बारे में कोई शोधकार्य हुआ? हमनें प्रगतिवाद या Committed Literature के बारे में बात की? ‘कला जीवन के लिए’ की मान्यता के दौरान कोई कलावादी रहा होगा और कलावाद के ज़माने में कोई जीवनवादी भी होगा । हमने इस ग्राफ का अभ्यास किया? हम तो बस दो कृतियाँ ले के दलित चेतना या नारी चेतना की बात कर लेते हैं ।
- अर्थ – Meaning का Concept कैसे परिष्कृत हुआ? वैसे हम Communication, meaning, Form यह सब Concepts – विभावनाएँ कैसे परिष्कृत होती चली अपनी अपनी भाषाओं में उसके बारे में काम कर सकते हैं लेकिन यह विषय बिलकुल उपेक्षित है । क्योंकि यह कठिन काम है जो कोई करना नहीं चाहता । एक और कठिन काम है पुनर्मूल्यांकन । जो साहित्यिक इतिहास लिखित रूप में हमारे सामने है – हर भाषा में – वह क्या है? क्या हम इसमें काम कर सकते हैं? हाँ लेकिन इसमें श्रम अधिक लगेगा ।
- हमारी सभी भाषाओं में एक विषय जो सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है वह है एक सर्जक लेकर के उसका अध्ययन । वह कवि है, उपन्यासकार है, कहानीकार है या निबंधकार है... या नाट्यकार है... कभी कभी एक सर्जक एक से ज्यादा विधा में लिखता हो तब तो काम और आसान हो जाता है । होता क्या है आम तौर पर? सर्जक के जीवन के बारे में लिख दो, फिर उसकी कृतियों के बारे में लिख दो. इसमें निष्कर्ष जैसा कुछ होता नहीं है पर औपचारिकता फिर भी निभाई जाती है । वैसे हमारे पूर्वसूरिओं ने ऐसे काम भी बड़े अच्छे तरीके से किए हैं । हो सकता है, लेकिन मेहनत ज्यादा करनी पड़ेगी । अगर आप निर्मल वर्मा पर काम कर रहे हैं तो सिर्फ उनके उपन्यास पढ़ने से काम नहीं चलेगा । आपको निर्मल वर्मा का चिंतन और ‘चिडों पर चाँदनी’ जैसा संस्मरण भी पढ़ना पड़ेगा । क्यूँकि उनकी भाषा एवं अनुभूति का जगत दोनों में एक ही है । अगर कोई गुजराती शोधकर्ता सुरेश जोशी पर काम करेगा तो सुरेश जोशी के Fiction के साथ उनके निबंध भी पढ़ने पड़ेंगे । उनके सर्जन विश्व में पात्रभाषा और सर्जक भाषा एक हो जाती है ऐसा शोधकर्ता तब ही जान पाएगा । लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस तरह से कोई काम करता नहीं है ।
- जैसे गुजराती में, अंग्रेज़ी में जीवनकथनात्मक = Biographical उपन्यास लिखे जाते हैं वैसे हर भाषा में लिखे जाते होंगे । इस उपन्यास में Imaginative Reconstruction of Truth होगा । सब सच्चाई तो नहीं होगी, कल्पना भी होगी । हम जाँच कर सकते हैं कि सर्जक ने जीवन से क्या लिया, कल्पना को कितनी उड़ान दी, जो कल्पना उसने की वह व्यक्ति के मूल चरित्र को हानि तो नहीं पहुँचाती? जो उपन्यास/Novel हमारे सामने आएं वह सिर्फ दस्तावेज़ी/Documentary है या एक कलात्मक उपन्यास भी बन पाए हैं?
जैसे गिरिराज किशोर ने ‘पहला गिरमिटिया’ उपन्यास लिखा । मोहनदास गांधी दक्षिण आफ्रिका में कैसे मि. गांधी बने यह कथा है इस उपन्यास में । और हमारे जयंत गाडीत चार खंड में एक महानवल लिखते हैं ‘सत्य’, जिसमें भारत में आये गांधी कैसे महात्मा बनें उसकी कथा है । जो भी शोधकर्ता गांधी आधारित उपन्यास पर शोधकार्य करना चाहता है उसको महादेव भाई की डायरी, प्यारेलाल के ‘पूर्णाहूति’ के चार खंड, नारायण देसाई लिखित गांधीजी की जीवनी के चार भाग उपरांत काफी कुछ पढ़ना पड़ेगा । तभी शोधकर्ता कह पायेगा कि उपन्यासकार ने कोई ऐसी कल्पना नहीं की है जिससे गांधीजी के व्यक्तित्व पर कोई लांछन लगे ।
आपको ऐसा ही महमदअली जीणा के बारे में लिखे गए ‘महानायक’ के साथ भी करना पड़ेगा । जीणा के बारे में लिखी गई जशवंत सिंह की किताब, विरेन्द्र सिंह की किताब पढ़नी पड़ेगी । गुजराती भाषा में तो दिनकर जोशी जैसे उपन्यासकार ने नर्मद, सोक्रेटिस, तोलस्तोय उपरांत काफी सारे जीवनकेन्द्री उपन्यास लिखें हैं ।
अगर आपका अंग्रेज़ी भाषा पर प्रभुत्व है तो वहाँ पर भी ऐसे Biographical Novel आपको मिलेंगे । अकेले अरविंग स्टोन ने ही कितने लिखे हैं? उदाहरणत : प्रसिद्ध चित्रकार वान गोग के जीवन पर ‘Lust for Life’, जेक लंडन के जीवन पर ‘सेइलर ऑन होर्सबेक’, माइकल एनजेलो के जीवन पर ‘एगनी & एक्स्टसी’, फ्रोईड के जीवन पर ‘पेशन्स ऑफ ध माइन्ड’ । यहाँ पर शोधकर्ता को व्यक्ति के जीवन के बारे में खुद को पढ़ना पड़ेगा । तभी वह सर्जक की सफलता या तो विफलता के बारे में कुछ कह पायेगा ।
- ऐसा ही एक विशाल क्षेत्र है ऐतिहासिक उपन्यास । Historical Novel के बारे में थियरी लिखी गई है वह शोधकर्ता को पढ़नी पड़ेगी । बाद में Novel और बाद में History की जानी पहचानी घटनाएँ यहाँ क्या रुप धारण करती है वह देखना पड़ेगा । जो पात्र है, जो समय है उनका, उनके मुताबिक सर्जक ने क्या क्या changes किए हैं? उसने काल व्युत्क्रम किया है? अगर हाँ तो क्यों? इतिहास और कल्पना के बीच कुछ संतुलन किया है? जो काल्पनिक पात्र हैं वह ऐतिहासिक पात्र से ज्यादा अच्छे हैं? और हाँ, यहाँ आपको Novel form की शर्तों के साथ इतिहास को ठीकठीक निरूपित किया गया है कि नहीं यह भी देखना है । और इसलिए शोधकर्ता को उपन्यास के साथ इतिहास का भी अध्ययन करना पड़ेगा ।
दृष्टांत के तौर पर सोमनाथ मंदिर का ध्वंस भारत के इतिहास का एक दुखद प्रकरण है । चार गुजराती उपन्यासकारों ने इस पर उपन्यास लिखें । धूमकेतु ने ‘चौलादेवी’, मुनशी ने ‘जय सोमनाथ’, मडिया ने ‘कुम कुम अने आश्का’, रघुवीर चौधरी ने ‘सोमतीर्थ’ ।
इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को लेकर चारों का नज़रिया साफ तौर पर अलग है । आप पात्रलक्षी, घटनालक्षी और इतिहासलक्षी तुलना कर सकते हैं ।
- आज सबसे ज्यादा Ph.D. Comparative Literature के क्षेत्र में हो रहा है । हमने इसको बड़ा आसान बना दिया है । कोई भी कृति या सर्जक ले लो और दो दो प्रकरण जीवन और कवन के बारे में लिख दो । प्रथम प्रकरण Comparative Literature का तो है ही । हो गया Ph.D. । वैसे यह एक भद्दा मज़ाक है । मैंने मेरे एक सिनियर को निर्मल वर्मा और मधु राय को compare करते देखा । मैंने कहा भैया, निर्मल वर्मा के साथ आप सुरेश जोशी को compare करो, क्योंकि दोनों में समानता है । लेकिन मधु राय? ये तो ऐसा हो गया कि आप बकरी और पथ्थर – यानि किसी भी दो चीज का मुकाबला कर लें !
असल में Comparative Literature में तो साहित्य की अन्य मानवविद्या शाखाओं के साथ भी तुलना की जाती है । लेकिन वह तो कोई करता ही नहीं है... वही पन्नालाल पटेल का ‘मानवी की भवाई’ और रेणु का ‘मैला आँचल’ । आजकल पन्नालाल पटेल के साथ अंग्रेज़ी वाले फटाफट थोमस हार्डी को बिठा रहे हैं । कभी हम प्रादेशिक उपन्यास के तौर पर राही मासूम रझा का ‘आधा गाँव’ क्यों नहीं लेते? क्यों हम ‘मैला आँचल’, ‘आधा गाँव’, ‘उदास नस्लें’, ‘मानवीनी भवाई’ लेकर बात नहीं करते? जरा शक्यताएँ देखिए :
- साहित्य और मनोविज्ञान Literature & Psychology
- ग्रीक ट्रेजेडी और शेक्सपिरियन ट्रेजेडी से आपको कितने विषय मिलेंगे?
- Story of Initiation – नवदीक्षा की कहानियाँ, आप इसमें गुजराती, भारतीय या विश्व की कहानियाँ लेकर काम कर सकते हैं ।
- Abnormal Characters in Literature = साहित्य में असामान्य पात्र । ग्रीक ट्रेजेडी, शेक्सपिरियन ट्रेजेडी से ले के कहानी और उपन्यासों में आपको Abnormal Characters मिलेंगे । आप थक जाएँगे इसकी suttle type of abnormalities गिन के । इर्ष्या – Jealousy, अहम् – Ego और मानवसंबंध ले के जब मैं काम कर रही थी तब मुझे सिर्फ गुजराती साहित्य से इर्ष्याकेन्द्री 25 कहानीयाँ मिली थी । सोचिए, भारतीय और विश्व साहित्य में कितनी मिल सकती है?
ऐसे विषय पर काम हो सकता है, बस शर्त इतनी है कि आपको Psychology कि किताबों से Normal-Abnormal, Ego, Jealousy आदि के बारे में पढ़ना पड़ेगा और फिर इसको Apply भी करना पड़ेगा ।
- स्त्री-पुरुष संबंध :
यहाँ पर ईर्ष्या, अहम्, लघुता या गुरुता ग्रंथि की वजह से खड़ी होने वाली समस्याओं की चर्चा हो सकती है । लग्नेतर संबंध में आपको मनोविज्ञान और समाजविज्ञान दोनों की ओर ध्यान देना पड़ेगा ।
- साहित्य और समाजविज्ञान- इस क्षेत्र में इतनी शक्यताएं हैं कि शायद एक-दो छूट भी सकती है मुझसे ।
- जैसे साहित्यिक कृतियों का व्यक्ति, समाज या देशकाल पर प्रभाव
उदा.
1. रस्किन की ‘Unto this Last’ का गांधीजी पर प्रभाव । सत्याग्रह से लेकर आज़ादी की सफर तक, इस पुस्तक का प्रभाव ।
2. हेरिएट बीचर स्टोव की ‘Uncle Tom’s Cabin’ के प्रभाव से अमरिका में गुलामी प्रथा का उन्मूलन हुआ ।
3. स्टाईन बेक की ‘The Grapes of Wrath’ उपन्यास में migrant labour (विस्थापित मज़दूरों) का जो प्रश्न था उसका इतना तो गहरा प्रभाव पडा कि अमेरिकी संसद को एक राज्य से दूसरे राज्य में जा के रहने के, काम करने के कानून बदलने पड़ें । उसमें संशोधन करना पड़ा ।
4. हेन्रिक इब्सन 1879 में ‘A Doll’s House’ लिखते हैं । नोरा ने वो द्वार खोलें जो पूरी दुनिया की स्त्रियों के लिए सदीयों से बंद थे । हमारे यहाँ कुंदनिका कापडिया का ‘सात पगला आकाशमां’ गुजरात में नारीवादी आंदोलन की बुनियाद बन गया । इस उपन्यास का गुजराती कुटुंबजीवन पर, समाजजीवन पर जो प्रभाव पड़ा उसके बारे में सोश्योलोजि का विद्यार्थी भी काम कर सकता है ।
5. बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का ‘आनंदमठ’ उपन्यास और उसमें निरुपित ‘वंदे मातरम्’ गीत का स्वातंत्र्य संग्राम पर प्रभाव । यहाँ पर राष्ट्रवाद की जो संकुचित विभावना की गई है उसका जवाब बीस-पच्चीस साल के बाद टागोर ‘घरे-बाहिरे’ उपन्यास लिखकर देते हैं । भारतीय राष्ट्रवाद, भारतीयता क्या है? उसके बारे में टागोर ने अलग से लिखा भी है और ‘घरे-बाहिरे’ तथा ‘गोरा’ उपन्यास के ज़रिए दिखाया भी है । हम इन सब के बारे में अध्ययन करके सच्चा राष्ट्रवाद क्या है यह बता सकते हैं ।
- गांधीजी का समाज और इतिहास पर प्रभाव :
हम सब पढ़ते हैं साहित्य के इतिहास में कि गांधीजी के कारण सामान्यजन का साहित्य में प्रवेश हुआ, स्त्री जागृति समाज में और साहित्य में भी हुई, अस्पृश्यता निवारण की बातें हुई, प्रतिबद्ध साहित्य रचा गया, भाषा की सरलता की बातें हुई । स्त्री ने घर की दहलीज़ को लांघ कर बाहर की दुनिया में कदम रखें, पिकेटिंग किया, जेल भी गई । हम इन सारी बातों पर कितना काम कर सकते है? प्रगतिवाद या तो जीवनलक्षी साहित्य का समय क्यों अल्पजीवी था? क्यों वह हिन्दी, उर्दू जैसी भाषाओं में प्रभावक ढंग से आया और अन्य भाषाओं में उसका इतना प्रभाव नहीं था? इन सब की जाँच हो सकती हैं । करनी भी चाहिए । गांधीजी थे तभी साहित्य में गांधी-प्रभाव समाप्त होता चला था । इसके कई कारण हैं । टागोर की सौन्दर्य अनुरागी धारा के प्रभाव से लेकर विश्वयुद्ध और आधुनिकता का प्रवेश... लेकिन सोचिए, कभी हमनें इसके बारे में शोध करने का सोचा है?
हमारे गुजराती साहित्य में ऐसी कहानियाँ और उपन्यास मिलते हैं जिसकी नायिका गांधीमूल्यों से प्रेरित हैं । दर्शक के उपन्यास या मेघाणी की कहानियां... इस समयखंड में जो आत्मकथाएं मिली – सुमंत महेता, रविशंकर रावल, इन्दुलाल याज्ञिक... ये सब गुजराती समाजजीवन के साथ पूरे देश में क्या चल रहा था उसकी बातें करती है । आत्मकथा में जो समाज है वही कथा साहित्य में भी होगा । क्या हम इसकी तुलना नहीं कर सकते? इसलिए मैं अगला मुद्दा यही ले रही हूँ ।
- जो समाज आत्मकथा में निरूपित हुआ है उसकी हमनें बहुत कम बात की है । हम इसके बारे में बात कर सकते है । यदि हमें बदलती नारी-छबि की बात करनी है या तो हमें भारतीय नारी की बात करनी है तो हम Fiction (कहानी + उपन्यास) के समांतर भारतीय आत्मकथाओं का अध्ययन भी कर सकते हैं । क्यों 1970 से पहले नारी-आत्मकथा कम मिलती थीं? बाद में उसमें जो उफान आया वह उसकी मन की मुक्ति व्यंजित करती हैं । यह नारी खुद के बारे में, दाम्पत्य के बारे में, खुद की पीड़ाओं के बारे में लिखने लगीं । हर क्षेत्र की नारी ने लिखा । अगर हम ध्यान से इसका अभ्यास करेंगे तो समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी कंई बातें कह पाएंगे ।
अलग अलग क्षेत्र की थोडी आत्मकथाए देखिए :--
- सबसे पहले साहित्य के क्षेत्र में 🡪 हिन्दी में मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, पंजाबी : अमृता प्रीतम, अजित कौर, दलिप कौर टिवाणा, उर्दू : इस्मत चुगताइ, आसामी : इन्दिरा गोस्वामी, फिर कमलादास है, गुजराती में हिमांशी शेलत है ।
- फिल्म जगत में हंसा वाडेकर (भूमिका फिल्म) कानन देवी, प्रतिमा बेदी, शौकत आझमी, दुर्गा खोटे... किसीने मराठी में, किसीने अंग्रेज़ी या उर्दू में लिखी है ।
- पति-पत्नी दोनों ने लिखी हो तब तो आप समाज के साथ, स्त्री-पुरुष संबंध, पितृसत्ताक व्यवस्था... आदि को लेकर काफी बातें कर सकते हैं । जैसे सार्त्र और सिमों द बूवा, शारदा महेता और सुमन्त महेता, मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव । हमेशा स्त्री मुक्ति के बारे में लिखनेवाले, स्त्री विमर्श पर सबसे ज्यादा पुस्तक लिखनेवाले राजेन्द्र यादव खुद पति के स्थान पर कैसे पुरुष थे वह हमें मन्नू की आत्मकथा ‘एक कहानी ये भी’ से पता चलेगा । पु.ल. देशपांडे की पत्नी ने ‘मनोहर आहे’ लिखी तो कितनी बातें सामने आईं?
हमारे देश में ऐसी स्मरणकथाएँ लिखीं गईं जो हमें अपने समय का आईना दिखाती हैं । जैसे कि भारत विभाजन के समय औरतों के साथ क्या हुआ, पुरुष कैसे जानवर बन गया, कैसे धर्म, जाति, उमर सब गौण हो कर सिर्फ स्त्रीदेह ही अहम् बन गया था उस कराल काल में, यह जानने के लिए Partition Stories, Novels तो है ही पर दो स्मरणकथा 🡪 गुजराती में कमलाबेन पटेल की ‘मूल सोतां उखडेलां’ में लाहौर केम्प की बातें है और बेगम अनीस किडवाई की ‘आझादी की छांव में’ में दिल्ली के केम्प की बातें हैं । अगर हम इसको साथ में रखकर पढ़ेंगे तो कह पाएंगे की अत्याचारी(हवसखोर) का कोई धर्म-कोम नहीं होता । वह सिर्फ अत्याचारी होता है ।
- हम मोटे तौर पर एक विधान कर देते हैं कि नारीवादी आंदोलनों के बाद सन सत्तर से हमारे यहाँ नारी छबि बदली । लेकिन इसका भी ज़रा ग़ौर से अध्ययन करने की ज़रुरत है ।
जैसे गुजराती भाषा के महानवल – गो.मा. त्रिपाठी के ‘सरस्वतीचंद्र’ में जो नारी छबी थी उसने एक आदर्श गृहिणी की छबी सामने रखी । ‘गोरा’ की नायिका या माता आनंदमयी बिलकुल अलग किसम की नारी है । ‘घरे-बाहिरे’ की बिमला तो बिलकुल ही अलग है । ‘चोखेरबालि’ की नायिका विधवा है लेकिन उसका रुआब तो देखिए ! ‘आरोग्यनिकेतन’ में पति के समकक्ष गाती-खेलती पढ़ी लिखी नारी है । एक ओर आशापूर्णा देवी, मैत्रेयी देवी और महाश्वेता देवी की नारी है तो दूसरी ओर कन्नड उपन्यासकार शिवराम कारंथ की ‘धरती खोळे पाछो वळे’ की सरस्वती-पारोती से मिलिए । आशा बगे की अनोखी मैथिली से मिलिए या तो राशि देशपांडे की ‘ख़ामोशी’ (Long Silence) की नायिका से मिलिए । मेघाणी की 35 से 40 के दशक के बीच की नायिका से मिलिए । इस्मत चुगताई की ‘टेढी लकीर’ की नायिका समाज की दीवारों से सर फोड़कर, बूर्खा निकालकर, पढ़ने की ज़िद पर अड़ी हुई है । वह पढ़कर, कमाकर पुरुषों की बनाई दुनिया में अपना मुकाम कायम करती है । पूरे देश में आपको 1970 से पहले ऐसी कितनी ठंडी ताकत का परिचय करानेवाली नारियाँ मिल जाएँगी । नारी आंदोलन हुए उसके बाद कहानी-उपन्यास की नारी छबि कैसे बदली वह बात भी आप कर सकते हैं । यह विषय लेते तो सब हैं लेकिन उसको 1970 के पहले के साहित्य के साथ तुलना करने का किसीको सुझता नहीं है । स्त्री को न्याय दिलानेवाले कानुन बने, नारी आंदोलन हुए उसके बाद खास करके ’75 के बाद नारी की कैसी छबि सामने आती है? पढ़ीलिखी, कमानेवाली औरत की समस्याएँ क्या बदल गई हैं? हमें याद रखना है कि हर समयखंड़ में, समग्र भारतवर्ष में कुटुम्ब या समाज के प्रश्न स्त्री के लिए एक से हैं । शोधकर्ता यदि समर्थ है तो वह इस नारी-छबि द्वारा भारतीयता की खोज कर सकता है । Fiction को base बना के भारतीयता की खोज दूसरे तरीके से भी हो सकती है ।
- एक विषय है मूल्यह्रास या विपर्यास । आज़ादी के बाद, बदलते युग के साथ मूल्यों में जो परिवर्तन आया उसकी बातें हम नहीं करते । हम साहित्यिक कृति के आधार पर सामाजिक, राजकीय, आर्थिक, नैतिक मूल्यों में आये बदलाव के बारे में बात कर सकते हैं ।
आप उदाहरण ले लिजिए – 1947 के बाद के Fiction में सामाजिक ढाँचा बिखर जाने की बात है । कैसे मूल्यह्रास के युग ने अपना पाँव जमाया यह बात भी बहुत सारी कृतियों ने की है, जैसे कि पन्नालाल पटेल का ‘मानवीनी भवाई’, राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’ इन दोनों ने आर्थिक वजह से हो रहे नैतिक मूल्यह्रास की बात है । फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ और श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ में भारतीय समाज में सर्वक्षेत्रीय मूल्यह्रास का जो चित्र है वह दिल दहला देता है । मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, पन्नालाल पटेल अपनी कहानियों में हर क्षेत्र में हो रहे मूल्यह्रास की बात करते हैं । महाश्वेता देवी की ‘अग्निगर्भा’ या ‘अरण्य का अधिकार’ में राजकीय आंदोलन के पीछे आर्थिक समस्याएँ हैं । हम क्योँ इसकी बात नहीं करते हैं? राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘एक चादर मैली सी’ हो या अब्दुल बिस्मिल्लाह की ‘झीनी झीनी बीनी चदरियां’ में आर्थिक ढ़ांचों का टूटना और परिणाम स्वरूप नैतिक मूल्यह्रास की बात हुई है ।
एक वक़्त था जब हमारा नर्मद शेरबाज़ार से परे रहने की चेतावनी देता था, एक समय था जब गुजराती साहित्य परिषद में जाने माने समाजशास्त्री या अर्थशास्त्री व्याख्यान देते थे । ‘सरस्वतीचंद्र’ पर लिखनेवालों में जाने माने अर्थशास्त्री भी थे । आज आपको कहीं पर भी विद्याशाखाओं के बीच ऐसा आदान-प्रदान दिख रहा है? हम सब जैसे आइवरी टावर में बसनेवाले हो गये हैं । फिर भी Intertextuality की बातें अब ज्यादा होती है !
- Absurd या आधुनिकता में जो एकलता की बात होती हैं इन सब के लिए हम कामू, काफ्का या सार्त्र के पास जाते हैं । हमनें कभी भारतीय साहित्य में इसकी खोज करने की कोशिश की है? हम नहीं करते है क्योँकि हम ज्यादातर खुद की भाषा का साहित्य पढ़ के बाकी परदेशी पढ़ते हैं । जिसको हम Modern Sensitivity कहते है वह भारतीय साहित्य में खोजिए – वैसे भी शोधकार्य में आपको खोजना ही होता है । उ.स्व. भालचंद्र नेमाडे का ‘कोशेटो’, शशि देशपांडे का ‘खामोशी’(Long Silence), निर्मल वर्मा का ‘वे दिन’ या ‘एक चिथड़ा सुख’, अब्दुल्ला हुसैन का ‘उदास नस्लें’, उषा प्रियंवदा की ‘कुछ कहानियाँ’, सितांशु यशश्चंद्र की कविताएं – इन सब में आपको यह मिलेगा खोज करने पर ।
- हम राजनीति – चाहे भारतीय राजनीति हो या वैश्विक राजनीति हो – को विषय बनाती साहित्य कृतियाँ लेकर भी काम कर सकते है । लेकिन फिर हमें राजनैतिक घटनाक्रम और उसके आगेपीछे की प्रभावक गतिविधियों का पता होना चाहिए । उदा. श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ 1963 में आया । अभी नेहरुजी थे तब भारतीय राजनीति एवं समाज का शतमुख विनिपात ‘राग दरबारी’ में दिखाया है । किस तरह भ्रष्टाचार हमारे खुन में मिला हुआ है... यह बात 1954 में फणिश्वर नाथ रेणु ‘मैला आँचल’ में संयत ढ़ंग से कहते है । राही मासूम रज़ा ने 1975 के आपातकाल के सभी अत्याचारों की बात ‘कटरा बी आरज़ु’ नामक उपन्यास में की है । मन्नू भंडारी ने 1979 में ‘महाभोज’ लिखा । राजनीति का यह भयावह चेहरा हमने बाद में देखा लेकिन सर्जक तो भविष्य देख सकता है । हम पूछ सकते हैं कि क्यों गुजराती भाषा में ऐसी सशक्त Political Novel नहीं है? हाँ, हरीन्द्र दवे की ‘गांधीनी कावड’ का नाम हम ले सकते हैं लेकिन वह एक सशक्त Political Statement नहीं बन सका है ।
भारतीय राजनीति से आप विश्व की ओर बढ़ें । अगर आप ज्योर्ज ओरवेल के ‘Animal Farm’ की बात करेंगे तो आपको झार शासन, उसके अंत के लिए की गई बोलशेविक क्रांति और बाद में स्टालिन, लेनिन, ट्रोटस्की आदि के बारे में पढ़ना पड़ेगा । किस तरह जनता साम्यवाद से भी निर्भान्त हुई वह आप तभी समझ पायेंगे । यहाँ आप Novel Form, रूपकग्रंथि, और Politics इनके बीच के संबंध के बारे में भी जाँच कर पायेंगे । हमारा एक पड़ोशी देश है अफघानिस्तान । 1978 तक यहाँ की जनता सिर्फ कुदरत के थपेडे झेलती थी बाकी सुखी थी । इरान की तरह यहाँ की औरतें भी प्रोफेसर्स या डॉक्टर्स थीं । पर विश्व की दो महासत्ता-रशिया और अमरिका ने मिलकर इसकी जो दुर्दशा की वह पहले आपको पढ़ना पड़ेगा । बाद में खालेद हुसैनी के Novels ‘The Thousand Splendid Sons’ की इस देश की बदलती किस्मत से तुलना कीजिए । 1978 में रशिया का घुसना, बाद में अमरिका, उनसे लड़ने पहले मुझाहिद्दीन और बाद में तालिबान का उदय... प्रजा के टूटते सपने, स्त्रियों की कल्पनातीत यातनाएं, आतंक का बहुत ही घृणास्पद चेहरा आप देख पाएँगे । यही बात अगर आपको झूठी लगे तो सुष्मिता बंदोपाध्याय की आत्मकथा ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ पढ़ लीजिएगा । आपको लगेगा Fact is Stranger than Fiction. आप यहाँ पर Text की World Political Scenario के साथ तुलना कर सकते हैं ।
- नकसलवादी मुवमेन्ट के पीछे राजनैतिक कम और आर्थिक-सामाजिक कारण ज्यादा है । वह समझने के बाद आप महाश्वेता देवी के ‘हाजार चुराशिर मा’ या ‘अग्निगर्भा’ जैसे उपन्यास पर काम कर सकते हैं ।
- हिटलर-नाझीवाद, और उसके बारे में लिखे गए उपन्यास या फिल्म पर भी काम हो सकता है ।
- भारत का विभाजन – उसके बारे में लिखी गईं Short Stories, Novels, Drama, स्मरणकथा, Poetry और कुछ 30-32 Films. इन सब को सामने रखकर Historical facts को Compare करते हुए आप अपने नतीजों पर पहुँच सकते हैं । जैसे मैंने Fictional History or Oral History पर काम किया । Written History के साथ तुलना करके मैंने यह नतीजा निकाला कि India Partition में आम इन्सान का कोई रोल नहीं था । भारत विभाजन के पीछे धार्मिक वजह या अंग्रेज़ अकेले जिम्मेवार नहीं है । आर्थिक एवम् राजनैतिक वजह भी इतनी ही जिम्मेवार है । लेकिन ऐसे शोधकार्य में आपकी जिंदगी के 20-25 साल निकल जाते हैं ।
- आपके प्रवर्तमान समय में क्या हो रहा है पिछले 30-40 साल में? देश और दुनिया में । आपको बिलकुल तटस्थ भाव से देखना है --> ’91 में आर्थिक उदारीकरण हुआ । बाद में SEZ आयें, Multinational Company आयी, मॉल आये... और छोटा व्यापारी, छोटे किसान खतम हो गए । लिंबुसोडा या छाछ पीनेवाली हमारी प्रजा अचानक पेप्सी और कोला पीने लगीं । इसके बारे में गुजराती में काफी अच्छी कहानियाँ लिखीं गईं हैं । धर्मकारण और राजकारण के मिलन से जो कुछ घट रहा है उसके बारे में भी काफी Fiction or Films मिल रहे हैं । हम इसके बारे में शोध करना कब सोचेंगे?
हाँ, एक बात हमें याद रखनी है । हम साहित्य कला के अध्येता हैं । कृति प्रतिबद्ध हो यही काफी नहीं है, साथ में वह कलात्मक भी होनी चाहिए ।
हम अभी भी Comparative Studies की ही बात कर रहे हैं ।
- मिथ और साहित्य के बारे में थोडा काम हो रहा है पर वह संतुष्टि लायक नहीं है । मिथ का उपयोग करने वाले सर्जक ने आज के समय के संदर्भ में यदि मिथ का कोई नया अर्थघटन नहीं किया है तो फिर वह मिथ का विनियोग बेकार है । आप धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ पढ़िए, उमाशंकर जोशी का कर्ण-कुंती, कृष्ण के संवाद पढ़िए । आपको जवाब मिल जाएगा । गिरीश कर्नाड का ‘ययाति’ नाटक, खांडेकर का ‘ययाति’ उपन्यास, मुनशी का नाटक ‘पुत्र समोवडी’ और कान्त का खंडकाव्य ‘देवयानी’ – इनकी आप पात्रगत तुलना कर सकते हैं और आंतरकृतित्व की दृष्टि से भी अभ्यास कर सकते है ।
प्रतिभा राय की द्रौपदी, भीष्म साहनी की ‘माधवी’, हसमुख बाराडी की गांधारी – इन सबकी महाभारत के साथ तुलना कीजिए । हम सिर्फ भास के ‘ऊरुभंग’ या ‘कर्णभार’ की ही बात करते हैं । आप आजकी (आपकी) भारतीय कृतियों के साथ भी तुलना कीजिए । आप देखिए यह माधवी, गांधारी, ऊर्मिला, सीता में आपको नारीवादी सूर सुनाई देगा । इसको आप Feministic Approach से भी जाँच पायेंगे ।
- Feministic Approach = नारीवादी दृष्टिकोण से शोधकार्य करना आजकल फेशन बन गया है । वैसे तो ये भी तुलनात्मक अभ्यास ही है । आप यहाँ पर साहित्यकृति का समाजशास्त्रीय अभिगम से अभ्यास कर रहे हैं ।
इन दिनों में क्या हो रहा है? नारीवाद के बारे में जो कुछ लिखा गया है उसमें से पहला प्रकरण लिख देने का और बाद में दो-तीन Text लेके उसकी कहानी लिख दो । आप दस Thesis देखेंगे तो पता चलेगा इस पेटर्न को ही सब के सब फोलो कर रहे हैं । पीछले पचास सालों में पश्चिम में तो इसके बारे में लिखा गया है । हमारे देश में भी राजेन्द्र यादव, कमला भसीन, गौरी देशपांडे, तसलीमा नसरीन जैसे लोगों ने काफी लिखा है इसके बारे में । कृति / Text का नारीवादी दृष्टिकोण से कितने लोग विश्लेषण करते हैं? अब तो WL (WOMEN’S LANGUAGE) या Gynocriticism के बारे में भी काफी कुछ लिखा गया है । लेकिन हम ये नये विभाव (Concept) से Text की चर्चा नहीं करते ।
भाषा अभिव्यक्ति, थीम आदि मामलों में स्त्रीसर्जक या पुरुषसर्जक एक दुजे से अलग है? हम क्योँ कभी इसकी प्रायोगिक खोज नहीं करते? पश्चिम में ऐसा हुआ है । लेकिन जिस किसी विषय में Field Work (क्षेत्रीय कार्य) करने की अनिवार्यता हो वह हम दूसरों के लिए छ़ोड देते हैं ।
- इन दिनों Feminism से भी बढ़कर लोकसाहित्य – Folk Literature में काम हो रहा है । यहाँ पर सबसे ज़्यादा नैतिक भ्रष्टाचार हो रहा है । यदि मैं उस प्रदेश की लोकबोली से, रीति-रिवाज़ से परिचित नहीं हूँ तो फिर न तो मैं उसमें काम कर सकती हूँ ना तो मार्गदर्शन... लेकिन दोनों चीज़ें हो रही हैं।
आप कुछ गीत या लोकवार्ता इकठ्ठे करके डिग्री तो ले लेंगे पर क्या यह शोधकार्य हुआ? दो प्रदेश – दो जाति के गीत या कथा में कुटुम्बभावना, सामाजिक मूल्यो, नारी छबि... आदि की खोज हो सकती है । इन लोकवार्ताओं में Motif = कथाघटक की खोज या तो मिथ के साथ इसका संबंध है या नहीं? यह भी खोज सकते हैं । लेकिन यह होता नहीं है । लोकगीतों का लय, अवरोह, भाव, भाषा का शिष्टसाहित्य पर कैसा प्रभाव पड़ा? ये सब बातें शोधकार्य के दायरे में आज तक प्रवेश नहीं कर पाई है ।
- गुजराती भाषा में अनुवाद की भव्य परंपरा रही है । उमाशंकर जोशी जैसे विद्वान ने ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ और ‘उत्तररामचरित’ का अनुवाद किया है । नगीनदास पारेख टागोर/शरदबाबु को लाए । गोपालराव विद्वांस खांडेकर को गुजराती में लाए । यह सब बडे आला दरज्जे के विद्वान पंडित थे । जो बंगाली, अंग्रेज़ी पर भी प्रभुत्व रखते थे । हमने अनुवाद की सघन जाँच की कभी? चार-पांच अनुवाद को Original Script के साथ रखकर भी काम कर सकते हैं । लेकिन यहाँ आपकी कक्षा अनुवादक जितनी या ज्यादा होनी चाहिए ।
- हम लोग थीमेटिक संशोधन तो बहुत करते हैं पर Technical यानि कि रचनारीतिगत, प्रयुक्तिगत संशोधन बहुत ही कम करते हैं । जैसे कि Narratology – Narrative Technique ले के आप शैलीविज्ञान = Stylistic में काम कर सकते हैं ।
धटना, पात्र, परिवेश... Time in Fiction, Story time & Discourse time ये बातें भी हो सकती है । ‘The Sound & the Fury’ – William Faulkner या ‘आग का दरिया’ – कुर्तलैन हैदर ; इसमें समय की जो गति है वह देखने का काम कर सकतें हैं । हम ऐसे शोधकार्य क्यों नहीं करते?
हमारे यहाँ प्राय: कविता पर काम करनेवाले लोग विलुप्त प्रजाति में आते है । जैसे किसी को यह काम करना ही नहीं है । लेकिन अगर कोई करने को इच्छुक हो तो 🡪
- आप कोई एक छंद लेकर ऐतिहासिक क्रम में देखिए । हर समय के कवि ने उस छंद के साथ कैसा काम लिया? कौन से छंद ऐसे हैं जिसमें ज्यादा रचनाएँ मिलती हैं ।
- शैव, जैन, स्वामिनारायण जैसे सम्प्रदायों की कविता में जो फलसफा है उसके बारे में ।
- कविता और प्रतिबद्धता, कविता और प्रयोगशीलता, Narrative Poetry, अछांदस कविता
साहित्यिक सामयिक :
- विकास रेखा, कोई साहित्य स्वरूप की उत्क्रांति में उसका योगदान । जैसे कि गुजराती कहानी और गद्यपर्व इत्यादि सामयिक ।
- किसी एडिटर का प्रभाव, जैसे गुजराती कविता और बचुभाई रावत ।
साहित्य और फिल्म इन दोनों कलाओं के माध्यम भिन्न हैं । अभी साहित्य कृति पर से बनी हुई फिल्मों पर काम करना है तो इसमें काफी शक्यताएं हैं । जैसे कि :
- साहित्यिक कृति पर से बनी फिल्में -->
- चुनीलाल मडिया की कहानी ‘अबू मकराणी’ पर से केतन महेता ‘मिर्च मसाला’ बनाते हैं ।
- प्रेमचंद की ‘सद᳭गति’ कहानी पर से सत्यजित रे ‘सद᳭गति’ बनाते हैं ।
- टागोर की ‘नष्टनीड’ कहानी पर से सत्यजित रे ‘चारुलता’ बनाते हैं ।
- 'ओ हेन्री की ‘गिफ्ट ओफ मजाय’ पर से ऋतुपर्ण घोष की ‘रेइनकोट’ बनी हैं ।
- टागोर के ‘घरे बाहिरे’ पर से सत्यजित रे की ‘घरे बाहिरे’ ।
- विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के ‘पथेर पांचाली’ पर से रे की ‘पथेर पांचाली’ ।
- धर्मवीर भारती के ‘सुरज का सातवाँ घोडा’ पर से बेनेगल की उसी नाम की फिल्म बनी है।
- महाश्वेता देवी की ‘हाजार चुराशिर माँ’ पर से गोविंद निहलानी ने उसी नाम की फिल्म बनाई।
इनमें रूपांतरण किस तरह हुआ है यह एक खोज का विषय है । शेक्सपियर के विख्यात नाटक ‘मेकबेथ’, ‘ऑथेलो’ और ‘हेम्लेट’ पर से विशाल भारद्वाज ने ‘मकबूल’, ‘ओमकारा’ और ‘हैदर’ कैसे बनाई है? यह रूपांतरण बिलकुल अलग है । यहाँ पर आप फ्रॉइड और सिनेमा और युपी या कश्मीर की राजनीति के साथ तुलना कर के बात कर सकते है । जो लोग अंग्रेज़ी पढ़ते हैं उनके लिए तो एक पूरा खजाना है इंतजार में । जैसे ग्रेट एक्सपेक्टेशन, प्राइड & प्रिज्युडिस, डॉ. झिवागो, सन्स & लवर्स, लस्ट फोर लाइफ, टु सर, विथ लव...
- मान लो कि आपको एक थीम पर काम करना है तो नाझीवाद पर बनी हुई फिल्में, Partition Cinema जैसे कि 🡪 गर्म हवा, 1947 अर्थ, Train to Partition, मम्मो, धर्मपुत्र, गदर, खामोश पानी, पार्टीशन
- कोई एक समस्या को लेके जैसे कि 🡪 अछूत, सुजाता, भव नी भवाई...इत्यादि
- सिनेमा का समाज पर प्रभाव, सिनेमा और फेशन आदि विषय पर भी काम हो सकता है ।
तो? विषय तो बेशुमार है, लेकिन श्रम और सूझ-समझ के साथ काम करनेवाले कहीं भी दिखाई नहीं देते । शोध के क्षेत्र में हम शतमुख विनिपात की ओर चल पड़े हैं ।
आपको लगेगा मैं ज्यादा अपेक्षा रखती हूँ । हमारे अभ्यासक्रम बहुत निम्न स्तर के हो चुके हैं, जिस पर यह सेमेस्टर पद्धति ने अध्यापक को परीक्षा के साथ जैसे बाँध दिया है । फिर भी हमें शोधकर्ता को आलोचना और शोधकार्य के बीच का भेद समझाना है । हमें सिर्फ आस्वाद नहीं करवाना है, सिर्फ अवतरण इकठ्ठे नहीं करने हैं । दूसरों ने जो कहा सो कहा – आपको क्या कहना है वह ज्यादा महत्त्व रखता हैं ।