Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
नज़रअंदाज़ किये गए आघात: भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन-साहित्य में विवाह सम्बन्धी समस्याएं
सार

विश्व में होने वाले विभाजन के कई भिन्न-भिन्न परिणाम सामने आये है, नागरिकों के झगड़े हमेशा अलग अलग मुद्दों पर होते है तथा प्रत्येक राष्ट्र एवं समुदाय के पास बताने के लिए अपने स्वयं के किस्से होते है| इन सभी के साथ बार बार दोहरायी जाने वाला महत्वपूर्ण विषय ‘हिंसा’ है| पाकिस्तान बनाने के लिए भारत का विभाजन भी एक ऐसी ही घटना थी| दंगे ,अपहरण ,बलात्कार ,जबरन पलायन ,लूटमार ,हत्याएं ,अत्याचार के सभी प्रकार अब ‘फसादत के अफसाने’ का हिस्सा है| आम लोगों की इन पीड़ाओं को प्रदर्शित करने के लिए अपनी कलम समर्पित करने वाले लेखकों ने इसके किसी भी पहलू पर आँख नहीं फेरना सुनिश्चित किया है| ऐसा ही एक पहलू है ‘विवाह की संस्था’ |

विभाजन पर लिखित लेखन में महिलाओं पर की गयी हिंसा को दर्शाया गया है जिसके अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक हिंसा दोनों को स्थान दिया गया है| कई उपन्यास, कहानियाँ,तथा सिनेमा के माध्यम से विभाजन के दौरान विवाह के मुद्दे पर भी बल दिया है जो उस समय सबसे महत्वपूर्ण समस्या के रूप में सामने थी| भारत में विवाह आज भी एक जटिल मुद्दा है लेकिन उस समय यह महिलाओं पर अत्याचार करने का एक और माध्यम बन गया |

इस शोध पत्र का उद्देश्य दंगा पीड़ित भारतीय उपमहाद्वीप में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा के रूपों के रूप में विवाह सम्बन्धी द्वंद को सामने लाना है| निम्नलिखित कहानियों व उपन्यास का उपयोग, उन परिस्थितियों में वैवाहिक बंधन के रूप में रहने वाली महिलाओं के संकट को समझाने के लिए किया जाएगा : अमृता प्रीतम द्वारा ‘पिंजर’, बापसी सिधवा द्वारा ‘आईसकेंडी मेन’ पाकिस्तानी टीवी धारावाहिक ‘दास्तान’, कमलेश्वर- कितने पाकिस्तान(एक अध्याय) आदि |


सांकेतिक शब्द- पलायन, मनोवैज्ञानिक हिंसा, फसादत के अफसाने |

विवाह संस्था, ऐतिहासिक रूप से उतनी ही पुरानी है जितनी की सभ्यता| सभ्यता के रूप में विवाह की स्थापना को एक प्रस्तावना के रूप में देखा जा सकता है| एक बेहतर सवाल यह हो सकता है कि बिना विवाह के दुनिया की काल्पनिक छवि कैसी होगी? हमारे आस-पास के लोग (विशेषकर एशियाटिक बेल्ट में रहने वाले लोग)विवाह के पूर्व बनाये जाने वाले आपसी संबंधो को एक पाशविक कार्य मानते है तथा इसे विवाह की पवित्रता से बाहर रखते है| इसी विवाह की गरिमा में “लिव इन रिलेशन” को भी उसी नज़र से देखते है|

इस संस्था की शुरुआत क्या हो सकती है? इस विधि का आविष्कार किसने किया? जब हम आदि मानव के बारें में कोई वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करना चाहते है तो उसका जवाब उनकी ‘उत्पति’ में मिलता है परन्तु इन सांस्कृतिक बारीकियों के क्या जवाब हो सकते हैं| हमें इनके जवाब सभ्यता के अध्ययन से मिल सकता है| दुनिया के अधिकांश हिस्सों में विवाह एक पवित्र अनुष्ठान है और इस कारण यह स्वत: ही धार्मिक अनुष्ठान भी बन जाता है|

पुरुष एवं महिला दोनों के जीवन में विवाह एक महत्वपूर्ण घटना है| चूँकि विवाह के बाद मातृत्व का चरण आता है, जो कि समय के साथ स्त्री को असहाय एवं कुछ समय के लिए अपने पति पर पूर्ण रूप से निर्भर बना देता है| तथा भारत के संदर्भ में सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों, नियमों की कुछ जटिलताओं के कारण महिला का जीवन तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभावित होता है|
“भारतीय संदर्भ में विवाह नामक संस्था की उत्पति, वैदिक काल से देखने को मिलती है| इसे एक सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य व आवश्यकता के रूप में माना जाता हैं| वैदिक सार में कहा गया है कि जो अविवाहित है, वह अपवित्र है| आश्रम व्यवस्था में भी सम्पूर्ण समाज को गृहस्थ आश्रम पर निर्भर माना है- ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं सन्यास का अस्तित्व, बिना गृहस्थ आश्रम की सक्रियता के कठिन है” (A.S.Altekar 36-37)|

“कन्यादान के तहत आने वाले विवाह के रूपों में चार प्रकार के विवाह ब्रह्म, दैव, अर्ष एवं प्रजापत्य विवाह शामिल है, जो कि सर्वोपरि माने जाते है| इस अवधारणा का स्पष्ट तात्पर्य है कि स्त्री के माता-पिता द्वारा उसके श्रम, कामुकता,एवं प्रजनन शक्ति को उपहार स्वरुप दिया जाना है और महिला विवाह में स्वयं को ‘उपहार’ में नहीं दे सकती है| स्त्री के अभिभावक द्वारा सर्वोच्च धार्मिक कार्य दान का कार्य माना जाता है| कन्यादान विवाह से संबंधित विचारधारा में माना जाता है कि कन्या(दुल्हन) के बदले में कुछ भी नहीं लिया जा सकता है| अन्य प्रकार के विवाह जिनमें कन्यादान प्रक्रिया शामिल नहीं है, उनमे प्रमुखत: असुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच है, और इन्हें निम्न श्रेणी का विवाह माना जाता है, जिनकी कोई सामाजिक पहचान व प्रतिष्ठा नहीं है” (Chowdhry 44-45)|
सुजेन ब्राउनमिलर की कृति “against our will’ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनके अनुसार विवाह, स्त्री की सुरक्षा के लिए एक उपाय के रूप में शुरू हुआ था, वह पुरुष को एक शिकारी कहते हैं, जो महिला को जितने के लिए बोली लगाते है, लेकिन उनमें से कुछ रक्षक के रूप में भी काम करते है|
“But among those creatures who were her predators, some might serve as her chosen protectors… female fear of an open season of rape, and not a natural inclination toward monogamy, motherhood or love, was probably the single causative factor in the original subjugation of woman by man, the most important key to her historic dependence, her domestication by protective mating”. (Brownmiller 16)
इस शोध पत्र का मुख्य केंद्र ‘फसादत के अफसाने’ के बड़े सामूहिक आख्यानों का हिस्सा ‘विवाह’ के पहलू पर है| कई देशों का नए राष्ट्र या स्वतंत्र राज्य के निर्माण के लिए विभाजन किया जाता है| यही घटना,1947 में घटित हुई तथा उसके बाद में कई रूपों में सामने आयी| परन्तु प्रत्येक विभाजन के परिणाम विभिन्न रूपों में देखने को मिलते है| 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान बनने के लिए उत्तर पश्चिमी और पूर्वी सीमाओं कि तर्ज़ पर विभाजन का मुद्दा समक्ष आया,उसके दो दशक बाद ही बांग्लादेश के निर्माण के लिए पाकिस्तान का विभाजन किया गया| हत्या, बलात्कार इन दोनों घटनाओं की वास्तविकता रही थी, परन्तु जहाँ 1947 के विभाजन के दौरान कई ‘जबरन/मजबूरन विवाह के मामले प्रमुख रहे थे, यह पहलू पाकिस्तान के विभाजन के समय कम महत्वपूर्ण रहा| सांस्कृतिक रूप से, पूर्वी पाकिस्तान अपने पश्चिमी भाग से अलग था, और इसका भारत की बंगाली संस्कृति से घनिष्ठ संबंध था और यही मुख्य कारण बांग्लादेश के निर्माण में सहायक रहा|

जबरन/मजबूरन विवाह, 1947 के विभाजन प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पहलू रहा है, इस तरह के अन्य संघर्षो की घटनाओं में मुश्किल से ही ऐसे परिणाम सामने आये हैं, इसका एक उदाहरण रोम की स्थापना के समय मिलता है, जहाँ महिलाओं का अपहरण हुआ, बलात्कार किया गया फिर उन्हें विवाह के लिए मजबूर किया गया है| जैसा कि हमे लिवि और सिसरो की ऐतिहासिक कृति में वर्णन मिलता हैं| रोम की स्थापना से संबंधित ऐतिहासिक कृति में, इतिहासकारों द्वारा इसके लिए कारण प्रस्तुत किये गए है जिनमें यह कहा जाता है कि रोमुलस (Romulous) एवं इसके अन्य व्यक्तियों के कुल में कोई महिला नहीं थी, एवं उन्हें भावी संतान की आवश्यकता महसूस हुई| इनके द्वारा पड़ोसी राज्य ‘सेबिन’ में इसका प्रस्ताव भेजा गया| परन्तु पड़ोसी राज्य के द्वारा प्रस्ताव अस्वीकार करने के कारण रोमुलस द्वारा उन पर आक्रमण कर वह के लोगों को चकमा देकर उनकी औरतों का अपहरण किया गया| यह कार्य इसलिए किया गया क्योंकि उन्हें अपने समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए संतान की आवश्यकता थी| परन्तु भारत के संदर्भ में (1947 के विभाजन) में ऐसा कोई तार्किक,प्रत्यक्ष कारण या निष्कर्ष अब तक सामने नहीं आया है तथा इस विषय पर कोई लेखन पढ़ने को नहीं मिलता है (Brownmiller 34) |

1947 के दंगो पर हुए लेखन में लेखकों द्वारा यह विषय सामान्य रूप में उभर कर आता है| यद्यपि विभाजन के साहित्य में यह एक सामान्य विषय के रूप वर्णित हुआ है परन्तु शोधकर्ता द्वारा इसके सांस्कृतिक पहलू को नज़रअंदाज़ किया है| अधिकांश शोधकर्ताओं द्वारा, घटनाओं के केवल एक मात्र परिणाम के रूप में देखा जाता है जो कथा में उनके अनुसार कथानक की भूमिका के रूप में उपयोग होता है| इस शोध पत्र द्वारा न केवल पात्रों पर हुए आघात का अध्ययन किया गया है, बल्कि सामाजिक रूप से स्थापित मानदंडों पर भी ज़ोर दिया है, जिनके कारण दंगो से ग्रस्त भारत में इस तरह के परिणाम सामने आये थे|

इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य, दंगा-ग्रस्त भारतीय उपमहाद्वीप में भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक हिंसा के रूप में विवाह की प्रकृति का अध्ययन करना है| “अधिकांश भारतीय महिलाओं के लिए अज्ञात व्यक्ति से विवाह, एक अपहरण, हमले या उल्लंघन की तरह ही है| फिर यह आक्रमण क्यों अलग होना चाहिए?, क्या सिर्फ इसलिए कि इसमें पुरुष एक अलग धर्म का था? एक अपह्रत महिला द्वारा कहा गया था कि ‘मुझे वापस क्यों जाना चाहिए? आप मुझे भारत ले जाने के लिए इतने चिंतित क्यों हों? अब मेरे पास धर्म और शुद्धता(पवित्रता) के लिए क्या बचा है? एक दूसरी महिला द्वारा कहा गया था –“मैंने अपना पति खो दिया है, और मैं अब किसी दुसरे के साथ हूँ, आप मुझसे हर रोज पतियों को बदलने की उम्मीद नहीं कर सकते है” (Butalia 147)|

भारत में अभिभावकों द्वारा चयनित व्यक्ति द्वारा करवायी गयी शादी में स्त्री-पुरुष, विशेषकर स्त्री की स्वेच्छा को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है| अविभाजित भारत में यौन संबंधो से संबंधित विचारों का खुलापन प्राचीन समय से ही है जिनका उल्लेख बाद में लिखित प्राचीन संस्कृत साहित्य जैसे कामसूत्र और खज़ुराओं के मंदिर में देखने को मिलते है| भारत के सांस्कृतिक तत्व कुछ सीमा तक यहाँ की महिला को अपने लिए वर चुनने की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करते है| विवाह के पूर्व संबंधो की बात सुने तो दशक हो गए होंगे| इस स्थिति में हम यह कल्पना कर सकते है कि महिला की अपने पति से पहली बार बातचीत अस्पष्ट होगी, जिसमें या तो सहवास अन्यथा एक दुसरे को जानने का प्रयास होगा | ग़दर जैसी कहानियाँ रोमांटिक हो सकती है परन्तु अधिकांश विवाह की वास्तविकता अलग होगी जिनमें नववधू को एक दर्दनाक रीति की अनौपचारिक शुरुआत का सामना करना पड़ा जिसे ‘सुहागरात’ कहा जाता है, जिसके बारें में शायद उसके रिश्तेदार द्वारा बताया जाता है| इसकी एक झलक बापसी सिधवा द्वारा पाठकों को प्रदान की गयी है जिसमें पप्पू की शादी के बाद, एक बच्ची जिसे शादी के भारतीय सामाजिक रीतिरिवाज़ में एक ‘वस्तु’ के समान रखा जाता है: “एक महिला द्वारा उस बच्ची का घूँघट उठाया जाता है और बातें कही जाती है जो उसे उस विवाह के रीतिरिवाज़ पूर्ण करने पर मजबूर करती है|” पप्पू एक बारह साल की लड़की है जो अपने से तीन गुना उम्र के व्यक्ति (पति) का इंतजार कर रही है| लेनी की गहरी आँखों के माध्यम से लेखिका अपनी कहानी का मोड़ प्रस्तुत करती है, जिसमें पप्पू की माँ द्वारा अपनी बेटी के अपनी उम्र के अनुसार बर्ताव करने पर मारपीट की जाती है, परन्तु विवाह के समय अपनी बेटी को अफीम के नशे से चेतनाहीन करने पर उसके चेहरे पर संतोषजनक मुस्कराहट दिखाई देती है|

बापसी सिधवा(पाकिस्तानी यहूदी लेखिका) द्वारा लिखित उपन्यास “आइस केंडी मेन” के अंतर्गत कई पात्रों के माध्यम से विवाह के द्वंद को उजागर किया गया है| लेनी(बाल-कथाकार) भी अपने भावी शादी एवं एक सक्षम पति के बारें में सोचती है| सभी पात्र, शादी के बंधन के भिन्न-भिन्न मुद्दों के रूप में सामने आते है| लेनी की दोस्त का बाल विवाह, उसकी आया की आइस केंडी मेन से विपरीत परिस्थितियों में हुई शादी, लेनी के माता-पिता के वैवाहिक मतभेद आदि| यहूदी/पारसी आधुनिक तकनीक या विचारों को स्वीकार करने में अग्रणी रहे है| लेनी, पोलियो से ग्रस्त एक लड़की हैं जो की बहुत खुशमिजाज़ प्रवृति की हैं| वह बहुत कम उम्र में ही अपनी शादी के बारे में अपनी पसंद को बताती है| अधिकांश हिस्सों में लेनी के माता-पिता का संबंध सामान्य दिखाया गया है परन्तु पाठक यह समझ जाते है कि लेनी की माँ के साथ दुरव्यवहार होता है| वह उसकी माँ को कहते हुए सुनती है कि वह अपने पति को दूसरी औरत के पास नहीं जाने देगी| यहाँ लेनी की माँ जो की इतनी जागरूक है कि उसके द्वारा विभाजन के समय के दंगो की परिस्थितियों को देखते हुए पेट्रोल की केन को छुपाकर, शहर को बचाने के लिए लड़ती है, और पुनर्वास जैसे कार्यों में उसके साथ मदद करती है परन्तु एक शादीशुदा नारी के स्थान पर वह कहीं ना कहीं कमज़ोर दिखाई देती है जो सब कुछ जानते हुए भी अपने पति का दूसरी औरत के साथ संबध स्वीकार कर लेती है | जब हम विभाजन से संबंधित यहूदी औरतों की बात करते है तो सादत हसन मंटो का एक पात्र ‘मोज़ेल’ हमारे दिमाग में आता है| यह पात्र 1940 के समय के यहूदी महिला के बारे में बताता है| मोज़ेल मानव जीवन में एक व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करती है जिसके हक़दार सिर्फ पुरुष ही नहीं होते है, यह क्षमता महिला में भी है जो कि मोज़ेल अपने पात्र द्वारा प्रस्तुत करती है| लेनी की माँ से मोज़ेल की तुलना करने पर मोज़ेल अपवादस्वरुप है, परन्तु वह इसलिए क्योंकि मोज़ेल अविवाहित है, वह प्यार के बंधन में नहीं है, उसके स्वयं के बच्चे नहीं है तथा वह भारतीय समाज के धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय के आधार पर परिभाषित ‘नारीत्व’ से भी रहित है| इस संदर्भ में क्या लेनी की माँ, ‘ख़ामोशी के उस पार’ की अन्य महिलाओं के समान नहीं है? जो अपने सामान्य जीवन से हटकर एक अलग व्यक्ति के पास जाने के लिए इनकार करती है| इसमें इन महिलाओं या लेनी की माँ की कोई गलती नहीं है| ये समाज के प्यादे है जो समाज को बलिदान, एकल विवाह, निर्भरता जैसे आदर्शों के पुनरावृति द्वारा संचालित किये जा रहे है|

अपहरण, विभाजन का एक दुखद परिणाम था| इस शोध पत्र में लगभग सभी आख्यानों पर चर्चा हुई है जो अपहरण से संबधित है| इन लेखन में हाशिये पर रही महिलायें (जिनका बलात्कार हुआ) को केंद्र में लाया गया है| बापसी सिधवा के उपन्यास में लेनी द्वारा ऐसे पात्र की बात की गयी है जो ‘आया’ है| लाहौर में पारसी परिवार में लेनी की आया ऐसी महिला है जो सभी का आकर्षण है| वह दबंग एवं कामुक महिला है| पारसी परिवार में काम करने वाली महिला जिसके कई प्रेमी है( आइस केंडी मेन से लेकर अंग्रेज़ अधिकारी), तथा वह एक आधुनिक महिला है जो अपनी स्वतंत्रता को समझती है| भारत में आज भी अधिकांश महिलाएँ साधारण जीवन व्यतीत करती है जो स्थिर एवं सामान्य है| समाज में मानकों का निर्धारण किसी भी कार्य की निश्चित समय में पुनरावृति से होता है| भारतीय महिला द्वारा लिखित पहली आत्मकथा अमर जिबान में आज्ञाकारी लेखिका भी प्रश्न करती है कि एक नववधू को भारी कपड़ों, बोझिल गहने, कंगन, चूड़ियों एवं सिन्दूर से बिना सोचे लाद दिया जाता है| 1860 में लिखी गयी आत्म कथा में एक घरेलु महिला के प्रतिबंधित जीवन का आलोचनात्मक अवलोकन किया गया है| राशुन्दारी अपने जीवन की उस ‘आधुनिक’ नारी से तुलना करती है जिसे शिक्षा का अधिकार प्राप्त है| “उन दिनों में प्रत्येक व्यक्ति का विश्वास था कि महिलाएँ मात्र कठिन घरेलु कार्यों में सक्षम है” (Sarkar 120)| यह मानना गलत होगा कि 20 वीं शताब्दी तक यह स्थिति बदल गयी थी, अभी भी अनेकों भारतीय महिलाओं के जीवन में यह कठिन परिश्रम उनकी वास्तविकता है|

आया ने आत्म-आश्वासन के माध्यम से ये सीमायें तोड़ दी थी| वह अपने आस-पास के पुरुषों के साथ दोस्ती करती है, प्रेम करती है| वह मेसुअर के माध्यम से प्रेम के स्पर्श का अनुभव करती है, वह अति उत्साही चरित्र वाली महिला थी परन्तु उसके अपहरण के बाद यह चरित्र बदल जाता है| उसके साथ होने वाली घटना, उसके लिए समाज के दंड के रूप में लगती है जिससे यह प्रतीत होता है कि यह एक महिला के साहस को तोड़ने की जरुरत थी, विडंबना यह थी कि उसके सभी साथी इसका हिस्सा थे|

दंगो के दौरान, लेनी का घर पाकिस्तान के दायरें में आता है, जहाँ हिन्दुओं को सताया जाता है| जहाँ कहीं घरों के लोग अपना धर्म परिवर्तित कर लेते है, आया सुरक्षा की उम्मीद में रहती हैजो कि वह अपने दोस्तों से करती है| एक मासूम विश्वास जो लेनी आइस केंडी मेन में रखती है के बदले उसे धोखा मिलता है जब वह उसके प्रश्न ‘आया कहाँ है?’ का जवाब देती है| आया का अपहरण कर लिया जाता है: “आया की बैंगनी साड़ी उसके कंधो से उतर रही है, साड़ी के कपड़े के खिंचने से तनाव उत्पन्न हो रहा है....बांह की आस्तीन फट रही है...कई पुरुष उसे खिंच रहे है...उनके कठोर हाथ, लापरवाह अतरंगता के साथ समर्थन करते हुए उसे उठा ले गए|” (Sidhwa 183)ये अवांछित हाथ, पैर की उँगलियों ने मेरी आया को बांट दिया है| एक मात्र हाथ जिन्हें वह अनुमति देती थी वह उसके प्रेमी मेसुअर के थे| कई लोगों की शारीरिक ताकत एवं समाज की अराजकता से हारने पर अपहरण के समय और बाद में उसे कई अवांछित हाथों द्वारा छुआ जाता है जब आइस केंडी मेन द्वारा उसे वेश्या में बदल दिया जाता है|

एक नाचने वाली लड़की से लेकर एक विवाहित स्त्री तक आया को उसके हेंडलर आइस केंडी मेन द्वारा कई रंगों में चित्रित किया गया होगा| इसका विश्वासघात पाठकों के लिए बहुत दुखदायी था क्योंकि आया ने कभी भी उसे संभावित खतरे के रूप में नहीं देखा था और ना ही लेनी ने| एक दोस्त एक अपहरणकर्ता पिंप-पति(दलाल) के रूप में बदल गया, जिसे वह एक खलनायक पित्रसत्तात्मक स्थिति मानती है, जो आया के उन अपराधों को दण्डित करना चाहती है जिन्हें वह खुद के साथ विश्वासघात के रूप में देखता है| उसकी शादी केवल हीरा मंडी में रखने के लिए एक उपाय के रूप में थी| इसके विपरीत ‘कितने पाकिस्तान’ में विद्या की तरह इसकी यह शादी उसे हीरा मंडी के लोगों से भी नहीं बचा पाती है| जैसा की सुसेन ब्राउनमिलर के द्वारा बताया गया तर्क यहाँ देखने को मिलता है कि किस तरह वैवाहिक संबंध सामाजिक सुरक्षा के बजाय एक बंधन के रूप में बदल जाता है|

आया को लेनी की माँ एवं गॉड-मदर के द्वारा उसके पति के चंगुल से छुड़ाया जाता है और उसे अमृतसर पुनर्वास संस्था में भेजा जाता है परन्तु पाठकों को ये नहीं बताया गया कि उसका परिवार उसे स्वीकार करता है या नहीं|
“जबरन अपने घर से निकला जाना एक मुद्दा था| फिर अपने ही परिवारों में उन्ही महिलाओं की स्वीकृति एक अलग मुद्दा था| अनेक परिवार द्वारा महिलाओं को स्वीकार करने की अनिच्छा जताने पर गांधीजी एवं पंडित नेहरु द्वारा लोगों से अपील भी की गई और बताया गया कि अपहरण हुई महिलायें ‘पवित्र’ है” (Butalia 160)|
उस समय कहीं पेम्पलेट छपवाये गए जिनमें इन महिलाओं की तुलना सीता से की गयी जिसका रावण द्वारा अपहरण किया गया| यह पुरुषों को आश्वस्त करने का तरीका था कि ये महिलायें सीता की तरह पवित्र है परन्तु पेम्पलेट में निहित छवि का प्रयोग किया जा रहा था उसमें विडंबना यह थी कि सीता का रावण से कोई शारीरिक संपर्क नहीं था वह उसे अपनी शक्तियों से उसे दूर रखने में समर्थ रही थी, इसके बावजूद उसे भी अपनी ‘पवित्रता’ को साबित करने के लिए अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी थी| जिसे भी इस कथा की जानकारी होगी वो इस तथ्य से भी वाकिफ़ होंगे कि उसकी स्वीकृति कुछ दिनों तक ही सीमित रही थी और उसे अपने पति के आदेश द्वारा महल से ‘सम्मानपूर्वक’ जंगल छोड़ दिया गया था|

इसके स्थान पर पेम्पलेट में ‘अहिल्या’ की छवि को प्रदर्शित करना अधिक उचित होगा क्योंकि यह घटना इन दंगों से ग्रसित महिलाओं( जिनके साथ बलात्कार हुआ था) के समान है जिसमें अहिल्या का इंद्र के द्वारा धोखे से उसके पति के भेष में संबंध स्थापित किया था और परिणामस्वरूप इंद्र को दंड दिया गया था| अहिल्या के पति द्वारा अहिल्या को भी दंड के रूप में पत्थर की मूर्ति बना दिया गया था| ये पौराणिक कथाएं एक झरोखा है जिसके माध्यम से पुरुष की शक्ति प्रदर्शित होती हैं| समाज इस तरह की परिस्थितियों में सहायता करने के बजाय ऐसे निर्णयों का अनुसरण करता आया है|

अन्य समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपहरण की गयी महिलाओं को कुछ पुरुषों द्वारा अपनाया गया और कुछ के द्वारा नहीं| पिंजर के एक पात्र रामचंद्र द्वारा उसकी मंगेतर जिसका राशिद से निकाह होने पर भी स्वीकार कर लिया जाता है| उसी तरह कुछ महिलायें थी जो वापस अपने घर जाना चाहती थी और कुछ उसी जगह पर रहना चाहती थी| पारो (पिंजर), सकीना (ग़दर) अपने अपहरणकर्ता/ रक्षक के साथ ही रहने का निर्णय लेती है, जबकि आया (आइस केंडी मेन), बानों(दास्तान) अपने परिवार वापस लौटना चाहती थी|

जब इंसान जन्म लेता है तो एक पिंजर के रूप में होता है, परन्तु जन्म के बाद उसके साथ धर्म, जाती, रंग आदि मानव निर्मित सामाजिक मानक जोड़ दिए जाते है जो उस पिंजर की पहचान बनाती है| पिंजर फिल्म में पारों एवं अन्य महिला को विभाजन की परिस्थितियों ने कई नई पहचान दी गयी तथा उनका पिंजर की तरह प्रयोग किया गया था| फिल्म के प्रारंभ में विवाह की तैयारियों के साथ एक गाना बजता है जिसकी पंक्तिया है ‘मार उडारी ओ कुकिये मार उडारी’ जिसके द्वारा स्त्री के विवाह की अनिवार्यता को दर्शाया गया है| इसमें महिला की तुलना, चिड़िया से की है जो ‘स्वछन्दता’ का प्रतीक है| परन्तु इस पिंजर को दो परिवारों के बीच की दुश्मनी का माध्यम बनाया जाता है और उससे जबरन विवाह किया जाता है| उसी दौरान विभाजन की दंगा-ग्रस्त स्थिति में लाज़ो का भी अपहरण कर उससे विवाह की कोशिश की जाती है| एवं दुसरे धर्म की स्त्री से बदला लेने व स्त्रियों की संख्या कम होने के कारण भी अपने घर में काम करने के लिए बहू की आशा में कई औरतों द्वारा भी इन अपहरण व विवाह को समर्थन दिया गया था| पारों के पति राशिद के व्यक्तित्व में सुधार आता है तथा वह अच्छा व्यवहार करता है और अंत में वह पारों को वापस अपने पहले मंगेतर के पास जाने की अनुमति भी देता है, परन्तु पारों इस विवाह को ही ‘स्वीकार’ कर लेती है और कहती है कि अब ‘राशिद ही मेरा सच है|’ वहीँ दूसरी ओर लाज़ो का जिस व्यक्ति द्वारा अपहरण किया जाता है और अपने घर में रखा जाता है उसका मुख्य उद्देश्य दुसरे धर्म का अपमान करना था| इस अत्याचार व ज्यादती के चंगुल से छुड़ाने में पारों द्वारा अपने बदली हुई पहचान का भी सदुपयोग किया जाता है|

पारों लाज़ो की अपने भाई से शादी भी करवाती है, परन्तु लाज़ो द्वारा पारों से वापस लौटने का सवाल किया जाता है कि ‘तेरा भी क्या दोष था, तुझे घर वालों ने ना बुलाया..तुम वापस क्यों नहीं चलोगी? इसका पारों जवाब देती है कि ‘मेरी बात और थी, मैं अकेली थी और मेरे माँ-बाप को साहस ना हुआ कि वे लोगों की बात सुन सके|’ इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि विभाजन के समय दंगो में अलग अलग स्थान और समय पर परिस्थितियां भिन्न थी जिनके परिणामस्वरूप विवाह हो रहे थे| प्राम्भ में आपसी दुश्मनी के चलते हुए अपहरण और स्त्री के माता-पिता के असहाय होने के कारण विरोध ना हो पाया है, परन्तु बाद में कई महिलाओं को अपने परिवार में लौटाया गया परन्तु कुछ परिवारों में इन्हें स्वीकार नहीं किया गया और कहा गया कि ‘जिसकी बेटी उठा ली जाती है, उसकी इज्जत उठ जाती है|’

प्रश्न यह है कि विवाह जैसी संस्था की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका रही है और जिस उद्देश्य से इसकी शुरुआत हुई तथा ‘पवित्रता’ जैसे तथाकथित मानकों का प्रतीक माना जाता हैं, विभाजन के दौरान इन सभी तत्वों का खंडन किया गया और बदला, अपमान, अपनी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए, विवाह एक परिणाम के रूप में सामने आया| इस समय हुए विवाह में महिलाओं को शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ा, जिसे वे स्वीकृति देकर नज़रअंदाज़ करती हैं|

ऐसी घटनाएँ अनेक स्थानों पर हुई परन्तु उनमें स्त्री का अपमान कर, बलात्कार कर छोड़ दिया जाता था, परन्तु 1947 के विभाजन के दौरान विवाह को हिंसा का प्रमुख माध्यम बनाया गया| विवाह का स्त्री और पुरुष दोनों पर प्रभाव पड़ता हैं, परन्तु जब विभाजन के समय की बात की जाएँ तो इन विपरीत परिस्थितियों का स्त्री के जीवन में नकारात्मक प्रभाव पड़ा| इसका कारण यह हो सकता है कि स्त्री को ‘सम्मान’ का प्रतीक माना जाता है और विरोधी पक्ष पर हमला का प्रमुख माध्यम स्त्री ही हो सकती हैं| पुरुष की तुलना में स्त्रियों की संख्या कम होने के कारण, शारीरिक रूप में अधिक शक्तिशाली होने, दंगों में परिवार से बिछड़ने, पुरुषों की कामुक प्रवृति के कारण महिलाओं का अपहरण किया गया एवं उनसे जबरन विवाह किये गए| परन्तु क्या आदर्श एवं सामाजिक मानदंडों पर चलने वाले समाज ने इसे कुकृत्य नहीं माना? क्या ये विवाह वैध थे? क्या जिस तरह विवाह के बाद स्त्री को जो आदर और सम्मान मिलता है वो इन विवाह में उन्हें प्राप्त हुआ? जिस विवाह में उनकी स्वीकृति महत्वपूर्ण हैं, उसका कोई स्थान नहीं था, क्योंकि उनका दोष सिर्फ ये है कि वे स्त्री है...क्यों उन्हें आदर और सम्मान के स्थान पर हिंसा का सामना करना पड़ा? विवाह जैसी संस्था का इस तरह से क्यों प्रयोग हुआ कि एक पक्ष को अन्याय और हिंसा झेलनी पड़ी?

दास्तान पाकिस्तानी धारावाहिक है जिसके निर्देशक समीरा फैज़ल हैं| यह रज़िया बट्ट द्वारा लिखित उपन्यास ‘बानों’(1971) पर आधारित है| इसका प्रसारण 2010 में हुआ| विभाजन के दो दशक बाद यह उपन्यास लिखा गया एवं धारावाहिक के रूप में यह तीन दशक के बाद प्रसारित हुआ| समकालीन उपन्यास से तुलना करने पर लेखक के दृष्टिकोण में एक स्पष्ट अंतर देखने को मिल सकता है, जो कि समय के साथ परिस्थतियों में परिवर्तन के कारण हो सकता है| विभाजन के दौरान, दंगो में एक सिख व्यक्ति द्वारा दुसरे समुदाय पर हमला किया जाता है, परन्तु बानों के खुबसूरत चेहरें को देखकर वह उससे शादी करने का निर्णय लेता है| हालाँकि प्रारंभ में वह उसके साथ अच्छा व्यवहार करता है परन्तु बाद में विवाह की मांग, बानों द्वारा अस्वीकृत होने पर वह उसका बलात्कार कर जबरदस्ती शादी करता है| सवाल यह है कि धर्मशास्त्रों में विवाह की गरिमा के लिए जो नियम बनाये गए है, उस दौरान उनका अस्तित्व कहाँ था? धर्मशास्त्रों के अनुसार इस अपवित्र रिश्ते को उस समय का समाज कैसे स्वीकार कर रहा था? परन्तु पिंजर से इसकी तुलना की जाए तो यह ज्ञात होता है कि बानों इस विवाह को अंत तक स्वीकार नहीं करती है, वह अपना नाम, धर्म परिवर्तित नहीं करती है तथा वहाँ से भाग निकलने में सफल होती है|

परन्तु बानों जब पाकिस्तान लौटती है तो उसके मंगेतर की किसी और लड़की से सगाई की बात मालूम होने पर वह अलग रहने का निर्णय लेती है और अपनी जिंदगी राष्ट्र सेवा में समर्पित करने का निर्णय लेती है| इस दौरान तीन लोगों के मध्य विवाह के प्रति हो रहे द्वन्द को दिखाया गया है, जो की अपने अपने दायित्व को पूरा करने के लिए विवाह करने से इनकार करते है|

कमलेश्वर की कृति “कितने पाकिस्तान” में विद्या, जो कि विभाजन के दौरान हुए दंगों में अपने परिवार को खो चुकी थी| उसकी जान, पाकिस्तान की ओर प्रवास कर रहे एक परिवार के द्वारा बचाई गयी एवं अपने घर में शरण दी गयी| परन्तु सरहद पार कराने व बाहर के व्यक्तियों की बुरी नज़र से बचाने के लिए ,विद्या का उसी परिवार के एक शादीशुदा व्यक्ति से निकाह करवा दिया गया| इसको आधार मानते हुए क्या हम यह नहीं कह सकते कि सुसेन ब्राउनमिलर का तर्क एक तथ्य माना जा सकता है | इसके परिणामस्वरूप उसे ‘दूसरी बीवी’ का दर्ज़ा मिला एवं ‘हिन्दुआइन’, ‘नापाक’ जैसे नाम भी साथ में मिले| इस परिस्थिति को देखने पर मालूम होता है कि किसी स्त्री के ‘वजूद’ को बचाने के लिए, विवाह जैसे माध्यम को अपनाया गया जो कि किसी भी पक्ष की इच्छा से नहीं है| बल्कि इस विवाह के द्वंद में विद्या का स्वयं का वजूद ख़त्म ही हो रहा है- प्रारंभ में उसका नाम,फिर धर्म परिवर्तन और उसका निकाह हुआ, जिसे विद्या ने ना चाहते हुए भी स्वीकार किया| उपर्युक्त वर्णित अन्य दो उपन्यास से इसकी तुलना करने पर यह पाते है कि इस परिस्थिति में विवाह का कुछ सीमा तक सही प्रयोग हुआ है जिसके माध्यम से स्त्री के वजूद की रक्षा करने का प्रयास किया गया और उसकी सुरक्षा की कई गयी जो कि स्वयं स्त्री द्वारा भी स्वीकारा गया क्योंकि पहले की स्थितियों की तुलना में यह बेहतर विकल्प था जहाँ उससे अपने ही स्थान पर अपने ही धर्म के व्यक्तियों से हिंसा का सामना करना पड़ा था|

विभाजन पर आधारित उपन्यास में लिखित एवं फिल्म में दर्शाये गए मुद्दों के आधार पर हम कह सकते हैं कि विवाह संस्था का खंडन हुआ| वर्तमान परिद्रश्य में प्रेम विवाह, ‘लिव इन रिलेशन’ अंतरजातीय विवाह को अनुमति नहीं दी जाती है तथा इन्हें असामाजिक कृत्य माना जाता हैं, परन्तु प्रेम विवाह प्राचीन काल में भी ‘गन्धर्व विवाह’ के रूप में प्रचलित था| और विभाजन के समय विवाह को हिंसा का माध्यम बनाकर एक बार फिर स्त्री का अपमान किया गया तथा इस धार्मिक साम्प्रदायिकता का काफी प्रभाव स्त्री के जीवन पर ही पड़ा| यह संभावना है कि यदि वैसी ही परिस्थितियां कभी सामने आयी तो इस संस्था का पुनः दुरुपयोग हो जाए| आज भी विश्व में जिस तरह संप्रभु राज्य की मांग, विभाजन जैसे मुद्दें, आतंकवाद एवं कई सांप्रदायिक दंगे जैसी समस्याएं सामने है, हम यह आशा करते है कि इन विपरीत परिस्थितियों में विवाह को किसी भी व्यक्ति पर जबरन ना थोपा जाये और इसे संबंधो को सुधारने, धार्मिक मतभेद दूर करने, किसी असहाय व्यक्ति को सहारा देने जैसे उद्देश्य के साथ लागू कर सकते है| ताकि विवाह को हिंसा के माध्यम के रूप में ना अपनाकर उसकी ‘पवित्रता’ और ‘निष्ठता’ को बनाये रख सके अन्यथा समाज के संचालन में इस संस्था का कोई औचित्य नहीं है|

विशेष सन्दर्भ:-
  1. अल्तेकर, ए. एस. पोजीशन ऑफ वुमन इन हिंदु सिविलाइजेशन : फ्रॉम प्रीहिस्टोरिक टाईम टू द प्रजेंट, द कल्चर पब्लिकेशन, बनारस,
  2. ब्राउनमिल, सुजेन. अगेंस्ट ऑवर विल, वेलेंटाइन बुक्स, 1993
  3. बुटालिया, उर्वशी. द अदर साईड ऑफ साइलेन्स, पेंगुइन बुक्स, इंडिया,
  4. चौधरी, प्रेम. कन्टेनटिअस मेरिज, इलोपिंग कपल्स, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी, न्यू दिल्ली, 2007
  5. कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान, राजकमल प्रकाशन, न्यू दिल्ली
  6. सिद्द्वा, बापसी. आइस केंडी मैन, पेंगुइन बुक्स, इंडिया,
  7. सर्कार, तनिका. हिंदु वाईफ, हिंदु नेशन, परमानेंट ब्लैक, दिल्ली, 2001
वेब्लिओग्राफी:-
  1. Dwivedi, Chandrapraksh.”Pinjar”. Youtube, Story by Amrita Pritam, 24 Oct. 2003,
  2. Fazal, Samira. “Dastaan” YouTube, Story by Razia Butt, 26 June 2010,
  3. Sharma, Anil “Gadar”. Screenplay by Shaktimaan Talwar, 15 June 2001
प्रियंका अग्रवाल(शोधार्थी) & पूनम (शोधार्थी), केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हरियाणा. मो.न. 8559811639 7056505702 ईमेल आई.डी. agrawal.priyanka777@gmail.com poonamgarvan8@gmail.com