कुछ दिन पहले, बगल वाले घर में देखी एक सच्चाई ...
लड़कपन गया नहीं था, पर एक लड़का गोद में था अभी
मासूमियत दिखी चेहरे पर, किन्तु कंधे झुक गए जिम्मेदारी से
ममता मुस्कायी होठों पर, पर आँखों में इंतजार नज़र आया
कि, वो आएगा शायद कभी....
अर्धांगिनी कहा तो होगा उसने भी कभी,
फिर क्यों नहीं आता वापस लेने उसे वो कभी?
बेघर होने पर वजूद खोया उसका यूँही
अपने ही घर में तो पहले ही थी परायी
ऐसी क्या हुई गुस्ताखी?
की रह गयी वो युही अकेली...
आना तो चाहिए था उसे भी
अंश ये था उसका भी
फिर क्यों सहे वो अकेली?
जो रही निर्भर शुरू से ही
वो खुद ही नहीं संभल पाई अभी
और दो जिंदगी उसने संभल ली...
मैं सोच रही यह देख कर
बड़े हुए हम साथ में ही खेलकर
व्याकुल हुआ मन ये देखकर कि,
उसका भी तो करता होगा मन...
कोई हो जो चाहे उसे, बेवजह और बेपनाह
जो न देखे उसमे कोई खामी
किसी का हाथ हो हाथ में और
घूम सके वो जहाँ में
आज... फिर से देखा उसे मैंने
सपने बच्चे के साथ खिलखिलाते हुए
उसे प्यार से नहलाते हुए
उसे फटकार लगाते हुए
पानी में छप-छपाते हुए
पूरा हो गया है उसका अधूरापन
मिल गया है शयद उसे अपनापन
आज मैंने माँ-बेटा नहीं...
एक झलक देखी है बचपन की
दो बच्चों में |