आज़ादी के बाद अनेकों महिला कथाकारों ने नारी उत्पीड़न के विरुद्ध जमकर कलम चलाई है। झूठे और लादे गए आदर्शों और मान-मर्यादा के मुखौटों को नोंचते हुए नारी की अस्मिता का प्रश्न उनके लेखन में बार-बार ध्वनित हुआ और इसके साथ नारी को घर की बंद दीवारों से बाहर का संसार देखने का साहस हुआ। दलित महिला कथाकारों की कहानियों में श्रम से जुड़ी यौन समस्या, शिक्षा, जातिगत विसंगतियों, परंपरागत ढर्रे के विरुद्ध आवाज तथा पुरुष के बराबर अधिकार पाने की ललक बड़ी जीवन्तता से प्रकट हुई है। महिला कथाकारों की प्रत्येक कथा भोगे, जिए, सहे, देखे और विरासत में सौंपे गए अनुभवों की यथार्थ और जीवन अभिव्यक्ति है। यहाँ पर मैंने अनीता भारती, सुशीला टाकभौरे, रजत रानी मीनू, कावेरी, उषा चन्द्रा, रजनी, कुसुम मेघवाल, सरिता भारत और वंदिता कमलेश्वर की कहानियों में दलित नारी के विविध रुपों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
'नई धार'- अनिता भारती
अनिता भारती की प्रस्तुत कहानी 'नई धार' वर्तमान समय की दलित शिक्षित रमा के आत्मविश्वास को प्रस्तुत करती है। रमा दलित भेदभाव विरोधी समिति की सदस्य है। दलित महिलाओं पर महाराष्ट्र में हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाकर उनकी समिति उन पीड़ितों को इंसाफ दिलाना चाहती है। इसके लिए अपनी समिति के अन्य सदस्यों की इच्छा के विरुद्ध जाकर रमा सवर्ण अभिव्यक्ति नामक महिला को मुख्यवक्ता के रुप में बुलाना चाहती है। रमा जानती है कि अभिव्यक्तिजी स्वयं एक गरीब परिवार में पली-बढ़ी हैं, इसलिए गरीब दलितों की समस्याओं से भलिभाँति परिचित हैं। अभिव्यक्तिजी एक अच्छी सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ लेखिका भी थी। दलित-आदिवासियों के मुद्दों पर उन्होंने कई बार अपना समर्थन दलितों के पक्ष में दिया था। रमा की दृष्टि में दलित महिलाओं की हत्या और बलात्कार के विरोध में किए जा रहे इस कार्यक्रम में अभिव्यक्तिजी सबसे उचित वक्ता होंगी।
कई बार जो व्यक्ति हमें जैसा दिखता है, वह वैसा होता नहीं है। रमा का अभिव्यक्तिजी के विषय में जो विचार था, वह भ्रम साबित हो जाता है। अभिव्यक्तिजी इस कार्यक्रम में उपस्थिति देना नापसंद करती हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि दलित समिति के कार्यक्रम में गरीब, पीड़ितों, शोषितों के अतिरिक्त कोई नहीं जाता, मीडिया, पत्रकार भी ऐसे कार्यक्रम को हाईलाइट नहीं करते। जबकि प्रगतिशील डेमो क्रेटिक राइट थिंकिग फोरम के कार्यक्रम में प्रोफेसर से लेकर इतिहासकार, बड़े वकील और मीडियाकर्मी मौजूद रहते हैं। अभिव्यक्तिजी अपनी इमेज में इज़ाफा हो ऐसी जगह पर जाना उचित समझती हैं। रोते-तड़पते लोगों की भीड़ के बीच उन्हें क्या फायदा होता।
कहानी में शांति देवी नामक दलित महिला अकेले ही गाँव के गुंडा तत्त्वों के खिलाफ लड़ते हुए अपनी जमीन खोती है, इज्जत खोती है और पति को भी खो देती है। वह हिम्मती, बहादुर और लोकप्रिय बन जाती है, किंतु राजनैतिक पार्टी में प्रवेश करने की चाह में वह अवसरवादी बन जाती है। गाँव की गरीब दलित औरतों के बजाय पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं के साथ दिखने में वह अपना बडप़्पन समझती है। रमा इस विषय में सोचती है कि-
"बाबासाहब का नाम लेकर गरीब, भोली, मासूम और भावुक दलित जनता को इन राजनैतिक पिछलग्गुओं ने खूब छला है। ऐसे लोग दलित आंदोलन में छल-कपट और अवसरवाद की विकृत परिपाटी डाल रहे हैं।" [1]
शांतिदेवी जैसी दलित महिलाएँ अपने निजी स्वार्थ के लिए अपने कर्तव्य को भूल जाती हैं। दलित आंदोलन को ऐसे स्वार्थी दलित कमजोर बनाते हैं। प्रस्तुत कहानी में सवर्ण अभिव्यक्ति और दलित शांति देवी दोनों ही स्त्री ऐसी हैं जिसे समाज में मान-सम्मान एवं उच्च स्थान मिलता है, किंतु दोनों में से कोई भी रमा की दलित समिति के कार्यक्रम की मुख्य वक्ता नहीं बन पाती। रमा को एक कड़वा अनुभव होता है किंतु इससे वह कमजोर नहीं पड़ती बल्कि आत्मविश्वास और दृढ़ता बढ़ जाती है। वह कहती है-
"यह कार्यक्रम ज़रुर होगा, महिला वक्ता भी ज़रुर होगी हमें किसी के रहमोकरम की ज़रुरत नहीं, हम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं।" [2]
एक शिक्षित व्यक्ति में इतना साहस होना चाहिए, कि वह अपने अधिकारों के लिए स्वयं लड़ सके। दलित रमा नए ज़माने की शिक्षित युवती है। वह जानती है-
"जब कोई दलित ग्रुप दलित मुद्दों पर अपनी बात रखता है तो ये तथाकथित प्रगतिशील लोग उसे जातिवादी घोषित कर देते हैं और यही प्रगतिशील लोग दलित और उनके मंचों की उपेक्षा कर अन्य मंचों से दलितों के बारे में बोलते हैं तो प्रगतिशील डेमोक्रेटिक और मानव अधिकारवादी कहलाते हैं।" [3]
वास्तव में दलितों द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रम का समर्थन सवर्ण नहीं करते और न ही अपने कार्यक्रम में उन्हें उनके मुद्दों को कहने का मौका देते हैं, ऐसी स्थिति में दलितों की समस्या का समाधान कैसे संभव है ? जाति की संकीर्ण दीवारों को तोड़े बगैर समानता की बात नहीं की जा सकती।
उद्देश्य स्पष्ट है कि दलित शिक्षितों को स्वयं अपने आत्मविश्वास के साथ अपना मार्ग बनाना होगा। अपने अधिकारों एवं समस्याओं के लिए किसी के सहारे पर आश्रित न होकर स्वयं लड़ना होगा। ’नई धार’ शीर्षक बिल्कुल उचित है, दलितों द्वारा बनाया जाने वाला नया मार्ग, जिस पर चलकर आगे बढ़कर वे अपनी मंजिल को पा सकते हैं।
'रिश्वत'- कावेरी
कावेरी जी द्वारा रचित 'रिश्वत' कहानी में लेखिका ने आत्मकथात्मक शैली में बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार एवं दलितों की समस्याओं पर प्रकाश डाला है। नायिका स्वयं सुशिक्षित महिला है। अपने ससुराल और मायके को जीवनभर मदद करने वाली नायिका अपने पति के साथ मिलकर यह सपना देखती है, कि उसके दोनों पुत्र इन्जीनियर और डॉक्टर बनेंगे। बड़ा बेटा जब पढ़ रहा था तब उनके सहकर्मी एवं परिचित मिलते तो व्यंग्यबाण छोड़ते-
"आपके बेटे पढ़ने में अच्छे हैं। ऊपर से आरक्षण नौकरी तुरंत मिल जाएगी।" [4]
अधिकतर लोगों के विचार ऐसे होते हैं, कि जिन्हें आरक्षण मिलता है, उन्हें नौकरी में कोई परेशानी नहीं होती, किन्तु नायिका के बड़ा बेटे को इंजीनियरिंग पास किए आँठ वर्ष हो गए थे। परंतु ढंग की नौकरी नहीं मिली थी। हर जगह रिर्टन एक्जाम में पास होने पर भी, मौखिक में पुत्र की असफलता देखकर, आरक्षण में भी आरक्षण की बात स्पष्ट हो जाती है। बिना रिश्वत और ऊँची पहचान के स्वयं के बलबूते पर सिलेक्शन नहीं होता है। नायिका का बड़ा पुत्र तो शांत स्वभाव का था, किन्तु छोटा अपनी असफलता का कारण अपनी माँ को समझता है। फोन पर अपनी माँ से कहता है-
"अब वह समय नहीं रहा, माँ। गार्जियन को जागरुक होना पड़ेगा। भैया के लिए क्या सोचा। अब बिना पैरवी और रिश्वत के नौकरी का सपना छोड़ दो। एन. टी. पी. सी. की लिखित परीक्षा में भैया पास हो गया है। साक्षात्कार के लिए तैयार हो जाओ, कम से कम पाँच लाख लगेगा।" [5]
गार्जियन की जागरुकता आज इसी को कहा जाता है, कि अपने बच्चों के भविष्य के लिए उन्हें मार्गदर्शन के साथ-साथ उनकी नौकरी के लिए, उज्ज्वल भविष्य के लिए रिश्वत की मोटी रकम इकट्ठी करके रखें। आवश्यकता पड़ने पर मंत्री, आला अधिकारी को रिश्वत देकर अपने माता-पिता होने का कर्तव्य निभाएँ। सुनने में यह बात कड़वी लगती है, किंतु यह सत्य है। आज के समय में योग्यता के साथ-साथ रिश्वत भी होना ज़रुरी है, अन्यथा योग्य होने के बावजूद आप अयोग्य हैं।
नायिका की उम्मींदे उस समय बरगद के समान विशाल थीं, जब बच्चे अच्छी तरह पढ़ रहे थे। वह सोचती थी कि जीवन के अंतिम दौर में सुखद दिन काटेगी, लेकिन उसके यह सपने चूर-चूर हो जाते हैं। रिश्वत के लिए दस लाख की मोटी कीमत एकत्र करना सरल नहीं है। जीवनभर जिन्हें मदद दी वे आज मुकर गए हैं, ऐसी स्थिति में वह स्वयं बीमार पड़ जाती है। इलाज में लाखों रुपये लग जाते हैं। कहानी का शीर्षक ’रिश्वत’ शुरु से अंत तक कहानी की समस्या के रुप में हमारे समक्ष रहता है। आरक्षण मिलने पर भी, रिश्वत देने पर ही अच्छी नौकरी मिलती है, ऐसा आज हमारे समाज का वातावरण है। सवर्ण युवकों को प्राइवेट नौकरी भी जान-पहचान के कारण मिल जाती है, जबकि दलित युवकों को योग्यता के बावजूद कैम्पस सलैक्शन में नहीं लिया जाता। कैम्पस सलैक्शन भी वहीं होते हैं, जिस कॉलेज में आला अधिकारीगण के बच्चे पढ़ रहे हों।
भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अस्पृश्यता जैसे दूषण को प्रस्तुत कहानी में देखा जा सकता है। नायिका अपने परिवार एवं बच्चों के लिए पहले भी संघर्ष कर रही थी और बच्चों के योग्य बनने के बाद भी उनकी नौकरी और रिश्वत एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष कर रही है, उस पर भी आरक्षण का ताना तो सुनना ही पड़ता है।
'सिलिया'- सुशीला टाकभौरे
सुशीला टाकभौरे की प्रस्तुत कहानी एक दलित शिक्षित युवती शैलजा ऊर्फ सिलिया की है। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली सिलिया साँवली-सलोनी, मासूम, भोली, सरल और गंभीर स्वभाव की थी। उसके माता-पिता, बड़ा भाई और नानी उसे खूब पढाना चाहते थे। सिलिया भी पढ़ने में अच्छी थी। सन् 1960 वर्ष में ’नई दुनिया’ में विज्ञापन छपा था, जिसमें लिखा था ’शूद्र वर्ण की वधू चाहिए।’ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के जाने माने युवा नेता सेठी जी किसी अछूत कन्या से विवाह करके समाज के समक्ष एक आदर्श रखना चाहते थे। वे मैट्रिक पास दलित युवती से विवाह करने को तैयार थे।
सिलिया होशंगाबाद जिले के छोटे से गाँव में रहती थी। इस विज्ञापन को पढ़कर गाँव के पढ़े लिखे लोग, ब्राह्मण, बनियों ने सिलिया का विवाह सेठी जी से करवाकर उसका कल्याण करने की सलाह दी। किन्तु सिलिया की माँ इस तरह के विवाह को राजनीति ही मानती है। वह ऐसे घर में अपनी बेटी का ब्याह करना चाहती है, जहाँ उसे मान-सम्मान मिले। सवर्ण समाज में दलित स्त्री को वह इज्जत नहीं मिल सकती। यदि उसे सम्मान पूर्ण जीवन बीताना ही है, तो वह अपने ही दलित समाज में रहकर भी वह पा सकती है। पढ़-लिखकर वह स्वयं अपनी किस्मत सँवार सकती है। सिलिया की माँ के ऐसे विचार सिलिया का हौंसला बढ़ाते हैं।
सिलिया को वह घटना अच्छी तरह याद है। जब वह बारह वर्ष की थी। उसके मामा की बेटी मालती ने प्यास लगने पर उस कुएँ से पानी निकाल कर पिया था, जो सवर्णों का कुआँ था। एक सवर्ण महिला जिसका घर कुएँ के पास ही था। वह मालती को देख लेती है, और उसकी माँ से कहती है-
"ओरी बाई, दौडो री, जा मोडी को समझाओ.... देखो तो, मना करने के बाद भी कुएँ से पानी भर रही है। हमारी रस्सी-बाल्टी खराब कर दई जाने...। क्यों बाई, जेहि सिखाओं हो तुम अपने बच्चों को, एक दिन हमारे मूँड पर मूतने को कह देना। तुम्हारे नज़दीक रहते हैं तो का हमारा कोई धरम- करम नहीं है ? का मरज़ी है तुम्हारी, साफ-साफ कह दो।" [6]
जाति-पाति का भेद-भाव दलित बच्चों की मानसिकता पर बचपन से ही घर गहरे बैठ जाता है। ऐसे कड़वे अनुभव उन्हें बचपन में ही सीखा देते हैं, कि वे अछूत है और सवर्ण उनसे अधिक शुद्ध और उच्च हैं। सवर्ण महिला के कड़वे वचन मामी को बहुत बुरे लगे। गुस्से में वह मालती की खूब पीटाई करते हैं और कहती हैं-
"घर कितना दूर था, मर तो नहीं जाती। मर ही जाती तो अच्छा रहता, इसके कारण उससे कितनी बातें सुननी पड़ीं। मामी ने दुःख और अफ़सोस के साथ अपना माथा ठोंकते हुए कहा था, हे भगवान, तूने हमारी कैसी जात बनाई।" [7]
अपने बीते कल की घटनाओं को याद करके सिलिया समझ जाती है, कि सवर्ण भले बड़ी-बड़ी बातें करें, दिखावा करें, किंतु किसी दलित को नहीं अपना सकते। अख़बार में विज्ञापन की बात पर वह सोचती है कि, यह सेठी जी महाशय ज़रुर आडंबर कर रहे हैं। आज तक किसी सवर्ण ने ऐसी सामाजिक क्रांति लाने के बारे में नहीं सोचा। ऐसे व्यक्ति का साथ मिलने पर वह ज़रुर अपनी जाति के लिए कुछ अच्छा कर सकती थी। किंतु बाद में वह सोचती है, कि यदि उसे सम्मान पाना है, तो अपने बल पर पा सकती है। दूसरे के सहारे अपने निज को खोकर, शतरंज के मोहरे के समान दूसरे के इशारे पर वह क्यों चले ? वह सोचती है-
"हम क्या इतने भी लाचार हैं, आत्मसम्मान रहित है, हमारा अपना भी तो कुछ अंह भाव है। उन्हें हमारी ज़रुरत है, हमको उनकी ज़रुरत नहीं। हम उनके भरोसे क्यों रहें। पढ़ाई करुँगी, पढ़ती रहुँगी शिक्षा के साथ अपने व्यक्तित्व को भी बड़ा बनाऊँगी जिन्होंने उन्हें अछूत बना दिया है। विद्या-बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा सिद्ध करके रहूँगी। किसी के सामने झूकूँगी नहीं। न ही अपमान सहूँगी।" [8]
'मैं मइया थी'- सरिता भारत
सरिता भारत द्वारा रचित 'मैं मइया थी' कहानी आत्मकथानात्मक शैली में लिखी गई कहानी है। पाँच वर्ष की आयु में कथानायिका अपने पिता को खो देती है, वहीं से उसके जीवन में अभाव, दुख, पीड़ा की शुरुआत हो जाती है। पिता को अत्यधिक प्रेम करने वाली नायिका एक ऐसे दलित समाज में रहती थी, जहाँ दबे-कुचले परम्परावादी समाज के नियमों के नीचे उनकी चीख-पुकार उन्हीं तक सिमट कर रह जाती थी। बच्चों का पालन-पोषण माँ की जिम्मेदारी बन गयी। उनके समाज का नियम था कि विधवा स्त्री या तो दूसरा विवाह करे या गाँव छोड़कर चली जाए। माँ को अपने से कम उम्र के देवर साथ विवाह करना पड़ता है। यहाँ हम देखते हैं, कि कई बार दलित समाज के नियम-कानून दलित महिलाओं की स्वतंत्रता को छीन लेते हैं, उन्हें विवश कर देते हैं, कि यदि वह विधवा है, अकेली है तो उसके जीवन का निर्णय लेने का अधिकार समाज को अपने आप मिल जाता है।
कथानायिका की माँ पाँचवी पुत्री को जन्म देती है। माँ और चाचा के बीच इस वजह से ज्यादा झगड़े बढ़ते हैं। माँ साइकिल चलाना सीखकर नौकरी करके बच्चों की परवरिश में सहयोग देती है। उसके पिता आजीवन अपने समाज की बुराइयों को हटाने के लिए संघर्ष करते रहे, परिवर्तन लाने का प्रयास करते रहे, किन्तु आकस्मिक मृत्यु से अधिक कुछ न कर पाए।
कथानायिका जिस समाज में और माहौल में रहती थी, वहाँ की स्त्रियों पर देवी आया करती थी। पिता की मृत्यु, उनका अभाव, घर के झगड़े, अकेलापन, मानसिक तनाव आदि के चलते नवरात्रि के समय में कथानायिका पर अचानक देवी आने लगी। लोग देवी के दर्शन करने आते अपनी समस्या सुनाते मैया समाधान करतीं। इससे घर में झगड़े खत्म होने लगे। शांति का माहौल देखकर देवीय शक्ति पूरी तरह से उसकी मानसिकता पर छा जाती है। यहाँ कहा जा सकता है, कि कई बार व्यक्ति जब अपनी भावनाओं, संवदेनाओं को अधिक समय तक दबाता है या रोकता है, तब कभी ऐसी परिस्थिति भी आ जाती है जब उसका स्वयं पर काबू नहीं रहता। कथानायिका जिस वातावरण में रहती थी, वहाँ लोगों में अंधविश्वास, अशिक्षा, मारपीट करना, शराब पीना, स्त्रियों का शोषण आदि के कारण मानसिक तनाव उस पर हमेशा रहता था। जो विरोध वह आम तौर पर समाज या घर के लोगों से पीड़ित होकर नहीं कर पाती थी, उसे वह मइया बनकर कर सकती थी। हालाँकि यह मनोवैज्ञानिक रुप से उसे कुछ समय के लिए तृप्ति देता है, किन्तु इससे 14 वर्षीय क़थानायिका के शरीर और मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
स्कूल में प्रोत्साहन मिलने से वह पढ़ाई के साथ-साथ इतर प्रवृत्तियों में रुचि बढ़ाने लगती है। सुनील नामक अध्यापक के प्रोत्साहन देने पर कि तुममें बहुत प्रतिभाएँ हैं, वह कहती है-
"वे मेरे छात्र जीवन में पहले शख्स थे जिन्होंने तारीफ की, वरना दलित छात्रा में भी प्रतिभा हो सकती है, शिक्षा जगत ने कब देखा है ?" [9]
बच्चों की परवरिश पर उनके वातावरण का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिस समाज में दलित छात्रा को कभी प्रोत्साहन न मिला हो, ऐसी स्थिति में दलित छात्रा का मनोबल उसके अध्यापक बढ़ाते हैं। उसका नतीजा अच्छा होता है। अच्छी शिक्षा प्राप्त करके वह एक शिक्षिका बन जाती है और वह मानसिक तनाव से मुक्त होने के साथ-साथ देवी और मैया से भी मुक्त हो जाती है। यहाँ हम देखते हैं, कि शिक्षा में कितनी शक्ति है। शिक्षित अपने जीवन में संघर्ष करते हुए आगे बढ़ सकता है, प्रगति कर सकता है, जबकि अशिक्षित उसी अंधविश्वास, परंपरा, रुढ़िवादिता के कुँए से नहीं निकल पाते।
'हम कौन हैं?'- रजत रानी 'मीनू'
रजत रानी 'मीनू' द्वारा रचित कहानी 'हम कौन हैं?' में लेखिका ने शहरों में जाति को लेकर जो भेदभाव किया जाता है, इस समस्या पर प्रकाश डाला है। कथानायिका जब शहर में आती है, तो वह एक संतोष की साँस लेती है, कि कम-से-कम शहर में तो जातिभेद की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। चंदौसी में रहते हुए ऐसी समस्या वह झेल चुकी थी। दिल्ली जैसे शहर में लोग नए विचारों को अपना रहे हैं, शिक्षित हैं इसलिए भेद-भाव को मिटाकर प्रगति कर रहे हैं। कथानायिका का भ्रम तब टूटता है, जब उसकी बच्ची पहले दिन स्कूल से लौटती है और पूछती है कि-
"मम्मी बताओं न हमारे सरनेम क्या हैं ? मैडम कल मुझसे फिर सवाल पूछेगी।" [10]
उमा जिस चीज़ को छिपाना चाहती थी वह सामने खड़ी हो जाती है। अपनी बच्ची को उन्होंने सरनेम नहीं बताई है, क्योंकि सरनेम बताने से ही लोग जाति पहचान जाते हैं। दलित जाति के व्यक्ति को हमेशा हीन दृष्टि से ही देखा जाता है, इसलिए उनकी बच्ची इस हीन भावना का शिकार न बने, ऐसा वे चाहती है। उमा और उनके पति अपनी बच्ची की परवरिश अच्छे वातावरण में करना चाहते हैं, जहाँ उस पर पुरानी पीढ़ी के शोषण की परछाई भी न पड़े। जो अपमान, अत्याचार उनके पूर्वजों ने झेला है अब वे नई पीढ़ी के बच्चे न झेले, इसलिए वे गाँव छोड़कर शहर में आते हैं।
यहाँ पर लेखिका ने शहर में होने वाले जाति-पाति के भेद को प्रस्तुत किया है। स्कूल के शिक्षक पहले ही दिन बच्चों से उनके परिचय में उसकी जाति के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं। विद्यार्थी किस जाति का है ? यह जानकर उसके साथ कैसा व्यवहार करना है ? यह उसके बाद ही तय किया जाता है। बच्ची अज्जू की बातें सुनकर कथानायिका उमा सोचती है कि-
"पब्लिक स्कूल में भी सरनेम पूछा जाता है। यानी जाति पूछने का मॉडर्न तरीका। सरकारी स्कूलों के ब्राह्मणवादी संस्कारों के कर्मकाण्डी अध्यापक और ये मिशनरी स्कूलों में अंग्रेजी प्रभाव की आधुनिक शिक्षिकाएँ, क्या फर्क हैं दोनों में ?" [11]
दलित छात्रों का शोषण गाँव में और शहर में भी है। गाँव में शोषण का तरीका अलग है और शहर का अलग। यहाँ शोषण में भी आधुनिकता आ गई है, जिसके तहत सरनेम जानकर मिशनरी स्कूल में भी बच्चों में जाति भेद किया जाता है।
उमा की बच्ची अज्जू बिना सरनेम लगाए फोर्थ स्टैंडर्ड में पहुँच जाती है। क्लास टीचर बार-बार उससे सरनेम पूछती है। बिना सरनेम की वह अकेली छात्रा है। सभी को स्कूल में शंका हो जाति है, कि बिना सरनेम वाले नीची जाति के होते हैं। जाति क्या होती है, यह बच्चे नहीं जानते, यह भेद-भाव तो बड़े लोग उनके मस्तिष्क में ठूसते हैं। अज्जू रोज़-रोज़ के प्रश्न से तंग आकर माँ से प्रश्न पूछती है, कि हम कौन हैं ? अज्जू अपने आपको इसलिए और बच्चों से अलग महसूस करती है, क्योंकि सबकी कोई-न-कोई सरनेम है और दूसरी बात यह कि उनसे कई बार एक ही प्रश्न नहीं पूछा जाता। उमा के न चाहते हुए भी अज्जू दलित जाति में पैदा होने का दुःख झेलती है। शिक्षित माता-पिता की पुत्री अज्जू अबोध है, वह हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई धर्म को पहचाने लगी है, किन्तु वह नहीं जानती कि नीची जाति क्या होती है ? आखिर यह भेदभाव कब तक बच्चों के बाल मानस पर बोझ डालता रहेगा ? यह प्रश्न हमारे समक्ष आता है। कहानी में उमा और अज्जू के बीच के संवाद छोटे और चोटदार हैं। कहानी का वातावरण शहर का है, किन्तु समस्या गाँव की ही है 'जातिभेद'।
'सुमंगली' कावेरी -
कावेरी की प्रस्तुत कहानी 'सुमंगली' एक अनाथ दलित स्त्री की कहानी है। सुगिया को नहीं पता उसके माता-पिता कौन हैं ? वह कहाँ से आई है ? जबसे होश सँभाला, तब से वह स्वयं को ठेकेदार की रखैल ही समझती थी। जहाँ वह मजदूरी करती थी, वहाँ का ठेकेदार 14 वर्षीय सुगिया पर बलात्कार करता है। दुखना की माँ सुगिया की देखभाल करके उसे स्वस्थ होने में मदद करती है। उसे सान्त्वना देते हुए कहती है-
"चुप रह बेटी ! चुप रह। यह तो एक-न-एक दिन होना ही था, पर तू बड़ी अभागन है री। जो इस छोटी उम्र में ही सब कुछ झेलना पड़ा। अब एकदम चुप हो जा, वर्ना उस पिशाच को अगर मालूम हो गया तो तेरी चमड़ी उधेड़कर रख देगा। हाँ हम गरीबों का जन्म ही इसलिए हुआ है। हमारी मेहनत से अट्टालिकाएँ तैयार होती हैं और पुरस्कार के बदले में हमारे शरीर को रौंदा जाता है।" [12]
सुगिया की तरह ही मजदूरी करने वाली स्त्रियों को ठेकेदारों की गंदी निगाहों से बचना मुश्किल होता है। वे चाहकर भी उसका विरोध नहीं कर पाती है। अगर वह काम छोड़ देती हैं, या अत्याचार का विरोध करती हैं तो भूखों मरने की नौबत आ जाती है।
सुगिया का दुख सुनने वाला या दूर करने वाला कोई नहीं था। उसकी सहायता कोई चाहकर भी नहीं कर सकता था, क्योंकि जो व्यक्ति उसका साथ देता वह ठेकेदार का दुश्मन बन जाता। सुगिया की विवशता का पूरा फायदा ठेकेदार उठाता है। जब चाहता है, वह सुगिया का इस्तेमाल करता है। दुखना सुगिया के दुख को समझता है, परंतु लाचार हो जाता है। सुगिया गर्भवती है, यह जानकर उससे पीछा छुड़ाने के लिए ठेकेदार दुखना से जबरन सुगिया का विवाह करवा देता है। दुखना को वह प्रेम देता है, जिसकी उसे हमेशा तलाश थी। सुगिया एक पुत्र को जन्म देती है। सभी सुखी हो जाते हैं, किन्तु दुखना चार मंजिला इमारत में काम करते समय गलती से फिसल जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सुगिया अपने पुत्र का भरण-पोषण अकेले ही करती है किन्तु जब वह बीमार पड़ जाता है तो वह मजबूरी में ठेकेदार के पास मदद पाने के लिए जाती है जोकि उसके पुत्र का असली बाप था। ठेकेदार उसे अपनी हवस का शिकार बनाता है किन्तु मदद नहीं करता। अंत में अपने पुत्र की मृत्यु से सुगिया एक बार फिर सुगिया इस दुनिया में अकेली रह जाती है। कोई उसका साथ नहीं देना चाहता। ऐसी स्थिति में वह अकेली एक झोंपड़ी में रहती है और उसका साथ देती है मंगली नामक एक कुतिया। काली-भयावनी रात में सुगिया के अकेलेपन का सहारा वही मंगली बन जाती है। जो प्रेम और स्नेह मनुष्य उसे नहीं दे पाए वह प्रेम मंगली कुतिया से वह पाती है। सुगिया जो कमाती है उसका आधा वह मंगली को खिलाती है और आधे में अपना काम चलाती है। मंगली को वह अपनी बहन-बेटी-माँ या दादी सब कुछ समझने लगती है। सुगिया को तेज़ बुखार होता है, ऐसे में मंगली ही उसके साथ है। वह मंगली से कहती है-
"मंगली तुझमें और मुझमें क्या कर्फ है। तु भी जीवन से हारी, मैं भी हारी। जिएँगे साथ, मरेंगे साथ। तेरे और मेरे दिल को समझने की कोशिश किसने की ? किसी ने तो नहीं।" [13]
गरीबी के कारण मनुष्य की स्थिति पशुओं के समान हो जाती है। अनाथ सुगिया की परिस्थिति एक पशु के समान है, जिसे समझने की कोशिश किसी ने नहीं की। जो हमेशा अकेली ही रही। इस समाज ने उसका उपयोग किया और फेंक दिया। आखिर कब तक सुगिया जैसी युवतियों पर अत्याचार होता रहेगा ? समय से पूर्व ही उसे युवती से स्त्री बनाया जाएगा। ऐसे दुराचारियों को समाज क्यों नहीं सज़ा देता ? वे सरेआम लोगों से मान-सम्मान कैसे पाते हैं। सुगिया को इंसाफ क्यों नहीं मिला ? आदि प्रश्न इस कहानी से उठते हैं।
‘मंगली’-कुसुम मेघवाल
कुसुम मेघवाल द्वारा रचित 'मंगली' कहानी में दलित स्त्री मंगली का पति कई दिनों से बीमार पड़ा है, किन्तु उसके इलाज के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। मंगली जल्द से जल्द पति के पास जाकर उसे दवाईयाँ देना चाहती है, किन्तु ठेकेदार अत्यंत ही सख्त स्वभाव का है, वह मंगली एवं अन्य मजदूरों से अधिक काम करवाता है और काम का समय पूर्ण होने पर भी उन्हें छुट्टी नहीं देता है। मंगली को मजदूरी करने से इतने रुपये नहीं मिलते, जिससे वह पति की सारी दवाईयाँ ले सके। थोड़ी दवाईयाँ ले सके। समय पर दवाईयाँ न मिलने से वह मृत्यु को प्राप्त होता है। मंगली अकेली रह जाती है। मंगली गरीब थी, पति के अंतिम संस्कार के लिए उसके पास रुपये नहीं थे। चंदा इकट्ठा करके थावरा का अंतिम संस्कार किया जाता है।
एक गरीब स्त्री जो मजदूरी करके जीवन निर्वाह करती हो, उसे पति की मृत्यु का शोक मनाने के लिए साल-छः महीने का समय नहीं मिल सकता। पेट की आग बुझाने के लिए उसे सारे दुःख-दर्द भूलकर मजदूरी करने घर से निकलना ही पड़ता है। अधेड़वय का ठेकेदार मंगली को अकेला समझकर उससे हमदर्दी दिखाता है और उसे अपने आउट हाऊट में रहने के लिए अनुमति देता है। मंगली ठेकेदार को बड़ा दयालु समझने लगती है, किन्तु वास्तव में तो ठेकेदार अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद मंगली को अपनी रखैल बनाकर अपने सूने जीवन में आनंद लाना चाहता था। मंगली ठेकेदार की इस चालाकी को समझ नहीं पाती और अपनी तरह वह दूसरों को भी भोला-भाला और निर्दोष मन का समझती है। जिसे वह रक्षक समझती थी, वह भक्षक निकलता है। ठेकेदार उसे थावरा के दुःख को भूलकर उसके साथ सुखपूर्वक रहने के लिए समझाता है। मंगली पतिव्रता स्त्री थी, वह धन के लोभ और शरीर सुख के लिए अपनी पवित्रता भंग नहीं करना चाहती थी। वह अपनी ओर बढ़ रहे ठेकेदार से कहती है-
"खबरदार, मुझे छूने की कोशिश मत करना। मैं एक ब्याहता औरत हूँ।" [14]
शराबी ठेकेदार ने सोचा था कि मंगली उसकी रखैल बनकर रहेगी तो, किसको पता भी नहीं चलेगा कि उसका संबंध किससे है और रात्रि के समय वह मिलते रहेंगे। मंगली उसके शैतानी रुप को जब जान जाती है, तो कहती है-
"ठेकेदार साहब, मुझे नहीं पता था कि आपके अंदर एक शैतान छिपा है और आप मुसीबत में मेरी मदद करने के बहाने अपना उल्लू सीधा करने के लिए मुझे यहाँ लाए हैं। किन्तु मैं भी साफ कहे देती हूँ कि मैं भी एक भीलनी की जाई हूँ जो जंगल में लकड़ियाँ काटते हुए भी बच्चे को जन्म दे देती और अपना नाल स्वयं काटकर बच्चे को गोद में उठाकर घर चली आती है। इसलिए अब और आगे बढ़ने की कोशिश मत करना वरना बकरे-सा काट के रख दूंगी।" [15]
मंगली आत्मरक्षा के लिए ठेकेदार पर वार करती है, वह बेहोश हो जाता है। मंगली पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज करवाती है। पुलिस उसकी मदद करती है और ठेकेदार को गिरफ्तार करती है।
प्रस्तुत कहानी में मंगली एक कामकाजी स्त्री है, जिसका शोषण ठेकेदार करता है। विधुर ठेकेदार लोभ देकर मंगली को जीतना चाहता है, किन्तु स्वाभिमानी मंगली परिश्रम करके जीवन अकेले बीता सकती थी, किसी की रखैल बनकर आनंद मनाना उसे नामंजूर था।
'लोकतंत्र में बकरी'-उषा चन्द्रा
'लोकतंत्र में बकरी' उषा चन्द्रा द्वारा रचित कहानी है। कहानी में दलित अन्नपूर्णा और उसके पति विनाश बाबू का एकमात्र सपना है कि, उनका पुत्र मुन्ना पढ़-लिखकर कलेक्टर बने और दस वर्षों से गाँव के सवर्ण झिंगुरी सिंह के कब्जे से उनकी ज़मीन छुड़वाए। उनकी आशाएँ अब मुन्ना से ही हैं, क्योंकि दस साल से मुकदमा चल रहा है, किन्तु सरकार, कानून किसी ने भी अन्याय के खिलाफ की लड़ाई को न्याय नहीं दिया। विनाश बाबू को फिर भी कानून पर विश्वास है। वे तो गाँव की बुराइयों को जैसे कि अशिक्षा, अंधविश्वास, रुढ़िवादिता, जातिभेद, धर्म भेद आदि से लोगों को बचाना चाहते हंै। उनकी जमीन पर गाँव के पुरोहित की भी आँखें टीकी हैं।
अन्नपूर्णा गरीबी में भी अपने परिवार को दो वक्त का भोजन जैसे-तैसे करके भी देती है। स्वयं रुखी-सूखी खाती है, या भूखी रह जाती है किन्तु पति एवं बच्चे के लिए ताजा खाना बनाकर रखती है। आखिर मुन्ना को बहुत परिश्रम करके पढ़ना है, यह सोचकर वह भविष्य के सुनहरे सपने भी देखने लगती है। समझदार, निष्ठावान पति एवं होनहार पुत्र को प्राप्त करके अन्नपूर्णा जीवन के अभावों में भी संपूर्णता का अहसास पाती है।
मुन्ना को घर की बकरी से अत्यंत प्रेम था। बकरी भी उसे माँ की तरह स्नेह देती थी। बिना बकरी के पास जाए मुन्ना न खाता था, न सोता था। यही बकरी जब गाँव के सवर्ण झिंगुरी सिंह के खेत में चली जाती है, तो उसका पुत्र बलवंत सिंह गालियां देते हुए विनाश बाबू से कहता है-
"नीच कहीं का। औकात में रहा करो। बकरी पैदा किए हो तो अपने खेत में चराओ। आइंदा ऐसा हुआ, तो तुम्हारे मुनवा की टांगे चीर दुंगा।" [16]
गाँव में चुनाव की तारीख घोषित हो गई थी। राजनीति गाँव में ही पकती है। कभी मंदिर-मस्ज़िद के नाम पर, तो कभी जाति-पांति के नाम पर। विनाश बाबू को भी पार्टियों की ओर से चुनाव के समय रुपये दिए गए थे, ताकि वे उनके पक्ष में वोट डलवाएँ। विनाश बाबू कमजोर वर्ग को उनके हक की लड़ाई में साथ देते हैं, सो दलित वर्ग उनके हर आदेश का पालन करने को तैयार था। विनाश बाबू गरीब थे, किन्तु अधर्म के मार्ग पर चलकर धन कमाना उनके आदर्शों के खिलाफ था। झिंगुरी सिंह जैसे ताकतवर नेता का साथ न देने पर ही बलवंत सिंह विनाश बाबू से बुरा व्यवहार करता है। बकरी की बात पर मुन्ना की बात आते ही विनाश बाबू अपने आपको रोक नहीं पाते और बलवंत सिंह को एक तमाचा मार देते हैं। बदले में झिंगुरी सिंह और उसके साथी विनाश बाबू और अन्नपूर्णा के घर में घुसकर दोनों को पीट-पीट कर मार डालते हैं। स्कूल से लौटा मुन्ना माता-पिता के मृत शरीर को देखकर रोने लगता है। उसकी एक-मात्र साथी बकरी जैसे पश्चाताप कह रही हो-
".......मुझे क्या मालूम था कि प्रकृति की सीमाएँ इतनी छोटी हैं। प्रकृति ने तो पूर्णता में सौंपा है, लेकिन खंड-खंड तो आप मनुष्यों ने किया है, 'जानवर' इस फ़र्क को क्या जानें।" [17]
राजनीतिक खेलों से न तो बकरी परिचित थी, न ही विनाश बाबू, वास्तव में बकरी के बहाने ही विनाश बाबू को जाल में फँसाया जा रहा था। जब वे नहीं फँसे तो उन्हें खत्म कर दिया गया। बलवंत सिंह भी दलितों द्वारा मारा गया, किन्तु मुन्ना के आँसू पोछनेवाला बकरी के सिवाय कोई नहीं बचा।
प्रस्तुत कहानी में दलितों की ज़मीन पर सवर्णों द्वारा किया जानेवाला कब्जा, कानून से समय पर न मिलने वाला न्याय, दलितों की आशाओं, आकांक्षाओं, समस्याओं, राजनीति में उन्हें मोहरा बनाया जाना, सवर्णों द्वारा गाँव में अंधविश्वास, रुढ़िवाद, परंपरावादिता, अशिक्षा, जाति भेद, अस्पृश्यता आदि सभी विषय को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है। विनाश बाबू एवं अन्नपूर्णा की हत्या का बदला लेने वाले दलित समूह के माध्यम से दलितों में आए बदलाव एवं आक्रोश साथ ही अत्याचार, शोषण के प्रति उनका प्रतिकार प्रस्तुत किया गया है। 'लोकतंत्र में बकरी' कहानी का शीर्षक संकेत करता है, कि हमारा देश भले ही लोकतांत्रिक है, किन्तु मनुष्य तो दूर बकरी को भी उसमें स्वतंत्रता नहीं मिल पायी है। आज भी कई गाँवों में दलित सवर्णों की कैद में हैं। बंधुआ मजदूर से बेगार का काम आज भी कराया जाता है। जब तक देश में यह जाति-पांति भेद, भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी की दूरियाँ, धर्म के नाम कर झगड़े खत्म नहीं होंगे, जब तक देश इन दूषणों से मुक्त नहीं हो पाएगा, तब तक देश की जनता स्वतंत्र नहीं कही जा सकती।
'राजो'- रजनी
दलित स्त्री का शोषण मात्र सवर्ण समाज ही नहीं करता बल्कि उसका अपना समाज और अपना परिवार भी उसे कम यातनाएँ नहीं देता। 'राजो' शीर्षक छोटीसी कहानी में लेखिका ने नायिका राजो के माध्यम से दलित नारी पर होने वाले दोहरे शोषण को चित्रित किया है। राजो का पिता शराबी, लापरवाह है पत्नी मर चुकी है। घर की सारी जवाबदारी राजो के सिर पर है कम उम्र में ही वह अपने छोटे भाई बहनों की संपूर्ण देखभार पढ़ाई आदि का ध्यान रखती है। गालियाँ देने वाले पिता को वह क्रोध में आकर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहती है-
"हूँ.........तू क्या करेगा यह जानकर। तेरा काम है बस दारु पीकर अनाप-सनाप बकना। याद कर वो दिन जब मेरी माँ प्रसव की पीड़ा से छटपटा रही थी, घर में दाई को देने के लिए पैसा नहीं था और तू दारु पीकर शहंशाह बना कहकहे लगाकर दम भर रहा था कि तू एक पूरा मर्द है, इस बार भी छोरा होगा। और माँ उस नवें बच्चे को जन्म देकर चल बसी। सात मासूम बच्चों को पालने के लिए तेरे जैसे निर्दयी बाप के पास छोड़ गई|" [18]
राजो का शरीरिक शोषण सवर्ण मालिकों द्वारा तो होता है वह पिता की बुरी दृष्टि का भी शिकार होती है ऐसी स्थिति में उसकी सहनशीलता जवाब दे देती है और वह चिल्लाते हुए कहती है-
"हाँ, तू बूढ़ा हो गया है, इतने सारे पिल्ले तूने मेरे लिए पैदा किए, तू उनका पेट नहीं भर सकता, तू मालिकों की नजर से मुझे भी नहीं बचा सकता, तेरे बस का अब कुछ नहीं है।" [19]
राजो यहाँ उन सभी युवतियों का प्रतिनिधित्व करती है जिस पर कम उम्र में ही घर की सारी जिम्मेदारीयाँ मढ दी जाती है। गरीबी, अपमान, परिवारिक जातीय शोषण, छोटे भाई-बहनों को सँभालने की जवाबदारियों के बोझ तले उसका जीवन किसी नरक से कम नहीं होता।
'चैका-बर्तन'-वंदिता कमलेश्वर
वंदिता कमलेश्वर की 'चौका-बर्तन' शीर्षक कहानी में शहर में होने वाली आम घरेलु समस्या के माध्यम से एक खास बात को प्रस्तुत किया गया है। लेखिका के पिता बैंक में नौकरी करते हैं माँ की बीमारी की वजह से घर की सारी जवाबदारी फस्ट ईयर में पढ़ ने वाली लेखिका पर आ जाती है। बेहद ठंडी, घर पर आने वाले महेमानों की खातिरदारी आदि के कारण लेखिका के हाथों में सूजन भी आ जाती है। पिता अपनी पुत्री की यह दशा देखकर विचलित हो जाते हैं। अब तलाश होती है नौकरानी की। शहरों में अच्छी नौकरानी ढुँढना कोई छोटी बात नहीं है। नौकरानियों के नखरे भी कम नहीं थे कुछ तो बुलाने पर भी नहीं आती, कुछ ऊँची बिरादरी के घरों में ही काम करती हैं, बड़ी मुश्किल से सविता नामक युवती उनके घर काम करने आती है। सविता वाल्मीकि जाति की थी किंतु वह इस विषय में बात छुपाना चाहती है क्योंकि जब लोगों को उसकी जाति का पता चल जाता है तो उसे काम छोड़ना पड़ता है। लेखिका के पिता एक सामाजिक कार्यकर्ता थे, बौद्धिक जागरण के लिए दलित बस्तियों में जाकर शिक्षा के प्रति रुझान पैदा करते थे। सविता अपने पारंपरिक कार्य को छोड़ना चाहती है लेकिन समाज उसे मजबूर करता है वह कहती है-
"हमारी बिरादरी का काम थोड़े ही है यह सब कुछ करना। हम तो घर-घर आंगन में भी नहीं घुस सकते। किसी के चौका-बर्तन तो अलग, उन्हीं के गू-मूत ढोये और उन्हीं की नफरत की आग में झुलसे।" [20]
सविता की जाति उसके उपर एक ऐसा ठप्पा बन जाती है जिसे वह मिटाना चाहती है। लेखिका के पिता एवं उनके मित्र सविता को उसके दलित होने की बात जानकर भी घर का काम नहीं छुड़ाते। सवर्ण समाज के दृष्टिकोण में यदि बदलाव लाना है तो समाज का समझदार, शिक्षित वर्ग ही इसकी शुरुआत नहीं करेगा तो भला भेदभाव की इस ‘खाई को कैसे दूर किया जा सकेगा ?
संक्षेप में कहें तो उपर्युक्त सभी कहानियाँ बार-बार बड़े बेबाक और बेलौस तरीके से पाठक को सजग ही नहीं बरन् मस्तिष्क की एक-एक शिरा को झंकृत करती उन स्थितियों घटनाओं पर सोचने को विवश करती हैं जिनसे तथाकथित सभ्य और बौद्धिक अक्सर किसी न किसी शालीन बहाने बाज से किनारा करते रहे हैं। ये कहानियाँ समाज के समक्ष कई प्रश्न खड़े करती हैं। इसी के साथ संपूर्ण ताकत से उन शोषण शक्तियों के खिलाफ प्रतिकार करना और शाषित वर्ग को एक दिशा निर्देश करना भी इनका ध्येय है।
संदर्भ सूची
- नई धार- दलित साहित्य वार्षिकी 2007-08 सं. जय प्रकाश कर्दम पृ. सं. 169
- वही पृ. सं. 175
- वही पृ. सं. 175
- रिश्वत- दलित साहित्य वार्षिकी 2007-08 सं. जय प्रकाश कर्दम पृ. सं. 159
- वही पृ. सं. 161
- सिलिया- दलित कहानी संचयन सं. रमणिका गुप्ता पृ. सं. 63
- वही पृ. सं. 62
- वहीं पृ. सं. 64-65
- मै मईया थी- हंस पूर्णाक 215 वर्ष 19 अंक 1 अगस्त 2004 सं. राजेन्द्र यादव पृ. सं. 183
- हम कौन है ?- हंस पूर्णाक 215 वर्ष 19 अंक 1 अगस्त 2004 सं. राजेन्द्र यादव 149
- वही पृ. सं. 149
- सुमंगली- दलित संचयन सं. रमणिका गुप्ता पृ. सं. 117
- वही पृ. सं. 120
- मंगली- दलित महिला कथाकारो की चर्चित कहानियाँ सं. डॉ. कुसुम वियोगी पृ. सं.33
- वही पृ. सं. 33
- लोकतंत्र में बकरी- हंस पूर्णांक 215 वर्ष19 अंक 1 सं. राजेन्द्र यादव पृ. सं. 170
- वही पृ. सं. 170
- राजो-रजनी- दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियाँ सं. डॉ. कुसुम वियोगी प. सं. 64
- वही पृ. सं. 65
- वहीं पृ. सं. 71