Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
समकालीन हिंदी और मराठी कविताओं में नारी शोषण की अभिव्यक्ति (1990-2000)
साहित्य का प्रमुख लक्ष्य मनुष्य का सर्वोपरि विकास है। मनुष्य जीवन से सामाजिक समस्याओं को दूर कर समाज और जीवन को यथा संभव काम्य बनाना ही साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है। इसलिए समकालीन समय, समाज और विकट परिस्थितियों में जो साहित्यकार समाज और मनुष्य जीवन के शोषक तत्वों के विरुद्ध खड़ा होकर साहित्य सृजन करता है, वही समकालीन साहित्यकार कहा जाता है। डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित कहते हैं, “अतीत को वर्तमान के संदर्भ में ही अपनी उपयोगिता पुनः प्रमाणित करनी होती है। वर्तमान ही है, जो उसे अपने आसंग में नवीन अर्थवत्ता प्रदान करता है। समकालीनता ऐसी स्थिति में केवल तत्कालीन प्रक्रिया के रूप में ग्रहीत होकर नहीं रहती, बल्कि रचना में वह एक दृष्टि की सृष्टि करती है, जिसके फलस्वरूप रचना कालजीत और कालजयी बनकर जीती रहती है क्योंकि उसमें स्वयं अतीत बन जाने पर भी परंपरा का बल समाहित हो जाता है और उसे भविष्य की संभावना से स्पंदित करता रहता है।” [1] डॉ. दीक्षित के इस कथन से अभिप्राय है कि समकालीन वह है जो समय के साथ चलता है। अतः वर्तमान में रचित संपूर्ण साहित्य समकालीन साहित्य के अंतर्गत आएगा, इस विचार पर कुछ भ्रम उत्पन्न होता है। यदि तत्कालीनता में प्रस्तुत साहित्य अपने समय प्रवाह के साथ योग्य सरोकार रखता है तभी वह समकालीन साहित्य के अंतर्गत आएगा।

समकालीनता एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें नई-नई अवधारणाओं को ग्रहण करने की क्षमता है। यह काल के समान होती है और अपने समय का वहन करती है। समकालीनता स्वयं में एक व्यापक अवधारणा है, जिसे किसी मतवाद या सिद्धांत के साथ जोड़ना व्यर्थ है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है, जो वर्तमान को अतीत और भविष्य के साथ जोड़कर समय को समग्रता में देखती है।

मनुष्य मन की अन्तर्तहों, उसकी अनुभूतियों को मुखर रूप से अभिव्यक्ति करने हेतु सदियों से कविता का आश्रय लिया जाता रहा है। कविता ने मनुष्य के सुख-दु:ख के साथ-साथ समस्याओं को भी वाणी दी है। किसी भी काल की कविता उस काल के मनुष्यों के विचारों का संवर्धन करती रही है। समकालीन कविता में स्त्री के विचार, उनकी समस्याएँ, उनकी संवेदनाएँ, आक्रोश, चिंता, वेदना तथा क्रोध परिलक्षित होता है, जिसे समकालीन कविता में नारी शोषण की अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं। समकालीन हिंदी कविता में स्त्री जीवन की समस्याओं, विडंबनाओं तथा यातनाओं को अभिव्यक्ति मिली है। अनामिका, कात्यायनी, सुशीला टाकभौरे, निर्मला पुतुल आदि ने नारी जीवन की इच्छा, आकांक्षा, मानसिक दशा, पीड़ा, यातना आदि को स्पष्ट कर स्त्री में चेतना लाने का एक सक्षम प्रयास किया है। “समकालीन दौर में कविता तथा अन्य सृजनात्मक क्षेत्रों में नारी की स्वतन्त्रता पर बल देने वाला स्वर आज बुलन्द है। इसके पीछे स्वतन्त्रता हनन के विरुद्ध संघर्ष की अदम्य इच्छा है। शताब्दियों से नारी के प्रति हो रहे शोषण को नारीवाद ने प्रोत्साहन दिया। समकालीन कवयित्रियों की कविताओं पर विचार करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस दिशा में कवियों का योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनकी कविताओं में भी स्त्री सत्ता के ऊपर पुरुष अधिष्ठित वर्चस्व को व्यापक अर्थ में ही लिया गया है। स्त्री के प्रति निरी सहानुभूति व्यक्त करना ही उनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि पिछड़ेपन को सुरक्षित रखने वाली पूँजीवादी दृष्टि के अन्तर्गत इन कवियों ने स्त्री और उसकी बेबसी को भी देखा है।” [2] इनकी कविताओं में जहाँ एक ओर स्त्री केवल माँ, बहन, बेटी, प्रेमिका आदि से हटकर जागरूक तथा आधुनिक नारी के रूप में प्रदर्शित हुई है। वहीं दूसरी ओर इस संकटपूर्ण समय में स्त्री के संकट और भय भी निरंतर शब्दबद्ध हुए हैं। अपनी कविता ‘कुटुम्ब’ में अनामिका ने इसी असज वातावरण को स्पष्ट करते हुए लिखा है-
“अचानक ही दरवाजे पर ‘खट्’ सी हुई
और एक भगदड़ मची।
चीजें लगी टूटने-फूटने।
सीढ़ियाँ उतरने और चढ़ने लगा ग़ुस्सा।
और एक साथ ही शुरू हो गये रोने धोने
डरने-पीटने, हँसने-लोटने
के अनंत सिलसिले” [3]
समकालीन कविता स्त्रियों के अभिव्यक्ति की कविता हैं जिसमें कहीं न कहीं स्त्री अपनी खोई हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करती है। समकालीन हिंदी कवियों ने स्त्री की अस्मिता और पहचान को लेकर अपने भावों को व्यक्त किया है। कुमार अंबुज अपनी कविता ‘अनिवार्य स्त्री’ में स्त्री-जीवन की अस्मिता को खोजने का प्रयास करते हैं-
“उसकी समस्त संभावनाओं को
धीरे धीरे असंभव कराते रहे हम
और वह अपनी दुर्बल काया की
मुट्ठी भर आस्तियों की चुटकी भर मज्जा से
हमें असभ्यताओं में खोजती रही” [4]
आधुनिकता के दौर में जहाँ पुरुष ने स्त्री को मॉडल बनाकर प्रस्तुत किया वहीं उसके द्वारा स्त्री पर अनगिनत अत्याचार भी किए गए। मंगलेश डबराल नारी पर पुरुष द्वारा हो रहे अत्याचारों को अपनी कविता ‘स्त्रियाँ’ में अभिव्यक्त करते हैं। वासना में धुत्त पुरुष कैसे स्त्री को अपनी अय्याशी का साधन मात्र मानता है इसे वे एक सामान्य स्त्री के वैश्या बनने की कहानी में अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं -
“उन्हें ले जाया जाता है निर्जन रोमांचक यात्राओं में
खतरनाक कगारों तक
वासना के धुएँ से भरी शानदार इमारतों में
जहाँ पियक्कड़ अय्याश उन पर सवारिन गँठते हैं
उन्हें कोड़ो से फटकारते हैं” [5]
“समकालीन कविता में नारी जीवन, प्रेमिका, सह-यात्री, पत्नी, मां, बेटी, बहन के रूप में ही अभिव्यक्त नहीं हुए हैं, बल्कि वर्ग चेतना के समाज - सापेक्ष सन्दर्भो में उनके शोषित स्वरूपों को भी उजागर किया गया है।” [6] स्त्री-जीवन की समस्याओं के साथ समकालीन कवियों ने स्त्री-मन की आंतरिक संवेदनाओं को भी उजागर किया है। एक परिवार में उसकी छवि के विभिन्न रूपों को उकेरा हैं। आलोकधन्वा एक माँ के आंतरिक भावों को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-
“माँ जब भी नयी साड़ी पहनती
गुनगुनाती रहती
हम माँ को तंग करते
उसे दुल्हन कहते
माँ तंग नहीं होती
बल्कि नया गुड देती
गुड में मूँगफली के दाने भी होते” [7]
स्त्री के जीवन का प्रवाह सरल नहीं है, उसमें अनेक उतार-चढ़ाव तथा समस्याएँ विद्यमान है। एकांत श्रीवास्तव ‘उमा की कहानी' शीर्षक कविता में एक तलाकशुदा नारी की बेबसी को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-
“मेरी और मेरी कविता की सदिच्छा बस इतनी है
कि उमा को कहीं कोई छोटा-मोटा काम मिल जाए।
और थोड़े से हरे पत्ते आ जायें
एक झुलसे हुए पेड़ में
सूखी नदी में उतर आए नए जल की धार।” [8]
भूमंडलीकरण के दौर में आज सारा विश्व पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल में फँसकर अपसंस्कृति से आक्रांत हो रहा है। ऐसे में समकालीन हिंदी कविता की सशक्त आवाज कात्यायनी अपने देश की तुलना डिज्नी लैंड के चका-चौंध से करते हुए सामान्य स्त्री की स्वतंत्रता पर सवाल उठती है। वे कहती हैं-
“जल्दी ही
देश में
कई डिज्नी लैंड
होंगे
जल्द ही पूरा देश
एक डिज्नी लैंड
होगा
क्या आशा करूँ
कि
उसके बाहर
मेरा घर होगा?” [9]
इस काल में समकालीन कवियों ने स्त्री जीवन, उसकी समस्याओं और भोगी यातनाओं के साथ उसके मन की आंतरिक संवेदनाओं को बड़ी गहराई से स्पष्ट किया।

हिंदी साहित्य की भांति मराठी साहित्य में भी समकालीन मराठी कविता एक विशेष प्रवाह को साथ लिए चलती है। 1960 के बाद मराठी कविताओं में परिवर्तन की एक लहर उभरी। भारतीय स्वतंत्रता के बाद आम आदमी का मोहभंग हो गया और इससे उत्पन्न अराजकता ने जनसामान्य को नैराश्य की ओर ढकेल दिया। दलितों, शोषितों, मजदूरों तथा स्त्रियों का समाज में केवल नाम मात्र का स्थान रह गया। समाज का असली संचालन वर्चस्वशाली पूंजीपतियों और सत्ताधारियों के हाथों में सिमट गया। ऐसे में मराठी कवियों ने समाज में परिवर्तन की विचारधारा को प्रवाहित किया जिसने संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को झकझोर दिया।

मराठी साहित्य में भी समकालीन कविता की शुरुआत सन् 1970 से 1975 के आस-पास मानी गयी। यह वह समय-काल था जो मराठी कविता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण काल साबित हुआ। इस काल में मराठी कवियों ने विभिन्न भावों और स्थितियों को समक्ष रखकर कविता की रचना की। कुछ कवियों ने महानगरीय जीवन को शब्दबद्ध किया तो वही कुछ अन्य की कलम ग्रामीण परिवेश, उसकी समस्या, त्रासदी तथा वहाँ के जनसमान्य की वेदना को अभिव्यक्त करने में चली। जहाँ एक ओर दलित कवियों ने अपने अधिकारों के लिए नए आंदोलन खड़े किए, वहीं दूसरी ओर स्त्रीवादी कवियों ने नारी की अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए कलम चलाई। आदिवासियों ने अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने तथा अधिकारों की रक्षा हेतु समकालीन कविता में अपना स्वर बुलंद किया।

समकालीन मराठी कवियों ने स्त्री के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। यह रूप स्त्री जीवन के साथ उसके दु:ख, वेदना, चिंता तथा उसकी यातना को प्रदर्शित करते हैं। इन कवियों में आसावरी काकड़े, लहू कानडे, अरुण काले, इंद्रजीत भालेराव आदि ने स्त्री को माँ, पत्नी, बहन, बेटी, प्रेयसी जैसे पारिवारिक रिश्तो में प्रस्तुत किया है, साथ ही उन्होंने स्त्री के श्रम, उसकी वेदना, भय के वातावरण में दबी आवाज को भी भली-भाँति वाणी प्रदान की है। अधिकांश कविताओं में स्त्री को ऐसे परिवार का हिस्सा बनाया है जो सदा अपनी पारिवारिक खुशी के लिए बारह मास वेदना तथा दु:ख झेलती है। इस असहाय वेदना को सहने वाली नारी जीवन को मुखर वाणी प्रदान करते हुए इंद्रजीत भालेराव कहते है,
“बाई माझे साता वनाचा वनवास
भोगूनही सारंचना सासरचा सासुरवास
वनमागं वनं आता वनचाच रास्ता
जल्मोजल्मी पुरतील आता कोरटाच्या खस्ता” [10]
आज भी भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति बड़ी विकट है। उसे धर्म, संस्कृति तथा घरेलू परंपराओं के नाम पर असंख्य अमूर्त श्रृंखलाओं में जकड़ कर रखा गया है। मराठी कविता स्त्री की इस स्थिति का चित्रण कर उसकी मुक्ति की कामना करती है। अरुण काले अपनी कविता में स्पष्ट करते हुए कहते हैं, यहां एक स्त्री की चूड़ी भी टूट जाए तो उसे उस चूड़ी की कमी पूर्ण करने के लिए कपड़ा बांधना पड़ता है। शेर-सी ताकत रखते हुए भी स्त्री को खेत-खलियानों में काम करना पड़ता है। उसे गाँव में मर्यादा का पाठ सिखाया जाता है। वे कहते हैं-
“ह्या सांस्कृतिक बळीपणावर
तू किती झोकून घ्यावस
एक बांगडी फुटली तिथ
चिंधिला बांधावस
X X X
वाघिणीसारखी बलडंद्र तू
गाव कुत्र्यांना पाहून पदर घेणारी तू” [11]
मराठी कवियों ने स्त्री तथा पुरुष के मनोरंजनात्मक स्वभाव का भी चित्रण किया है। उन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों पर समाज की किस प्रकार छाप पड़ी है इसे भी बड़ी वास्तविकता के साथ उकेरा है।–
“पुरुषाने स्त्रीच सौन्दर्य बघाव
स्त्री ने पुरुषार्थ
माला व्यवस्थेन खुडलेल
तुला काळाने जाळलेल
तरीही मी पुरुष,,,
तुला जिंकताना मला
रोज हरावच लागत
तुझ तथाकथित सौभाग्य मी
तुझ पांढर कपाळही मीच” [12]
स्त्री चेतना का मूल स्वरूप तथा प्रेरणा का उद्गम स्थान मानी जाती है। यही बात समकालीन मराठी कवियों ने समझी है तथा उसे अपने काव्य में अभिव्यक्ति दी है।

समकालीन हिंदी कवि स्त्री जीवन की विडंबनाओं तथा यातनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं। इन कवियों ने नारी जीवन की इच्छा, आकांक्षा, मानसिक दशा, पीड़ा, यातना को सम्बोधित करते हुए स्त्री समाज में चेतना संचारित करने का प्रयास किया है। वहीं मराठी कवि नारी के माँ, पत्नी, बहन, प्रेयसी, बेटी आदि रूपों में चित्रित करते हैं। इन कवियों ने नारी की वेदना, चिंता, पीड़ा को दर्शाते हुए सामाजिक तथा सांस्कृतिक बंधनों से उसकी मुक्ति की कामना की है। मराठी साहित्य वस्तुतः शोषित, पीड़ित, अन्यायग्रस्तों का साहित्य है। इसलिए समकालीन मराठी कवियों में स्त्री चेतना के स्वर मुखर रूप से प्रस्तुत होते हैं।

संदर्भ:-
  1. डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित - समकालीन कविता संप्रेषण : विचार आत्मकथा, पृ. सं. 25
  2. अनामिका का काव्य : आधुनिक स्त्री विमर्श, पृ. सं. 38
  3. अनामिका - अनुष्टुप, पृ. सं. 38, 39
  4. कुमार अंबुज - किवाड़, पृ. सं. 52
  5. मंगलेश डबराल - आवाज भी एक जगह है, पृ. सं. 19
  6. समकालीन कविता और सौंदर्य बोध - रोहिताश्व, पृ. सं. 107
  7. आलोकधन्वा - दुनिया रोज बनती है, पृ. सं. 25
  8. श्रीवास्तव एकांत - एक उमा की कहानी, कथन, जनवरी-मार्च, 2000
  9. कात्यायनी - जादू नहीं कविता, पृ. सं. 111
  10. इंद्रजीत भालेराव - आम्ही काबाडाचे धनी, पृ. सं. 30
  11. अरुण काले - सायरनचे शहर, पृ. सं. 23
  12. अरुण काले - सायरनचे शहर, पृ. सं. 42
डॉ. नितिन भिका पाटिल, (असिस्टेंट प्रोफेसर), हिंदी विभाग, सेंट फ्रांसिस कॉलेज, कोरमंगला, बेंगलुरु - 560034