‘सरस्वतीचंद्र’ से भी 25-30 वर्ष पूर्व से लेकर पिछले डेढ़ सौ वर्षों में गुजराती कथा-साहित्य में नारी की तस्वीर कितनी बदली है उसकी चर्चा करनी हो तो समानान्तर हमें गुजरात के समाज जीवन की भी चर्चा करनी पड़ेगी । बीती डेढ़ सदी में गुजरात के समाज जीवन ने कितने कितने रंग देखे हैं ? समय के साथ क्या स्त्री की समस्याएँ बदली हैं ? नयी समस्याएँ जुड़ी हैं या फिर सबकुछ ज्यों का त्यों ही रहा है ? क्योंकि अगर समाज में नारी की स्थिति बदली है तो साहित्यकार उसे अवश्य प्रतिबिम्बित करेगा ही । इसलिए मैं बात करूँगी नारी की तस्वीर कैसी थी, कितनी बदली और इस बदली हुई तस्वीर को उभारने में गुजराती रचनाकार कितना सफल रहा है उसकी परन्तु इस पर चर्चा करने से पहले मुझे थोड़ी भूमिका बाँधना जरूरी लगता है ।
वैसे तो स्त्री का अस्तित्व पुरुष जितना ही प्राचीन है और आबादी की दृष्टि से भी वह पुरुष के बराबर होने के बावजूद पिछले दो हजार वर्षों से स्त्री के अस्तित्व का किसीने स्वीकार किया ही नहीं है । कुछ समय पहले तक पुत्र को जन्म देकर, पति की सेवा या परिवार की सेवा में ही उसका जीवन समाप्त हो जाता था । धर्मग्रंथों ने भी उसे व्यक्ति नहीं परन्तु वस्तु बताया है । उसे शैतान, पाप की जड़, अशुभ माना गया है । स्त्री चर्च में उपदेश नहीं दे सकती है, मस्जिद में प्रवेश नहीं कर सकती है, शिक्षा प्राप्त करने से स्त्री भ्रष्ट हो जाती है । धर्म, संस्कृति और समाज द्वारा निर्धारित इन अटल विधानों का इतना प्रचंड प्रभाव रहा कि स्त्री खुद भी अपने आपको हेय मानने लगी । उसने यह सवाल करना भी छोड़ दिया कि त्याग के, नीति के, पवित्रता के बंधन मात्र स्त्रियों के लिए ही क्यों ? स्त्री धर्म के साथ पुरुष धर्म क्यों नहीं ? सभी व्रत मात्र पति या पुत्र के लिए ही क्यों ? उसने इस तरह के सवाल करना बिल्कुल छोड़ दिया । पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा की जाती है परन्तु पत्नीव्रता पुरुष की आलोचना और इस तरह की आलोचना करने में स्त्री ही आगे होती है इस हद तक वह अपने आपको निम्न मानने लगी । आदम की पसली से उत्पन्न मानी जाने वाली स्त्री को डार्विन के उत्क्रांतिवाद के बाद भी हमेशा पुरुष से निम्न माना जाता रहा यह कितनी बड़ी विडंबना है ! विभिन्न संस्कृति, विभिन्न धर्म और विभिन्न देशों के इतिहास जाँचने-परखने के बाद एक प्रश्न होता है कि इतनी सांस्कृतिक विविधता, इतने धर्म प्रवर्तक, मनुष्य जाति का इतना दीर्घ इतिहास होते हुए भी हर देशकाल में स्त्री पुरुष के बीच की असमानता में इतनी अकल्पनीय समानता क्यों ? काम के प्रकार, संपत्ति का विभाजन, काम का मुआवजा आदि सभी बातों में पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री को दोयम दर्जा ही दिया है । उसे Human नहीं परन्तु Woman के तौर पर ही देखा है । ऐसे में स्वाभाविक ही है कि साहित्यिक कृति में स्त्री का यही प्रतिबिम्ब उभरेगा ।
लोकतंत्र के जनक माने जाने वाले ग्रीस में स्त्री को मताधिकार ही नहीं था । प्लेटो ने स्पष्ट रूप से कहा है कि स्त्री को पुरुष की जरूरत है, पुरुष को स्त्री की जरूरत नहीं है । वंश बेटे से ही आगे बढ़ता है इसलिए बेटी का कोई महत्व नहीं है । अरस्तू ने भी बुद्धि और नैतिकता में स्त्री को पुरुष की तुलना में हेय माना है । इस कारण स्वाभाविक रूप से ही ग्रीस साहित्य में कई बार स्त्री को निम्न कोटि की चित्रित की गई है । एक्सिलस की ट्रायोलोजी में एपोलो द्वारा यह तर्क दिया गया हैः ‘Mother is no Parent of her child.’ आज इस बात को 2500 से भी अधिक वर्ष हो चुके हैं फिर भी नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में धारण करने वाली और बाद में उसे अपने सीने से लगाकर पालने वाली स्त्री के नाम से उसके बच्चे पहचाने नहीं जाते हैं । सच्चाई यह है कि पिता की सात पीढ़ियाँ रटने वालों को ननिहाल में नानी से आगे किसी का नाम शायद ही पता होता है ।
अपने देश में तो पुरुष और प्रकृति की समानता का सिद्धान्त था । वैदिक काल में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त थे । ऋग्वेद में विश्ववारा, घोषा काक्षीवती, रात्रि भारद्वाजी, श्रद्धा कामायनी, शची पौलोमी, लोपामुद्रा, सूर्या, उर्वशी आदि ऋषिकाओं का उल्लेख मिलता है । वे शास्त्र के साथ साथ शस्त्रविद्या में भी निपुण थीं, मंत्र दृष्टा थीं । इस काल में माता के नाम से पहचानी जाने वाली संतानें थी । उदाहरण स्वरूप ऐतरेय, जाबाल । स्त्री इच्छानुसार वर प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र थी । वह गंधर्व विवाह कर सकती थी, विधवा स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी । परन्तु वैदिक काल के बाद के समय में धर्मग्रंथों और स्मृतिग्रंथों ने स्त्री के दर्जे को निम्न माना । उसे चीज़ या वस्तु माना गया । द्रौपदी को दाँव पर लगाया गया और महाभारत की माधवी–गालव कथा में माधवी पुत्र प्राप्ति का, पति के अहंकार की संतुष्टि का साधन बनी रही । स्मृतिग्रंथों के कारण बाल विवाह होने लगे, विधवा विवाह पर पाबंदी लगी, स्त्री धीरे-धीरे चार दीवारों में कैद होती गई । विधवा के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए जिन भयंकर, जड़ नियमों का पालन उसे करना पड़ता था और सामाजिक रूप से संपूर्ण बहिष्कृत जिस जीवन को उसे जीना पड़ता था उसकी तुलना में मान-सन्मान के साथ सती हो जाना क्या उसे अधिक अच्छा लगता होगा ? हर दिन जलते रहने से एक ही बार में जल जाना उसे सरल लगता होगा । हमारे समाज में विधवा जीवन कितना विकट था उसकी झलक पाने की इच्छा रखने वाले को झवेरचंद मेघाणी की ‘लाडको रंडापो’ और ’सदाशिव टपाली’ जैसी कहानियाँ पढ़नी चाहिए ।
स्त्री जन्म से दुर्बल नहीं थी परन्तु पुरुष प्रधान समाज द्वारा उसके लिए बनाए गए आदर्शों और रूढ़ियों ने उसे दुर्बल बना दिया । उसके आसपास आदर्शों का ऐसा जाल बुना गया, ऐसा सांस्कृतिक ढाँचा खड़ा किया गया कि स्त्री खुशी खुशी उस जाल में फँसती गई । (Nature did not intend woman to be inferior to man but culture has quite often done so. Women all over the world are what men make them.) स्त्री का उसका अपना व्यक्तित्व हो सकता है, उसकी अपनी इच्छाएँ, निर्णय शक्ति हो सकती है इस बात को भूला दिया गया । वह वंश बढ़ाने का साधन बनकर रह गई, बिना वेतन समर्पित गुलाम बनी रही । सुबह से शाम तक गृहस्थी का बोझ ढोने वाली स्त्री ‘क्या कर रही हो ?’ इस प्रश्न का यही जवाब देती आई है कि ’कुछ भी नहीं कर रही ।’ हालांकि जीवन की निरंतरता स्त्री द्वारा ही बनी हुई है । बावजूद इसके ‘Women is nothing but a Womb.’ ऐसा कहते हुए स्त्री के अस्तित्व को मात्र गर्भाशय की आवश्यकता तक सीमित कर दिया गया है । मातृत्व की अपरंपार महिमा गाने वाला हमारा समाज हमेशा बलात्कार से माँ बनने वाली स्त्री को अस्वीकृत करता रहा है । विज्ञान का सत्य जानने के बाद भी बेटी को जन्म देने वाली या बच्चे को जन्म देने में असमर्थ स्त्री अपमानित होती रही है । इसीलिए तो हमारे लोकगीतों में स्त्री कितने आर्द्र स्वर में माताजी से प्रार्थना करती है कि ‘खोळानो खुंदनार द्योने रन्नादे आ वांझिया मेणा तो माडी बहु दोह्यला रे..।’ (मेरी गोद में खेल सके ऐसा बच्चा मुझे दो रन्नादे, क्योंकि यह बाँझपन के ताने मुझे बहुत असहनीय लगते हैं ।) स्त्री के चारित्र्य को आज भी उसकी देह से ही जोड़ा जाता है, उसके व्यक्तित्व से नहीं क्योंकि स्त्री का व्यक्तित्व होता ही कहाँ है ? कभी आत्मा तो कभी मात्र देह से पहचानी जाने वाली स्त्री को इस समाज ने निजी पहचान दी ही नहीं है । वह हमेशा पुरुष के संदर्भ में ही पहचानी गई है । समाज में भी और उसके परिणाम स्वरूप साहित्य में भी ।
विश्व का अधिकांश साहित्य पुरुषों द्वारा ही लिखा गया है । स्त्री के लिए लिख सकने की स्थिति ही कहाँ थी ? वर्जिनिया वूल्फ ने ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ में लिखा है कि स्त्री को अगर लेखक बनना है तो उसके पास उसका अपना एक कमरा और उसकी अपनी पुंजी होनी चाहिए । क्योंकि वैचारिक निर्धनता के लिए जेब की निर्धनता सीधे जिम्मेदार है । वूल्फ की यह बात बिल्कुल सही है । साहित्य वैचारिक स्वतंत्रता पर आधारित होता है और स्त्रियाँ तो सदियों से एथेन्स में बसने वाले गुलामों से भी बदतर स्थिति में जीती रही है । वूल्फ ने जो कहा है वह सही है कि ‘मान लो कि यह स्त्री ने ही लिखा होता तो भी उसके नीचे हस्ताक्षर न करती । करर बेल, ज्योर्ज एलियट, ज्योर्ज सेन्ड आदि की तरह पुरुष के नाम से ही लिखती । क्योंकि अप्रकट रहने की वृत्ति स्त्री के व्यक्तित्व का अंग बन चुकी है ।’ पुरुषों द्वारा लिखे गए साहित्य में शायद ही कोई स्त्री प्रमुख चरित्र के रूप में आई है । हमारी ‘कोकिला’, ’शोभना’, ’अमृता’ जैसी नायिका नामधारी रचनाओं के केन्द्र में क्या सचमुच नायिका है ? या इन रचनाओं की भी प्रेरक शक्ति पुरुष ही है ? जब स्त्री केन्द्र में होती है तब भी पुरुष के संदर्भ में ही होती है यही तो ’गुण सुंदरीनो घर संसार’ से चली आ रही प्रथा है । ज़रा सा भी समाधान किए बिना, प्रेम और स्वाभिमान को एक सा महत्व देने वाली, अपनी शर्त पर जीवन जीने वाली ‘जनमटीप’ की चंदा जैसी नायिका क्या मिल सकती है हमें ? गहराई से देखने पर पता चलेगा कि गोवर्धनराम हो या कोई अन्य लेखक, वे पाठक को हमेशा पुरुष के रूप में ही सम्बोधित करते आए हैं । साहस-कथाओं और रोमेन्टिक उपन्यासों में भी प्रेरक बल तो पुरुष ही रहा है । तेजस्वी नायिका भी अंततः तो पुरुष के चरणों में समर्पित होने में ही अपनी सार्थकता तलाशती है । उदाहरण के रूप में मुनशी की तमाम नायिकाएँ । हमने बचपन में सुनी हुई कहानियों में भी राजा आधा राज्य और साथ में राजकुमारी भी इनाम के स्वरूप देने की घोषणा करता था । मानो स्त्री कोई इनाम में देने योग्य चीज़ न हो !
पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी, आर्थिक या धार्मिक इन सभी बातों में पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री को हमेशा दूसरे दर्जे पर ही माना है इसीलिए कुछ अपवादों को छोड़कर साहित्यिक रचनाओं में भी स्त्री की ऐसी ही तस्वीर उभरी है । हमें एक बात हमेशा गाँठ बाँध लेनी है कि स्त्री को मताधिकार, शिक्षा तथा संपत्ति में विरासत का अधिकार मिलना चाहिए ऐसा सबसे पहले कहने वाले जे. एस. मिल पुरुष थे । ‘पत्नी या माँ से पहले मैं भी तुम्हारी तरह ही एक मनुष्य हूँ ।’ पति से ऐसा कहते हुए अपना घर छोड़ने वाली ‘डोल्स हाउस’ नाटक की नोरा व्यक्ति के रूप में नारी के अस्तित्व का पहलीबार स्वीकार कराती है । (1879 में) नारी मुक्ति के इस प्रथम उदगार समान नाटक का रचयिता हेन्री इब्सन पुरुष था । नारी मुक्ति का अर्थ कभी पुरुष विरोध नहीं होता । शोषण, अन्याय का विरोध और समानता के साथ वैचारिक स्वतंत्रता ही नारी मुक्ति का सही अर्थ है । स्त्री को उसकी वर्तमान मुक्त परिस्थिति तक पहुँचाने में पूरी दुनिया के पुरुषों का भी स्त्रियों के समान ही योगदान है । हमारे देश में स्त्री के अधिकारों के लिए लड़ने वालों में राजा राममोहनराय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, आचार्य कर्वे, महात्मा फूले, जस्टीस रानाडे तथा महात्मा गांधी जैसे पुरुषों के नाम सबसे पहले याद आते हैं । डेढ़ सौ वर्ष पहले यहाँ गुजरात में नर्मद ने स्त्रियों की ओर से यह सवाल किया थाः
छत्री अमे कां न ओढीए, पगरखां अमे कां न पहेरीए ?
समजता लग्न कां नहीं, लग्न केम रांडेलीने नहीं ?
(अर्थात हम क्यों छाता नहीं ओढ़ सकती, जूते हम क्यों नहीं पहन सकती ? अपनी इच्छा से विवाह हम क्यों नहीं कर सकती, विधवा स्त्री विवाह क्यों नहीं कर सकती ?)
यह दिखाता है कि स्त्री को ये सारे अधिकार प्राप्त नहीं थे परन्तु उसके लिए आवाज़ बुलंद करने वाला तो पुरुष ही था । इसीलिए स्त्री की बदलती तस्वीर की बात करते समय मैं स्त्री रचनाकार या पुरुष रचनाकार जैसे भेद न करते हुए अच्छे रचनाकार या कमजोर रचनाकार जैसे भेद करना चाहूँगी । कारण स्पष्ट है कि स्त्री रचनाकार जितनी ही क्षमता से पुरुष रचनाकारों ने भी स्त्री के अन्तर्मन को उजागर किया है । मेघाणी, उमाशंकर, सुन्दरम, जयंति दलाल, खत्री या हरीश नाग्रेचा, वीनेश अंताणी, किरीट दूधात या राम मोरी तक के रचनाकारों की रचनाएँ स्पष्ट करती है कि रचनाकार स्त्री हो या पुरुष – यदि वह समसंवेदन की भूमिका पर किसी पात्र की चेतना में प्रवेश कर सकता है तो उसका स्त्री होना या पुरुष होना गौण बन जाता है । इतनी स्पष्टता के बाद कुछ वर्तमान की बात कर लेती हूँ । स्त्री के अधिकारों की रक्षा करने वाले अनेक कानून 1970 के बाद बनाए गए और उन्हें लागू भी किया गया । दहेज प्रथा, बाल विवाह, समान वेतन, गर्भपात का अधिकार, प्रसुति अवकाश, स्त्री के साथ होने वाली हिंसा से सम्बन्धित कानून बनाए गए । संपत्ति के अधिकार और बलात्कार विषयक कानूनों में भी संशोधन किए गे परन्तु इस वजह से यह मान लेना गलत होगा कि हमारा समाज पुरुष प्रधान नहीं रहा है या पुरुष का अहंकार या वर्चस्व खत्म हो गया है या अब वह स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, दहेज नहीं माँगता । बल्कि आज स्त्री सुरक्षा की समस्या और अधिक भयंकर बनकर सामने आई है । आज भी स्त्री की शिक्षा अधिकतर विवाह के लिए योग्यता से अधिक महत्वपूर्ण नहीं बन पायी है । अब बेटी को दूध पिलाकर मार नहीं दिया जाता क्योंकि अब उसे जन्म ही लेने नहीं दिया जाता । स्त्री पढ़ने लगी, कमाने लगी परन्तु इस कारण उसका दायित्व कम हो गया है ऐसा नहीं है । हमारे यहाँ होटल या भोजनालय में रसोई बनाने वाला पुरुष घर पर खाना नहीं बनाएगा, अफसरों को पानी देने वाला, ऑफिस की साफ-सफाई करने वाला पुरुष घर में अपनी स्त्री के पास ही पानी का गिलास माँगता है । ऐसा क्यों तो इसका जवाब प्रसिद्ध कोल्ड्रिंक्स कंपनी की CEO ईन्द्रा नूयी की कैफियत में मिलता है । प्रमोशन की खुश खबर के साथ घर पर आई हुई ईन्द्रा को पति द्वारा अभिनंदन देना तो दूर ठंडे दिमाग से यह कहा जाता है, ‘वे सारी बातें बाद में करना, पहले दूध ले आओ और चाय बनाओ.....।’ घर पर जल्दी आ जाने वाला पति भले ही चाय न बनाए परन्तु दूध लाकर तो रख ही सकता है न ? तो यह है हमारे समाज की वर्तमान स्थिति । इसे याद रखते हुए मैं नारी की बदलती तस्वीर की बात करूँगी । एक तरफ 1949 में लिखा गया और नारी मुक्ति के आंदोलन का सूत्र बन चुका सिमोन द बूवा का यह वाक्य है ‘A Woman is not born but made. Biology is not destiny.’ तो दूसरी तरफ विज्ञापन के क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति को लेकर कुछ वर्षों पहले किए गए एक सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष निकला है कि ‘Woman is a beautiful object in advertising.’ जब देह ही पदार्थ, साधन या चीज़ बन गई है तो उससे बड़ी ट्रेजडी दूसरी क्या हो सकती है ? IPL में उछलते-कूदते नारी शरीर यही प्रश्न जगाते हैं ।
गुजराती कथा साहित्य में नारी की बदलती तस्वीर पर बात करने से पूर्व मुझे दो-एक बातें और भी विचारणीय लगती है । हमारे अपने देश में या विदेश में कौन सी स्त्री लिख सकी है ? जवाब कुछ इस तरह मिलता हैः – संपन्न परिवार की स्त्री, पढ़ी-लिखी, घर की दहलीज पार करने वाली, अधिकांश अविवाहित अथवा विवाहित होने पर जिसे उदार-प्यारा, मित्र जैसा पति मिला हो और उसने अपने बच्चे बड़े जाने के बाद कलम उठायी हो । जिन्होंने जवानी में ही विवाह कर लिया हो, गृहस्थी का बोझ उठाया हो, चार-पाँच बच्चों की परवरिश की हो और लिखा भी हो ऐसी स्त्रियाँ कितनी मिल सकती है ? हमारे यहाँ दृष्टिपात करते हैं तो आरंभिक दौर में विनोदिनी निलकंठ, सरोजिनी या सौदामिनी मेहता, लीलावती मुनशी, लाभुबहन मेहता से लेकर आज तक देखिए । कुंदनिका कापडिया, सरोज पाठक, धीरुबहन पटेल, हिमांशी शेलत, बिन्दु भट्ट, सुवर्णा, वर्षा अडालजा, ईला आरब मेहता से लेकर अरूणा जाडेजा, मीनल दवे, पन्ना त्रिवेदी तक दृष्टि डालिए । अपवाद स्वरूप भी ऐसी कोई स्त्री रचनाकार नहीं मिलेगी जो संसार में आकंठ डूबी हुई हो और लोग प्रतीक्षा करें ऐसा साहित्य वह लिख पायी हो । यह कटु होते हुए भी सच है । नारी की बदलती तस्वीर की बात करने से पहले यह भी स्पष्टता जरूरी है कि नारीवादी रचना को भी कला की कसौटी पर तो उत्कृष्ट सिद्ध होना ही चाहिए । प्रचारात्मक रचना बन जाने के खतरे का रचनाकार को अतिक्रमण करना ही होगा । मैं कला की कसौटी पर उत्कृष्ट मानी जाने वाली रचना को केन्द्र में रखकर ही अपनी बात करूँगी ।
हमारे यहाँ लगभग 1940-50 तक पारिवारिक जीवन में स्त्री की हैसियत घरेलू काम करने वाली व्यक्ति से अधिक नहीं थी । गृहस्थी का बोझ ढोते हुए भी वह कमाई नहीं कर रही थी इसलिए उसके काम का कोई मूल्य नहीं था । घर पुरुष द्वारा चल रहा था । दो-चार उदाहरण ही स्पष्ट कर देंगे कि समाज में और परिणाम स्वरूप साहित्य में भी स्त्री की तस्वीर कैसी थी । नरसिंहराव भोलानाथ दिवेटिया ‘स्मरणमुकुर’ में एक प्रसंग का उल्लेख करते हैः एक सेठ एक दिन अपने घर की व्यवस्था की बात करते हुए कहते हैः ‘भोलानाथभाई ! मैं रोज दो केले लाता हूँ । एक मैं खा जाता हूँ, आधा मेरी माँ को खिलाता हूँ, और बचे हुए आधे को दाल में डालने के लिए कहता हूँ ताकि बच्चे और औरतें सबको मिल सके ।‘ (स्मरणमुकुरः नरसिंहराव दिवेटिया) ऐसा कहने वाले को यह नहीं लगता कि वह कुछ भी गलत कर रहा है । स्त्री के लिए रंडी शब्द का प्रयोग करने में भी कुछ गलत नहीं लगता । परिवार के मुखिया पुरुष को कितनी सत्ता प्राप्त थी उसका एक उदाहरण हमें ‘गुणसुंदरीनो घरसंसार’ में भी मिलता है । पत्नी के देवी-देवताओं को मटकी में भरकर सबको घर से बाहर निकाल देने वाले मानचतुर की सत्ता कितनी है ? घर के बड़े-बुजुर्गों की उपस्थिति में पत्नी या बच्चों से पुरुष बात नहीं कर सकता था ऐसा उल्लेख सुमंत मेहता की आत्मकथा में मिलता है । स्वयं गांधीजी ने भी कस्तुरबा पर आधिपत्य जमाया था । स्त्री स्वतंत्रता की बात करने वाले नर्मद ने भी डाहीगौरी से यह कहा था कि ‘लात खानी पड़ेगी ।’ नंदशंकर मेहता के ‘करणघेलो’ उपन्यास में गुणसुंदरी के मुख से विधवा की दशा का वर्णन हुआ है । वह दशा बाद में 70-80 वर्ष तक ज्यों की त्यों रही है । 1866 में प्रकाशित इस उपन्यास में विधवा के रूप में जलते हुए जिन्दगी जीने से गुणसुंदरी सती होना पसंद करती है । दरअसल विधवा धनकोरबहन के साथ विवाह करने वाले माधवदास अपने पुनर्विवाह की पुस्तक 1891 में प्रकाशित कर चुके थे फिर भी गोवर्धनराम जैसे रचनाकार भी विधवा कुमुद का विवाह सरस्वतीचंद्र के साथ नहीं करते ।
स्त्री पढ़ने लगी, घर से बाहर निकलने लगी, गांधीजी के आहवान से सत्याग्रह में जुड़ने लगी इसके बाद पारिवारिक जीवन में उसकी हैसियत थोड़ी बहुत बदली ऐसा कह सकते हैं । मेघाणी की ‘अनंत की बहन’ भद्रा इसीलिए तो वैधव्य की कैद में न जाकर सत्याग्रह से जुड़ती है और सरकारी कैद में जाना पसंद करती है । अधिकांश विधवा या सास - उसने स्वयं जो सहा है वह सबकुछ उसकी बहू भी सहे – जैसी मानसिकता रखने लगती है तब ‘लाडको रंडापो’ की बुआ जैसे स्त्री पात्र मेघाणी के कथा साहित्य में बार बार मिलते हैं । र. व. देसाई की ‘बालहत्या’ या पिताम्बर पटेल की ’अपह्यता’ जैसी कहानियाँ कहती है कि विभाजन के समय के भयंकर अत्याचारों का शिकार बनने वाली स्त्रियों को गुजरात में शायद ही अपनाया गया है । स्त्री के प्रति इस दृष्टिकोण को लेकर हमारा संकुचित मानस आज भी नहीं बदला है इसे हम पिछले बीस वर्षों में लिखी गई कहानियों में देख सकते हैं ।
गुजरात में नारीवादी आंदोलन से प्रभावित नारी-मुक्ति का साहित्य या स्त्री के विद्रोह की अभिव्यक्ति करने वाला साहित्य बहुत बाद में लिखा गया परन्तु शोषण और समस्याओं का चित्रण तो हमारे आरंभिक दौर के नाटक, उपन्यास और कहानियों में देखा जाता है । कहीं स्त्री का हैरानी में डालने वाला विद्रोह, कहीं स्व की पहचान के लिए उसका संघर्ष, कहीं मात्र देह की स्वीकृति के खिलाफ स्त्री का विरोध जैसे आलेखन मिलते हैं । स्त्री जाति को लेकर मुनशी की मान्यताओं के बीच हमें ‘एक पत्र’ जैसी अपवाद स्वरूप कहानी मिलती है जिसमें शुद्ध आर्यनारी की तरह ’प्रत्येक जन्म में आप ही मिलना’ के बदले ‘इस जन्म में मुक्त हुई, अब ईश्वर कभी हमें न मिलाएँ’ जैसे वचन बोलने वाली त्रस्त नारी देखने मिलती है । धूमकेतु के स्त्री पात्र अधिकतर स्त्री यानी कि वात्सल्य, त्याग और क्षमा की प्रतिमूर्ति, गृहलक्ष्मी, माता जैसी धारणा व्यक्त करते हैं । ‘जो स्त्री माता नहीं है, वह क्या सचमुच स्त्री हो सकती है ?’ इस तरह का विधान करने वाले धूमकेतु ‘बिंदु’ कहानी में बिंदु से यह कहलवाते हैं कि ‘पढ़ना-लिखना तो जीवन में संस्कार भरने के लिए हैं । पुरुष जिस प्रकार पढ़ने-लिखने का उपयोग नौकरी की तलाश में करते हैं, लगभग वैसा ही उपयोग अगर स्त्रियाँ भी अपनी विद्या का करेंगी तो विद्या कलंकित होगी, और विद्या व्यर्थ हो जाएगी ।’ नारी तस्वीर को लेकर धूमकेतु अधिकतर पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधि ही प्रतीत होंगे । वैसे देखा जाए तो द्विरेफ के साहित्य में भी नारी की परंपरागत तस्वीर ही है परन्तु द्विरेफ की खेमी का आत्म-तत्व और उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति उसके सामाजिक ढाँचे का अतिक्रमण कर देता है । ‘सौभाग्यवती’ कहानी में सभ्य समाज की नायिका पति की अतिशय कामुकता से ऊब जाने के बावजूद तकलीफ सहती है और असमय मृत्य का वरण करके ’सौभाग्यवती’ का खिताब प्राप्त करती है । जब कि उसकी तुलना में अनपढ़ जीवी पति से प्रेम होने के बावजूद काया की माया में फँसे पति को छोड़कर अकेली रह सकती है । जो यह दिखाता है कि विद्रोह के मूल में पढ़ाई या पैसा या ऐसा कुछ और नहीं होता बल्कि स्त्री के बुनियादी आत्म-तत्व का महत्व होता है ।
मेघाणी की कई कहानियों में निरूपित स्त्री शोषण के भयानक चित्र उस समय के समाज का प्रतिबिम्ब उजागर करते हैं । ‘वहु अने घोडो’, ’मोरलीधर परण्यो’ जैसी कहानियों में तत्कालीन समाज में स्त्री का निम्न स्थान, उसकी पराधीनता, कन्या पक्ष की लाचारी आदि प्रकट हुए हैं । ’वहु अने घोडो’ में पति विवाह के बाद पहली सुबह ही पत्नी से कहता हैः ’सँभलकर रहना, लायक बनना, अन्यथा गुम हो जाओगी । तुम्हारे जैसी तो इस घर में कूड़े के साथ फेंक दी जाती है । पता है ?’ मेघाणी के कथा साहित्य में समकालीन सामाजिक मूल्यों की पीड़ा झेलने वाले पात्र हैं तो दूसरी तरफ अपने अपने ढंग से, स्वरक्षा के लिए जूझते स्त्री पात्र भी हैं । ’गंगा, तने शुं थाय छे ?’ कहानी की गंगा का गर्भपात करने का निर्णय या वैधव्य की कैद झेलने के बजाए अंग्रेजों की कैद झेलना पसंद करने वाली ’अनंत की बहन’ भद्रा का विरोध या हल उसने स्वयं खोजा है । ’लाडको रंडापो’ कहानी में विधवा बहू का शोषण करने वाली बुआ स्त्री है परन्तु भाभी को बचाने वाला तो पुरुष ही है । 1930 से 1940 के दौर में स्त्री के शोषण, संघर्ष और स्त्री समस्याओं का इतना जीवंत चित्रण मेघाणी के अलावा उस दौर के अन्य किसी रचनाकार की – यहाँ तक की स्त्री रचनाकारों की भी - कहानियों में नहीं मिलता । जिस गुजरात में धार्मिक स्थानों पर होने वाले स्त्री के शोषण के खिलाफ नर्मद, करसनदास मूलजी जैसे रचनाकार आवाज़ उठा चुके हो और मेघाणी जैसे रचनाकार ‘ठाकर लेखां लेशे’ जैसी सुंदर कहानी लिख चुके हो उस गुजरात में धार्मिक गुरुओं के आश्रमों में आँखें बंद किए डोलने वाली – छली जाने वाली स्त्रियों की संख्या थोड़ी भी कम हुई है क्या ? जिस गुजरात नें वर्षों पहले ‘जिगर अने अमी’ जैसा उपन्यास दिया था उस गुजरात में आज भी कई साध्वी भागकर संसारी बन रही है । शिक्षा, आर्थिक संपन्नता और देश में असह्य गरमी के बावजूद मुस्लिम स्त्री अपना काला बुर्का छोड़ने के लिए तैयार नहीं है यह सच्चाई है । परन्तु पिछले काफी समय से इस नारी की बात कोई नहीं कर रहा । धर्म के नाम पर होने वाली ढोंगबाजी की या धर्म स्थानों में होने वाले भयंकर शोषण की बात पिछले 50 वर्षों में गुजरात का कोई भी रचनाकार कला के माध्यम से क्यों नहीं कर पाया यह पूछा जाना चाहिए ।
स्त्री शोषण का भयंकर चित्र जयंत खत्री की ’खिचड़ी’ कहानी में देखा जा सकता है । खिचड़ी के लिए सेठ के पलंग तक पहुँचने वाली लखड़ी की नैसर्गिक वृत्तियों का सहज निरूपण करने वाले जयंत खत्री जब उसे एक स्वाभाविक क्षण के माधुर्य में बहने देते हैं तब इस रचनाकार पर न्यौंछावर हो जाने को मन करता है । मनुष्य जाति के आदिम आवेगों और असंतुष्ट तृष्णा का प्रतीक बन गई है खत्री की ’तेज, गति अने ध्वनि’ कहानी की कस्तुर । देशकाल से अलग लगने वाली कस्तुर जैसी दूसरी कोई नारी गुजराती साहित्य में तो नहीं है । 1939 में लिखी गई ’बंध बारणा पाछळ’ कहानी की नायिका का यह स्वीकार कि वह स्वयं जातीय संतुष्टि प्राप्त करती थी या ‘नाग’ कहानी में नागपाश द्वारा जातीय संतुष्टि की बात करने वाले जयंत खत्री नितान्त भिन्न नारी का निरूपण करते हैं ।
वैसे तो गुजराती साहित्य में स्त्री की बदलती तस्वीर सबसे पहले जयंती दलाल की ‘आ घेर पेले घेर’ कहानी में दिखाई पड़ती है । पन्नालाल पटेल की राजू, जीवी या चंपा का व्यक्तित्व तो प्रखर है परन्तु वह उनकी प्राकृतिक बुनावट है । जिसे स्त्री-जागृति या स्त्री-सजगता कहते हैं वैसा उनमें कुछ नहीं मिलता । धनसुखलाल मेहता, मुनशी, शारदाबहन मेहता, सुमंत मेहता, रविशंकर रावळ आदि लेखकों की आत्मकथाओं में भी स्त्री का आवाज़ उठाने का अधिकार देखने नहीं मिलता । सुमंत मेहता या कनैयालाल मुनशी की आत्मकथाओं में जिन तेजस्वी और उद्दंड स्त्रियों का निरूपण हुआ है वैसी स्त्रियाँ दुर्भाग्य से गुजराती कथा-साहित्य में किसी ने निरूपित नहीं की है । समाज में स्त्री की जो सामान्य तस्वीर थी ठीक वैसी ही निरूपित हुई है । विशिष्ट को विशिष्ट मानकर हाशिए पर ही रखा गया ! जयंती दलाल की ‘आ घेर पेले घेर’ कहानी की सविता के मनोमंथन में, उसके घर छोड़ने के स्वतंत्र निर्णय में स्पष्ट रूप से स्त्री की बदलती तस्वीर देखी जा सकती है । समय के साथ, बढ़ती शिक्षा के साथ, नारी मुक्ति के आंदोलनों के प्रभाव स्वरूप नारी किस हद तक बदली है इसे समझने के लिए कथा-साहित्य ही मदद कर सकता है । जयंती दलाल के बाद लगभग 60-65 वर्षों के बाद लिखी गई धीरुबहन पटेल की ‘अरुन्धती’ कहानी में पति जब यह कहता है कि वह दूसरी स्त्री से विवाह कर रहा है तब नायिका रोने-चिल्लाने के बजाए शांति से सहमति देती है । अकेले रहने के लिए नया फ्लैट और जीवन निर्वाह के लिए बड़ी रकम माँगने वाली अरुन्धती एक और विस्फोट भी करती हैः ’उसे बता देना, तीन बच्चों के बाप से शादी कर रही है तो तीन बच्चों की माँ भी उसे ही बनना पड़ेगा ।’ हाल ही में 2014 के आसपास लिखी गई पारुल देसाई की ’अंदर-बहार’ कहानी की सीमा भी पति के दूसरी स्त्री के साथ के सम्बन्ध के बारे में जानने के बाद विद्रोह नहीं करती । अपनी वर्षों की मेहनत से बनाए गए घर को छोड़ने की बात भी नहीं करती । ठंडे दीमाग से वह पति को अपनी जिन्दगी से बाहर का रास्ता दिखा देती है । ऐसा शांत विद्रोह रोने-चिल्लाने से अधिक प्रभावशाली होता है ।
1940 से 1960 के बीच सरोजिनी मेहता, विनोदिनी नीलकंठ, लाभुबहन मेहता, सौदामिनी मेहता आदि के द्वारा लिखी गई कहानियों में अधिकतर स्त्रियों के तत्कालीन प्रश्नों, समस्याओं आदि का प्रचारात्मक स्वर में, भाषणबाजी के रूप में निरूपण हुआ है । इन कहानीकारों से हमें अपवाद रूप ही कोई ऐसी कहानी मिली है जिसमें निरूपित स्त्री की तस्वीर देखकर आनंद और आश्चर्य हो सकता है । उदाहरण के लिए सरोजिनी मेहता की ’दुख के सुख’, लाभुबहन मेहता की ’बिंदी’ या विनोदिनी निलकंठ की ’जो हुं वार्तानी नायिका होत तो...’
गुजराती कथा-साहित्य में सातवें दशक से नारीवादी विचारधारा के प्रभाव स्वरूप बदली हुई नारी की तस्वीर निरूपित करने के सजग प्रयास अधिकांश रचनाकारों में देखे जा सकते हैं । नारीवादी आंदोलन से स्त्रियों में जागृति और सजगता पैदा हुई । अब तक वह पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार पुरुषों के हाथों की ही कठपूतली बनी रही है इस एहसास के बाद उसने उन नियमों की लक्ष्मणरेखा को लांघने का साहस किया । वह मात्र वंश को आगे बढ़ाने का माध्यम नहीं है, बिना वेतन की गुलाम नहीं है, उसके पास मात्र देह या मात्र आत्मा नहीं है बल्कि देह और आत्मा दोनों हैं इस समझ के साथ स्त्री अपनी निजी इच्छा, आकांक्षा, असंतोष को व्यक्त करने लगी । जरूरत पड़ने पर शोषण या अन्याय के खिलाफ आवाज़ भी उठाने लगी । नौकरीशुदा स्त्री आर्थिक रूप से आत्म निर्भर हुई इसलिए उसने पुरुष प्रधान समाज द्वारा पहनायी गई गुलामी की जंजीर को तोड़ने का साहस दिखाया । स्त्री बदली है, अपने अस्तित्व के प्रति सजग हुई है परन्तु हमारा लापरवाह समाज या पुरुष की सामंतशाही मानसिकता लगभग अब भी ज्यों की त्यों है और इसलिए स्त्री का संघर्ष बढ़ा है । दहलीज से बाहर निकलने वाली स्त्री पुरुष प्रधान व्यवस्था तंत्र के चलते किन समस्याओं का सामना कर रही है इसका निरूपण भी अब होने लगा है । अपनी नैसर्गिक प्रकृति के अनुसार त्याग करने वाली, समाधान करने वाली स्त्री का आलेखन भी अब हो रहा है । स्त्री के बुनियादी प्रश्नों के अलावा बलात्कार, घरेलू हिंसा, छेड़खानी, अकेलापन, असुरक्षा, विवाहेतर सम्बन्ध जैसे कम लिखे जाने वाले प्रश्नों का निरूपण भी कई कहानीकार कला के माध्यम से कर रहै हैं ।
वैचारिक समान-धर्मा खोजने वाली, मेधावी, मानिनी स्त्री ने अकेले रहना पसंद किया । परन्तु बुनियादी तौर पर स्त्री का संवेदन-विश्व अकेले रहने के लिए आदी नहीं है । घर-बच्चे-स्नेह-ऊष्मा की लालसा उसकी नैसर्गिक प्रकृति है इसलिए विवाहेतर सम्बन्धों के किस्से बढ़े हैं । जिसे हम प्रेम या स्नेह कहते हैं वह कब, किससे हो जाता है उसका पहले से पूर्वानुमान तो किया नहीं जा सकता । परन्तु ऐसा प्रेम जब किसी विवाहित पुरुष से हो जाता है तब सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ स्त्री को ही त्याग करना पड़ता है तो भावनात्मक स्तर पर भी उसे ही दुख झेलना पड़ता है । विवाहेतर सम्बन्धों की संकुलता, इन सम्बन्धों की बदौलत झेलनी पड़ रही पीड़ा के विविध आयामों को प्रकट करने वाली कुछ अच्छी कहानियों की संख्या 90 के दशक के बाद बढ़ी है । हिमांशी शेलत की ‘इतरा’ या ’अवलंबन’ या वीनेश अंताणी की ’सत्तावीश वर्षनी छोकरी’ जैसी कहानियों में ऐसी इतर स्त्री की पीड़ा निरूपित हुई है । जिस सम्बन्ध का कोई भविष्य ही नहीं है उस सम्बन्ध को निभाने में स्त्री अपना सब कुछ दाव पर लगा देती है जबकि पुरुष अपनी गृहस्थी को बचाते हुए, अवसर मिलने पर या समय मिलने पर इस सम्बन्ध को निभाता है । समाज द्वारा अस्वीकृत यह सच्चा प्रेम स्त्री को बेचैन बनाता है, प्रश्नों की झड़ी उसे थका देती है । स्त्री जिसे चाहती है उसे दुखी भी नहीं कर सकती है, उसे छोड़ भी नहीं सकती है । परिणाम स्वरूप उसके हिस्से में तो मात्र समाधान, पीड़ा और हताशा के अलावा शायद ही कुछ और आता है । प्रवीणसिंह चावडा की सात-आठ कहानियों में विवाहेतर सम्बन्धों के विविध आयाम व्यक्त हुए हैं । यह सही है कि हिमांशी शेलत की ’अगियारमो पत्र’ या हरीश नाग्रेचा की ’एन अफेयर’ विवाहेतर सम्बन्ध की विशिष्ट कहानियाँ हैं परन्तु उनमें जिस नारी का चित्रण हुआ है वैसी नारी की कल्पना कभी की थी हमने ?
गुजरात में सामाजिक स्तर पर और साहित्यिक स्तर पर नारी की तस्वीर बदलने में कुंदनिका कापडिया के ’सात पगलां आकाशमां’ उपन्यास का बहुत प्रभाव रहा है । ईला आरब मेहता का उपन्यास ’बत्रीस पुतळीनी वेदना’ कलात्मक दृष्टि से बेहतर होने के बावजूद प्रभावशाली तो ’सात पगलां आकाशमां’ ही रहा है । कुंदनिका कापडिया के कहानी और उपन्यास दोनों में नारी मुक्ति का या नारी विद्रोह का स्वर काफी मुखरता से प्रकट हुआ है । समस्या का उग्र स्वर में वर्णन और वक्तव्य नुमा रचनाकार का आक्रोश रचना को कलात्मक उँचाई तक नहीं पहुँचने देता । हालांकि एक बात है कि कुंदनिका कापडिया के कथा-साहित्य में मात्र समस्या, अन्याय या शोषण के चित्र ही नहीं है उसमें से बाहर निकलने के लिए संघर्षरत, पुरुष की अंतिम सत्ता का विरोध करने वाली और जरूरत पड़ने पर डटकर मुकाबला करने वाली स्त्रियों की संख्या भी अधिक है । ’बत्रीस पुतळीनी वेदना’ में पितृसत्तात्मक समाज और धर्मसत्ता ने मिलकर स्त्री की जो दुर्दशा की है उसके लगभग सभी पहलू उजागर हुए हैं । पुरुष को अनुराधा गुप्ता नामक स्त्री रचनाकार की जरूरत नहीं है । उसे तो एक सामान्य गृहिणी चाहिए जो उसके घर को सँभाल सके, जो उसके लिए सज-सँवरकर तैयार हो, जो उसके आसपास नाचती रहे बस इतनी ही । पत्नी की अपनी निजी पहचान होती है, वह पति से ज्यादा कमा रही होती है, पाँच लोगों में उसका मान-सन्मान होता है तो पति को उससे समस्या होती है । पाँच-सात नारी पात्रों की समस्याओं के कोलाज द्वारा लगभग उनकी सारी समस्याओं को समेटने वाला यह उपन्यास प्रतिबद्ध होते हुए भी कलात्मक बन पड़ा है ।
धीरुबहन पटेल स्त्री के मनोविश्व का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करते हुए उसके मन के अँधेरे कोनों में छटपटाती गोपित इच्छाओं का बखूबी चित्रण कर सकती है । नारी के संवेदन विश्व को अपने ढंग से जाँचते-परखते हुए धीरुबहन तटस्थ रूप से नारी के दो रूप उजागर कर सकी हैं- कादंबरी की माँ और सास । ‘अंधी गली’ में बड़ी उम्र में अकेली हो चुकी स्त्री के अंतर्मन को उजागर करने वाली धीरुबहन ’हुताशन’ में बहू द्वारा सतायी गई सास की बात भी कर सकी हैं । उनके कथा-साहित्य में नारी की एकांगी या एकरंगी तस्वीर नहीं मिलती । स्त्री की रूढ़ तस्वीर को धीरुबहन ने हमेशा नकारा है । उनकी स्त्री न तो सामान्या है और न ही अनन्या । वह जैसी होनी चाहिए वैसी है । अपनी वैयक्तिकता और अस्मिता के साथ । स्त्री मुक्ति की नारेबाजी की अगुआई न करते हुए भी धीरुबहन स्त्री के विशिष्ट रूप का निरूपण कर सकी है । उनकी ’अरुन्धती’ में समय के साथ नारी की तस्वीर कितनी बदली है इसे देखा जा सकता है तो ’दीकरीनुं धन’ में बिल्कुल नहीं बदली है इसे भी देखा जा सकता है । धीरुबहन की ‘दीकरीनुं धन’, वर्षा अडालजा की ’एक सांजे’, हरीश नाग्रेचा की ’खींटी’ आदि कहानियों मे स्त्री शोषण के जिस सामाजिक पहलू को दिखाया गया है वह हमें कई घरों में देखने मिल सकता है । बदलते समय के साथ, बढ़ती शिक्षा के साथ ऐसा लगता है कि यह समस्या और भी अधिक गहरी होती गई है । कमाऊ बेटी की कमाई घर के लिए इस हद तक जरूरी हो जाती है कि माता-पिता भी उसकी बढ़ती उम्र के सामने आँखें मूँद लेते हैं । ऐसा मात्र शहरों में ही होता है ऐसा भी नहीं है । नवनीत जानी की ’स्थापना’ कहानी इसी कथ्य से परिचय कराती है ।
बदलते समय के साथ स्त्री की समस्याएँ भी बदलती है इसलिए साहित्य में निरूपित उसकी तस्वीर भी बदलती है । स्त्री की शिक्षा ने, उसकी मेधा ने, आर्थिक स्वतंत्रता ने अब स्त्री को समाधान करने से रोका है । अब वह मात्र अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए किसी भी वर से जुड़ जाना पसंद नहीं करती । स्त्री के लिए अब विवाह से अधिक कैरियर महत्वपूर्ण है ऐसा ’उडान’ कहानी में स्पष्ट शब्दों में कहने वाले हरीश नाग्रेचा अपनी एक दूसरी कहानी में यह भी कहते हैं कि ‘स्त्री के लिए पुरुष अनिवार्य हो सकता है, पति नहीं ।’ अपने जैसा पुरुष नहीं मिलता है तो अकेली रहना चाहने वाली स्त्री की तस्वीर कहानियों में अधिक प्रतिबिम्बित हुई है । उदाहरण के लिए रमेश दवे की ’गढ उंबर’ या कंदर्प देसाई की ’सोळ अने सोळ अने....’ में बड़ी उम्र की अकेली स्त्री की पीड़ा निरूपित हुई है । मावजी महेश्वरी ’पवन’ कहानी में बड़ी उम्र की अकेली रह जाने वाली स्त्री के बोझिल अकेलेपन को, उसकी वीरान जिन्दगी को प्रभावशाली ढंग से निरूपित करते हैं । तो दूसरी तरफ कंदर्प देसाई की ‘लॉट ऑफ थेंक्स’ कहानी में 62 वें साल में अच्छी देखभाल करने वाला पुरुष मिल जाने पर वीरान जिन्दगी कैसे फिर से खिल उठती है इसका सहज चित्रण हुआ है और यह भी सामाजिक बदलाव का ही परिणाम है ।
वर्षा अडालजा की ’गांठे बांध्युं आकाश’,अनिल व्यास की ’खूणो’ या ‘चचराट’ आदि कहानियों में परिवार के लिए मिट जाने वाली और अपने लिए जीना भूल चुकी स्त्रियों की कथा है । पूरी जिन्दगी गुलामी में व्यतीत करने वाली, बदले में मात्र अपमान और अवमानना पाने वाली ये स्त्रियाँ कभी प्रशंसा या स्नेह के दो मीठे बोल नहीं सुन पायी है । और फिर भी पति की मृत्य के बाद का अकेलापन उन्हें बेचैन कर देता है । मानो वे गुलामी की जंजीर की आदी हो चुकी है । हालांकि वर्षा अडालजा की ’गांठे बांध्युं आकाश’ कहानी की नायिका सारे बंधनों से अपने आपको मुक्त करते हुए अपना निजी आकाश प्राप्त कर सकी है । वर्षा अडालजा या ईला आरब मेहता की कहानियों या उपन्यासों में स्त्री यह नहीं मानती कि विवाह विच्छेद से जिन्दगी का अंत हो जाता है । उदाहरण के लिए ईला आरब मेहता की ’विस्तार’ या वर्षा अडालजा की ’अनुराधा ।’ वर्षा अडालजा के कथा साहित्य में अकेले रहना पसंद करने वाली, पति का तमाचा खाकर भी यह कह सकने वाली कि बेटी की कीमत पर बेटा नहीं चाहिए, पति द्वारा हाथ उठाने के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करने वाली स्त्री है । उनके उपन्यासों में भी निजी पहचान हासिल करने वाली नारियाँ हैं । विचरण करने के लिए अपना निजी आकाश तो खुद ही प्राप्त करना पड़ता है इस सच्चाई को मानो उनकी नारी जान चुकी है । वर्षा अडालजा के कथा साहित्य में स्त्री उसके शोषकों के खिलाफ आवाज़ उठाती है, विद्रोह करती है । परन्तु उसका विद्रोह मुखर नहीं है । उसका विद्रोह शोषक को स्तब्ध कर देने वाला बिल्कुल शांत विद्रोह है । उसके विरोध में दुनिया को बदल देने की तपिश नहीं है । मात्र दृढ़ता से, अपने वजूद को, अपनी भावना को, अपनी बात को सामने वाले पक्ष को समझाने और स्वीकार कराने की उस स्त्री की कोशिश होती है । अपने लिए जीना भूल चुकी यह स्त्री परिस्थिति के सामने हथियार डाल नहीं देती, समाधान का रास्ता नहीं अपनाती बल्कि विरोध जताती है । ‘बस बहुत हो चुका अब, अब ज्यादा नहीं’ ऐसा दृढ़ निर्धार उसकी वाणी से प्रकट होता है । ’घंटी’, ’शांति’, ’गांठे बांध्युं आकाश’ या ‘नामः नयना रसिक मेहता’ की नायिकाओं के थोड़े से नकार या ज़रा से विरोध से शोषक वर्ग को भारी झटका लगता है । उनके लिए ऐसा नकार या विरोध बिल्कुल ही अप्रत्याशित था । पुरुष बाहरी दुनिया में सफल होता है, पूरी दुनिया उसकी वाह वाह करती है परन्तु उसे अपने बच्चे किस तरह बड़े हुए या उनकी परवरिश में उसकी पत्नी ने कितना बड़ा त्याग किया इस बारे में सोचने का समय नहीं होता । बच्चों को भी अपने पीछे लगातार भागती माँ से ज्यादा पिता का पद-पैसा आकर्षित करता है इसी बात को वर्षा अडालजा की पाँच कहानियों में उठाया गया है । हमेशा वंशवृक्ष बेटों का ही क्यों ? बेटियों या माताओं का वंशवृक्ष क्यों नहीं ? बेटी से वंश आगे नहीं बढ़ता ऐसा मानने वाला समाज अपनी सात पीढ़ियों का वंशवृक्ष दीवार पर टाँगता है । जब कि मातृपक्ष की दो पीढ़ियों की जानकारी नहीं होती इस बात को ’मम्मीनो आंबो’ कहानी में उठाया गया है । घर में, बाहर रास्ते पर या ऑफिस में स्त्रयाँ बार बार शाब्दिक या शारीरिक छेड़खानी का शिकार होती है । ईला आरब की ‘शमिक तुं शुं कहेशे’ कहानी की नायिका जानती है कि इन तकलीफों का हल अपने आप ही ढूँढना पडेगा ।
परिवेश से या शिक्षा से स्त्री के शोषण या उसके साथ हो रहे अन्याय में बहुत ज्यादा अन्तर नहीं आया है । विरोध या विद्रोह का आधार उस नारी के निजीपन या आत्म-तत्व पर होता है । किरीट दूधात की ‘बायुं’ कहानी में बिल्कुल अनगढ़ मानी जाने वाली स्त्री द्वारा विरोध व्यक्त हुआ है । मोहन परमार की ‘थळी’ कहानी में दलित स्त्री गाँव के ठाकुर को सबक सिखाती है । तो दूसरी तरफ हरीश नाग्रेचा की ’ए’ कहानी की पढ़ी-लिखी नायिका इस हद तक पराधीन है कि चुपचाप पति की मार सह लेती है । मणिलाल ह. पटेल की ’मगन सोमानी आशा’ कहानी की आशा जिस समाज में जी रही है उस समाज में उसका विद्रोह एक बड़ी बात है । आरक्षण के चलते अगर कोई स्त्री गाँव की सरपंच बन जाती है तो भी कार्य तो पति या ससुर ही करते हैं यह हमारे प्रत्येक गाँव की सच्चाई है परन्तु कमलेश पटेल की ’सही’ कहानी की पढ़ी-लिखी नायिका इस सच्चाई को झुठला देती है । यह बदली हुई तस्वीर है । अब वह दिन दूर नहीं है जब पढ़ी-लिखी स्त्री पुरुष कहेगा वहाँ हस्ताक्षर करने से मना कर देगी ।
आज बदले हुए जीवन-संदर्भों में वैयक्तिक और सामाजिक मूल्य बदले हैं, ऐसे में स्त्री-समस्या और उसके शोषण में क्या कोई बदलाव आया है ? स्त्री क्या सही अर्थों में स्वतंत्र हुई है ? क्या वह सही अर्थों में अपनी मर्जी की मालिक है ? देह से परे क्या उसके अस्तित्व का स्वीकार होता है ? पुरुष का अहम्, स्त्री पर उसका स्वामित्व भाव, उसकी सामंतवादी मानसिकता में किंचित भी बदलाव नहीं आया; इसे हरीश नाग्रेचा की ‘कूलडी’,‘केटवॉक’ और ‘कूबो’ कहानियों में देखा जा सकता है । इक्कीसवीं सदी के आरंभ में भी देह से परे स्त्री के अस्तित्व का स्वीकार नहीं होता, इसे ‘कूलडी’ कहानी में देखा जा सकता है । तो सांप्रदायिक दंगों में अभी भी बदला लेने के लिए स्त्री देह का उपयोग होता है, हिमांशी शेलत की ‘सजा’ कहानी में इसकी अभिव्यक्ति हुई है । स्त्री जिस घर के लिए अपनी जिंदगी खपा दे, जीवनभर की कमाई खर्च दे उसी घर में वह अपनी सहेली के स्वागत या उसके ठहरने के लिए उसे अपने पति की इच्छा जाननी पड़े तो वह घर उसका कैसे कहलाएगा ? ‘कूबो’ कहानी में निरूपित यह समस्या जरा भी नई नहीं है; आज सभ्य समाज और बदले हुए आर्थिक तथा सामाजिक मूल्यों के बीच यह समस्या ज्यों की त्यों है । स्त्री का वास्तविक घर कौन-सा ? यह प्रश्न वर्षा अडालजा की ‘अनुराधा’, हरीश नाग्रेचा की ‘केटवॉक’ आदि कहानियों में भी पूछा गया है; और ये सभी कहानियाँ इक्कीसवीं सदी में ही लिखी गई हैं । ‘केटवॉक’ कहानी में संजना का होनेवाला पति उसे सौंदर्य-स्पर्धा में भाग लेने की बात पर ‘पसंद तुम्हारी’— ऐसा कहता है तो साथ ही यह भी जोड़ता है – “तुम्हारी इच्छा हो तो अवश्य भाग लो । इन एनी केस आई विल नॉट बी द लूज़र ! जीतोगी तो मेरी मिल-टेक्सटाइल की तुम सुपर मॉडल बनोगी और भाग नहीं लोगी तो मेरी पत्नी । पसंद तुम्हारी ....”– पुरुष पसंद तुम्हारी कहता है तो इस तरह कहता है । चौबीस साल बाद भी यदि पिता का घर अभी तक माँ का नहीं हुआ फिर भी मां संजना को ‘अपने घर जाकर जो करना हो सो करना’ कहती है तो प्रश्न उठता है कि क्या स्त्री का वास्तव में कोई घर होता है या वह हमेशा पराये घर में रहने के लिए पैदा हुई है ? उसकी ओर से हमेशा दूसरे लोगों को ही निर्णय लेना हो तो स्त्री की पसंद, निर्णय-शक्ति का क्या ? स्त्री अपना निर्णय लेने लगती है, सिर उठाने लगती है तो इसके साथ ही पुरुष का प्यार भरा व्यवहार बदल जाता है । कर्तव्य की, प्रेम की आड़ में दृश्य-अदृश्य पाश डाले हुए ही हैं । जब तक इन पाशों को नहीं तोड़ती तब तक वह प्यारा, ऊष्मापूर्ण जगत बना रहता है परंतु जैसे ही स्त्री इन बंधनों को तोड़कर कदम बाहर रखने की कोशिश करती है उसके साथ ही भ्रांति का विश्व बिखर जाता है और ‘मेरे घर में रहना है तो...’ जैसी धमकी मिलना शुरु हो जाती है । इस बात को लेकर समाज बिल्कुल भी नहीं बदला है इसलिए नारी की तस्वीर भी नहीं बदल रही है । इसे स्वीकार करने के बाद यह कहना पड़ता है कि ‘कूबो’ कहानी की कुंज यह तय करती है कि वह अपनी बेटी को विवाह में साड़ी-जेवर के बदले उसके नाम पर घर लेने के लिए पैसा देगी तब शांति मिलती है कि चलो, एक स्त्री ने तो निर्णय लिया ।
ऐसा नहीं है कि स्त्री दुखी हो, उसका अपमान या शोषण हो रहा हो उसे ही समस्या कहा जा सकता है । उसके स्त्री होने के कारण जो सूक्ष्म स्तर की समस्याएँ उसे परेशान करती हैं उसका निरुपण भी अब धीरे-धीरे होने लगा है । इसे मैं बदलती तस्वीर नहीं कहूँगी परंतु मैं कहूँगी कि स्त्री के ऐसे सूक्ष्म प्रश्नों की ओर अब साहित्यकारों का ध्यान गया है । उदाहरण के तौर पर दूसरे की जिंदगी बदल देने की शक्ति रखनेवाली स्त्री अपनी जिंदगी में कुछ नहीं कर सकती क्योंकि विवाह के बाद बिल्कुल अलग विश्व में, अलग जिम्मेदारियों का सामना करने वाली स्त्री अपनी इच्छानुसार नहीं जी सकती । विवाह के बाद घर और बच्चों की जिम्मेदारी स्त्री को बिल्कुल बदल देती है । इस बात को अंजलि खांडवाला की ‘शक्तिपात’ और पारुल देसाई की ‘भणकारा’ कहानी में कहा गया है । रवीन्द्र पारेख की ‘लटहुकम’ कहानी भी इस बात को सहजता से कहती है । ससुराल वाले लोग अच्छे मिलते हैं फिर भी स्त्री की जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है, यह हमारी सामाजिक वास्तविकता है । बिंदु भट्ट की ‘आडा हाथे मुकायेलुं गीत’ पूजा तत्सत की ‘ताव’, हिमांशु शेलत की ‘एकांत’ आदि कहानियों में इस बात को शिकायत के रूप में नहीं कहा गया है परंतु एक परिवेश से दूसरे परिवेश में जाती बेटी को कितने सारे समझौते करने होते हैं, यह बताया गया है । स्त्री प्रेमवश, प्रकृतिवश सदियों से बहुत कुछ त्याग करती आयी है परंतु एकाध क्षण कुछ खो जाने की, कुछ गँवा देने की अनुभूति उसे पीड़ा पहुँचाती है—इसका निरूपण कहीं अब जाकर हुआ है ।
अधिकांशतः हमारे समाज में कोई स्वीकार ही नहीं करता कि स्त्री की भी अपनी इच्छा हो सकती है, पसंद हो सकती है, वह भी जातीय जीवन में असंतुष्ट हो सकती है, जातीय अतृप्ति से पीड़ित हो सकती है, वह भी स्पर्श की इच्छा व्यक्त कर सकती है या नकार सकती है । हालाँकि अब बदलते समय के साथ स्त्री देह का इसकी भावनाओं का स्वीकार होता दिखता है । रमेश दवे की ‘शबवत्’ , हर्षद त्रिवेदी की ‘आढ’ जैसी कहानियाँ इसकी उदाहरण हैं । बिंदु भट्ट की ‘मीरा याज्ञिकनी डायरी’ में सजातीय संबंध की बात है । इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि जहाँ समाज नहीं स्वीकार करता वहाँ भी साहित्यकार स्त्री के संबंध में उदारतापूर्वक उसकी इच्छाओं, असंतोष या सजातीय सम्बन्ध को स्वीकार करता दिखता है । भ्रूण हत्या के द्वारा जीवन के सातत्य को गलत हाथों में दिए जाने के जघन्य प्रयासों के विरुद्ध आक्रोश कंदर्प देसाई की ‘खाली फ्रेम’ में कलात्मक रूप से तथा हिमांशी शेलत की ‘गर्भगाथा’ में थोड़ा मुखर रूप से प्रकट तो हुआ है ।
पूरे घर के हर तरह के कामों में सुबह से शाम तक अपने आपको खपा देने वाली स्त्री को उन कामों का यश मिलना तो दूर रहा बल्कि सरकारी कागज़ों पर तो ‘वह कुछ नहीं कर रही’ ही कहा जाता है । रवीन्द्र पारेख ने अपने उपन्यास ‘लटहुकम’ में सहज ही इस प्रश्न की चर्चा की है । पुरुष प्रधान समाज की परंपरागत मान्यता ही ऐसी बन गई है कि वह स्त्री के गृहकार्य का महत्व नहीं स्वीकार करता परंतु वही काम जब उसे करना पड़े तो स्त्री किस तरह हरेक काम को कर लेती होगी, यह बात समझ में आती है । ‘जणदुर्ग’ (1984) में स्त्री को शरीर से शरीर उत्पन्न करने का साधन मात्र मानने वाले नील और प्रतीक के सामने गुस्सा प्रकट करने वाली आभा अपने मातृत्व और स्त्रीत्व को सिरे से नाबूद करने में भी हिचकती नहीं है । स्त्री यानी मात्र शरीर और उससे विशेष कुछ नहीं । ऐसा माननेवाले दोनों पुरुषों से बदला लेने का खूंखार रास्ता अपनाने वाली आभा स्त्रीत्व की कीमत पर भी दोनों पुरुष कभी न भूल पाएँ ऐसा सबक सिखाती है । ‘अतिक्रम’ (1984) में रवीन्द्र पारेख बलात्कार का शिकार हुई स्त्री की मानसिक स्थिति का चित्रण करते हैं । 1980 से पहले बलात्कार का प्रमाण कम रहा होगा या स्त्री को सहन करने के लिए मजबूर किया जाता रहा होगा क्योंकि स्त्री पर होते बलात्कार को विषय बनानेवाली कहानियाँ कुंदनिका कापड़िया, वर्षा अडालजा, हिमांशी शेलत, हरीश नाग्रेचा या फिर परवर्ती कहानीकार लिखते हैं । मनोहर त्रिवेदी की ‘जलमटीप’ की नायिका निम्न वर्ण की है परंतु उसकी नैतिक और शारीरिक शक्ति के सामने लार टपकाते पुरुष फीके साबित होते हैं । कुंदनिका कापड़िया की ‘तो ?’में बंग्लादेश के युद्ध के समय अनेकों से बलात्कार की शिकार हुई गर्भवती सुजाता सोचती है कि पति जीवित होता तो क्या वह उसे स्वाकार करता ? वर्षा अडालजा की ‘बलात्कार’ कहानी की मयूरी समझ चुकी है कि अपरिचित पुरुष बलात्कार करे तो खबर बनती है परंतु विवाहित पति हररोज बलात्कार करे तो भी गूंगे मुँह सहन करना ही पड़ता है । बिंदु भट्ट की ‘मंगलसूत्र’ की नायिका भी यह सच्चाई जानती है । वंदना भट्ट की ‘कीर्तिमंदिर’ कहानी पति द्वारा किये जाते बलात्कार की घटना को बिल्कुल अलग ढंग से प्रस्तुत करती है । आज के दिन भी इस सच्चाई के सामने स्त्री कुछ भी नहीं कर सकती । बलात्कारों की घटनाएँ दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है लेकिन उसके खिलाफ कोई आकोश नहीं फूट निकलता । शहरों में थोड़ा बहुत विरोध होता है । गाँवों में दलित आदिवासी पर होनेवाले बलात्कारों की खबरें शायद ही छपती हो । मोहन परमार की ‘थणी’ की नायिका इस संदर्भ में थोड़ी अलग है । पुरुषों की खिखियाहट और स्त्रियों के घातक मौन के बीच ‘सजा’ कहानी की नायिका का विरोध भले ही बाँझ साबित होता है परंतु जब सभी माटी की मूरत हो गए हों, लाचारी या सहमति से चुप रहना पसंद करते हों तब एक गृहिणी ऐसा विरोध करे इससे सुकून मिलता है । रमेश दवे की ‘खंडियेर’ कहानी में बलात्कार नहीं हुआ फिर भी स्त्री को सहना पड़ता है। ससुराल से लौटी ननद भाभी को रसोई में कुछ भी छूने नहीं देती। ससुर ‘एठुं ठोबरू’ कहे तब मानना पड़ता है कि स्त्री के चरित्र, व्यक्तित्व देह के अलावा मानों कुछ भी नहीं होता है । विवाहेतर संबंधों में दूसरी स्त्री के पास जाता पुरुष अपवित्र या जूठा नहीं होता । आज भी पवित्रता, इज्जत, जूठी हो जाना— यह सब स्त्री को ही लागू होता है। इस बारे में स्त्री की छवि बिल्कुल नहीं बदलती क्योंकि इस बारे में समाज बिल्कुल भी नहीं बदला । युद्ध हो या साम्प्रदायिक दंगे, वियतनाम हो या अफगानिस्तान, बंगाल हो या गुजरात— शारीरिक और मानसिक स्तर पर सबसे ज्यादा सहन करना स्त्रियों के हिस्से में ही आता है । कमला बहन पटेल ने ‘मूळ सोतां ऊखडेला’ में लिखा है कि – ‘स्त्रियों पर आमानुषिक और घटिया कहा जाए ऐसा जुल्म गुजारने में मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम कोई भी एक दूसरे से कम नहीं साबित हुए थे।’ र.व. देसाई की ‘बालहत्या’ कहानी में बलात्कार के परिणाम स्वरूप जन्में बच्चे को मार डालनेवाली माँ अदालत में कहती है: ‘मेरा मुस्लिम नाम खदीजा और हिन्दू नाम पार्वती । एक पैगम्बर की पत्नी का नाम, एक महादेव की पत्नी का नाम’ । फिर भी दोनों धर्मों के पुरुषों ने उस पर बलात्कार किया । परिणाम स्वरूप जन्मे बालक को स्त्री मार डालती है । समाज की ओर से न्यायाधीश तो स्त्री को मर जाना चाहिए ऐसा कहते हैं । शरीर और मन से सहन करने के बाद समाज की ओर से भी स्त्री को ही सजा मिलती है । सामाजिक इज्जत का संपूर्ण भार बीते कल भी स्त्री के कंधों पर था और आज भी स्त्री के कंधों पर ही है । आने वाले कल में भी इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा ऐसा प्रतीत होता है ।
हमारा रचनाकार अब Typical भारतीय आर्य नारी के चित्रण से बाहर निकलने लगा है । उसके अपने व्यक्तित्व को स्वीकार करने लगा है । विनेश अंताणी की ‘विशाखा कहानी’ में विशाखा ने पति का घर छोड़ने के बाद अपनी बुद्धि से धंधा-रोजगार विकसित किया और अलग पहचान बनाई । अब वर्षों बाद पति को जरूरत पड़ती है तब वह विशाखा को बुलाता है, लेकिन विशाखा का उत्तर है— ‘आप मेरे घर आ सकते हैं... मेरे घर का दरवाजा खुला है । मैं नहीं आऊँगी’ – ऐसा कहनेवाली खुद्दार स्त्री अब दिखाई देती है ।
अब स्त्री मात्र शिक्षिका या नर्स नहीं रही, यह अतीत बन चुका है । चन्द्रकांत बक्षी की अनार या हरीश नाग्रेचा की गार्गी ऐसे पद पर बैठी हैं जहाँ से वे पुरुषों पर भी हुकम चला सकती है । स्वयं को योग्य पुरुष नहीं मिलता है तो स्त्रियाँ अकेली रहना पसंद करती है । आनेवाले समय और समाज की यह भविष्यवाणी है । जिस गति से समाज में शिक्षा का समीकरण बदल रहा है उसे देखते हुए लग रहै है कि आने वाले लगभग पचास वर्षों में गार्गी और अनार जैसी स्त्रियों की संख्या ज्यादा होगी । यद्यपि इसके विपरीत शिक्षा को मात्र दुल्हा ढूँढ़ने का लायसन्स मानने वाले बड़े-बूढ़े और ऐसी मानसिकता रखनेवाली स्त्रियों की संख्या जरा भी कम नहीं है । धीरेन्द्र मेहता की ‘घऊँ वीणती स्त्रियो’ कहानी पति की दृष्टि से जिनकी पढ़ाई का कोई महत्व नहीं है ऐसी तीन शिक्षित स्त्रियों की वेदना को वाणी प्रदान करती है । पति से ज्यादा नहीं पढ़ना चाहिए ऐसा सामाजिक नीति-नियम आज भी प्रवर्तमान है । विवाह करना हो तो लड़कियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देनी पड़ती है । मणीलील ह. पटेल की कहानियों में ऐसी लड़कियों की वेदना एक से अधिक बार प्रकट हुई है । जो पढ़-लिख गई, अपनी निजता पा गई, उसे या तो बक्षी की अनार की तरह अकेली रहना पड़ता है या हरीश नाग्रेचा की गार्गी की तरह सवाल खड़े होते हैं । पति ढूँढ़ने की माथापच्ची से परेशान होकर गार्गी बोल उठती है – ‘नहीं हो रहा तो क्या करूँ मैं ?’ ‘भरी बाज़ार में खड़ी रहूँ ?’ वह स्पष्ट शब्दों में कहती है— ‘ नर तक वर नहीं, मैं सहभागी हूँ , सुख का साधन नहीं हूँ .... आई एम नॉट अ थिंग । पहले मैं संवेदना हूँ, फिर मेधा । फिमेल तो आखिर में हूँ।’ ऐसा प्रतीत होता है कि गार्गी अपने समय से आगे की तस्वीर प्रस्तुत कर रही है क्योंकि आज भी लड़कियाँ इतनी हिम्मत नहीं करतीं ।
पुरुष केन्द्री समाज रचना ने और उसके परिणाम स्वरूप साहित्य ने भी स्त्री को हमेशा घर के कोने तक सीमित रखा । इस कारण जो लिखा जाना चाहिए था वह बहुत विलंब से लिखा गया । परन्तु घर के कोने को छोड़कर, दहलीज लांघ चुकी, पुरुषों का इजारा माने जाने वाले क्षेत्रों में प्रवेश कर चुकने वाली स्त्री की बदलती तस्वीर को उसकी विविध रंगी आभा के साथ गुजराती कथा साहित्य ने प्रतिबिम्बित किया है । कम कमाने वाला पति ज्यादा कमानेवाली, अधिक योग्य पत्नी को सहन नहीं कर सकता, ऐसा हिमांशु शेलत की ‘नायक भेद’ कहानी या इलाबहन की ‘बत्रीस पुतळीनी वेदना’ में दिखायी देता है । स्त्री की ज्यादा कमाई पुरुष को खलती है, पत्नी का प्रमोशन उसे चुभता है । वर्षा अडालजा की ‘सूतरने तांतणे’ में भी पत्नी के प्रमोशन के संदर्भ में उसका पति ‘नायक भेद’ की चारु के पति की तरह निराधार संदेह करता है । आज भी स्त्री को कई कई तरह से पुरुष के अहम् को लाड़ लड़ाना पड़ता है । स्त्री को पति की ओर से उसके परिवार की, रिश्तेदारों की, मित्रों की खुशामद भी करनी पड़ती है । घर में शांति बनी रहे इसके लिए प्रायः स्त्री को ही त्याग करना पड़ता है । इस बात को हरीश नाग्रेचा की ‘ए’ या ‘एन अफेयर’ जैसी कहानियाँ वर्णित करती हैं ।
स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे देश में से सबसे ज्यादा गुजराती स्त्रियों ने घर की चौखट लाँघी थी । पिकेटिंग करने वाली गुजराती स्त्रियों ने धरासणा सत्याग्रह में सामने से अपने सीनों पर लाठियाँ झेली थी । परन्तु इस शांत, सरल, अहिंसक, गरवी, गुणशाली गुजराती स्त्री को ऐसा तो क्या हो गया कि 2002 के साम्प्रदायिक दंगों में उसने भी सक्रिय भाग लिया ? उसकी इस बदली हुई मानसिकता को हिमांशी शेलत ने ‘सजा’ उपरांत दूसरी कहानियों में भी निरुपित किया है । शिक्षा बढ़ी, कानून बढ़े फिर भी स्त्रियों के कुछ प्रश्न तो ज्यों के त्यों रहे हैं । उदाहरण के तौर पर ओनरकिलिंग, जिसकी चर्चा हिमांशी शेलत ‘नगर ढिंढ़ोरा’ कहानी में करती हैं । समूची मनुष्य-जाति के उद्भव स्थान को घसीटने वाली गालियों के खिलाफ क्यों कोई कुछ नहीं बोलता ? स्त्रियाँ इस हद तक अपमान कैसे सहन करती होंगी ? माँ – बहन की गालियाँ देनेवाले समाज के विरुद्ध हिमांशी शेलत की ‘गोमती स्तोत्र’ उचित प्रश्न करती है । हर उम्र की स्त्री और पढ़ी-लिखी या अनपढ़ सबको उसकी देह परेशान करती है । राह चलते जिसका मन हो, जहाँ मन हो पुरुष उसे छू कर चला जाता है । उसके करीबी रिश्तेदार, शिक्षक, जान-पहचानवाले प्यार करने के बहाने जहाँ मन हो वहाँ हाथ फेर लेते हैं । स्त्री यानी मात्र शरीर और दूसरा कुछ नहीं ? इस प्रश्न को हिमांशी शेलत, हरीश नाग्रेचा के अलावा दूसरे अनेकों ने पूछा है ।
पारुल देसाई की ‘अरीसो’ कहानी की अत्यन्त खूबसूरत निराली बचपन में नहीं समझ पायी कि श्यामवर्णा बुआ जल कर क्यों मर गईं होंगी परन्तु बड़ी होने पर समझ आई कि सामनेवाले के लिए अपनी बुद्धि या हिम्मत नहीं अपितु रूपवान चेहरा ही महत्वपूर्ण है । हम मानते हैं कि समाज बदल गया है परंतु ऐसा है नहीं । स्त्री का नाप-तौल करता आईना उसके रूप के सिवाय कुछ नहीं देखना चाहता । यह बात बीते कल जितनी सच थी, आज भी है और शायद आगामी कल भी उतनी ही सच होगी । बीते कल की तरह आज भी पुरुष के लिए स्त्री की मेधा नहीं परंतु उसका शबनमी नाज़ुक चेहरा ही महत्वपूर्ण है ।
नारी मुक्ति या स्त्री -अधिकार की बातें अधिकांशतः शिक्षित शहरी वर्ग तक सीमित रही हैं – पहले भी और आज भी । परंतु मोहन परमार की ‘थणी’ की नायिका, किरीट दुधात की ‘बायुं’ की चंचल माँ या हिमांशी शेलत की ‘मुट्ठी मां’ कहानी की गिरिजा अपने ढंग से पुरुषों का सामना करती है । यह उनका अपना आत्म-तत्व है । उन्हें किसी नारी-जागृति की बातों की जरूरत नहीं है । ‘मुट्ठी मां’ कहानी की नायिका तो यह मानकर कि पुरुष के अहम् की रक्षा के लिए कुछ त्याग करना चाहिए ऐसा मानकर त्याग करती भी है । परन्तु राम मोरी ‘महोतुं’ कहानी संग्रह में जिस क्षेत्र की बात उठाते हैं, उस क्षेत्र में तो आज के दिन भी स्त्री को पति की मार खाकर भी घर चलाना चाहिए, बच्चे पैदा करने चाहिए और ससुराल में टिके रहना चाहिए यही सोच समाज की है । इसलिए समाज के किस स्तर के लोगों में नारी तस्वीर बदली है, इसका अध्ययन भी आवश्यक है ।
कुछ नायनों में अनछुआ रहा क्षेत्र यानी वेश्या जीवन से संबंधित बातें .... बदले समय या समाज के साथ वेश्या के जीवन में कोई बदलाव आया नहीं दिखता । प्रत्येक वेश्या पहले स्त्री है और वेश्या होना अधिकांशतः उसकी मजबूरी होती है, इस बात को समाज कभी स्वीकर नहीं करता । इसलिए यह तस्वीर तो मंटो से लेकर हिमांशी शेलत तक एक समान ही रही है । हिमांशी शेलत की ‘किंमत’, ‘खरीदी’ आदि कहानियों में यही वर्णित है ।
वैसे तो सहकारी मंडलियाँ और गैरसरकारी संगठन, सखी मंडली आदि के कारण अब दूरदराज़ की स्त्री भी धीरे धीरे जाग रही है । हालाँकि अभी उनकी बातें साहित्य में शायद ही प्रवेश पा सकी हैं । शराबी पति को निकाल देती, मजदूरी करके घर चलाती स्त्री रात होने पर फिर उसी शराबी को घर में आने देकर खाना खिलाती होगी तब उसे अपने आप से कितना गहरा संघर्ष करना पड़ता होगा ? अभी इस संघर्ष का निरुपण बाकी है । इन बीड़ी बनानेवाली, बड़ी-पापड़ बनानेवाली, गन्ने-धान के पौंधों को रोपने वाली, गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण में मजदूरी करनेवाली, शराब की हेराफेरी करनेवाली हजारों स्त्रियों को नारी मुक्ति / नारी स्वतंत्रता के बारे में कुछ मालूम नहीं है, उनके संघर्ष को तो पता नहीं कब निरुपित किया जाएगा ? महेन्द्र परमार की ‘पोलिटेक्निक’ कहानी ने स्त्रियों की एक और समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है जिसकी हमने जान-बुझकर अवहेलना की है । घर और नौकरी इन दोहरे शोषण का शिकार हो रही नारी का आक्रोश अभी कहीं भी प्रकट नहीं हो रहा है । आर्थिक स्वतंत्रता, चमचमाती कैरियर, पुरुषों को चुनौती देती बौद्धिक शक्ति वाली स्त्री को भी शारीरिक असुरक्षा का डर सताता है, इसका क्या करेंगे ? स्त्री अपने से श्रेष्ठ पुरुष को ढूँढ़ती है । कम पढ़े-लिखे पति के पास अधिक पढ़ी-लिखी, अधिक कमानेवाली स्त्री अधिकाधिक क्यों दबती जाती है ? यह बात हरीश नाग्रेचा की ‘ए’ में भी है, इलाबहन की ‘बत्रीस पुतळीनी वेदना’ में भी है । समूह-माध्यमों और विश्व-बाज़ार की चाल में फँसी स्त्री आज जिस दिशा में जा रही है – कम कपड़े और चुस्त देह, IPL में उछलकूद करती नारी देह, टीवी के भद्दे नृत्य या शॉ में भाग लेनेवाली स्त्री क्या किसी संघर्ष से जूझ रही है या उसने स्वतंत्रता का यही अर्थ निकाल लिया है ? इसका चित्रण बाकी है । अच्छा खासा कमानेवाली, दस पुरुषों की बोस हो ऐसी स्त्री को भी रात में अकेले बाहर जाने में असुरक्षा महसूस होती है, उसका आक्रोश यदि निरूपित भी हो तो समाज थोड़े बदलनेवाला है ? अभिमन्यु आचार्य की कहानियों में स्त्री की जो छवि है उसमें 2010 के बाद की पीढ़ी की बात है । आज पढ़ती, पार्टियाँ करती, वॉट्सएप, फेसबुक और इन्स्टाग्राम की दुनिया में जीती यह लड़की घरवालों से छिपाकर सिगरेट, शराब या शारीरिक संबंध से कोई परहेज नहीं करती है । ऐसी लड़कियाँ होंगी तभी कहानीकार ने निरूपित किया होगा ना ? नारी-क्ति की यह दिशा किसी को अभिप्रेत नहीं थी, आज भी नहीं ही होगी । क्योंकि यह पीढ़ी अपने बाद की पीढ़ी को कैसी विरासत देगी, इस नारी छवि से यह चिंता होना स्वाभाविक है ।
अंतिम बीस पच्चीस वर्षों में इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने जिस हद तक स्त्री -देह का महत्व बढ़ाया, अश्लीलता जिस हद तक बेडरूम से ड्रॉइंग रूम होकर गली के नुक्कड़ और कॉलेज केम्पस तक पहुँच गई, सके परिणामस्वरूप सबसे बड़ा खतरा स्त्री की सुरक्षा के लिए खड़ा हुआ है । यह बात कई कहानियों में कही गई है । परंतु बलात्कार की इस भयानक घटना की बात बिल्कुल अलग दृष्टिकोण से हिमांशी शेलत ‘मृत्युदंड’ में या मीनल दवे ‘भूसीं नाख्युं एक नाम’ में कहती हैं । बाकी तो 1947 या 2002 ... स्त्री देह तब भी बदला लेने का साधन था और आज भी, इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है । हिमांशी शेलत की ‘सजा’ या ‘सातमो महिनो’ कहानी में यह वर्णित है।
वैसे मैंने, समग्र चर्चा में उपन्यासों में निरूपित नारी के बारे में भी बातें कही ही हैं । फिरभी, दो-चार रचनाकारों के बारे में अलग से लिखती हूँ । जिस समयकाल में मेघाणी लिखते थे तब ‘वेविशाळ’ उपन्यास में भाभू जैसा पात्र आश्चर्यचकित करता है । निःसंतान भाभू देवर की लड़की सुशीला की इच्छानुसार शादी करने के लिए पति के जूते की मार खाती है, बिरादरी के बड़े-बुजुर्गों के पास जाकर कहने जैसा कह आती है और पति के द्वारा रिश्ता तोड़ देने पर भी बेटी के पक्ष में दृढ़ता से खड़ी रहती है । उस दौर में काठियावाड़ की बिरादरी के सामने एक पैंतीस साल की स्त्री खड़ी रह सकती है, पति के खिलाफ जा सकती है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी परंतु मेघाणी ऐसी नारी छवि का नुरुपण कर दिखाते हैं । ईश्वर पेटलीकर की चंदा जैसी छवि तो वैसे भी विरल । अपनी ही शरतों पर जीने वाली ऐसी दूसरी नारी नहीं मिलेगी हमें । रघुवीर चौधरी की कंकु, हेती, शांता, जैमिनि, रेवा आदि सौजन्यशील नारियाँ हैं । संभव हो वहाँ तक दूसरों का बुरा नहीं सोचने वाली ये नारियाँ किसी से ज़रा भी कम नहीं हैं । तखत जैसे विशिष्ट नारी पात्र का निर्माण करने वाले रघुवीर चौधरी ने ‘सोमतीर्थ’ में चौला के चरित्र के माध्यम से विकसित नारी चेतना की बात कही है । चीनु मोदी के उपन्यासों में स्त्री की इतने हद तक एब्नोर्मल छवि है और स्त्रियों के बारे में ऐसे विधान हैं कि क्या उन्होंने स्त्रियों की समस्या के बारे में कभी गंभीरता से सोचा भी होगा ? ऐसा प्रश्न होता हैं । उदाहरण के तौर पर—
- पुरुष के लिए परायी स्त्री से समागम करना अहम पोषण का कार्यक्रम होता है . (चुकादो-92)
- प्रत्येक महत्वाकाँक्षी स्त्री को पुरुष का ईगो शेटर करने में बहुत रुचि होती है । (चुकादो 105)
- पुरुष के लिए बच्चा पैदा करना शक्ति के प्रमाण का विषय बन जाता है । (वही, 110)
- पुरुष को सहन कर लेना स्त्री के लिए आसान है परंतु पुरुष स्त्री को शायद ही सहन कर सकता है । (वही, 48)
ईवा डेव की ‘मिश्रलोही’ में अन्तर्जातीय विवाह के परिणामस्वरूप बेटी ने वर्णसंकर संतान को जन्म दिया और त्याग दिया परंतु अगली पीढ़ी की माँ संतान का पालन-पोषण करती है । जहाँ पढ़ी लिखी नयी पीढ़ी पीछे रह जाती है, वहाँ पुरानी पीढ़ी की मंजु बेटी से ज्यादा सहिष्णु साबित होती है । अशोक पुरी गोस्वामी की ‘कुवो’ की दरिया की होशियारी, स्वाभिमान के लिए उसकी लड़ाई किसी भी स्थिति का सामना करने की योग्यता, कठिनाइयों में हिम्मत हारे बिना रास्ता निकालने की सूझबूझ उसे उमदा नारी प्रस्थापित करती है । पुरुष हार मान लेता है तब भी यह स्त्री अकेले दम संघर्ष करती है ।
वर्षा अडालजा के ‘अणसार’ की रूपा आरंभ में रोती रहती है परन्तु बाद में निजी पहचान पा सकी है । वर्षा अडालजा ने ‘क्रोसरोड’ उपन्यास में जिन नारी पात्रों का चित्रण किया है उसमें स्त्री के आंतरिक सत्व का परिचय दिया है तो साथ-साथ स्त्री के शोषण की भीषण छवि प्रस्तुत की है । सामंतशाही व्यवस्था में पिसती नारी भी यहाँ है तो इस व्यवस्था की दुरित समान पुरुष शक्ति के विरुद्ध गड़ाँसा लेकर सामना करती स्त्री भी यही है । रवीन्द्र पारेख के तीनों उपन्यासों का स्त्री समस्याओं से सीधा सम्बन्ध है । बिंदु भट्ट की ‘अखेपातर’ की कंचन बा बिल्कुल अलग और नयी नारी छवि प्रस्तुत करती है । सब कुछ तबाह हो जाता है, खुद पर बलात्कार होता है फिर भी संतानों के लिए जिंदा रहने वाली यह नारी बलात्कार के बाद संतान को जन्म देती है । यह संतान पति के प्रेम का बीज है या बलात्कारी के अत्याचार का परिणाम है, इससे अनभिज्ञ यह नारी जन्म लेनेवाले का गला नहीं घोंटती ... समाज के खिलाफ, अपनों के खिलाफ संघर्षों में दृढ़ रहने वाली यह नारी अपने निजी तेज से चमकती है ।
अंतिम 25-30 वर्षों में पाठकों को पुनः उपन्यास पठन के लिए तैयार करनेवाले ध्रुव भट्ट के उपन्यासों की नायिकाएँ सगोत्रीय प्रतीत होती हैं । ‘समुद्रांतिके’ की अवल या ‘तत्वमसि’ की सुप्रिया या ‘कर्णलोक’ की दुर्गा, ‘अकुपार’ की सांसाई ..... सभी सामान्य फिर भी असामान्य लगती हैं । सभी नायक की तुलना में श्रेष्ठ । कथानायकों को अपनी ओर, अपने अनुभव-विश्व की ओर मोड़ने वाली ये नायिकाएँ थोड़ी पारलौकिक हो जाती हैं । उन्हें इस या उस समय की समस्या से सरोकार है परंतु वे हमें अपने जैसी कहीं भी नहीं लगतीं इसलिए नारी छवि के संदर्भ में उनकी बात करने का कोई मतलब नहीं है ।
लगभग 1960-70 तक समाज में और परिणामस्वरूप साहित्य में स्त्री की परेशानियों के पीछे पुरुषों की अपेक्षा स्त्री अधिक जिम्मेदार थी । धीमे-धीमे संयुक्त परिवार विघटित हुए, स्त्री पढ़ने लगी, घर में सास या बुआ आदि का चलन कम हुआ । इसके बाद स्त्री की मुक्त छवि का चित्रण हुआ, इसे स्वीकार करना होगा; पुरुष-प्रधान समाज ने स्त्री की जो मानसिकता निर्मित की वह स्त्री को ही अधिक बाधक हुई, यह कैसी विडम्बना है ?
गृहजीवन से संबंधित छोटी-छोटी बातों, सामाजिक संबंधों की संकुलता और स्त्री के अंतरमन को समझने की दृष्टि से स्त्री रचनाकार कई बार पुरुष रचनाकार से आगे निकल जाती हैं । छेड़खानी से लेकर बलात्कार की समस्या, भद्दी मज़ाक, हँसी-ठठ्ठा या घर के पुरुषों द्वारा की जाती मारपीट या विवाहेतर संबंधों में भावनात्मक स्तर पर या सामाजिक स्तर पर सहन करती, सहती ही रहने वाली स्त्री की असह्य पीड़ा को अपने यहाँ स्त्री रचनाकार अधिक न्याय दे सकीं हैं ऐसा कहा जा सकता है ।
राम मोरी और अभिमन्यु आचार्य की कहानियाँ इक्कीसवीं सदी के दूसरे शतक में लिखी जा रही हैं । एक ही कालखंड में दोनों छोर पर जीने वाली स्त्री है, इस वास्तविकता का हम स्वीकार करेंगे तो ही दो विपरीत छोर की इस नारी की तस्वीर का स्वीकार कर सकेंगे ।