दलित कहानियों की द्रष्टि से नब्बे का दशक महत्वपूर्ण वर्ष है। इसी दशक के प्रारंभ में दलित लेखको ने बेहतरीन कहानियाँ लिखकर अपने समाज की संवेदनाओं और अनुभूतियों को वाणी प्रदान की, जो अब तक निरंतर जारी है। इन दशक की कहानियाँ अपने विषय वस्तु में दलित होने की पीड़ा, भूख, गरीबी, अशिक्षा, वर्ण, असमानता, आरक्षण, अन्तरजातीय विवाह, दलितों के अंधविश्वास, अन्तर्विरोधों, दलित स्त्री की व्यथा और नयी एवं पुरानी पीढी के संधर्षो को मुखरता से उठाती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्हीं दशकों में स्त्री जीवन को आधार बनाकर कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी गईं। दलित स्त्रियों के संघर्षो और समस्याओं से साक्षात्कार करती है ये कहानियाँ सुशिक्षित एवं कामकाजी स्त्रियों के धैर्य और सन्तुलन को भी प्रकाश में लाती हैं।
1. जंगल की रानी
वरिष्ठ कहानीकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ में स्त्री का चरित्र चित्रण होता ही है, किन्तु उनकी स्त्री जीवन पर आधारित महत्वपूर्ण कहानी ‘जंगल की रानी’ है। ‘जंगल की रानी’ उन्हीं के कहानी संग्रह ‘घुसपैठिये’ में संकलित है। अपने सम्मान एवं आत्म गौरव के रक्षार्थ ये कहानी दलित स्त्री की निडरता और साहसिकता को उजागर करती है। इस कहानी की नायिका कमली है। अपने आत्म गौरव को बचाये रखने के लिए कमली अंतिम सांसों तक संघर्ष करती है और अन्तत: लड़ते-लड़ते अपनी जान दे देती है, किन्तु अपने घुटने नहीं टेकती। कमली अपराजेय थी। यही कहानी दलित स्त्री के संघर्ष को मार्मिकता से उठाती है।
कहानी की कथावस्तु का सार इस प्रकार है। एक डिप्टी साहब प्राइमरी स्कूल का मुआयना करने गाँव आये थे। वे स्कूल का मुआयना तो कम स्कूल की शिक्षिका कमली के सौंदर्य का मुआयना अधिक करने लगे थे। मुआयना के दौरान उन्होंने कमली को अपने पास ही उलझाए रखा था। वे कमली की आंतरिक व बाह्य सौंदर्य से मुग्ध हो गए थे। उनकी मुग्धता कमली को किसी भी तरह हासिल करने में चिंतामग्न थी। अत: उन्होंने कमली को फसाने हेतु योजनाबध्द जाल बुना और उसे ग्रामीण ‘महिला प्रशिक्षण शिविर’ के लिए शहर भेजा गया। महिला शिविर के उद्घाटन समारोह में उपस्थित शहर के एस.पी. और विधायक दोनों महानुभवों को भी उन्होंने अपने षड्यंत्र में सम्मिलित कर लिया। वे विश्राम-गृह में उपस्थित कमली का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। वहां घटित घटना कुछ इस प्रकार हैं-
“जीप की आवाज सुनते ही तीनों की बांछें खिल गईं। कमली को वे खास लोग बुरी तरह बांध कर लाए थे। मुंह में कपडा फंसा था। कमरे में लाते ही उसे खोल दिया गया। अपमान की भट्टी में धधक रही थी वह।”
“कमली को देखते ही डिप्टी साहब बेकाबू हो गए थे। भूखे तेंदुए से टूट पड़े कमली पर। कमली आक्रमण से बेखबर स्थिति को समझने का प्रयास कर रही थी कि उसकी चीख निकल गई। चीख विश्राम-गृह की दीवारों से टकरा-टकरा कर गुम हो गई थी। उसने डिप्टी साहब को एक झटके से अलग कर दिया अपने ऊपर से। वे कपास के बोरे की तरह एक ओर लुढ़क गए। वे दरवाजे की ओर भागी। दरवाजा बंद हो गया था। असहाय कमली दरवाजा पीटने लगी। तब तक एस.पी. ने उसे दबोच लिया।”
“कमली के भीतर जंगल जाग चुका था। वह जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रही थी। शरीर के कपड़े चिथड़ों में बदल गए। चिथड़े घावों और खरोंचों को ढंकने में असफल होने लगे। संघर्ष चरम-सीमा पर था। डिप्टी साहब हांफ रहे थे। कमली ने विधायक को फर्श पर पटक कर दबा लिया। छाती पर चढ़कर पंजों में गर्दन दबोच ली। विधायक जी की आँखे साक्षात दुर्गा दर्शन कर रही थी।”
कानून के रखवालों और कमली के बीच वासना के युद्ध में शक्तिशाली संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व की युवती होने के कारण कमली अपनी अस्मिता तो बचा सकी, किन्तु जान बचाने में वह सफल नहीं हो सकी। अंत में एस.पी. कमली की गर्दन दबोच लेता है और तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह मर नहीं जाती। बाद में उलकी लाश को नई साड़ी में लपेट कर रेलवे स्टेशन के पास रेलवे लाईन पर फैंक देते हैं। इस सारी घटना को सोमनाथ अखबार में छाप देता है और सभी लोगों को बेनकाब कर लेता है। कमली के रूप में दलित वर्ग की स्त्री की स्थिति उजागर होती है और उनके प्रति शासन-प्रशासन के अंगों की नीयत का यथार्थ चित्रण भी हुआ है।
कथाकार ने इस कहानी के माध्यम से समाज में निर्धन व दलित लड़कियों को बलात्कार व हत्या जैसी घटनाओं की शिकार बनाने की घिनौनी घटनाओं का पर्दाफाश किया है। समाज के उच्च वर्ग के प्रतिष्ठित अधिकारी , जनता का प्रतिनिधि भी गरीब, दलित बालिकाओं की इज्जत-आबरू लुटने से नहीं हिचकिचाते और अपराध करने के पश्चात् स्वच्छ बचकर निकल जाते हैं क्योंकि उन पर कोई शक कर ही नहीं सकता। अगर करे तो सोमनाथ की तरह अपनी हडियाँ तुड़वाने को तैयार रहे। वास्तव में कथाकर ने दलित बालिकाओं पर किए जाने वाले दुराचारों को समाज के समक्ष यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है।
2. चिडीमार
‘चिडीमार’ हंस पत्रिका के अगस्त, 2004 के अंक में प्रकाशित हुई। अपने सम्मान एवं आत्मगौरव के रक्षार्थ ये कहानी स्त्री की निड़रता और साहसिकता को उजागर करती है।
“‘चिडीमार’ कहानी की नायिका सुनीति है। सुनीति अपने पिता के रिटायरमेन्ट के पश्चात् घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए नौकरी करती है। किसी दलित स्त्री का स्कूटी पर सवार होकर नौकरी में निकलना सवर्णों के लिए फब्तियाँ कसने का बहाना बन जाता है। यहाँ भी तीन चिड़ीमार (लड़के) सुनीति के मार्ग की बाधाएँ बने बैठे है। रोज-रोज की छींटाकसी छेड़खानी सुनीति को परेशान कर देती है, लेकिन वह घबराती नहीं। चिड़ीमारों को मुँहतोड़ जवाब देती है।”
कहानी में सुनीति का मित्र सुतेज है, जो नीति में साहस पैदा करता है। सुतेज अच्छी तरह जानता है कि समस्या से कैसे लड़ा जाए। कोई भी दलित की मदद करने वाला नहीं। दलितों को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी पड़ती है। सुतेज मानता है कि व्यवस्था में बदलाव लाना होगा और यह पहल भी दलितों को ही करनी होगी। सुतेज के शब्दों में कहानीकार लिखता है- “तो क्या चुप बैठे रहे... या समय के बदलने का इंतजार करते रहें... समाज अपने आप तो घड़ी में भी नहीं बदलता... बदलने के लिए कुछ करना पड़ता है... तुम फिकर मत करो... इस रोज़ रोज़ से मरने से अच्छा है एक दिन ही मर लिया जाए।”
सुतेज एक चिड़ीमार को सबक भी सिखाता है। बदले में पुलिस सुनीति को पकड़कर मारने वाले का नाम पूछती है। सुनीति के उत्तर सुनकर पुलिस भी चुप हो जाती है। सुनीति कहती हैं – “मैं नहीं जानती... हाँ इससे यह जरूर पूछिए कि हर रोज शाम को जहाँ खड़े होकर आने-जाने वाली लड़कियों से कैसा सुलूक करते है.. उनकी जाति जाति याद दिलाते हैं... और इसके दो और चमचे थे, वे कहाँ हैं... पहले इन्हें ढूँढिए, हकीकत अपने आप सामने आ जाएगी।”
इस प्रकार कहानी आम भारतीय लड़की की त्रासदी को बयाँ करती है, जहाँ किसी लड़की का नौकरी करना मनचले युवकों को मस्ती करने का अवसर प्रदान करता है। ऐसे क्षणों में किसी स्त्री का घर और बहार से मुठभेड़ करते हुए अपने अस्तित्व का कायम रख पाना कितना कठिन होता है, इसी बात की वकालत करती है ये कहानी। सुनीति के द्वारा कहानी में दलित स्त्री की दृढ़ इच्छा शक्ति को प्रस्तुत किया गया है।
3. यह अन्त नहीं
‘यह अन्त नहीं’ कहानी ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहानी संग्रह ‘घुसपैठिए’ में संकलित है। इस कहानी की नायिका बिरमा है। हमारे देश में कानून-व्यवस्था का अंग मानी जाने वाली पुलिस में जातिभेद और लिंग भेद की अपराधिक मानसिकता को उजागर करती है। यह कहानी दलित वर्ग की लड़की के साथ दुराचार करने की कोशिश से संबंधित है।
इस कहानी में मंगलू और सरबती दलित दम्पति हैं। बिरमा लड़की व किसन इनका लड़का है। मंगलू ने किसन को कॉलेज की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया है, परंतु बेटी बिरमा को काम पर ले जाता है और पूरा दिन धान की कटाई करते हैं। बिरमा परिवार के साथ काम करती है-
“धान की कटाई के उमस भरे दिन थे। मंगलू और सरबती के साथ बिरमा भी धान की कटाई के लिए जाती थी।”
खेत में काम करने के साथ बिरमा को घर में खाना भी बनाना पडता है- “एक गट्ठर बिरमा के सिर पर रखते हुए मंगलू ने कहा, तू घर जा। सांझ हो रही है, घर जाके रोटी-पाणी देख लिया... हमें आणे में देर हो जागी। बुग्गी में धान लादके ही आणा होगा। तू चल।”
गाँव से उच्च वर्ग से संबंधित चौधरी तेजपाल है और उनका बेटा सचीन्दर है। मंगलू बिरमा को अकेले ही घर भेज देता है। रास्ते में सचिन्दर इंतजार कर रहा था और उसने बिरमा पर हमला बोल दिया। बिरमा ने साहसपूर्वक उसका मुकाबला किया और सिर पर उठाया हुआ धान का गट्ठर सचिन्दर पर फैंक दिया और ऊपर से उसकी टांगों के बीच जोर से लात मार दी जिससे वह चित हो गया। बिरमा से वह घबरा गया और चुपचाप खिसक गया। बिरमा सारी कहानी अपनी माँ को व भाई को बताती है। मंगलू सारी बात को छिपाना चाहता है। गाँव के लोग भी साथ नहीं देते, क्योंकि तेजभान दबदबे वाला आदमी है और कोई उससे बैर मोल नहीं लेना चाहता। बिरमा का भाई किसना नौजवान व चेतना से भरपूर है। वह सचिन्दर को सबक सिखाना चाहता है, परंतु कोई भी किसना के साथ नहीं चलता। बस्ती के सभी दलित बुजुर्ग बात को न बढ़ाने की सलाह देते हैं परंतु किसना नहीं मानता। वह शहर जाता है और अपने दोस्तों से घटना पर विचार-विमर्श करता है। सभी पुलिस में रिपोर्ट करने को कहते हैं। इस्पेक्टर रिपोर्ट लिखने से इंकार कर देता है। सभी लोगों की आपस में गर्मा-गर्मी हो जाती है। इंस्पेक्टर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -
“छेड़खानी हुई है... बलात्कार तो नहीं हुआ... तुम लोग बात का बतंगड़ बना रहे हो। गाँव में राजनीति फैलाकर शांति भंग करना चाहते हैं। मैं अपने इलाके में गुंडागर्दी नहीं होने दूंगा... चलते बनो।”
पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती क्योंकि किसन दलित परिवार से था। पुलिस ऐसी अभद्रता देख किसन पंचायत में फरियाद करता हैं। परंतु पंचायत भी सवर्णों की है। वहाँ दलित की कौन सुनता। मामला हल्के में रफादफा कर दिया गया। पंचायत की मीटिंग में सचिन्दर का केवल मात्र चेतावनी देकर और पांच रूपए जुर्माना करके छोड़ दिया जाता है।
इस प्रकार कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कहानी के माध्यम से उच्च वर्ग द्रारा दलित वर्ग की औंरतो वह लड़कियों के साथ लिए जाने वाले इस दूर्व्यवहार को चित्रित्र किया हैं और इसे अपनी शान समझते हैं परंतु बिरमा जैसी दलित लड़की चेतना के कारण उच्च समाज का विरोध भी करती है और उसे सबक भी सिखा देती है।
4. जिनावर
‘जिनावर’ कहानी ओमप्रकाश वाल्मीकि के कहानी संग्रह ‘सलाम’ में संकलित है। इसमें स्त्री के शोषित पहलू को उजागर किया गया है। कहानी में सवर्ण स्त्री को एक दलित से आत्मबल मिलता है। स्त्रियाँ पुरूष वर्ग के अत्याचारों को भुगतने के लिए विवश हैं और जिंदगीभर अपना जीवन घुट – घुटकर जिने को विवश हो जाती हैं।
चौधरी के पुत्र विरम की पत्नी उच्च वर्गीय समाज की सदस्या होने पर भी दलित है, उसे अपने ही परिवार में दबोचा गया है, दबाया गया है और वह भी एक स्त्री दलित जीवन का हिस्सा बन जाती है। बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाता है और मामा के घर रहने को मजबूर होना पड़ा। माता के साथ मामा के घर रहना शुरू किया। जवानी से पूर्व ही मामा मौका देखकर एक दिन जबरदस्ती शील भंग कर देता है। -
“मेरा बाप कब मरा मैं नहीं जानती। मामा के घर में ही होश संभाला... मामी को गुजरे भी कई बरस हो गए थे। घर में सिर्फ तीन जन थे। मैं, माँ और मामा। दस साल की भी नहीं थी कि मामा ने इस अबोध शरीर को बरबाद कर दिया था। बहुत रोई – चिल्लाई थी... लेकिन कोई सुननें वाला नहीं था। माँ ने भी मुझे समझाने की कोशिश की थी। बेबसी ने माँ को डरपोक बना दिया गया था। मामा का आसरा छिन जाने का डर था। माँ जरूर चुप थी लेकिन मैं चुप ना थी मैंने मामा को कभी माफ नहीं किया। मौंका मिलते ही जलील कर देती थी। जब भी मेरे करीब आने की कोशिश करता... मैं चीखने – चिल्लाने लगती थी...।’’
जिस लड़की का बचपन ही सगे कलयुगी मामा ने बर्बाद कर दिया हो और कहीं सिर छुपाने की जगह नहीं, बेबस होकर उसी पापी मामा के साथ रहना पड़ता है। इसके बाद चौधरी के नपुसंक बेटे विरम के साथ शादी कर दी और वह भी 5000 रूपये में बेचकर। विरम की पत्नी बनकर चौधरी के घर चली जाती है और वहाँ भी अत्याचार समाप्त नहीं होते। वहाँ पर ससुर चौधरी उसके शरीर का भोग करना चाहता है और कई बार उसके ऊपर हमला कर चुका, परंतु वह विरोध करती है और उसे पास फटकने भी नहीं देती। वह कहती है-
“चौधरी मेरा ससुर... ससुर नहीं खसम बणना चाहवे था मेरा... मैंने विरोध करा तो मुझे मारा-पीटा गया। तरह-तरह के जुल्म किए... फिर भी मैंने हार नी मानी।”
जब पति से ससुर की शिकायत की तो वह भी उल्टे कहने लगे – “मेरे बाप के खिलाफ एक भी लफ्ज बोल्ली तो हाड़-गोड़ तोड़ के धर दूंगा। जिंदगी बर लूली-लंगडी बणके खाट पे पड़ी रहेगी... औरत है तो औरत बण के रह।”
जब बहू ससुर का कहना नहीं मानती है तो उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया जाता है, और मायके भेज दिया जाता है। अपने नौकर जगेसर को हुक्म दिया जाता है उसे मायके छोड़कर आये। जगेसर रास्ते में कुएँ के पास बहू को आराम करने को कहता है और कुएँ से पानी निकालकर पहले स्वंय नहीं पीता बहू को पिलाता है और फिर स्वयं पीता है और बहू को आराम करने को कहता है। तभी बहू जगेसर को अपनी सारी कहानी बताती है। जगेसर को बहू अपने ससुर व मामा की करतूतों का खुलासा करती है। जगेसर के मन में चौधरी के प्रति आक्रोश भर आता है और वह बहू की सहायता करने के लिए आतुर हो जाता है। बहू को मायके न ले जाने के बजाय अपने साथ लाने को तैयार हो जाता है। वह नि:सहाय बहू की सहायता करना चाहता है।
बहू मानने को तैयार नहीं थी। परंतु जगेसर बहू के अंदर आत्मविश्वास जगाता है और वापस जाने को तैयार करता है। स्त्री पर हुए अनगिनत अत्याचार ही स्त्री को दलित बना देते हैं।
इस प्रकार वाल्मीकि जी ने स्त्री स्थिति और दलित के भावों को सटीक ढ़ंग से उभारा है। पुरूषों ने जिन अधिकारों के चलते अनगिनत सुविधाएँ भोगी हैं उसी सुविधा के अन्तर्गत स्त्री को मनमाने ढ़ंग से भोगना भी है। दर्द, पीड़ा, संताप, यातना, जुल्म ही स्त्री के हक में आए हैं।
5. अम्मा
‘अम्मा’ कहानी ओमप्रकाश वाल्मीकि के ‘सलाम’ कहानी संग्रह में संकलित है। कथाकार ने इस कहानी की नारी पात्र ‘अम्मा’ के माध्यम से दलित समाज की बूढ़ी औरतें जो झाडू लगाने का व घरों में साफ-सफाई का कार्य करती हैं, उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है। अम्मा संपूर्ण जिंदगी झाडू लगाकर लोगों के घरों में काम करती है, परंतु झूठ नहीं बोलती और ईमानदारी की मिसाल बनकर रहती है।
कथाकार अम्मा के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- “मैं जिस अम्मा की बात कर रहा हूँ उसका नाम क्या है, मैं नहीं जानता। शायद वह स्वयं भी अभी तक अपना नाम भूल चुकी होगी। क्योंकि जब वह मायके से ससुराल आई थी तो सास-ससुर ने उसे बहू कहकर पुकारा, देवर और ननद ने भाभी या भावज, पास-पड़ोस की बड़ी बूढ़ियों ने उसके खसम के नाम से ‘सुकडू की बहू’ नामकरण अनजाने में ही कर दिया था। शुरू के दिनों में सुकडू उसका नाम नहीं लेता था। नाम तो वह अब भी नहीं लेता। उन दिनों नाम लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी। दिन भर तो वह माँ-बहिन के साए में घिरी रहती थी। देर रात सुकडू चुपके-चुपके उसकी चारपाई पर पहुँचता था, वह भी चोर की तरह दबे पावं। कुछ ही देर के लिए। उसमें भी डर लगा रहता था, कहीं बहन या माँ जाग न जाएँ।”
कथाकार ने ‘अम्मा’ की उस सामाजिक परिस्थिति का वर्णन किया है जिसमें वह अपने समाज में, अपने परिवार में खुलकर साँस भी नहीं ले सकती। उसका पति उससे छुपकर मिलता है, क्योंकि घर में इतना स्थान नहीं कि कही अलग कमरे में सोया जाए, मात्र एक छोटा सा कमरा ही पूरे परिवार की शरणस्थली थी।
अम्मा अपनी रोजी-रोटी के लिए अपने आस-पास के मकानों में सफाई का कार्य करती है और अपना व अपने परिवार का पेट पालती है। अम्मा में सामाजिक चेतना के बीज शुरू से ही बोये थे। अम्मा मिसिज चोपड़ा के घर का काम करती थी और वहाँ पर अक्सर दिन में एक पराये मर्द को देखती थी। एक दिन मिसेज चोपड़ा बाथरूम में नहा रही थी। वह आदमी बैड़रूम में बैठा था। अम्मा ने पानी के लिए मिसिज चोपड़ा को कहा परंतु मिसिज चोपड़ा ने उस आदमी को एक बाल्टी पानी डालने के लिए कह दिया। उस आदमी ने मौका देखकर अम्मा को दबोच लिया और कमर से पीछे कसकर पकड़ लिया और अपनी काम वासना की तृप्ति करनी चाही परंतु अम्मा ने विरोध किया और स्वयं को उसकी गिरउत से छुड़ा लिया। छुटते ही हाथ में पकडड़े झाडू से उसकी सेवा कर दी। लगातार झाडू पडने से वह फर्श पर गिर पडा। मिसिज चोपडा ने आकर छुडवाया, अम्मा गुस्से से भयानक रूप में मिसिज चोपड़ा को साफ शब्दों में कहती है-
“भैण जी इस हरामी के पिल्ले से कह देणा... हर एक औरत छिनाल न होवे है।”
इस प्रकार अम्मा में आत्मसम्मान की चेतना शुरू से ही थी और वह पर-पुरूष का ख्याल भी अपने मन में फटकने नहीं देती थी चाहे कितनी ही बड़ी मजबूरी क्यों न हो।
अम्मा के जीवन में ईमानदारी महत्वपूर्ण पहलू था। उनका एक छोटा बेटा शिवचरण नगरपालिका में क्लर्क था और अच्छे पैसे कमाने लगा था, परंतु वह ईमानदारी पर न चलकर रिश्वत खाता था। यह पता अम्मा को चल गया और वह बहुत दु:खी हुई-
“शाम को शिवचरण के आते ही अम्मा ने साफ कह दिया, शिबू, आजकल तू जो करे है वह ठीक ना है... जो मैंने पता होता कि तू इस तरियो पैसा कमावे है तो मैं तेरे पैसे कू हाथ भी ना लगाती। तैन्ने पढ़ा-लिखा दिया। तेरी साद्दी(शादी) कर दी... मेरा काम खत्म... अच्छा इन्सान न बणा सकी यो मेरा कसूर। कल से तू अपना चौका-चूल्हा अलग कर ले... मन्नै ना खाणी इस कमाई की रोटी।”
विसन सिंह का लड़का मुकेश जिसने एम.ए. की पढ़ाई की है। एक-दो बच्चों वाली स्कूल टीचर के प्रेमपाश में बंध जाता है, जब अम्मा को अपने पोते की इस घटना का पता चलता है तो वह और भी क्रोधित हो उठती है और कहती है-
“बेटे बिसन... तैन्ने और तेरे जातकों(बच्चे) ने सरम आवे... इसलिए तो पढ़ाया-लिखाया। थारे सबके हाथ से झाडू-टोकरा छुड़ाया... मेरे बाद इस घर की कोई बहू-बेट्टी ठिकानों में नहीं गई... सिर्फ इसलिए कि तुम सब लोग इज्जत जीना सीखों। ऐसा कोई काम न करो जिससे सिर निच्चा हो... कहीं कमी रह गई है बेट्टे जो तेरा मुकेश जूठन पर मुंह मारने गया, वह भी नौकर की तरह, उसके बच्चों को संभालने, इज्जत से ब्याह के घर ले आता... भले ही दो जातकों की मां है। मेरा दिल खुश हो जाता। अपनी बहू बणा के रखती... पर यो तो ठीक ना है, अच्छा नी करा उन्ने।”
इस प्रकार अम्मा अपने समाज में अपने परिवार का सामाजिक स्तर उन्नत करने की चेतना से ईमानदारी से अपने कर्तव्य का, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है। दलित जीवन में स्त्री-पुरूष एक दूसरे से पूरक है। उनके काम अलग-अलग बँधे हुए नहीं रहते हैं। ‘अम्मा’ की मान्यताओं और जीवन-मूल्यों में पारदर्शिता है। इससे उनका चरित्र दलित जीवन के ऐसे पक्ष को उजागर करता है, जहाँ स्वाभिमान आत्मसम्मान को पाने की छटपटाहट है।
6. कडवा सच
‘कडवा सच’ कहानी की लेखिका सुशीला टाकभौरे हैं। यह कहानी रजत रानी ‘मीनू’ द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘हाशिए से बाहर’ में संकलित है। स्त्री के घर और बाहर के संघर्ष को ये कहानी बखूबी उजागर करती है।
‘कडवा सच’ में लेखक सुधीर लेखिका के लेखन को देखने उनके घर आते हैं। कहानियाँ देखने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया इन शब्दों में देखी जा सकती हैं-
“आपने ये कहानियाँ लिखी हैं... ये सब एक हैं कि चार है... मुझे तो सबमें एक ही कहानी नज़र आ रही है... सबमें एक ही बात, एक ही पात्र, एक जैसी समस्याएँ, एक जैसी परेशानियाँ। आप ही देखिये... वहीं आर्थिक तंगी, बच्चे, पति, नौकरी और बस...।”
सुधिर की सलाह पाकर लेखिका अन्य विषयों पर लिखना चाहती है किन्तु लिख नहीं पाती। वह कल्पना की ऊँची उड़ान नहीं भर पाती। वह आभिजात्य संस्कार, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को अपनी कहानियों का मुद्दा नहीं बना पाती। काफी सोचने विचरने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि आखिर वह जो कुछ आज तक लिखती आ रही है, वह भी तो कड़वा सच ही है। दलित स्त्री ने अभी तक राष्ट्र की सीमा को ही ठीक ढंग से पहचाना नहीं है। यदि उससे यह माँग की जाये कि वह पूरी दुनिया के बारे में सोचे लिखे तो वे सब अनुभव कहाँ से लाये।
“घर और परिवार के सीमित घेरे में घिरी नारी कैसे कर पायेगी बाहर की दुनिया का सजीव चित्रण, कैसे जान सकेगी आधुनिक व्यवहार की बातें और कैसे चल पायेगी समय के साथ कदम से कदम मिलाकर, जो अपने देश के विषय में पूरी तरह नहीं जानती वह विदेशों के विषय में, विदेश यात्राओं के विषय में क्या लिखेगी।”
इस प्रकार दलित स्त्री का दायरा सीमित है, अभी वे इसी सीमित घेरे में ही अपना लेखन कर रही है। घर, परिवार, बच्चे, आर्थिक तंगी आदि उसके जीवन के वे सच है जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता। इन्हीं के आसपास उनकी दुनिया सिमटी हुई है। इसी दुनिया के आसपास जब वह अपना लेखन करती है तब उसके अनुभव एवं अनुभूति इसी सीमित घेरे में सिमटकर रह जाते हैं। फिर स्त्री लेखन पुरूष लेखन के मुकाबले कमतर आँका जाता है।
7. साक्षात्कार
सुशीला टाकभौरे की ‘साक्षात्कार’ कहानी प्रतिभा नामक सुशिक्षित एवं कामकाजी स्त्री की समस्याओं से साक्षात्कार करती कहानी है। यह कहानी रजतरानी मीनू द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘हाशिए से बाहर’ में संकलित है।
इस कहानी की नायिका प्रतिभाजी के लेखन से प्रभावित होकर उमाकान्त जी उनका इन्टरव्यू लेने उनके घर पहुँचते है। घर पहुँचने पर उन्हें बड़ी हैरानी महसूस होती है। उनका उद्गार इन शब्दों में प्रकट होता है- “क्या सोशल वर्कर प्रतिभाजी यही रहती है ॽ जी हाँ… कहकर प्रतिभा दो कदम पीछे हट गई। महाशयी दो कदम आगे बढ़े साथ ही कही… मुझे प्रतिभा जी से मिलना है। मैंने उनसे इस समय मिलने का वक्त ले रखा है।”
पारिवारिक दायित्वों में लिपटी प्रतिभा को देखकर महाशय जी का चौकना स्वाभाविक ही था। वैसे भी दलित स्त्रियों का संघर्ष सवर्ण स्त्रियों के मुकाबले अधिक होता है। उनके पास वे सभी ऐशो आराम कहाँ जो वह फुरसत में बैठकर अपना इन्टरव्यू दे सकें। दूसरा कारण प्रतिभाजी का कामकाजी होना भी है। उन्हें समय पर ऑफिस भी पहुँचाना है। घर के लोगों की मानसिकता को लेखिका व्यक्त करती है-
“बड़ी बेटी कह रही थी… मम्मी मुझे कॉलेज जाना है। मेरा जाने का टाइम हो रहा है और खाना अभी तक नहीं बना… मैं क्या खाकर जाऊँ ? उससे छोटी बेटी कहने लगी... मम्मी मैं आज टिफिन लेकर जाऊँगी। मेरे लिए सब्जी पराठा बना दो… उससे छोटी बेटी भी कुछ कह रही थी और उसके बाद की बेटी भी कुछ कह रही थी।”
कहानी में परूष मानसिकता भी पूरी तरह हावी है। प्रतिभा जी की यह समस्या विवाह उपरांत की है, किन्तु विवाहपूर्व भी उन्हें पूरी स्वतंत्रता नहीं थी। उमाकान्त जी के पूछे जाने पर – “मैडम, क्या आप विवाह पहले भी इस तरह के कार्यक्रमों में भाग लेती थी ? प्रतिभा ने उत्तर दिया – तब… तब तो हमारे शुभ चिन्तक जन्मदाता और भयदाता भाइयों ने हमें कभी ऐसी बातें सोचने नहीं दी। न कहीं से सुनने दी, न ही कहीं पढ़ने दी और न ही कभी बोलने दी।”
इस प्रकार यह कहानी स्त्री के घर और बहार के संतुलन को शिदृत से रेखांकित करती है। स्वयं स्त्री अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं है। घर और बाहर उसका भी अस्तित्व इस बात को अहमियत नहीं देती। घर बाहर की व्यस्तताओं ने उसे अपने घर का पता तक याद नहीं रखने दिया। दलित स्त्री की दशा से साक्षात्कार करती ये कहानी महत्वपूर्ण है।
8. सिलिया
‘सिलिया’ कहानी सिलिया और उसकी माँ की स्वतंत्र सोच और आधुनिक मानसिकता को अभिव्यक्त करती है। यह कहानी दलितों के प्रति सवर्ण मानसिकता को भी उजागर करती है। सवर्ण पुरुष झूठे दिखावे के लिए दलित वधू से विवाह करने का ढोंग करता है। किसी गाँव की पढ़ी लिखी दलित लड़की से विवाह करके समाज के सामने आदर्श रखना चाहते हैं। यह आदर्श महज एक दिखावा और ढ़ोग के सिवा कुछ नहीं होता। जाति इतना महत्वपूर्ण घटक है जिससे कोई मुक्त नहीं रहता। सिलिया और सिलिया की माँ इस बात को अच्छी तरह जानती है। तभी तो सिलिया का विवाह अपनी माँ अपने ही दलित समाज में करना चाहती है। उसका मानना है कि मान-सम्मान अपने ही समाज में रहकर मिल सकता है। नई दुनिया में छपा विज्ञापन ‘शूद्र वर्ग की वधू चाहिए’ सिलिया औऱ उसी माँ के दृष्टिकोण में महज प्रगतिशील बनने का दिखावा है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। सिलिया की माँ का आधुनिक दृष्टिकोण –
“हम तो नहीं देते अपनी बेटी को हमीं उसको खूब पढ़ायेगें… लिखाएंगे। उसकी किस्मत में होगा तो इससे ज्यादा मान-सम्मान वह खुद पा लेगी।”
इस प्रकार सुशीला टाकभौरे की ‘सिलिया’ कहानी में माँ की सकारात्मक सोच बेटी सिलिया की हौसला अफजाई का सबब बन जाती है। लेखिका ने सिलिया की माँ के रूप में स्वतंत्र सोच और आधुनिक मानसिकता का चित्रण किया है। इस कहानी में स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। सिलिया एक प्रकार से अपने सोए हुए समाज के लिए जागरूक व प्रेरणादायी पात्र है।
संदर्भ ग्रंथ :
- मीनू, रजत रानी, हाशिए से बाहर, संस्करण-2001, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- वाल्मीकि, ओमप्रकाश, घुसपैठिए, संस्करण-2003, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- वाल्मीकि, ओमप्रकाश, सलाम, संस्करण-1996, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली