संस्कृत साहित्य के संरक्षण और संवर्धन में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले आधुनिक विद्वानों में छ्त्तीसगढ़ राज्य की पुष्पा दीक्षित का नाम सर्वोपरि है। अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत पुष्पा दीक्षित संस्कृत ग्रन्थों की रचना, अनुवाद, शोधकार्य और नि:शुल्क आवासीय गुरुकुल की स्थापना और संचालन जैसे कार्यों से संस्कृत की सेवा में तत्पर हैं। इस शोध निबन्ध में उनके व्यक्तित्व एवं जीवन के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
परिचय-
पुष्पा दीक्षित का जन्म वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत बिलासपुर के गोंड़पारा में 1जुलाई 1942 को हुआ था। इनके पिता पण्डित श्री सुन्दरलाल शुक्ल और माता श्रीमती जानकी देवी शुक्ल थे। इन्होंने रानी दुर्गावती विश्वविद्यलय, जबलपुर से विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त की और इसी विश्वविद्यालय के शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय में लगभग 39 वर्ष तक अध्यापन का कार्य किया। सेवा-निवृत्ति के बाद ये अनवरत सहित्य और समाज साधना में संलग्न हैं।
गुरु-परम्परा-
इन्होंने अनेक श्रेष्ठ संस्कृत विद्वानों के निर्देशन में अध्ययन किया है। इनकी गुरु-परम्परा में वैयाकरण शिरोमणि आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी, आचार्य सुन्दरलाल शुक्ल, पण्डित रामप्रसाद त्रिपाठी, आचार्य बच्चूलाल अवस्थी और आचार्य रामयत्न शुक्ल आदि प्रमुख नाम हैं। ये आचार्य आधुनिक भारत के गणमान्य संस्कृतज्ञ हैं।
रचनाएँ-
इनकी रचनाओं को 3 वर्गों विभक्त किया जा सकता है- 1.व्याकरण से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचनाएँ, 2. काव्य रचनाएँ और 3. अनुवाद कार्य ।
व्याकरण ग्रन्थ-
1.अष्टाध्यायी सहजबोध- यह ग्रन्थ मूल रूप से 8 भागों में है। इनमें से अभी तक 6 भागों का प्रकाशन दिल्ली स्थित प्रतिभा प्रकाशन से हो चुका है। शेष दो भाग प्रकाशनाधीन है। संस्कृत व्याकरण के अध्ययन और अध्यापन की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें महर्षि पाणिनि प्रणीत संस्कृत के आद्य व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी को अत्यन्त वैज्ञानिक और सहज रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन्होंने इस ग्रन्थ की विश्लेषन प्रक्रिया को ‘पाणिनीया पौष्पी प्रक्रिया’ नाम दिया है। ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि इसका मुख्य लक्ष्य अष्टाध्यायी को सहज रूप में प्रस्तुत करना है जिससे अध्येता स्वयं इसकी गुत्थियों को समझ सके। स्वयं लेखिका इस ग्रन्थ के माध्यम से सैकड़ों छात्रों को अष्टाध्यायी का सम्यक् ज्ञान दे चुकी हैं। निश्चित ही यह ग्रन्थ उनके व्याकरण विषयक ज्ञान की गहराई को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है।
2.नव्यसिद्धान्तकौमुदी- यह ग्रन्थ मूल रूप से 13 भागों में है। इनमें से 5 भाग दिल्ली के प्रतिभा प्रकाशन से सन् 2018 में प्रकाशित हैं। यह कार्य वस्तुतः राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान की परियोजना के अन्तर्गत किया गया है। सिद्धान्तकौमुदी में पाणिनीयक्रम का व्युत्क्रम होने से होने वाली विसंगतियों को हटाकर इसमें पाणिनीयक्रम का अवलम्ब लेकर कार्य किया गया है। इससे एक रूप का ज्ञान होने से उसके समानाकार सारे रूपों का परिज्ञान स्वयं ही हो जायेगा। व्याकरण अध्ययन की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है।
3.तिङन्तकोषः - यह ग्रन्थ तीन भागों में प्रकशित है। इसमें सार्वधातुक तथा आर्धधातुक लकारों को पृथक्-पृथक् कर दिया गया है। प्रथम खण्ड में लट्, लोट्, लङ् और विधिलिङ् लकार हैं तथा द्वितीय खण्ड में शेष सारे लकार और प्रक्रियाएँ हैं ।
4.कृदन्तकोषः - इस ग्रन्थ के दो भाग हैं। ।यह कृदन्तकोष पाणिनि की उत्सर्गापवाद पद्धति से बना है। आज तक उपलब्ध सारी रूपावलियाँ अथवा कोष धातुओं को अकारादि क्रम से रखकर बनाये गये हैं, जो कि अत्यन्त अवैज्ञानिक है । इस कृदन्तकोष में अजन्त धातुओं के अन्तिम अक्षर को वर्णमाला के क्रम से रखा गया है तथा हलन्त धातुओं को उपधा के क्रम से रखा गया है ।
5. अष्टाध्यायीसूत्रपाठः । इसमें समग्र अष्टाध्यायी के अधिकारों तथा प्रकरणों को शीर्षक देकर निबद्ध कर दिया गया है। साथ ही इसके सारे विषयों को अकारादिक्रम से सूचीबद्ध कर दिया गया है, जिससे कि सारी अष्टाध्यायी हस्तामलकवत् हो गई है
6.शीघ्रबोधव्याकरणम् । यह उच्चतर माध्यमिक तथा महाविद्यालयीन कक्षाओं के संस्कृत के विद्यार्थियों के लिये संस्कृत व्याकरण पढ़ने हेतु पाणिनीय विज्ञानानुसार रचित सरलतम व्याकरण ग्रन्थ है।
7.पाणिनीयधातुपाठः(सार्थः)- इसमें अनेक धातुपाठों के अर्थों का अवलोकन करके प्रत्येक धातु का विस्तृत अर्थ दिया गया है। यथाशक्य प्रयोग भी दिये गये हैं ।
8.सनाद्यन्तधातुपाठः- इसमें सारे पाणिनीय धातुओं के सनाद्यन्त धातु बनाकर दे दिये गये हैं ।
9. धात्वधिकरीयं सामान्यमङ्गकार्यम्- इस ग्रन्थ में धात्वधिकार में वर्णित सभी तिङन्त तथा कृदन्त प्रत्ययों के लिये सामान्य अङ्गकार्य वर्णित है।
10.सस्वर: पाणिनीयधातुपाठ:- यह पुस्तक भी दो भागों में है। प्रथम भाग में सार्वधातुप्रत्ययोपयोगी है जबकि द्वितीय भाग आर्धधातुप्रत्ययोपयोगी है।
12.पाणिनीयं वैदिकव्याकरणम्- वैदिक व्याकरण के नियम लौकिक व्याकरण के नियम से भिन्न है। इस पुस्तक में वैदिक व्याकरण नियमों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
इसके अलावा इनके द्वारा प्रक्रियानुसारी-पाणिनीयधातुपाठः, इडागमः, णिजन्तकोष:, तिङ्कृत्कोषः, सार्वधातुकखण्डः, सन्नन्तकोष:, लकारसरणिः (4 भागों में), यङन्तकोष:, यङ्लुगन्तकोष: आदि अनेक लघु ग्रन्थों की रचना छात्रों की दृष्टि से की गई है।
काव्य रचना-
1.अग्निशिखा- यह संस्कृत भाषा में उनकी पहली रचना है। यह एक गीतिकाव्य है। कवयित्री ने इस गीतिकाव्य में मुख्य रूप से विप्रलम्भ श्रृंगार रस का पोषण किया है। आधुनिक संस्कृत काव्यों में नारी विषयक संवेदना को प्रस्तुत करने वाला यह एक श्रेष्ठ संस्कृत कविता संग्रह है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1984 में हुआ था।
2.शाम्भवी- यह पुष्पा दीक्षित की दूसरी गीति-रचना है। इसमें कवयित्री ने प्रश्नात्मक शैली में विविध समकालीन समस्याओं को उठाया है। ये समस्याएँ इतने ज्वलन्त तरीके से उठाये गये हैं कि पाठक इनको पढ़कर उद्वेलित हो उठता है। ‘ब्रूहि कोऽस्मिन् युगे कालिदासायते’ में कवयित्री वर्तमान राजनीति पर प्रश्न करती है कि अब वह राज्यसिंहासन पर बैठा हुआ कौन है जो राम जैसा आचरण करता है और प्रजा की वेदना से व्यथित होता है? वस्तुतः बाघ और गिद्ध रूपी राजनेताओं से नोचा जा रहा राज्यसिंहासन रुदन कर रही है-
श्येनगृधादिभिर्लुच्यमानं भृशं
रोदिति व्याकुलं राज्यसिंहासनम्।
---- को रामभद्रायते।
अनुवाद कार्य-
1.सौन्दर्यलहरी- यह शंकराचार्य विरचित सौन्दर्यलहरी का हिन्दी में अनुवाद है।
2.अपराजितवधूमहाकाव्य- यह भी उनका अनुवाद कार्य है। अपराजितावधू आचार्य पूर्णचन्द्र शस्त्री प्रणित एक महाकाव्य है। पुष्पा दीक्षित ने अत्यन्त मनोयोग से इस महाकाव्य का हिन्दी में अनुवाद किया है।
इसके अतिरिक्त पुष्पा दीक्षित एक उच्च कोटि की शोधकर्त्री है। इनके शोध का मुख्य विषय पाणिनीय व्याकरण है। इनके शोध निर्देशन में लगभग 50 से अधिक शोधार्थियों को पीएच0 डी0 की उपाधि दी गई है। इन विविध कर्यों के अतिरिक्त अनेक शैक्षणिक चैनलों पर इनका कर्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अन्तर्गत कार्यरत consortium for education communication के व्यास चैनल पर इनके 50 से अधिक विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान प्रसारित हो चुके हैं।
सम्मान और उपाधि
1.संस्कृतात्मा सम्मान-सन् 2013 में संगमनेर महाविद्यालय की प्रबन्ध समिति ने आपके संस्कृत सेवा और वैदुष्य को संस्कृतात्मा सम्मान से सम्मानित किया।
2.राजकुमारी पटनायक सम्मान- यह सम्मान मध्यप्रदेश सरकार के द्वारा भारतीय भाषाओं के सम्बर्धन में योगदान करने वाले विद्वानों को दिया जाता है। संस्कृत भाषा की समृद्धि में आपके अप्रतिम योगदान को देखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 2004 में आपको इस सम्मान से सम्मानित किया।
3.छत्तीसगढ राज्य अलंकरण सम्मान- सन् 2007 में छत्तीसगढ़ सरकार ने आपके कार्यों के महत्त्व को समझते हुए आपको इस सम्मान से अलंकृत किया।
4.वाचस्पति उपाधि-भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय के अधीन कार्यरत श्रीलालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली ने सन् 2010 में आपके वैदुष्य को वाचस्पति की मानद उपाधि से विभूषित किया।
5.महामहोपाध्याय उपाधि- उत्तराखण्ड सरकार द्वारा स्थापित उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने सन् 2011 में आपको महामहोपाध्याय की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
6.वेद वेदाङ्ग सम्मान -सन् 2003 में भारत सरकार के द्वारा वेदविद्या के प्रचर-प्रसार के लिय स्थापित महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान उज्जैन, मध्यप्रदेश के द्वारा भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षामंत्री मुरली मनोहरा जोशी के करकमलों से आपको इस सम्मान से समलंकृत किया गया।
7.राष्ट्रपति सम्मान- भरत सरकार के द्वारा प्रतिवर्ष विविध क्लासिकल भषाओं के कतिपय विशिष्ट विद्वानों को उनकी उत्कृष्ट सेवा और कार्य के लिये सम्मानित किया जाता है। सन् 2004 में भारत के राष्ट्रपति महामहिम डा0 ए पी जे अब्दुल कलाम के द्वारा संस्कृत में निपुणता और शास्त्र में अगाध पाण्डित्य के लिए आपको इस सम्मान से सम्मानित किया गया।
समाज और संस्कृत सहित्य के विकास में पुष्पा दीक्षित का योगदान-इनके पिता संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् थे, अत: संस्कृत के प्रति इनका अनुराग बाल्यकाल से ही था। संस्कृत में ही शिक्षा-दीक्षा और संस्कृत का अध्यापन कार्य के साथ ही इन्होंने संस्कृत की समृद्धि के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इन्होंने शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिलासपुर में लगभग 39 वर्ष सेवा देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया। साथ ही महान विदुषी होने के बावजूद एक छोटे स्थान पर रहकर संस्कृत की समाराधना में सदा तत्पर रहीं। उन्होंने पदलोलुपता को अपने जीवन में कोई महत्त्व नहीं दिया और न ही कभी इसके लिये किसी प्रकार की रजनीतिक लामबन्दी की। उनके लिये उनकी संस्कृत भाषा सबकुछ है। संस्कृत भाषा की समृद्धि और उसका यथोचित प्रचार-प्रसार ही उनके लिये सर्वश्रेष्ठ पद और पुरस्कार है। यही उनके जीवन का लक्ष्य है।
उनकी संस्कृत रचनाओं का उल्लेख ऊपर किया गया है। ये रचनाएँ केवल शास्त्रों का पिष्टपेषन तथा बायोडाटा को समृद्ध और प्रभावोपादक बनाने के लिये नहीं हैं अपितु इनका सार्वकालिक महत्त्व है। इनको ग्रन्थागारों का रत्न कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने व्याकरण को वेद का मुख कहा है-वेदस्य षडांगानि तत्र मुखं व्याकरणं स्मृतम्। संस्कृत व्याकरण की परम्परा में महर्षि पाणिनि का सर्वोपरि स्थान है। वास्तविकता तो यह है कि महर्षि पाणिनि के काल से ही हमें संस्कृत का व्यवस्थित ग्रन्थ प्राप्त होता है। उनकी अष्टाध्यायी संस्कृतव्याकरण शास्त्र का प्रथम व्यवस्थित ग्रन्थ है। महर्षि कात्यायन,महर्षि पतंजलि, आचार्य भट्टोजि दीक्षित आदि परवर्ती मनीषा ने इसी अष्टाध्यायी को अपने व्याकरण अध्ययन का आधार बनाया और अपने ग्रन्थों में इसीके सूत्रों में अन्तर्निहित गूढ़ तथ्यों को विविध शैली में निरूपित किया। पुष्पा दीक्षित इसी परम्परा की विदुषी हैं। उन्होंने आधुनिक संदर्भ और आवश्यकता को समझते हुए महर्षि पाणिनि प्रणित अष्टाध्यायी का सहज रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और इस प्रयास में उन्हें पूर्ण सफलता भी मिली है। उन्होंने अष्टाध्यायी सहजबोध में व्याकरण सूत्रों को अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत किया है जिससे सस्कृत पढ़ने के जिज्ञासु आसानी से व्याकरण को समझ और पढ़ सकें।
उनकी संस्कृत कविताएँ अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं। सन् 1984 में प्रकाशित अग्निशिखा नामक गीतिकाव्य में इन्होंने नारी हृदय की मर्मान्तक वेदना और उसके निश्चल प्रेम का चित्रात्मक निरूपण किया है। राधा का श्रीकृष्ण विषयक नि:स्वार्थ प्रेम उनका आदर्श है। वे नारी के प्रेम को जाति, धर्म, रंग और रूप की सीमा से ऊपर ले जाती हैं। इस दृष्टि से अग्निशिखा का एक श्लोक विचारणीय है-
न वर्णैस्तद्वर्ण्यं प्रिय यदनुभूतं हृदि मया
क्षरत्वं गच्छेन्मेऽनव रतविलापेऽक्षरकुलम्।
विभिन्नै: शब्दार्थैर्विपुलविपुल: कोशनिकर:
क्षमो नो क्षन्ता वा विशकलितमेतत्कलयुतम्॥
‘मनोवेदना मे विरामं न याति’ कविता में कवयित्री ने वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उस पर खूब तंज कसा है-
त्रिलोकीं निगीर्यापि तुष्यन्ति नो ये तदीये करे लोक पोषस्य भार:।
अनाथा: प्रजा यद् रुदन्तीति दृष्ट्वा मनोवेदना मे विरामं न याति॥
कविता की दुर्दशा पर उनकी मनोवेदना अत्यन्त तीव्र हो जाती है। वे अपनी कविता ‘ब्रूहि कोऽस्मिन् युगे कालिदासायते’ में कहती हैं कि काव्य की रचना करने वाले कविगण अपने काव्य को जाकर समुद्र में फेंक दे। इस युग में काव्य की गरिमा को समझने वाला कोई राजा या प्रशासक नहीं है जो राजा भोज के समान कवियों को महत्त्व दे।
यान्तु विद्वद्ज्जना: काव्यकर्मक्षमा मज्जयन्त्वम्बुधौ स्वीयकाव्योच्चयम्।
नास्ति गोष्टीगरिष्ठोऽद्य राजा क्वचित् काव्यपानैर्नु यो भोजराजायते।
‘स्थालीपुलाकन्याय’ से यहाँ कुछ उदाहरणों से पुष्पा दीक्षित के वैदुष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। उनके काव्य और कविताएँ मर्मस्पर्शी हैं। उनकी रचनाओं में भाव और कला दोनों पक्ष देखने को मिलते हैं। स्त्री की दुर्दशा, उसके साथ हो रहे शोषण, बलात्कार, पाखण्ड, शिक्षा के गिरते स्तर, लोकतन्त्र के नाम पर हो रहे अत्याचार और दुराचार, जनता के साथ हो रहे छलावा आदि विविध विषयों पर लेखनी चलाने वाले लेखकों में पुष्पा दीक्षित अग्रगण्य हैं। कला पक्ष की दृष्टि से इनकी रचनाओं में विविध अलंकार एवं छन्द का प्रयोग दर्शनीय है।इनकी कविताओं में अनुप्रास की झंकार और उपमा की तलस्पर्शिता कविता के भाव को अन्तर्मन की गहराई तक ले जाती हैं। व्यंग्य तो इनकी कविता की जान है। इनकी प्रत्येक कविता किसी न किसी रूप में वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करती है। उनकी ये रचनाएँ उनकी संस्कृत साहित्य की समृद्धि में योगदान को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।
संस्कृत साहित्य के सम्बर्धन में उनका योगदान इतना ही नहीं है। उन्होंने इससे भी आगे बढ़कर वह कार्य किया है जो विरले ही करने की जज्बा रखते हैं। इन्होंने अपने घर पर पाणिनि व्याकरण के अध्यापन के लिये गुरुकुल की स्थापना की। उस गुरुकुल में प्रवेश पानेवाले सभी छात्रों के लिये बिना किसी भेदभाव के नि:शुल्क शिक्षा, नि:शुल्क आवास और नि:शुल्क भजन की व्यवस्था है। इस गुरुकुल में अध्यापन का कार्य स्वयं पुष्पा दीक्षित करती हैं। सभी छात्रों के लिये उनका व्यवहार मातृवत् होता है। विद्यार्थी उन्हें माता जी कहकर सम्बोधित करते हैं। यद्यपि मुझे इनके सान्निध्य में अध्ययन करने का सौभाग्य नहीं मिला है परन्तु इनसे पढ़कर व्याकरण में पारंगत हुए मेरे अनेक मित्र हैं। अतः मैं इस गुरुकुल के बारे में भलीभाँति जनता हूँ। मेरी माध्यमिक और स्नातक स्तरीय शिक्षा भी गुरुकुल प्रणाली से हुई है और मैं अनेक गुरुकुलों को जनता हूँ। भारत में इस तरह के अनेक गुरुकुल हैं जहाँ नि:शुल्क शिक्षा, भोजन और आवास की व्यवस्था है। परन्तु पुष्पा दीक्षित ने अपने गुरुकुल में छात्रों को जो व्यवस्था दी है वह अद्भुत् है। यहाँ से पढ़कर आये छात्रों का अनुभव बताता है कि यहाँ सदा आनन्द की अनुभूति होती है। यहाँ अध्यापन की पद्धति इतना वैज्ञानिक और सहज कि एक सामान्य विद्यार्थी भी बहुत कुछ सीख लेता है।
यहाँ न्यूज 18, छत्तिसगढ़ संस्करण में 27 मार्च 2020 में प्रकाशित पुष्पा दीक्षित के साक्षात्कार का एक अंश द्रष्टव्य है- 'अगर आप से कोई पूछे कि भारत के पास अपना ऐसा क्या है, जो सिर्फ भारत का है? टेक्नोलॉजी, मेडिकल सांइस, आर्ट सबकुछ तो विश्व के हर देश में हैं. फिर हमारा अपना क्या है...? हमारे पास अपना कुछ है तो सिर्फ शास्त्र, वेद, संस्कृति और संस्कृत...लेकिन दु:ख होता है कि इसकी चिंता करने वाले बिरले ही बचे हैं.' डॉ. पुष्पा दीक्षित ने बातचीत का सिलसिला शुरू होते ही सवाल दाग दिए. सवाल उसी अंदाज में जैसे स्कूल में कोई गुरुजी पूछता है और विद्यार्थियों के मौन रहने पर खुद ही जवाब दे देता है. 78 की उम्र में भी डॉ. पुष्पा में संस्कृत को लेकर जुनून और संस्कृत को बचाने चलाई जा रही उनकी मुहिम ही उन्हें दूसरों से अलग पहचान देती है.
उनके विषय में https://pushpadikshit.wordpress.com/about-pushpa-dikshit/ का कथन है-Smt. Dr. Pushpa Dikshit is an internationally renowned scholar, author, poet and exponent of Pāṇinīan Vyākaraṇam (Sanskrit grammar and linguistics). Known affectionately as Mātāji by her students, she is the founder of the Paushpi Prakriyā, entirely novel approach to understanding the essence of Pāṇini’s Aṣṭādhyāyī. Unsatisfied with the methodologies and structure of the Siddhānta Kaumudi and the Kāśikā, the most predominant texts of the time, Mātāji developed this innovative pedagogy for studying Sanskrit Grammar, making up for the deficiencies she saw in earlier methods. With Mātāji’s revolutionary contribution to the field of Sanskrit grammar, what once was a subject that took years, even decades, to gain mastery over, is now easily learnt in less than a year. The proof is in the pudding! Over the last 20 years Mātāji has taught thousands of students through her Pāṇini Shodh Sansthān in Bilaspur, Chattisgarh. Many of these students,some as young as eight or nine-years-old, have completed the entire prakriyā in less than six months.
संदर्भ ग्रन्थ
- कुमारी, मैत्रेयी. आधुनिक संस्कृत साहित्य. विद्यानिधि प्रकाशन. दिल्ली. 2017
- चौधरी, रजनी जोशी. विभिन्न कालों में नारी का योगदान. कनिष्का पब्लिशर्स. दिल्ली. 2017
- त्रिपाठी, राधावल्लभ. संस्कृत साहित्य: बीसवीं शताब्दी. राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान. दिल्ली. 1999
- पन्त, गिरीशचन्द्र. अर्वाचीन संस्कृत सहित्य संचयन. विद्यानिधि प्रकाशन. दिल्ली. 2008
- News 18, E. edition. March27, 2020