ज्ञानरंजन की कहानी का कथ्य विविधतापूर्ण एवं व्यापक है। युग जीवन की समस्याएं, चिंता एवं महत्वपूर्ण प्रश्नों को उन्होंने कहानी का विषय बनाया है। उनका चिंतन व्यापक एवं गंभीर है। समाज और परिवेश की लगभग प्रत्येक समस्याओं पर ज्ञानरंजन ने अपनी प्रखर दृष्टि डाली है। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने परिवेश से स्वयं को गहरे और गंभीर रूप से जोड़कर समस्याओं का रेखांकन किया हैं। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में स्वयं को जोड़कर परिवेश की विकृति एवं विसंगति को उजागर करने में ज्ञानरंजन ने महारथ हासिल किया है। युगीन बोध के अंतर्गत उन्होंने अपनी कहानियों में जो तथ्य उभार कर प्रस्तुत किये है उनमें आधुनिकता का बोध सर्वोपरी है।
ज्ञानरंजन की प्रायः सभी कहानियों में आधुनिकता का बोध दृष्टिगत होता है किन्तु उनकी एक कहानी ‘फेंस के इधर और उधर’ दो पड़ोसियों की कहानी हैं तथा दोनों के जीवन जीने की दृष्टि, आचार व्यवहार सब कुछ भिन्न है। एक परिवार पारंपरिक जीवन-शैली को जीता है तो दूसरा आधुनिकता पूर्ण जिंदगी जीता है। उस आधुनिकता पूर्ण जीवन को न पाकर पारंपरिक जीवन जीने वाला परिवार पड़ोसी की आधुनिकता की निंदा करता है। विवाहोपरांत बिदाई के समय लड़की के न रोने की बात से लेखक की मां को आश्चर्य होता है- अम्मा मुझसे लड़की के न रोने पर आश्चर्य प्रकट कर रही है। उनके अनुसार यह पढ़-लिख जाने के कारण एक कठोर लड़की है जिसे अपने मां-बाप से सच्ची मोह-ममता नहीं है। “आजकल सभी ऐसे होते हैं। पेट काटकर जिन्हें पालो-पोसो उन्हीं की आँखों में दो बूंद आंसू नहीं।” [1] इस तरह कहानी में पुरातन एवं आधुनिक विचारधाराओं से समाज के संक्रमणकालीन मनोभावों और संस्कारों का चित्र प्रस्तुत होता है।
संबंधों का खोखलापन, परिवारों के टूटने की वर्तमान स्थितियों का साक्षात्कार ‘पिता’, ‘शेष होते हुए’, ‘कलह’, ‘सम्बन्ध’ आदि कहानियों से होता है जो आधुनिक स्वार्थपरता एवं अनैतिकता को दर्शाता है। ‘शेष होते हुए’ कहानी में आधुनिकता से ग्रसित संयुक्त परिवार अपनी स्वार्थपरता के कारण टूटता दिखायी देता है। यहाँ परिवार का प्रत्येक सदस्य एक अलगाव में ही जीता है- “मंझले ने देखा, एक ही घर में कई घर हो गए हैं। हर व्यक्ति के कमरे एक दूसरे से अलग। एक स्वंतत्र और पृष्ट क्रमांकथकता ज्ञापित करनेवाला स्वभाव है। निजी व्यवस्था की प्रवृत्ति कुछ लोगों में छोटे पैमाने पर अन्दर-ही-अन्दर प्रयत्नशील है।” [2]
इस प्रकार ज्ञानरंजन की कहानियों मे आधुनिकता का बोध बखूबी प्राप्त होता है। प्रत्येक कहानी आधुनिकता के सागर में गोते लगाती एक ही संदेश दे रही है कि जीवन मूल्य अब बिल्कुल बदल गये है।
महानगरीय बोध :
ज्ञानरंजन की कहानियों में नागरीय बोध का भी चित्रण मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में महानगरों का चित्रण नहीं किया अपितु नगरों में जो कुछ भी हो रहा है उसका जिक्र अपनी रचनाओं में करते हुए उन्होंने उन्ही सारी बातों को दुहराया है जो अन्य कहानीकार प्रायः किया करते है। ‘खलनायिका और बारूद के फूल’ कहानी में हमें मामूली महानगरीय बोध होता है जब कहानी का नायक दिल्ली से लौटते वक्त सुमन के पिता ‘वर्माजी’ से आकर मिलता है तथा सुमन और उसका प्रेमी चांदनी रात में ताजमहल देखने जाते हैं। शेष सभी कहानियों में नागरीय बोध का ही आभास होता है।
निजी पीड़ा, पराजय, ऊब, हताशा, निराशा, कुंठा, संत्रास, आत्महत्या, भीड़ में अकेलापन, पारिवारिक विघटन, प्रेम और यौन संबंधो का खोखलापन और सक्रांतकाल में स्वयं का सामंजस्य न बिठाते हुए युवावर्ग की मानसिकता कहानीकार का समस्त बोध है जो नागरीय या शहरी जीवन में चल रहा है।
स्पष्ट है कि ज्ञानरंजन का लक्ष्य महानगरीय चित्रण की ओर न जाकर ईमानदारी के साथ सामाजिक एवं पारिवारिक संदर्भो को रेखांकित करना ही है जिसे उन्होंने बखूबी निर्वाहित किया है।
ग्रामीण एवं सौदर्य बोध :
नगरीय एवं महानगरीय जीवन की कहानी की पृष्ट क्रमांकभूमि वर्तमान समय में आम बात हो गई है। नये दौर में और उसके बाद भी ग्रामीण जीवन परिवेश कहानी का विषय बना। हालांकि यह सत्य हैं कि प्रेमचंद और रेणु की प्रतिभा की तुलना में ऐसा कोई सशक्त कथाकार कहानी में नहीं आया किन्तु यह भी सत्य है कि प्रेमचंद से लेकर वर्तमान समय तक अनेक परिवर्तन हुए है। प्राचीन कालीन गांव और आधुनिक गांवों में पर्याप्त अंतर आ गया है। प्रेमचंद की कहानी का ‘मंहतो’ आज के गांव का मजदूर है। अब बैलों की जगह ट्रक्टर ने ले ली हैं। इन परिवर्तित परिस्थितियों को जिन कहानीकारों ने अपनी कहानियों में स्थान दिया है उनमें शिवप्रसाद सिंह, भैरवप्रसाद गुप्त, विवेकीराय, चन्द्रप्रकाश पाण्डेय, प्रभु जोशी, असगर बसाहत, पुष्पपाल सिंह, मिथिलेश्वर, जगवीर सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय है।
ज्ञानरंजन की कहानी- ‘चुप्पियाँ’ - में गांव का जिक्र हुआ है। इस कहानी में एक तरफा प्रेम रेखांकित हुआ है। कहानी का पात्र करन शहर के किसी दफ्तर में बाबू है। वह शहर से गांव अपने घर आता है तो उसे मिन्नों - कहानी की नायिका दिखायी देती है। उसके प्रति वह आकर्षित होता है पर मिन्नों उससे खिंची - खिंची सी रहती है। उसकी संस्कारगत खामोशी करन को हैरान करती है। यहां तक कि जब वह वापस शहर जाने के लिए घर से निकलता है तब भी मिन्नों उससे कुछ नहीं बोलती। करन हैरान सा चुपचाप चल देता है। इस तरह इस एकांगी प्रेमकथा में गांव का जिक्र हुआ है। कोई समस्या नहीं रखी गयी है।
‘अमरूद का पेड़’ कहानी में अन्धविश्वास का वृत्तचित्र है। इसमें गांव की चर्चा न होकर बध्दमूल संस्कार एवं आधुनिक बुध्दिवाद में टकराव है अतएव ग्रामीण आभास सा होता है।
कुल मिलाकर यदि कहा जाए कि ज्ञानरंजन ने अपने साहित्य में ग्रामीण परिवेश को कम ही रेखांकित किया है।
सौंदर्यबोध के प्रति ज्ञानरंजन उतने अधिक सजग नहीं है जितने कि समकालीन कथाकार मालती जोशी, मंजुल भगत, मेहरून्निसा परवेज, ममता कालिया, दूधनाथ सिंह आदि। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि उनकी कहानियों में सौंदर्यबोध का आभास ही नहीं। उनकी कहानियों का बहुधा संसार शिक्षित समष्टि के हिस्से में आता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि व्यापक एवं विशाल जन समष्टि की तुलना में शिक्षित समष्टि जगत छोटा है किन्तु रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि यह जगत विस्तृत सामाजिक अनुभवों के मध्य अपनी विशेष अहमियत रखता है। उनकी कहानियों में से उभरता हुआ शिक्षितजन की संस्कृति का चेहरा और मध्यवर्गीय समाज का चेहरा दोनों एक हल्की हैसियत के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत किये गये है जो कहानीकार के भावात्मक सौंदर्य का बोध करा देते हैं। उनकी कुछ कहानियों की भाषा तल्ख और व्यंगपूर्ण होने के कारण बौध्दिक सौंदर्य का बोध कराती है। जैसे “बताओं, प्रेमिका की बच्ची क्या तुम मुझे गोली से उड़ा सकती हो?” [3]
“मैंने सोचा, उन पचास रूपयों में जो हरामजादी वेश्या ले चुकी हैं, इस खलासी की पतलूने बन जातीं।” [4]
“ग्लानि और गुस्से का अजीब कॉकटेल दिमाग बना हुआ था।” [5]
इसके अतिरिक्त नगरों एवं शहरों का चित्रण भी ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियों में बखूबी किया है मसलन- “हमारे मकान के एक तरफ सरकारी दफ्तर है और ऊंची ईटों की दीवार भी। पीछे दो मंजिली इमारत के फ्लैटस् का पिछवाड़ा है और सामने मुख्य सड़क। इस प्रकार हमारे परिवार को किसी दूसरे परिवार की प्रतिक्षण निकटता अब उपलब्ध नहीं है। बड़े शहरों में एक दूसरे से ताल्लुक न रख, अपने में ही जीने की जो विशेषता देखने को मिलती है, कुछ इन्हीं विशेषताओं और संस्कारों के लोग हमारे नए पड़ोसी लगते हैं। यह शहर और मुहल्ला दोनों शांत है।” [6] नगरों एवं शहरों में सौंदर्य प्रकृति जन्य न होकर कृत्रिम होता है किन्तु ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियों में प्रकृतिजन्य सौंदर्य को भी स्थान दिया है। यथा- “गलगल चिड़ियों का एक झुंड तैरता हुआ आया और पुदीने की क्यारी के पास बैठ चिचिया रहा है। मां झाडू से उन्हें हाँकने लगती हैं। चिड़ियाँ थोड़ा फासला छोड़ उड़कर आगे बैठ जाती है। ये भूरी चिड़ियाँ शोख और खूब शोर करने वाली हैं। मां उन्हें उड़ाने को बेताब और परेशान है।” [7] कहानीकार की सूक्ष्म दृष्टि शहरी एवं ग्रामीण प्रकृति सौंदर्य के मिश्रित रूपो पर भी जा टिकी है यथा- “ज्यादातर, यह मेरा स्वभाव है, मैं सड़क, भीड़, बगीचे, चायघर, दुकान, घर या इमारत आदि सभी जगहों में अपनी दृष्टि को एक छोटे से इर्द-गिर्द में रखता हूँ। लेकिन आज मेरी आँख लापरवाह और भटकती हुई थी। मैं दरख्तों की चोटियाँ देखता रहा और घूमती हुई सर्चलाइट के तरीके से आकाश। मुझे अनगिनत फूलों के नाम, संगीत की बंदिशों, मशहूर नायिकाओं के चित्रों और न जाने किन-किन चीजों की याद आती रही।” [8]
कहानी संग्रह ‘सपना नहीं’ की अनेक कहानियाँ भाषाई निर्ममता का अविष्कार करती वे कहानियां है जो अनुभव के आधार पर चलती हुई अंत में सामाजिक पक्षधर बन जाती है। मार्क्सवादी विचारधाराओं के दायरे में रचित ये कहानियां केवल सामाजिक उहा-पोह में फंसकर रह गयी है। इनमें परिवार एवं समाज पर विचार करने का कहानीकार को अवसर प्राप्त नहीं हुआ अतएव सौंदर्य चित्रण जहां कहीं भी हमें दृष्टिगत होता हैं वह केवल कहानी के कथ्य को प्रोत्साहित करने मात्र के लिए है। अतएव साद्देश्य सौंदर्य चित्रण का अभाव सहज स्वाभाविक है। स्वयं ज्ञानरंजन ने स्वीकार किया है- “मेरे लिये साहित्य जिंदगी से बड़ा प्रश्न नहीं हैं। साहित्य के प्रति लोभ होना आदमी को बेईमान और समाज के प्रति एण्टी बना सकता है, जो मुझे प्रिय नहीं है।” [9]
युगबोध के प्रति दायित्व भावना एवं स्वरूप:-
प्रत्येक कहानीकार अपनी रचनाओं में अपने काल की उन समस्त परिस्थितियों की चर्चा करता हैं जिससे तत्कालीन समाज जूझ रहा है और उन समस्याओं से निजाद पाने के लिए संघर्षरत है। सन् ६० के बाद लिखी गई कहानियों में तत्कालीन कहानीकारों ने उन सभी ज्वलंत समस्याओं को रेखांकित किया है जिससे जूझता सामाजिक एवं पारिबारिक संबंध बिघटन की कगार पर था।
निम्न मध्यवर्ग के कुचक में फंसे जीवन की विद्रूपता ही ज्ञानरंजन की कहानियों का मूल कथ्य है। उनकी कहानियों से स्पष्ट होता है कि युगीन दायित्व का निर्वाह करने हेतु ज्ञानरंजन कृत संकल्प है। उनकी कहानियों का स्वरूप अलग-अलग संदर्भो से संलग्न हृदय की गहराईयों को स्पर्श करने का प्रयत्न करता है। ‘अनुभव’, ‘रचना-प्रक्रियां’, ‘घंटा’, ‘मनहूस बंगला’ आदि कहानियों में चिंतन की मौलिकता है तो ‘फेंस के इधर और उधर’ कहानी में आधुनिक एवं प्राचीन कालीन प्रथाओं के मध्य विरोधाभास हैं। ‘अनुभव’ में तो लेखक साफ-साफ महसूस कर रहा है कि- “थू है तुम्हारी जिंदगी को, तुम पत्थर हो गये हो। ये देखो, ये असली शहर है, असली हिन्दुस्तान, इनके लिए तुम्हारा दिल हमेशा क्यों नहीं रोता है?” [10] इस तरह निजी पीड़ा, पराजय, ऊब, हताशा, आत्महत्या, निराशा’ भीड़ में अकेलापन, परिवार विघटन, प्रेम और यौन संबंधो का मुर्दा हो जाना और संक्रातकाल में मिसफिट होते हुए युवा वर्ग की मानसिकता ज्ञानरंजन की कहानियों का मूल बोध हैं।
दायित्व बोध की तीव्रता:
ज्ञानरंजन में दायित्व बोध की भावना प्रखर रूप से पायी जाती है। उनकी कहानियाँ पारिवारिक संबंधो को भी रेखांकित करती है। पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व बोध उनकी कहानियों का मूल आधार है। ज्ञानरंजन की प्रांरभिक कहानियों में दायित्व बोध की भावना कम ही रही है। इन कहानियों का केन्द्रीय पात्र यही इच्छा रखता है कि पुराने आत्मियतापूर्ण क्षण सतत सुरक्षित रहे अथवा रूमानी भावस्थिति दृष्टिगत होती है। इन कहानियों में एक सामान्य असंतुष्टि एवं कटुता के भाव अभिव्यकट हुये हैं। आलोचक आनंद प्रकाश ने प्रारंभिक कहानियों पर टिप्पणी करते हुये कहा है- “प्रारम्भ में ज्ञानरंजन के सामने इस असंतोष और कटुता के पीछे काम करने वाले वृहत्तर तत्वों का रूप स्पष्ट नहीं था। लेकिन लगातार लेखकीय विश्लेषण का उपयोग करते हुये धीरे धीरे उन्होने वह क्षमता अर्जित कर ली जो समाज के सकारात्मक और निषेधात्मक पक्षों के बीच की सीमा रेखा को किंचित पहचनती हैं और इस पहचान के बल पर सार्थक जनवादी लेखक की दिशा मे अग्रसर होती है ।“ [11]
ज्ञानरंजन की बाद की कहानियों में सामाजिक दायित्व का बोध दृष्टिगत होता है। उन्होने अपनी बाद की कहानियों मेँ मध्यमवर्गीय पात्रों की आत्मछल और अनावश्यक सम्मोहन पर व्यंग किया है जिससे समाज का व्यक्ति आत्म प्रवंचना से बच सके। अनावश्यक मोह या सम्मोहन मानुषी को उस राह का पथिक बना देता है जहाँ विनाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता- “पीड़ा, हार, थकान, उदासी और व्यथा को न सह पाने के कारण उसकी दयनीयता और हताशा चेहेरे पर साफ नजर अति है थी। यंत्रणा मे उसकी आकृति डूबी हुयी थी, क्योंकि इस बड़े संसार से अधिक उसे एक छोटी सी दुनिया से बिछुड्ने का गम था।“ [12]
इस तरह ज्ञानरंजन की प्रारम्भिक कहानियों में जो असावधानी और अनावश्यक बिखराव मिलता है वह बाद की कहानियों में नहीं है। विवाहित और अविवाहित युवक और युवतियाँ, पत्नी अथवा प्रेमिका के पारस्परिक संबंध बाद की कहानियों के कथ्य बने। इन सम्बन्धों के माध्यम से लेखक ने मध्यमवर्गीय संस्कृति और व्यवहार प्रक्रिया को उनके विशिष्ट रूप में प्रस्तुत करके सामाजिक बोध का परिचय दिया है। उनकी कहानियों के पात्र विशेषकर युवा-पत्र दुविधाग्रस्त मध्यवर्गीय युवकों का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम सिद्ध हुये हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विकसवाड़ी अर्थनीति के संदर्भ में युवा-वर्ग ज्ञानरंजन की कहानियों से प्रेरणा प्राप्त कर पूंजीवादी प्रणाली के संकट से सामना करने के लिए स्वयं को तैयार करने में जुट गए। इसका परिणाम यह निकला कि आज का युवा वर्ग पूंजीवादी परंपरा के चक्कर में न पड़कर अपने पुरुषार्थ एवं श्रम पर विश्वास करने में सफल हो रहा है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है की युवा वर्ग ज्ञानरंजन की कहानियों के युवा पात्रों से प्रेरणा प्राप्त कर आत्मलोचन कर सकने की स्थिति में आ चुका है जिसके कारण नकारात्मकता के भाव लुप्त होते जा रहें हैं तथा वह दंभ, मोह और आत्मछल जैसे विकारों से बचने का प्रयत्न कर रहा है। ‘घंटा’ कहानी में ज्ञानरंजन ने युवकों के प्रति अपनी अच्छी खासी सद्भावना व्यक्त की है। उन्होंने युवकों में जागृति लाने का प्रयत्न किया है। वह कहते हैं- “हमारी नागरिकता एक दुबले हाड़ की तरह किसी प्रकार बची हुई है। उखड़े होने के कारण लग सकता था, समय के साथ सबसे अधिक हम हैं लेकिन हकीकत यह है कि बैठे-बैठे हम आपस में ही फुफकार लेते हैं, हिलते नहीं हैं। हमारे शरीर में लोथड़ों जैसी शांति भर गई हैं। नशे की वजह कभी-कभार थोड़ा बहुत गुस्सा आ जाता हैं और आपसी चिल्लपों के बाद ऊपर आसमान में गुम हो जाता हैं। इस नशे की स्थिति में कभी ऐसा भी लगता है, कि हम सजग हो गए हैं।” [13] कहानीकार ने इस तरह के कठोर शब्दों से उन युवकों को जागृत करने का प्रयत्न किया है जो समाज और देश में अपना जीवन व्यर्थ ही बिता रहे हैं।
कहानीकार ज्ञानरंजन की दायित्व बोध भावना प्रखर रूप में उभरकर हमारे सामने आयी है। युवकों में व्याप्त बेबसी, लाचारी चापलूसी और जीहुजुरी उन्हें पसंद नहीं। वह युवकों में वह ताजगी और मर्दानगी का जोश भरना चाहते है जिससे एक सशक्त समाज की रचना हो सके। समाज में पनपने वाली आत्महिनता एवं आत्मप्रवंचना दूर होकर एक परिश्रमी एवं आत्मविश्वासी समाज की स्थापना हो सके। अपनी कहानी ‘घंटा’ में लेखकों से भी कहानीकार का आग्रह है कि वे चापलूसी छोड़कर सत्य एवं निर्भीकता को अंगीकार करें जिससे समाज सभ्य बनकर सारी बुराईयों का सामना कर सके। वह कहते हैं- “ये सब मध्यमवर्गीय लेखक थे, जिसका खाते उसका बजाते भी खूब थे। जहाँ से आदमी की पूंछ झड़ गयी हैं, इन लोगों के उस स्थान में, कुंदन सरकार को देखते ही खुजली और अहोभाग्यपूर्ण ‘गुदगुद’ होने लगता था।” [14] ज्ञानरंजन के इस कथन से निःसंदेह बुद्धिजीवी वर्ग एवं लेखक वर्ग को प्रेरणा मिलेगी तथा सत्य का प्रसार होगा।
ज्ञानरंजन ने अपनी कहानी में ऐसे युवकों की भी प्रशंसा की है। वह कहते हैं- “ ‘पेट्रोला’ के साथियों में अधिकांश ऐसे थे जो कुंदन सरकार सरीखे आदमियों को अपने अमुक प्रदेश पर रखते थे। वे लोग पूरी तरह मुड़े हुए थे। केवल मै ही था, अटका हुआ, मान-अपमान, ओहदे पैसे और देश-समाज से विचलित होने वाला।” [15]
ज्ञानरंजन की एक अन्य कहानी ‘बहिर्गमन’ में कटुता और आवेग भरा हुआ है जिसके पीछे शासकीय संस्कृति के विश्लेषण की मात्रा अत्याधिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानरंजन ने पहली बार आकाश को सही परिप्रेक्ष्य दिया है। ‘घंटा’ कहानी में भी ऐसा ही सही परिप्रेक्ष्य है किन्तु वह उतना स्पष्ट नहीं हो सका है जितना ‘बहिर्गमन’ में हुआ हैं। इस कहानी में लेखक एक ही संस्कृति के दो भिन्न स्वरूपों को प्रस्तुत कर युवकों को सामाजिक सीमाओं से परिचित करता है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ज्ञानरंजन में अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की पूर्ण क्षमता है।
ज्ञानरंजन की कहानियों में युग बोध सार्थकता की कसौटी पर :-
नयी यथार्थवादी दृष्टि ज्ञानरंजन की कहानीयों का मूल आधार है। जीवन के प्रति तीखी और आलोचनात्मक दृष्टि रखनेवाले ज्ञानरंजन ने बड़ी कठोरता के साथ मानवीय संबंधो की छान-बीन की है। इस छानबीन में व्यक्ति के अंदर छिपे चोर को उन्होंने पकड़ा और समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हुए बिना कोई उपदेश दिये वह सब कुछ समाज को दिया जिससे समाज का युवा वर्ग सजग होकर अपना सार्थक जीवन व्यतीत कर सके।
ज्ञानरंजन ने जीवन को बहुत करीब से देखा है। जीवन में पनप रहे अयथार्थवादी भाव और विचारों को समझने में उन्होंने अपना वक्त जाया किया है। इस कारण ही स्त्री-पुरुष प्रेम, दाम्पत्य संबंध एवं पारिवारिक संबंधो में उत्पन्न होनेवाली कड़वाहट को बेनकाब करने में वह कामयाब हुए है। उन्होंने संबंधों की विडंबनाओं और स्थितियों को जिस तल्खी के साथ देखा है वह सचमुच ही विचारणीय है।
भारतीय एवं मध्यमवर्गीय परिवार अनेकानेक रूढ़ियों एवं रूमानी हरकतों से भरा हुआ है। जिनका विरोध ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया है। उनकी कहानियों में जो वैज्ञानिकता दिखायी देती है वह नैतिक परिवर्तन की मांग को व्यक्त करती हैं। परिवर्तन के मार्ग में आनेवाले प्रत्येक रोढ़े को हटाकर जड़ता के स्थान पर नूतन अनुबंधो के माध्यम से समाज को जीवन की ताजी फुहार एवं बहार देने के पक्षधर ज्ञानरंजन ने कबीर की भांति कठोर मुद्रा धारण किया है। उनकी कहानियों में अभिव्यजित जड़ता कहीं रूढ़ी और अंधविश्वास की तो कहीं बिना वजह से चिपके रहने और नवीनता को अंगीकार न करने की अहं की जड़ता है। इसका सुंदर उदाहरण 'पिता' कहानी है जो जीवन की अनिवार्य वैज्ञानिक सुविधाओं से भी नफरत करते है। भीषण गर्मी में भी पंखे का तिरस्कार कर बाहर रुखी खाट पर सोते है। वाश बेसिन में मुंह न धोना, गुसलखाने में स्नान न करना, जीवनभर गीता और रामायण का अध्ययन करते रहना आदि प्राचीन बातें एवं मान्यता है जो बदलाव का कारण बनी हुई है।
‘अमरूद का पेड़’ कहानी में नयी और पुरानी दो दृष्टियों को पाठकों के समक्ष रखा गया है। इसमें इन दोनों दृष्टियों का द्वंद स्पष्ट होता है। इस कहानी में अंधविश्वासों का शिकार एक पीढ़ी है जो नयी पीढ़ी के विकासवादी भावों एवं विचारों पर प्रहार करती हैं। ज्ञानरंजन ने कहा है- “यह बात उतनी बुरी नहीं थी कि अमरूद के पेड़ को काटकर उसकी जगह एक ओर गुलदाऊदी और दूसरी ओर केले की क्यारियां बना ली गई हैं बल्कि चुनौती इस बात की थी कि हम लोगों मे जब धीरे-धीरे जिंदगी की बुलंदी विकसित हो रही थी तभी माँ को रुढ़ि और अशुभ के मिथ्या भय ने पराजित कर दिया।” [16]
कहानी के अंत में अमरूद के पेड़ की जड़ में धूप का एक बड़ा होता चकता आशावाद का संकेत देता है- यथा- “ -----और जहाँ अमरूद की जड़ थी वहाँ धूप का एक चकता तेजी से बड़ा होता दीख पड़ा।” [17]
‘चुप्पियाँ’, ‘मनहूस बंगला’ व ‘गोपनीयता’ कहानियाँ नैतिक जड़ता को उजागर करती हैं। इस जड़ता से मानसिक अवरोध पैदा होता है तथा व्यक्ति के संबंध असहज होते है और वह घुटन महसूस करता है। एक दूसरे से कहने और सुनने को उत्सुक, ‘चुप्पियाँ’ कहानी के पात्र मिन्नो और करन, संकोच, संशय और हिचक के कारण चुप रहते है। ‘मनहूस बंगला’ कहानी में लेखक महसूस करता है कि- “जरूर इस परिवार में कोई दुर्घटना है और वह वैसी ही है जैसे दीमक द्वारा कविताओं को चाटने तथा घुन से गेंहू के घुनने के तरीकों में होती रहती है।” [18] एक संकीर्ण नैतिकता के कारण ही बंगला मनहूस है। ‘गोपनीयता’ शीर्षक कहानी में एक ऐसी ही नैतिक दुर्घटना परिवार के बच्चों को उनकी दादी, पापा और मां से मिलने वाली आत्मीयता और स्नेह से महरूम कर देती है। बड़ो की जिद परिवार मे स्वच्छ एवं खुले वातावरण के लिए अवरोध है।
'अनुभव', 'घंटा' एवं 'बहिर्गमन' कहानियों का आधार भी लगभग वैसा ही है। ये तीनों कहानियां वास्तविक स्त्रोत से टूटने, अनुभव और सत्य जगत से विरक्त होने के प्रयत्न पर व्यंग्य करती है। ‘घंटा’ कहानी में भी कहानी का नायक ‘पेट्रोला’ से बाहर जाता है अर्थात अपनी वास्तविकता से बाहर जाता है और कुंदन सरकार का घंटा बनता है। यह कहानी कुंदन सरकार की शराब और सुंदरी पर केन्द्रित घृणित दुनिया का परिचय देती है। ‘बहिर्गमन’ कहानी में मनोहर का बहिर्गमन दर्शाया गया है। वह अपनी वास्तविक दुनिया से बाहर जाता है जिसका कारण अहमन्यता की तृप्ति है जिसके लोभ में आकर्षित होकर एक अज्ञात दुनिया के प्रति चमत्कृत होता है। 'अनुभव' कहानी में लगाव के टूटने की चर्चा की गई है। वह लगाव का टूटना 'यात्रा', 'सम्बन्ध' आदि कहानियों में बहुत स्पष्ट है।
वर्तमान समय में हमारे सामने लगाव के टूटने की एक बहुत बड़ी समस्या है। हर उंचे समाज का आदमी, हर बड़े शहर का आदमी अपने दिल में लगाव के टूटने की आवाज सुन रहा है, समझ रहा है और 'अनुभव' कहानी के मुख्य पात्र की तरह सोच रहा है- “अगर मैं दर्शक हूँ तो मुझे जल में कमल जैसा होना है। सारी तकलीफ यह है कि मैं अपने को गणेश और मोईत्रा से जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। जुड़ोगे तो भागोंगे। लोगों को पहचानने में व्यर्थ वक्त जाया न करों। केवल अपना काम करो।” [19]
‘सम्बन्ध’ कहानी में भाई की मृत्यु या आत्महत्या जैसी दुर्घटना की सम्भावना नायक को विचलित नहीं करती। वह खुद महसूस करता है कि मां के प्रति उसके भाव बदल गये है। भाई के प्रति भावात्मक स्नेह समाप्त हो गया है। वह सोचता है- “एक लम्बे समय तक जो स्त्री मेरे लिए केवल मां थी अब कभी-कभी ही माँ लगती है या मां का भ्रम। बल्कि कभी-कभी अब ऐसा हो जाता है, न चाहते हुए भी कि जबड़े दब गये हैं और अन्दर से एक-दो शब्द हिचकिचाती हुई खामोशी के साथ निकल जाते है, ‘यू वूमैन’ (ध्वनिः गेट आऊट फ्रॉम माई लाईफ)। ‘यू-वूमैन’ के उच्चारण में तीखा कटा-फिटा ग्राफ भी बनता होगा। फिर भी मुझे इसका अफसोस नहीं होता क्योंकि यह बात अब बहुत ठंडी हो गयी है।” [20]
यहाँ मानवीय सम्बधों का टूटना और कूरमानवता का जन्म लेना वर्तमान की कठोर एवं भयानकतम सच्चाइयों में से एक है जिसे ज्ञानरंजन ने यथार्थ की कसौटीपर परखकर मानव समाज के समक्ष रखा है। आज जो सारे सम्बन्ध टूट कर चूर-चूर हो रहे हैं उन संबंधो के पवित्र भाव कभी हमारे मन में थे किन्तु अफसोस कि महज क्षुद्र स्वार्थ एवं हीन भावनाओं ने पवित्रता को समाप्त कर दिया। मां, पिता, भाई, पति, पुत्र-पुत्री सब अब दूर के रिश्ते लगते है और मनुष्य केवल धनलिप्सा, ऐशो-आराम एवं स्वांतःसुखाय की कामना से ग्रसित हो उल्टा-सीधा, भला-बुरा सब कुछ करने को तैयार बैठा है।
आधुनिक युग में मानव में व्याप्त कमीनेपन के यथार्थ को ज्ञानरंजन ने अपनी जिन कहानियों में उतारा है वे कहानियाँ है- ‘खलनायिका और बारूद के फूल’ , ‘दिलचस्पी’ तथा ‘दिवास्वप्नी’।
अपने प्रेम के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए कृतसंकल्प सुमन यथार्थ के एक हल्के से झटके से अपना इरादा बदल लेती है और अन्यत्र विवाह करने के लिए तैयार हो जाती है। एक खलनायिका की तरह अपनी छोटी बहन सरोज के प्रेम संबंध को तोड़ना चाहती है। सुमन का कमीनापन इन पंक्तियों में रेखांकित हुआ है- “उसने बताया छोटी बहन सरोज भी आजकल एक लड़के से प्रेम करने लगी है, जो राजपूत कॉलेज में पढ़ता है। बाबूजी उसकी वजह से बड़े परेशान और चिंतित है। इन्हीं विषम परिस्थितियों से मजबूर होकर मैंने उनकी मर्जी का विवाह स्वीकार कर लिया है और जिंदगी भर भुगतूंगी। लेकिन यह सरोज पता नहीं क्यों, प्यार का लड़कपन कर बैठी है। तुम्ही बताओं, सच्चाप्रेम हो आत्मा का, हमारा-तुम्हारा जैसा तो काई बात भी है। मै तो उस मरी को जरूर सबक दूंगी। मुझे लड़कपन पसंद नहीं।” [21] सुमन की नजरों में प्रेम करके विवाह करना अनुचित सा है तभी वह सरोज को ‘जरूर सबक दूंगी’ तथा ‘मुझे-लड़कपन पसंद नहीं है’। कह कर अपने मन का कमीनापन जाहिर करती है और वहीं एकान्त पाकर कथानायक को “कई तप्त चुम्बन दिए” [22] यही नहीं अपने वैवाहिक जीवन में कोई बाधा खड़ी न हो इस बात को भांपकर वह नायक के पैरों पर गिर पड़ती है तथा पुराने प्रेम पत्र वापस मांगने का अनुनय विनय करती है- “मेरे पांव पकड़कर मुझसे कहा कि मैं उसके सभी प्रेम-पत्र वापस कर दूं या जला दूं।” [23] यही नहीं अपने कुंवारेपन में शारीरिक सुख का आंनद लेनेवाली सुमन अपने प्रेमी के मन पर बसे स्वयं के नाम को भी मिटाने का प्रयत्न करती हैं तभी तो वह उससे चेतावनी भरे शब्दों में कहती है- “और देखो, मुझे किसी कहानी-वहानी में अब चित्रित मत करना, मेरी शादी होने वाली है, नाहक क्यों किसी को शक हो।” [24]
‘दिलचस्पी’ कहानी की लड़कियाँ वंदना, नमिता आदि काल्पनिक बातों में जी रही है। पहाड़, राइडिंग, गिटार, स्केटिंग, डांस एवं टिवस्ट उनका शौक है। ये स्वप्नों में जीने वाली लड़कियाँ जीवन की वास्तविकताओं से बहुत दूर है। ‘दिवास्वप्नी’ का नायक भी यथार्थ के जीवन से दूर स्वप्नों में जीवन जीनेवाला भावुक प्रेमी है। इन कहानियों में कथाकार ने भावुक स्वप्निल प्रेम को यथार्थ की तीक्ष्ण आँखों से देखने का प्रयत्न किया है। ‘हास्यरस’ और ‘दाम्पत्य’ आदि कहानियों का भी यही आधार है जो स्त्री-पुरुष के प्रेम विवाह और दाम्पत्य संम्बधो की छान-बीन अत्याधिक करता है। ज्ञानरंजन की ये कहानियाँ पति-पत्नी के पवित्र रिश्तों को भी नंगा करके यथार्थ बयांबाजी करती है।
इस तरह ज्ञानरंजन ने संबंधों के मिथ्या बंधनों को निर्ममता से तोड़कर यथार्थ को प्रस्तुत किया है जो उनके युगबोध की सार्थकता को दर्शाते है। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के शब्दों में- “उनकी (ज्ञानरंजन की) प्रायः सभी कहानियां परिवार को केन्द्र में रखकर उसके रिश्तों और उसकी समस्याओं को लेकर लिखी गयी हैं। इसमें भी परिवार का नैतिक आयाम प्रमुख है। परिवार के रिश्तों एवं कुठांओ को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से कहानीकार ने देखा है। कहानियों में किसी तरह का चमत्कार या नहीं है। बल्कि फार्मूलो को तोड़कर एक तार्किक अनुभव की जमीन देने की कोशिश की गयी है।” [25]
ज्ञानरंजन की कहानियाँ एक नये भाव बोध की कहानियां हैं। उनकी कहानियाँ काल्पनिक या रूमानी नहीं हैं। ज्ञानरंजन ने समाज के यथार्थ को निकटता से देखा और सामाजिक बुराईयों पर तीखा प्रहार किया है। वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों ही प्रकार की कहानियों का चित्रांकन करके ज्ञानरंजन ने समाज में पल-बढ़ रहे युवावर्ग को एक सही दिशा दी है।
ज्ञानरंजन को सामाजिक बोध था। उनके लिए समाज से बड़ा कुछ भी नहीं। मार्क्सवाद से प्रभावित होने के बाद भी उन्होंने मार्क्सवाद के जटिल नियमों को न अपनाकर भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए विवेकानुकूल कहानियों की संरचना की। उनकी कहानियों में सांस्कृतिक बोध इसी बात का द्योतक है।
उनकी कहानियों में आध्यात्मिक बोध के भी दर्शन होते है। उन्होंने वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के मददेनजर अप्रकट रूप से आध्यात्म को प्रोत्साहित किया है। ‘खलनायिका और बारूद के फूल’ कहानी की नायिका सुमन के मुख से कहलाया है- “मेरा प्रेम आत्मा का है।” [26] अर्थात ज्ञानरंजन को आत्मा ओर परमात्मा पर पूर्ण विश्वास है। यद्यपि सुमन का यह ढोंग है तथापि कहानीकार इस ढोंग के प्रति सजग है और प्रेम के पवित्र रिश्ते को बनाए रखने का पक्षधर है। सुमन की बहन सरोज के प्रेम को ज्ञानरंजन ने पवित्र निगाहों से देखा और सुमन की बहन के प्रति कुत्सित एवं हेय भावना को “मै उस मरी को जरुर सबक दूंगी” [27] रेखांकित कर एक नारी के पतन को उजागर किया है।
ज्ञानरंजन की कहानियों में दायित्व बोध के भी दर्शन होते हैं। उन्होंने संबंधो के माध्यम से मध्यमवर्गीय संस्कृति एवं व्यवहार प्रक्रिया को एक विशिष्ट रूप में प्रस्तुत किया है।
संक्षेप में ज्ञानरंजन की कहानियां सार्थकता की कसौटी पर खरी उतरती हैं और आधुनिक चका-चौंध में डूबते उतरते नवीन वर्ग को दिशा निर्देशित करता है।
संदर्भ सूची
- ज्ञानरंजन, ‘फेंस के इधर और उधर’, फेंस के इधर और उधर (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक. 69
- ज्ञानरंजन, ‘शेष होते हुए’, फेंस के इधर और उधर (कहानी संग्रह) पृष्ट क्रमांक-- 74.
- ज्ञानरंजन, ‘बहिर्गमन’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक 204.
- ज्ञानरंजन, 'अनुभव', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 221.
- ज्ञानरंजन, ‘घंटा’, सपना नहीं (कहानी-संग्रह), पृष्ट क्रमांक. क. 186
- ज्ञानरंजन, ‘फेंस के इधर और उधर’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक. 133.
- ज्ञानरंजन, ‘शेष होते हुए’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 147
- ज्ञानरंजन, ‘संबंध’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक.क. 150
- ज्ञानरंजन, नई कहानियां, नई कहानी विशेषांक, २ फरवरी 1965
- ज्ञानरंजन, 'अनुभव', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 222
- डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र, कहानीकार ज्ञानरंजन, नई दिल्ली प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ट क्रमांक- 120.
- ज्ञानरंजन, 'आत्महत्या', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 107
- ज्ञानरंजन, 'घंटा', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक. 179
- वही, पृष्ट क्रमांक 181.
- वही, पृष्ट क्रमांक. 181.
- ज्ञानरंजन, ‘अमरूद का पेड़’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 14-15.
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- ज्ञानरंजन, ‘मनहूस बंगला’, सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 30.
- ज्ञानरंजन, 'अनुभव' ,सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 215
- ज्ञानरंजन, 'संबंध', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 153.
- ज्ञानरंजन, 'खलनायिका और बारूद के फूल', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक- 62
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- वही, पृष्ट क्रमांक. क्र. 63
- डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र, कहानीकार ज्ञानरंजन, नई दिल्ली प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1997, पृष्ट क्रमांक- 119
- ज्ञानरंजन, 'खलनायिका और बारूद के फूल', सपना नहीं (कहानी संग्रह), पृष्ट क्रमांक. 62
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