भक्ति की प्राचीनता
भारत में भक्ति का अयमारम्भ को ले कर आज भी मतभेद देखा जा सकता है। आज कई खोजों के बाद वेदों में भक्ति को अनुपस्थित देखकर तथा दूसरे मोहेंनजोदाड़ो की खुदाई से मिलने वाले निशानों में भक्ति का यतकिंचित प्रमाण पाकर विद्वान यह अनुमान लगाने लगे हैं कि भक्ति आर्येतर तत्व है। इन अस्थिरताओं का प्रश्रय लेकर कुछ विद्वान भक्ति को मुसलमानों के अत्याचारों का प्रतिक्रिया मानने लग गए हैं। भक्ति काव्य एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन की देन है जिसकी जड़ें अपने समय के समाज और उसकी इतिहास में बहुत दूर तक फैली हुई है। भक्ति काव्य में तत्कालीन समय के भारतीय समाज कि वे वास्तविक अदाएं हैं जिनकी आलोचना भी उसकी सामाजिक व्यवस्थाओं के चित्र उकेरते हैं तथा व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने की आकांक्षा को भी प्रकट करते हैं। यूरोप के इतिहास में जिस काल को मध्य युग कहा जाता है उसकी प्रारंभिक शताब्दियों को भारत की इतिहास स्वर्ण युग की मान्यता देती है ।
भक्ति के इतिहास की प्राचीनता को हम साधु समाज में प्रचलित एक दोहे के माध्यम से अनुमान लगा सकेंगे।-
"भक्ति द्राविड़ी उपजी, लाए रामानंद।
परगट कियो कबीर ने,सात द्वीप, नो खंड।।"
अन्य एक मिलता जुलता संस्कृत श्लोक भागवत और पद्मपुराण दोनों ही ग्रंथों में मिलता है। स्वयं भक्ति नारद से कहती है -
"उत्पन्ना द्राविडे चाहं कर्णाटे बृद्धिगमता
स्थिता किंचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।।"
भागवत की रचना आठवीं या नवीं सदी में हुई थी ऐसा विद्वानों का मानना है। किंतु क्या यह सोचा जा सकता है कि आठवीं सदी के पूर्व भक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं हो सकता है! भक्ति का प्रमाण विष्णु पुराण में भी है,देवी भागवत में भी और कूर्म,वायु तथा शिव पुराण में भी। अन्य पुराणों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह भागवत के समकालीन है या उसके बाद में रचे गए हैं किंतु विष्णु पुराण की प्राचीनता असंदिग्ध है। महाभारत में भक्ति का स्वरूप अत्यंत सुविकशीत रूप से प्राप्त होती है तथा गीता जो महाभारत का अंश है, उसमें भी भक्ति का प्रतिपादन बहुत ही स्पष्ट भाषा में किया गया है। बीज रूप में भक्ति प्राग्वैदिक धारा है।
भक्ति आंदोलन
भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति "भज्" धातुसे हुई है। जिसका अर्थ है 'भजना' ।नारद के अनुसार यह परम प्रेम रूपा और अमृत स्वरूपा है जिसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है । रामचंद्र शुक्ल ने "श्रद्धा भक्ति" नाम से एक महत्वपूर्ण निबंध लिखा है, जिसमें इन्होंने भक्ति के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए कहते हैं "श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है"। बाद में भक्ति को एक रस के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली। भक्ति का प्रथम उल्लेख श्वेताश्वेतर उपनिषद में मिलता है तथा इसका प्रमुख संप्रदाय भागवत धर्म है जिसका उदय ईशा के लगभग 1400 वर्ष पूर्व माना जाता है। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य इतिहास में सं 1375 से 1700 तक को भक्ति आंदोलन का समय माना है।
भक्ति कालीन आंदोलन लोक चेतना की जागृति का परिणाम था इसका सर्वप्रथम संकेत सिद्ध एवं जैनों की रचनाओं में मिलता है। उसके बाद नाथ और संतों में इस परंपरा का विकास हुआ। सगुण भक्ति काव्य में एक भिन्न स्तर पर यही लोक-चेतना प्रस्फुटित हुई है। इस लोक चेतना का संबंध एक और तो पौराणिक चेतना से है और दूसरी और युगीन चेतना से। उसमें युगीन बोध की प्रमुखता एक नई तराश देती है,वह ना तो परंपरा से विच्छेद है और ना ही समसामयिक बोध से कटी हुई। वास्तव में उसने यथार्थ को चुनौती के रूप में स्वीकार किया है और परंपरा को मथ कर नयी सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नए उपकरण आकलित किए हैं।
"मध्यकालीन बोध के मूल में 'समन्वय', निरंतर चलती हुई एक विराट गतिशील प्रक्रिया है जिसमें संघर्ष के स्थान पर परिपाक को स्थान मिला। जब जब विचारों को तत्काल में विज्ञापित किया जाता है तब एक जीवन दर्शन को जीवन व्यवहार बनाने के लिए व्यापक जन समूह में उसका प्रसार किया जाता है। जब विभिन्न समूह के नाना आस्थाओं तथा अंधविश्वास रूढ़ियों और सामूहिक अवचेतना का आघाती खंडन करके उनके उदात्तीकरण का अधिक आग्रह किया जाता है, जब अपेक्षाकृत उदार सामाजिक व्यवस्था में विशेष ढंग के मूल्य अधूरे पुराने या अकेले पड़ जाते हैं और उन्हें पूरा समसामयिक तथा संश्लिष्ट बनाने के लिए तत्कालीन समाज के संबंधों द्वारा प्रतिविंबित थोड़े दूसरे मूल्य भी सुंदर अथवा उग्र बना कर जोड़ दिए जाते हैं तब समन्वय होता है।बहुधा समन्वय में एक क्रांतिधर्मा पक्षधरता, एक प्रतिबद्धता एक सुस्पष्ट दार्शनिक सूत्रबद्धता के बजाए सभी परंपराओं की शक्तियों का आंदोलनकारी संग्रह हुआ करता है। समन्वय में व्यापकता और विविधता, भ्रांति और अंतर्विरोधओं का समाहार हुआ करता है और यही समय बाद में आंदोलन का रूप ग्रहण करता है।"
भक्तिकालीन नवजागरण का द्विमुखी संघर्ष
मध्ययुगीन नवजागरण द्विमुखी संघर्ष की भूमिका में पनपता है। एक है अंतर्मुखी और दूसरा बहिर्मुखी। अंतर्मुखी संघात हिंदू समाज के अंदर ही मौजूद था जिस पर चारों तरफ से प्रहार किए गए। दूर पूरब से सिद्ध सरहप्पा ने आवाज लगाई,'ब्राम्हण ब्रह्मा के मुख से हुआ था तब हुआ था,अब तो जैसे दूसरे होते हैं वैसे ही ब्राह्मण भी होते हैं तो ब्राह्मणत्व कहाँ रह गया? इसकी अनुगूंज कबीर में भी सुनाई देती है:
"जो तू बाभन बभनी जाया।
तो आन बाट काहे नहीं आया"
इस प्रकार हरिदास,मराठी कवि कनकदास आदि भी जाति-पांति बाह्याचारों पर आघात पर आघात लगाते रहै।
बहिर्मुखी संघात मुख्यतः इस्लाम के संपर्क में हुआ इस्लाम जैसे संगठित मजहब से भारत का पाला पहली बार पड़ा था। इन दोनों संस्कृतियों के संघात से बहुत से स्फूलिंग उत्पन्न हुए जिन्होंने इस नवजागरण को गति प्रदान की। इस प्रकार की आवाज सुनाई पड़ी 'पत्थर का ईश्वर ईश्वर नहीं, मिट्टी का ईश्वर ईश्वर नहीं, काठ का ईश्वर ईश्वर नहीं है, और सेतुबंधरामेश्वरम, गोकर्ण, काशी केदार आदि पुण्यक्षेत्रों के मंदिरों में स्थित ईश्वर ईश्वर नहीं है ।अपने आप को जान लेना ही ईश्वर है।' नामदेव,गुरु नानक आदि संतो ने भी सगुण ईश्वर में अपनी अनास्था जाहिर किए।
भक्ति का संश्लेषण
इस प्रक्रिया के फल स्वरुप सूफी और संत काव्य का प्रबर्तन हुआ। संश्लेषण की इस प्रक्रिया में तीन वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे। प्रथम वर्ग उन संत कवियों का है जो निषेधात्मक पद्धति ग्रहण करता है,द्वितीय वर्ग सूफियों का है जो भावनात्मक स्तर पर प्रगति करता है, तीसरा वर्ग उन भक्तों का है जो व्यवस्था के अंतर्गत समझौता करते हैं। इसमें मुख्यतः सगुण भक्त कभी आते हैं जो सामाजिक रूढ़ियों से खुलकर विरोध तो नहीं करते परंतु भक्ति के क्षेत्र में सभी बंधन ढीले कर देते हैं।
भक्ति के नवजागरण में नव मानवतावाद
प्रत्येक युग में मानवतावाद तत्कालीन युग के अनुकूल अपनी परिभाषा स्वयं निर्धारित करता है। मानववाद का मुख्य अभिप्राय मनुष्य को संपूर्ण शक्ति का स्रोत एवं लक्ष्य समझाना है। भगवान बुद्ध अपने शिष्य आनंद को सुप्रसिद्ध प्रवचन देते हुए कहते हैं -"है आनंद तुम स्वयं अपने को शरण दो किसी बाह्य शरण की खोज में मत भटको। सत्य को दीपक समझकर ग्रहण किए रहो। अपने अतिरिक्त किसी और आश्रय की खोज मत करो। मध्ययुगीन मानववाद की भूमिका थोड़ी भिन्न है, इसका आधार दार्शनिक एवं आध्यात्मिक है । मानव की समानता इसी आधार पर है कि वह एक ईश्वर की संतान है उसका मूल्यांकन उसके कर्म से होना चाहिए। कर्म का मूल है सदाचार एवं भक्ति। आध्यात्मिक आधार ग्रहण करने के कारण मध्ययुगीन मानववाद मानव को शक्ति का स्रोत ना मानकर ईश्वर को मानता है, कर्म में आस्ता न रखकर भाग्य में रखता है,संघर्ष में विश्वास ना रखकर 'मुक्ति' में रखता है।
मध्ययुगीन नवजागरण का रचनाकेंद्र
मध्ययुगीन नवजागरण की तुलना हम भारतीय नवजागरण से कर सकते है। क्योंकि एक बार फिर इस काल में भी राचनाकेंद्र बदलते दिखाई पड़ते हैं। बौद्ध एवं जैन धर्म के अपने विहार एवं मंदिर थे जो रचनात्मक एवं धार्मिक साहित्य की रचना एवं संरक्षण केंद्र थे। दक्षिण भारत में भी मंदिर रचनात्मक आंदोलन के केंद्र रहे हैं ।मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन की मूल शक्ति मध्ययुगीन लोकमानस में है।बौद्ध नवजागरण में दर्शन संघ के माध्यम से उतरकर जन समुदाय तक आता है क्रमिक विकास इसे सहजयान तक के लोक मार्ग पर ले आता है। इसके विपरीत भक्ति आंदोलन में लोक शक्ति ही सबसे उर्ध्वगामी रही है। वह संपूर्ण लोक के ऊपर उठने की प्रक्रिया है। मध्ययुगीन मानस में दैन्य और रस का परिपाक एक साथ हुआ है। दैन्य उसके परंपरागत जीवन का अभिन्न अंग था और इस दृष्टि से लड़ने का साधन जिसके माध्यम से वह भगवान को भी अपने स्तर पर उतार लाता है।
भक्तिकालीन साहित्य में अन्य धर्मों का सहयोग
भक्ति आंदोलन को प्रभावित करने वाले धर्मों में जैन बौद्ध शैव शाक्त वैष्णव तथा सूफी सभी धर्म आते हैं। सामान्य धारणा है कि भक्ति साहित्य मात्र वैष्णव धर्म की उपज है, पर यह सत्य नहीं अनेक वैष्णवेतर भक्ति मार्गी साधक शैव,शाक्त,श्रमण,सूफी इस्लाम धर्म के मानने वाले भक्तों ने भी भक्ति साहित्य को प्रेरणा प्रश्रय तथा प्रोत्साहन दिया है।
भक्ति आंदोलन के इस अचानक प्रसार को देखकर चकित होते हुए जॉर्ज ग्रियर्सन ने लिखा है- "बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अंधकार के ऊपर एक नई बात दिखाई दी, कोई हिंदू यह नहीं जानता कि यह बात कहां से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नहीं कर सकता।"
आचार्य शुक्ल की टिप्पणी है-"अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की और ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?"
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उपर्युक्त दोनों विद्वानों की मान्यताओं का खंडन किया है। उनका दृढ़ विश्वास है कि इतना विराट जनांदोलन जिसने भारतीय जन जीवन में नई प्राण प्रतिष्ठा की हो किसी विदेशी स्रोत या किसी हताश जाति की प्रतिक्रिया की उपज नहीं हो सकता। उसकी जड़ें जरूर अपने देश की मिट्टी में ही होंगी और निश्चित रूप से सामान्य जन के सहज उत्साह तथा आस्था का प्रतिफल होगा। वह पुनः कहते हैं जिसे "सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने बिजली की चमक की समान अचानक कौन उठने वाला माना है वह भक्ति आंदोलन वस्तुतः वैसा नहीं था, उसके लिए सैकड़ों वर्ष की मेघ खंड एकत्र हो रहे थे । और फिर उसमे जोड़ते हुए कहते हैं "अगर इस्लाम ना भी आया होता तो भी इस साहित्य का बारहा आना वैसा ही होता जैसा कि आज है।"
भक्ति आंदोलन की विफलता
वास्तव में भक्ति संवेदना और भक्ति आंदोलन की व्यापक लोकधर्मिता, उसकी समतावादी चेतना, उसका रूढ़िवाद और कुलीनता के विरुद्ध विद्रोह, शास्त्र के भ्रम और लोक के भय से मुक्ति का उसका आह्वान,उसकी प्रेमानुभूति का सहज तथा स्वच्छंद प्रभाव और लोक संस्कृति के विभिन्न रूपों- विशेषतः लोक भाषाओं के उत्कर्ष का उसका अभियान जितना मुलगामी है उतना ही आश्चर्यजनक है उसका अंत। भक्ति आंदोलन की भूमिका को देखते हुए यह भी कहना सही नहीं होगा कि वह पूरी तरह विफल हुआ है लेकिन यह भी सच है कि उसका सामाजिक उद्देश्य पूरा ना हो सका भक्ति आंदोलन के माध्यम से जनसाधारण की जो सामाजिक और सांस्कृतिक आकांक्षाएं प्रकट हुई थी वह अधूरी ही रह गयीं।
डी. पी. मुखर्जी ने भक्ति आंदोलन की सामाजिक असफलता का कारण देते हुए लिखते हैं- "भक्ति आंदोलन में समाज के स्वरूप की पहचान है, लेकिन सामाजिक हित की कोई धारणा नहीं है। फलतः उसमें आत्मा के अनुरोध और सामाजिक जिंदगी की ठोस जरूरतों के बीच दरार है। आध्यात्मिकता की भौतिक अंतर्वस्तु और लोक-धर्म के विभिन्न रूपों के बीच अंतर्विरोध है। भक्ति आंदोलन की यही आंतरिक कमजोरी उसकी सामाजिक विफलता का मुख्य कारण है।
भक्ति आंदोलन की सभी धाराओं, विशेषतः निर्गुण धारा की परवर्ती परिणति से सिद्ध होता है कि सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक परंपराएं प्रायः साहित्यिक प्रवृत्तियों और परंपराओं से अधिक शक्तिशाली होती है। जिस वैदिक पौराणिक परंपरा और उसके पोषित सामाजिक व्यवस्था के विरोध में निर्गुण धारा आगे बढ़ी थी वह परंपरा अधिक स्थाई साबित हुई। बाद के दिनों में निर्गुण धारा भी उसी सर्वग्रासी परंपरा की धारा में विलीन हो गई ।
सहायक ग्रन्थ:-
- पांडेय, मैनेजर. संकलित निबंध. नैशनल बुक ट्रस्ट. 2008
- राजे, सुमन. हिंदी साहित्य का आधा इतिहास. भारतीय ज्ञानपीठ. 2017
- डॉ अमरकांत. हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली. राजकमल प्रकाशन. 2009
- डॉ. रॉय, कुसुम. हिंदी साहित्य की वस्तुनिष्ठ इतिहास(प्रथम खंड). विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी. 2019
- सिंह, रामधारी दिनकर. संस्कृति की चार अध्याय. लोकभारती प्रकाशन. 2011