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डॉ. जेठो लालवाणी द्वारा लिखित ‘मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता’में सिंधी भाषा और मध्यकालीन सिंधी कवियों का अध्ययन
डॉ जेठो लालवानी गुजरात के प्रसिद्ध सिंधी साहित्यकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी कलम हिंदी और गुजराती साहित्य वृद्धि में भी चली है। सिंधी भाषा के गंभीर अध्येता होने के कारण सिंधी समाज जीवन, उनकी लोक संस्कृति, सिंधी भाषा का उद्भव- विकास आदि विषयों को लेकर उन्होंने कई पुस्तकों को प्रकाशित किया है। जिनमें हिंदी में लिखित पुस्तकों में ‘सिंधी साहित्य दर्पण’, ‘सिंधी भगत’, ‘सिंधी नाटकों का इतिहास’, ‘सिंधी साहित्यिक परिचय’, ‘सिंधी बोली का लोक साहित्य’, ‘सिंधी कच्छी लोक सांस्कृतिक परंपरा’, ‘सिंधी भगत परंपरा’, ‘सिंधी भाषा साहित्य’, ‘सिंधी बाल साहित्य’ और ‘मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता’ आदि है।

‘मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता’ सन 2020 में प्रकाशित विवेचनात्मक पुस्तक है। जिसे डॉ. जेठो लालवाणी ने सात अध्यायों में विभाजित किया है। 1) सिंधी साहित्य का उद्भव एवं विकास, 2) सिंधी भाषा का काल विभाजन, 3) संत साहित्य की भूमिका, 4) सूफी काव्य की पृष्ठभूमि, 5) सिंधी साहित्य : एक सर्वेक्षण, 6) मध्यकालीन काव्य धारा, 7) प्रसिद्ध कवि कविता।

मध्यकाल जैसे हिन्दी साहित्य के लिए स्वर्णकाल माना गया है उसी प्रकार सिंधी साहित्य के मध्यकाल को भी स्वर्णकाल की संज्ञा दी जा सकती है। क्योंकि हिंदी के तरह सिंधी में भी सूफी कावियो ने, संत/भक्त कवियों ने अपनी कलम से इस काल को सजाने का कार्य किया है। डॉ. आलोक आलोक गुप्त इस पुस्तक के आमुख में लिखते हैं-“ भक्ति आंदोलन के भारतीय परिप्रेक्ष्य के बिना किसी भाषा के मध्यकालीन साहित्य का अनुशीलन पूर्ण नहीं माना जाता। तमिल, बंगला, मलयालम, मराठी, पंजाबी और हिंदी की तरह सिंधी में भी मध्यकालीन साहित्य की समृद्ध परंपरा का डॉ. जेठो लालवाणी ने इस ग्रंथ में उल्लेख किया है। सिंधी भाषा और साहित्य के विकास की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए उन्होंने संत और सूफी साहित्य के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को रेखांकित किया है। मध्यकालीन सिंधी साहित्य का सर्वेक्षण करते हुए 18 कवि और लेखकों का विस्तृत परिचय इस ग्रंथ में उपलब्ध है" [1] डॉ. जेठो लालवाणी ने इस ग्रंथ के माध्यम से सिंधी साहित्य के मध्य काल के कवियों की कविता और कवि परिचय से हमें रूबरू कराया है।

डॉ. जेठो लालवाणी सिंधी भाषा का अर्थ बताते हुए लिखते हैं कि, " सिंधी भाषा का अर्थ होता है वह बोली जो सिंध प्रांत में बोली जाती है। ‘सिंध’ शब्द संस्कृत के सिंध शब्द से ही निकला है जिसका अर्थ होता है समुंद्र, सिंधु नदी एवं वह देश जहां सिंधु नदी बहती है। ‘सिंधी’ बोली का नाम भी है और जाति का नाम भी है। सिंधी सिंध प्रांत, भारत एवं दुनिया के विविध विस्तारों और राज्यों के निवासी हैं।" [2]

सिंधी भाषा के रूप में सिंध क्षेत्र में बोली जाती है। सिंध प्रांत जो अभी पाकिस्तान के अंदर समाहित है। उस प्रांत के ऊपर ऐतिहासिक दृष्टि डालते हुए डॉ. जेठो लालवाणी जी लिखते हैं कि, “ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होता है कि सिंधु मुल्क, प्रांत की सीमाएं किसी भी युग में सीमित एवं स्थिर नहीं रही है। महाभारत में सिंधु, सौवीर एवं सौराष्ट्र का उल्लेख मिलता है। “चचनामे’ में (सातवीं शताब्दी में) रायघरानें के राज्य में सिंध की सीमा पूर्व में कश्मीर, पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में समुंद्र एवं उत्तर में कारदान एवं केकनान की पहाड़ियों तक थी। द्वारका प्रसाद शर्मा ने सिंध की प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तक में लिखा है कि, ‘वेदों में सिंध नदी के तट वाले संपूर्ण विस्तार को सिंध नाम से पुकारा जाता था’।.....इसी संदर्भ में डॉ. जेठो लालवाणी सिंध प्रदेश की सीमा निर्धारित करते हुए लिखते हैं कि, " सिंधु देश भारत के पश्चिम विस्तार, पाकिस्तान में है जिसका क्षेत्रफल 54,123 चौ. मील यानी अंदाजजित 86,597 चौ. किलोमीटर है।" [3]

सिंधु नदी के कारण ही इस प्रदेश का नाम सिंधु पड़ा हो यह अधिक मुमकिन है अतः उन्होंने सिंधु नदी की सीमा को निर्धारित करते हुए लिखा है कि," सिंधु नदी कैलाश पर्वत से निकलकर कश्मीर, पंजाब एवं उत्तर सीमा से गुजर कर मिठण कोट में पांच नदियों को अपने में समेटकर कश्मीर के नजदीक सिंध प्रांत में प्रवेश करती है। अंदाजित 400 मील प्रवाहित होकर केटी बंदर के नजदीक विभिन्न शाखाओं में बंटकर अरबी समुद्र में समाप्त हो जाती है। सिंधु नदी को सिंधी में महराण भी कहा जाता है”। [4] इसी संदर्भ को आगे विस्तृत करते हुए बताते हैं कि," सिंधु नदी दरियाह, सिंधु, वसु, सिंधुझ एवं इन्डस के नाम से भी जानी जाती है। आश्चर्य की बात है कि सिंध प्रांत में सिंधु नदी की चौड़ाई आठ मील है। इसे नदी का पेटा भी कहा जाता है। प्राचीन समय में नदी की इतनी चौड़ाई देखकर ही इसे सिंधु नाम से संबोधित किया गया होगा। सिंधु के नाम पर ही अखंड भारत में रहने वालों को हिंदू कहा गया। पारसी में ‘स’ को ‘ह’ के नाम से संबोधित करते हैं इसलिए सप्त सिंधु को हफ्त हिन्दु के नाम से संबोधित करते थे।" [5]

सिंधी समाज के लिए सिंधी बोली क्या महत्व रखती है? इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. जेठो लालवाणी जी लिखते हैं "सिंधियों के लिए सिंधी बोली सिंधु के जल समान शक्तिपुंज तथा ईश्वरीय सुखों का भंडार है, जो आत्मा को सदैव पवित्र करती है।" [6]

प्रत्येक भाषा का उद्भव एवं विकास एक महत्वपूर्ण पहलू है। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में सिंधी भाषा अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। सिंधी बोली के इतिहास के संबंध में डॉ अर्नेस्ट ट्रंप ने अपनी पुस्तक ‘ग्रामर ऑफ दी सिंधी लैंग्वेज’ (1872) के आमुख में लिखा है कि, " अगर हम सिंधी की तुलना अन्य भारतीय बोलियों से करेंगे तो सिंधी बोली को इन बोलियों में प्रथम स्थान में रखना पड़ेगा। सिंधी प्राचीन प्राकृत से ज्यादा नजदीक है। सिंधी बोली ने व्याकरण और भाषा की वैज्ञानिक विशेषताओं को अपने आप में समाविष्ट कर रखा है।" [7]

डॉ. जेठो लालवाणी ने सिंधी भाषा का उद्भव एवं विकास शीर्षक के अंतर्गत सिंधी भाषा का जन्म कैसे हुआ? वह कौन से प्रदेश की भाषा है और उसका किस प्रकार विकास हुआ? उसका पूरा अध्ययन करते हुए सिंधी बोली के विकास को तीन भागों में बांटा है -
  1. पाली सिंधी : - ई.स. 600 वर्ष के पूर्व काल से लेकर ई.स. के प्रारंभ तक सिंधु देश की बोलचाल की भाषा को ‘पाली सिंधी’ नाम दिया है।
  2. प्राकृत सिंधी :- ई.सन के प्रारंभ से लेकर 500 ई.सन के समय की बोलचाल वाली भाषा को प्राकृत सिंधी का नाम दिया है। इस काल में सिंधी पर प्राकृत बोलियों महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी एवं पैशाची का प्रभाव दिखाई देता है। अतः इसे प्राकृत सिंधी नाम दिया है।
  3. अपभ्रंश सिंधी:- 500 ई. सन से लेकर 1000 ई.स. तक सिंधु देश में जो बोली, बोली जाती थी उसको अपभ्रंश सिंधी कहा जाता है। इस समय सिंधी बोली पर भी अपभ्रंश बोलियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है अतः इसे अपभ्रंश सिंधी से संबोधित किया गया है।
सिंधी भाषा के विकास को स्पष्ट करते हुए डॉ. लालवानी सिंधी भाषायी समुदायों के आधार पर डॉ लक्ष्मण खूबचंदाणी द्वारा किए गए वर्तमान में निवास स्थान के आधार पर सिंधी समाज के तीन भाषायी समुदायों का समर्थन करते हैं।
  1. कच्छी, खोजा एवं मेमण जो कि सिंधी की एक बोली ( कच्छी) का प्रयोग करते हैं। यह लोग कच्छ, काठियावाड़ और सौराष्ट्र में रहते हैं और गुजराती समुदाय के अति निकट है।
  2. थरी, थर और जैसलमेरी राजस्थान के पश्चिमी सीमा क्षेत्र वाले सिंधी स्वयं को मारवाड़ी समुदाय के निकट मानते हैं।
  3. शेष सिंधी जो कि भारत के विभिन्न प्रदेशों में रहते हैं। वे अपने परंपरागत साहित्यिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक मुख्यधारा में बने रहने के प्रति निष्ठावान है।
सिंधु प्रदेश की बोलियों का परिचय देते हुए डॉ. जेठो लालवाणी सिंध प्रांत की बोलियों को 6 भागों में विभाजित करते हैं। विचोली, सिराइकी/ सिरैकी, लाड़ी, थरेली, कच्छी, लासी।

सिंधी भाषा के लिए पहले चार लिपियां प्रचलित थी। हिन्दु पुरुष देवनागरी एवं स्त्रियां गुरुमुखी लिपि का, व्यापारी जो हिन्दु और मुसलमान दोनों ही थे वे हट्वणिको (सिंधी लिपि) का उपयोग करते थे। चौथी अरबी फारसी लिपि प्रचलित थी जिसका उपयोग मुसलमान बंधु और सरकारी कर्मचारी प्रयोग करते थे। इस संदर्भ में अपना ऐतिहासिक दृष्टिकोण बताते हुए डॉ. जेठो लालवाणी लिखते हैं "ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होता है कि 1843 में अंग्रेजों ने सिंध पर जब आक्रमण करके अपना अधिकार जमाया, उस समय सिंध में देवनागरी, गुरुमुखी, हटाई जिस के अन्य नाम है (हटवाणिका, खुदाबादी या हिंदु सिंधी लिपि) एवं अरबी फारसी प्रचलित थी। हटवाणिका अधिकांशत व्यापार क्षेत्र में प्रयोग की जाती है। इसका प्रयोग आज भी देखा जा सकता है। इसे सिंधी की लघु लिपि (शॉर्टहैंड) भी कहते हैं”। [8]

भारत- पाकिस्तान विभाजन के बाद सिंधी लिपि का उल्लेख करते हुए लिखते हैं "विभाजन के बाद सिंध (पाकिस्तान) में अरबी लिपि का प्रचलन है एवं भारत में सिंधी विद्वानों के बीच लिपि संबंधी वाद- विवाद होने के कारण केंद्र एवं राज्य सरकारों ने दोनों लिपियों को मान्यता दे रखी है। फिर भी भारत सरकार के विविध विभाग, केंद्रीय साहित्य अकादमी और विविध राज्य अकादमियां अधिकांश अपना कार्य एवं साहित्य सिंधी द्वारा ही चलाते हैं।"9 हिंदी बोली के लेखन में एक ही लिपि देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है परंतु सिंधी भाषा के लेखन में अरबी और देवनागरी दोनों का प्रयोग होता है।

किसी भी भाषा के साहित्य के इतिहास के अध्ययन के संदर्भ में अनेक समस्याएं सामने आती है। साहित्य के इतिहास के विधिवत अध्ययन एवं अनुशीलन हेतु उसे विभिन्न काल खंडों में विभाजित करना आवश्यक हो जाता है। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि काल विभाजन का मूल आधार किसे माना जाए तथ्य या शैली को या अन्य किसी दृष्टि बिंदु को कथ्य और शैली दोनों को मिलाकर ही साहित्य का निर्माण होता है। इतिहास का विभाजन करते समय कथ्य को विशेष महत्व दिया जाता रहा है। इस दृष्टि से साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते समय निम्न आधारों को दृष्टि समक्ष रखा जा सकता है।

समय और शासक, 2. प्रवृति विशेष., 3. ग्रंथ प्राचुर्य, 4. साहित्यकार विशेष के आधार पर।

इस प्रकार साहित्य के इतिहास के विभाजन एवं नामकरण के लिए विविध दृष्टिकोणों को अपनाया जा सकता है। हिंदी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों को लेकर किया है। डॉ. जेठो लालवाणी ने समय और शासन काल के आधार पर सिंधी भाषा के साहित्य के इतिहास को निम्न काल खंडों में विभाजित किया है।
  1. आदिकाल:- (1000 ई से 1522 ई)
    1. सुम्रा काल (सन 1000 से 1350 ई)
    2. समा काल (सन 1350 से 1522 ई)
  2. मध्यकाल:- (सन 1522 से 1843)
    1. पूर्व मध्यकाल (सन 1522 से 1737 ई)
    2. उत्तर मध्यकाल (सन 1737 से 1843 ई)
  3. आधुनिक काल:- (सन 1522 से 1843)
    1. पूर्व आधुनिक काल (सन 1843 से 1947 ई)
    2. उत्तर आधुनिक काल (सन 1947 से आज तक)
सिंधी भाषा के साहित्य का इतिहास आधुनिक आर्य भाषाओं के विकसित होने के साथ सन 1000 ई से ही प्रारंभ हुआ है ऐसा हम कह सकते हैं।

सातवें अध्याय में मध्यकालीन सिंधी साहित्य के प्रसिद्ध अट्ठारह कवियों और उनकी कविताओं का विवेचन मिलता है। जिसमें कवियों की श्रंखला में काज़ी काज़न (सन 1431-1551 ई), शाह अब्दुल करीम (सन 1536-1624 ई.), शाह इनायत रजवी (स. 1625-1713 ई.), महामति प्राणनाथ (सन 1618-1694), शाह लतीफ भिटाई ( सन 1689- 1752), सचल सरमस्त (सन 1739- 1829 ई), मिसरी शाह, शेठ विशनदास, चैनराय सामी, दादू दयाल, भाई दलपतराम, कवि मुराद, संत थाऊंराम, संत सधना, रोहल फकीर, बेदिल, गुलाम अली है। इन सूफी कवियों ने, भक्त कवियों ने एक परमात्मा, सत्गुरु का उपकार, नाम की महिमा, माया, भक्ति, आत्मदर्शन आदि का वर्णन किया है। साथ ही जाति-पाति का खंडन, कर्मकांड से मुक्त होने की बात कही है।

शाह लतीफ भिटाई की कलाम की पंक्तियां देखिए-
“अखर पढु अलिफ जो, वर्क सभ विसार
अंदर तूं उजार, पन्ना पढ़न्दे केतरा” ? [10]

अर्थात कितने पन्ने पढ़ोगे? एक अक्षर अलिफ (ईश्वर/अल्लाह) का पढ़ लो, बाकी सब पन्ने भूल जाओ। अपने अंतर्मन की ज्योत जलाओ।

मनुष्य मन की चंचल स्थिति को सही राह चलाने की बात करते हुए वे लिखते है-
“करहे खे कईं, विधमि पैद पलण जा,
लेड़ो लाणीअ खे चरे, नियण सनु नईं,
चांगे संदे चित में साहिब्। विझु सईं,
ओबाहियोसि अई, लुत्फु साणु लतीफु चए” [11]

अर्थात इस ऊंट रूपी मन को रोकने के लिए कइ जंजीरे डाली, फिर भी वो भोग विलास में लिप्त हो जाता है। साहिब तू ही सुमति दे इस मन को ताकि यह मन सीधा चले।
निमाणनि जो माणु, सहजे मिलियो सतिगुरु
लख लखाए अंभई, कयो तंहिं कल्याणु
सुतल डिठो सामी चए, पाण वराए पाणु
जंहिंजो वेद वख्याणु, सदा करनि संसार में” [12]

अर्थात मिल गया सत्गुरु सहज में, निमाणो का मान, अलख जगाया अंतर मे, किया उसने कल्याण, अंतर्मुख अभ्यास में सामी, प्रत्यक्ष हुआ वह आन, वेद सदा संसार में, जिसका करे बखान्।

“सभ खे रूआरे, मोहे माया मोहिणी
भवाए भव सिंध में, नाना रुप धारे
सामी बचियो को सूरमो, सतिगुरु संभारे
बेहद डिओ बारे, पूरनु डिठो जंहिं पिअ खे”। [13]

अर्थात रुलाती सबको माया मोहिनी, फंसाकर मोह जाल में। भांति-भांति के रूप धरे, बहाए भवसिंध में, सामी बचे कोई सूरमा, बचाए जिसे सत्गुरु।

दादू जिअं तेल तिलन में, जिअं गंध फूलन
जिअं मखण खीर में, तीअं रबु रहनि” [14]

अर्थात जिस तरह तिल में तेल, फूलों में सुगंध और दूध में मक्खन रहता है, इसी प्रकार आत्मा के साथ परमात्मा भी शामिल है।

कुफर ऐं इस्लाम में, था भरिनि ऊबता भेद
हिकु हिंदु बिया मुसलमान, टियों विच विघाऊं वेर
अंधनि ऊंदहि न लहे, तनिखे सभु चवंदो केरू? “ [15]

अर्थात कुच लोग हिंदु और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करते हैं। ऐसे अंधजनों और अग्ज्ञानियों को कौन समझाए?

जोई आहियां सोई आहियां, भूलन बियो को भायां
वेस लिबास हिन्दु मोमिन जा, केई लाहियां केई पाईयां” [16]

अर्थात मैं मात्र मानव हूं। कभी हिंदु का वेश तो कभी मुस्लिम का वेश धारण करता हूं। लेकिन मूलत: मैं मानव ही हूं।

भक्त कवियों ने एकेश्वरवाद, सत्गुरु की महिमा का बखान, ईश्वर नाम की महिमा, माया-भ्रम, ईश्वर भक्ति, आत्मदर्शन, जाति-पाति का खंडन, कर्मकांड से मुक्ति आदि का चित्रण किया है। जैसे उत्तर और दक्षिण भारत के संत कवियों ने सर्वव्यापी, अल्क्ष्य, अरूप, अखंड, अनादि ब्रह्म का उल्लेख किया है। साथ ही हठयोग साधना, चित्त शुद्धि, सहज-समाधि पर बल दिया है। वैसे ही रोहल, मुराद, शाह, दरइयाखान और दल्पत आदि सिंधी कवियों ने भी अपने कव्य में ब्रह्म को अनादि, निराकार स्वरुप माना है। इसप्रकार सिंधी मध्यकालीन भक्त कवियों का वर्णन डॉ. जेठो लालवाणी बखूबी किया है। डॉ. जेठो लालवाणी की यह कृति “मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता” हिंदी- सिंधी साहित्य के शोधार्थियो, पाठकों को महत्वपूर्ण ज्ञान दिशा की ओर ले जाएगी।

संदर्भ:-
  1. मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता-आमुख
  2. मध्यकालीन सिंधी कवि-कविता-पृ-07
  3. वही पृ-07
  4. वही पृ- 08
  5. वही पृ- 08
  6. वही पृ- 08
  7. वही पृ- 11
  8. वही पृ- 13
  9. वही पृ- 13
  10. वही पृ- 63
  11. वही पृ- 78
  12. वही पृ- 95
  13. वही पृ- 99
  14. वही पृ- 100
  15. वही पृ- 114
  16. वही पृ- 117
डॉ. गायत्रीदेवी जे लालवानी, सम्प्रति–अध्यापक सहायक, हिन्दी विभाग, श्री कृष्ण प्रणामी आट्‌र्स कालेज, दाहोद, गुजरात। Mo.7984498390