Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
दुष्यंत कुमार की कविता ‘जनवादी कविता’ के परिप्रेक्ष्य में
जनवादी कविता के केन्द्र में आम आदमी, किसान और मजदूर वर्ग आदि तथा उनकी समस्या ही रही हैं। या यूँ कहें कि उसकी पीड़ा, दुःख-दर्द, घुटन, निराशा और संत्रास आदि जनवादी कविता को जन्म देता है। जनवादी कवि की पक्षधरता हमेशा सर्वहारा वर्ग के प्रति रहती है। शोषण की चक्की में पिसता आम आदमी हमेंशा से अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी संघर्ष करता रहा है। दूसरी ओर इनके श्रम पर सामन्ती और पूंजीवादी वर्ग दिन-दूनी रात-चौगनी तरक्की करता जा रहा है। जो इनके खून का प्यासा हो रहा है। किसान भारत का अन्नदाता कहा जाता है लेकिन अन्नदाता खुद दाने-दाने के लिए तरसता रहा है। वह पूरे देश का पेट भरता है। किसान अपने परिवार की मूलभूत जरूरतों को पूरा करता ही मर जाता है लेकिन उसकी जरूरत पूरी नहीं हो पाती है। उसके नाम पर अनेकों योजना आती रहती हैं लेकिन ये सब उसके पास आने से पहले ही दम तोड़ती नजर आती है। उसे ऊँचे दामों पर खाद्य-बीज दिया जाता है लेकिन जब वह अपनी फसल मंडी में बेचने जाता है तो उसे ओने -पोने दाम दिए जाते हैं, वो भी उधार। किसानों से भी दयनीय अवस्था में मजदूर अपना जीवन-यापन करने के लिए मजबूर हैं। मजदूरों को सबसे पहले नियमित काम नहीं मिल पाता है इसलिए ये विस्थापितों की तरह जीवन जीते हैं। काम मिलता है तो समय पर पैसे नहीं मिलते हैं। और इनसे तय समय सीमा से ज्यादा काम लिया जाता है ठीक कोल्हू के बैल की तरह, अनेक बार तो बेगार भी करनी पड़ती है। मजदूर रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में जीता है और मर जाता है। उसके बाद यही स्थिति उसके परिवार की होती है क्योंकि उसके बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाती है। जनवादी कविता में इसी आम आदमी का चित्रण किया गया है । जो भूख-प्यास में अपना जीवन जीता है और मर जाता है। उसके जीवन संघर्ष को जनवादी कविता आवाज देती है। जनवादी कवि आम आदमी के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए लगातार प्रयासरत है। दुष्यंत कुमार एक जनवादी कवि है जो आम आदमी की पीड़ा, दुःख-दर्द को देखकर कहते हैं कि काश मैं भगवान होता तो कोई किसी के सामने पैसे के लिए हाथ नहीं फैलाता और न कोई पैसे के नशे में मस्ती करता। ना भाई भाई पर खंजर उठाता और न किसान पर कोई अत्याचार करता। उसे तपती धूप में बैंलों के साथ खेत में जुतने की आवश्यकता होती और न ही पैसे-पैसे के लिए मजदूर मजबूर नजर आता। न ही कोई पीड़ित-शोषित आदमी पिटता किसी जमींदार या पूँजीपति से। इस संघर्षपूर्ण जीवन के कारण आदमी यह सोचने पर मजबूर हो गया है कि मैं कौन हूँ। जिसे अपना अस्तित्व ही खतरे में नजर आता है। बेरोजगारी से हताश निराश आदमी के हवाले से दुष्यंत कुमार अपनी ‘मैं कौन हूँ’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“चप्पलों-सी जिन्दगी को/ सड़क पर घिसता हुआ/ किसी छत-सा गॉंव की/ चूता हुआ, रिसता हुआ,/ उँगलियों में पिस रहे/ रुमाल-सा मैं कौन हूँ।” [1]
आम आदमी की आर्थिक हालत इतनी दयनीय है कि वह होली का त्यौहार मनाने में भी असमर्थ है। वह सोचता है कि जीवन में विषमताओं से भरे बीहड़ रास्तों पर अब चला नहीं जा सकता है इसलिए अब पहले पेट की समस्या हल करनी है। लेकिन यह समस्या आज तक हल नहीं हुई है। इस संदर्भ में दुष्यंत कुमार अपनी ‘हे होली के त्यौहार हमें तुम माफ़ करों’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“अब हमसे चला नहीं जाता भूखे पेटों/ हमको पहिले ख़ाली पेटों को भरना है/ पहिले ये रोटी का मसला हल करना है/ हम गा न सकेंगे गीत तुम्हारे स्वागत के/ है तुम्हारी क्योंकि पावक से/ अपनी जठराग्नि कहीं प्यारी.../ हे होली के त्यौहार हमें हमें तुम माफ़ करो।” [2]
दुष्यंत कुमार ने अपनी ‘सत्य के लिए’ शीर्षक कविता में लिखा है कि किस प्रकार जनता दाने-दाने के लिए मोहताज़ है और ऐसा लगता है कि पूरा देश मृत्यु की चौखट पर बैठा हुआ है। वहीं दूसरी ‘कुछ’ शीर्षक कविता में आम जनता और सामन्तों तथा पूंजीपतियों के बीच बढ़ती अमीरी-ग़रीबी की खाई पर प्रकाश डालते हुए दुष्यंत कुमार लिखते हैं-
“कुछ लोग इस जमीन में/ जहाँ खोदते हैं/ चार हाथ पर पानी निकल आता है/ अंगूठे से कुरेदते हैं रेत/ तो रेत पानी से भीग जाता है/ लेकिन कुछ हाथ इसी जमीन में/ जिन्दगी भर खुदाई करते रहे/ और कुछ सूखी पपड़ियों वाले होंठ/ पानी-पानी चिल्लाते हुए/ खामोश हो गए?” [3]
जनवादी कविताओं में पीड़ित शोषित और उपेक्षित आदि सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखती है साथ ही उनकी मुक्ति का स्वर सुनाई देता है। जनवादी कवि शोषणकारी ताकतों का विरोध करते हुए अपनी पक्षधरता के साथ शोषितों के पक्ष में आकर खड़ा हो जाता है। यह प्रतिरोध का स्वर प्रगतिवाद के बाद जनवादी कविता में स्पष्ट सुनाई देता है। जनवादी कवि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में हो रहे शोषण का विरोध करता है और समाज में फैली विषमता को दूर करने के लिए आवाज बुलंद करता है। शोषणकारी शक्तियों ने सर्वहारा की जिन्दगी को नरक बना दिया है। उनकी जिन्दगी कब्रों या दरगाहों में या मंदिरों या श्मशानों में मिट्टी के नीचे दबी हुई दिखती है। पूजा के बोलों पर कांपती हुई और घुटनों के बल बैठी हुए नजर आती है। जो जिन्दगी में लगातार संघर्ष कर रहा है। इस संघर्ष को दुष्यंत कुमार अपनी ‘अभिव्यक्ति का प्रश्न’ शीर्षक कविता में आवाज देते हुए कहते हैं-
“यह जो नीला/ जहरीला धूंआ भीतर से उठ रहा है/ यह जो जैसे मेरी आत्मा का गला घुट रहा है,/ यह जो सद्य-जात शिशु-सा/ कुछ छटपटा रहा है,/ यह क्या है?/ क्या है मित्र?.../ मुझे ढँके बैठी जो,/ मुझे मुस्कारने नहीं देती, दुनिया में आने नहीं देती है।/ मैं जो समुद्र-सा/ सैकड़ों सीपियों-को छुपाए बैठा हूँ,/ सैकड़ों लाल मोती खपाए बैठा हूँ,/ कितना विवश हूँ!” [4]
वहीँ ‘अनुभव-दान’ शीर्षक कविता में दुष्यंत कुमार को जिन्दगी ऐसी लगती है जैसे किसी बीमार बच्चे के सपने टूट गये हों और जिन्दगी आँगन की दीवार से पीठ लगाए खड़ी है। और शोषित और उपेक्षित अपने आपको ऐसा महसूस कर रहे हैम जैसे डोर से कटी हुई पतंग छत की मुंडेर पर पड़ी रहती है। ऐसी स्थिति में भी दुष्यंत कुमार उनसे क्रांति का संचार लाने के लिए कहते हैं। वे ‘उबाल’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“गाओं...!/ काई कि नारे से लग जाए/ अपने अस्तित्व की चेतना जग जाए/ जल में/ ऐसा उबाल लाओ...!” [5]
जनवादी कविता में कवियों ने उपेक्षित और शोषितों की आवाज को उठाया है क्योंकि शोषणकारी शक्तियों ने हमेशा इनकी आवाज को दबाने का काम किया है। इनको मारते भी थे और रोने भी नहीं दिया जाता था। जनवादी कवि कहता है कि आवाज़ को बुलंद करो जिससे कोई तुम्हारी आवाज़ को दबा ना सके इसलिए दुष्यंत कुमार अपनी ‘आवाज़’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“और सुनो/ ये मेरी ही आवाज़ है जिसे घोंटा जा रहा है/ जिसे दबाया और कुचला जा रहा है/ जिस पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है/ और कल अगर ये दब गई/ तो फिर क्या सुनोगे?/ ख़ामोशी? सहोगे?/ आज भी ये घुटे-घुटे स्वर तुम कुछ लोगों तक आते हैं।/ क्या तुम ये नहीं चाहते कि सब पंछी आज़ाद हों/ कि ये स्वर दूर तक फैलें, नभ चूमें/ सब इन्हें सुने” [6]
दुष्यंत कुमार कहते हैं कि शोषण और अत्याचारों के खिलाफ ये जो आवाज़ उठाई जा रही हैं उनका स्वर मध्यम नहीं होना चाहिए बल्कि देश के कोने-कोने में क्रांति की यह आवाज़ सुनाई देनी चाहिए। बढ़ते हुए शोषण और अत्याचारों से परेशान होकर दुष्यंत कुमार जनता से आह्वाहन करते हुए ‘बंदूक चलाएँगे’ शीर्षक कविता में कहते हैं कि कलम नहीं अब बंदूक चलाएँगे। दावत को उठाकर कोने में रख दो क्योंकि अभी देश में हवाएँ प्रतिकूल चल रही हैं। अब आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को सवाल करने चाहिए व्यवस्था से कि हमारा भविष्य ऐसा ही रहेगा क्या? दुष्यंत कुमार अपनी ‘चेहरे पे प्रश्न’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
“मैंने हर चेहरे पर एक प्रश्न/ उगाने की कोशिश की?/ आखिर वह कौन-सा सुख है/ जो आशाओं को लोरियाँ सुना रहा है?/ पालने में पड़े हुए मांस के पिंड पर, जश्न मना रहा है/ कौन-सा भविष्य है/ जो बाँहें पसारे खड़ा है?” [7]
यह समझ नहीं आता है कि हमारा कसूर इतना है कि हमने तुम्हारे द्वारा दिखाए गए स्वप्नों को सच मान लिया। क्या हम केवल सभाओं में तालियाँ हीं पीटते रहेंगे? हमारी भूख का क्या होगा? हमारा दिमाग अख़बारों में आश्वासनों को पा-पाकर भन्ना गया है। अब सवाल करने का समय आ गया है। इस समय को दुष्यंत कुमार अपनी ‘सवाल ये है’ शीर्षक कविता में इस प्रकार से लिखते हैं-
“कि एक सवाल आने वाला है/ आंधी की तरह नहीं/ चुने हुए प्रतिनिधियों की तरह/ वह अगले वर्ष संसद भवन में घुसेगा/ और गूंज उठेगा/ तुम तैयार रहो/ कुछ ने हो हाथों में/ ढेले ही उठा लो।” [8]
यह जो बदलाव का तूफान खड़ा हुआ है अब यह शांत नहीं होने वाला है। तुम्हारे झूठे वादों और आदर्शों से हम अब बंधने वाले नहीं हैं। हम अब अपने जीवन में समानता का नक्शा लिए बैठे हैं। अब तुम्हारा अत्याचार हम नहीं सहेंगे।

जनवादी कवि अपनी कविताओं के माध्यम से जनता में विश्वास जगाने का काम करता है। वह जनता को विश्वास दिलाता है कि दैनिक जीवन की समस्याओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि बदलाव के समय जीवन में कुछ कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। जनवादी कवि जानता है कि जनशक्ति बड़े से बड़ी समस्याओं के पहाड़ों को उखाड़ फेंक सकती है। जनवादी कविता जनता में विश्वास जगाने का साहसीपूर्ण कार्य करती है। और साथ ही जनता को आशावादी बनाए रखती है। और कवि को यह उम्मीद है कि जिस दिन सर्वहारा या बहुजन वर्ग एकबध्द होकर शोषणकारी और अत्याचारी ताकतों का सामना करेगा उस दिन ये ताकतें धूल में मिल जाएँगी। और अपने अधिकारों से वंचित नहीं रहेंगी इसलिए इस क्षणिक अंधकार से घबराने की आवश्यकता नहीं है। दुष्यंत कुमार अपनी ‘दिन निकलने से पहले’ शीर्षक कविता में जनता में विश्वास जगाते हुए कहते हैं-
“मनुष्य जैसी/ पक्षियों की चीखें और कराहें गूंज रही हैं,/ टीन के कनस्तरों की बस्ती में/ ह्रदय की शक्ल जैसी अंगीठियों से/ धूंआ निकलने लगा है,/ आटा पीसने की चक्कियाँ/ जनता के सम्मिलित नारों की-सी आवाज़ में/ गड्गाड़ाने लगी है/ सुनो प्यारे! मेरा मन बैठ रहा है”/ “अपने को सँभालों मित्र!/ अभी ये कराहें और तीखी;/ ये धुआं और कड़ुआ,/ ये गडगडाहट और तेज़ होगी,/ मगर इनसे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं,/ दिन निकलने से पहले ऐसा ही हुआ करता है।” [9]
अगर हम एक साथ रहेंगे तो गुलामी और शोषण की सारी जंजीरों को तोड़ देंगे। इसमें दुखी होने की आवश्यकता नहीं है बस सब को एक साथ होकर चुनौतियों से सामना करना है । इस संदर्भ में दुष्यंत कुमार अपनी ‘दोस्त मेरे!’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“इसी सत्ता की चुनौती के तले हैं/ हमारे सपने निकट/ बंधन नि“दोस्त मेरे/ आज तू ही नहीं/ हम भी/ यत होने चले हैं।/ पर नहीं/ तूने कि जैसे सिर उठाया/ और सहसा चुनौती के सामने आया/ लेखनी अपनी पराई तो नहीं/ हम चुनौती की दिशा में मोड़ देंगे/ उस तरह हम भी/ खनकती हुई ज़ंजीरें/ दमन की तोड़ देंगे” [10]
दुष्यंत कुमार अपनी ‘अपराध’ शीर्षक कविता में लिखते हैं कि जब तक हम एकता के सूत्र में नहीं रहेंगे तब तक हम पर सत्ता जुल्म करती रहेगी। सत्ता हमेशा हमारे अकेलेपन का फायदा उठाती है इसलिए हम सबको एक साथ सत्ता से लड़ाई लड़नी है। जिसके विषय में कवि लिखता है-
“अब शाम किसी खतरे की तरह नाज़िल नहीं होती/ लोगों ने अँधेरे से लड़ने की सूरत समझ ली/ चाहे कितना भी भारी हो बोझ/ हाथों पर थामा जा सकता है/ जुल्म चाहे कितना हो/ आवाज़ मरती नहीं है/ उसने सिर्फ इतना कहा था कि आवाज़ देते रहो/ कोई पूरब से दो/ कोई उत्तर-दक्खिन और पश्चिम से/ सिर्फ जुड़े रहो बोलते हुए/ यानी ख़ामोशी तोड़ते हुए/ जैसे सड़कों पर पत्थर/ या शोषण की ज़ंजीरे तोड़ी जाती हैं।” [11]
जनवादी कवि अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में फैली सामाजिक विद्रूपताओं, विकृतियों, विडम्बनाओं और विसंगतियों आदि का चित्रण करता है और समाज को जागरूक करके उन्हें दूर करने का प्रयास करता है। स्वतंत्रता के बाद सामाजिक सम्बन्धों में तेजी से गिरावट आई है। व्यक्ति भीड़ से घिरा होने के बावजूद अपने आप को अकेला महसूस करता है। कोई किसी का दुःख-दर्द सुनने वाला नहीं है। ज्यादात्तर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के पास अपने मतलब की सिध्दि के लिए बैठता है। समाज की क्या बात करें परिवार जैसे आत्मियपूर्ण सम्बन्धों में गिरावट आई है। मनुष्य अपनी नैतिकता को भूलकर अनैतिक होता जा रहा है। यह मनुष्य का अपना ही बोया हुआ बीज है जो पूरी फसल बनकर तैयार खड़ी है। जो काटनी आम जनता को है। आम जनता को अनेकों प्रकार की समस्याओं ने घेरे लिया है। समाज में चौरी-चकारी, मार-काट, दुर्घटना और बलात्कार आदि घटनाएँ आम हों गईं हैं। आम जनता के ऐसे त्रासदीपूर्ण जीवन का चित्रण जनवादी कविता करती है। ऐसे ही आम जनता का चित्रण दुष्यंत कुमार ने अपनी ‘तोड़ों मत’ शीर्षक कविता में किया है। मनुष्य के लिए अपना अस्तित्व ही सर्वोपरि है लेकिन अब उसका अस्तित्व ही खतरे में है। वह सामाजिक और व्यवस्था के ठेकेदारों से कह रहा है कि मेरे इस अस्तित्वबोध को तोड़ो मत मैं इस झूठे अस्तित्व के साथ ही जी लूँगा। कविता में कहता है-
“मेरा अस्तित्व-बोध छेड़ों मत/ रहने दो/ भ्रम ही/ लेकिन यह तोड़ो मत/ रहने दो/ थोड़ी-सी पीड़ा ही होगी न?/ कम से कम/ खुद को पैगंबर तो कह लूँगा!” [12]
आज मनुष्य इतना अकेला हो गया है कि उसकी आवाज़ को कोई सुनने वाला नहीं है। जिसकी पीड़ा मनुष्य को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है। यह समय चुप बैठने का नहीं है बल्कि समाज में फैली सभी समस्याओं से टकराने या चुनौती देने का समय है। और इन क्षुद्र रूढ़ियों, परम्परा और कुप्रथाओं आदि का नाग-सा फन कुचलने का समय है। लेकिन विडम्बना यह है कि ऐसे विषम समय में कोई सुनने वाला ही नहीं है। जिसके विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘बीता सपना’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“कोई तो सुनता होगा/ मेरी आवाज़ को/ युग की समस्त मूकता को/ चुनौती दे/ क्षुद्र रूढ़ियों के नाग-फन/ कुचलकर/ मरुस्थल में खेता हुआ/ प्यास की नौका को/ आया उलाँघ कई सागर/ गिरि-ज्वाल-शिखर/ फिर भी सबसे नीचा स्वर!/ मेरी विनम्रता है।/ कोई तो सुनता होगा/ यह/ मन के मकड़े ने/ जो जले फैलाए थे/ टूट गए/ पगले विश्वासों ने/ हाथों में हाथ जो थमाए थे/ छुट गए/ मंजिल क्या थी पतंग/ बच्चों से कुछ संभ्रम आए थे/ लूट गए/ वह सपना बीत गया” [13]
हमें परिवर्तन की आवश्यकता है। मर्यादा अब केवल ढ़ोंग के सिवा कुछ नहीं है। हम सब को मिलकर ही नए रास्ते खोजने होंगे। बस इतना साहस हमें करना होगा कि किसी से डरने की आवश्यकता नहीं है। समाज का क्या है वह तो हर एक परिवर्तन को अनैतिक ही कहता है इसलिए दुष्यंत कुमार अपनी ‘मर्यादा-महल’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“हर परिवर्तन को विश्व अनैतिक कहता है/ आओं हम अपने संबंधो को साफ करें/ सँकरी सामाजिक गलियों में/ ओढ़कर लबादा चलने से डर लगता है।” [14]
यह कैसी विडम्बना है कि व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के लिए सारी सृष्टि निर्जीव पाता है। कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ वह अपने सपनों को पूरा कर सके। जहाँ तक वह देखता है अँधेरा ही अँधेरा नजर आता है। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि इस कुलबुलाती चेतना से ग्रसित ह्रदय में जो छटपटाहट है उसे कहाँ फेंक दे? अर्थात कवि के मन में जनता या समाज के लिए कुछ कर गुजरने की चाह है लेकिन उसे यह समाज निर्जीव नजर आता है। जनता में अपने अधिकारों को लेकर उत्साह नहीं है। इस स्थिति को दुष्यंत कुमार अपनी ‘निर्जन सृष्टि’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“कुलबुलाती चेतना के लिए/ सारी सृष्टि निर्जन/ और/ कोई जगह ऐसी नहीं/ सपने जहाँ रख दूँ/ दृष्टि के पथ में तिमिर है/ औ’ ह्रदय में छटपटाहट/ ज़िंदगी आखिर कहाँ पर फेंक दूँ मैं/ कहाँ रख दूँ?” [15]
हमें आजादी से पहले रंग-बिरंगे सपने दिखाए गए लेकिन वे सपने अब कहाँ गए? व्यवस्था हमें बताती क्यों नहीं है कि उसने जो वादे किए थे वो कहाँ हैं? हमें सत्ता द्वारा ठगा गया है। हमें अपने ही घरों में कैद किया गया है। आजादी के इस वातावरण में घुटन फैल गईं है लेकिन ऐसे विषम समय में भी जन कवि राह खोजने की बात करता है। जिसके विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘राह खोजेंगे’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“हम पराजित हैं मगर लज्जित नहीं हैं/ हमें खुद पर नहीं/ उन पर हँसी आती है/ हम निहत्थों को जिन्होंने हराया/ अँधरे व्यक्तित्व को अंधी गुफाओं में/ रोशनी का आसरा देकर/ बड़ी आयोजना के साथ पहुँचाया/ और अपने ही घरों में कैद करके कहा :/ “लो तुम्हे आज़ाद करते हैं।” [16]
दुष्यंत कुमार कहते हैं कि आज़ादी रूपी जो नुमाईश लगी थी उसके सारे दृश्य अब आँखों को अप्रिय लगने लगे हैं। इनमें अब वो चमक-दमक नहीं है जो आजादी के समय थी। अब देश में विसंगतियाँ फैल गईं हैं। जिसका चित्रण दुष्यंत कुमार कुछ प्रतीकों के माध्यम से अपनी ‘शगुन-शंका’ शीर्षक कविता में करते हैं-
“पारसाल घर में/ मकड़ियाँ बहुत थीं/ लेकिन जाले परेशान नहीं करते थे।/ बच्चे उद्धत तो थे-/ दिन-भर हल्ला मचाते थे।/ फिर भी वे कहा मान लेते थे, डरते थे।.../ पारसाल बारिश में/ छत बहुत रिसी थी,/ लेकिन गिरने का खतरा नहीं था।/जैसे सम-सामयिक विचार/ मुझे अकसर अखरते हैं/ लेकिन मैं उनसे इस तरह/ कभी चौंका या डरा नहीं था,/ अब मेरे आँगन में रोज/ बिल्लियाँ लड़ती हैं।” [17]
जनवादी कवि अपनी कविताओं के माध्यम से मानवीय मूल्यों को स्थापित करता है। आधुनिक युग में मानवीय मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है। व्यक्ति आगे बढ़ने की चाह में किसी दूसरे का अहित करने से भी नहीं डरता है। वह कैसे भी करके दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। उसे यह भी मालूम नहीं है कि उसकी मंजिल कहाँ है? मंजिल को पाने की चाह में वह परिवार और समाज से लगातार दूरी बनाता जा रहा है। यदि उसने अपनों के बिना मंजिल को पा भी लिया तो उसका क्या लाभ होगा। जहाँ उसका अपना कोई नहीं होगा। व्यक्ति के आत्मीय संबंधों में भी मधुरता का अभाव दिखने लगा है। यदि वह किसी से मिलता है तो बेमन से मिलता है। समाज में सब एक-दूसरे की गर्दन काटने में लगे हुए हैं। सब अपने दुःख से कम, दूसरों के सुख़ से ज्यादा दुखी हैं। समाज में पवित्र-अपवित्र, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और बड़ा-छोटा आदि के जाल में फंसे हुए हैं। जनवादी कवि ऐसे विषम समय में मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानता है क्योंकि मानवता के धर्म से कोई बड़ा धर्म नहीं है। मनुष्य की आशा, इच्छा, आकांक्षा आदि लगातार बढ़ती जा रही हैं जिसके कारण मानवीय मूल्यों का पतन हो रहा है। जिसके विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘आकांक्षा’ शीर्षक कविता में बच्चे के हवाले से लिखते हैं कि बच्चे ने पूछा की आकांक्षा का अर्थ क्या होता है? मैंने सोचा उत्तर दूँ लेकिन मैं चुप रहा और सोचा बोलूं- ‘आकांक्षा’ कोरिया की ज्यादतियाँ, खून-खराबा, युद्ध, हत्या, नृशंसता, गोला-बारूद, टैंक आदि लेकिन फिर चुप हो गया लेकिन बच्चे ने फिर बोला आकांक्षा का अर्थ मास्टर साहब ने मानव को ऊँचा उठाने की एक सीढ़ी बताया है क्या यह सही है? तो मैंने बस इतना कहा कि लगभग सही है। इसमें यह जोड़ लो ‘आकांक्षा’ मानव को ऊँचा और नीचे गिराने की एक सीढ़ी है। अपनी आकांक्षाओं के चलते एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से नफरत और भेदभाव करने लगा है। दुष्यंत कुमार अपनी ‘जभी तो’ शीर्षक कविता में लोगों के बीच बढ़ती नफरत और भेदभाव को इस प्रकार से रेखांकित करते हैं-
“नफ़रत औ’ भेदभाव/ केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब/ मैंने महसूस किया है/ मेरे ही घर में/ बिजली का सुंदर औ’ भड़कदार लट्टू-/ कुरसी के टूटे हुए बेंत पर,/ खस्ता तिपाई पर,/ फटे हुए बिस्तर पर, छिन्न चारपाई पर,/ कुम्हलाए बच्चों पर,/ अधनंगी बीवी पर-/ रोज व्यंग्य करता है, जैसे वह कोई ‘मिल-ओनर’ हो।” [18]
अब कोई किसी की सहायता करने वाला नहीं है। जिसकी समस्या है उसी को हल करनी होगी। लोग तमाशा देखने वाले ज्यादा हैं आज के समय में। इसी को दुष्यंत कुमार ने अपनी ‘भविष्य की वंदना’ शीर्षक कविता में राम-सीता और लक्ष्मण के हवाले से रेखांकित किया है-
“सुनो, आहत राम ने लक्ष्मण को पुकारा/ हरी गई सीता!/ अब किसी बियाबान वन में जटायु टकराएगा/ नहीं, वायुयान में बिठाकर ले जाएगा/ अव्वल तो जटायु नहीं आज” [19]
मनुष्य ने मानवता के स्थान पर धन को ज्यादा महत्व देना शुरू कर दिया है। और धन लिप्सा से लिप्त हुआ मनुष्य भावना शून्य हो जाता है। मनुष्य का मनुष्य के प्रति आचरण और व्यवहार बदल जाता है जिसके विषय में दुष्यंत कुमार अपने ‘एक कंठ विषपायी’ गीति-नाट्य के तीसरे दृश्य के अंतर्गत शंकर, कुबेर से कहते हैं-
“कर्तव्य तुम्हारा/ धन-संचय से इतर/ और भी है कोई/ यदि है तो, हे धनपति कुबेर!/ यह है कुयोग;/ धन के दृष्टि नहीं होती/ भावना-शून्य हो जाती हैं/ धनवान लोग/ आत्मस्थ बना देती है सत्ता मित्रों को/ आचरण बदलते जाते हैं/ उनके क्षण-क्षण,/ अपनत्व खत्म हो जाता है/ बचा रहता है थोडा-सा शिष्टाचार और औपचारिकता,/ प्रभुता का ऐसा ही होता है आकर्षण।” [20]
मनुष्य अपनी ईर्ष्या के कारण लगातार गिरता जा रहा है। जब कोई पत्थर ढलान से गिरता है तो बता सकते हैं कि वह कितना गिरेगा लेकिन जब मनुष्य गिरना शुरू करता है तो अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वह कितना गिर सकता है। पत्थर तो खुश नसीब होते हैं कि उन्हें कभी-कभी किसी पेड़ या झाड़ का सहारा मिल जाता है। जिसके विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘कि उसका अंत कहाँ होगा’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“आदमी जब गिरना शुरू करता है/ तो ढाल से लुढ़कते हुए पत्थर की तरह/ कोई नहीं कह सकता/ कि उसका अंत कहाँ होगा” [21]
अब मानवीय मूल्यों में इतना परिवर्तन आ गया है कि यात्रियों को एक गॉंव से निकलने में कठिनाई होती है। यात्रियों को देखकर घरों में बैठे हुए लोग बड़बड़ाते हैं। कोई पानी के लिए भी नहीं पूछता है। और बच्चे उनके पीछे कुत्तों को लगा देते हैं। सड़ी हुई गर्मी में तो यात्रा करना और मुश्किल हो गया है। कहीं भी ठहरने के लिए जगह या पड़ाव नहीं मिलता है। ये लेखक के तत्कालीन मानवीय मूल्यों का विघटन है आज तो मनुष्य बहुत आगे बढ़ गया है गिरते –गिरते। अब तो मानवीयता की सारी परिभाषाएँ बदल गईं हैं जिनके विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘कहाँ से शुरू करें यात्रा’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“आज साक्षी है युग जिसमें/ सिर्फ पांवों तले की जमीन ही नहीं/ बल्कि जीवन के मूल्य, तत्व, बदल गए/ बदल गए-/ महाकाल पर्वत मरुस्थलों में/ समतल मैंदानों में/ कलों-कारख़ानों में,/ तीर्थस्थल, मंदिर और मस्जिद, मैखानों में/ मूल्य भावनाओं में/ मानवीय संस्कार, सामयिक विचारों में/ आस्था, प्रतीक्षा में अवसर की,/ बदल गईं हैं सारी परिभाषाएँ ईश्वर की!” [22]
जनवादी कवि विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवाद से प्रभावित हैं। जनवादी कवि मार्क्सवाद की तरह ईश्वरीय सत्ता को नकारते हैं। जनवादी कविता तथ्यों और वैज्ञानिक मूल्यों को मानती है। वह किसी भी तरह के धार्मिक अनुष्ठान के पक्ष में नहीं है। जनवादी कवि मानता है कि धार्मिकता के नाम पर जनता का पंडा-पुरोहित और मुल्ला-मौलवी शोषण करते हैं और उन्हें असली मुद्दों और अधिकारों से वंचित रखा जाता है। वे धार्मिकता के जाल में उलझकर अपने जीवन को अंधविश्वासों से तबाह कर लेते हैं। जनवादी कवि व्यक्ति के श्रम को महत्व देता है इसलिए ईश्वरीय प्रार्थना के स्थान पर कर्म को महत्व देता है। दूसरी और अपने तथाकथित उच्च वर्ग का कहने वाले धर्म के ठेकेदार आम जनता के साथ कीड़ों-मकोड़ों जैसा व्यवहार करते हैं। इन्होंने निम्न समझे जाने वाली जातियों को हमेशा दोयम दर्जे का मानकर पशुतुल्य व्यवहार किया। देश-समाज के सभी सुख-सुविधाओं पर अपना एकाधिकार बनाए रखा। साथ ही दूसरे वर्ग को शिक्षा से दूर रखा। इन्हें यह डर हमेशा से रहा कि यदि शिक्षा रूपी प्रकाश इन तक पहुँचने लगा तो ये अपने अधिकारों की मांग करेंगे। वहीं दूसरी तरफ इन्होंने स्त्री को संसार का हिस्सा ही नहीं माना। हमेशा उसे घर की चार दीवारी में कैद करके रखा। उसकी आवाज़ को हमेशा दबाकर रखा गया है। स्त्री की पीड़ा को देखकर दुष्यंत कुमार अपनी ‘उस समाज को’ शीर्षक कविता में लिखते हैं कि उस समाज को कोई रसातल में जाने से नहीं बचा सकता है जिसमें स्त्री का सम्मान नहीं होता है। जिस समाज ने उसे अबला का नाम दिया, जी भरकर अपमान किया, उसका सीमित क्षेत्र किया, राहों से अनजान किया, विधवाओं पर अत्याचार किए, व्यंग्यों के कोड़े चला दिए, जलते अंगार दिए, मुख से कहने का अधिकार नहीं और जबान को हिलने का अधिकार नहीं आदि को कवि आधार बनाकर लिखता है-
“जिस समाज में नारि जाति को अबला का उपनाम दिया है/ जिस समाज ने नारि जाति को जी भरकर अपमान किया है/ अपने घर की प्राचीरों तक उसका सीमित क्षेत्र बनाकर/ जिस समाज ने उसको अपनी राहों से अनजान किया है/ उस समाज को कौन अरे ठोकर खाने से रोक सकेगा” [23]
जनवादी कवि के केंद्र में आम जनता और उसकी समस्याएँ रहती हैं। जब किसी देश या राष्ट्र की सत्ता तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाती है तो उसमें आम जनता का दमन होता है। उसे उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। उसे अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं करने दिया जाता । वह अपने ही देश में गुलामों जैसी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर हो जाता है। देशहित में कही गई बात यदि सत्ता के खिलाफ होती है तो सत्ता लोगों द्वारा कहने वाले को देशद्रोही की संज्ञा देकर ‘पाकिस्तान जाने को’ कहा जाने लगता है। इस तरह जनता को सत्ता का डर दिखाकर उसके अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ-साथ स्वतन्त्रता को भी छीन लिया जाता है। जनता पर झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया जाता है। ऐसे विषम समय में जनवादी कवि अपनी कविता के माध्यम से सत्ता के दमन और तानाशाहीपूर्ण रवैये का विरोध करता है। साथ ही अपनी पक्षधरता सत्ता के अत्याचारों से पीड़ित जनता के पक्ष में दर्ज करता है। और सत्ता की आँख में आँख डालकर दुष्यंत कुमार कहते हैं-
“तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की,/ ये एहतियात ज़रुरी है इस बहर के लिए।” [24]
यह कवि का कर्तव्य है कि वह आम जनता की आवाज़ बनकर सत्ता से सवाल करे, नकि सत्ता की चापलूसी करे। कवि को अपने ही देश तक सीमित न रहकर पूरे विश्व को अपनत्व के रूप में देखना चाहिए। उसे समाज में व्याप्त पीड़ाओं को कविता में उठाकर, उत्तरदायी ताकतों का विरोध करना है। उसकी लेखनी जनता की पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए ही बनी है। उसे सत्ता के शोषणकारी रवैये से टकराकर नया इतिहास लिखना है। इसके लिए कवि को वातावरण में घुले ज़हर को सबसे पहले पीना होता है। जब सत्ता के विरोध में भीड़ के बीच से आवाज़ नहीं उठती है तो सबकी उम्मीदे कवियों से होती हैं। उस समय जनता कवि को बड़े स्नेह, दर्द, पीड़ा, आशा और आस्था के साथ देखती है। कोई है जो उसकी पीड़ा को समझ रहा है। ऐसे विषम समय को दुष्यंत कुमार अपनी ‘ओ अपरिचित मित्र!’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“दोस्त मेरे/ नया कोई भी नहीं व्यवहार तेरे साथ/ यही तो होता रहा है/ जिस किसी ने भी सच्चाई को छुआ/ खोला/ कुरेदा/ सदा उसके अधर सिलने के लिए सत्ता उठी/ मज़बूत लेकर हाथ/ और यों अभिव्यक्ति को कुचला गया.../ तूने कि जैसे सिर उठाया/ और सहसा चुनौती के सामने आया/ उस तरह हम भी खनकती हुए ज़ंजीरे/ दमन की तोड़ देंगे!/ लेखनी अपनी पराई तो नहीं/ इस चुनौती की दिशा में/ मोड़ देंगे।” [25]
जब कोई सहसा खड़ा होकर सत्ता को चुनौती देता है तो सत्ताधारी सत्ता के नशे में विद्रोह को कुचलने के लिए नीचता की सारी सीमाओं को पार कर जाते हैं। पुलिस और अपने चापलूसों द्वारा विद्रोह को दबाने के लिए कत्ले आम करवा देते हैं। ऐसे समय में सड़कों पर जमा हुआ खून और टूटी हुई हड्डियों के साथ क्षत-विक्षत अवस्था में लाशें पड़ी रहती हैं जिसके लिए केवल सत्ता में बैठे लोग ज़िम्मेंदार होते हैं। फिर बाद में घड़ियाली आँसू बहाकर जनता के हितेषी होने का ढ़ोंग करते हैं। सत्ता में बैठे अत्याचारियों के इन पापों का उत्तरदायित्व भी आम जनता को ही वहन करना पड़ता है। यह सब होता है रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे असली मुद्दों को भटकाने के लिए। दुष्यंत कुमार अपने ‘एक कंठ विषपायी’ गीति-नाट्य में ऐसी एक स्थिति का चित्रण करते हुए सर्वहत(आम जनता) और ब्रह्मा(सत्ता) संवाद में लिखते हैं-
“मैं इसमें आकर/ प्रयोजन ही भूल गया हूँ... / शायद मैं भूखा हूँ/ रोटी के लिए यहाँ आया हूँ...नहीं! नहीं!/ मांस और मदिरा/ नहीं, यह भी नहीं/ हाँ! याद आया/ रक्त!/ लाल-लाल/ ताज़ा-ताज़ा/ गरम-गरम, तुम मुझे चुल्लू-भर रक्त/ पिला सकते हो। आह/ आज मैं बहुत प्यासा हूँ.../ यहाँ तुम्हें रक्त नहीं मिल सकता..../ एक बूंद रक्त यहाँ बहुत मूल्य रखता है.../ क्या बच्चों-सी बातें करते हैं आप लोग/ आप लोग शासक हैं/ और शासकों को कहीं/ रक्त की कमी हुआ करती है।/ आप लोग चाहे तो मेरे लिए/ रक्त का समुंदर भर सकते है।” [26]
ऐसे विषम समय में जनवादी कवि अपनी कविता की चिंगारी से आम जनता के अंदर आशा, उम्मीद की ज्योति जलाने का काम करता है। जनता सत्ता के ज़ुल्म और तानाशाही रवैये से टकराने के लिए दोबारा खड़ी हो जाती है। आम जनता की इस प्रवृति को देखकर किसी शायर ने लिखा है ‘हर रोज गिरकर भी मुक्कमल खड़े हैं, ऐ ज़िन्दगी देख मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं।’ सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ी होती आम जनता को देखकर दुष्यंत कुमार अपनी ‘तुमने देखा’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“तुमने देखा-/ लोग अब आहिस्ता-आहिस्ता इस सडक पर इकट्ठा होने/ लगे हैं/ देखो, उनके ख़ाली हाथों की मुट्ठियाँ/ किस तरह कसी हुई हैं!/ उनके लहूलुहान पाँवों को मत देखों,/ उनकी चाल को देखो।/ जिसमें आक्रामक व्याघ्र की चुस्ती बसी हुई है,/ उनके शरीर पर मत जाओ-/ कि ये अस्थिपंजर कागज़ के पुलों की तरह/ खड़क रहे हैं;/ उनके सीनों को देखों/ जिनमें लहू के फव्वारे/ जवान चिनगारियों की तरह फड़क रहे हैं।” [27]
एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि ये आन्दोलन या विद्रोह जनता करती क्यों है? जब सत्ता में आकर हमारे तथाकथित जननेता कहे जाने वाले अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, पापी और बलात्कारी नेता आम जनता, किसानों तथा मजदूरों आदि से किए गए अपने वादों को भूल जाती है तब जनविरोधी निर्णयों के परिणामस्वरूप जनता में असंतोष बढ़ने लगता है और सत्ता के खिलाफ विद्रोह तथा जनविरोधी ताकतों को उखाड़कर फेंक देती है। इस प्रकार के नेताओं के विषय में दुष्यंत कुमार अपनी ‘क्यों अपने प्रण को भूल गए’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“हम सोशलिस्ट है, भारत में/ मजदूर राज्य दिखला देंगे/ पूँजीपतियों के छीन सभी/ आसन, किसान बिठला देंगे.../ क्यों अपने प्रण को भूल गए/ जो किए कभी मज़दूरों से” [28]
कागज़ों में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। ऐसे देशों की शासन व्यवस्था की बाग-डोर आमजनता के हाथों में होती है क्योंकि लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कुछ ऐसा ही लिखा है। इसी उम्मीद में हमारे पूर्वजों ने देश को लोकतांत्रिक संविधान दिया था। लोकतंत्र में पूरी तरह आम जनता करता-धरता होती है इसलिए पहले-पहल जनता को भी यही लगा कि अब हमारे जीवन का अँधेरा दूर हो जाएगा लेकिन अँधेरा दूर होने के बजाए और गहरा हो गया। लोकतंत्र आम जनता की कोठरी से निकलकर अमीरों, उद्योगपतियों और पूंजीपतियों की तिजौरी में जाकर बैठ गया है। व्यंग्यकार सम्पत सरल के शब्दों में कहूँ तो ‘जनता को लगता है कि राजा का चुनाव प्रजा करती है दरअसल दस-बारह मल्टीनेशनल कम्पनियाँ मिलकर जिसमें चाबी भर देते हैं वो खिलौना चल पड़ता है।’ लोकतंत्र रूपी इमारत के चारों स्तम्भ अपने मूलभूत उद्देश्यों को भूलकर चापलूसी में लग गए हैं। विधायिका के नाम पर जनविरोधी कानून बनाए जा रहे हैं। कार्यपालिका कानून को लागू करने में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाती है। न्यायपालिका से आम जनता का मोहभंग होने लगा है। लोग कोर्ट-कचेरियों के चक्कर काट-काट कर बूढ़े या मर जाते हैं लेकिन न्याय नहीं मिल पाता है। मीडिया जिसकों इसलिए बनाया गया था कि इन तीनों पर नजर रख सके। अब हो उल्टा गया है। तीनों इस पर नजर रखते हैं। यह अपने उद्देश्यों को भूलकर चापलूसी में व्यस्त हो गईं है। इसनें जनता के मुद्दों और प्रश्नों को उठाना ही बंद कर दिया है। लोकतंत्र में जो लिखा गया है ठीक उसका उल्टा हो रहा है। जनता के लिए स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्वता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र, संविधान और कानून आदि जैसे शब्द खोखले, मिथ्या, झूठे तथा भ्रमित करने वाले सिद्ध हुए है। इन भारी अर्थ लिए शब्दों का प्रभाव आम जनता के बीच पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देता है। जिसके कारण जनता के प्रश्नों, मुद्दों और समस्याओं में कोई हल नहीं हुआ इसलिए जनवादी कवियों ने जनता की पीड़ाओं को अपनी कविता का विषय बनाया। इन पीड़ाओं का भोक्ता ख़ुद कवि भी है। लोकतंत्र में बढ़ते भ्रष्टाचार और पक्षपातपूर्ण रैवैये का चित्रण करते हुए दुष्यंत कुमार अपने ‘एक कंठ विषपायी’ गीति नाट्य में ‘सर्वहत’(जनता) पात्र के हवाले से लिखते हैं-
“क्यों?/ क्या अपने महादेव शंकर के साथ/ इन्हीं लोगों ने/ किया नहीं पक्षपात/ सीमा पर उनके लिए/ रक्त की नदियाँ खुलवा दीं/ और मुझे कहते हैं- ‘यहाँ रक्त नहीं मिल सकता/ यहाँ रक्त है अमूल्य।’/ बतलाओ-/ मुझमें या शिव में क्या अंतर है?/यही ना कि मैं तो सर्वहत हूँ/ साधारण हूँ/ और वो विशिष्ट देवता है, शिव शंकर है!/ किन्तु प्यास दोनों की एक-सी है।/ ओह!/ किंतु क्षमा करें/ भटक गया था मैं,/ मैं तो प्रजा हूँ/ मुझे क्या हक़ है?” [29]
यह कैसी विडम्बना है कि जिस लोकतंत्र ने प्रजा को सर्वेसर्वा माना है उसी तंत्र में वही सबसे दीन-हीन दशा में संघर्ष कर रही है। उसकी कोई सुनने वाला नहीं बचा है। वह केवल चुनाव की रैलियों में नारे लगाने वाली, तालियों से शोर करने वाली, पार्टी का झंडा लहराने वाली आदि भीड़ बनकर रह गईं है। और झूठे आश्वासनों के सिवा इन्हें कुछ नहीं मिलता है। जिस संदर्भ में दुष्यंत कुमार अपनी ‘आश्वासनों का सूर्य’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“डूब जाएगा पुनः आश्वासनों का सूर्य/ भाषणों की धूप में तपते हुए चेहरे / विदा लेंगे/ फिर अँधेरा घेर लेगा घरों को/ चुपचाप हारे हुए अपने आपसे/ सब लोग/ अपने हाथ और हथेलियाँ सहलाएंगे।/ जो सभाओं में तालियोँ का शोर करने /ज़ोर से नारे लगाने को उठाए गए थे/ उत्साहवश या विवश करके/ वहाँ लाए गए थे/ वो लोग थककर बैठ जाएँगे.../ फिर वही/ फिर-फिर वही, जो हुआ अब तक/ वही होता जाएगा।” [30]
हमें मालूम है कि लोकतंत्र के यंत्र में हमारे हाथ में कुछ नहीं है। हम केवल इस तंत्र में शतरंज के मोहरों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। हमारे पास अपनी समस्याओं और होठों पर जलते सच तथा न्याय की दुहाई की उम्मीद के सिवा कुछ नहीं है। और एक कलम है हमारे हाथ में जिसे मैं खड़ग बनाता हूँ। लोकतंत्र में जनता की अहमियत के विषय में कवि अपनी ‘जलता सच’ शीर्षक कविता में लिखता है-
“हम जानते हैं कि इस तंत्र में/ क्रिया और कारक कोई है.../ हमें यह भी पता है/ कि कागज़ की तरह हम केवल/ अंकित होते जाने को अभिशप्त हैं/ हमें यह हक नहीं है/ कि अपने सीने पर/ उगे हुए और उगते हुए झूठ को काट दें” [31]
जिस लोकतंत्र को जनता ने लौह का पुतला समझा था आखिर में वो तो मोम का निकल गया। उसे अमीरों, उद्योगपतियों और पूंजीपतियों आदि की दौलत की गर्मी के आगे पिघलने में जरा भी देर नहीं लगी। और जिसे उम्मीदों का सूर्य समझा गया वह दौलत की धुंध में अपनी चमक ही भूल गया।

जनवादी कविता में आम जनता की समस्याओं को कवि उसकी ही भाषा में लिखता है क्योंकि जनकवि का उद्देश्य अपनी बात को आम जन तक पहुँचाना होता है। जनकवि जन की समस्याओं को जनभाषा में ही प्रकट करता है। जिससे सम्प्रेष्ण ठीक से हो सके इसलिए जनभाषा का प्रयोग जरूरी हो जाता है। जो उनकी पीड़ाओं को सही से जुबान दे सके। कुछ ऐसा ही दुष्यंत कुमार अपने ‘जलते हुए वन का बसंत’ कविता संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि, “पाठक से यह पूछना बहुत जरूरी है कि वह कविता के संदर्भ में आज क्या सोचता है? और क्या कविता उस तक पहुँच रही है? मैं ऐसे हवाई पाठक की कल्पना नहीं करता, जिसके बौध्दिक आयाम मेरे साँचों से मेल खाते हों। मैं तो खुद पाठक रूप में, उस कविता की खोज करता हूँ जो हर व्यक्ति की कविता हो और हर कंठ से फूटे।” [32]

उपरोक्त विवेचन-विश्लेष्ण के बाद कहा जा सकता है कि दुष्यंत कुमार की कविताओं में जन के प्रश्नों, मुद्दों और समस्याओं को, उन्हीं की भाषा में गंभीरता से उठाया गया है इसलिए कवि की कविता जनवादी कविता का प्रमाण है। दुष्यंत कुमार एक सच्चे जन प्रतिनिधि कवि हैं।

संदर्भ ग्रंथ सूची
  1. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 423
  2. वही, पृ.सं. - 203
  3. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 228
  4. वही, पृ.सं. - 356
  5. वही, पृ.सं. - 374
  6. वही, पृ.सं. - 400
  7. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 158
  8. वही, पृ.सं. - 210
  9. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 347
  10. वही, पृ.सं. - 406-407
  11. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 230
  12. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 305
  13. वही, पृ.सं. - 315
  14. वही, पृ.सं. - 331
  15. वही, पृ.सं. - 444
  16. वही, पृ.सं. - 454
  17. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं.- 156
  18. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 351
  19. वही, पृ.सं. - 453
  20. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 80
  21. वही, पृ.सं. - 128
  22. वही, पृ.सं. - 181
  23. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 134
  24. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 261
  25. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 409
  26. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 104
  27. वही, पृ.सं. - 215-216
  28. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 1, पृ.सं. - 155
  29. संपादक विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार रचनावली भाग- 2, पृ.सं. - 106
  30. वही, पृ.सं. - 120
  31. वही, पृ.सं. - 135
  32. वही, पृ.सं. - 140
आज़ाद, शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद. मोबाइल नम्बर- 8341838118 ईमेल- azad120691@gmail.com