Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

भारतीय लोक नाट्य-परंपरा और ‘बिदेसिया’

भरतमुनि प्रणीत ‘नाट्यशास्त्र’ में तीन प्रमाणों का उल्लेख किया गया है | ये प्रमाण हैं- लोक, वेद तथा अध्यात्म | इन तीनों के अंतर्गत भी भरतमुनि ने ‘लोक’ को अधिक महत्व देते हुए नाटक-प्रयोक्ता को किसी भी दुविधा की स्थिति में लोक के प्रमाण को ही अधिक महत्व देने की ओर संकेत किया है | इस वर्तमान वैश्वीकरण के युग में भी, जब पूँजी, तकनीकी, उपभोक्तावाद आदि के बढ़ते प्रभाव के कारण मानव-स्वभावजनित सहज संवेदनाएँ दूर होती चली जा रही हैं, ऐसे कठिन समय में लोक की नाना रस-गंधमय युक्त संस्कृति एवं उसके विविध आयाम ही मनुष्य को पुनः उन सहज मानवीय गुणों एवं मूल्यों की ओर वापस ले जाने में सक्षम हैं | ‘लोक’ के इन विविध पक्षों के अंतर्गत भी लोक-नाटकों का महत्व सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष रहा है | अतीत की परतों में देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक-नाटकों का अस्तित्व हमारे देश में अत्यंत प्राचीन काल से ही है | कह सकते हैं कि आदिम युग में जब प्रथम बार मनुष्य ने अपने आंगिक प्रयासों एवं हाव-भाव के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया होगा, तभी से इस सृष्टि में नाटक की उत्पत्ति हुई होगी | या अन्य शब्दों में कहें तो यही कहा जा सकता है कि नाटकों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मनुष्य |

जहाँ तक लोक-नाट्यों के आविर्भाव की बात की जाएँ, तो इस सम्बन्ध में कोई एक मत निर्विवाद रूप से मान्य नहीं है | प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं उपलब्ध साहित्य में नाटक और अभिनय के साक्ष्य तो मिलते हैं, परन्तु उनसे लोक-नाट्यों की उत्पत्ति की ओर कोई विशेष संकेत नहीं मिलता | वस्तुतः “लोकनाट्य परम्परा का जन्म तो मानव जाति के ज्ञात इतिहास से पूर्व अज्ञात सुदूर के गहन अतीत में हुआ होगा, तब उसके काल का निर्धारण, कोरे सिद्धांतों और अटकलों का विषय ही हो सकता है, किसी निश्चित और सटीक प्रमाण के अभाव में विद्वानों के निष्कर्षों को अपने-अपने अनुमान मानना चाहिए |”1

धारणीकृत रूप में हम यह कह सकते हैं कि लोकनाट्य मनुष्य के इतिहास की एक अविरल धारा के रूप में अनंतकाल से प्रवाहित होती आई है, जिसके उत्स में लोक-जीवन की सहज परम्पराएं, किम्वदंतियाँ, संस्कार, कथाएँ, बोली, बानियाँ आदि शामिल हैं | यह मनुष्य का स्वभाव ही है कि जहाँ कहीं भी मनुष्य रहता है, वह अपने आनंद की प्राप्ति के लिए किसी-न-किसी मनोरंजन के माध्यम को आविष्कृत कर ही लेता है | इन्हीं मनोरंजनात्मक माध्यमों में से “नाटक, सहज संस्कार प्रसृत होने से, अभिनयशील और कलात्मक होने से सामाजिक उपयोगिता बनकर सामूहिक कृति बन गयी |”2

‘नाट्यशास्त्र’ को भले ही नाटक सम्बंधित प्रथम ग्रन्थ माना जाता रहा हो, परन्तु इससे पूर्व नाटकों की कोई परंपरा न रही हो, ऐसा संभव नहीं | ‘नाट्यशास्त्र’ के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके निर्माण की पृष्ठभूमि में नाटकों की एक समृद्ध पूर्व-परंपरा रही है, जिस पूर्व-परंपरा में लोकनाट्य-शैलियों का एक सुष्ठु आधार निश्चित ही अवलंबित रहा होगा | इस तथ्य का प्रमाण ‘नाट्यशास्त्र’ में यत्र-तत्र मिल ही जाता है, जहाँ भरतमुनि ‘लोकधर्मी’ एवं ‘नाट्यधर्मी’ परंपरा का विवेचन करते हैं| इस विवेचन के अंतर्गत भरतमुनि ‘लोकधर्मी’ नाट्य-परंपरा को ‘नाट्यधर्मी’ परंपरा के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं | यद्यपि यहाँ इस सन्दर्भ में ‘नाट्यशास्त्र’ में प्रयुक्त ‘लोकधर्मी’ एवं ‘नाट्यधर्मी’ शब्दों के अभिप्राय को समझना विशेष आवश्यक है | भरतमुनि के मतानुसार जहाँ ‘लोकधर्मी’ वास्तव में एक प्रकार की अभिनय-शैली है, जिसमें मंच-सज्जा, वेशभूषा, अलंकरण आदि की तुलना में सहजता, अकृत्रिमता एवं नित-प्रतिदिन लोगों द्वारा सहज रूप में किये जाने वाले व्यवहार को उसी रूप में अभिनीत किये जाने पर बल दिया जाता है | वहीं, “ ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय शैली ‘लोकधर्मी’ अभिनय शैली की अपेक्षा अधिक कल्पना-समृद्ध, वैचित्र्यपूर्ण व अनुरंजक होती है | इसमें सांकेतिक वाक्य, स्वगत या आकाशभाषित का प्रयोग मिलता है | इसके पात्र दिव्य और अदिव्य दोनों होते हैं | नृत्य व संगीत का शास्त्रीय रूप इसमें प्रस्तुत होता है | पात्रों की भूमिका में ‘विपर्यय’ (पुरुष स्त्री-पात्र की भूमिका में व स्त्री पुरुष-पात्र की भूमिका में) ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय शैली के अंतर्गत आता है | मानवीय सुख दुःखादि को आंगिक अभिनय एवं वाद्यादी के संयोग से अतिरेक रूप में प्रस्तुत करना ‘नाट्यधर्मी’ अभिनय की विशेषता है |”3

‘नाट्यशास्त्र’ के विभिन्न सूत्रों तथा सूक्तों में यह संकेत भी मिलता है कि इस ग्रन्थ के प्रणयन के पूर्व देश में अनेक प्रकार के लोक-प्रसिद्ध स्वांग (अभिनय, अनुकरण आदि ) आदि प्रचलित थे और यहाँ यह भी ध्यान में रखने योग्य तथ्य है कि किसी भी विधा सम्बंधित शास्त्र का निर्माण तभी होता है, जब उस विधा या कला की एक अपनी विशिष्ट परंपरा या निजी-शैली विकसित हो गयी हो | दूसरी बात जो यहाँ देखते हैं कि भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में रूपकों के जो भेद दिए थे, उनमें से कई भेद लोक में प्रचलित थे और सम्प्रति भी हैं, भले ही परोक्ष रूप में ही क्यों न सही | स्पष्ट ही है कि भरतमुनि के पूर्व भी संस्कृत नाटकों की परंपरा के साथ ही साथ ‘लोकधर्मी’ नाटकों की भी एक स्पष्ट परंपरा विद्यमान थी, जिसने नाटकों की आरंभिक पृष्ठभूमि के निर्माण में आधार का कार्य किया |

आगे चलकर जब 11वीं-12वीं सदी में विदेशी आक्रमण एवं आतंरिक विद्रूपताओं के कारण संस्कृत नाटकों और भारतीय शास्त्रीय रंगमंच का ह्रास होना आरम्भ हुआ, उस समय राज्याश्रय के अभाव के कारण भारतीय नाट्य, नृत्य-संगीत आदि केवल मंदिरों तक ही सीमित होकर रह गए | भरतनाट्यम, ओडिसी, कुटियअट्टम, कथकली, अंकियानाट आदि नृत्य एवं नाट्य-शैलियाँ इन्हीं कुछ शेष रही कलाओं एवं नाट्य-शैलियों का जीवंत उदाहरण है | शेष नाट्य-रूपों को राजनैतिक एवं सामाजिक उथल-पुथल के कारण अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी | नगर या राज्यों के बड़े केंद्र, जो इन कला-रूपों के बड़े आश्रय स्थल थे, उनके विघटित हो जाने के कारण संस्कृत नाटकों के लेखन को ज़बरदस्त धक्का लगा | कालिदास, शूद्रक, भास आदि संस्कृत नाटककारों की परम्परा का भी क्षरण होने लगा और शनैः-शनैः शास्त्रीय नाटकों एवं रंगमंच की परंपरा विलुप्त होने लगी | ऐसे अनिश्चितता भरे संक्रमण-काल में नगरों से विलुप्त हो रही कलाओं ने ग्रामीण-अंचल के लोकाश्रय में शरण ली, जिसके फलस्वरूप लोक-नाट्य रूप ही जीवित रह सके | जयशंकर प्रसाद का यह कथन भी इस सन्दर्भ में विशेष आलोक डालता है –“मध्यकालीन भारत में जिस आतंक और अस्थिरता का साम्राज्य था, उसने यहाँ की सर्व-साधारण प्राचीन रंगशालाओं को तोड़-फोड़ दिया | धर्मांध आक्रमणों ने जब भारतीय रंगमंच के शिल्प का विनाश कर दिया तो देवालयों से संलग्न मंडपों में छोटे-मोटे अभिनय सर्वसाधारण के लिए सुलभ रह गए |”4

विषम परिस्थितियों में भी खुद को जीवित रख पाने की अदम्य लालसा ने ही लोक-नाटकों की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखा | यही कारण है कि ये कला-रूप कभी भी किसी विशेष ताम-झाम के मुहताज नहीं रहें | वस्तुतः मनुष्य की अपनी अस्मिता को बनाए रखने की चिराकांक्षा ही इन लोक-नाटकों का प्राण-तत्व है |

यहाँ यह भी उल्लेख करना अनुचित न होगा कि जिस मुस्लिम शासनकाल में इन कलाओं को सर्वाधिक क्षति पहुंची, उसी दौरान एक ऐसा भी शासक हुआ, जिसने इन कलाओं को पुनरुज्जीवित करने में यथासंभव योगदान दिया | वह शासक था मुग़ल सुल्तान जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर | हम देखते हैं कि अकबर के शासनकाल में हिंदी भाषी क्षेत्रों में नृत्य-संगीत आदि कलाओं को पुनः संरक्षण देने के प्रयास होने आरम्भ होते हैं | भारतीय शास्त्रीय-संगीत में तो मुस्लिम कलाकारों का योगदान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है | किन्तु इन सब प्रयासों के बावजूद भी शास्त्रीय रंगमंचीय परंपरा पुनः प्रतिष्ठित नहीं हो पायी | तथा लोक-नाट्य की परंपरा ही जन-चेतना की संवाहक बनी रही |

तत्पश्चात, अंग्रेजों के भारत में प्रवेश करने तक ‘तथाकथित’ संभ्रांत वर्ग रंगमंच तथा नाटकों से काफी हद तक दूर हो गया था | ऐसे समय में ईस्ट इंडिया कंपनी तथा धनाढ्य वर्ग के मनोरंजन के लिए थिएटर कंपनियों का पहली बार भारतीय समाज में प्रवेश आरम्भ हुआ तथा पाश्चात्य जीवन का अन्धानुकरण करने वाले इस ‘भद्र समाज’ ने इन पाश्चात्य रंग-विधान में पगे नाटकों का खुले दिल से स्वागत किया | ऐसी ही थिएटर कंपनियों ने भारतीय जनमानस में अपनी पैठ जमाने के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य रंग-शैली से मिश्रित एक मिली-जुली नयी रंग-विधा ‘पारसी थिएटर’ का आरम्भ किया | बीसवीं शताब्दी के आरंभिक समय तक ऐसी कंपनियों की बाढ़ –सी आ गयी थी | इसका परिणाम यह हुआ कि अब तक जो लोक-नाट्य कलाएं ग्रामीण अंचलों में जीवित थीं, वे भी शहरों के प्रभाव में आने के कारण दम तोड़ने लगी | तथापि इन तमाम संकटों के बावजूद कोई कला-रूप यदि खुद को जीवित रखने में सफल हो सका है, तो वह लोक-नाटक ही है |

भारत में लोक-नाटकों की जो प्रमुख शैलियाँ प्रचलित हैं, उनमें 24 प्रकार के लोक-नाट्य शैलियों की चर्चा प्रमुख रूप से की जाती है | इन 24 शैलियों में प्रमुख हैं- रामलीला, रासलीला, जात्रा, अंकिया नाट, कीर्तनियां, बिदेसिया, भवई, माच, ख्याल, रम्मत, तमाशा, नौटंकी, स्वांग, भाण्डजशन, करियाला, कुडियाअट्टम, चविट्ट, भागवतमेल, यक्षगान तथा कुचिपुड़ी आदि |

इन लोक-नाट्य शैलियों को विद्वानों ने सुविधा की दृष्टि से मोटे तौर पर चार वर्गों में विभाजित कर लिया है, जो हैं-

  1. नृत्यप्रधान लोक-नाट्य जैसे, असम का कीर्तनिया, ब्रज की रासलीला, छत्तीसगढ़ का नाचा आदि |
  2. संगीत प्रधान लोक-नाट्य यथा, उत्तर प्रदेश की रामलीला, बंगाल का जात्रा, छत्तीसगढ़ का पंडवानी आदि |
  3. हास्य या स्वांग प्रधान लोक-नाट्य जिनमें महाराष्ट्र का तमाशा, गुजरात का भवाई इत्यादि आते हैं एवं
  4. वार्ता-प्रधान लोक-नाट्य जिनमें उत्तर प्रदेश की नौटंकी, मालवा का माच इत्यादि प्रमुख हैं|

ये लोक-नाटक अपनी विषयवस्तु के आधार पर भी दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित किये जाते हैं – 1. धार्मिक-पौराणिक विषयवस्तु से सम्बंधित लोक-नाटक एवं 2. सामाजिक एवं राजनैतिक संदेशों से युक्त लोक-नाटक |

इन सामाजिक-राजनैतिक सन्देश-प्रधान लोक रंग-शैलियों में ‘बिदेसिया’ सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा है | मुख्य रूप से बिहार में उत्पन्न इस लोक नाट्य-रूप में नृत्य, संगीत और अभिनय का मणिकांचन संयोग मिलता है | यद्यपि इसके प्रवर्तक गुद्दर राय माने जाते हैं तथापि इसको प्रतिष्ठित करने का श्रेय ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर को ही दिया जा सकता है |

‘बिदेसिया’ के विकास एवं लोकनाट्य के क्षेत्र में प्रयोग की दिशा में भिखारी ठाकुर ने अनेक क्रांतिकारी प्रयोग किये | उन्होंने शास्त्रीय रंगमंच की शैलियों के मंगलाचरण, सूत्रधार आदि पक्षों का भी लोक-नाट्य की प्रवृत्ति के अनुरूप परिवर्तन-परिवर्धन किया | यहीं नहीं लोक-नाटकों में ‘मुक्त मंच’ की अवधारणा को विकसित करने का श्रेय भी बहुत हद तक भिखारी ठाकुर को जाता है | लोकनाट्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में बिदेसिया को स्थापित करने में उनको अनेक संघर्ष करना पड़ा | चूंकि भिखारी ठाकुर स्वयं लोक-अंचल से सम्बन्ध रखते थे, अतः लोक-जीवन पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें ग्रामीण-जीवन की समस्याओं को समझने में एक विशेष अंतर्दृष्टि प्रदान की और यही उनके नाटकों की सफलता का कारण बना | उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक ‘बिदेसिया’ का सूत्रपात एक स्वतंत्र लोकविधा के रूप में कर दिया था | यद्यपि उनके ग्रंथों की संख्या 30 मानी जाती है, जिनमें बहरा बहार, बिदेसिया, कलियुग प्रेम, बेटी बियोग(बेटी बचवा), पुत्र बधू, गंगा-स्नान, भाई-विरोध, विधवा-विलाप , गबरघिचोर आदि प्रमुख हैं | इनमें भी ‘बिदेसिया’ नाटक अपनी लोकप्रियता एवं प्रासंगिकता के कारण विशेष एवं महनीय लोक-नाट्य बन गया है |

चूंकि लोक-मानस में धर्म की गहरी पैठ होती है, अतः भिखारी ठाकुर के नाटकों में भी बहुदेववाद की प्रवृत्ति के दर्शन सहज ही होते हैं | साथ ही, लोकनाट्यों के प्रमुख उद्देश्य मंचन की दृष्टि से भी इनके नाटक सफल कहे जा सकते हैं | क्योंकि लोक-नाटकों में स्थान एवं दर्शकों की रूचि के अनुकूल नाटक को छोटा-बड़ा किया जा सकता है | एक और बात यह है कि भिखारी ठाकुर जिस स्थान पर नाटक खेला जा रहा हो, उस स्थान-विशेष की समस्याओं को भी बात-बात में उघाड़ते चलते हैं | ‘लचीलेपन’ की यह कला लोक-नाटकों में ही देखी जा सकती है |

‘बिदेसिया’ नाटक की बात की जाएँ तो यह नाटक भोजपुरी एवं पूर्वांचल के अंचल के सामाजिक यथार्थ का जीवंत दस्तावेज माना जा सकता है | चूँकि भिखारी ठाकुर ने स्वयं रामलीलाओं में कार्य किया था और साथ ही बंगाल एवं ओड़िसा की ‘जात्राओं’ से भी वे विशेष रूप से प्रभावित थे, अतः उनके नाटकों में संस्कृत की नाट्यपरंपरा के साथ ही इन लोक रंग-शैलियों का भी विशेष प्रभाव है | उन्होंने भारतीय समाज में विवाह की महत्ता एवं स्त्री –जीवन की पीड़ा को भी अपने नाटकों के माध्यम से लोक के सम्मुख रखा | 1957 ई० के विप्लव के पश्चात् देश के आम-जन की स्थिति बद से बदतर हो गयी | जीविका और रोजी-रोटी की तलाश में उत्तर प्रदेश एवं बिहार के बहुत से युवक कलकत्ता की ओर पलायन करने लगे | ऐसे ही एक युवक (बिदेसिया) की प्रतीक्षा में गाँव में रह रही उसकी ब्याहता के मर्मस्पर्शी विरह का वर्णन भिखारी ठाकुर ने अपने इस नाटक में किया है | इस वियोग-वर्णन में भोजपुरी समाज में प्रचलित बिरहा, कजरी आदि लोकगीतों और धुनों का इस नाटक में सुष्ठु प्रयोग मिलता है |

यह एक ज्ञात तथ्य है कि लोक-नाटकों में कथानक एवं पात्र अधिक महत्वपूर्ण होते हैं न कि मंच-व्यवस्था, वेश-भूषा, पर्दे आदि | तथापि भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ की रंग-परिकल्पना में मंच को विशिष्ट स्थान दिया है | ‘‘बिदेसिया’ की रंग शैली लोक प्रचलित संसाधनों के बेहतर प्रबंधन को लेकर भी खासी चर्चित रही | मंच मुक्ताकाशी के रूप में प्रायः गाँव के किसी चौराहे या मंदिर के किसी प्रांगण में बांस के खम्भों से दस-बारह फुट ऊँचा बनाया जाता है | यह मंच चौकियों को जोड़कर बनाया जाता है जो चारों ओर से खुला होता है | मंच साधारण सज्जा वाला होता है और इसकी व्यवस्था में बैकग्राउंड व सिनयरी नहीं होते | ग्रीनरूम के रूप में कोई अलग तम्बू (टेंट) मिल जाता है तो ठीक है, वरना तथाकथित मंच या रंगभूमि पर ही रूप-सज्जा और परिधान परिवर्तन हो जाता है | पेट्रोमैक्स और डे-लाइट जलाकर स्थान-स्थान पर टांग दिए जाते हैं | यही खुला मंच भोजपुरी लोकनाट्य ‘बिदेसिया’ की नींव रखता है |”5

इस नाटक के पात्रों की वेशभूषा भी तत्कालीन ग्रामीण अंचल के लोगों के पहनावे के समान तामझाम रहित सहज सामान्य भारतीय वेशभूषा होती है | मुख्य रूप से पुरुष पात्र जहाँ धोती-कुर्ता पहनते हैं, वहीं स्त्रियों की वेशभूषा साधारणतः लहंगा-चोली एवं चुनरी होती है | एक ही व्यक्ति द्वारा कई-कई पात्रों का अभिनय किया जाता है | अन्य विशेष उल्लेख योग्य तथ्य यह भी है कि पुरुष पात्र ही स्त्री की भूमिका भी करते हैं | भिखारी ठाकुर ने स्वयं भी कई बार स्त्री-रूप में अभिनय किया है |

भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ की रंग शैली में गीत, संगीत एवं नृत्य को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है | इन तत्वों के समावेश से नाटक में आद्यंत एक पद्यात्मकता बनी रहती है | इन लोक-गीतों एवं नृत्य के माध्यम से जहां अंतराल के द्वारा दृश्य-परिवर्तन भी कर लिया जाता है, वहीं लोक-धुन की मधुर लय वियोग की पीड़ा की भी दर्शकों एवं श्रोताओं को अनुभूति करा जाती है |

इस लोक-नाट्य की एक और विशेषता यह है कि इसमें पहले तो मंगलाचरण की परंपरा का निर्वाह करते हुए कीर्तन की शैली में देव-स्तुति की जाती है, तत्पश्चात समाज में व्याप्त समस्याओं के सुधार की ओर ध्यान आकृष्ट करवाया जाता है | जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि तत्कालीन भारतीय समाज, उसमें भी विशेषतः ग्रामीण अंचलों में धर्म की जड़ें अत्यंत गहरी थीं | अतएव, ईश्वर के भजन-कीर्तन द्वारा ही लोगों को अंध-विश्वास, कुरीतियों के विषय में जागरूक किया जा सकता था | और वही कार्य भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ एवं अपने अन्य नाटकों के माध्यम से किया |

अपने नाटकों को ‘तमाशा’ की संज्ञा से अभिहित करने वाले भिखारी ठाकुर द्वारा पुनःजीवित ‘बिदेसिया’ रंग शैली वस्तुतः नृत्य, संगीत एवं अभिनय का मणिकांचन संयोग प्रस्तुत करता है | इसमें जहां एक ओर सदियों से पीड़ित-दलित समाज की समस्याओं का चित्रण है, वहीं दूसरी ओर उन समस्याओं का समाधान भी | साथ ही, लोकधर्मी नाटकों की सोंधी महक भी इस रंग-शैली में आद्यंत विद्यमान है, जो आज भी हृषिकेश सुलभ जैसे रचनाकारों को अपनी नाट्य-कृति (अमली) को इस विधा में लिखने को प्रेरित करता है | अस्तु ‘बिदेसिया’ भोजपुरी ही नहीं अपितु संपूर्ण भारतीय लोक-रंग परंपरा की अमूल्य धरोहर है|

संदर्भ

  1. द्विवेदी, डॉ. आद्याप्रसाद, सं. मिश्र, अशोक, रंग लोक : भोजपुरी का लोकधर्मी नाट्य, पृ. 47
  2. तदेव, पृ. 48
  3. द्विवेदी, डॉ. भारतेंदु, नाट्यशास्त्र में आंगिक अभिनय, विश्वभारती अनुसन्धान परिषद्, ज्ञानपुर (वाराणसी), प्रथम संस्करण 1990
  4. प्रसाद, जयशंकर, काव्य और कला तथा अन्य निबंध, पृ. 101
  5. डबरिया, राकेश, जनकृति अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका, मई-जून 2017, वर्ष 3, अंक- 25-26

तुहिना चटर्जी, शोध छात्रा, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी | ईमेल- tuhinachatterjee991@gmail.com