Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

एक परिदृश्य और कई अनुभव - जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) की जैन वास्तुकला में सौन्दर्यवाद

‘‘सौन्दर्य दर्शन की वो शाखा है जो कला की अभिव्यक्ति द्वारा प्रकृति एवं सौन्दर्य से संबध स्थापित करता है।"इसी संदर्भ में प्रस्तुत शोधपत्र विशेष रूप से हस्तिनापुर की बीसवीं शती में निर्मित जैन स्थापत्य कला के कलात्मक सौन्दर्य पर आधारित हैं।

मानव जीवन के लिए धर्म और दर्शन आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य तत्व है । मनुष्य जब चिंतन के धरातल पर होता है तब दर्शन और उस चिंतन को अपने जीवन में उपयोग करता है तत्पश्चात् धर्म की उत्पत्ति होती है। इसप्रकार, मानवजीवन की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए धर्म और दर्शन का जन्म हुआ, और उनके मूर्त रूप में आराधना हेतु देव देवियों भगवान एवं उन्हे स्थापित करने हेतु मंदिरों की परिकल्पना की गयी एवं उनका निर्माण किया गया ,और इसी प्रकार कला की विभिन्न विधाओं की प्रस्तुति का एक विशाल क्षेत्र् जहाँ जाकर मानव मन असीम शांति का अनुभव करता है, ऐसे आराधना केंद्र को कलाकारों ने कला के आवश्यक तत्वों के साथ अपनी सृजनात्मकता से नित नया आयाम दिया।मानव जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व के पीछे वेदाचार्यां एवं प्रकांड विद्वानों, एवं महामुनियों की त्याग और तपस्या एवं उनके द्वारा रचित शास्त्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उनके शोध एवं दर्शन के आधार पर मंदिर जैसी विशाल एवं आध्यात्मिक धारणा का निर्माण होता है। इस आर्यावर्त में कुछ तीर्थ स्थलों को प्राचीनकाल से आस्था का और पौराणिक कथाओं का केंद्र माना जाता रहा है,जिसके अंतर्गत प्रस्तुत लेख में हस्तिनापुर बींसवीं सदी में निर्मित वास्तुकला का विशेष वर्णन किया गया है।

जम्बूद्वीप - (cosomology)

Carl Sagon - “Everyone you love , you know, Everyone you have ever heard of, Every human being who ever was ,has completed his existence on this planet. The Planet, which is the only home Humanity has known in its history.”

उपरोक्त कथन स्वतः ही इस ब्रहमाण्ड के सम्पूर्ण अस्तित्व को प्रत्येक परिप्रेक्ष्य से परिभाषित करता है। परंतु भारतीय परंपरा में विभिन्न धर्मों में जम्बूद्वीप के संदर्भ में अलग-अलग व्याख्या दी गयी है। पृथ्वी और ब्रहमाण्ड की परिकल्पना को हिन्दू ,बौद्ध, एवं जैन विद्वानों ने धर्मग्रंथों में अलग-अलग रूप से परिभाषित किया है। यद्यपि अभी तक ब्रहमाण्ड की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह बना हुआ है। परंतु प्रमाणिक शास्त्रों के अनुसार जैन ब्रहमाण्ड की परिकल्पना का साकार प्रतीकात्मक रूप भारतीय स्थापत्य कला के अतंर्गत हस्तिनापुर में सर्वप्रथम दिखाई देता है।

हस्तिनापुर -जम्बूद्वीप

आज से लगभग 86500 वर्ष पूर्व महाभारत काल में भी हस्तिनापुर नगरी भारत की राजधानी मानी जाती थी पं जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘The Discovery of India’ के पृष्ठ 107पर लिखा है-
“Dilli or delhi,not the modern city but ancient cities situated near the modern site, named Hastinapur and indraprastha becomes the metropolis of India.”

हस्तिनापुर दिल्ली के निकट स्थित मेरठ जिला, उत्तरप्रदेश राज्य के अंतर्गत बसा हुआ एक प्राचीन एवं प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। प्रस्तुत लेख ,हस्तिनापुर के इतिहास के अप्रतिम कलात्मक सौष्ठव का एक संक्षिप्त परिचय मात्र है। हस्तिनापुर के विषय में यद्यपि इतिहास में बहुत कुछ लिखा गया है, प्रस्तुत लेख को विषयानुसार सीमाबद्ध किया गया है जिसके अंतर्गत विशेष रूप से जम्बूद्वीप, अष्टापद, कैलाश मंदिर एवं कमलमंदिर की वास्तुकला का विवेचन है। पुराणों एवं विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में हस्तिनापुर में जैन मंदिर एवं स्मारक अवश्य ही रहे होगें जिनके हमें प्राचीनतम् अवशेष तो प्राप्त नहीं होते है परन्तु 19वीं-20वीं शती के स्थापित मंदिर हस्तिनापुर के स्वर्णिम इतिहास को स्वयमेव ही प्रस्तुत करते प्रतीत होते है।इसी श्रंखला में सर्वप्रथम जम्बू़द्वीप का नाम आता है जो भारतीय वास्तुकला का अप्रतिम उदाहरण है।

जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) में निर्मित जम्बूद्वीप रचना में-जैन भूगोल का प्रतीकात्मक रूप वास्तुकला में सौन्दर्य

  1. सुदर्शनमेरू नाम से सुमेरू पर्वत एक है।
  2. अकृत्रिम 78 जिनमंदिर में 78 जिनप्रतिमाएँ हैं।
  3. 123 देवभवनों में 123 जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
  4. श्रीसीमंधर आदि तीर्थंकर के 6 समवसरण हैं।
  5. हिमवान आदि 6 पर्वत हैं।
  6. भरत, हैमवत, हरि, विदेह आदि 7 क्षेत्र हैं।
  7. पर्वतों के गोमुख से नीचे जटाजूट सहित 14 जिन प्रतिमाएँ हैं।

उपरोक्त विवरण की व्याख्या आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्वार्थसूत्र के अध्याय 3 मे सूत्र 4 से 15 में की गयी है। यह प्राचीनतम जैन ग्रंथों में से एक है।

वस्तुतः जम्बूद्वीप जैन दर्शन के अनुसार पूर्व जैन गुरूओं द्वारा आगमों (शास्त्रों) मे प्रतिपादित जैन भूगोल अर्थात़् हमारी विशाल सृष्टि की साक्षात् प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। वास्तुकला की दृष्टि से भी यह अत्यन्त ही प्रभावशाली संरचना के रूप में निर्मित की गयी है। एक विशेष सामाजिक वर्ग एवं जैन ग्रंथो के अनुसार जम्बूद्वीप जो कि पूर्णतः गोलाकार है, के मध्य में एक लम्बवत् त्रिकोणात्मक एवं ऊॅचा ज्यामितीय स्मारक है जो सुमेरू पर्वत नाम से जाना जाता है। यह जम्बूद्वीप का केन्द्रबिन्दु होने के कारण स्वतः ही आकर्षण का केन्द्र है। सुमेरू पर्वत शास्त्रोनुसार तीनों लोको एवं तीनों कालों में सबसे ऊॅचा एवं पवित्र पर्वत माना जाता है। जिसकी ऊॅचाई 1 लाख 40 योजन अर्थात् 60 करोड़ किमी मानी गयी है। एवं जैन मान्यतानुसार इसी पर्वत पर जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का जन्माभिषेक किया गया था। यह मान्यता जन्म कल्याणक कहलाती हैं। इस सुमेरू पर्वत के कारण जम्बूद्वीप रचना के अंदर पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण चार प्रकार से भिन्न-2 रचना के रूपो का ज्ञान होता है। चारो दिशाओ में पौराणिक कथाओ के अनुरूप पूर्व पश्चिम विदेह क्षेत्र तथा दक्षिण दिशा में भारत क्षेत्र व अन्य विजयार्ध हिमवान आदि पर्वत गंगासिंधु आदि नदियाँ कल्पवृक्षों सहित भोगभूमि से जुडे सभी तत्व पृथक पृथक नामों से सफलतापूर्वक प्रतीकात्मक एवं रचनात्मक रूप से निर्मित किये गये है।

विश्व में संभवतः प्रथम बार अकृत्रिम सृष्टि ( जैन भूगोल ) का स्थापत्य के रूप में निर्माण किया गया है। सुमेरू पर्वत स्थान के रूप में इसे भारत की प्राचीनतम् धर्म नगरी हस्तिनापुर में 20वीं शती के उत्तरार्द्ध में 101 फुट ऊॅचा बनाया गया है। वस्तुतः यह वास्तुकला अपने आकार स्थान एवं समाज तीनों ही परिपे्रक्ष्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पृथ्वी गोल है एवं भ्रमणशील हैं। परन्तु जैन भूगोल इस पृथ्वी को स्थिर एवं वलयाकर चपटा व गोलाकार स्वीकार करता है। पृथ्वी का जम्बूद्वीप रूपी यह प्रतीकात्मक स्थापत्य हमें एक अलग ही परिप्रेक्ष्य एवं गहन अध्ययन की ओर ले जाता है।

जैन भूगोल पर आधारित यह जम्बूद्वीप भारतीय वास्तुकला में प्राकृतिक आध्यात्मिक एवं कलात्मक प्रतिमूर्ति के रूप में विशेष रूप सें अध्ययन योग्य है। उपरोक्त विवरण प्राचीन ग्रन्थ तिलोयपणत्ति त्रिलोकसार आदि ग्रंथों के आधार पर दिया गया है । जिसे जम्बूद्वीप जैसी विशाल स्थापत्य कला के रूप में साकार करने का श्रेय जैन साध्वी श्री ज्ञानमती माता जी को जाता है, जिस प्रकार, एक कलाकार अपने अवचेतन मन की कल्पना को चित्र के रूप में दर्शाता है, उसी प्रकार, इस जम्बूद्वीप की सरंचना को ज्ञानमती माता जी (फलस्वरूप सन् 1965)के जैन शास्त्रों के गहन अध्ययन कर सम्पूर्ण परामंड़ल की परिकल्पना कर रचना को साकार रूप दिया। इस प्रकार पुनः 2000 वर्षो पूर्व के लिखित तिलोयपणत्ति, त्रिलोकसार आदि प्राचीनतम ग्रंथो में उसका ज्यों का त्यों स्वरुप इस धरती पर हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप, कमल मंदिर, त्रिलोकधाम, और तेरहद्वीप जैसे स्थापत्य के रूप में साकार हुआ, जो कलात्मक दृष्टि से भी भारतीय स्थापत्य कला में एक नवीन सृजनात्मकता का परिचायक हैं।


चित्र फलक-1 जम्बूद्वीप रचना का विहंगम दृश्य

जम्बू़द्वीप की संरचनात्मक विशेषता-

उपरोक्त चित्र से जम्बू़द्वीप की ज्यामितिय विशेषता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है कि किस प्रकार गोलाकार परिधि के अन्दर त्रिभुजाकार लम्बवत आकार का सूमेरू पर्वत जो कि 101फुट ऊॅंचा है,एक उत्कृष्ट स्थापत्य में निहित समस्त कला तत्वों जैसे प्रमाण, समानता, संतुलन, संयोजना, नमूना, अलंकरण, द्रव्यमान एवं स्थान सभी अवयवों को समाहित किये हुये हैं। सुमेरू पर्वत के चारों ओर 4फुट की जगती के ऊपर विद्यमान छोटे-छोटे जिन चैत्यालयों से घिरा हुआ है, साथ ही जैन भूगोल की प्राकृतिक नदीयों, पर्वतों, भूमि इत्यादि तत्वों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की गयी हैं । भारतीय वास्तुकला के दृष्टिकोण से यह जैन स्थापत्य कला की उत्कृष्टता को प्राप्त है ,तथा कलात्मक सौन्दर्य की परिभाषा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।


चित्र फलक-2 जम्बूद्वीप में प्रतीकात्मक रूप से निर्मित नदियों का सुन्दर दृश्य


चित्र फलक-3 जंबूद्वीप स्थित जिन चैत्यालयों का अद्भुत दृश्य


चित्र फलक-4 जंबूद्वीप में प्रतीकात्मक रूप से निर्मित विभिन्न पर्वतों और नदियों पर स्थित जिन चैत्यालय

कैलाश पर्वत रचना एवं अष्टापद तीर्थ

कैलाश पर्वत रचना अथवा अष्टापद मंदिर जम्बूद्वीप परिसर में स्थित स्थापत्य कला का एक और बेजोड़ उदाहरण है । यह 131 फीट की विशाल ऊंचाई का मंदिर है । यह मंदिर प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को समर्पित है । वस्तुतः यहाँ जैन धर्म की दोनों प्रमुख शाखा - दिगम्बर एवं श्वेताम्बर धारा के दो प्रमुख मंदिर है दिगम्बर शाखा के अंतर्गत बना मंदिर भगवान ऋषभदेव की निर्वाण भूमि अष्टापद कैलाश पर्वत की आकर्षक प्रतिकृति के रूप में निर्मित की गयी है । बौद्ध, हिन्दू एवं जैन धर्म में कैलाश पर्वत को अत्यंत ही पवित्र माना गया है । कैलाश पर्वत का ही दूसरा नाम अष्टापद है । अन्य शाखा श्वेताम्बर परंपरा के अंतर्गत बना मंदिर और भी ऊँचा अर्थात् 151 फीट ऊँचा एवं गोलाकार बना हुआ है। इसकी गोल सरंचना ही इसकी प्रमुख विशेषता है । यह अष्टापद तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है यद्यपि दोनों ही शाखाओं में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में भगवान ऋषभदेव की निर्वाण स्थली कैलाश पर्वत को ही माना गया है परन्तु उसकी प्रतिकृति के रूप में निर्मित यह दोनों मंदिर वास्तु कला की दृष्टि से पूर्णतः भिन्न एवं कलात्मक तथा रचनात्मक सौंदर्य में अपनी - अपनी जगह अद्भुत कला का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।



चित्र फलक-5 दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परंपरा में बनी कैलाश पर्वत एवं अष्टापद तीर्थ

तुलनात्मक एवं सरंचनात्मक अंतर –

जहाँ दिगम्बर शाखा के अंतर्गत बना मंदिर अनेक छोटे-छोटे जिनालयो के द्वारा आठ भागों में विभक्त होकर त्रिकोणात्मक नजर आता है । वहीं श्वेताम्बर शाखा के अंतर्गत बना अष्टापद तीर्थ अपनी गोलाकार सरंचना की विशेषता को लिए हुए है । भारतीय वास्तुकला के अंतर्गत हमें जहाँ दिगम्बर शाखा की कैलाश पर्वत रचना में प्राचीनता का पुट ( प्रभाव ) दिखाई देता है । वहीं श्वेताम्बर शाखा में निर्मित अष्टापद तीर्थ आधुनिक वास्तु कला का परिचायक है जो प्रतीकात्मक रूप से एक पर्वत को परिलक्षित करता है । अष्टापद तीर्थ भी आठ भागों में गोलाकार कटनियों में विभाजित है यद्यपि दोनों ही स्थापत्य एक दूसरे की होड़ में विशाल रूप में निर्मित किये गए हैं परन्तु वास्तु कला के दृष्टिकोण से दोनों ही मंदिर नए कीर्तिमानों को स्थापित करते हैं ।

स्थान, आकार, संतुलन और संयोजना की विशेषता- वृत्ताकार एक लट्टू के समान वृहद स्तर पर निर्मित अष्टापद मंदिर और विभिन्न खण्डों में विभाजित कैलाश मंदिर प्राचीन जैन मंदिर और जम्बूद्वीप के मार्ग के बीच के स्थान पर स्थित है इन कलात्मक स्थापत्य के स्थान का चयन हस्तिनापुर की वास्तुकला के सौन्दर्यबोध को और भी परिपक्व बनाता है।

आकार, संतुलन और संयोजना के दृष्टिकोण से दोनों ही स्थापत्य एक ही विचारधारा को पूरी तरह से अलग-अलग प्रस्तुत करते हैं । जहाँ अष्टापद वृत्ताकार आठ भागों में विभाजित होकर कैलाश पर्वत को प्रतीकात्मक रूप से स्पष्ट करता है वहीं कैलाश मंदिर जिन चैत्यालयों के संरचनात्मक सौन्दर्य को पूरी तरह संतुलित और संयोजित करते हुये कैलाश पर्वत की प्रतीकात्मक, दार्शनिक और कलात्मक अभिव्यक्ति का सौन्दर्यात्मक रचना है।


चित्र फलक-6 कमल मंदिर-जंबूद्वीप परिसर में स्थित कमल मंदिर

कमल मंदिर का निर्माणकार्य सन 1975 में किया गया था । कमल मंदिर में एकमात्र खड्गासन सवा दस फुट ऊँची जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर मूल प्रतिमा विराजित है तथा यह कमल के सौम्य आकार की वेदी पर स्थापित है।

कमल मंदिर का सौन्दर्य अपने नाम के अनुरूप ही वास्तविकता के अत्यधिक समीप है, जैसा कि चित्र से स्वतः ही स्पष्ट है । पंखुड़ियों का लचीलापन और इसका श्वेत वर्ण इसकी जीवंतता को और भी मोहक बनाता है । तुलनात्मक रूप से दिल्ली में स्थित ‘लोटस टेम्पल‘ ज्यामितीय है जबकि हस्तिनापुर स्थित कमल मंदिर आलंकारिक है । कमल की पंखुडियो को 6भागों में क्रमशः खिला हुआ बनाया गया है, जो खिलते हुए कमल के सादृश्य प्रतीत होती है, साथ ही चारों तरफ गोल आकार में बना सरोवर इसके कलात्मक सौंदर्य को द्विगणित करता है । कमल मंदिर का आंतरिक सौंदर्य -मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही हमें सामने श्वेत पाषाण की भगवान महावीर की सवा 10 फुट ऊँची प्रतिमा के दर्शन होते हैं . भगवान के पीछे बनी वेदिका में यक्षणी की प्रतिमा उत्कीर्ण की गयी है, मंदिर के आंतरिक गुम्बद में सर्वप्रथम, वक्राकार सबसे छोटे गोले में अलंकारिक फूल जो मुगल कालीन अलंकरण से प्रभावित है, बना हुआ है उसके बाद दूसरे और तीसरे गोल फलक में भगवान की माता के सोलह स्वप्नों का क्रमशः चित्रांकन किया गया है, तत्पश्चात चतुर्थ और अंतिम फलक में इन्द्रादि देवों को हंस, मयूर आदि आकारके वायुयानों में आकाश में विचरण करते हुये दिखाया गया है ।


चित्र फलक-7 कमल मंदिर के गुम्बद का आंतरिक अलंकरण

सभी फलकों को दोनों तरफ आलंकारिक बॉर्डरों से सुसज्जित किया गया है गुम्बद के भित्तिचित्रों के बाद आंतरिक दीवारों में ऊपर की ओर सभी 24 तीर्थंकरो के चित्र है तत्पश्चात भगवान महावीर के पूर्व भवो तथा जीवन पर आधारित कथाओं का अंकन है । यह सभी भित्ति चित्र लंबवत तथा आयताकार बनाये गए हैं । भगवान महावीर के जीवन पर बने चित्रों की कुल संख्या 32 हैं। जिनमें करूणा ,वीर, श्रृंगार इत्यादि रसों की सफलतम प्रस्तुति की गयी है।

भित्ति चित्रों की चित्र संयोजना लगभग समान है , ज्यादातर अलग -अलग दृश्यों को एक चित्र में दो या तीन भागों में विभाजित किया गया है ।. प्राकृतिक पृष्ठ्भूमि में चटक रंगों के प्रयोग से यह चित्र काफी आकर्षक बन पड़े हैं । परिप्रेक्ष्य का तकनीकी अभाव दिखाई देता है , परन्तु प्रत्येक चित्र अपने विषय को पूर्णतः स्पष्ट करता है । लाल, आसमानी, हरे, सुनहरे, आदि चटक रंग चित्र को मोहक बनाते है । इन भित्ति चित्रों में हमें लघु चित्रों की छाप दिखाई देती है । इन चित्रों के बाद नीचे की दीवारों को आसमानी रंग से एक सरोवर के सादृश्य अलंकृत किया है जिनके मध्य में कहीं -कहीं खिले कमल एवं कलियों को चित्रित किया गया है । इसप्रकार हस्तिनापुर नगरी प्राचीन ही नहीं अपितु आधुनिक भारतीय कला के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण है ।


चित्र फलक-8 महासती चंदनबाला का आहार दान

उपरोक्त चित्र में इस कथानक का सफलता पूर्ण अंकन किया गया है , पुनः इस भित्ति चित्र को दो भागों में वर्गीकृत कर एक भाग में भगवान महावीर को आहार हेतु भ्रमण मुद्रा में दिखाया है तथा दूसरे भाग में सती चंदन बाला को अश्रु पूर्ण नेत्रो के साथ प्रभु की प्रतीक्षारत मुद्रा के भाव में दिखाया है । रंगो का चयन ,सौम्यता एवं आकृतियो का भावपूर्ण अंकन चित्र को अत्यधिक मोहक बनाता है ।

भित्ति चित्रों मे रस सौन्दर्य की अभिव्यक्ति-कमल मंदिर में चित्रित उपरोक्त चित्र में भारतीय कला के नौ रसों की कलात्मक भावपूर्ण प्रस्तुति भी दृष्टिगोचर होती है ।कथानकों में जहाँ महासती चंदनबाला के आहारदान का द`श्य ‘करूणा रस‘ से ओतप्रोत है। वहीं अन्य भित्ति चित्रों में सिंहकेतु के अवतार तथा चक्रवत्र्री महाराज में ‘वीर रस‘ की अभिव्यक्ति है, इस प्रकार उपरोक्त भित्ति चित्र अपितु प्राचीन उत्तर मुगलकाल और राजपुताना शैली कला की प्रतिकृति की तरह ही बन पडे है ,परंतु नवीन स्थापत्य और प्राचीन भित्ति चित्र शैली का यह संगम प्रंशसनीय है जो स्थापत्य के आंतरिक अलंकरण की शोभा को द्विगुणित कर रहे हैं।

हस्तिनापुर के 20वीं शताब्दी में निर्मित इन जैन मंदिरों के कलात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारतीय कला में जैन कला के अभूतपूर्व योगदान के गरिमामय इतिहास का सागर वर्तमान में भी सतत् रूप से निरन्तर प्रवाहमान है, और भविष्य में भी इस कला क्षेत्र में नवीन सृजनात्मकता की अपार संभावनायें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं ।

समवशरण रचना - जब भी जैन तीर्थंकर द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तब सौधर्म इन्द्र भगवान के लिए समवशरण की रचना करते है। जिसमें सभी गणधर एवं सामान्य जन भगवान से मुखरित जिनवाणी को सुनते है। एवं उनकी शरण में जाते है। हस्तिनापुर में निर्मित समवशरण रचना में वास्तविकता में स्वर्ग की अनुभूति होती है। इसे कई भागों में निर्मित किया गया है। यह पूरी तरह से गोलाकार और अनेक खण्डों में विभाजित है।

जैन धर्म में समवशरण ‘‘सबको शरण’’ तीर्थंकर के उपदेश भवन के लिए प्रयोग किया जाता है।

  1. पहले भवन में मुनि
  2. दूसरे में एक तरह की देवियाँ
  3. तीसरे में आर्यिका
  4. अगले तीन भवन में अन्य तीन तरह की देवियाँ।
  5. अगले चार भवन में, चार जातियाँ के देव (स्वर्गों में निवास करने वाले जीव)
  6. ग्यारहवें भवन में पुरुष
  7. आखिरी भवन में पशु।

जैन ग्रंथों के अनुसार समवशरण में चार चोड़ी सड़कें होती है। जिनमें हर सड़क पर एक मानस्तंभ होता है। भवन का कुल आकार उस युग में लोगों की ऊँचाई पर निर्भर करता है।

हस्तिनापुर में निर्मित बड़े मंदिर के परिसर में निर्मित समवशरण इन प्रमुख सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुये यह तीर्थ एक विशेष स्थापत्य कला के रूप में सामने आता है। सफेद संगमरमर से निर्मित इस समवशरण में 992 चैत्यालयों को छोटे आकार में प्रतीकात्मक रूप से बनाया गया है। इसके अतिरिक्त चारों दिशाओं में निर्मित मानस्तम्भ भी अपेक्षाकृत छोटे होते हुये भी अपनी सौन्दर्यात्मक मूल्यों को समाहित किये हुये है। चारों तरफ मानस्तम्भ के ठीक पीछे बनी सीढ़ियों पर सौधर्म इन्द्र की मूर्ति अभिवादन मुद्रा में स्थापित है। समवशरण के ठीक बीच में सर्वोच्च कमलासन पर 18 वीं तीर्थंकर मल्लिनाथ विराजमान हैं।


चित्र फलक 7- समवशरण की चारों दिशाओं में ( एक समान) जाने का प्रवेश द्वार

समवशरण एक संक्षिप्त परिचय

समवशरण सदा गोलाकार रहता है। इसमें सबसे पहले धलिसाल (धरातल) के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ है। मानस्तम्भ के चारों ओर सरोवर है। जिसे प्रतीकात्मक रूप से कमल को निर्मित कर प्रदर्शित किया गया है। पुनः प्रथम भूमि चैत्य प्रासाद भूमि। इसके बाद निर्मल जल भरी परिखा है।जिसको प्रतीकात्मक कलश रूप में दिखाया है।इस प्रकार मान्यता हैं कि समवशरण में आठ भूमियाँ है चार परकोटे है और पाँच वेदियाँ है। तदनन्तर पीठिका है।

निष्कर्ष-

इस प्रकार भारतीय कला के विकास को सदैव ही निरपेक्षता और सांस्कृतिक पहलू से अध्ययन योग्य स्वीकार किया गया है, अतः हस्तिनापुर की इस गरिमामयी स्थापत्य और चित्रकला के कलात्मक सौष्ठव, तकनीकी विशेषताओं तथा नवीनता के गहन अध्ययन के पश्चात् भारतीय कलाकारों की रचनात्मकता एवं उसकी सफल प्रस्तुति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

मंदिरों के गहन अध्ययन के दौरान जहां 19वीं शती के बड़े मंदिर में मुगलकाल एवं राजपूत कला के विभिन्न आयामों के दर्शन होते हैं, वही मंदिर के परिसर में 20वीं शती एवं 20वीं शती के उत्तरार्द्ध में बने मंदिर जिनमें विशेष रूप से समवशरण रचना एवं नंदीश्वर रचना की जैन शास्त्रोंनुसार नवीन, प्राचीन तथा आधुनिक कला के त्रिवेणी संगम की अद्भुत प्रतीकात्मक प्रस्तुति है । जहां शिखर की आंतरिक संरचना भव्य गोलाकार मंडप के आधुनिक सरलीकरण और तकनीकों के आधार पर किया गया है, वहीं साथ ही जैन सिद्धांतों एवं प्रतीकों के गूढ़ तत्वों का सफलतापूर्वक समावेश किया गया है ।

इसके परिसर में स्थित कमल मंदिर, तथा अन्य मंदिर तीन लोक रचना एवं तेरहद्वीप रचना पुनः जैन सिद्धांतों की कलात्मक अभिव्यक्ति का रचनात्मक, सृजनात्मक, एवं प्रमाणिक उदाहरण उपस्थित करते हैं । हस्तिनापुर की वास्तुकला में सौन्दर्य बोध के सभी तत्वों में संरचना और अलंकरण का अद्भुत समन्वय है। शिल्पकार, एवं कलाकार जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विश्व की इस अद्वितीय रचना के निर्माणकार्य में अपना योगदान दिया है वह अवश्य ही सम्मान एवं धन्यवाद के पात्र हैं ।

इसप्रकार हस्तिनापुर की वास्तुकला भूतकालीन प्राचीन कला तत्वों को समाहित कर, वर्तमान में, नये कला आयामों पर खरे उतरते हुये, भारतीय कला अपने सर्वोच्च शिखर की अनगिनत संभावनाओं को समाहित किये हुये, निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर है।