हिंदी आलोचना : स्वतंत्रता के बाद
किसी भी विधा के परिदृश्य को मोटे तौर पर समझने के लिए एक ढांचा की सहज ही आवश्यकता होती है, और सभी लोग अपने–अपने तर्क एवं सुविधा के अनुसार उस ढांचें का निर्माण करते हैं | ज्यादातर इस प्रकार के ढांचों के निर्माण में कोई ऐतिहासिक घटना, कोई विशेष समय या कोई खास प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ढांचे का निर्माण किया जाता है | ठीक इसी प्रकार आलोचना की परंपरा को भी समझने के लिए हमें एक ढांचे की आवश्यकता महसूस होती है, जब भी इस प्रकार के ढांचों का निर्माण होता है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य में कभी भी ऐसा कोई निर्धारित एवं निश्चित समय नहीं होता जो सीधे- सीधे यह बता सके कि अमुक तिथि अथवा अमुक समय के उपरांत इस प्रकार की रचना नहीं रची गयी, अथवा इस अमुक तिथि से इस प्रकार की रचना आरम्भ हुई | लेकिन स्थितियों, विचारों और चीजों को समझने एवं समझाने के लिए तो किसी रुपरेखा अथवा किसी ढांचा की जरूरत होती ही है इसलिए ज्यादातर साहित्य में एक मानक के आधार पर एक मोटा-मोटी समय का निर्धारण किया जाता है | इस कारण ‘हिंदी आलोचना : स्वतंत्रता के बाद’ आलोचना की परम्परा को समझने के लिए एक ढांचाई व्यवस्था के हिसाब से बनाया गया स्वरुप है | चूँकि जैसा ऊपर वर्णित है कि किसी एक समय में अथवा एक तिथि से ही अलग तरह की आलोचना अथवा वैचारिकता सीधे आरम्भ नहीं हो जाती है इसलिए इसे हम मोटे तौर पर हिंदी में प्रगतिशील परम्परा के आरंभिक दौर से आरम्भ करके कुछ प्रमुख आलोचकों जैसे डाक्टर रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान और हजारी प्रसाद द्विवेदी के वैचारिक पक्ष का हिंदी आलोचना की परम्परा से जुड़ाव एवं योगदान तक के दौर को समझेंगे |
साथ ही यह भी सही है कि ‘स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी आलोचना’ के वैचारिक स्वरुप में जिस तरह प्रत्येक रचनाकार और आलोचक अपनी-अपनी सीमा में एवं सीमा से बाहर भी स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करते हैं लेकिन स्वतंत्रता मिलने के बाद स्थिति कुछ और ही दिखती है यदि मशहुर शायर फैज़ अहमद फैज़ के शब्द में कहें तो – ‘ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगजीदा सहर / वो इंतजार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं’ | मसलन आजादी जिस तरह से मिली और आजादी मिलने के बाद जिस तरह स्थिति देखने को मिल रही थी | उससे लोगों में बहुत निराशा छा गयी | इस कारण उस समय बहुत बड़े तबके के लोगों का मोह भंग हुआ और ऐसा होना स्वाभाविक भी था | और वास्तव में देखा जाय तो हिंदी आलोचना के परिदृश्य में भी ऐसी स्थिति बहुतायत में दिखती है | मोटे तौर पर कहा जाय तो स्वतंत्रता के बाद का समय मुख्य रूप से मोह भंग का समय था, चूँकि ऐसी परिस्थिति में मोह भंग की रचनायें भी ज्यादा रची गई और चूँकि रचना से आलोचना किनारा कर के अपना रास्ता नहीं बनाती इसलिए जो परिस्थिति रचना में घटित होती है उसका सहज ही जुड़ाव आलोचना के परिदृश्य में भी बना रहता है |
हिंदी समाज के इतिहास में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और उसमें प्रेमचंद द्वारा दिया गया प्रथम अध्यक्षीय भाषण ऐतिहासिक घटना के तौर पर याद किया जाना चाहिए, संभवतः अब इस प्रकार याद किया भी जाता है | सन 1936 में यह भाषण लखनऊ में हुआ था और प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम सम्मलेन भी यही रहा | इस भाषण में प्रेमचंद ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि “प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है, साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है |” यह बात वास्तव में सही भी है क्योंकि बिना प्रगतिशीलता की दृष्टि रखे कोई रचनाकार बन ही नहीं सकता | यह हो सकता है कि हमारे निर्धारित मापदंड से शायद कोई भिन्न हो लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह प्रगतिशील नहीं है, मेरे दृष्टिकोण में भी प्रत्येक रचनाकार प्रगतिशील होता है |
यह एक ऐसी घटना है जिससे हिंदी का रचनाशील समाज बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित हुआ | इसके साथ ही उन परिस्थितियों को भी याद रखना जरुरी है जब यह सारी स्थिति घटित हो रही थी | यह दौर देश की आजादी के आन्दोलन का सबसे संघर्षशील समय था, इस समय देश में क्रांति और आन्दोलन अपने उफान पर थे | ऐसे ही परिस्थिति में प्रगतिशील आन्दोलन पूरी सजीवता और मजबूती से आया और इससे साहित्य की प्रत्येक विधा में एक नया परिवर्तन हुआ | इस प्रगतिशील आन्दोलन को कुछ लोग मार्क्सवादी आन्दोलन भी कहते हैं, परन्तु ऐसा पूर्णतः सत्य नहीं है | जैसी मार्क्सवादी अवधारणा पश्चिम में व्याप्त थी वैसी अवधारणा इस समय तक यहाँ नहीं थी | इसके साथ ही इस बात को झुठलाया भी नहीं जा सकता कि ये प्रगतिशील आन्दोलन मार्क्सवादी वैचारिकता से प्रभावित नहीं था |
डाक्टर रामविलास शर्मा
वैसे तो डाक्टर रामविलास शर्मा का जुड़ाव आरम्भ के दिनों में अंग्रेजी भाषा से रहा और ये अंग्रेजी के अध्येता और अंग्रेजी के शिक्षक रहे इसके बावजूद इन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य के लिए न सिर्फ संघर्ष किया अपितु उसको गौरवान्वित किया | हिंदी समाज का एक बड़ा वर्ग है जो इनकी आलोचना को विध्वंसात्मक आलोचना के रुप में मानता है और इन्हें विध्वंसात्मक आलोचक के रूप में स्वीकारता है | वैसे तो डाक्टर शर्मा परिमाण के आधार पर अत्यधिक कार्य किये अथवा यह भी कहा जाय तो गलत न होगा कि हिंदी आलोचक के तौर पर सर्वाधिक सृजनात्मक कार्य इन्होंने किया | डाक्टर शर्मा अपने जीवन में बहुत सम्मेलनों और सेमिनारों में जाने से बचते थे | इनका मानना था कि जो समय सेमिनार और संगोष्ठी में जाकर खर्च करेंगे यदि उस समय का सदुपयोग करके पुस्तक लिखेंगे तो उस पुस्तक को पढ़कर बहुत लोग उस विचार को जान जायेंगें साथ ही पुस्तक में संचित विचार स्थायी होंगे जो आने वाले लोगों को सहज सुलभ हो पायेगा | ऐसी निजी वैचारिकता को अपनाने के कारण ही हम देखते हैं कि एक विशाल परिमाण में उनकी रचनायें हमारे सामने उपस्थित हैं | जो इस प्रकार हैं “प्रेमचंद (1941), भारतेंदु युग (1943), निराला (1946), प्रगति और परंपरा (1949), साहित्य और संस्कृति (1949), प्रेमचंद और उनका युग (1952), प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना (1955), भाषा और समाज (1961), साहित्य :स्थायी मूल्य और मूल्यांकन (1968), निराला की साहित्य साधना (तीन भाग -1969, 1972, 1976 ), भारतेंदु युग और हिंदी साहित्य की विकास परंपरा (1975), महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण (1977), नयी कविता और अस्तित्ववाद (1978), हिंदी जाति का साहित्य (1986), भारतीय सौन्दर्य बोध और तुलसीदास (2001) |”1 ऐसा नहीं है कि इनकी सिर्फ इतनी ही पुस्तकें हैं, बल्कि ये सिर्फ आलोचनात्मक पुस्तकों की सूची है जबकि डाक्टर शर्मा साहित्य की कई अन्य विधाओं में भी रचनायें की हैं | निश्चय ही इनके द्वारा किया गया यह कार्य सारे हिंदी की थाती हैं |
डाक्टर रामविलास शर्मा के आलोचना में एक नई सकारात्मक वैचारिकता देखने को मिलती है, ये प्रायः उन आलोचकों को चुनते हैं जिनका एक तरह से कहा जाय तो सामाजिक जीवन ही खतरे में पड़ा दिखता है चाहे हम निराला, शुक्ल, भारतेंदु, प्रेमचंद अथवा महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही क्यों न देखें | जिस समय डाक्टर शर्मा इन लोगों पर आलोचनात्मक चर्चा करते हैं उस दौर को यदि ध्यान से देखा जाय तो विरोधी खेमे के आलोचक इन रचनाकारों के महत्त्व को कमतर करने में लगे रहते हैं | निराला को ही देखा जाय तो खुद अपने जीवन में ही निराला बहुत उपेक्षित रहे, जबकि हिंदी में निराला को बड़े रूपों में स्थापित करने का श्रेय डाक्टर शर्मा को ही जाता है, क्योंकि इन्होंने “निराला की साहित्य साधना” तीन भागों में लिखकर निराला के मूल्यों एवं विचारों को ज्यादा स्पष्ट रूपों में दिखलाया | इसी प्रकार जब भारतेंदु के खिलाफ एक ऐसा माहौल बनाया गया जिसमें उनको राजभक्त कवि कहा जाने लगा और ब्रिटिश सरकार के हितैसी होने का आरोप लगाया जाने लगा, तब डाक्टर शर्मा ने भारतेंदु पर दो पुस्तकें ( ‘भारतेंदु युग’ और ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ ) लिखकर उन सारे आरोपों का एक तरह से जवाब देने की कोशिश की | यह भी सही है कि हिंदी साहित्य में शुक्ल जी का विरोध करना एक फैशन सा बन गया था ऐसे समय में डाक्टर शर्मा ने आचार्य शुक्ल पर “आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना” नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर तमाम आरोपों का जवाब दिया | ठीक इसी प्रकार जब प्रेमचंद को लेकर आरोप लगाए जाने लगे कि प्रेमचंद के साहित्य में गहराई नहीं है और इनके साहित्य में रोजमर्रा की होने वाले घटनाओं की सूचना मात्र है, ऐसे अनेक आरोप प्रेमचंद पर उस दौर में लगाये जा रहे थे | ऐसे सभी आरोपों का जवाब डाक्टर शर्मा ने प्रेमचंद पर दो पुस्तकें लिखकर दी | महावीर प्रसाद द्विवेदी की भी स्थिति कुछ इसी तरह की रही उस दौर में, इनको भी मात्र एक कोरे संपादक ही कहा जाता था, और अनके आरोप उस दौर में इनपर भी लगाये जाते थे, ऐसे ही अनेक आरोपों का जवाब देने के लिए डाक्टर शर्मा ने “महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण” नामक पुस्तक लिखी |
डाक्टर शर्मा का उद्देश्य सिर्फ इन पुस्तकों में उन रचनाकारों और विद्वानों पर जो आरोप लगे थे, उनका केवल खंडन करना ही न था अपितु उन्होंने उन विद्वानों के महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य को बड़ी संजीदगी से उद्घाटित करने का सहज प्रयास किया | जिससे उनके साहित्य में उपस्थित महत्वपूर्ण पक्ष सामने आ सके | इस कारण से वो आरोप-प्रत्यारोप के क्रम से आगे बढ़ कर एक नयी तरह से आलोचना की बहस को आगे बढ़ाना चाहते थे, जिसमें वह सफल भी हुए | निराला की साहित्य साधना को ही मिसाल के तौर पर देखें तो इस पुस्तक में डाक्टर शर्मा ने निराला के काव्य और रचनाओं को व्याख्यायित करने का प्रयास किया | जिससे निराला के काव्य संसार को ज्यादा पाठक तो मिले ही, लोगों की धारणा में भी एक बुनियादी अंतर आने लगा | जो इससे पहले कुछ आलोचक स्वनिर्मित वैचारिक आलोचना लिखकर केवल निराला का मूल्यांकन कर रहे थे अब उनकी इस स्वनिर्मित वैचारिकता को आम पाठक अस्वीकार करके स्वयं निराला के सहज उपलब्ध व्याख्यायित पक्ष को देख कर निराला के प्रति वैचारिकता स्वनिर्मित करने लगा | ध्यान से देखने पर ही लगेगा कि इस पथ को बनाने का कार्य डाक्टर शर्मा ने ही किया | जो हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक महनीय योगदान है | इस कार्य से हिंदी आलोचना में एक तरह से विषयगत प्रवृत्ति की ओर उन्मुखता बढ़ने लगी | जो निश्चित तौर पर हिंदी आलोचना के विकासयात्रा के लिए हितकर है क्योंकि कोइ भी चीज अथवा स्थिति उतना ही बेहतर है जितना ही वह विषयगत हो, यदि विषयगत वैचारिकता होती है तो आलोचना की विश्वसनीयता बनी रहती है लेकिन ज्यों ही काल्पनिक एवं अनुमानिक वैचारिकता आलोचना में आने लगती है तो उसकी विश्वसनीयता कम होने लगती है जो आलोचना की विकास परम्परा के लिए ठीक प्रवृत्ति नहीं है |
डाक्टर रामविलास शर्मा का आलोचना में पदार्पण उनके पहले निबंध से हुआ, जो सन 1934 में निराला पर प्रकाशित हुआ था, और सन 1941 में ‘प्रेमचंद’ नामक पहली प्रकाशित आलोचनात्मक पुस्तक से निरंतरता के क्रम में व्यवस्थित हुआ | जो एक प्रतिबद्ध आलोचक के कार्य की तरह उनके समूचे जीवन काल तक बना रहा | रचनाकार के लिए डाक्टर शर्मा कुछ आवश्यक समझ को जरुरी मानते हैं, जिसमें से एक यह भी |
रचना में मनुष्य के समग्र रूप के साथ एकाग्र रूप का चित्रण करने के लिए जरुरी है कि साहित्यकार के पास एक वैज्ञानिक चेतना हो | यह वैज्ञानिक चेतना उसे तब तक नहीं प्राप्त हो सकता है, जब तक वह सामाजिक विकास के नियमों से परिचित न हो | जबकि प्रायः देखने को मिलता है कि समाजशास्त्र के ज्ञान को साहित्यकार अपनी रचना के लिए आवश्य नहीं मानता, जिसके कारण उनकी रचना में सजीवता की कमी देखने को तो मिलती ही है साथ में कृत्रिमता भी बढ़ जाती है, इस पर डाक्टर शर्मा अपनी टिप्पणी इन रूपों में देते हैं “सामजिक विकास के नियमों को जानने से लेखक को वह पतवार मिल जाती है, जिसके सहारे वह जनता के विशाल सागर में अपनी नाव खेव सकता है | समाजशास्त्र की पोथी पढ़ने में थोड़ा समय लगाने से वह सामाजिक घटनाओं, व्यक्तियों और वर्गों को उनके उचित सन्दर्भ में देखने की योग्यता पा सकता है | लेखक चाहे किसी छोटी घटना का ही चित्रण करे, वह सफल कलात्मक चित्रण तभी कर सकता है, जब वह उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि को समझे और उस घटना के तत्कालीन तथा भावी प्रभाव और महत्त्व को आंक सके |”2
प्रेमचंद पर डाक्टर शर्मा ने दो पुस्तकें लिखीं | पहली पुस्तक ‘प्रेमचंद’ पहली बार 1941 ई0 प्रकाशित होती है तो दूसरी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ सन 1952 में प्रकाशित होती है | प्रेमचंद पर आलोचनात्मक पुस्तक लिखने का इनका उद्देश्य कुछ तो उपर्युक्त परिचयात्मक चर्चा के क्रम में सामने आया है | इसके अलावा भी डाक्टर शर्मा ने प्रेमचंद के रचना संसार को एक नयी दृष्टि से देखने की कोशिश की, जो इससे पहले उस दौर तक उन पर चर्चा नहीं होती रही | मिसाल के तौर पर इसे देखा जा सकता है | पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में डाक्टर शर्मा ने प्रेमचंद के उपन्यासों का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है | प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ में एक आम धारणा है कि इस उपन्यास का मुख्य विषय वैश्या-जीवन ही है, लेकिन डाक्टर शर्मा के अनुसार उसका मुख्य विषय भारतीय नारी की पराधीनता है | डाक्टर शर्मा इस प्रकार लिखते हैं- “सेवासदन की मुख्य समस्या भारतीय नारी की पराधीनता है | प्रेमचंद ने किस तरह तमाम पुरानी सांस्कृतिक परम्पराओं को तोड़ते हुए वर्त्तमान समाज में नारी की पराधीनता को अपने निठुर और वीभत्स रूप में चित्रित किया है, इस पर सहसा विश्वास नहीं होता |”3 इसी उपन्यास में इसके मुख्य पात्र सुमन की सामाजिक प्रेरणा का संकेत इन रूपों में करते हैं –“बीसवीं सदी के भारतीय समाज में धीरे-धीरे एक परिवर्तन हो रहा था | साम्राज्यवादी-सामंती जुए के नीचे जनता कसमसाने लगी थी और समाज का सबसे दलित अंग नारी–राष्ट्रीय पराधीनता और घरेलू दासता दोनों से पिसती हुई नारी-स्वाधीनता के लिए हाथ फैलाने लगी थी | प्रेमचंद ने सबसे पहले इस परिवर्तन को देखा था, उसका स्वागत किया था, उसे बढावा दिया था |”4 डाक्टर शर्मा इसी पुस्तक में इनके उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ के बारे में इस प्रकार लिखते हैं-“प्रेमचंद की कला इस बात में है कि वे हिंदुस्तान के बदलते हुए किसान का चित्र खिंच सके हैं | घटनाएँ साधारण हैं लेकिन उनसे वह अपने पात्रों का पुरानापन और नयापन, उनको पीछे ठेलनेवाली और आगे बढाने वाली विशेषताएं प्रकट करतें हैं | पहाड़ की तस्वीर खींचना आसान होता है, नदी के बहाव को चित्रित करना मुश्किल | प्रेमचंद ने यथार्थ के बहाव को पकड़ लिया है |”5 इस आलोचनात्मक टिप्पणी को देखने से लगता है कि डाक्टर शर्मा ने एक तरह से प्रेमचंद पर लगने वाले आरोपों का जवाब देने कि कोशिश की है | जब भी प्रेमचंद के उपन्यासों पर बात होती है कहीं भी, तो एक प्रश्न अक्सर ही चर्चा के केंद्र में रहता है कि प्रेमचंद ने अपने उपन्यास निर्मला में किसी तरह के आदर्श की रचना क्यों नहीं की ? डाक्टर शर्मा के अनुसार इसका कारण सामाजिक था, और वो इस प्रकार लिखते हैं : “यह उपन्यास असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद लिखा गया था और जाहिर करता है कि किस तरह हिंदी लेखक कल्पित समाधानों से संतुष्ट न होकर यथार्थ जीवन का सामना करने के लिए आगे बढ़ रहे थे |”6
‘प्रेमचंद’ नामक पुस्तक डाक्टर शर्मा की हिंदी आलोचना में पहली पुस्तक है जो प्रेमचंद के महत्त्व को बतलाती है | इस पुस्तक में भी डाक्टर शर्मा ने कई नए मौलिक तथ्य सामने लाये और कई आरोपों का जवाब दिया, जो उस समय प्रेमचंद पर लग रहे थे |
हम देखतें हैं कि प्रेमचंद के उपन्यासों में दो तरह के कथानक हैं कुछ में एक कथानक और कुछ में एक से अधिक कथानक | जिन उपन्यासों में एक से अधिक कथानक हैं उन पर आरोप लगाया जाता है कि वे परस्पर-संबद्ध नहीं हैं | इसका जवाब डाक्टर शर्मा इस प्रकार देते हैं : “प्रेमाश्रम, रंगभूमि और गोदान गावों से सम्बंधित हैं और इसलिए प्रेमचंद को वहां के दो वर्गों का चित्रण करना आवश्यक था | सेवासदन, गबन और निर्मला की समस्याएं एक ही वर्ग या परिवार की है अथवा वहां वर्ग संघर्ष इतना स्पष्ट नहीं हो पाया था | गांवों में जमींदार एक तरफ, किसान एक तरफ- दोनों के खेमे जुदा-जुदा हैं | इसलिए किसानों का शोषण चित्रित करने के लिए उन्हें जमींदारों का चित्रण करना ही था |”7
डाक्टर रामविलास शर्मा ने भारतेंदु से सम्बंधित दो पुस्तकें लिखी हैं पहली पुस्तक ‘भारतेंदु युग’(1943) जो बाद में नए संस्करण में ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परम्परा’ के नाम से प्रकाशित होती है और दूसरी पुस्तक ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ के नाम से सन 1953 में प्रकाशित होती है | इन दोनों पुस्तकों में भारतेंदु एवं उनके दौर के अन्य रचनाकारों पर विस्तार से चर्चा हुई है | भारतेंदु पर आलोचनात्मक पुस्तक लिखने का वास्तविक कारण डाक्टर शर्मा इन शब्दों में उल्लेख करते हैं : “यदि मुझे भारतेंदु-युग से आज के युग का एक घनिष्ठ सम्बन्ध न दिखाई देता तो मैं यह पुस्तक अभी न लिखता | यह सोचकर कि आज की समस्या को सुलझाने के लिए हमें उस युग से प्रेरणा मिल सकती है, मैंने इसे लिखना प्रारम्भ किया |”8 भारतेंदु की रचनाओं में समाज मुख्य रूप से मौजूद रहता है, डाक्टर शर्मा इस प्रकार लिखते हैं : “भारतेंदु युग का निबंध ‘इंपर्सनल’ या तटस्थ रचना नहीं है | लेखक के व्यक्तित्व का उसमें महत्वपूर्ण स्थान है, फिर भी, लेखक का ध्येय अपने बारे में बात करना नहीं है | उसका मन सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में लगा हुआ है, इसलिए निबंधों का विषय व्यक्तिगत न होकर सामाजिक है |”9 डाक्टर शर्मा ने भारतेंदु की वैचारिकता एवं उनके जनवादी विचार का सम्बन्ध भक्तिकालीन कवियों के समाज सुधार जैसे मूल्यों से प्रेरित बतलाया है | डाक्टर शर्मा लिखते हैं : “भारतेंदु की विचारधारा पर भक्त कवियों का गहरा असर था | भक्तों की रचनाओं में जो जनवादी विचार थे, उन्हें हरिश्चंद्र ने फिर से संवारा और नई संस्कृति में उन्हें विकसित किया | उनके समाज-सुधार सम्बन्धी विचारों के मूल में अक्सर भक्त कवियों की स्थापनाएं मिलेंगी |”10 डाक्टर शर्मा भारतेंदु के भाषा सम्बंधित विचार पर इस प्रकार टिप्पणी करते हैं : “उनका भाषा सम्बन्धी आन्दोलन उनके स्वदेशी आन्दोलन का अंग बन गया |”11 आगे “भारतेंदु की भाषा-नीति अंग्रेजी राज्य की नीति के विरुद्ध ही न थी, वह पंडितों-मौलवियों की नीति के विरुद्ध थी, जो जनसाधारण की भाषा को हिकारत की निगाह से देखते थे | ( उपर्युक्त ) |
डाक्टर शर्मा ने भारतेंदु की रचनाधर्मिता को भारतीय आन्दोलनों से जोड़ने की कोशिश खूब की है, और उनकी आलोचनात्मक समझ इस प्रकार है कि कहीं से भी इस जुड़ाव में कृत्रिमता नहीं झलकती है | क्योंकि हमने उपर्युक्त परिचयात्मकता में देखा कि भारतेंदु के ऊपर अनेक आरोप लगाये जा रहे थे जिसमें इनके विरोधी किसी भी प्रकार इनको ब्रिटिश साम्राज्य के हितैषी के रूप में स्थापित करने में लगे थे, इस कारण भी डाक्टर शर्मा ने जब इन पर विस्तार से पुस्तकाकार रूप में बात कहनी चाही तो, ऐसा उनके मन में कहीं न कहीं मौजूद था, जो सारे आरोप उन पर लगाये जा रहे थे | इसलिए भी डाक्टर शर्मा ने उन्हें नए आयाम से व्याख्यित करने का प्रयास किया | जिसमें डाक्टर शर्मा सफल भी हुए |
निराला और रामविलास शर्मा में एक खास समानता दिखती है दोनों एक दूसरे के स्थायित्व निर्माण के कारण दिखते हैं, जब निराला पर दुरुहता का आरोप लगाकर उन्हें लगातार ख़ारिज किया जाता रहा, तब रामविलाश शर्मा ने निराला की विशेषता उद्घाटित करने के लिए निराला पर विषयगत आलोचनात्मक पुस्तक लिखने की सोची, और इस क्रम में उन्होंने निराला पर ‘निराला’ और ‘निराला की साहित्य साधना’(तीन भागों में) नामक पुस्तक लिखी, इस क्रम में जब उन्होंने खास तौर पर जब दूसरी पुस्तक निराल पर लिखी मसलन ‘निराला की साहित्य साधना’ तब हिंदी आलोचना के क्षेत्र में डाक्टर शर्मा की ख्याति पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गई | इसलिए निराला को स्थापित करने के क्रम में डाक्टर शर्मा खुद अत्यंत स्थापित हो गए, इस कारण निराला और डाक्टर शर्मा एक दूसरे के विकास के कारण बनें |
सन 1946 में डाक्टर शर्मा ने निराला से सम्बंधित ‘निराला’ नामक पुस्तक लिखी, और फिर ‘निराला की साहित्य साधना’ तीन भागों में (सन 1969, 1972, 1976 ) लिखी | उस दौर में निराला साहित्य के बारे में कुछ अति जानकारों ने यह वितंडा फैला रखा था कि निराला अत्यंत दुर्भेद हैं | यदि ऐसा प्रचार हिंदी के बड़े ज्ञानी लोगों की तरह से ही चलाये जाएँ, तो सामान्य पाठक कैसे सोच सकता है उनके साहित्य को हाथ लगाने की | ऐसी स्थिति में डाक्टर शर्मा निराला के साहित्य को अपना विषय बनाते हैं | डाक्टर शर्मा अपनी आलोचनात्मक पुस्तक ‘निराला’ की भूमिका में लिखते हैं “इस पुस्तक को लिखने का मूल उद्देश्य यह रहा है कि साधारण पाठकों तक निराला-साहित्य पहुचें ; दुरुहता की जो दीवाल खड़ी करके विद्वानों ने निराला को उनके पाठकों से दूर करने का प्रयत्न किया था, वह दीवाल ढह जाय |” इस पुस्तक का महत्त्व बड़े रूपों में इसलिए स्वीकार है कि निराला साहित्य आम जन तक सहज सुलभ हो पाये |
डाक्टर शर्मा निराला के गद्यकार रूप के बारे में इस प्रकार लिखते हैं : “गद्य-लेखक निराला ने बालमुकुन्द गुप्त और प्रेमचंद की परम्परा को और ऊँचा उठाया है, उसने गद्य-लेखन को काव्य- रचना के समान ही सरस और कलापूर्ण बना दिया है | हिंदी भाषा की नई क्षमता निराला के गद्य में प्रकट हुई |”12
‘निराला की साहित्य साधना’ भाग दो की भूमिका में रामविलास शर्मा ने निराला की स्वाधीनता विषयक विचारधारा के बारे में लिखा है, जो इस प्रकार है : “निराला की रचना-प्रक्रिया का स्त्रोत है उनका भावबोध | यह भावबोध उनकी विचारधारा से सम्बद्ध है किन्तु उसका प्रतिबिम्ब नहीं है | निराला का स्वाधीनता-प्रेम उनके साहित्य में अप्रत्याशित नए-नए रूपों में व्यक्त होता है | उनकी आस्था के प्रतीक अनेक हैं, उनका अधिष्ठान एक है |”13
वर्त्तमान समय में अब निर्विवाद सत्य है कि निराला हिंदी समाज के एक शीर्षस्त एवं महत्वपूर्ण रचनाकार हैं, समय के बहाव ने यदि हिंदी में किसी एक रचनाकार को सबसे ज्यादा विस्तार दिया है तो वह निराला ही हैं | जितना ही स्वभाविक रूप से समय चलता जायेगा, निराला उतना ही ज्यादा विशाल फलक को प्राप्त होंगे | इसीलिए निराला एक कालजयी रचनाकार हैं | यदि ऐसा कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस परिस्थिति को निर्मित करने में डाक्टर शर्मा का भी महत्वपूर्ण योगदान है | डाक्टर शर्मा ने जिस प्रकार इनकी व्याख्या आधुनिक सन्दर्भ में की है वह श्लाघनीय है |
आचार्य शुक्ल और डाक्टर शर्मा का एक सहज ही जुड़ाव है, हिंदी आलोचना की परम्परा को विकसित करने में | दोनों हिंदी के प्रखर समीक्षक, दोनों ने जैसे अपने में एक गुप्त संधि कर ली हो कि इस अमुक क्षेत्र में मैं कार्य करूँगा और उस क्षेत्र में दूसरे जन | फिर भी यदि मान लिया जाय कि ऐसी गुप्त संधि न भी हुई हो तो भी एक सहज संयोग तो है ही, हिंदी साहित्य के मध्यकाल( भक्तिकाल ) पर आचार्य शुक्ल आलोचना करते हैं, उनके आलोचना के केंद्र में भक्तिकाल के बड़े रचनाकारों में तुलसीदास, सूरदास एवं जायसी मुख्य रूप से शामिल रहते हैं, तो वहीँ हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में बड़े रचनाकारों में निराला, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल पर डाक्टर शर्मा आलोचना करते हैं | ये तीनों जन हिंदी समाज में अपने-अपने क्षेत्र के स्तम्भ हैं | आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर एक पुस्तक डाक्टर शर्मा लिखते हैं ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ (1955 ) | इस पुस्तक की भूमिका में डाक्टर शर्मा ने आचार्य शुक्ल के महत्त्व को इस प्रकार बतलाया है और वो लिखते हैं : “हिंदी साहित्य में शुक्ल जी का वही महत्त्व है जो उपन्यासकार प्रेमचंद या कवि निराला का | उन्होंने आलोचना के माध्यम से उसी सामंती संस्कृति का विरोध किया जिसका उपन्यास और कविता के माध्यम से प्रेमचंद और निराला ने | शुक्लजी ने न तो भारत के रुढ़िवाद को स्वीकार किया, न पश्चिम के व्यक्तिवाद को | उन्होंने बाह्य जगत् और मानव-जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य-सिध्दांत की स्थापना की और उनके आधार पर सामंती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतंत्र की परम्परा का समर्थन किया |”14 इससे यह तो पता चल गया कि प्रेमचंद और निराला के बाद इन्होंने आचार्य शुक्ल पर आलोचना क्यों की | इस पुस्तक में डाक्टर शर्मा ने उन तमाम बातों का एक कोलाज बनाकर उत्तर देने का प्रयास किया है जो उस दौर में आचार्य शुक्ल के ऊपर आरोप लगाये जा रहे थे | इस प्रक्रिया में डाक्टर शर्मा ने आचार्य शुक्ल की आलोचना-दृष्टि तथा उनके आलोचनात्मक कार्यों का मूल्यांकन वैज्ञानिकपरक होकर किया | साथ ही ऐसे कार्यों से ही हिन्दी आलोचना की परम्परा एक वैज्ञानिकपरक वैचारिकरता से आगे बढ़ती है |
डाक्टर शर्मा एक पुस्तक ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1877) के नाम से लिखते हैं, जैसा इसके नाम से ही सजह बोध हो रहा है कि यह पुस्तक महावीरप्रसाद द्विवेदी को केंद्र में रख कर लिखी गयी है | यह पुस्तक लिखने के पीछे अनेक उद्देश्य एवं कारण रहे, डाक्टर शर्मा के | महावीरप्रसाद द्विवेदी को सिर्फ एक ऐसे सम्पादक के रूप में याद किया जाता था, जो एक कोरे संपादक के गुणों के अनुरूप हो, मसलन उन्हें भाषा की शुद्धता जैसे कार्य को लेकर प्रमुखता से ही याद किया जाता था, इनके अन्य कार्यों को तरजीह नहीं दिया जाता था | डाक्टर शर्मा ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से उन तमाम महत्वपूर्ण कार्यों को रेखांकित किया, जो महावीरप्रसाद द्विवेदी के द्वारा किया गया | कुछ इनके कार्य इस प्रकार कि कैसे इन्होंने रीतिवादी प्रवृत्ति का विरोध किया, हिंदी में गद्य एवं पद्य की भाषा की एकरूपता के लिए कार्य किया, खड़ी बोली को स्थापित करने पर जोर दिया, हिंदी समाज को वैज्ञानिकता से लगातार जोड़ने के क्रम में अनेक लेख वैज्ञानिक वैचारिकता पर आधारित लिखा एवं सरस्वती पत्रिका में दूसरों के लेख को छपने में प्रमुखता दी, कारण स्पष्ट था कि उस समय हाल ही में डार्विन की विकासवाद नामक अवधारणा आ चूकी थी, जो विश्व के समूची जातीयता को बड़े रूपों में प्रभावित किया, इस कारण भी महावीरप्रसाद द्विवेदी सरस्वती में वैज्ञानिक लेख को तरजीह देते हैं और महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्वाधीनता से बड़े रूपों में प्रभावित भी हैं | ऐसे अनेक वैचारिक पहलु डाक्टर शर्मा इस पुस्तक के माध्यम से सामने लाते हैं जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के सन्दर्भ में संभवतः नई है |
डाक्टर शर्मा इनकी ‘सम्पत्तिशास्त्र’ पुस्तक की उपयोगिता एवं महत्त्व के बारे में इस प्रकार लिखते हैं : “जो लोग भारत में अंग्रेजी राज की भूमिका समझना चाहते हैं, उनके लिए द्विवेदीजी की पुस्तक में महत्वपूर्ण सामग्री है |”15 डाक्टर शर्मा लिखते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी किसान और मजदूर की शक्ति को बखूबी समझते थे, जो संख्या बल में सर्वाधिक थे, इसी कारण वो उनको संगठित होने की पुरजोर वकालत करते थे, डाक्टर शर्मा इस प्रकार लिखते हैं : “द्विवेदी जी के चिंतन में यह विचार निहित है कि अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ने वाली जनता की दो प्रमुख शक्तियाँ हैं : पहली शक्ति किसान, दूसरी शक्ति मजदूर | किसान लगानबंदी के जरिये अंग्रेजों के विशाल अखिल भारतीय कारखाने का चलना बंद कर सकते हैं | किसानों और मजदूरों की एकता स्वाधीनता आन्दोलन की धुरी है ; उनका संघर्ष इस आन्दोलन की मुख्य शक्ति है |”16
भाषा विषयक वैचारिकता के बारे में डाक्टर शर्मा इस प्रकार लिखते हैं ; “भाषा-परिष्कार का काम उनके व्यापक कार्यक्रम का अंश मात्र है और वह उसका सबसे महत्वपूर्ण अंश नहीं है |”17 यह आलोचनात्मक टिपण्णी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी पर प्रायः आरोप लगते रहे हैं कि ये सिर्फ एक भाषा शोधक हैं, जबकि इस बात को रामविलास शर्मा ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि भाषा संशोधन अथवा भाषा परिष्करण तो सिर्फ उनके बड़े कार्यों में से एक छोटा सा हिस्सा है, असल में उनका कार्य तो अत्यंत समृद्ध एवं व्यापक है | इस आलोचनात्मक पुस्तक का महत्त्व इसलिए भी और बढ़ जाता है कि ये भारतेंदु और प्रेमचंद-शुक्ल-निराला के बीच की कड़ी महावीरप्रसाद द्विवेदी हैं मसलन आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रगतिशील परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी | जिसके बिना हिंदी आलोचना की परंपरा आगे नहीं बढ़ सकती है |
डाक्टर शर्मा हिंदी आलोचना की परम्परा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, हिंदी आलोचना आचार्य शुक्ल के यहाँ से जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ती है उसका समुचित विकास आचार्य रामविलास शर्मा के यहाँ ही देखने को मिलता है | हिंदी आलोचना में आचार्य रामविलास शर्मा प्रगतिशील आलोचना की परम्परा के आरम्भिक पूर्वज हैं जिनके यहाँ से हिंदी में प्रगतिशील आलोचना की परम्परा मोटेतौर पर आरम्भ होती है | डाक्टर शर्मा की आलोचनात्मक कृतियाँ इनके प्रगतिशील मूल्यों का एक दस्तावेज है | जिस प्रकार की विषयवस्तु का चुनाव इन्होंने अपनी आलोचना के लिए किया है, वही एक प्रगतिशील कदम है, क्योंकि उपर्युक्त परिचयात्मकता में हमनें देखा की जिन रचनाकारों को ये अपनी आलोचना का विषय बनाते हैं उन सब के पीछे उद्देश्य क्या है | फिर भी हिंदी आलोचना की परम्परा में आचार्य रामविलास शर्मा एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण आलोचक हैं |
शिवदान सिंह चौहान
शिवदान सिंह चौहान वैसे तो प्रगतिशील आलोचना की परम्परा के आरम्भिक आलोचक में गिने जाते हैं जिनके यहाँ से हिंदी में प्रगतिशील आलोचना आरम्भ होती है | इनका सर्वाधिक चर्चित निबंध ‘भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’ सन 1937 में ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित हुआ | आलोचकों के एक वर्ग का मानना है कि इस आलेख से ही प्रगतिशील समीक्षा की बहस आगे बढ़ी | शिवदान सिंह चौहान का अधिकांश लेखन आलोचनात्मक एवं वैचारिक निबंधों के रूप में ही हुआ है | इन्होंने अधिकांश आलोचकों की तरह कभी भी किसी एक लेखक पर कोई स्वतंत्र आलोचनात्मक पुस्तक नहीं लिखी | मोटे तौर पर देखा जाय तो विधिवत एवं योजनाबद्ध होकर इन्होंने सिर्फ दो पुस्तकें लिखी हैं पहला ‘हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष’ (1954) और दूसरा ‘आलोचना के सिद्धांत’ (1960) | वैसे इनकी कुछ अन्य भी पुस्तकें मौजूद हैं जो इस प्रकार हैं : ‘हिंदी गद्य साहित्य’(1952), ‘साहित्यानुशीलन’(1955), ‘आलोचना के मान’ (1958), ‘साहित्य की समस्याएं’ (1959), आदि पुस्तकें इनकी महत्वपूर्ण हैं | ऐसा नहीं है कि इन्हें बहुत व्यवस्थित आलोचनात्मक कर्म न कर पाने का मलाल नहीं है, और इसलिए विधिवत अलग-अलग रचनाकारों पर न लिख पाने का इन्हें बहुत मलाल भी है, ये सारी बातें इन्होंने अपनी पुस्तक ‘साहित्यानुशीलन’ में लिखते हैं जो इस प्रकार है : “प्रारम्भ से ही सांस्कृतिक-राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेते रहने के कारण मैं अब तक सौभाग्य या दुर्भाग्य से वस्तुतः एक खानाबदोश की-सी जिंदगी बिताने को ही विवश रहा हूँ | ऐसे में, किसी पूर्व निश्चित योजना के अनुसार एक समय में, एक ही स्थान पर जमकर लिखने की कल्पना भी असंभव रही है, जिससे विभिन्न परिस्थितियों में हमारे साहित्य के सामने जो समस्याएं उठती गई या जिन पुस्तकों की समीक्षा का आग्रह टालना संभव न हुआ उन पर ही लिखने-लिखाने का समय निकाल पाया हूँ ...”18 शिवदान सिंह चौहान परिमाण में अन्य बड़े व्यवस्थित आलोचकों की अपेक्षा भले ही कम लिखे हों लेकिन कुछ इनकी स्थापनाएँ हिंदी साहित्य को लेकर मौलिक एवं गंभीर भी हैं, मिसाल के तौर पर इनकी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष’ में कुछ स्थापनायें देखीं जा सकती हैं | पहली बात तो ये हिंदी भाषा के स्वरुप पर ही करते हैं और कहते हैं कि हिंदी किसी एक भाषा का नाम नहीं है बल्कि शौरसेनी और अर्ध-मागधी अपभ्रंशों से आठवीं-दसवीं शताब्दियों के बीच विकसित हुई जनपदीय भाषा समूह का नाम है | लेकिन हम आधुनिक काल के प्रसंग में हम इन भाषाओं और बोलियों के प्रति असहिष्णु हो उठते हैं | शिवदान सिंह चौहान इसे इतिहास-लेखन की ‘अनैतिहासिक और स्वेच्छाचारी’ परम्परा मानते हैं | शिवदान सिंह चौहान की मूल स्थापनाएं यह हैं कि जिसे सचमुच हिंदी-साहित्य कहा जाता है वह वस्तुतः खड़ी बोली हिंदी का साहित्य है जिसकी शुरुआत भारतेंदु-युग से हुईं है | हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में जिसे हिंदी साहित्य का इतिहास कहकर प्रस्तुत किया जाता रहा है वह वस्तुतः ‘हिंदी भाषा समूह’ का इतिहास है, जिसमें मैथिली, अवधि, ब्रज एवं राजस्थानी आदि को शामिल किया जाता है और आदिकाल से लेकर रीतिकाल तक इसका पालन किया जाता है लेकिन आधुनिक काल में इसे छोड़कर सिर्फ खड़ी बोली को अपनाया जाता है | इस कारण शिवदान सिंह चौहान सन 1873 में प्रकाशित भारतेंदु हरिश्चंद के प्रहसन ‘वैदेही हिंसा हिंसा न भवति’ (1873) से मानते हैं | हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष का लेखन काल चूँकि अस्सी वर्ष की कालावधि को ही वे हिंदी साहित्य की सम्पूर्ण काल सीमा मानते हैं | हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष की इस स्थापना को चुनौती देना आसन नहीं है |
हिंदी आलोचना की परंपरा में शिवदान सिंह चौहान प्रगतिशील आलोचक के तौर पर मुख्य रूप से जाने जाते हैं | इनकी महत्वपूर्ण स्थापना से हिंदी आलोचना अत्यंत समृद्ध होती है |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
हिंदी आलोचना की परम्परा में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1979) एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | आचार्य द्विवेदी आलोचना में जो नजरिया लेकर आये, उससे हिंदी आलोचना कई मायने में समृद्ध हुई | इनसे पहले आचार्य शुक्ल हिंदी आलोचना में मजबूत स्वरुप में अनेक स्थापनायें स्थापित कर चुके थे | उस दौर में लगभग उनके द्वारा स्थापित रचनाकार ही स्थापित था और जिसे कमतर आंक गए वह हिंदी साहित्य की दुनिया में उसी तरह उपेक्षित पड़ा रहा | ऐसे आलोचकीय वातावरण में आचार्य द्विवेदी कई स्थापनाओं को न सिर्फ चुनौती देते हैं वरन अपने मजूबत तथ्यात्मक सिध्दांतों से उनको पुनःस्थापित भी करते हैं | इस तरह के स्थापनाओं में उनकी कबीर विषयक स्थापना हिंदी जगत में सर्वाधिक चर्चित एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है | इससे पहले कबीर एक तरह से कहें तो हिंदी जगत में उपेक्षित थे | ऐसा नहीं है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से पहले कबीर के महत्त्व को दिखलाने का प्रयास नहीं हुआ था, यह कहना गलत होगा | आचार्य द्विवेदी से पहले अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने ‘कबीर वचनावली’(1916) नाम से कबीर के वचनों का एक संक्षिप्त परिचय अच्छी–खासी भूमिका के साथ सम्पादित किया था | इसके अलावा डॉ. श्याम सुन्दर दास ने ‘कबीर ग्रंथावली’(1928) नाम से उस समय तक कबीर के उपलब्ध रचनाओं का संकलन करके उसे सम्पादित किया | इन कार्यों के बावजूद भी कबीर हिंदी साहित्य में उपेक्षित रहे, यह कहना गलत नहीं होगा | यह निर्विवाद सत्य है कि कबीर पर अपनी ‘कबीर’ पुस्तक लिखकर आचार्य द्विवेदी कबीर के महत्त्व को बतलाते हैं साथ में उनके वैशिष्ट्य को दृढ़ता से स्थापित करते हैं | पहली बार हिंदी जगत में लोगों को यह पता चला कि कबीर की रचना भी इतनी वैशिष्ट्य है | कबीर के इस उपेक्षता के पीछे क्या कारण रहा होगा? बार-बार इस प्रकार के प्रश्न मन में आनायास ही आते रहते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि कबीर को किसी खास वैचारिकता के कारण इन्हे हासिये पर रखा गया हो, बहरहाल |
आचार्य द्विवेदी अपनी ‘कबीर’ नामक पुस्तक में कबीर के वैशिष्ट्य को एक-एक कर उद्घाटित करते हैं, जिसमें से अनेक अबूझे सिध्दांतों को सुलझाते हैं जैसे- कबीर के यहाँ अवधूत कौन है ?, कबीर का मत और नाथ पंथियों का सिध्दांत क्या है ?, कबीर के यहाँ हठयोग की साधना का स्वरुप क्या है ?, कबीर के यहाँ निरंजन कौन है ?, कबीर की उलटबांसियां और योगपरक रूपक क्या है ?, कबीर के यहाँ ब्रह्म और माया का स्वरुप क्या है ?, कबीर के यहाँ निर्गुण राम का स्वरुप कैसा है ?, कबीर के यहाँ बाह्याचार किस प्रकार है ?, कबीर के यहाँ संत और गुरु का किस प्रकार महत्त्व है ? साथ ही कबीर के व्यक्तित्व का बड़े रूपों में विश्लेषण भी करते हैं | ऐसे अनेक बिन्दुओं पर वह गहराई से चिंतन करते हैं और उनका विश्लेषण करके एक युग प्रवर्तक कार्य भी करते हैं, आचार्य द्विवेदी का विश्लेषण इतना वैज्ञानिक एवं तथ्यात्मक होता है कि इनके सिध्दांतों को इनके विरोधी भी सहज ही अस्वीकार नहीं कर सकते थे | सच पूछिये तो आलोचना का बुनियादी गुण है तथ्यात्मक अथवा वस्तुपरक होकर बात कहना, प्रायः देखने को मिलता है कि जिन आलोचकों ने इस रास्ते गुजरकर कृति अथवा रचनाकार के बारे में लिखा वह अक्सर सराहे गए इसके बरक्स जिन रचनाकारों ने व्यक्तिगत विचारधारा का प्रयोग बहुतायत में किया उनकी आलोचना बड़ी न हो सकी, बहरहाल |
कबीर के बारे में आचार्य द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में यह टिप्पणी लिखते हैं : “कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कहीं थी | उनकी छन्दों योजना, उक्तिवैचित्र्य और अलंकारविधान पूर्ण रूप से स्वाभाविक और अप्रयत्न साधित है”19 इसमें कबीर की भाषिक क्षमता के साथ-साथ उनके सामर्थ्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है | कबीर जीवन के अंतिम समय मगहर में जाकर बिताया और वहीँ पर उनका अंत भी हुआ, इसे लेकर आलोचकों की राय- आचार्य शुक्ल “कबीर ने मगहर में जाकर शरीर त्याग किया जहाँ इनकी समाधि अब तक बनी हुई है |”20 “कबीर ने जीवन काशी में बिताया और अंत समय में मगहर गए | लोक में ऐसा प्रसिद्ध है कि काशी में मरने पर मुक्ति मिलती है वहीँ मगहर में मृत्यु होने पर गधे का जन्म धारण करना होता है | मगहर में मरने के पीछे जो दृढ़ता और प्रखरता है, उसके बारे में आचार्य मौन है | कबीरदास को इस प्रकार के अन्धविश्वास और ढकोसलों की निस्सारता पर अटल विश्वास है, इस प्रकार के अंधविश्वासों को तोड़ने के लिए ही वह मगहर गए होंगे |”21
वहीँ हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के उद्भव के सन्दर्भ में आचार्य शुक्ल इस्लामी प्रतिक्रिया के स्वरुप में स्वीकार करते हैं और इस प्रकार कहते हैं – “इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही | अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था |”22 आचार्य द्विवेदी भक्तिकाल के उद्भव के सम्बन्ध में जिस तरह आचार्य शुक्ल के सिध्दांतों का खंडन करते हैं, वह उनके आलोचकीय विवेक के गंभीरता को दिखलाता है, जो इस प्रकार है –“यह बात अत्यंत उपहासात्मक है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे, तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की |”23 अब यह निर्विवाद सत्य है कि भक्ति का उद्भव सबसे पहले दक्षिण भारत में हुआ था, तो फिर आचार्य शुक्ल क्यों इस प्रकार अपनी स्थापनाएं दी ? ऐसे प्रश्न सहज ही मन में उठते हैं | साथ ही आचार्य द्विवेदी भक्तिकाल के उद्भव के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त करते हैं – “आज से लगभग हजार वर्ष पहले हिंदी साहित्य बनना शुरू हुआ था | इन हजार वर्षों में हिंदी भाषी जन-समुदाय क्या सोच-समझ रहा था, इस बात की जानकारी का एकमात्र साधन हिंदी साहित्य ही है...एक यह कि हिंदी साहित्य एक हतदर्प पराजित जाति की संपत्ति है, इसलिए उसका महत्त्व इस जाति के राजनीतिक उत्थान पतन के साथ अन्गागि भाव से सम्बध्द है और दूसरा यह कि ऐसा न भी हो तो भी वह एक निरंतर पतनशील जाति की चिंताओं का मूर्त प्रतीक है, जो अपने-आप में कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता | मैं इन दोनों बातों का प्रतिवाद करता हूँ...मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है |”24 यहाँ दोनों आलोचकों का अलग – अलग सिध्दांत भक्तिकालीन उद्भव के सन्दर्भ में दिखता है |
आचार्य द्विवेदी प्रेमचंद को लेकर बहुत सकारात्मक दिखते हैं, क्योंकि हमने आचार्य वाजपेयी के यहाँ देखा वह प्रेमचंद को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं दिखे साथ ही वह प्रेमचंद में बहुरूपता बड़े रूपों में नहीं दिखती ऐसे आरोप भी लगाये परन्तु आचार्य द्विवेदी प्रेमचंद के बारे में लिखते हैं – “अगर कोई उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार- विचार, भाव, भाषा, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा,दुःख- सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहे तो प्रेमचंद से अधिक उत्तम परिचायक इस युग में नहीं पा सकेगा |”25 यहाँ दिखता है कि आचार्य द्विवेदी प्रेमचंद के महत्त्व को बड़े सन्दर्भों में रेखांकित करते हैं |
आचार्य द्विवेदी ग्रन्थ के अध्ययन के लिए ग्रंथकार का अध्ययन भी आवश्यक मानते हैं, क्योंकि प्रत्येक रचनाकार अपने परिस्थितियों की निर्मिती होता है, इसलिए आचार्य द्विवेदी ग्रन्थ के साथ ग्रंथकार के अध्ययन को भी आवश्यक मानते हैं | आचार्य द्विवेदी इस प्रकार लिखते हैं –“हम मानते हैं कि संसार में कोई घटना अपने आप में स्वतंत्र नहीं है | पूर्ववर्ती और पार्स्ववर्ती घटनाएँ वर्तमान घटनाओं को रूप देती हैं, इसलिए जिस किसी रचना या वक्तव्य वस्तु का हमें स्वरुप निर्णय करना हो उसे पूर्ववर्ती और पार्स्ववर्ती घटनाओं की अपेक्षा में देखना चाहिए |”26 यहाँ आचार्य द्विवेदी का सिध्दांत इलियट के निर्वयक्तिकता के सिध्दांत के समान ही लगता है क्योंकि इलियट अपने इस सिध्दांत में कवि की रचना अपने परम्परा से जुड़ी हुई ही बताते हैं, क्योंकि कवि का अपना वैयक्तिक कुछ नहीं होता उसे अपने परम्परा से बहुत कुछ प्राप्त होता है | ठीक कुछ इसी प्रकार आचार्य द्विवेदी भी कवि के साथ उसके परिस्थितियों के अध्यनन को आवश्यक मानते हैं |
आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी दोनों के यहाँ सर्वोपरि लोक ही रहता है, जैसा कि हमने आचार्य शुक्ल को जानने के क्रम में देखा सारा प्रयत्न अंततोगत्वा वह लोक के लिए ही करते हैं , उनका लोकमंगल की अवधारणा अत्यंत ही प्रसिद्ध है | वहीँ ‘विचार और वितर्क’ (प्रथम संस्करण ) में संकलित एक निबंध में द्विवेदी जी कहते हैं कि “हमारा परम लक्ष्य मनुष्यत्व है” और “मध्य युग में जिस बात को अध्यात्म कहा करते थे वही वस्तुतः इस युग का मनुष्यत्व है |”27 इसके साथ- साथ आचार्य द्विवेदी के इस कथन को भी देखना आवश्यक है – “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ, जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजी से दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है |”28 इस प्रकार आचार्य द्विवेदी की दृष्टि मुख्यतः मानवतावादी है, वो हमेशा साहित्य को सामाजिक सन्दर्भ में देखने और परखने का आग्रह करते हैं | साथ ही आचार्य द्विवेदी की समीक्षा दृष्टि की बात की जाय तो मुख्यतः ऐतिहासिक और सामाजिक है |
हिंदी आलोचना की परम्परा में आचार्य द्विवेदी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में सामने आते हैं, जिन्होंने अपने वैज्ञानिक मानस और तथ्यात्मक जानकारी से हिंदी आलोचना को एक नई दिशा दी | इन्होंने अनेक ऐसे नए सिध्दांत स्थापित किये जिससे हिंदी आलोचना समृद्ध हुई |चाहे वह कबीर की स्थापना हो या भक्तिकालीन उद्भव के सन्दर्भ में नए विचार अथवा साहित्य को मानवतावादी दृष्टिकोण से देखने का आग्रह | इनके द्वारा किये गए कार्यों से हिंदी आलोचना में अत्यंत सकारात्मत वैचारिकी की प्रगति हुई |
यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि ‘हिंदी आलोचना : स्वतंत्रता के बाद’ ज्यादा प्रभावी रूप से दर्ज मिलती है, हिंदी आलोचना की परम्परा में | कारण भी साफ है कि नये हिंदी के आलोचक ज्यादातर विषयगत आलोचकीय प्रवृत्ति को व्यवहार में अपनाते हैं जिसमें हमने रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान और हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचकीय वैचारिक कर्म को देखा ही | जब आलोचना कृति में दर्ज बातों को लेकर ही होगी तो निश्चय ही परिणाम सुखद प्राप्त होंगे | स्वनिर्मित आलोचना से जितना किनारा कर सकें उतना ही आलोचना के भविष्य के लिए सुखद होगा | निश्चय ही ये तीनों महनीय आलोचक हिंदी आलोचना की परम्परा को विकसित करते हैं | इनके द्वारा किया गया कार्य हिंदी आलोचना के लिए महत्वपूर्ण हैं |
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