वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में सौन्दर्यबोध
हिन्दी साहित्य जगत में वृन्दावनलाल वर्मा ऐतिहासिक उपन्यासो के लिए प्रसिद्ध है । देशकाल के सजीव वर्णन और वस्तु-विन्यास की दृष्टि से मौलिकता की दृष्टि से उन्होने विशुद्ध ऐतिहासिक उपन्यास-लेखन की परम्परा का प्रारंभ किया । साहित्य प्रेमियों ने वर्माजी के उपन्यासों की उपस्थिति को स्थापित किया और समझा, सम्मान प्रदान किया । उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति की विलक्षणता और कलात्मकता की चारित्रिक विशेषताओं के चलते इतिहास-लेखन को सौन्दर्यबोधक बना दिया है । बुन्देलखण्ड के प्रति असीम स्नेह और हिन्दी भाषा के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले वृन्दावनलाल वर्मा जी किसी भी रूप में बुंदेलखंड के शोर्य के प्रति लोगो को परिचित करवाने का मन बनाये थे ।
सौन्दर्य का साहित्य के साथ सदैव से अच्छा सम्बन्ध रहा है । मानव स्वभाव सौन्दर्यप्रेमी रहा है । प्रकृति में वस्तुओं में स्थावरमें, चाँद-तारो में, खुशबू में, रंगो में, फूलों में, काँटो में अर्थात सभी स्थानो पर सौन्दर्य वर्णित है । अपने आसपास की तीव्र मधुर, कर्कश सभी ध्वनियों में सौन्दर्य की अनुभूति है । नदियों की कल-कल में सौन्दर्य सुना है, तो झरनो के तीव्रतम स्वरूप में सौन्दर्य को देखा है, शेर की गर्जना में सौन्दर्य का घोष प्राप्त किया है, तो कोयल की कूक में भी सौन्दर्य का गान सुना है, फूलों की सुगन्ध के सौन्दर्य में वह मदमस्त हुआ, भौरो के गुंजन में भी सौन्दर्य को ढूढ़ा है । वर्माजी इससे अछूते नहीं रहे । उन्होने अपने उपन्यासों में सौन्दर्य के विविध रूप प्रदर्शित किये है । मानवीय, प्राकृतिक, वस्तुगत, कलात्मक, आदि रूपों में उन्होने सौन्दर्यात्मकता को पावन एवं मोहक रूप से उभारा है । वर्माजी के उपन्यासों में सौन्दर्यबोध दिखाई देता है । उपन्यासों के विविध पात्रों के बहुरंगी संसार में सबसे आकर्षक और सौन्दर्य की सबल प्रतिमूर्ति नारी पात्र है । वर्माजी ने अपने नारी पात्रो को असाधारण रूप लावण्य के साथ-साथ शालीनता, कोमलता, शक्तिमत्ता, प्राणोत्सर्ग की भावना, उदारता, त्याग, बलिदान, देशप्रेम आदि, मानवीय गुणों से समन्वित कर विशेष सौन्दर्यमयी गरिमा प्रदान की है । कचनार, मृगनयनी लाखी, रानी लक्ष्मीबाई, तारा, आहिल्याबाई, दुर्गावती, आदि पात्रो में अपार शक्ति और शौर्य से समृद्ध दिखाया गया है । यह पुरुष की शक्ति एवं प्रेरणास्त्रोत सिद्ध हुई है । ये सभी नारी पात्र अपनी प्रजा देश, गौरव, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए इन पात्रों के आन्तरिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त किया है । कर्माजी ने अपने विविध उपन्यासो में विविध प्रकार के पात्रो के द्वारा सौन्दर्यबोध को प्रस्तुत किया है ।
वर्माजी के नारी पात्रों में यदि लक्ष्मीबाई जैसी वीर, साहसी, देशभक्त, स्वाभिमानी ऐतिहासिक नारी है । मृगनयनी में अपने पुत्रो को राज्याधिकार दिलाने की लालच नहीं है । वह करुणा, त्यागवीर वात्सल्य की जीती-जागती प्रतिमूर्ति है । जिसके सौन्दर्य में राजा मानसिंह का व्यक्तित्व भी निखर उठता है । अपनी लौकिक अभिलाषाओं को कर्तव्य पर न्योछावर करने की प्रवृत्त, जुही, सुन्दर, मुन्दर, झलकारीबाई आदि के सौन्दर्य को भी चित्रित किया गया है । वर्माजी ने नारी पात्रो के शारीरिक सौन्दर्य पर अधिक ध्यान न देकर उनके गुणों का विकास कर आन्तरिक सौन्दर्य पर बल दिया है । लगभग सभी नारी पात्रों के गुणों से दिव्य सौन्दर्य का आभास होता है ।
इसी प्रकार नारी पात्रों की तरह पुरुष पात्रो के शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा उनके आन्तरिक सौन्दर्य का अधिक चित्रण किया गया है । अपने दिव्य गुणों से ओत-प्रोत प्रमुख पात्रों - मानसिंह, अटल, अग्निदत्त, भुवन, कुँजरसिंह, दलीपसिंह आदि के अतिरिक्त वर्माजी ने खलपात्रों - गयास, सिकन्दरलोदी, अलीमर्दान, नादिर शाह आदि को भी चित्रित किया है । कुँजरसिंह, दिबाकर, अटल अपने-अपने प्रेम को एक आदर्श स्वरूप प्रदान कर अपने आन्तरिक गुणों के सौन्दर्य की आभा बिखेरते है । अग्निदत्त और नागदेव में स्वाभिमानी और उग्र प्रेम का चित्रण किया गया है । इसके अतिरिक्त अचल, सुधाकर आदि पात्रों के द्वारा भी सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार सौन्दर्य का चित्रण किया है । बचपन से प्राकृतिक सुषमा की गह्न अनुभूति करने वाले वर्माजी ने प्रकृति के कोमल, कठोर, सरल, भयानक रूपो को रमणीय अभिव्यक्ति अपने उपन्यासों में की है । प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन, उपदेशक आदि रुपों के साथ-साथ उसके उपमान रूप का ललित चित्रण हुआ है । बुन्देलखण्ड की प्राकृतिक सुषमा, गेहूँ, चने आदि के खेतों, नीम, करौंदा, साल, खैर आदि के जंगलों की सौन्दर्यानुभूति को वाणी प्रदान की है । आखेटप्रियता और ऐतिहासिक तथ्यो के अन्वेषण हेतु भ्रमण में प्रवृत्त रहे वर्माजी प्राकृतिक स्थलों का भ्रमण करते ही रहते थे । इसी कारण कहीं-कहीं बेंतबा, धसान, सांक, केन, नर्मदा, पहूज, ललिता आदि नदियों की गतिका, उनकी कल-कल का सौन्दर्य व्यक्त किया है तो, कही फेन उफलती धारा को चित्रित किया है । सहज, सरल सौन्दर्य बिखेरती पालर की शान्त झील हो अथवा हीरों और नगीनों की तरह अनुभूत होती जामघाटी के नीचे बेली और मंडलेश्वर की झीलें इनके सौन्दर्य ने पात्रों के साथ-साथ पाठकों को भी मंत्र्मुग्ध कर दिया है । इसके अतिरिक्त राजबिगर प्रयात का भीषण गयात्मक सौन्दर्य हो अथवा नदियों की गति का सौन्दर्य, झीलों की गहराई हो अथवा माँडेर,पलोथर, काँटा आदि पहाडियों का गगनचुम्बी वैभव, इनके सौन्दर्य का अनुपम चित्रण किया गया है, जिसे पढ़कर पाठक भाव-विभोर हो जाता है । घटनाओं की पृष्ठभूमि चरित्रो के मनोभावों से साम्य, संवेदना आदि को प्रकट करते हुए एवं स्वतंत्र रूप से उपदेशक के रूप में मानवीकरण आदि के रूप में ग्रीष्म, शिशिर, वसन्त, वर्षा आदि ऋतुओं का सौन्दर्य उपन्यासों में अभिव्यक्त है वही ऊषा संध्या रात्रि को झिलमिल चाँदनी आदि के सौन्दर्य से पात्रों को एकाकार होते दिखाया गया है । कहीं आकाश में रंग भरना हो, कही बालरवि का अभिषेक हो, कही सुनहले अरूण परिधान बदलती उषा हो अथवा वैदिक ऋचाओं के साथ गान की पावनता का झलकाती प्रकृति हो सभी के सौन्दर्य का चित्रण आत्मीयता के साथ किया है । इसी आत्मीयता के कारण निली चाँदनी के वैभव को अपने आँचल में बाँधना चाहती है, किसी को सूर्य की किरणों से संगीत सुनाई देता है, आहिल्याबाई किरणों में नहाते रमणीय वन्य सौन्दर्य से प्रेरणा, पुरुषार्थ और उमंग पाती है, वही पलोथर के विकट सौन्दर्य पर मुग्ध दिवाकर देशहित हेतु प्राणोत्सर्ग की बात सोचता है, आखेट को गये दलीपसिह, हरसिंगार के सौन्दर्य से अभिभूत तीर चलाना ही भूल जाते है ।
प्रकृति की सौन्दर्यपरक, मोहक छवि को प्रस्तुत कर वर्माजी ने अपने प्रकृति प्रेम और प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य को सरल, सहज रूप में प्रस्तुत कर ह्रदय को आनन्दित- उल्लासित किया है । उनके द्वारा वर्णित प्रकृति सौन्दर्य कहीं-कहीं अपने ममतामय स्पर्श से थपकता, दुलराता है, तो कहीं-कहीं सात्विक भावों को जागरित कर सहजता, सरलता के प्रति प्रेरित करता है । प्रकृति मानव की सहचरी के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत हुई है । उसके प्राकृतिक सौन्दर्य के सहज चित्रण से आत्मीयता की अनुभूति होती है । वर्माजी ने प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त मानव निर्मित वस्तुओं के सौन्दर्य पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया है । राजाओ द्वारा बनवाये गये भवनों के भग्नावशेषो मन्दिरो की कारीगरी, मूर्तियो की सुन्दरता सौन्दर्य पर भी वर्माजी मुग्ध हुए है । प्राचीन भव्य महलो, दुर्गो, भवनो आदि की भव्यता वर्तमान में खण्डहरों के रूप में शेष है, परन्तु अपने कलात्मक कौशल द्वारा भग्नावशेषो में भी लालित्य का अनुसंधान किया है । मानसिंह द्वारा मृगनयनी के असाधारण सौन्दर्य उसकी मनमोहक छवियों के रूप को मान-मन्दिर और गूजरी महल में सदा के लिए सुसज्जित करवाना रहा हो अथवा चन्देलवंशीय शासको द्वारा खजुराहो के मन्दिरों का सौन्दर्य सभी रमणीय अभिव्यक्ति हुई है । अष्टकोणों में दिग्पालों के कैलाश पर्वत की कल्पना पर बना कन्ढरीय महादेव मन्दिर या कलिंजर का नीलकण्टेश्वर मन्दिर सभी में सौन्दर्य की नैसर्गिक आभा की अनुभूति होती है ।
निष्कर्ष्त : कहा जा सकता है, कि वर्माजी ने ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं की सत्यता को सामने लाने का जो संकल्प बचपन में ही लिया था, उसको उन्होनें अन्तिम समय तक पूरा किया । ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ मानवीय प्राकृतिक, वस्तुगत सौन्दर्य की झलक उनके उपन्यासों में स्पष्ट: दिखाई देती है । मानवीय सौन्दर्य में बाह्य सौन्दर्य के स्थान पर आन्तरिक सौन्दर्य को प्रतिष्ठित किया है । प्रकृति चित्रण में वर्माजी यद्यापि पंत जी की तरह प्रकृति के चितेरे तो नही कहे जाते है, परन्तु प्रकृति के विविध रूपों - ऊषा, संध्या, रात्रि चाँदनी उसके अंगो - जंगल, वनस्पतियों, खेंत्म खलिहान, नदियों, झील, झरनो, तालाबों एवं ऋतुओं आदि का सौन्दर्यदर्यपरक चित्रण करने में वे सफल रहे है । उन्होने प्रकृति को मानव की सहचरी के रूप में प्रतिष्ठित किया है । मानवीय और प्राकृतिक सौन्दर्य के सफल चित्रण के साथ-साथ मूर्तियो मन्दिरो, भवनो, महलों आदि के सौन्दर्य की रमणीय अभिव्यक्ति की है । वर्माजी की सौन्दर्यदृष्टि स्वच्छ्न्द, सरल रूप में उभरकर सामने आई है । अश्लीलता और वासना से कोसों दूर उनके सौन्दर्यबोध ने पात्रो और घटनाओं का बहआयामी विकास किया है । निश्चत्य ही वर्माजी द्वारा मानवीय और प्राकृतिक सौन्दर्य का निरूपण हिन्दी उपन्यास साहित्य की अमूल्य निधि कहा जायेगा । इस प्रकार वर्माजी के विविध उपन्यासो में विविध पात्रो के द्वारा विविध स्थलो, नदियो, पर्वतो के द्वारा सुन्दर सौन्दर्य का निरुपण किया है । वास्तव में वर्माजी एक आदर्श एवं एवं उच्चकोटि के ऐतिहासिक एवं सामाजिक उपन्यास लेखक है, जिसका हमे गर्व है ।