Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

प्रवास में एक भारतीय मन (प्रवासी देशों के सांस्कृतिक व धार्मिक अध्ययन के विशेष संदर्भ में)

अतीत की अतीतता और और वर्तमान की प्रासंगिकता व्यक्ति को प्रवास करने को मजबूर करती है। फिर वह प्रवास चाहे शिक्षा को लेकर हो, व्यवसाय को लेकर हो या फिर अन्य किसी और कारण से। धीरे धीरे व्यक्ति प्रवासन के दौरान किसी अन्य देश में बस जाता है, तो उसे अपने देश की यादें, उससे जुडी भावनाएँ, सभ्यता और संस्कृति में सामंजस्य बैठाने के लिए कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में उसे सांस्कृतिक संकट या सांस्कृतिक विचलन का सामना करना पड़ता है। इन परिस्थितियों, भावनाओं को मैंने अपने शोध आलेख का विषय बनाया है तथा इसमें यह बताने करने का प्रयास किया है कि किस तरह प्रवास के दौरान एक भारतीय मन अपनी अकुलाहट से आहत और व्यथित होता रहता है वह पूरी तरह विदेशी ही बन पाता है और ना ही अपनी जड़ों से जुड़ पाता है। ये प्रवास प्रेरित परिस्थितियां ही हैं उसे कुछ ऐसे करने को मजबूर करती है,जो वह नहीं चाहते हुए भी करता है तथा 'कल्चरल शाॅक' से गुजरता है ऐसे में उसे याद आता है अपना देश, देश की धरती देश का गीत- संगीत, माँ के हाथ की रोटी, बागों में फूलों की खुशबु और देश में गुजारा वह समय जिसे वह अपना गोल्डन टाइम मानता है, देश की मिट्टी की महक जो महात्मा गांधी के समय से लेकर आज तक विदेशी संस्कृति में भारतीय संस्कृति का परचम फहराए हुए है।

व्यक्ति का प्रवासन कई विभिन्नताएं लेकर आता है। अनजाने माहौल में व्यक्ति व उसका परिवार भौतिक व आर्थिक रुप से तो उससे जुड़ जाते हैं, किंतु वहाँ की संस्कृति व सभ्यता के साथ-साथ, धार्मिक रूप से जुड़ पाना मुश्किल है। हाँ अगली पीढ़ी या उससे अगली पीढ़ी में यह सरलता आ जाती है। परंतु वहाँ भी एक अजीब सा गतिरोध दिखलाई पड़ता है। प्रथम पीढ़ी के लोग जो प्रवास के आधार बने, उनका अधिक से अधिक झुकाव, भारतीय जीवनशैली, खानपान या धार्मिक चेष्टाओं से रहा, वही उसकी अगली पीढ़ी जो विदेश में पली बढ़ी है। उनमें पाश्चात्य संस्कृति की ओर अधिक झुकाव देखा जा सकता है। 'वेयर डू आई बिलांग' का प्रकाश पहली पीढ़ी का प्रतिनिधि है, जो डेनमार्क में बसा । किंतु उनके लड़के का पारिवारिक परिवेश के कारण भारतीय संस्कृति का हिस्सा तो बनते हैं, परंतु झुकाव डैनिश संस्कृति की और अधिक दिखलाई पड़ता है ।

यह समस्या प्रत्येक प्रवासी भारतीय माँ-बाप के सामने आती है । भले ही वो विदेशी नागरिकता प्राप्त किए हुए हैं] परंतु उनका मन आज भी भारतीय कल्चर का हिमायती व आकांक्षी है - हम भले ही विदेश में रहते हैं, कई देशों को लोगों के साथ उठते बैठते हैं पर हमारी सांस्कृतिक परंपरा हमारी पहचान है । मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे-बड़े-बूढ़ों को उनके नाम से पुकारे । मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चे सुसंस्कृत हों – कल्चर्ड।"[1]

इसी सोच के साथ प्रथम पीढी के प्रवासी, जिन्होंने अपनी धार्मिक आस्थाओं व संस्कृति को कभी नहीं छोड़ा, उनकी संतान यह भिन्नता को कुछ ज्यादा ही नजर आती है । प्रकाश के लाख समझाने के बाद भी, बड़ा लड़का "सुरेश" उसके धार्मिक विचारों को ठेस पहुंचाता है । बिना शादी के लिंडा के साथ रहता है । जो शायद भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है, लेकिन इन संक्रमित स्थिति को भी शांडिल्य दम्पत्ति स्वीकारते हैं । यह स्वीकारना ही विदेशी संस्कृति का अप्रत्यक्ष प्रभाव है। "बुशलिट ! क्या है हमारे पारंपरिक मूल्य ? उसने उलाहना दी – हिंदू देवी देवताओं की शाश्वतता में यकीन व्रत, उपवास में श्रद्धा, गंदे ताबीजों मे भरोसा, पारलौकिक जीवन में विश्वास और शादी से पहले यौन संबंधों पर पूर्ण निषेध में, इन्हें रत्तीभर भी तवज्ज़ों नहीं देता ।"[2]

परिवार का यह वैचारिक मतभेद, जहाँ एक ओर भारतीय संस्कारों को बनाए रखना चाहता है, वहीं पूर्णरुप से विदेशी मोह में रचा बसा युवा, जो बात-बात पर मां-बाप का अपमान करता है, डेनिस संस्कृति व पाश्चात्य मूल्यों को अपनाता है । कुछ ऐसा ही घटित होता है, डॉ. देव के साथ भी । डेनमार्क में 30 साल डॉक्टरी के पश्चात वह दुखी है कि उसकी लड़की ने किसी डेनिस से, बिना घरवालों की रजामंदी के शादी कर ली, जो कुछ महीनो बाद ही तलाक में बदल जाती है । अब एक पिता की उम्र के डेनिस व्यक्ति के साथ रह रही है ।" देव दम्पति ने अपनी बेटी को अपनी बेटी को सलाह मशवरे के देने बंद कर दिये थे । वह जैसी जिंदगी जीनी चाहे, उसको मर्जी । लड़कों के लिए लड़कियाँ भारत से लायी गयी थी । सो बेटों की शादी टिकने के ज्यादा आसार थे ।"[3]

यह सांस्कृतिक प्रवाह व मूल्यों के संक्रमण की स्थिति है । जहाँ प्रवासी भारतीयों की नवीन पीढ़ी अपने मन की करती है । वह पाश्चात्य संस्कृति की घोर स्वच्छंदता की ओर इशारा है । जिसका परिणाम कई संक्रमित व मूल्यहीन स्थितियों ले आता है । सुरेश व लिंडा का वैवाहिक जीवन कुछ सालों में ही तलाक की स्थिति ले आता है । यह तलाक प्रकाश दंपत्ति के खानदान का धार्मिक प्रहार था. "तलाक ! यह हमारे खानदान में कभी नहीं हुआ । कहते हुए कमला का हृदय सिहर उठा । वह आक्रोश से बोली इन गोरे लोगों में तो जरा भी सहनशीलता नहीं है । छोटी-छोटी बातों पर तलाक ले लेते हैं । लिंडा को यह सोचना चाहिए था कि उसने एक इंडियन से शादी की है और हमारे यहाँ औरतें कभी भी अपने पतियों को छोड़ती नहीं है, चाहे वे कुछ भी कर ले।"[4]

एक तरह गोरे लोगों की असहनशीलता तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का वह रूप, जो वैवाहिक बंधन को एक सुखद व दीर्घ बंधन में रखती है ।प्रवासी परिवेश की कटु सच्चाई है कि वैवाहिक रिश्ते वहां ज्यादा दिन, नहीं टिक पाते हैं । संबंधों का चरमरा के टूटना अकेलेपन का जीवन जीना, पूरी जिंदगी, काम की आपा- धापी के साथ तनाव, डिप्रेशन, अवसाद की जिंदगी कितनी ही दुष्प्रवृतियाँ हैं जो मानव जीवन में दखल न देना । वैवाहिक सच्चाईयों में से हैं फलत: तलाक जल्द ही हो जाते हैं। ऐसा ही घटित होता है कठगुलाब की स्मिता के साथ भी- 'अमेरिका में जो चीज सबसे आसानी से उपलब्ध है वह है तलाक ।"[5]

यह उस पाश्चात्य संस्कृति का हिस्सा है जहां बात-बात पर तलाक हो जाया करते हैं। भारतीय संस्कृति तो मूल्य व संस्कारों की वाहिनी है, जो जहां भी जाती है। अपने साथ नैतिक मूल्यों की दुहाई, अपनेपन का भाव, संबंधों की गरिमा, दांपत्य उजास, धार्मिक सद्भाव, भाईचारे की भावना, बड़ों का आदर सम्मान, प्यार व प्रेम का पाठ पढ़ाती है, जो शायद पाश्चात्य संस्कृति में नहीं है। मॉरीशस, सूरीनाम, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, डेनमार्क, त्रिनीदाद जैसे देशों का सांस्कृतिक व धार्मिक विधान भिन्न-भिन्न रूपों में भारतीयों के सामने उपस्थित होता है, जिन्हें वो परिवेशगत सच्चाई के साथ, स्वीकार करते हैं। अभिमन्यु अनत का 'लाल पसीना' व 'गाँधी जी बोले थे' उपन्यास कुछ ऐसी ही धार्मिक मान्यताओं व संस्कृति को बयां करता है। सोने के लालच में आकर, ये प्रवासी द्वीपीय देशों में आए। किंतु यहाँ का वातावरण उन्हें अजनबी लगता था। फिर चाहें वह हिंदू हो या मुसलमान या पंजाबी। अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं को जिंदा रखते हैं। रामचरितमानस, रामायण या व्रतकथाओं के संग्रह, या हनुमान चालीसा मजदूर अपने अभाव व त्रासद जीवन में, इन्हें ही अपना सम्बल व सहारा मानते थे।- अरी पगली, रामायण तो एसन ही बख्त की खातिर है। यह संकट मोचन है। इस नरक में यही पोथी वो हम सबन को जीए की चाह देगी।"[6]

मॉरिशस में बसे इन भारतीय लोगों का आरंभिक जीवन बढ़ा करूण रहा। किंतु भगवान की आस्था व संस्कारों (जीतोड़ मेहनत करना, सहनशीलता व ईमानदारी) के साथ, वे प्रवासी मजदूर कैरेबियन माहौल में अपने धार्मिक व सांस्कृतिक माहौल को स्थापित करते हैं।

"सोमा और संतु का हिंदू पद्धति से विवाह करवाया जाना ऐसा ही संकेत करता है। इतना ही नहीं अब मॉरिशस में, भारतीय कथा मान्यताओं को धार्मिक अनुष्ठान में शामिल कर लिया गया है। सूरज के ऊपर आते ही सभी लोग जहां भी जगह मिली बैठ गए और पुजारी जी के साथ स्वर मिलाकर कई लोग रामायण गाने लगे। लोगों को पूरी पटकथा मालूम थी।"[7] कहने का अभिप्राय है कि मॉरिशस में ये प्रवासी मजदूर अपने धर्म व आध्यात्मिक कर्म को नहीं भूलते।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि अंग्रेजों ने इन मजदूरों के धार्मिक मतों, पूजा-पाठों पर रोक लगा दी थी। ये लोग गोपनीय तरीकों से अपनी धार्मिक चेष्ठाओं को निभाते रहें। फिर एकजुट होकर उन्होंने इस प्रकार का धार्मिक माहौल बनाया। डा. निवेदिता सिंह लिखती है- अपने मूल देश से प्रवासित श्रमिकों को समुदाय गंतव्य देशों के नए सांस्कृतिक परिवेश में अपने को एक अत्यंत विषम परिस्थिति में पाया था। दूर देशों के बहुसंख्या मूल निवासियों और उनकी संस्कृति से निरंतर संघर्ष ही इनकी नियति बन चुकी थी वहां की सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक, भाषिक विविधताएं इस श्रमिक समुदाय के लिए विषम परिस्थिति बनाती थी। गंतव्य की अत्यंत विषम परिस्थितियों और प्रवासन के फलस्वरुप परिजनों के बिछोह का दर्द भावनात्मक पीड़ा के लिए लोकगीत, संगीत, पौराणिक गाथाएं (रामायण की चौपाइयां, नल दमयंती की कहानियाँ) इत्यादि इन प्रवासी श्रमिकों का सशक्त माध्यम बनी।"[8]

प्रवासन के दौरान ये विस्थापित समूह अपने आवश्यकता के दैनिक सामान के साथ ही लोकगीत, विरहगीत, विदेशिया गीत, लोककथाओं और अन्य सांस्कृतिक धरोहर को अपने हृदय में संजोए गए थे। ये सांस्कृतिक धरोहर ही इन श्रमिकों को परदेश की विषम परिस्थितियों से सामना करने की शक्ति प्रदान करती थी। धर्म, संगीत, त्योहार, पर्व, उत्सव इत्यादि अवसर प्रवासी भारतीयों को सुदूर देशों में जोड़े रखता है। 'वेयर डू आई बिलांग' का धार्मिक संदर्भ हो या फिर 'लाल पसीना' का त्यौहारी विधान या गाधी जी बोले थे का संस्कृति वैभव पूर्ण वातावरण प्रवासी देशों की इन मान्यताओं को रेखांकित करते हैं।भारतीय त्यौहार हो या राष्ट्रीय पर्व या अन्य सांस्कृतिक अनुष्ठान या कार्यक्रम सब में भारतीय कला व संस्कृति की छटा दिखलाई पड़ती है – वेयर डू आई बिलांग की 'इंडो डेनिश सोसायटी' कुछ ऐसे ही धार्मिक पर्वो को धूमधाम से मनाने की कोशिश करती है। स्थानीय भारतीय राजदूत हो या अन्य विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधि ऑफिसर, इन धार्मिक उत्साह के साथ आयोजनों में सम्मिलित होते हैं- "नेहरू कट सूट पहने हुए भारतीय राजदूत मंच पर पधारे। सभी भाषण देने की कला में पारंगत बैठे हैं "सर्वप्रथम आप सभी को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं। मुझे हार्दिक खुशी हो रही है कि इतनी अधिक संख्या में यहां लोग दीवाली का जश्न मनाने एकत्रित हुए हैं। इसका श्रेय वस्तुतः आप सभी को जाता है कि विदेशी भूमि पर समुचित साधनों व माहौल को न होने के बावजूद भारतीय तीज त्योहारों को मनाने की परंपरा बनाई हुई है मेरी यही कामना है कि यह संस्था और अधिक फले व फूले। अधिक से अधिक लोग इसके सदस्य बने।"[9]

स्मिता भट्ट एक भारतीय महिला है जो प्रवासियों के जीवन पर शोध करने डेनमार्क आती है। यहां उसे आंशिक सांस्कृतिक संक्रमण के साथ भारतीयता की पूरी झलक दिखलाई पड़ती है। भारतीय समुदाय भारतीय रेस्टोरेंट, भारतीय स्टोर्स, भारतीय आध्यात्मिक व धार्मिक स्थल जो कि डेनमार्क जैसे छोटे से देश में संख्या में बहुत अधिक तो नहीं मगर भारतीयों को अपना घर महसूस करवाने के लिए काफी थे।"[10]

'वेयर डू आई बिलांग' का एक प्रसंग देखिए जिसमें एक प्रवासी भारतीय माँ अपने बेटे की सुख-शांति के लिए भगवान के मंदिर में ढोक लगाने प्रार्थना करने जाती है। डेनमार्क में रहकर भी वह पूरी तरह से धार्मिक है'- अभी मंदिर चलो। मंदिर जाकर तुम्हें शांति मिलेगी। इतने सारे देवी-देवताएं हैं हमारे, किसी का तो ध्यान कर, चल, आज हमारे साथ मंदिर चल। भगवान पर सब छोड़ दे।"[11]

यह धार्मिक मान्यता, अंधविश्वास नहीं बल्कि आत्मिक शक्ति प्रदान करती है। धर्म व्यक्ति को सुधारता है, पूजा आपको शक्ति देती है, मन की शांति देती है। एक दैनिक संतुलन का जीवन देती है। आप कितने ही घात-प्रतिघातों से गुजर रहे हो। मानसिक अशांति, घोर तनाव ले आए। परंतु यह मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि धर्म और पूजा आप में सहनशक्ति, धैर्य, शांति व मन का संचार करते हैं बस ! इसे आड्म्बर मत बनने दीजिए। क्या कारण है कि विश्व के विभिन्न देशों के लोग भारत अपनी धार्मिक व आध्यात्मिक यात्राओं पर आते हैं। यहां के धैर्य वैभव, कला व संस्कृति से बहुत कुछ सीखते हैं। यहाँ के रीतिरिवाज अपनाते हैं। पूजापाठ में विश्वास रखते हैं। जवाब कुछ ऐसे ही सकारात्मक पहलुओं में छिपा है। खैर! यह तो भारतीय संस्कृति का वह रूप है जिससे भारत विश्व का सांस्कृतिक व धार्मिक गुरु माना जाता है। प्रवासी देशों का धार्मिक व संस्कृति संगम न केवल इस भारतीय मानसिकता को बलवती बनाता है अपितु स्थानीय कल्चर को भी अपने में समाहित कर लेता है। यहां के लोग किसी भी संस्कृति में रहे। वहां की संस्कृति का आत्मसातीकरण कर अपनी निरपेक्षता का परिचय देते हैं। हो सकता है उनकी द्वितीय या तृतीय पीढ़ी इस प्रतिनिधित्व में कम शामिल होती हो परंतु उनके घरेलू संस्कार भारतीय होते हैं। डॉ. नीरजा अरूण के 'भारतीय और डायस्पोरा और प्रवासन पहचान लेख का एक अंश देखिए जिसमें भी उन्होंने इस प्रवासी पीढ़ी की बात व्यक्त की है- प्रथम पीढ़ी के भारतीयों की तुलना में ये द्वितीय पीढ़ी के भारतीय अपनी संस्कृति से कम जुडाव महसूस करते नजर आते हैं। जहां प्रथम पीढ़ी के भारतीय भारत आते-जाते रहते हैं, भावनात्मक रुप से जुड़े रहते हैं या भारतीय रिवाजों को मानते हैं और निभाते हैं वहीं दूसरी पीढ़ी के भारतीय सब बातों को भावना से कम और व्यवहारिक से अधिक लेते हैं।"[12]

भारतीय प्रतिभा, अतिविश्वास, ईमानदार व साफ छवि के कारण आज पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। राजनीति, व्यवसाय, उद्योग धंधों में इनकी विशेष पहचान बनती जा रही है। कनाडा की राजनीति व स्थानीय सरकार में दर्जनों भारतीयों की सहभागिता है, तो उधर अमेरिका की सरकार में भी इंडियंस की विशेष भूमिका बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का संभाषण हो या अमेरिकन राष्ट्रपति का संबोधन, नमस्कार के साथ शुरू होना, गणेश व हनुमान जी की पूजा करवाना या इनके धार्मिक महत्व को स्वीकारना इसी बात का द्योतक है।

आज कितने सामाजिक व धार्मिक या राजनीति संगठन विदेशी में हिंदुत्व का या कहे भारतीय कला संस्कृति व धर्म की पताका फहरा रहे हैं अमेरिका की कुछ प्रवासी भारतीय संस्थाएं देखिए -
बंगाली कल्चरल एसोसिएशन, बंगाली प्रवासी, बिहारी समाज, गुजराती कल्चरल, एसोसिएशन(जी.सी.ए.) कन्नड कूट आँफ नार्दन कैलिफोर्निया, महाराष्ट मण्डल, पंजाबी कल्चरल एसोसिएशन, मुस्लिम कम्युनिटी एसोसिएशन, सिन्धी एसोसिएशन आफ अमेरिकन बे एरिया, तमिल मनरन, राजस्थानी प्रवासियों का राजस्थान एसोसिएशन नार्दन अमेरिका (राणा) आदि संगठन भारतीय धार्मिक अनुभवों व भारतीय कला संस्कृति को बनाए हुए है। प्रवासी भारतीय सम्मेलन, ऐसी ही सकारात्मक साहित्यिक आर्थिक व सामाजिक चर्चाओं को आधार प्रदान करती है। आज भारत सरकार का विदेश मंत्रालय, धर्म व संस्कृति की प्रवासी प्रोन्नती के लिये सम्बन्धित अधिकारी अपने दूतावासों में नियुक्त कर रहा है। जो भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं के संरक्षण का काम देखते हैं।

सूरीनाम का 'आर्य समाज व सनातन धर्म या अन्य सामाजिक संस्थाएं आज भी वहां भारतीय संस्कृति को उन्नत बना रहा है। वर्तमान में वहां घरों में राम हनुमान और दुर्गा आदि हिंदू देवी-देवताओं की पूजा होती है और झंडिया लगाई जाती हैं। नीदरलैंड में भी सनातन धर्मियों का बाहुल्य है। वहाँ अनेक आर्य समाजी मंदिरों का निर्माण हुआ है। आर्य समाजी संस्कारों द्वारा इन समुदायों ने हिंदू रीति-नीति का संवर्धन किया, कबीर पंथी, रविदास पंथी, ब्रह्मकुमारी धार्मिक संस्थान, रविशंकर की लिविंग आफ आर्ट, ओशो की धार्मिक मान्यताएँ, बाबा रामदेव के योग संस्थान कुछ ऐसी ही मान्यताओं का प्रसारण कर रहे हैं जो भारतीय प्रवासियों के साथ-साथ विदेशी नागरिकों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति की शिक्षा देते नजर आ रहे हैं। बाबा रामदेव ने तो योग को पूरे विश्व फैला दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में धार्मिक संसद के सम्भाषण के तहत विशेष आमंत्रित किया गया।

आज प्रवासी भारतीय अपने आर्थिक वैभव के कारण पूरे विश्व में जाने जाते हैं। समय-समय भारत सरकार के साथ मिलकर वे भारतीय कला संस्कृति धर्म व साहित्य के लिए वे भारतीय कला संस्कृति धर्म व साहित्य के लिए न केवल आर्थिक सहायता या संरक्षण प्रदान करते हैं अपितु यहां के प्रत्येक संस्कारों का भी पोषण करते हैं। 'वेयर डू आई बिलांग' का सम्पूर्ण कथानक, प्रवास केंद्रित ऐसे ही भावों को व्यक्त करता है।

प्रकाश शांडिल्य हो या डॉ. अनु या अन्य प्रवासी उद्योगपति, जीवन मूल्यों, परंपराओं रीति रिवाजों, संगीत, लोकगीत, लोककथाओं को संरक्षण देने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। प्रकाश ने तो अपने बड़े बेटे सुरेश का दाहसंस्कार प्रशासनिक विरोध के बावजूद हिंदू क्रिया से करवाया। "शवयात्रा दाह ग्रह की तरफ बढी रामनाम सत्य है के नारे भी हल्की आवाज में लगे। आज लोग उनके घर किसी दावत का लुफ्त उठाने नहीं आये थे। मौत पर संवेदना प्रकट करने आए थे। जिंदगी केवल दावत और विहार ही तो नहीं। इसमें दर्द-तकलीफों का भी संबंध है।"[13]

कहने का अभिप्राय यह है कि प्रवासी देशों में आज भी भारतीय धार्मिक व सांस्कृतिक विचार अपने सकारात्मक व सार्थक रुप में सामने आ रहे हैं। रीति-रिवाज, वार त्यौहार, पर्व या कोई अन्य धार्मिक या सांस्कृतिक योजनाएँ अपने गरिमामयी आभा को बढ़ा रहे हैं। धर्म के साथ संस्कृति रीति नीति व धर्म का समंवय दिखलाई पड़ता है। किंतु अध्ययन के दौरान कुछ विशेष सांस्कृतिक कृतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया जो भारतीय भाषा, वेशभूषा खानपान, स्मृतियां, गीत संगीत में नज़र आई मॉरिशस का बहुभाषी या बहु संख्यक संस्कृति का मिश्रण हो या कनाडा अमेरिकन का पोप या मिशनरियों का धार्मिक विधान भारतीयों ने उन्हें आत्मसात जरूर किया, परंतु आंशिक रूप में। पहचान, खानपान, बोली भाषा, स्थानीयता का आग्रह, स्वीकारती है, परंतु स्थापन व प्रसारण तो भारतीयता में ही नजर आता है। इंडो केरेबियन, फिजी हिंदी, सरनामी हिंदी, मॉरिशस की भोजपुरी हिंदी व उनका शब्दाचार, भारतीय भाषाओं को पोषण दे रहे हैं। भोजपुरी क्षेत्र के सोहर और बिरहा जैसे पारंपरिक जीत हो या बैठक गाना या कटनी संगीत या रामचरितमानस का संगीत मय वाचन या भजन कीर्तन का आनंद, आज भी विदेशी धरती को संस्कारित कर रहा है।

सूरीनाम का बैठक गाना वहां की कैरोबियन व इण्डों संस्कृति का मिश्रित भाव दिखलाता है 'यू' आकार में बैठकर दी जाने वाली इस सांस्कृतिक प्रस्तुति में लोग बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं 'गयाना' भी कबीर व दादू के निर्गुण कविता के भाव का आधार बनाकर प्रवासी लाल बिहारी ने भोजपुरी व अवधी भाषा मिश्रित (डमरा फाग बहार) गीत रचा जो वहां की सांस्कृतिक सांसो में रचता बसता है। 'अभिमन्यु अनत' के उपन्यास, इस रुप में विशेषत: उल्लेखित है आल्हा, पचरा पर्सिया, बिरहा, कजरी, कीर्तन, सोहर इत्यादि प्रस्तुतियां धर्म व संस्कृति का महत्व राग प्रस्तुत करती है।

लाल पसीना के प्रवासी मजदूर रात को इन लोगों की संगत के साथ अपनी पीड़ा व थकान दूर करते हैं - "अच्छा रामायण बाद में सुनाना, अभी थोड़ा सा आल्हा सुना दो लोग दिनभर की कड़ी मेहनत की थकान को सचमुच भूल जाते किशन ने अपने हाथ से ढपली को इस तरह थपथपाया कि बैठे-बैठे लोग झूमने लगे।"[14]

प्रवासी भारतीय जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन करते हैं अपने अपने राज्यों की लोककलाओं व लोकसंगीत को कार्यक्रम के लिए चुनते हैं। कथक, कालबेलिया नृत्य, कुचीपड़ी, घूमर, गरबा, कठपुतली नाच आदि ऐसे ही सांस्कृतिक विधान है जिनका आर्थिक परिलाभ भारत के स्थानीय कलाकारों को भी मिलता है।

'वेयर डू आई बिलांग' का एक सांस्कृतिक प्रोग्राम देखिए जिसमें ब्रिटिश महिला ओडीसी नृत्य करती है - "एक ब्रिटिश महिला लूसी बैनेन ने ओडीसी नृत्य पेश किया उसके कलात्मक नृत्य के उपरांत एशियन म्यूजिक संस्था के अध्यक्ष मनवीर सिंह अपन तबला, हारमोनियम व गिटार की संगत के साथ मंच पर आए।"[15]

विदेशों में भारतीय संगीत को पसंद किया जा रहा है भारतीय धारावाहिक हो या बॉलीवुड फिल्में वहां भारतीयों के अतिरिक्त भी बहुत से समुदाय ऐसे हैं जो इन में रुचि लेते हैं नेपाल, जापान, पाकिस्तान, चीन, मालदीव, मॉरिशस, सूरीनाम, दक्षिणी अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख म्यूजिक स्टोर्स पर यहां के गीत-संगीत की 'सीडी' मिल जाएगी।

टेलीविजन और फिल्म्स के माध्यम से आज भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विस्तार हो रहा है। ऐसे कई चैनल है जिनका प्रसारण नियमित रुप से भारतीय प्रवासियों के देशों में हो रहा है। प्रभात खत्री जिक्र करते हैं - "हिंदी फिल्मों और बॉलीवुड के गानों का भी एक बड़ा बाजार विदेशों में खास तौर पर ब्रिटेन, अमेरिका और खाड़ी देशों में है हिंदी सिनेमा के संदर्भ में यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि वह ऐसा माध्यम है जिसका योगदान भारतीय मूल के लोगों को भारत से जोड़ें रखने में अतुलनीय है, हिंदी फिल्मों में अधिकतर भारतीय परिवार और उसके जीवन मूल्यों को दर्शाया जाता है। यह एक ऐसा माध्यम है जो भारतीय संस्कृति को पुनरूत्पादित कर पुन: प्रस्तुत करता है।"[16]

अभी कुछ वर्षों से संचार का एक नया अध्याय शुरु हुआ है। जिसमें हिंदू धर्म के पौराणिक व ऐतिहासिक पात्रों (शिव, राम, कृष्ण, बजरंगबली, शिवाजी, महाराणा प्रताप) की कॉमिक्स सीरीज आई जिसे ब्रिटेन सहित कई देशों में रुचि के साथ पढ़ा गया। शिवा सीरीज तो सबसे ज्यादा पसंद भी की गई। भारतीय मूल के कई लेखकों ने भारतीय देवताओं को आधार बनाकर, साहित्य लिखा जिसे खूब पढा गया।

अतः यह कहा जा सकता है कि प्रवासी माहौल में जो भारतीयता आज भी अनवरत रुप से बनी हुई है। यहाँ के रीति-रिवाज, वार-त्यौहार, राष्ट्रीय पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ विधान वेशभूषा, खानपान, लोकसंगीत साहित्य उपलब्धियों एक ओर देशों में भारतीय संस्कारों को बढ़ाते हैं वहीं दूसरी ओर विकास व संवर्धन, संरक्षण आदि की विशेष भूमिका में प्रवासियों की आत्मिक दिलचस्पी, मन को तसल्ली प्रदान करती है भारत की लोक परंपराएं, यहां के गीत संगीत, नृत्य, फिल्मों आदि ने भारतीय संस्कृति को एक वैश्विक पहचान दी है।

संदर्भ

  1. जोशी, रा. संस्करण 2014. भारतीय डायस्पोरा : प्रवासन एवं पहचान. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ 65.
  2. पैन्यूली, अ. संस्करण 2010. वेयर डू आई बिलांग. नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृष्ठ 82.
  3. वही. पृ. 26.
  4. वही. पृ. 79.
  5. गर्ग, मृ. संस्करण 2012. कठगुलाब. नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृष्ठ 92.
  6. अनत, अभि. संस्करण 2010. लाल पसीना. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृ. 230.
  7. वही. पृ. 223.
  8. जोशी, रा.संस्करण 2014. भारतीय डायस्पोरा : प्रवासन एवं पहचान. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ 126.
  9. पैन्यूली, अ. संस्करण 2010. वेयर डू आई बिलांग. नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृष्ठ 107.
  10. वही. पृ. 96.
  11. वही.पृ. 44.
  12. जोशी, रा. संस्करण 2014. भारतीय डायस्पोरा : प्रवासन एवं पहचान. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ 77.
  13. पैन्यूली, अ. संस्करण 2010. वेयर डू आई बिलांग. नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृष्ठ 135.
  14. अनत, अभि. संस्करण 2010. लाल पसीना. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृ. 53.
  15. पैन्यूली, अ. संस्करण 2010. वेयर डू आई बिलांग. नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृष्ठ 108.
  16. जोशी, रा. संस्करण 2014. भारतीय डायस्पोरा :प्रवासन एवं पहचान. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ 156।

डॉ प्रणु शुक्ला, सहायक आचार्य (हिंदी), राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चौमूँ , जयपुर। सचल भाष-7597784917