कल्पना तरंगिणी में छायावाद
साहित्य की संकल्पना जैसे मानों यथार्थ से आदर्श की सेतु हो। लघुता की और साहित्यिक दृष्टिपात यथार्थवाद की विशेषताओं में प्रधान है तो महानता की आंदोलन आदर्शवाद में प्रमुख । यथार्थ की कसौटी में लघुता,वेदना,दुर्बलताएँ आदि संवेदनाएँ जब पीड़ित होने लगती हैं तब उन अपराधों का मनोवैज्ञानिक विवेचन कर उसे समाज का कृत्रिम पाप प्रमाणित कर दिया जाता है। "यथार्थवाद और छायावाद" निबन्ध में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं- "...साहित्यकार न तो इतिहासकर्ता है और न धर्मशास्त्र-प्रणेता। इन दोनों के कर्तव्य स्वतंत्र हैं। साहित्य इन दोनों की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य समय की वास्तविक स्थिति क्या है,इनको दिखाते हुए भी उसमें आदर्शवाद का सामंजस्य स्थिर करता है। दुःख-दग्ध जगत और आनंदपूर्ण स्वर्ग का एकीकरण साहित्य है, इसलिए असत्य अघटित घटना पर, कल्पना को वाणी महत्वपूर्ण स्थान देती है,जो निजी सौंदर्य के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है। उसमें विश्व-मंगल की भावना ओतप्रोत रहती है।" काव्य के चार मूलतत्व(राग-कल्पना-बुद्धि-शैली) में कल्पना तत्व से कवि विविध रूपों का विधान व जीवन और जगत की व्याख्या भी सरल-सम्भव कर पाता है।
छायावाद की पृष्ठभूमि व स्वरुप
'छायावाद का विश्लेषण और मूल्याङ्कन' में डॉ. केशरी नारायण शुक्ल लिखते हैं- "द्विवेदी युग की कविता इतनी गहरी न हो सकी कि हृदय को छू लेती।...इस प्रकार बौद्धिकता, आलोचनात्मक प्रवृति, विश्लेषण, वाह्यार्थ निरूपण, भावात्मकता और गहरी संवेदनशीलता का आभाव-द्विवेदी युग के इन सब प्रवृत्तियों का अतिशय-छायावाद का आरंभ और प्रवर्तन का कारण बना।" आधुनिक काल ने तृतीय चरण 1916 से 1936 यानि उच्छ्वास से युगान्त तक की रचनात्मक कालावधि को छायावाद कहा जाने लगा। छायावाद को कलात्मक सार्थकता की चोटियों तक पहुंचाने में प्रसाद-निराला-पन्त-महादेवी जी का अथक परिश्रम है। द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता तथा उसकी अभिव्यन्जना पद्धति का विरोध, स्वाधीनता की आकांक्षा, राष्ट्रप्रेम, गांधीवाद, पाश्चात्य व बंगला साहित्य का प्रभाव आदि छायावाद के उद्भव के कारण बने। दूसरी तरफ स्वाधीन चेतना, सूक्ष्म कल्पना, लाक्षणिकता, नए प्रकार के सादृश्य विधान, नया सौदर्यबोध, रहस्यात्मकता आदि छायावाद की सामान्य विशेषताएं बनीं।
कल्पना : स्वरुप मीमांसा
प्राचीन काल से ही साहित्य-मीमांसकों का ध्यान साहित्य सर्जन प्रक्रिया में कल्पना शक्ति के महत्ता के ऊपर कम ही रहा है। कभी विद्वानों का एक वर्ग कवि की सर्जन शक्ति को अनुकरण का अनुकरण मान मिथ्यात्व के दोषों से लाद दिये, तो दूसरे वर्ग ने दिव्य शक्ति का प्रतिनिधि सिद्ध कर दिया। वास्तविकता से कोसों दूर दोनों वर्गों की मान्यताएं अतिवादी थीं। 'साहित्य में कल्पना और बिम्ब' निबंध में गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं -"वस्तुतः उसका मूलाधार कवि की उस मानसिक शक्ति में निहित है, जो कि अप्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष को, अतीत को वर्तमान में, स्थूल को सूक्ष्म में और असुन्दर को सुन्दर में परिणत कर देने की क्षमता से युक्त है। इसी शक्ति को मनोविज्ञान में 'कल्पना' के नाम से पुकारा जाता है। यह कल्पना न तो शिक्षा-दीक्षा एवं पूर्वाभ्यास पर आधारित है और न इसके पीछे किसी दैवी शक्ति का हाथ है-वस्तुतः यह मानव की एक प्राकृतिक मानसिक शक्ति है,जो कि न्यूनाधिक मात्रा में सभी में होती है; किन्तु कवि में ये अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होती है, इसी से वह काव्य-रचना में सफल होता है।" कल्पना एक मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी पूर्व अनुभूतियों की स्मृति बिम्बों व अचेतन मन का अवगाहन करता हुआ सूक्ष्म एवं नूतन वस्तुओं या विचारों का अविष्कार, निर्माण या पुनःनिर्माण करता है। स्मार्त ने अपने कल्पना संबंधी ग्रन्थ में कल्पना के चार प्रमुख लक्षण बताए हैं- १. उसका सम्बन्ध चेतना से होता है। २. उसमें अर्द्ध-निरीक्षण की प्रवृत्ति होती है। ३. उसका आकलन शून्य या सत्ताहीन होता है। ४. वह स्वछन्द होती है। मनुष्य अपनी कल्पना की तूलिका से यथार्थ की परिस्थितिगत दुर्बलताओं में आदर्श भविष्य का इंद्रधनुषी रंग भरता है, और यही विशेषता उसे नीरा पशु से मनुष्य में परिणत करती है।
छायावाद में कल्पना-शक्ति का सौदर्य
हिंदी साहित्येतिहास लेखनारम्भ से ही किसी भी कालखंड के साहित्य की नामकरण प्रक्रिया हमेशा से विवादग्रस्त रही है। इसी प्रकार छायावाद का नामकरण भी विवादों से अछूता नहीं रहा । कदाचित छायावाद नाम उपेक्षा एवं उपहास की दृष्टि से ही दिया गया था, क्योंकि किसी भी देश के साहित्य में 'छायावाद' नाम का कोई साहित्य नहीं मिलता। 1920ई. तक छायावाद संज्ञा का प्रचलन हिंदी साहित्य में हो चुका था। लिखित रूप में इस शब्द के प्रथम प्रयोक्ता मुकुटधर पांडेय जी को माना जाता है।
आचार्य शुक्ल छायावाद का उद्भव 'पाश्चात्य प्रतीकवाद' से मानते हैं तो हजारी प्रसाद द्विवेदी जी 'अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव' को , रामविलास शर्मा 'पूंजीवाद का सामंतवादी परंपराओं का विरोध' मानते हैं तो नामवर सिंह का मानना है छायावाद 'राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति' है। लेकिन इन संदर्भों में छायावाद की एक मात्र कवयित्री महादेवी वर्मा की परिभाषा ध्यातव्य है कि-" छायावाद का जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं रहा, यह निर्विवाद है ।...छायावाद के कवि को एक नए सौंदर्य-लोक में ही यह भावात्मक दृष्टिकोण मिला; जीवन में नहीं।...प्रकृति पर चेतन व्यक्तित्व का आरोप, कल्पनाओं की समृद्धि, स्वानुभूति सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इस काव्य की ऐसी विशेषताएँ हैं जो परस्पर सापेक्ष रहेंगी।" इन सभी परिभाषाओं के अनुशीलन से इतना तो स्पष्ट है कि विभिन्न प्रवृत्तियों में कल्पना की समृद्धि सबसे अधिक प्रवल रही है। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी की सौदर्यबोध छायावादी कवियों की सबसे अधिक मौलिक तथा प्रमुख देन रही है।अखिल विश्व के चराचर के सौदर्य चित्रण में कल्पना की ऊँची-ऊँची उड़ाने भरते हुए ही यह प्रकृति सौंदर्य से मानव सौंदर्य तक पहुंचे थे। कल्पना के माध्यम से छायावादी कवियों ने उनकी मानसिक स्वतंत्रता से अपने विचारों और भावों का अबाध प्रसार किया है। नामवर सिंह कहते हैं-" कल्पना छायावादी कवि के मन की पाँख थी, वह उसकी स्वतंत्रता, मुक्ति, विद्रोह, आनंद आदि की आकांक्षाओं की प्रतीक थी। अंतरदृष्टियामिनी कल्पना और जीवन शक्तिदायिनी कल्पना- इन दोनों की सुन्दर अभिव्यंजना छायावादी काव्य में हुई है।"
स्वयं छायावाद के कवि कल्पना का मुक्त कंठ से गुणगान करते हुए नजर आते हैं। निराला ने कविता को 'कल्पना के कानन की रानी' कहा है, तो प्रसाद ने 'हे कल्पना सुखदान' लिख कर कल्पना की प्रशंसा की है, एवं पन्त ने "पल्लव" को 'कल्पना के ये विह्वल बाल' नाम दे कर उसकी महत्ता को सर्वभोम्य किये है। राष्ट्रकवि दिनकर काव्य निर्माण में कल्पना की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-
"व्योम कुंजों की परी अयि कल्पने
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा रही,
उड़ न सकते हम तुम्हारे स्वप्न तक
शक्ति है तो आ बसा अलका यहीं।"
कल्पना तत्व के बिना काव्य का निर्माण असंभव कहना शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कल्पना की महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है-"जिस प्रकार भक्ति के लिए उपासना या ध्यान की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भावों के प्रवर्तन के लिए भावना या कल्पना अपेक्षित होती है।" छायावादी कवियों की कल्पना समग्र रूप से स्वछन्द है। कोमल कल्पना के चितेरे कवि पन्त नारी की कल्पना गंगास्नान जैसी पवित्र मानते हुए लिखते हैं :
"तुम्हारे छूने में था प्राण संग में पावन गंगा स्नान।
तुम्हारी वाणी में कल्याणि त्रिवेणी की लहरों का गान।।"
'आंसू' जयशंकर प्रसाद जी का एक विशिष्ट प्रेम काव्य है। इसका मुख्य विषय विरह वर्णन है और उसी के आधार पर पुस्तक का यह नाम सार्थक होता है। आँसू के काव्य वैभव के अनुमान के लिए कल्पना का यह सौंदर्य चित्रण देखिए–
“चंचला स्नान कर आवे
चन्द्रिका पर्व में जैसी
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी।"
कॉलरिज के अनुसार कल्पना वह शक्ति है जो बहिर्जगत(पदार्थ) और अंतर्जगत(चेतना) का सफल संयोजन करती है। उनका मानना यह भी है कि कल्पना के सहारे कवि मानव और उसके बाह्य-जगत को अधिक सफल रूप में प्रत्यक्षीकरण कर पाता है। इस प्रकार कल्पना एक समन्वयकारी शक्ति है जो वस्तुओं के विभिन्न पक्षों को एक संश्लिष्ट अन्विति के रूप में ढालती है।
जोसेफ एडीसन के शब्दों में-" कल्पना के आनंद से मेरा अभिप्राय है जो दृश्यमान वस्तुओं से उत्पन्न होता है या तो हम उनका स्वयं साक्षात्कार करते हैं या किसी चित्र या मूर्ति को देख कर या कोई वर्णन आदि सुनकर देखे या सुने हुए भावों को मन में लेते हैं।" इस व्याख्या के विश्लेषण से कहना उचित होगा कि कल्पना का आनंद ही काव्यानंद है। हिंदी में आचार्य शुक्ल जी के अनुसार भी कल्पना मात्र कवि के लिए ही आवश्यक नहीं है अपितु "काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य है"। इस आधार पर उन्होंने कल्पना को विधायिका और ग्राहिका के रूप में विभाजित किया है।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने अपने 'छायावाद में अनुभूति और कल्पना' निबंध में कल्पना के महत्व का आकलन करते हुए लिखते हैं- "कलादर्शन में कल्पना शब्द उस संपूर्ण प्रक्रिया का द्योतक है, जो काव्य सृष्टि में आदि से अंत तक व्याप्त रहती है। कल्पना का मूल स्रोत अनुभूति है और उसकी परिणति है काव्य की रूपात्मक अभिव्यंजना। इस प्रक्रिया में गतिमान तत्व अनुभूति है और इस प्रकार कल्पना अनुभूति से अभिव्यंजना तक विस्तृत है।" निराला का प्रकृति वर्णन ऋतुओं, वस्तुओं का प्रतीक-विधान एवं अलंकरण तक सीमित है। पर इस सीमित परिधि में भी उनकी कल्पना-विधान बड़ी अनूठी और रम्य है। 'तुम और मैं' से कुछ पंक्तियां देखिए-
“तुम तुंग हिमालय श्रृंग
और मैं चंचल-गति-सुर-सरिता,
तुम विमल ह्रदय उच्छवास,
और मैं कान्त-कामिनी-कविता।"
अपने काव्यों में कल्पना को प्रतीक विधानों में बांध रहस्यात्मकता, सांकेतिकता और माधुर्य भावों की अभिव्यक्ति करने में महादेवी वर्मा जी से कोई बराबरी नहीं कर सका है। इनके कल्पनात्मक प्रतीकों जैसे सागर संसार के लिए,तरी जीवन के लिए, प्रकाश ज्ञान के लिए आदि परिचित होने के कारण शीघ्र समझ में भी आ जाते हैं। "फिर विह्वल है प्राण मेरे" कविता से एक उदहारण देखिए-
"सिंधु की निःसिमता पर लघु लहर का लास कैसा!
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा!
दे रही मेरी चिरंतरता क्षणों के साथ फेरे!"
अत: ग्रियर्सन ने 'भक्तिकाल' को हिंदी साहित्य इतिहास का स्वर्णकाल कहा था । हिंदी साहित्य इतिहास के आधुनिक पर्याय में भले ही छायावाद सबसे अधिक विवादों के कठघरे में रहा हो, परंतु यह भी सत्य है हिंदी कविता में इसके साथ ही एक नए युग का आरंभ होता है। कुछ आचार्यों ने तो छायावाद को आधुनिक काल का स्वर्णयुग भी कहा है। कविता में खड़ी बोली को पूर्ण प्रतिष्ठा भी छायावाद में ही मिली। नवजागरण का परिनिष्ठित स्वरुप भी साहित्य में इन्हीं के काव्यों में परिष्कृत हुआ। आत्मानुभूति, नूतन बिम्ब विधान, नवीन छंद व अलंकारों का प्रयोग, प्रतिकात्मकता, रहस्यात्मकता, काव्यभाषा आदि सभी छायावादी प्रवित्तियों में कल्पना का प्रयोगात्मक समायोजन ही छायावाद की ऐतिहासिकता है। द्विवेदी युग के प्रतिक्रिया स्वरुप भले ही छायावाद का प्रवर्तन जरूर हुआ हो परन्तु सच्चाई यह भी है कि द्विवेदी युग का ऐतिहासिक विकास है छायावाद।
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