Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

भय
(मीनल दवे की मूल गुजराती कहानी 'ओथार' का हिन्दी अनुवाद)

हाथ कंप्यूटर पर काम कर रहे थे। नज़र घड़ी की ओर घूम रही थी। आज पहली मेमु पकड़ नहीं पाऊंगी। मीसीस राव भी कमाल है! उन्हें छूटने के समय पर ही काम याद आया। उनकी यह बात सही है कि दस-बारह दिनों के बाद ऑफिस खुली है, इसलिए बहुत सारा काम इकट्ठा हो गया है। लेकिन मेरी बहन, तुम तो अभी अपने पति के स्कूटर के पीछे बैठकर घर पहुँच जाओगी और गरम-गरम इडली सांभर खाओगी। लेकिन अगर मेरी यह ट्रेन छूट गई तो फिर एक घंटे तक स्टेशन पर ही तप करना पड़ेगा, और दूसरी ट्रेन के खाली डिब्बें में फड़कते फड़कते दो घंटे के बाद घर पहुँच पाऊंगी। यह पीड़ा तुम कैसे समझोगी? शुक्र है, काम खत्म हुआ, बाहर निकलते ही रीक्षा भी मिल गई।

अरे भाई, जरा जल्दी चलाइए। कितने दिनों के बाद आज शहर में कर्फ्यू से छूट मिली है। लोग तो मानों जैसे पिंजरे में से छूटे हो उस प्रकार दौड धाम कर रहे हैं। पागल है यह प्रजा। अभी अगर पटाखा फूटे तो भी सब घर में घुसकर दरवाजे बंद कर लेंगे। अभी भले ही स्कूटर और कार लेकर निकल पड़े हो।

लो, यह सिग्नल को भी अभी लाल होने का मुहूर्त निकालना था। एक तो कानी थी ही, दूसरे पड़ गया कुनक। सात रूपए तैयार ही रखे है, ताकि आधी मिनट भी इसके लिए न बिगड़े। स्टेशन से लोग बाहर निकल रहे हैं, जिन्हें ट्रेन पकड़नी है, उन्हें पहले जाने दो न! यह रेलवे वाले भी कमाल है! गाँव के छोर पर पुल बनाया है और चौथे प्लेटफार्म पर ट्रेन चलने की तैयारी में है। दौडुं तो सही। लो, यह आखिरी दो सीढ़ियाँ ही बची है, और ट्रेन चल पड़ी। अब बजाओ मंजीरा और गाओ भजन!

चाय वाले ने कहा, "बहन, अब तो एक घंटे तक इंतजार करना पड़ेगा।" जरा देखो तो सही कैसे देख रहा है! पूरे प्लेटफार्म पर कोई यात्री भी नहीं है। अभी दो मिनट पहले तो कितने लोग होंगे? और अब? पत्थर पड़े और चिड़ियाँ उड़ जाए उस प्रकार सब फररर...

पल भर के लिए हुआ कि स्मिता के यहाँ चलि जाऊँ। एक घंटा यहाँ बैठने के बाद भी ट्रेन में कंपनी मिलेगी या नहीं यह भी एक सवाल है। अभी वातावरण में डर की गंध है। चायवाला मुझे देख रहा है तब भी डर लग रहा है कि कहीं मेरे ऊपर गर्म चाय का पतीला तो नहीं गिरा देगा न? किस जाति का है यह किसे पता? हम नात-जात में नहीं मानते, करम-धरम नहीं मानते इस सब का उसे थोड़ी न पता होगा? वह तो मेरा सिंदूर देख रहा है, मंगलसूत्र देख रहा है। नहीं, नहीं, सब इंसान ऐसे थोड़ी न होते है? प्यास लगी है। लेकिन पर्स में देखा तो पानी की बोतल खाली है।

लाओ, पी.सी.ओ. से घर पर फोन कर लूँ। और पानी तथा सामयिक ले लूँगी। विक्रम ने ही फोन उठाया। दूसरी मेमु में आने की बात सुनते ही चीड़ गए। लेकिन मैंने तो फोन रख ही दिया। उनकी चीड़भरी आवाज फोन में से झूलती हुई मुझ तक पहुँच न सकी।

पी.सी.ओ. वाले ने सलाह दी, "बहन, इतनी देर को अकेले ट्रेन में मत जाइए। पहले बात अलग थी। अब जा सके ऐसा माहौल नहीं है।"

क्या बदल गया इन दस दिनों में? इंसान ने रोना छोड़ दिया? इंसान प्रेम करना भूल गया? बच्चें पैदा होना बंद हो गया? फूल खिलने के बजाए झड़ने लगे? कुछ भी तो नहीं बदला है। तो फिर यह डर, यह खौफ, यह शंका का माहौल क्यों?

किताब की दुकान पर नजर डाली। अखबार में वही गिनती का खेल, मृत्यु की मायाजाल, अगनखेल, गोलियों की भागदौड़, दो सामयिक लेकर बैठक पर जाकर बैठी।

प्लेटफॉर्म एकदम खाली है। चाय के ठेलों के चूल्हे बुझ गए है। पकोड़ो का तेल ठंडा हो गया है। कोल्डड्रिंक्स की बोतलें डब्बे में बंद हो गई है। दुकान पर काम करते लड़के सो रहे है। पोलिशवाला लंगड़ा लड़का घोड़ी का तकिया बनाकर लेट गया है। लेकिन मेरी बैठक के पास बैठे कुत्ते को चैन नहीं है। खड़ा होता है, गोल-गोल घूमता है, मुँह ऊपर करके ऊंची आवाज में भौकता है, कान खड़े करके देखता है। शंकित होकर बैठता है। थोड़ी देर बाद पैर और सिर पास लाकर गोलाकार बनकर बैठ जता है। फिर खड़ा होता है। सामने के प्लेटफार्म पर दो कुत्ते हांफते हुए बैठे हैं। यह उनसे डरता होगा?

पढ़ते-पढ़ते अचानक से ध्यान गया, मेरी बगल में एक स्त्री आकर बैठ गई है। काले बुरके में से उसके हाथ के अलावा और कुछ दिख नहीं रहा है। साथ में बड़ा सा थैला है। मुँह पर जाली है, लेकिन उसकी आँखें उसमें से दिख नहीं रही है। फिर भी इतना तो मालूम पड़ता है कि वह मुझे देख रही है।

पूरे प्लेटफार्म पर इतनी सारी बैठकें खाली है फिर भी वह मेरे पास आकर ही क्यों बैठी? उसका इरादा क्या है? उसके थैले में बम तो नहीं होगा न? सोचो अगर वह थैला रख कर चली जाए और बम फूटे तो? मेरा क्या होगा? मेरे पति और बच्चे तो बिखर ही जाएंगे ना? शायद ऐसा न भी हो। यह बेचारी तो चुपचाप बैठी है। लेकिन चुपचाप बैठी है तो कुछ भी नहीं करेंगी ऐसा तो नहीं कह सकते न? उठकर दूसरी बैठक पर चली जाऊँ? खड़ा ही नहीं हुआ जा रहा है। मानों जैसे पैर खंभे की तरह जम गए है। जुबान गले में अटक गई है। हाथ से पर्स को कस कर पकड़ रखा है। इस ठंड कि शाम को मेरे माथे पर से पसीने की बूंद मेरे हाथ पर गिरती है।

"क्यों बहन, कहाँ जा रही है?" दालवाला चिमन मेरे लिए देवदूत बनकर आया। अब नसों में रक्तसंचार शुरू हुआ। मानों जैसे संचारबंदी में से मुक्ति मिली हो। "आप को आने में देर हो गई? वह तो गई।" हँस कर सिर घुमाया। अभी कुछ बोलने में डर लग रहा है। शब्द अटक ग‌ए तो?

"यहाँ क्यों बैठी हो?" उसने मुझे खड़े होने का इशारा किया। "इस वक्त इस जगह में बैठना सही है?" लेकिन मेरे पैरों में अभी भी उठने की ताकत नहीं है। चिमन थोड़ी देर खड़ा रहकर मेरी मूर्खता पर हँसता हुआ चला गया। उसकी बात सही थी, मुझे उठ जाना चाहिए। बगलवाले का क्या भरोसा? पर्स में से छुरा निकालकर वार कर दे तो भी किसी को पता नहीं चलेगा। अरे एक लात मारे तब भी मैं नीचे गीर पडूंगी। उसके हाथ तो देखो, कैसे पुरुषों की तरह मजबूत है। कहीं कोई खतरनाक खूनी तो बुरका पहनकर नहीं बैठा होगा न? अब? उठु भी तो कैसे? मेरी भी मति मारी गई थी जो इस वक्त जाने के लिए तैयार हुई। हे मेरे राम, सही सलामत पहुँचा देना। यह अगर कुछ करेंगी तो कह दूँगी की, "बहन, तुम्हें जो चाहिए वह ले लो, लेकिन मुझे मारना मत। प्यास के मारे गला सूख गया। हाथ तो जम ही गए थे। कोई आता हुआ दिखाई दे तो यहाँ से उठ जाऊँ। आँखों को कोने से लेकर प्लेटफार्म के अंत तक नजर दौड़ा रही हूँ, कोई नहीं दिख रहा। कहाँ गए सब लोग?

अभी कल ही रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म और ट्रेन के डिब्बे इंसानों से उभर रहे थे। पैर रखने की जगह ढूँढने पर भी नहीं मिलती थी। और रोज जिसमें बैठती वह महिला कोच? हर स्टेशन पर महिलाएं अंदर आती रहती, चलनी में चलते दानों की तरह कुछ बाहर उतरती जाती, धीरे-धीरे अपने स्थान पर बैठती जाति। पर्स और थैले खुलते जाते, अरहर, सेम, मटर, हरा लहसुन बाहर निकलते जाते, छिलते जाते। कोई थैली में से रंगीन धागा निकालकर साड़ी या सूट पर फूल-पत्ते खिलते जाते। कहीं स्वेटर बुनाते रहते। पापड़-चटनी-आचार-मसाले के पैकेट बेचे-खरीदे जाते, सास या पति के अत्याचारों की बातों से रोती स्त्रियों के आँसू पोंछे जाते, ऑफिस के कड़वे-मीठे अनुभवो का आदान-प्रदान होता रहता, सगाई-शादी की मिठाइयाँ भी बाँटी जाती, कभी कभार मारामारी और गालियों का दौर भी चलता। साथ ही रामरक्षा कवच और गायत्री मंत्र के पाठ भी पढ़े जाते। थोड़ी जगह करके आसन बिछाकर नमाज भी पढ़ी जाती। स्टेशन आए और खाली जगह भर जाती। आज कहाँ गए वे चेहरे? वह अरहर-मटर-लहसुन-मसाले से भरी थैलियाँ? उसकी जगह पर दिख रहे है आतंकी चेहरे और शंका-कुशंका से भरी थैलियाँ। उससे किस तरह बचना?

अरे, ट्रेन आ गई और पता भी नहीं चला? महिला कोच में चढ़ी, और पीछे पीछे वह बुरके वाली भी आई। हे भगवान, यह मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ रही? कोच तो पूरा खाली है। मुश्किल से दो-तीन स्त्रियाँ है। एक मछुआरन अपनी खाली टोकरी सीट पर रखकर सो रही है। भले ही टोकरी में से गंध आ रही हो, लेकिन कोई बैठा है तो कितनी राहत मिली! वह औरत तो सामने आकर बैठी।

बाहर तो अंधेरा छाने लगा है, इसके काले बुरके जैसा ही। कहीं भी प्रकाश की कोई रेखा दिख नहीं रही है जिससे लिपटकर इस अंधकार के सागर को पार कर सकूँ। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा। अंधेरे से बचने, काले बुरके से बचने, न दिखने वाली फिर भी लगातार मुझे ही देख रही बुरके वाली की आँखों से बचने के लिए मैंने तो आँखें ही बंद कर लि। वह क्या कर रही होगी? लोग तो कहते हैं कि उसका भरोसा ही नहीं हो सकता। कब छुरा निकालकर आपको हलाल कर दे पता भी नहीं चलेगा। कॉलेज में हमारे साथ हसीना पढ़ती थी। एस.वाय. में थे तब उसके भाई ने उसकी भाभी को छुरा मारकर मार डाला था। यह औरत भी ऐसा करेंगी तो?

कोई धीरे से हिला रहा था। आँखें खोल कर सामने देखा तो वह बुरके वाली खड़ी थी। हे भगवान, यह क्या करेगी? किसे आवाज दूँ? वह मछुआरन आराम से सो रही है। यह मुझे मार डालेगी तो भी उसे पता नहीं चलेगा! चलती ट्रेन से कूद जाऊँ? हे राम, मुझे बचा लीजिए। कल से इस ट्रेन में नहीं आऊंगी। अरे, नौकरी ही नहीं करूंगी। भाड़ में जाए अपडाउन‌। एक वक्त भूखे रह लेंगे, लेकिन यह भय बरदाश्त नहीं होता।

"बहनजी, बहनजी!" बुरके वाली बुलाती है! "मेरा स्टेशन आ गया। अच्छा हुआ आप यहाँ बैठी थी, वरना मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी, इस माहौल में अकेले जाना... आप समझती है न?" अरे, यह भी डर रही थी! मेरी ही तरह! और मैं इससे डर रही थी! मैं हँस पड़ी।

"इसमें डरने की क्या बात है? मैं तो हर रोज अपडाउन करती हूँ।" मेरी आवाज ट्रेन की सीटी की आवाज को भी दबा रही हो ऐसी निकली।

उसने मेरे हाथ पर हाथ रखकर "खुदा हाफिज" कहा। उसके वजनदार हाथ में ऊष्मा थी। पसीने का गीलापन था। उस गीलेपन में मेरी हथेली का पसीना मिल गया। स्टेशन पर गाड़ी रूक ग‌ई। उसके बड़े थैले को उतारने में मैंने हाथ दिया। थैला एकदम हल्का लग रहा था। ट्रेन चलने लगी। स्टेशन के धुंधले प्रकाश में एक आकार धीरे-धीरे गुम होने लगा।

मछुआरन ने उबासी ली। आलस मरोडकर टोकरी में से एक थैली निकाली और सेम छिलने लगी। डिब्बे में मछली की बदबू के साथ पसीने की गंध और सेम का हरा रंग फैल गया। बाहर अंधकार में चमकते तारे मुझे घर कि ओर मार्ग बताने लगे।

अनुवादक

प्रजापति मेहुलकुमार सोमाभाई, स्नातकोत्तर, 9537897795
यादव आचलबेन विजयप्रताप, स्नातक