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चित्रा मुद्गल के “पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा” उपन्यास में तृतीयलिंगी विमर्श

चित्रा मुद्गल हिन्दी साहित्य जगत की एक बहुचर्चित लेखिका के रूप में जानी जाती हैं | जिन्हें वर्ष २०१८ के प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरष्कार से सम्मानित किया गया है | यह पुरष्कार उन्हें उनकी विशिष्ट कृति “पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा” के लिये प्रदान किया गया है | चित्रा मुद्गल का नाम हिन्दी साहित्य जगत की उन लेखिकाओं में शुमार है जिनके लेखन में एक समूचा दौर नजर आता है |

चित्रा मुद्गल का जन्म 10 सितम्बर 1944 में तमिलनाडु के चेन्नई में हुआ था | इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में स्थित पैतृक गांव निहालि खेडा और उच्च शिक्षा मुंबई विश्वविद्यालय में हुई | चित्रा मुद्गल की पहली कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों पर थी, जो 1955 में प्रकाशित हुई | चित्रा मुद्गल का लेखन क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इन्होंने कई कहानी संग्रह, उपन्यास, बाल उपन्यास, बाल कथा संग्रह और कई पुस्तकें भी प्रकाशित की | इनके बहुचर्चित उपन्यास “आवा” के लिए इन्हें व्यास सम्मान से नवाजा जा चुका है | इसके अलावा इन्हें “इंदु शर्मा” कथा सम्मान, साहित्य भूषण, वीरसिंह देव सम्मान भी प्रदान किया जा चुका है | इन पुरस्कारों के अलावा साहित्य जगत का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान “साहित्य अकादमी पुरस्कार” भी इन्हें इनकी विशिष्ट रचना “पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा” के लिए प्रदान किया गया है |

“पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा” एक ऐसे वर्ग की दास्तां है जो समाज में रहते हुए भी समाज से पृथक है जिसे हम तृतीय लिंगी वर्ग के रूप में जानते हैं | चित्रा मुद्गल की यह उपन्यास इसी खास वर्ग पर आधारित है जिनकी ज्यादतियों और अजीबो-गरीब हरकतोंसे हम अमूमन दो-चार होते हैं | किंतु ‘तृतीयलिंगी’ वर्ग की जीवन शैली हमारे लिये अभी भी रहस्य ही बनी हुई है | आम इंसानों की भांति ये भी इंसान ही हैं | इनमे भी दिल धडकता है | इनमें भी संवेदना और प्यार होता है | इनका भी बचपन होता है जो आमतौर पर छीन लिया जाता है | इनकी भी माँ होती है जो अपने बच्चों से बेइंतहाँ प्यार करती है किंतु समाज बच्चे को माँ से जबरदस्ती अलग कर देता है | “पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा” पत्र शैली में रचित एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें घर से निस्कासित पुत्र अपनी माँ से पत्र के माध्यम से संवाद करता है जिसे पढकर पाठकों का हृदय व्यथित हो जाता है | उपन्यास का पात्र बिन्नी उर्फ बिमली उर्फ विनोद पढाई में होनहार होते हुए भी किन्नरों को सुपुर्द कर दिया जाता है | उसमें पढने की लगन के साथ-साथ तृतीयलिंगी समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने का सपना है । वह नहीं चाहता कि तृतीयलिंगी समुदाय दर-दर की ठोकरें खाये और नारकीय जीवन जीने को विवश हो | उपन्यास की ऐसी ही कुछ घटनाओं का विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
तृतीयलिंगी समुदाय का हर वह व्यक्ति जो आज कहीं ताली पीट रहा है, सडक पर भीख मांग रहा है, देह व्यापार कर रहा है या फिर शादी-विवाह या जन्मोत्सव इत्यादि जैसे कार्यक्रमों में अपने परंपरागत कार्यों में व्यस्त हैं, ये सभी हमारे ही समाज का हिस्सा हैं | क्योंकि हमारी तरह ये भी एक स्त्री की कोख से ही जन्म लेते हैं |इनका भी बचपन है और साथ ही बचपन के वो ख्वाब जो हम और आप ...सबके होते हैं |ये भी पढना चाहते हैं, सबसे आगे निकलना चाहते हैं किंतु यह समाज और इसकी रुढिवादिता के चलते इनके सारे सपने दफन हो जाते हैं और इसका एकमात्र कारण यह है कि ये लोग लैंगिक विकलांग हैं , भले ही इनका दिमाग आम बच्चों की ही तरह कार्य करता हो या फिर ये आम बच्चों से दिमागी स्तर में आगे ही क्यों न हों| बाकी सबकुछ नजरअंदाज कर दिया जायेगा | याद रहेगा तो सिर्फ इतना कि ये बच्चे लैंगिक विकलांग हैं | इसी एक कमी के चलते इनको घर से बेघर कर दिया जाता है और सौंप दिया जाता है इनको इनकी ही विरादरी के हाँथ, जहाँ ये मजबूर हो जाते हैं एक नारकीय जीवन जीने के लिये | ऐसा ही एक विवरण उपन्यास में बिन्नी उर्फ विनोद के रूप में मिलता है | विनोद अपनी माँ को खत के माध्यम से याद दिलाता है कि अगर वह चाहती तो उसे रोक लेती | पढने-लिखने और खेलकूद में सदैव अव्वल रहा हूँ | फिर क्यों उसे किन्नरों के हाँथो सौंप दिया| इस बात का विवरण इस प्रकार है- “क्यों वह अनर्थ हो जाने दिया तूने जिसके लिये मैं दोषी नहीं थाǃ पढने में अपनी कक्षा में सदैव अव्वल आने वाला | डरते थे लडके मुझसे | कहते थे, जिस खेल की प्रतियोगिता में खडा हो जाता है तू विनोद, पुरस्कारलेकर ही दम लेता है | कुछ पुरस्कार हमारे लिये छोड दे नǃ” (पृष्ठ सं -11)

शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिसके माध्यम से हम जीवन में आने वाली किसी भी कठिनाई से आसानी से पार पा सकते हैं | शिक्षा के महत्व को हम इस बात से भली-भांति समझ सकते हैं कि अगर व्यक्ति को एक सम्मान जनक जीवन जीना है और उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना है तो उसके लिये शिक्षा अति आवश्यक है | किंतु आम बच्चों की भांति लैंगिक विकलांग व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा प्राप्त नहीं हो पाती | इन्हें ऐसे अवसर शायद ही मिल पाते हों कि जिससे ये पढ-लिख कर अपना जीवन स्तर सुधार सकें | क्योंकि बचपन में इनके माता-पिता द्वारा ही इन्हें त्याग दिया जाता है| जिससे ये अशिक्षित ही रह जाते हैं और दर-दर की ठोकरें खाने के लिये मजबूर हो जाते हैं | किंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तृतीयलिंगी समुदाय का कोई बच्चा शिक्षा के महत्व को भली-भांति समझता हो भले ही उसे अवसर न प्राप्त हों किंतु वह इसके लिये प्रयास जरूर करता है |ऐसी ही एक घटना उपन्यास में भी घटित होती है जिसमें उपन्यास का मुख्य पात्र विनोद शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन स्तर को सुधारना चाहता है | वह किसी के आश्रित रह कर अपना जीवन नहीं व्यतीत करना चाहता | भले ही उसे घरवालों ने निकाल ही क्यों न दिया हो | इसी प्रयास के चलते वह इग्नू से अपनी पढाई जारी रखना चहता है और इस बात का उल्लेख उसने खत के माध्यम से अपनी माँ से इस प्रकारकिया है- “इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय हो आया हूँ मैं बा | मुझे सुझाया गया, बिना अखबारों में विज्ञापन आये फार्मनहीं भरा जा सकता | बेहतर होगा कि मैं पहले दसवीं कक्षा का फार्म भरकर दसवीं पास कर लूँ, फिर बारहवीं | आगे चलकर नौकरी के लिये जरूरी है |” (पृष्ठ सं – 46)

लैंगिक विकलांग व्यक्ति के लिए जीवन किसी श्राप से कम नहीं है | क्योंकि शायद ही कोई ऐसा हो जो सडकों पर भीख मांगने का इच्छुक हो, पेट पालने के लिए देह व्यापार का शौक रखता हो या फिर नाच-गाना कर अपनी जरूरतें पुरी करने में खुद को प्रसन्न महसूस करता हो | तृतीयलिंगी समुदाय के लिये यह किसी मजबूरी से कम नहीं है | किंतु समस्या यह है कि इनमें से कुछ लोग शादी-विवाह या बच्चों के जन्म के समय नाच-गाना करना अपना पारंपरिक कार्य समझते हैं और साथ ही आर्थिक तंगी को दूर करने में इस कार्य को एक विकल्प के रूप में देखते हैं | इस कार्य में कई बार इनको आम जन के सामने अपमानित भी होना पडता है और कई बार तो पुलिस की पार-पीट का भी सामना करना पडता है | ऐसा इसलिये होता है कि नाच-गाने के बाद ये लोग कभी-कभी कोई बडी रकम की मांग करते हैं जिसे कुछ लोग दे भी देते हैं और अक्सर लोग देने से इंकार कर देते हैं | ऐसी स्थिति में इनके द्वारा कुछ असमाजिक घटनाओं को अंजाम दे दिया जाता है या फिर कुछ अपशब्दों का भी प्रयोग किया जाता हो जो कि सामान्य जन के सामने अपमानित होने के अनुरूप हो | ऐसी स्थिति में इन्हें दण्ड का भी पात्र बनना पडता है | ऐसी ही एक घटना का उल्लेख उपन्यास में किया गया है | जिसमें किन्नर समूह कहीं नाचने-गानेके लिये जाते हैं और वहाँ कार्यक्रम की समाप्ति पर ज्यादा न्यौछावर की मांग करने लगते हैं | किंतु उस घर के सदस्यों ने मुंहमागा देने से इंकारकर दिया जिसके चलतेइनमेसे किसी एक ने घर के किसी बुजुर्ग के गले में पडी सोने की चैन पर हाथ लगा दिया | जिसके चलते मार-पीट हो गयी और इनके द्वारा कुछ अपमान जनक कृत्यों को भी अंजाम दिया गया | परिणाम स्वरूप घर के किसी सदस्य ने पुलिस को फोन कर बुलवा लिया | इसके उपरांत समूह के अधिकतर सदस्यों को जेल की हवा खानी पडी | इसका उल्लेख विनोद ने खत के माध्यम से अपनी माँ से इस प्रकार किया है- “चंद्रा ने इठलाते हुए घर के बूढे मालिक के गले की सोने की जंजीर पर हाथ क्या रख दिया वे लोग ठिठोली को जबरई मान बैठे | ये लोग भी उतर आये नंगई पर | जमकर मारा-पीटी हुई | घर की बहू ने पुलिस को फोन कर दिया | पुलिसके लिये सही वही हैं जो पर्दे वाले घरों में रहते हैं | उनके घर को बेपर्द करने की जुर्रत कोई कैसे कर सकता है? सरदार समेत सात लोग लॉकअप में डाल दिये गये |” (पृष्ठ सं- 51)

सदैव से यही चला आ रहा है कि किसी भी परिवार में यदि लैंगिक विकलांग बच्चे का जन्म होता है तो परिवार उस बच्चे को अपने साथ नहीं रखता | इसका प्रमुख कारण हमारा समाज है | क्योंकि यदि उस बच्चे को माता-पिता रख भी लें तो उनके पास-पडोस के लोग, रिश्तेदार इत्यादि उन्हें ताने मार-मार कर ही जीना दूभर कर देंगे | इसके इतर यदि परिवार में भाई-बहन हैं तो बहनों की शादी-विवाह में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पडता है और भाई को लोग तरह-तरह की अभद्र बातें बोल-बोल कर परेशान कर देंगे|यही मुख्य वजह है इनको परिवार में न रखने की | भले ही माता-पिता बच्चे को रखना भी चाहते हों किंतु वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते | परिवार की इज्जत के चलते उन्हें अपने बच्चे को त्यागना ही पडता है और इस कार्य में लैंगिक विकलांग समूह भी उनका पूरा साथ देता है | उन्हें जैसे ही पता चलता है कि किसी परिवार में उनके समुदायके बच्चे का जन्म हुआ है, वो उस बच्चे को किसी भी हाल में लेकर ही मानते हैं | रूढिवादिता और अपनी खोखली इज्जत के चलते माता-पिता भी अपने बच्चे को उनके हाथों सौंप देते हैं चाहे बाद में उस जीवित बच्चे को मृत ही क्यों न घोषित करना पडे | ऐसा ही एक उदाहरण उपन्यास में भी देखने को मिलता है विनोद लैंगिक विकलांग है और यह बात किन्नर समुदाय को जैसे ही पता चली वो लोग आ गये उसे लेने न चाहते हुए भी विनोद के पिता ने विनोद को किन्नर समुदाय के हाथों सौंप दिया | कुछ वर्षों बाद जब विनोद खत के माध्यम से अपनी माँ से यह सब हो जाने का कारण पूछता है तब उसकी माँ उस खत का जवाब कुछ इस प्रकार से देती है- “असलियत भानू मामा से भी बांटी नहीं जा सकती थी | वह भी तो तीन बेटियों के बाप हैं | भानू मामा के लिये तेरे पप्पा ने मौत की लोकेशन बदल दी | लोकेशन बदलते ही कहानीबदल गयी |

नाते-रिश्तेदारों के लिये दुर्घटना उत्तराखंड के दुर्गम पहाडों की सर्पीली लपलपाती संकरी सडक के एक ऊंचे मोड पर घटी |” (पृष्ठ सं – 74)

अक्सर देखा जाता है कि कभी-कभी परिवार में बच्चे नहीं होते | इसका कारण कुछ भी हो सकता है | किंतु ऐसे पति-पत्नी जीवन भर ईश्वर से एक बच्चे की प्रार्थना करते नजर आते हैं ताकि उनके जीवन में भी बच्चे की कमी को पूरा किया जा सके | यहाँ तक कि लोग ऐसे बच्चों को भी परिवार का सदस्य मान कर उसकी देख-रेख और भरण-पोषण करते हैं जो अंधे, बहरे लंगडे और मानसिक रोग के शिकार होते हैं किंतु ऐसे बच्चे को रखनेके लिये कतई तैयार नहीं होते जो लैंगिक विकलांग होते हैं | लैंगिक विकलांग पैदा होना यह इन बच्चों का दोष नहीं है किंतु फिर भी माता-पिता द्वारा इन्हे त्याग दिया जाता है | इस प्रथा को रोकना अति आवश्यक है ताकि किसी भी लैंगिक विकलांग बच्चे को अपने माता-पिता के प्यार से वंचित न होना पडे और न ही वह दर-दर की ठोकर खाने के लिये मजबूर हो | इसके लिये सरकार को आगे आना होगा | कानून बनाने होंगे ताकि माता-पिता ऐसे बच्चों को त्याग न सकें | उपन्यास के पात्र विनोद ने इस बात को अपनी आवाज़ के माध्यम से व्यक्त किया है | वह तृतीयलिंगी समुदाय की एक सभा को संबोधित करते हुए कहता है कि सरकार को कुछ कानून बनाने होंगे, अखबारों, चैनलों इत्यादि के माध्यम से विज्ञापन जारी करने होंगे ताकि लोग जागरूक हो सकें और तृतीयलिंगी समुदाय के बच्चों को उनके माता-पिता द्वारा त्यागा न जाये | वह अपनी बात कुछ इस तरह से व्यक्त करता है-
“मैं सरकार से अपील करता हूँ इस साभार में, लिंग दोषी बिरादरी की घर वापसी को वह सुनिश्चित करे |
कानून बनाये | बाध्य करे अभिभावकों को | घर से बहिष्कृत बच्चों को वह जिस भी उम्र के पडाव में हों, अपने साथ रखें |
प्रचार करे, अखबारों, चैनलों और आकाशवाणी पर विज्ञापनों के माध्यम से | उनकी चेतना को झकझोरे, ताकि भविष्य में कोई माता-पिता लोकापवाद के भय से लिंग दोषी औलाद को दर-दर की ठोकरें खाने के लिये घूरे पर न फेंके |” (पृष्ठ सं-186)


तृतीयलिंगी बच्चे को बेघर करने में जितने दोषी माता-पिता हैं, उतने ही तृतीयलिंगी समुदाय के लोग भी | क्योंकि इन्होंने अपनी दर्द भरी जिंदगी से कुछ नहीं सीखा और जैसे ही इनको पता चलता है कि कहीं किसी घर में इनके जैसा ही बच्चा हुआ है, ये भाग पडते हैं उसे लाने और अपने दल में शामिल करने के लिये | भले ही उस बच्चे के माता-पिता उसे पाल-पोष कर उसकी जिंदगी को बेहतर बनाने की प्रार्थना ही क्यों न कर रहे हों | किंतु उनकी एक नहीं चल पाती और किसी भी प्रकार से ये लोग उस बच्चे को अपने साथ ले ही आते हैं और शामिल कर लेते हैं उसको नर्क के उस दलदल में जिससे ये खुद बाहर निकलना चाहते हैं | माता-पिता के अलावा तृतीयलिंगी समुदाय को भी यह बात समझ लेनी चाहिये कि अब वो अपने जैसे नवजात बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा नहीं करेंगे और, अपने साथ नहीं लाएंगे साथ ही प्रयास करें कि अब कोई भी लिंगदोषी बच्चा जलालत का शिकार न होने पाये | उपन्यास में विनोद तृतीयलिंगी समुदाय को संबोधित करते हुए उन्हें इस बात की बारीकियों को समझाता है और चाहता है कि जिस नरक को हम भोग रहे हैं अब उस नरक के दलदल में कोई लिंगदोषी बच्चा न आने पाये | वह अपनी बात समुदाय के सामने कुछ इस प्रकार से रखता है- “बरजिए बिरादरी को | शपथ लीजिये यहाँ से लौटकर आप किसी लिंगदोषी नवजात बच्चे-बच्ची को, किशोर-किशोरी को, युवक-युवती को जबरन उसके माता-पिता से अलग करने का पाप नहीं करेंगे | उससे उसका घर नहीं छीनेंगे | उपहासों के लात-घूसों से उसे जलील होने की विवशता नहीं सौंपेंगे | जलालत का नरक भोग कुछ नहीं सीखे आप?” (पृष्ठ सं- 186)

धार्मिक रूढिवादिता के साथ सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियां भी इनको समाज से अलग-थलग रखने के लिये जिम्मेदार है | तृतीयलिंगी समुदाय को इस बात को समझना होगा कि जिनके बच्चों के जन्म की खुशी के लिये ये नाच-गाना करते हैं वही लोग दूसरे दिन इनको अपने आस-पास भी नहीं भटकने देंगे | भले ही यह कार्य इनको अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने या पेट भरने के लिये करना पडता हो किंतु इन्हें अगर समाज में सम्मान की जिन्दगी जीनी है तो इस कृत्य को त्यागना होगा | चली आ रही लीग से हटकर इन्हें उन कुरीतियों को तोडना होगा जो सदियों पहले बनायी गयी थीं | क्योंकि जिनके द्वारा ऐसे नियमों को बनाया गया होगा वो इन्हें समाज से दूर रखने का हिमायती होगा| जिसके चलते आज भी तृतीयलिंगी समुदाय समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग है | उपन्यास के पात्र विनोद ने सभा को संबोधितकरते हुए इस बात को इस प्रकार व्यक्त किया है –
“नहीं जानते | कौन लोग करते हैं आपका इस्तेमाल ?
वो, जो आपको इंसान नहीं समझते | आपके जीने-मरने से उन्हें कोई फर्क नहीं पडता अंधेरे के बावजूदवो आपकी मैय्यत को कंधा देने नहीं पहुंचते| आंसू नहीं बहाते | रूढि नियत की है | जीवित रहते धिक्कार की चप्पलों से वे आपको पीटेंगे | मरणोपरांत वे आपको अपनी ही बिरादरी से पिटवाएंगे| जिनके नवजात शिशुओं को ढूंढ-ढांढ नाच-गाने आशीषने पहुंचते हैं आप, उन्ही के घर दूसरे रोज पहुंच कर देखिये? घर का दरवाजा आपके मुंह पर भेड दिया जायेगा |” (पृष्ठ सं-186)


चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास बेघर हुए एक तृतीयलिंगी बच्चे की व्यथा को व्यक्त करता है | माँ-बेटे का पत्र के माध्यम से हुआ संवाद बहुत ही हृदय स्पर्शी है | लेखिका ने विनोद नामक पात्र के माध्यम से तृतीयलिंगी समुदाय में फैली कुरीतियों और रूढिवादिता को तोडने की एक मुहिम छेड रखी है | विनोद के माध्यम से उन्होंने यह बात सामने रखी है कि लैंगिक विकलांग समूह का कोई भी व्यक्ति भले ही वह किसी भी उम्र का हो नाच-गाने को अपना पारंपरिक पेशा न समझे और न ही इस कृत्य को करे | उन्होंने लैंगिक विकलांग समूह की घर वापसी की भी बात को सामने रखा और इसमे सरकार की मदद के साथ-साथ समाज की मानसिक रुढिवादिता को त्यागने को भी अहम स्थान दिया है |

संदर्भ ग्रंथ :-

  1. पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा- चित्रा मुद्गल, सामयिक प्रकाशन, दरिया गंज, नई दिल्ली -110002.

महेन्द्र कुमार वर्मा, पी.एच.डी. शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई- 600 005