'मगरी मानगढ़ गोविन्द गिरी'– अनकही आदिवासी गाथा
राजस्थान साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में सर्वोच्य 'मीरा पुरस्कार' से सम्मानित डॉ. राजेन्द्रमोहन भटनागर प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। मानव संवेदनाओं से भरा उनका साहित्य मानव–मनों को उद्वेलित करता है। उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों को चुनकर कई कालजयी उपन्यास साहित्य जगत को प्रदान किये हैं। उनमें से मगरी मानगढ़–गोविन्द गिरी भी एक है। यह उपन्यास सन् 2011 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ।
राजस्थान का जनजाति बहुल दक्षिण का अंचल समेटे बांसवाड़ा व डुंगरपुर न सिर्फ प्राचीन संस्कृति के लिए देश–प्रदेश में प्रसिद्ध है अपितु यह अंचल प्रदेश इतिहास की एक ऐसी घटना का साक्षी है जहाँ संत गोविन्द गिरी के नेतृत्व में एकत्रित हुए गुरूभक्तों ने अपना बलिदान हुआ। यह बलिदान जलियावाल बाग के बलिदान से भी बड़ा था। इतिहास के पन्नों पर पूर्व अलिखित आदिवासी आग्नेय गाथा का वर्णन डॉ राजेन्द्र मोहन भटनागर ने अपने कालजयी उपन्यास मगरी मानगढ़ गोविन्द गिरी में किया।
साहित्य और समाज का गहरा नाता होता है। साहित्यकार साहित्य में विविध गतिविधियों के साथ संवेदनाओं का संग्रह कर जन–मन तक पहुँचाने का कार्य करता है। प्रत्येक साहित्यकार अपने युग का युगदृष्टा होता है वह समाज के यथार्थ को, अपने आस–पास घटित घटनाओं का सूक्ष्मता से अवलोकन कर वह साहित्य का निर्माण करता है। आज का रचनाकार अपने जीवन की समकालीन समस्याओं पर अपनी ले लेखनी चलाकर समकालीन साहित्य की रचना कर रहा है।
राजस्थान के बांसवाड़ा के नजदीक स्थित मानगढ़ की पहाड़ी का ऐतिहासिक महत्व है लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय इतिहासकारों की नजर उसकी महत्ता तक समय पर नहीं गई। यहाँ आदिवासी समाज पर अमानवीय व्यवहार हुआ उन पर हुये अत्याचाारों का लेखा–जोखा किसी भी इतिहासकार ने नहीं लिया। "मानगढ़ धाम 17 नवंबर, 1913 की उस घटना का साक्षी है जिसमें अंग्रेजों ने पंद्रह सौ से अधिक आदिवासियों की जान ले ली थी। लेकिन इतिहास में इसका जिक्र तक नहीं है। क्या इस घटना की उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि इसमें शहीद हुए लोग आदिवासी थे जबकि जालियांवाला बाग में मारे गए लोग गैर-आदिवासी थे?" (गोंड) भारतीय इतिहास में आदिवासीयों के त्याग, बलिदान की गाथा पर किसी ने एक पृष्ठ भी नहीं लिखा। मानगढ़ का हत्याकांड, जलियावाला बाग हत्याकांड से कई गुना बड़ा था परन्तु ऐतिहासिक पृष्ठों पर इस हत्याकांड का अंकन नहीं हुआ। आदिवासीओं के साथ हुए इस अमानवीय अत्याचार को शब्दबद्ध क्यों नहीं किया गया? क्या यह गाथा आदिवासीयों के मानवधर्म के लिए दिए गये बलिदान को बयां करता था इसीलिए शब्दबद्ध नहीं किया गया? डॉ. राजेन्द्रमोहन भटनागर जी ने इस घटना के सूत्रों को एकत्रित कर इस मानगढ़ पहाड़ी पर हुए हत्याकांड में बलिदान देने वाले 1500 आदिवासीओं की आग्नेय गाथा को मगरी मानगढ़ उपन्यास के माध्यम से जन–मन तक पहुचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इतनी बड़ी संख्या में नरसंहार होने के बावजूद यह घटना इतिहास के पन्नों पर अपना अस्तित्व दर्ज ना करा सकी। आज भी जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्षरत आदिवासी समाज स्वतंत्र भारत के इतिहास में भी अपनी उपस्थिति ना दर्ज करा सका। लेखक स्वयं इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं–
"आज भी हमारे सामने वही महाप्रश्न है। आज भी हम वहीं खड़े हैं, जहाँ पहले थे। प्रगतिशीलता के नानाविध अभिकरण उन लोगों को आज तक उन गलीज अँधेरी दलदल से बाहर नहीं निकाल सके, जिनके लिए स्वतंत्रता पूर्व से अविराम प्रयास होते रहे थे। पर क्यो?" (मगरी मानगढ़ गोविन्द गिरि भूमिका)
आदिवासी समाज जीवन में बदलाव लाने का बीड़ा उठाया गोविन्द गुरू ने। उनकी यह परिवर्तन की आँधी मात्र राजस्थान में ही नहीं मध्यप्रदेश और गुजरात में भी अपने प्रभाव को फैलाती गई। गोविन्द गुरू ने जो अलख जगाई वह आदिवासी जन–जीवन की स्थितियों, उनके जीवन को परिवर्तित करने की अलख थी। गोविन्द जी ने अपने आस–पास बसे समाज की कठिनाइयों, उनकी परिस्थितियों को आत्मस्यात् किया। गोविन्द गुरू ने हीउन आदिवासीयों को यह बताया कि, जीवन क्या है? और इस जीवन का क्या मूल्य है, उसे कैसे जिया जाय? आदिवासीयों के जीवन, उनकी परिस्थितियों को वे विचार करते कि, यह समाज किन समस्याओं का सामना कर रहा है।
"वह वहाँ भील समाज की घनघोर पीड़ा, असहनीय कष्ट और दयनीय स्थिति से दुःखी होकर निरन्तर दौड़–धूप कर रहा था कि उसके हाथ कोई सूत्र लग जाए, मंत्र लग जाए और विधि ज्ञात हो जाए तो वह एक बहुत बड़े, सदियों से पीड़ीत– संतापित और नारकीय जीवन जीते समाज को मानवीय धारा–प्रवाह में, जिसका वह मानव होने के नाते हक रखता है, बहते हुए देख सकता है।" (भटनागर 83)
आदिवासीओं को मनुष्य होने की पहचान कराई गोविन्द जी ने। उनके अधिकारों के लिए वे हमेशा चिंतनशील रहे। वे कहते–
"मेरा समाज, मेरे लोग ......सबके सब शोषण की चक्की में पिस रहे हैं। आज से नहीं सदियों से। वे भूल गये हैं कि वे भी दूसरे मनुष्यों की तरह सम्मान से जीने का हक़ रखते हैं। मनुष्य होने की यही पहचान है। ....वे कीड़े–मकोड़े नहीं हैं। उनके उत्थान के लिए मैं बेचैन हूँ।" (भटनागर 82)
भारत के राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में बसा आदिवासी जन–जीवन शिक्षाहीन, हिंसा के भावों से भरा, अपनी समस्याओं, परिस्थितियों को अपना भाग्य मानने वाला यह समाज शहरों से दूर गांवों में बसता। किसी से कोई शिकवा नहीं, अभावों में जीवन व्यतीत करता। इस उपन्यास के प्रारंभ में ही दीनहीन स्थिति का चित्रण हमें मिल जाता है–
"घर में था क्या, दो जून की रोटी और हरी या लाल मिर्च की चटनी या कादा (प्याज) फोड़कर खाने के भी लाले थे। बीच–बीच में सूखे या अतिवृष्टि से बागड़ प्रान्त उजड़ जाता था। वहाँ के निवासी अपना–अपना थान छोड़कर अन्य थान की ओर चल देते थे, रीजक रोटी की तलाश में इधर से उधर मारे–मारे घूमते थे। पाँव में पनही नहीं, देह पर चीथड़े लपेटे, पीठ से लगे पेथ का संभालते, आँखों से निकालते जिजमान के डूँडा बैल लिए उसके खेत की ओर बढ़ जाते थे। माँ एँ अपने टाबर केग ले में पड़े डिगेहरी की ओर देखती रह जातीं। अब उनके टाबर उसके ही भरोसे हैं। पर डीबुआ (पैसा) नहीं पास, मेला लगे उदास वाली कहावत को वे अपने में जीते थे।" (भटनागर 11)
ऐसी दयनीय दशा का वर्णन लेखक ने पूर्ण संवेदनाओं के साथ किया है। ऐसे ही एक परिवार में आदिवासी समाज के उद्धारक गोविन्द का जन्म मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन 20 दिसम्बर 1858 को गणेश्या व सामंती नामक दंपती के घर हुआ। गाँव के ही पंडित ब्राह्मण द्वारा शिक्षा मिली और समझदार होने पर उसे मानवता की पीड़ा सताने लगी, मानवता के कल्याण हेतु उसने अपनी यात्रा शुरू की। वह गाँव–गाँव घूमता रहता और अपने आदिवासी भाई–बहनों के बदहाल जीवन को सूक्ष्मरूप से देखता और पाता कि, सभी क्षेत्रों में आदिवासी समाज बदहाली में जीवन जी रहा है। वह गाँव–गाँव जाकर भजन द्वारा लोगों को ईश्वरीय आस्था से बाँध एक कर उनका विश्वास अर्जित करता। आदिवासी भाई–बहनों से मिलकर उनके साथ ज्ञान की बातें करता, जाति–पाति, ऊँच–नीच के भेदभाव से परे सबको समान दृष्टि से देखने वाले गोविन्द जी से किसी ने एक बार उनकी जाति पूछ ली इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने सहजता मानवता को केन्द्र में में रखते हुए कहा–"मेरी जाति–धर्म इन्सानियत है मेरे भाई। जाति–धर्म में क्या रखा है। हम सब वनवासी हैं, आदिवासी हैं, भील भाई हैं। गरीबी हमारा धर्म है और अन्याय–अत्याचार को सहना हमारी जाति" (भटनागर 29) गोविन्द ने आदिवासी समाज को जाति–पाति के बंधनों से मुक्त कर उन्हें मानवधर्म मानवता को अपनाने हेतु मार्ग प्रशस्त किया।
गोविन्द गुरू ने स्वयं जीवन में शिक्षा पाई इसीलिए उन्हें शिक्षा का महत्व ज्ञात था। वे शिक्षा को ही शोषण से मुक्ति का साधन मानते थे। एक बार जब किसी आदिवासी भाई ने अपने गोविन्द गुरू के समक्ष अपनी समस्या रखी कि किस प्रकार उन्हे दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती उपर से रजवाड़ों के बेगार से हम तंग रहते हैं। हम क्या करे?, इस पशुवत जीवन से मुक्ति कैसे मिले तब गोविन्द गुरू ने सहज होकर कहा–
"भाइयों, यह प्रश्न टेढ़ा है। जितना सहज समझ रहे हैं, उतना नहीं है। .....दरअसल शोषण से मुक्त होने का एक मात्र रास्ता है विद्या। कौन सी विद्या? विवेक की जिससे अँधेरा हटता है। अँधेरा हटेगा तो प्रकाश आएगा। प्रकाश आएगा तो रास्ता सूझेगा। वह रास्ता जिससे शोषण का चक्रव्यूह तोड़ा जा सकेगा।" (भटनागर 31)
शोषण, बेगार, धर्म–परिवर्तन, अशिक्षा, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता आदि के जाल में फँसे आदिवासी समाज को गोविन्द गिरी ने मदिरा, हिंसा, माँसाहार आदि से मुक्त करते हुए समानता, एकता, समरसता, मधुरता, मानवता का पाठ पढ़ाया। उस समय देश में अंग्रेजों द्वारा धर्म को परिवर्तन करवाकर ईसाई धर्म की लालच दी जा रही थी। कुछ लोग इस धर्म परिवर्तन को अपनी बेरोजगारी, अपनी भूखमरी से बचने का एक सरल मार्ग मान रहे थे। उपन्यास में एक पात्र कल्लू जो इस मार्ग को चुनकर धर्म–परिवर्तन कर लेता है, सोचता है कि, उसका जीवन सरल हो जाएगा लेकिन उसका जीवन में सरलता नहीं आ पाती,उसकी भूख नहीं मर पाती। लेखक लिखते हैं–
"कल्लू ने मजहब बदला। भूख जरूर मिटी, पर कितने दिन के लिए। गरीबी वहाँ भी थी और बदहाली भी। इसके साथ वह हर की निगाह में गिरता चला गया। उसने वहाँ अपमान, उपेक्षा और ओछापन पाया। ताने पाए। वह घबरा उठा और बिना किसी को बतलाए अपने गाँव लौट आया।" (भटनागर 32)
ऐसे ही घटनाक्रम को समझाते हुए गोविन्द गुरू सभी आदिवासी भाइयों को धर्म–परिवर्तन न करते हुए मानव–धर्म अपनाकर हरि–यश करने हेतु अलख जगाते और आदिवासियों को धर्म का सही अर्थ समझाया जिससे आदिवासियों ने धर्म–परिवर्तन की प्रक्रिया बन्द हो जाती है। मिस्टर आँलिव द्वारा जब आदिवासयों के धर्म–परिवर्तन करवाने के लिए षड़यंत्र रचा जाता है तब उस सभा में पहुँचकर गोविन्द गिरी कहते हैं–
"जे कित्ता आसान है कि इधर धरम बदलों,उधर नरक से सीधे स्वर्ग में–एकदम चमाचम। ठाठबाट। सब कुछ टनाटन। किर काहे ठाढ़ेश्वरी की गैल पकड़ें। .....कौन पगला बने, खाक छाने। काम वो जा में टका मिले, शान बढ़े, राज काज में पहुँच सघे।" (भटनागर 141)
बेगारी से मुक्त करने हेतु भी गोविन्द गुरू आदिवासी जनता में चेतना लाने का सफल प्रयास करते हैं। जब दीत्या नामक युवक से बेगारी को सरकारी कर्मचारी कहते हैं तो वह साफ मना कर देता है––
"बेगारी तो ......हमारा अपमान है। शोषण है। अन्याय है। अत्याचार है। जब हमारा राजा ही अपनी प्रजा का शोषण करेगा तब वह काहे का राजा, काहे का रक्षक ......काहे का पालक।" (भटनागर 41)
आदिवासी समाज की प्रगति में अंधविश्वास बाधा बनकर खड़ा था। गोविन्द गिरी ने उन्हें इस अंधविश्वास की गहरी खाई से बाहर लाने का अथक प्रयास किया। स्वामी दयानंद और गोविन्द गुरू के मध्य हुई चर्चा–विचारणा समाज के इस बाह्याडम्बरों से मुक्त होने के लिए चेतना प्रदान करती है। गोविन्द से स्वामी दयानंद सरस्वती कहते हैं–
"गोविन्द,तुम समाज में फैले इस अन्धकार को मिटाने की दिशा में प्रयास करो और सत्य व्यवहार के प्रति उनमें निष्ठा बनाएरखों। उनमें शिक्षा की ज्योति जलाओं और उनमें आस्था पैदा करो ताकि वे दूसरों के बहकाए में नहीं आये। .......मत मतान्तरों का भटकाव भरा प्रचार समाज में फैला हुआ है। जन को उससे मुक्त करने की दिशा में तुम्हारा प्रयास रहेगा तो सद्ज्ञान का उदय होगा।" (भटनागर 87)
गोविन्द गुरू स्वामी जी से आर्शीवाद लेकर समाज को गुरू समाज को भगवे भेष बनाकर नहीं अपितु संसार में रहकर कर्म करते हुए ईश्वर भक्ति की प्रेरणा देते रहे। गोविन्द गुरू आदिवासी समाज की कायापलट करना चाहते थे उनके प्रयत्नों से ही इस वर्ग में स्वच्छता, ईश्वर आराधना, मद्यपान निषेध जैसे परिवर्तन होने लगे थे। गोविन्द गुरू आदिवासी समाज को आईना दिखाते हुए कहते है––
"भाइयों यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भील–आदिवासी समाज की हालत हर दृष्टि से दयनीय है। वह समाज वन्य जीवन जी रहा है। अपने समाज में विसंगतियाँ ही विसंगतियाँ है। विषमता का विष अलग फैला हुआ है। वह समाज शोषण की चक्की में पिस रहा है।" (भटनागर 65)
वर्गभेद, ऊँच–नीच वाली समाज व्यवस्था एवं आदिवासी समाज की दयनीय हालत पर वह हमेशा चिंतनशील रहे वे कहते हैं–
"यह कैसी समाज व्यवस्था है–एक तरफ सुभीता भोगी, अधिकार सम्पन्न, धन–धान्यपूर्ण, ठिकानेदार, महारावल, राजा महाराजा आदि हैं और दूसरी ओर दरिद्रनारायण, अधिकार वंचित झुग्गी–झोपड़ी में रहने वाले, दीन–हीन, जंगल में राह खोजते, पीड़ीत और शापित हैं। इतना अन्तर क्यों? किसने खींची ऐसी रेखा। फिर अच्छा समाज कैसे बने? षड़यंत्र। दुरणिभसंधि। धोखा। छल–प्रपंच।" (भटनागर 109)
इसी बात को समझते हुए डॉ नवीन नंदवाना लिखते हैं-
"मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा एक व्यापक सामाजिक तत्त्व है और इसकी स्थापना तभी हो सकती है जब समाज के छोटे से छोटे व्यक्ति के गौरव को वही महत्त्व दिया जाए, जो बड़े से बड़े व्यक्ति को मिलता है। जब महामानव और लघुमानव का भेद कर एक के गौरव का बलिदान कर दूसरे के गौरव की वृद्धि न की जाय।..........उसकी स्थापना तभी हो सकती है जब हम सामाजिक समानता के सिद्धान्त को समान मानें, महाजन के समक्ष लघुजन को रखें, दोनों के लिए समान नैतिक मूल्य और समान अधिकार तथा समान गौरव की घोषणा करें। गोविंद गिरी ने आजीवन इसी लघु मानव आदिवासी को उसका हक दिलाने का व्यापक प्रयास किया।" (इतिहास के पृष्ठों पर अनलिखी आदिवासी आग्नेय गाथा: मगरी मानगढ़)
आदिवासी समाज में नयी उर्जा, नयी शक्ति का संचार हुआ। वे अत्याचारों का मुकाबला करते। स्वदेश चिंतन, शिक्षा, समानता, सम्मान, न्याय, स्वतंत्रता एवं शोषण के प्रति विद्रोह करना उन्हें आ गया था। गोविन्द गिरी की कीर्ती कई क्षेत्रों में फैल चुकी थी। यह सब देखकर अंग्रेज अधिकारी कर्नल शटन को यह रास नहीं आया और गोविन्द गिरी के खिलाफ वो राजमाता के कान भरता है। वह राजमाता से कहता है कि, गोविन्द आपके खिलाफ सत्ता संग्रह करना चाहता है। अतः राजमाता उसे कारावास में डाल देती है। इसी समय यहाँ अकाल पड़ता है और कई मनुष्य, पशु, पक्षी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस अकाल में गोविन्द की पत्नी और माता–पिता भी परलोक सिधारते हैं। गोविन्द को जेल से छोड़ दिया जाता है लेकिन अब गोविन्द का बाँसवाड़ा में प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। अब वे बाँसवाड़ा के आस–पास के क्षेत्रों में अलख जगाने लगे। अब भक्तों के प्रिय गोविन्द गिरी को भक्त मानगढ़ की पहाड़ी पर आकर धूणी की स्थापना और सभी आदिवासी भाईयों को दशा सुधारने का मंत्र देने हेतु आंमत्रण देते है। राजा–महाराजाओं को लगता है कि, यहाँ उनके खिलाफ षड़यंत्र रचा जा रहा है इसीलिए वह अंग्रेजों से सहायता माँगते हैं। अंग्रेज गुप्तचर इसकी जाँच करते है उन्हें पता चलता है कि, वे सभी राजनैतिक कार्य हेतु नहीं अपितु धार्मिक कार्य हेतु एकत्रित हुए है। लेकिन अंग्रेज अधिकारी इस अवसर का लाभ उठाना नहीं भूलते वे आदिवासीयों और राजाओं को लड़ाना चाहते थे। कर्नल शटन ने तीन ओर से पहाड़ी को घेर लिया। कर्नल शटन कहता है–"हाँ,लेफ्टिनेन्ट डाँइस हाँ यही पोलिटिक्स है। समय पर मत चूकों।" (भटनागर 204) और अवसर का फायदा उठाकर वह सबकुछ जानते हुए बिना देरी किए सभी अंग्रेज सैनिकों के फायर का आदेश दे देता है। चारों ओर भगदड़ मच जाती है लेकिन तीनों ओर से गोलियो की बौछार होती है। कोई समझ नहीं पाता कि, इस धार्मिक आंदोलन में गोलियाँ क्यों चल रही है। करीबन आधे–घंटे तक यह नर–संहार चलता है। गोविन्द गिरी को इसका जवाबदार माना जाता है और अहमदाबाद की सेन्ट्रल जेल में डाल दिया जाता है। वहाँ गोविन्द की दूसरी पत्नी गनी गोविन्द से मिलने आती है। उस नरसंहार के बारे में गोविन्द को बताती है–
"गोविन्द, मगरी मानगढ़ नरसंहार में सरकारी गिनती के हिसाब से पन्दंह सौ सत्रह लेगा–लुगाई मारे गए। उनमें बच्चों की गिनती नहीं की और न उनकी जो भगदड़ में खैड़ापा गाँव की ओर मुड़ गए थे। मारे गए थे, मौत की घाटी में जाकर।" (भटनागर 215)
पूरे नरसंहार की साक्षी बनी मानगढ़ की मगरी। इस नरसंहार का जिम्मेदार और युसुफ खां की हत्या का आरोप भी गोविन्द गिरी पर लगाया जाता है। गोविन्द गुरू को सजा–ए–मौत सुनाई जाती है। आदिवासी समाज के समाज–सुधारक, उद्धारक गोविन्द गिरी अनत में जाते–जाते अपनी पत्नी गनी को अंतिम संदेश देते हैं–
"हाँ गनी हाँ। थारे सूँ म्हारी प्रार्थना जे है कि थे मगरी मानगढ़ को धूंणी कभी बुझने मत देना। उसे निहत्थे ईश्वर में ध्यान मग्न, आहुति देते भोले–भाले भक्तों की समाधि स्थल बनाना। वह आने वाली पीढ़ी को सदा याद दिलाती रहेगी कि वहाँ अहिंसक समाज पर कभी अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाई गयीं थीं, जिसमें हजारों, हजार हित्थे और ईश्वर मग्न आदिवासी मारे गए थे। आने वाले समाज को यह पता बराबर बना रहे कि न्याय सदा अमर होता है, अन्याय मरता है।" (भटनागर 223)
इसप्रकार आदिवासी समाज के मसीहा गोविन्द गुरू के योगदान एवं आदिवासी समाज की समस्याओं एवं उसकी जागृति का चित्रण करती यह मगरी मानगढ़ गाथा अद्वितीय है।
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