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मुक्तिबोध के साहित्य-चिन्तन पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी का प्रभाव

मुक्तिबोध प्रगतिशील रचनाकार हैं। वे सबसे पहले एक दार्शनिक हैं। अकादमिक जगत में वे एक लोकप्रिय कवि, कहानीकार, समीक्षक और विचारक के रूप में जाने जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी कविताओं की जटिलता है जो उनकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता का परिणाम है। उन्होंने बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच की कड़ी मध्यवर्ग की समाज में बदलती भूमिका को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। नयी कविता आंदोलन में प्रगतिशीलता के प्रमुख हस्ताक्षर के तौर पर उन्होंने काव्य-शिक्षक की भूमिका निभाई है। अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि के बीज-तत्त्व के रूप में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन को चुना था।

इलियट ने कहा था कि परंपरा से जुड़ा रहकर ही कवि वैयक्तिक क्षमता को अधिक सफलतापूर्वक उजागर कर सकता है। मुक्तिबोध ने भी परंपरा का अवगाहन किया था। प्रसिद्ध मराठी गीता 'ज्ञानेश्वरी' की दार्शनिक्ता ने उन्हें प्रभावित किया। मराठी उपन्यासकारों के मानवतावादी विचारों ने उनके अंतर्मन को आलोड़ित किया।[1] उनकी माताजी ने उन्हें प्रेमचंद का भक्त बनाया।[2]जासूसी उपन्यासों ने उनकी तर्क-शक्ति को मांझने का कार्य किया। परन्तु उन्होंने सर्वाधिक प्रसाद को पढ़ा था।

ज्ञात हो कि उनके ठीक पीछे हिंदी कविता की प्रगतिवादी धारा थी, लेकिन फिर भी मुक्तिबोध ने छायावादी कवि प्रसाद की कामायनी को चुना। उनका मानना था कि "काव्य रूप में थीसिस लिखना बहुत बड़ी कला है। संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी ऐसी ही एक थीसिस है, विस्तृत निबंध है। उसमें बौद्धिक दार्शनिक भाव विश्लेषित होकर बारीक-से-बारीक तत्त्वों में विघटित हो जाते हैं, और उन सूक्ष्म तत्त्वों को कल्पना के माध्यम से विशाल से विशालतर बनाया जाता है।"[3]

मुक्तिबोध भी मार्क्सवादी दर्शन को थीसिस रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। गौरतलब है कि प्रसाद ने कामायनी के माध्यम से अपने स्वानुभूत चिंतन को मिथकीय ढांचे में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया था। मुक्तिबोध प्रसाद की इस सफलता से अभिभूत हैं। उन्होंने प्रगतिवादी धारा पर कला के तत्वों की अवहेलना का आरोप लगाया और प्रसाद की चिंतन प्रणाली को सूक्ष्म स्तर पर ग्रहण किया जिससे कि प्रसाद की पूरी काव्य-उत्कृष्टता मुक्तिबोध के अवचेतन का अंग बन गयी।

मुक्तिबोध ने छायावादी कवियों में से सर्वाधिक प्रसाद का अध्ययन किया था। जाहिर है कि उनके साहित्य पर, आलोचनात्मक लेखों पर और सबसे अधिक उनकी रचना-प्रक्रिया पर प्रसाद का प्रभाव पड़ा है। उनके यहाँ “काव्य-परंपरा के प्रतिनिधि-रूप में प्रसाद मौजूद हैं। मुक्तिबोध के लिए मनु प्रसाद का ही प्रतिरूप हैं, इसलिए प्रसाद का उल्लेख करने के लिए मनु का नाम देना काफी है।”[4]

मुक्तिबोध की साहित्यिक समीक्षा में जगह-जगह प्रसाद और उनकी कामायनी का, कामायनीकार द्वारा प्रसूत दर्शन का, दर्शन की काव्य-रूप में परिणति का और काव्य में प्रयुक्त रचना-विधान, फैंटेसी आदि का उल्लेख मिलता है। समीक्षा की समस्याओं पर आलोकपात करते हुए वे प्रसाद की काव्य-प्रतिभा की भूरी-भूरी प्रशंसा भी करते हैं।

प्रसाद के ‘मनु’ की उपस्थिति :

मनु मुक्तिबोध का प्रिय चरित्र है। ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ से लेकर ‘अँधेरे में’ कविता पर्यन्त उन्होंने किसी न किसी रूप में मनु का स्मरण अवश्य किया है। मनु की ओर आकृष्ट होने का सबसे बड़ा कारण प्रसाद की कामायनी रही है। मुक्तिबोध और प्रसाद के मध्य के सम्बन्ध, उस सम्बन्ध से उपजे अंतर्विरोध, उस अंतर्विरोध के बावजूद उपस्थित तीव्र आकर्षण और इस आकर्षण से निष्पन्न तनाव उनकी कविताओं से लेकर उनके लेखों तक सर्वत्र विद्यमान है। इस कार्य-कारण सम्बन्ध को जोड़ने वाली कड़ी मनु है जिसे ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध के व्यक्तित्व के आलोक में देखने का प्रयास किया है।

मुक्तिबोध का अपने पिता के साथ तनावपूर्ण सम्बन्ध रहा। डॉ. रामविलास शर्मा का मानना है कि “प्रगाढ़ प्रेम-सम्बन्ध और हृदयविदारक संघर्ष, दोनों का सह अस्तित्व संभव है।”[5] और चूँकि मानसिक द्वंद्व मुक्तिबोध के व्यक्तित्व के साथ बद्धमूल रहा है [6] इसलिए उनकी कामायनी सम्बन्धी आलोचना पर इसकी छाया पड़ना लाज़मी है। कामायनी पर पुनर्विचार करते समय वे अपने इसी जीवनानुभव को मनु के चरित्र के साथ नत्थी कर देते हैं। मनु के अंतःप्रवृत्ति मंडल पर आलोकपात करते हुए उन्होंने लिखा है -
“वे मंडल साधारण से साधारण शोषक वर्ग के लोगों में भी खूब पाए जाते हैं - चाहे वह गाँव का छोटा सब इंस्पेक्टर हो या एक छोटा जमींदार। इतना तो मैं स्वयं अपने अनुभव से कह सकता हूँ। इन अर्थों में मनु हमारे समाज में बहुत सुलभ है। उसका प्रतिबिम्ब हम शहर, कस्बे और देहात के उस शासक शोषक वर्ग में देख सकते हैं, जो वस्तुतः यह सोचता है कि वह ही समाज का अधिनायक है और वह संचालनकर्ता है।”[7]

मुक्तिबोध के इस निजी अनुभव को अनावृत्त करते हुए आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है -
“मुक्तिबोध ने जिस व्यक्तिगत अनुभव का जिक्र किया है, उसका सम्बन्ध उनके पिता से है। उनके पिता सब इंस्पेक्टर और जमींदार दोनों एक साथ थे। मनु में उनके पिता की दोनों विशेषताएँ मौजूद हैं। पिता के सामान मनु प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध और हृदयविदारक संघर्ष दोनों के आलम्बन हैं।”[8]

स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने अपने निजी जीवनानुभवों को कामायनी पर लादने की चेष्टा की है। सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने स्वयं प्रसाद के व्यक्तित्व को मनु के साथ सम्बद्ध करके देखा है और मनु-समस्या को प्रसाद-समस्या बताया है। उनका मानना है कि यह कथा-काव्य होते हुए भी चरित- काव्य नहीं है। ऐसा ही मूल्यांकन उन्होंने अंधायुग का भी किया है और लिखा है कि उसमें चरित्र के विकास का अवकाश नहीं रहा है।[9] इस प्रकार उन्होंने आलोचना की वस्तुनिष्ठता का आभास उत्पन्न किया है जो उनकी आलोचना-दृष्टि की अपनी समस्या है।

मुक्तिबोध का मन एक दुविधाग्रस्त रचनाकार का मन है। उन्होंने अनेक अवसरों इस 'ऐम्बीवलेन्स' को अभिव्यक्त किया है-
"ऐम्बीवलेन्स के शिकार मैंने काफी लोग देखे हैं। वे एक ही व्यक्ति से तीव्र स्नेह एक साथ करते हैं। उनकी घृणा और स्नेह - दोनों में एक घनिष्टता है। किन्तु यह घनिष्ठता भी इतनी तीव्र होती है कि एक दूसरे के प्रति विराग का छद्मभाव ओढ़ने के लिए मजबूर रहता है।"[10]

'तीसरा क्षण' नामक निबंध का केशव ऐसा ही पात्र है जो वाचक की घृणा और स्नेह दोनों का आलम्बन है। वाचक उससे मन, अवचेतन, सौन्दर्यानुभूति, काव्य की रचना-प्रक्रिया, फैंटेसी जैसे विषयों पर चर्चा करता है परन्तु साथ ही उसके प्रति ऐम्बीवलेन्स का भी भाव रखता है।

"उसका ठंडापन, उसके फलस्वरूप हम दोनों के बीच की दूरी, दूरी का सतत मान, और इस मान के बावजूद हम दोनों का नैकट्य-परस्पर घनिष्ठता और इसके विपरीत, दूरी के उस मान के कारण मेरे मन में केशव के विरुद्ध एक झक मारती हुई खीझ और चिड़चिड़ापन-इन सब बातों से मेरे अंतःकरण में, केशव से मेरे सम्बन्धों की भावना विषम हो गयी थी। सूत्र उलझ गए थे। मैं केशव को न तो पूर्णतः स्वीकृत कर सकता था न उसे अपनी जिन्दगी से हटा सकता था।"[11]

मुक्तिबोध ने प्रसाद को काव्य-पिता के रूप में देखा है। प्रसाद ने जिस तरह से भारतीय ज्ञान-परंपरा का अवगाहन किया था उसी तरह मुक्तिबोध भी ज्ञान की विविध, विशद् व बहुआयामी सारणियों को पार करना चाहते थे। अपनी इस महत्वाकांक्षा के लिए उन्होंने ब्रह्मराक्षस का शिष्य बनना स्वीकार किया जिससे वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि-आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाये।[12]

मुक्तिबोध के यहाँ मनु और ब्रह्मराक्षस वस्तुतः प्रसाद के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित हैं। 'अँधेरे में' कविता इसका उदाहरण है। चूकिं मुक्तिबोध ने बीस वर्षों तक कामायनी का अध्ययन किया था, इसलिए कामायनी का मनु उनके अंतर में पैठता चला गया। वे मनु को गढ़ने की दिशा में प्रवृत्त हुए। मनु कभी रक्तलोकस्नात पुरुष के रूप में, तो कहीं आत्मसंभवा अनिवार परमाभिव्यक्ति के रूप में सामने आता रहता है। उन्हें मनु से भय भी लगता है-
"वह बिठा देता है तुंग शिखर के
खतरनाक, खुरदुरे कगार तट पर।"[13]

ज्ञात हो कि कामायनी में मनु भी हिमगिरि के उतंग शिखर पर बैठे हुए हैं जहाँ से सृष्टि का उदय और विलय दृष्टिगत होता है। इस सम्बन्ध में डॉ. रामविलास शर्मा का कहना है-
"मनु वह सब कुछ है जो मुक्तिबोध हैं और होना चाहते हैं। उनकी परम अभिव्यक्ति में सकर्मक प्रेम की अतिशयता है; मनु में भी सकर्मक साहसशीलता और गत्यात्मकता है; मनु हिमगिरि के उतंग शिखर पर बैठे हैं, 'अँधेरे में' कविता का रहस्यमय व्यक्ति मुक्तिबोध को तुंग शिखर के कगार पर बैठा देता है। इसी व्यक्ति के अनुरूप वह अपना निजत्व गढ़ते हैं।"[14]

प्रसाद के मनु और मुक्तिबोध के मनु की तस्वीर बहुत कुछ मिलती-जुलती है। प्रसाद का मनु ऊर्जस्वित वीर्य और दृढ़ मांसपेशियों वाला है,[15] वहीं मुक्तिबोध का मनु भी तेजस्वी, गौरवर्ण, दीप्तदृग, सौम्यमुख वाला और आजानुबाहु है -
“तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
संभावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
गहन एक संदेह।”[16]

ऐसा ही तेजो प्रभामय व्यक्तित्व प्रसाद के मनु का भी है। श्रद्धा मनु के उज्जवल व्यक्तित्व को अनावृत्त करते हुए प्रश्न करती है -
“कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि
तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप
प्रभा की धारा से अभिषेक?”[17]

मनु और ब्रह्मराक्षस में भी समानता है। मनु की तरह ब्रह्मराक्षस भी तेजस्वी व्यक्तित्व का धनी है। परन्तु साथ ही, वह उस रक्तलोकस्नात पुरुष की तरह भी है जो कभी स्नेही तो कभी अजनबी लगने लगता है -
“उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी-अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरणें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।”[18]

मुक्तिबोध इस रक्तलोकस्नात पुरुष को, जो उनकी समष्टिधर्मी चेतना का मूर्त रूप है, अपना गुरु बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपनी यह इच्छा पद्य से लेकर गद्य तक में व्यक्त की है। ‘अँधेरे में’ कविता में उन्होंने काव्य-नायक को गुरु की संज्ञा दी है-
"वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,
उसका तू शिष्य है(यद्यपि पलातक....)
वह तेरी गुरू है,
गुरू है...."[19]

गौरतलब है कि प्रसाद ने इच्छा, ज्ञान और क्रिया के सामंजस्य को अभीष्ट माना है। कामायनी इसका प्रमाण है। परन्तु ब्रह्मराक्षस का जो चित्र कवि ने उकेरा है वह उसकी अंतर्वृत्तियों की, उसकी ईप्सित ग्रंथि की, इच्छित संवेदनात्मक उद्देश्यों की पड़ताल करता है, न सिर्फ पड़ताल करता है अपितु उसके मुक्ति-संधान पथ को अनावृत्त भी करता है-
“उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
शोध में
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
वह गुरू प्राप्त करने के लिए
भटका!!”[20]

कामायनीकार ने जिस इच्छा, ज्ञान और क्रिया की अन्विति को दर्शाया है, मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस भी उसी तर्कणा, भावप्रणाली और कार्य में एकरूपता में ढला हुआ है। यहां ब्रह्मराक्षस के रूप में प्रसाद का ही अंतर्जगत उपस्थित है जिसे मुक्तिबोध ने गुरु के रूप में स्वीकार किया है।

मुक्तिबोध ने प्रसाद को आत्मचेतस और विश्वचेतस कवि के रूप में स्वीकार किया है। कामायनी पर पुनर्विचार करते हुए उन्होंने प्रसाद को विश्व के महत्तम कलाकार जैसा दर्जा दिया है -
"प्रसादजी में विश्व के महत्तम कलाकार के सभी गुण विद्यमान हैं। .... प्रसादजी की आत्मा जीवन के विविध क्षेत्रों में, जीवन की विविध स्थितियों में, भटकती रहती है, प्यासी-प्यासी। इतनी भटकन, इतना व्यापक पर्यटन, इतनी विस्तृत, विविध और प्रदीर्घ यात्रा - हिंदी में किसी और लेखक ने नहीं की। प्रसादजी एक साथ कवि, दार्शनिक, जीवन-चिंतक, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधलेखक, अनुसंधानकर्ता तथा विद्वान् थे।"[21]

ज्ञात हो कि मुक्तिबोध ने भी कवि के लिए पर्यटन को आवश्यक माना है। तारसप्तक के अपने वक्तव्य में उन्होंने कलाकार के लिए 'माइग्रेशन इंस्टिक्ट' का जिक्र किया है -
"मैं कलाकार की ‘स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति’ (माइग्रेशन इंस्टिक्ट) पर बहुत ज़ोर देता हूँ। आज के वैविध्यमय, उलझन से भरे रंग-बिरंगे जीवन को यदि देखना है, तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एक बार तो उड़कर बाहर जाना ही होगा।।"[22]

यही ‘स्थानन्तरगामी प्रवृत्ति’ उन्हें प्रसाद की परंपरा से जोड़ती है। प्रसाद की चिंतनशीलता और अनुभवसंपन्नता पर आलोकपात करते हुए मुक्तिबोध ने उनके जीवन-ज्ञान के स्रोत और संचार-दिशा के सम्बन्ध में लिखा है -
"उनकी चिंतन प्रधान बुद्धि वर्तमान सामाजिक और ऐतिहासिक वास्तविकताओं में समान रूप से गतिमान थी। वे यदि, एक ओर, गहन रूप से आत्मचेतस थे तो, निःसन्देह दूसरी ओर, विश्व-चेतस भी।"[23]

अपनी 'ब्रह्मराक्षस' कविता में भी उन्होंने ब्रह्मराक्षस के इसी व्यक्तित्व को उद्घाटित किया है -
"आत्मचेतस् किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!"[24]

अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कवि को उसकी विश्वचेतना 'बे-बनाव' क्यों लगती है ? कवि क्यों कहता है कि यदि उन दिनों ब्रह्मराक्षस उसके (कवि के) सान्निध्य में होता तो उसे (ब्रह्मराक्षस को) इतनी विषादाकुलता न सहनी पड़ती।

दरअसल मुक्तिबोध के साथ समस्या यह थी कि वे कामायनीकार के दर्शन पर पुनर्विचार नहीं कर रहे थे अपितु पुनर्विचार की ओट में उस पर अपना दर्शन थोप रहे थे। उनकी अदम्य चिंता यह थी कि "हिंदी के कुछ कवि, जैसे पंत, अथवा रवीन्द्र को, अथवा यूरोप में रोम्यां रोलां और टॉमस मान को, साम्यवाद ने मानव-भविष्य के उज्जवल ऐतिहासिक स्वप्न प्रदान किये। कम-से-कम इनमें से कुछ के हृदय में भविष्य का आलोक प्रसारित हुआ। प्रसाद जी के साथ ऐसा न हो सका।"[25]

चूकिं प्रसाद ने साम्यवाद को अस्वीकारा था। इसलिए मुक्तिबोध इसे भविष्य के आलोकस्वप्न के अभाव में जन्मी ट्रैजेडी[26] के रूप में अभिहित करते हैं। ब्रह्मराक्षस के विषय में भी उन्होंने ऐसा ही कहा है -
"पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!"[27]

ब्रह्मराक्षस भीतरी और बाहरी पाटों के बीच पिस जाता है। ये भीतरी और बाहरी पाट क्या हैं? दरअसल मुक्तिबोध का मानना था कि प्रसादजी ने बाह्य का आभ्यंतरीकरण संवेदनात्मक रूप में किया था और सभ्यता-समीक्षा भी की थी, परन्तु समाधान के लिए उन्होंने आध्यात्मिक और रहस्यवादी निदान चुना। [28]

मुक्तिबोध यहाँ पर अपनी विश्वदृष्टिप्रसूत वस्तुवादी समाधान चाहते है। वे कामायनी की पुनर्रचना में तत्पर दिखाई पड़ते हैं। अपनी साम्यवादी विचारधारा को कामायनी पर थोपकर वे उसके मूल्यांकन की दिशा में प्रवृत्त होते हैं। कामायनी पर पुनर्विचार करते-करते वे उसके कथा-क्रम को ही प्रश्नांकित करने लगते हैं –
"कामायनी की कथा का स्वाभाविक विकास-क्रम तो यह होना चाहिए था कि पश्चात्ताप-दग्ध मनु, शासन-सूत्र पनाह अपने हाथ में लेकर, इड़ा और श्रद्धा की सहायता से भूल सुधरते, काम करते, जान-कल्याण का कार्य अग्रसर करते, ऐसे समाज की स्थापना करते जहाँ पूर्ण समता तथा पूर्ण साम्यावस्था विराजमान है, तथा जहाँ मानव-शक्तियाँ निरंतर उत्कर्ष करती जा रही हैं।"[29]

जाहिर है, मुक्तिबोध का यह कामायनी पर पुनर्विचार क्रमशः आत्मनिष्ठ होता चला गया है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध कामायनी की पुनर्रचना करना चाहते थे। उनके अंतर्जगत में प्रसाद अपनी पूरी कवि-गरिमा के साथ उपस्थित हैं। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी मनु है जो कभी उनकी कविताओं में, उनके मनःलोक में भटकती अनेक छायाओं में मूर्तिमान होता रहता है। चूकिं मुक्तिबोध भी प्रसाद की तरह ही अपने निजी दर्शन को काव्य-रूप में परिणत करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आदर्श रूप में प्रसाद को स्वीकार किया।

दिनकर की 'उर्वशी' में काव्य और दर्शन का अन्तर्गुम्फन :

आलोचना की वस्तुनिष्ठता की रक्षा के लिए, उसकी निरापद व्यवस्था के लिए मुक्तिबोध ने बाहर से भीतर और पुनः भीतर से बाहर के अवगाहन की प्रक्रिया को आवश्यक माना है। ‘दिनकर की उर्वशी’ शीर्षक से कल्पना पत्रिका के सन् 1963 के अंक में भगवतशरण उपाध्याय का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने साहित्येतर प्रतिमानों के आधार पर उर्वशी की कटु आलोचना की थी। रूप, शब्द, तथ्य, चरित्र-चित्रण और कथानक के आधार पर उन्होंने उर्वशी को अधिकतर दर्शन का प्रदर्शन व उच्छिष्टवमन करार दिया है। दर्शन-सम्बन्धी कालविरुद्धदोष को उद्घाटित करते हुए उन्होंने बताया है कि उर्वशी-पुरुरवा के ऋग्वैदिक आख्यान में अद्वैत,द्वैत , मायावाद , आत्मा-परमात्मा की संकल्पना का विकास नहीं हुआ था जैसा रूप हमें अभी प्राप्त होता है अथवा जैसी दर्शन-गोष्ठी व लफ्फाज़ी दिनकर ने दिखाई है। कुलमिलाकर ‘उर्वशी’ की प्रभावकारिता के सम्बन्ध में आलोचक का मानना है कि “अज्ञानियों के ऊपर संभवतः इससे कुछ प्रभाव पड़ जाये पर जो दर्शन और साहित्य को जानने वाले हैं, उनके लिए तो उर्वशी अत्यंत भोंडा और फूहड़ तत्वबोध, तत्वबोध अगर वह है, प्रस्तुत करती है।”[30]

मुक्तिबोध ने ‘उर्वशी : दर्शन और काव्य’ में भगवतशरण उपाध्याय के विनिबंध की गहन आलोचना प्रस्तुत की है। इस क्रम में कुछ ऐसे तत्व निष्पन्न हुए हैं जो सिर्फ मुक्तिबोध की आलोचना-प्रक्रिया को ही नहीं अपितु उनकी रचना-प्रक्रिया के आत्मन को भी प्रतिभाषित करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि मुक्तिबोध ने कामायनी को एक विशाल फैंटेसी के रूप में देखा है। उनका यह मानना है कि काव्य की रचना-प्रक्रिया के दौरान आभ्यन्तरीकृत तमाम तत्व कथारूप में तभी परिणत हो सकते हैं अथवा कवि –मानस में क्रियमाण रचना-प्रक्रिया में तभी प्रविष्ट हो सकते हैं जब उनमें कवि की आत्म-वृत्तियों को धारण करने का अवकाश रिक्त हदिनकर’ की ‘उर्वशी’ पर लिखते समय इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय ने काव्य और दर्शन पर अपने विचार व्यक्त किये। उनका मानना था कि चूँकि “साहित्य दर्शन से भिन्न रस द्वारा अभिव्यंजित रचना-विधा है। दर्शन उसमें रसभंग उत्पन्न करता है। मुझे लगता है कि काव्य यदि दर्शन के कारन विशिष्ट है, तो निश्चित ही उसका काव्यत्व निकृष्ट है, वैसे ही यदि दार्शनिक कृति अपने काव्यगुण के कारणविशेष प्रशंसित है तो निश्चय ही उसका दर्शन निकृष्ट है।“[31]

जाहिर है, भगवतशरण उपाध्याय ने काव्य और दर्शन को दो अलग-अलग विभागों में परिगणित किया है। परन्तु मुक्तिबोध की दृष्टि में ऐसा नहीं है। उन्होंने कवि के लिए दर्शन को अनिवार्य माना है। दर्शन का इस्तेमाल कवि अपने औचित्य की स्थापना एवं आत्मविस्तार के लिए करता है।

यहाँ कामायनी का स्मरण अवश्यंभावी है। श्रद्धा भी अपने विचारों से मनु को आत्मचेतस से विश्वचेतस होने का मन्त्र देती है-
"औरों को हँसता देखो
मनु-हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो
सब को सुखी बनाओ।"[32]

परन्तु हम देखते हैं कि भगवतशरण उपाध्याय काव्य और दर्शन के इस अन्तर्गुम्फन के कायल न थे। इसलिए उन्होंने कामायनी की दार्शनिक योजना पर आक्षेप किया-
"दर्शन की ही तथाकथित विशिष्टता प्रसाद की 'कामायनी' का मानदंड बन गयी है; उसके दर्शन की ही अधिक, काव्य की कम, चर्चा हुआ करती है। 'कामायनी' काव्य की दृष्टि से घटिया कृति है, और जहाँ तक दर्शन की बात है, मुझे एंगेल्स की बात दुहरानी पड़ेगी। वैसे, दर्शन पढ़ने के लिए 'कामायनी' की अपेक्षा दर्शन की दिशा में सर्वथा शून्य व्यक्ति ही करेंगे।"[33]

उर्वशी के आलोचना-क्रम में मुक्तिबोध ने इस टिप्पणी को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण कहते हुए कामायनी की महत्ता स्थापित की है-
“कामायनी अपनी काव्यात्मकता के लिए, जीवन-समस्याओं के काव्यात्मक चित्रण के लिए, हमेशा प्रसिद्ध रहेगी। उसमें उत्कृष्ट काव्यात्मकता है। उसका दर्शन जीवन-समस्याओं पर अनवरत चिंतन के फलस्वरूप है। अतएव वह जीवन समस्याओं के निराकरण के रूप में प्रस्तुत हुआ है। उस दर्शन में, उस दर्शन के चित्रण में, कोई दोष नहीं है। उसमे आडम्बर नहीं है। उसमे दार्शनिक दम्भ नहीं है। और बहुत से स्थानों पर आधुनिक सभ्यता की कुछ मूल विषमताओं पर कठोर और प्रखर काव्यात्मक आक्रमण है। संक्षेप में, प्रसाद की दार्शनिक अनुभूति उनकी भावना के नेत्र हैं।“[34]

‘भावना के नेत्र’ कहने का तात्पर्य यह है कि प्रसाद जी के कल्पना-विधान अथवा स्वप्नशैली का प्राणतत्त्व उनका दर्शन है जिसके माध्यम से जीवन-समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है। गौरतलब है कि मक्तिबोध का भी मानना है कि बिना दार्शनिक ज्ञान व्यवस्था के फैंटेसी आकार ग्रहण नहीं कर सकती।

उपरोक्त अनुशीलन के आधार पर मुक्तिबोध के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जिस तरह “फैंटेसी उनके लिए अभिव्यंजना का माध्यम मात्र नहीं है, जिसे वह चाहे अपनाएँ, चाहे छोड़ दें”[35] ठीक उसी प्रकार “उनके लिए मार्क्सवाद एक ऐसी विचारधारा न था जिसे वह आसानी से स्वीकार कर लेते और असुविधा होने पर उतार कर फ़ेंक देते।उनके लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न था।“[36] दर्शन और काव्यत्व के प्रति उनका यह लगाव प्रसाद का प्रभाव है जो उनके इस आलोचनात्मक लेख में भी प्रकट हुआ है।

‘अंधायुग’ : एक छायावादी शिल्प?

धर्मवीर भारती विरचित 'अंधायुग ' का प्रकाशन 1954 ई० में हुआ था। यह एक गीतिनाट्य है जिसमें महाभारत के अंतिम दिन के युद्ध की संध्या से लेकर कृष्ण की मृत्यु तक के समय को आधार बनाकर युद्धोत्तरकालीन परिस्थितिजनित नीरसता एवं पराजयजन्य कुंठा, हिंसा, नृंशसता, रक्ताप्लावन एवं ह्रासोन्मुख मनोवृत्ति आदि पतनशील व व्यपोहित होते नैतिक मूल्यों को प्रस्तुत किया गया है।

कवि ने सभ्यता और समाज में पैठती नैतिक मूल्यों की गिरावट का धागा वैयक्तिक मन से टोते हुए राज्य और व्यवस्था की धुरी में पकड़ा है और साथ ही पुनः उसी रास्ते बाह्य से अंतर के अवगाहन का उपक्रम किया है। अंधायुग की रचना-प्रक्रिया पर आलोकपात करते हुए धर्मवीर भारती ने इसकी भूमिका में लिखा है -“इस कृति का पूरा जटिल वितान जब मेरे अंतर में उभरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा।”[37]

परन्तु कवि का दृढ़ विश्वास था कि वह इस भीषण समय में भी, जब धर्म, नैतिकता और संस्कृति पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहा है, आस्था, सत्य और मर्यादा के कुछ कण मानवता की रक्षा और जिजीविषा बनाये रखने में अवश्य सफल होंगे। क्रांति और युयुत्सा पिपासु विचारधाराएं जब भविष्य की वेदी पर सबकुछ चढ़ाने के लिए आतुर हों, तब मानवता की रक्षा के लिए धर्म-विवेक अपरिहार्य हो उठता है। कठिन समय में भी जीवन और मानवता के प्रति कवि का अटूट विश्वास, भले ही वह मर्यादा की पतली-सी डोर सदृश ही क्यों न हो, उसे काव्य-सृजन की प्रेरणा देता है-
“पर एक तत्त्व है बीजरूप स्थित मन में
साहस में स्वंत्रता में नूतन सर्जन में
वह है निरपेक्ष उतरता है पर जीवन में
दायित्वयुक्त मर्यादित मुक्त आचरण में
उतना जो अंश हमारे मन का है
वह अर्द्धसत्य से ब्रह्मास्त्रों के भय से
मानव भविष्य को हरदम रहे बचाता
अंधे संशय, दासता, पराजय से।”[38]

मुक्तिबोध की ‘अंधायुग : एक समीक्षा’ वसुधा पत्रिका के दिसम्बर 1958 के अंक में प्रकाशित हुई थी जिसका बाद में ‘समीक्षा की समस्यायें ‘ पुस्तक में संकलन किया गया। इस विनिबंध में मुक्तिबोध ने स्वीकार किया है कि वैयक्तिक नैतिकता और उसकी व्यावहारिकी तथा सामाजिक परिवेश में उसकी परिणति के बीच की गहराई को अंधायुग फैंटेसी के द्वारा प्रस्तुत करता है। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के प्रति सकारात्मक रुख अपनाया है। एक तरफ जहाँ उन्होंने सामाजिक परिवेश में परिवर्तन को अभीष्ट माना वहीं युगीन सामाजिक ह्रास की वास्तविकता को भी स्वीकार किया।अपने विनिबंध में उन्होंने इस कृति को युग की ह्रासोन्मुखता को फैंटेसी के माध्यम से प्रस्तुत करने वाली रचना कहा।

मुक्तिबोध ने कामायनी और उर्वशी की तरह ही अंधायुग को भी आत्मपरक काव्य घोषित किया है। उनका मानना है कि चूँकि “अंधायुग उस ढंग से चरित्र-प्रधान नहीं है, जैसे कि अन्य नाटक हुआ करते हैं। उसमें चरित्र का कोई विकास नहीं है, वे बने-बनाये हैं। उनका महत्व और मूल्य यही है कि वे लेखक के भाव, विचार और भाषा बोलते हैं.......। लेखक द्वारा यथार्थ के आकलन के वे विभिन्न प्रतीक हैं; उसकी दृष्टि और वाणी प्रकट करने के साधन हैं। इस दृष्टि से, यह दृश्य काव्य आत्मपरक है, ‘सब्जेक्टिव’ है।“[39]

मुक्तिबोध की आलोचना प्रक्रिया की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह कवि या लेखक की रचना को उसके जीवन-उद्देश्य या व्यक्तिगत अथवा वैयक्तिक लिप्सा से सम्बद्ध करके उसका मूल्यांकन करते हैं। इस क्रम में वे यह भूल जाते है कि कवि के सम्बन्ध में टिप्पणी करने से पूर्व उस वितान का परिवृत्त भी जान लेना उचित है जो जीवन-विवेक के रूप में कवि के संपूर्ण रचनालोक को आलोकित कर रहा है। विश्लेषण की यह प्रविधि तब और अधिक अपरिहार्य हो जाती है जब कवि के पूरे प्रत्यय-चिंतन का ढांचा निर्मित करने का प्रयास किया जाता है, वह भी अपनी विचारधारात्मक शर्तों के आधार पर। ऐसी स्थिति में आलोचना-प्रक्रिया का आत्मनिष्ठ पक्ष खुलकर सामने आ जाता है।

मुक्तिबोध की दूसरी आपत्ति यह है कि अंधायुग नैराश्य को प्रश्रय देता है। उन्होंने फैंटेसी के बखूबी अनुप्रयोग को भी रेखांकित किया है। उन्होंने धर्मवीर भारती की कलात्मक प्रतिभा को पहचाना है स्वयं उनके जैसे प्रगतिशील कवियों के लिए भी अत्यंत श्रमसाध्य अथवा दुर्लभ है। वे लिखते हैं-
“इस मनोवैज्ञानिक केंद्र से विकसित यह फैंटेसी समाज की जिन विशेषताओं को प्रकट करती है, वे विशेषताएं महत्त्वपूर्ण होने के कारण फैंटेसी और भी महत्त्वपूर्ण हो उठी है। उसका भावनात्मक आघात अचूक हो गया है। दूसरे शब्दों में, भावना की राइफल से विचारों के कारतूस कौंधकर निकल पड़े हैं। इस फैंटेसी की यह सफलता द्रष्टव्य, विचारणीय और मूल्यवान है।”[40]

इस तरह मुक्तिबोध घोषित करते हैं कि श्री भारती का अंतरंग छायावादी है।

गौरतलब है कि मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'अँधेरे में ' शिशु के फूलों और फिर कारतूस में बदल जाने की घटना का उल्लेख किया है -
“बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,
छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-सा आकाश
स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल
किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव
भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं
चला जा रहा हूँ
घुसता ही जाता हूँ फ़ासलों की खोहों तहों में ।”[41]

यह शिशु उस आदिम बोध का प्रतीक है जिसका निर्माण सामूहिक अवचेतन द्वारा हुआ है और जो कवि के अवचेतन में चिरकाल से विद्यमान है। इसीलिए तो कवि को उस शिशु का स्वर पहचाना हुआ लगता है -
“सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु
अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,”[42]

कवि को शिशु का यह साथ सम्बल देता है। रक्ताप्लावित तालाब कवि के अवचेतन मन का द्योतक है जहाँ संकल्प की आशा अभी भी जीवित है, आलोकमान है और कवि का पथ-प्रदर्शन कर रही है-
“डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में--
हृदय के थाले में रक्त का तालाब,
रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,
रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,
अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,
और ये संकल्प
चलते हैं साथ-साथ।
अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।”[43]

अचानक कवि देखता है कि वह शिशु गायब हो गया है और उसकी जगह सूर्यमुखी के फूलों का गुच्छा आ गया है। सूर्यमुखी के फूलों का यह गुच्छा कवि के अंतर्मन में गहरे तक पैठी कोमलतम भावनाओं का मूर्तिमान रूप है-
“इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा
कन्धे पर कुछ नहीं!!
वह शिशु
चला गया जाने कहाँ,
और अब उसके ही स्थान पर
मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।
उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण
कन्धों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,
रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।
भई वाह, यह खूब!!”[44]

सूर्यमुखी के फूलों का यह गुच्छा सहसा बन्दूक में बदल जाता है। कवि की भावनाओं की तीव्रता और उसके उच्छृंखल प्रवाह को थाम पाने में ये बन्दूक अक्षम है। इसलिए अब ये बन्दूक वज़नदार रॉयफ़ल में तब्दील हो जाती है। अब मुक्तिबोध के भीतर की जो क्रांतिकारी भावना है, विचारोत्तेजकता है, वह वज़नदार रॉयफ़ल के माध्यम से फायर की जाती है-
“इतने गली एक आ गयी और मैं
दरवाज़ा खुला हुआ देखता।
ज़ीना है अँधेरा।
कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!
मैं बढ़ रहा हूँ
कन्धों पर फूलों के लम्बे वे गुच्छे
क्या हुए, कहाँ गये?
कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा।
ओ हो,
बन्दूक आ गयी
वाह वा...!!
वज़नदार रॉयफ़ल
भई खूब!!”[45]

इस प्रकार हम देखते हैं कि मुक्तिबोध भी धर्मवीर भारती की तरह भावना की राइफल से विचारों के कारतूस दाग़ते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि धर्मवीर भारती की तरह ही मुक्तिबोध का अंतरंग भी छायावाद के प्रति सम्मोहित है।

अंततः यह कहा जा सकता है कि धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' की समीक्षा के लिए मुक्तिबोध ने जिस पद्धति का इस्तेमाल किया है वह कामायनी की आलोचना से भिन्न नहीं है। और तो और, मुक्तिबोध ने धर्मवीर भारती पर छायावाद से प्रभावित होने का आरोप लगाया है जबकि स्वयं मुक्तिबोध अपनी सुप्रसिद्ध कविता 'अँधेरे में' में वही छायावादी भाववादी कल्पनाप्रवण स्वप्नशैली का प्रयोग करते हैं जो उनपर प्रसाद के प्रभाव का सूचक है जिसे उन्होंने ‘कामायनी के बीस वर्षों के गहन अध्ययन’ से अर्जित किया है।

संदर्भ-ग्रंथ सूची :

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  3. वही, पृष्ठ संख्या: 147।
  4. शर्मा, डॉ. रामविलास. (2014). नयी कविता और अस्तित्ववाद. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. (पृष्ठ: 187)
  5. वही, पृष्ठ संख्या: 182।
  6. अज्ञेय, स. ही. वा.(सं.). (2003). तारसप्तक. (आठवां संस्करण). नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. (पृष्ठ : 22)
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  8. शर्मा, डॉ. रामविलास. (2014). नयी कविता और अस्तित्ववाद. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. (पृष्ठ: 183)
  9. मुक्तिबोध, गजानन माधव. (1982). “अंधायुग उस ढंग से चरित्र-प्रधान नहीं है, जैसे कि अन्य नाटक हुआ करते हैं। उसमें चरित्र का कोई विकास नहीं है, वे बने-बनाये हैं।उनका महत्व और मूल्य यही है कि वे लेखक के भाव, विचार और भाषा बोलते हैं....।”, समीक्षा की समस्याएँ. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. (पृष्ठ: 115)
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  11. वही, पृष्ठ संख्या: 15।
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  20. मुक्तिबोध, गजानन माधव. (1979). चाँद का मुँह टेढ़ा है. (षष्ठ संस्करण). नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. (पृष्ठ: 12)
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  22. अज्ञेय, स. ही. वा.(सं.). (2003). तारसप्तक. (आठवां संस्करण). नई दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. (पृष्ठ : 22)
  23. मुक्तिबोध, गजानन माधव. (2012). कामायनी : एक पुनर्विचार. (छठी आवृत्ति). नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. (पृष्ठ: 147)
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  29. वही, पृष्ठ संख्या -152।
  30. वर्तमान साहित्य, दुर्लभ साहित्य विशेषांक, अक्टूबर-नवम्बर 2014, संपादक- विभूति नारायण राय, पृष्ठ संख्या- 89।
  31. वही।
  32. चौधरी डॉ. लालसिंह (सं.). (2012). प्रसाद ग्रंथावली खण्ड एक. दिल्ली: भारत प्रकाशन. (पृष्ठ: 349)
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  40. मुक्तिबोध गजानन माधव समीक्षा की समस्याएँ, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 1982. (पृष्ठ.135)
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अक्षय भास्कर बाजपेयी, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। ई-मेल: akshaybajpei2015@gmail.com