Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

गांधी और ८० के बाद की गुजराती कहानी

आज हम बात करने जा रहें है गांधी और ’८० के बाद की गुजराती कहानी की । मैं याद करना चाहती हूँ वह दिन, सन १९२३ के २ अप्रैल का दिन । छठी गुजराती साहित्य परिषद में गांधीजीने कहा था ‘साहित्य सेवक की पुस्तक यदि मुजे उबाती है तो उसमें मेरी जड़ता का दोष नहीं, दोष है उसकी कला का । शक्तिवान साहित्य सेवक को इस प्रकार अपनी कला को विकसित करना चाहिए कि पढ़नेवाला उसके पठन में लीन हो जाये । मुझे अफसोस है कि हमारे साहित्य में ऐसा कम है.... तमिल भाषा में रहँट चलाने वालों के लिए जो काव्य है, उनमें कवित्व है, वे अलौकिक हैं । हमारे रहँट चलाने वालों के मुँह में बीभत्स शब्द थे । ऐसा क्यों ? साहित्य के सेवकों से मैं पूछता हूँ कि प्रजा का अधिकांश कैसा है और उन लोगों के लिये आप क्या लिखेंगे ?’ ‘कादम्बरी’ के स्थान पर गांधीजी तुलसीदास का ‘रामचरित मानस’ चाहतें हैं । मजदूर, रहँट चलाने वाले और ऐसे अन्य लोगों के लिए साहित्य लिखा जाना चाहिए ऐसी गांधीजी की इच्छा है । सन १९२३ में गांधीजी ने जो चाहा था उसमें दो बातें प्रमुख थी । भाषा की सादगी और हाशिये में ढकेले गये, उपेक्षित प्रजा समूह की समस्याओं का साहित्य में प्रवेश । यदि अपने समय की समस्याओं को लेखक वाचा नहीं देगा तो कौन देगा ? वैसे गांधी युगीन साहित्य में गांधी भावना संतुष्ट हो ऐसा साहित्य रचा भी गया । जीवन के लिए कला में मानने वाले गांधी को अभिष्ट मूल्य भी इस समय के साहित्य में नजर आतें है । परन्तु हम जानतें हैं कि गांधीजी की उपस्थिति में ही गांधी मूल्य अदृश्य होने लगे थे । सत्य, प्रमाणिकता, सर्व धर्म सदभाव तथा न्याय के लिए सरोकार समाप्त होने लगा था । इधर गांधी की उपस्थिति में ही साहित्य भी परिवर्तित होने लगा था । ५०-५५ के बाद तो आधुनिकता के व्यामोह में साम्प्रत समस्या को लेकर साहित्य सृजन प्राय: बंध हो गया था ।भाषा की सादगी विस्मृत हो गई थी । लगभग १९८० तक के साहित्य की प्राय: तमाम विधाओं में आम आदमी अथवा उसकी समस्याओं का कहीं कोई प्रवेश ही नहीं था । १९८० के बाद साहित्य में जो गौरतलब मोड़ आया है, वह गांधी के कारण आया है ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । हाँ, इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ’८० के बाद का साहित्य गांघी चाहते थे उस दिशा में आगे बढा जरूर ।

वैसे भी १९८० के बाद का कालखंड अनेक रूप में संकुल और विकट था । दो-दो आरक्षण आंदोलनों ने गुजरात के समाज जीवन को झंझोड़ दिया था । रामजन्म भूमि का आन्दोलन और फिर बाबरी ध्वंस ने समाज जीवन को चिंदी चिंदी कर दिया था । २००२ के घटना क्रम ने गुजरात के नगर और ग्राम जीवन को तार तार कर दिया था । ९१-९२ में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण की नीति के चलते बढ़ते औद्योगिकरण और वैश्विकरण ने गाँवों को ख़त्म कर दिया । शहर चारों ओर ऑक्टोपस की तरह फैलने लगे । धर्म सत्ता और राज्य सत्ता की मिली भगत के परिणाम भी सामाजिक ढांचों को ही झेलने पड़े । इन तमाम परिस्थितियों का प्रतिघोष ’८० के बाद की गुजराती कहानी में सुनाई देता है । गांधीजी शुद्ध अर्थ में जीवन अभिमुख साहित्य के हिमायती थे । मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि ’८० के बाद की गुजराती कहानी ने कला और जीवन के बीच अपूर्व संतुलन सिद्ध किया है और अपने समय के प्रति उत्तरदायित्व भी निभाया है । इस समय के कहानीकारों ने साहित्य जगत में चर्चित दलित विमर्श, स्त्री विमर्श को बड़ी गहेराई से समझा है इतना ही नहीं, इस विशिष्ट कालखंड की संकुलता को, प्राकृतिक और मानव सर्जित आपत्तियों के कारण प्रजा की बदली हुई मानसिकता को सृजनात्मक स्तर पर आलेखित किया है ।

इस दौर की सब से महत्त्वपूर्ण कहानीकार हिमांशी शेलत लिखतीं हैं : ‘समजने में अतिशय व्यायाम करना पड़े और इसके बावजूद पढने में दिलचस्पी न रहे तो कहानी और कहानीकार दोनों को बड़ा नुकसान ! भाषावैभव का मेद हटाकर संवेदन सीधे आरपार पहुँचे, पात्र और उनकी भाषा परिचित तथा अपनी लगे और उसके साथ कलात्मक परितोष भी मिले ऐसी कहानी रचने की मेरी कोशिश थी ।’ हम कह सकतें है कि गांधी ऐसा ही कुछ चाहते थे । ’८० के बाद की गुजराती कहानी प्राय: इसी रास्ते पर चली है ।

१९८० के बाद की गुजराती कहानी को यदि हमें गांधी के साथ ज़ोडना हो तो कुछ मुद्दों से बात शुरु करनी होगी ।

  1. गांधीजी पूरी जिन्दगी अस्पृश्यता निवारण के लिए कोशिश करते रहे, किन्तु वे जैसा चाहते थे, एसा परिणाम उनकी हाजरी में भी नहीं मिला था। ’८० के बाद की कुछ कहानियाँ इस बात का प्रमाण है कि कानून बनाने के बावजूद आज भी गांधी का ये सपना अधूरा ही है ।
  2. गांधीजी सर्वधर्मसमभाव की बात करते रहे, सत्य, प्रमाणिकता, समानता के लिये झूझते रहे । सत्याग्रह और अहिंसा की ताकत दुनिया को दिखाने वाला वह महामानव घर आँगन के कौमी दंगो में हुई कत्लेआम के आगे लाचार हो गया था । इस परिप्रेक्ष्य में ’८० के बाद की कई कहानियों की चर्चा हो सकती है ।
  3. प्रभात फेरी तथा सत्याग्रह के निमित्त गांधीजी ने स्त्रियों को घर की चार दीवारी से मुक्त करवाया । नारी वादी आंदोलनो से पहले गांधी स्त्री जागृति का काम कर चूके थे । कुछ कहानियों में तो गांधी वांछित स्त्री स्वातन्त्र से भी आगे का मुकाम है । स्त्रियों के अहिंसक विरोध तथा विद्रोह की अनेक कहानियाँ मिलती हैं ।
  4. गांधीजी ने स्वदेशी की हिमायत की थी और बडे उद्योगों का विरोध किया था । किन्तु हमारी विकास की अवधारणा बिलकुल उलटी दिशा में चली । फलस्वरूप क्या हुआ उसकी बात गुजराती कहानीकारों ने अनेक ढंग से की है ।
  5. गांधीजी ने आश्रम बनाकर सहजीवन तथा समूहजीवन की शिक्षा दी, अपना स्वार्थ छोड़कर शक्तिहीनों को, लघुमति को आश्वस्त करने की भावना आश्रम जीवन की बुनियाद में थी । अनेक परिस्थितियों के कारण साम्प्रत काल में सहजीवन और समूह जीवन दोनों क्षत-विक्षत गये है उसकी बात ’८० की कई कहानियों में है ।
  6. गांधीजी ने बुनियादी शिक्षा, स्वाश्रय और श्रम की बात कही थी, आज शिक्षा की जो दुर्दशा है उसकी बात ’८० के बाद की कहानियों में है ।
  7. मुख्य धारा से अलग, हाशिये में ढकेल दिये गये वंचितों की बात करते हुए गुजराती कहानीकार ने गांधी मूल्यों के अवमूल्यन की भी बात की है ।

गांधीजी ने अस्पृश्यता को समाज का कलंक कहा था । परन्तु आश्चर्य है कि यह पीड़ा ’८० के बाद जाकर कहानी के रूप में प्रकट हुई । दलितों की पीड़ा, शोषण, संघर्ष की बातें मोहन परमार, दलपत चौहान, हरीश मंगलम्, दशरथ परमार, घरमाभाई श्रीमाळी जैसे दलित कहानीकारों में संयत स्वर में कलात्मक रूप से आई है । कुछ अदलित सर्जकों द्वारा भी दलित चेतना चित्रित हुई है । ज़माना बदला, शिक्षा का प्रमाण बढ़ा, कानून बने इन सब के कारण दलितों का प्रत्यक्ष शोषण रूका, किन्तु छुआछुत या शोषण को लेकर क्या वाकई सवर्ण सुधर गये है ? गांधीजी की बात को सवर्णो ने तब भी नहीं माना था और आज भी नहीं मानते है इसका प्रमाण है ये कहानियाँ । हरीश मंगलम् की ‘दायी’(दायण) कहानी में सवर्णो के दोहरे मानदण्ड दिखाई देते है । कल्पेश पटेल की ‘रीत’ कहानी समय के साथ बदलने वाले दोहरे मानदण्ड की बात करती है । शहर में छुआछुत नहीं मानने वाले जब गाँव जाते है तब गाँव की रीत अनुसार छुआछुत में मानने लगते है । कानून तथा आरक्षण की नीति के कारण बेमन से दलित को सरपंच बनाने वाले गाँव के मुख़िया असली सत्ता तो अपने हाथ में ही रखते है यह बात कल्पेश पटेल की ‘खमु सरपंच’, संजय चौहान की ‘बरामदा’(वरंडो) तथा माय डियर जयु की ‘मोटुं माथुं’ में प्रभावक ढंग से कही गई है । सदियों से शोषित स्त्री को भी मान लो कानून के दबाव में सरपंच बनाना पडता है तब भी सत्ता तो उसके घर के पुरुष ही भोगते है । लेकिन कल्पेश पटेल की ‘हस्ताक्षर’ (सही) कहानी की नायिका गांधी मार्ग पर चलकर, दाम्पत्य जीवन को दाव पर लगाकर दाम्पत्य जीवन को दाव पर लगाकर भी सत्य के पक्ष में रहती है ।

अपने घर का सपना अथवा उसे पाने की दौड़धूप वैसे सबकी समान ही होती है लेकिन अक़्सर कुछ लोगों के लिये उनके जाति, नाम, धर्म अवरोध बनते है । घरमाभाई श्रीमाळी की ‘प्रवेशद्वार’ कहानी में शिक्षित अफ़सर को नहीं पहचानने वाला दलाल कहता है, ‘सर, आप कोई भी चींता मत कीजिए । हम यहाँ बीसी लोगों को मकान नहीं देते, मुसलमान को भी नहीं, इसलिए आप आस-पड़ोस को लेकर निश्चिंत रहीये । यहां सब ऊँची जात के लोगों का ही बुकिंग होता है ।’ ऐसे में उस दलित, शिक्षित अफ़सर की क्या स्थिति होगी ? मान लो ‘पंड्या’ सरनेम देख कर गलती से किसी दलित को सवर्णो की सोसायटी में मकान मिल भी जाए, लेकिन जब उसके दलित होने का पता चले तब समूची सोसायटी उस दलित परिवार को किस हद तक खदेड़ने पर आमादा हो जाती है उसका ह्रदयद्रावक वर्णन हर्षद त्रिवेदी की ‘कमल पूजा’ कहानी में आलेखित किया गया है । योगेश जोशी की ‘ब...ड़ी दूर नगरी’ या माय डीयर जयु की ‘प्रवेश’ जैसी कहानियाँ समजाती है कि जो समाज गांधी के मूल्य और विचारों के साथ उनकी उपस्थिति में थोड़ा बहुत सहमत था, उस समाज ने अब तो गांधी मूल्यों से एकदम ही नाता तोड़ लिया है ।

गांधीजी सर्वधर्मसमभाव की बात करते थे, दलित और मुसलमान को आश्रमवासी बनाते थे, आन्तर जातीय और आन्तर धर्मीय विवाह को प्रोत्साहन देते थे । हिंसा से पारावार दुख़ी होते थे । गांधीजी की इच्छा के मुताबिक समाज या स्वराज का निर्माण हम नहीं कर पाए है, समरसता या सद्भावना की बातें केवल कागज़ी कारवाई बन कर रह गई है यह बात ’८० के बाद की कहानी करती है । कौमी वैमनस्य की आग बुझाने के लिए अपने प्राण दाव पर लगाने वाले गांधी के गुजरात में कितने कौमी दंगे हुए? ’८० के पहले भी और बाद में भी । लेकिन उसके सामने आक्रोश प्रकट करने वाली कहानियाँ ’८० के बाद ही लिखी गई है ये भी एक ठोस हक़ीक़त है । यहाँ ऐसी कितनी कहानियाँ मिलेगी जिनमें गांधी मूल्यों का अवमूल्यन दिखाई पडेगा । ये कहानीकार उन्ही गांधी मूल्यों को याद कर रहे है जो कभी थे और अब नहीं है ।

गांधीजी ने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिये कितने प्रयास किये ? परन्तु आज के दौर में कौमी दंगे और उसके परिणाम स्वरूप घेटोनाईझेशन की समस्या रोजमर्रा की हो गई है । दलपत चौहान की ‘अगर ट्रक नहीं चलेगा तो ?’ घेटोनाईझेशन की बात करती है तो कंदर्प देसाई की ‘माटी की जड़ें’ में जड़ों के उख़डने की पीड़ा व्यक्त हुई है । आम आदमी के लिए मंदिर और मस्जिद में कोई भेद नहीं, परन्तु तथाकथित घर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर जो नफ़रत फैलाते है उसका प्रभावक आलेख़न मोहन परमार की ‘सिवान’ (भागोळ) कहानी में हुआ है । घार्मिक आश्रम किस प्रकार आर्थिक शोषण के केन्द्र बन गये, ज़मीन, खेत, कुँए, और बावडी सब कुछ इन लोगों ने किस हद तक हथिया लिया है उसकी बात अजित ठाकोर ने ‘खिजड़ीया दादा’ में संजीदग़ी से की है, तो इसी बात को नर्म मर्म द्वारा महेन्द्र सिंह परमार ने ‘आई. एस. आई. का हाथ’ कहानी में कही है । २००२ के बाद का तार तार हुआ समाजजीवन, द्वेश और अविश्वास से भरे माहौल को रवीन्द्र पारेख की ‘चेइन’, मिनल दवे की ‘ओथार’, शिरीष पंचाल की ‘वेर-अवेर’ उजागर करती है ।

ज्ञान, विद्वत्ता, समजदारी और संवेदनशीलता हुजूम के सामने किस हद तक बेकार हो जाते है ये हिमांशी शेलत की ‘आज रात’ तथा महेन्द्र सिंह परमार की ‘इन्टेलेक्च्यूअल इन्दूभाई’ कहानी समजाती है । चारों ओर भीड़ की मानसिकता हो और अपने विद्यार्थी या अपनी सन्तान भी हिंसा को उचित ठहराए तो वह शिक्षक और वह माँ क्या करें ? ‘आज रात’ की नायिका हिंसा नहीं झेल पाने के कारण आत्महत्या करती है । इन्दूभाई सयानेपन के संसार से इस्तीफा दे देते है । ‘लाल पानी’ कहानी में किसी का ख़ून हो रहा हो और भीड़ तमाशबीन बनकर निष्क्रिय ख़ड़ी रहे ऐसे सामूहिक कायरता के दृश्य गांधी के समय में जो सामूहिक विरोध होता था उसके ठीक विपरित छोर के है ।

घुटन भ़री परिस्थिति, लोकतांत्रिक मूल्यों का लगातार अवमूल्यन, बढ़ती जाती भेड़ियाधसान, अगम राजकीय दबाव, भिन्न विचारों का बन्दूक से होता फैसला, व्यक्ति पूजा में अंध बनी प्रजा... ऐसे माहोल में भी कईं लोग है जो सत्य के लिए संघर्ष करते है, आर. टी. आई. कर के खप जाते है, पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए ख़ुद को जोख़िम में डालतें हैं...एक कलबूर्गी या दाभोलकर जाते है तो गौरी लंकेश जैसे कई लोग अन्याय के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ को खामोश नहीं होने देते । एक गोली से होते फैसले के बाद भी कई लोग सत्य पर पड़े परदे को हटाने की कोशिश कर रहें हैं । यह प्रमाण है इस बात का कि गोली से गांधी को मारा जा सकता है, गांधी मूल्यों को नहीं । सत्ता के सामने बिना किसी हथियार के केवल कलम से, विचार से लड़ने वाले ये तमाम लोग हमें एहसास दिलाते है कि गांधी विचार और गांधी मूल्य आज भी प्रस्तुत है । हिमांशी शेलत की ‘धुन्ध भरी सुबह का सूरज’ (धुम्मसिया सवारनो सूरज) सच्चाई ख़ोजने वाले पत्रकार के संकट की बात करती है । जहाँ लिखने बोलने पर प्रतिबन्ध लदे हो ऐसे मोटी खाल वाले निर्लज्ज सांप्रत में कोई अंजान ताकतों की वजह से पेरूमल मुद्गल लिखना बंद कर दे या रामायण के बहुत बड़े अभ्यासी मलयालम लेखक बशीर को रामायण के बारे में लिख न पाए और गांधी मूल्यों पर इतने बड़े प्रहार के बाद भी प्रजा के कान पर जूँ तक न रेंगे ये एक भीषण हक़ीक़त है । कुछ कबीर जैसे जागने वाले हिमांशी शेलत जैसे कहानीकार अपनी ‘मानों की यह कहानी नहीं है’ (धारो के आ वार्ता नथी) कहानी में इसकी बात करते है । गांधी मूल्य व्यक्तित्व निर्माण के और एक स्वस्थ नागरिक समाज बनाने के पक्षधर है लेकिन हमारे आस-पास तो विचार विहीन हुजूम में परिवर्तित जंगल राज जैसा समाज विकसित हो रहा है । यह कहानियाँ पूछती है कि क्या हम गांधी मूल्यों को दरकिनार कर चूके है ? अत्यंत क्षुल्लक कारण से किसी को मार डालने वाली इस भीड़ को क्यों किसी का भय नहीं है ? एसा प्रश्न ‘पन्द्रह जुलाई दो हज़ार सत्रह’ (पंदर जुलाई बे हजार सत्तर) कहानी में हिमांशी पूछती है । निर्भया काण्ड जैसी अमानुषी घटना देश के अलग अलग प्रदेशों में होती ही रहती है । विरोध, आक्रोश, कैन्डल मार्च कुछ दिनों बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचे बिना शांत हो जाते है (‘कम्पास बॉक्स में पड़े हुए पंख़’) । ये सब कहानियाँ हमें झंझोड़कर पूछती है कि ‘चुप ही रहोगे कि बोलोगे भी ?’ गांधी ने जीवन के अन्तिम क्षण तक दूरित का विरोध करना, सत्य और अहिंसा के लिए लड़ना सिखाया था ।

गुजराती कहानी में हिमांशी शेलत एक एसे हस्ताक्षर है जिन्होंने पीछले सौ साल की गुजराती कहानी को अपूर्व ऊँचाई दी है । उनकी कहानियों में व्यक्तिकेन्द्री चेतना से लेकर वेश्याजीवन की समस्याओं का समावेश होता है । आपको पढ़ते हुए चेखव का वह वाक्य याद आता है कि ‘Anything under the Sun can be A Story’ । जीवन और कला के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता बनाने हुए उन्होंने गुजराती कहानी को दिशा और गति भी दी है । आपकी कितनी कहानियों में झूलसा देने वाले साम्प्रत का आलेखन हुआ है । अब तक हाशिये में रही वेश्याओं के बारे में हिमांशी शेलत, रवीन्द्र पारेख की कलम से कलात्मक कहानियाँ मिली है ।

कुछ कहानियाँ हमें आश्वस्त करती है गांधी मूल्यों को लेकर । वन्दना भट्ट की ‘झाड़झंखाड़’ (झाडीझांखरां) कहानी में नायक की इन्सानियत तमाम बाड़ो – संकुचितता को पार कर जाती है लेकिन शिरीष पंचाल की ‘ये जुबेदा ये कल्लोल’ का नायक अभी उतना उदार नहीं हो सका । गांधीजी ने धार्मिकता की नहीं आध्यात्मिकता की बात विशेष की थी लेकिन हम तो केवल धार्मिकता की ही ओर मुड़े ।

‘वामन’ कहानी के नायक का या ‘सजा’ कहानी की नायिका के विद्रोह का परिणाम जो भी आए पर किसी ने तो हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाई इस बात का संतोष लिया जा सकता है । वैसे भी भीड़ का प्रतिकार करने वाले, हिंसा या शोषण का विरोध करने वाले को अंजाम के बारे में सोचना नहीं चाहिए ऐसा गांधीजी ने हमें सिखाया ही है । बिन्दु भट्ट की ‘मंगलसूत्र’ कहानी की अनपढ़ नायिका ऊँची जात के अहंकार में रहते, कुछ न कमाते, बेटे की मांग करते पति द्वारा बलात्कार का शिकार बनती है लेकिन अंत में पति के नाम का मंगलसूत्र बेच कर पति की इच्छा के विरुद्ध बेटी को अपने साथ काम पर ले जाकर बे आवाज़ विद्रोह करती है । मणिलाल ह. पटेल की ‘मगन सोमा की आशा’ भी अनपढ़ है, आर्थिक रूप से स्वतन्त्र नहीं है । फिर भी मायके और ससुराल की जबरदस्त ताकत के ख़िलाफ़ चट्टान की तरह टीकी रहती है । पारूल देसाई की ‘अन्दर बाहर’ में पति अन्य स्त्री के पास जाता है उसका पता बरसों बाद चलता है तब पत्नी घर छोड़कर भागती नहीं है, रोती धोती भी नहीं है । पति के साथ किया सम्पूर्ण असहकार उसे अधिक मजबूत और गौरववान बनाता है । धीरू बहन पटेल की ‘अरून्धति’ की नायिका भी अन्य स्त्री के पास जाते पति को स्वस्थता से विदाय देते हुए फ्लैट और जीवन निर्वाह के लिए पैसे मागती है और सन्तानो की जिम्मेवारी भी पति पर डालती है । हमारे यहाँ स्त्री समानता की, अधिकार की बातें होती है लेकिन पति पत्नी पर हाथ उठाए उसमें आज भी किसी को आश्चर्य नहीं होता । कानून के रखवाले तक स्त्री की शिकायत दर्ज करने के बदले घर में ही समझौता कर लेने की सलाह देते है । स्त्री का यह सबसे बड़ा अपमान है ऐसा शायद ही कोई मानता है । वर्षा अडालजा की ‘नाम - नयना रसिक महेता’ कहानी की नयना दबंग हो कर पुलिस को शिकायत दर्ज करने को मजबूर करती है । इला आरब महेता की ‘शमिक, तू क्या कहेगा ?’ कहानी की नायिका बोस के सस्ते मज़ाक ओर चुटकुलों का जवाब देने के लिए कमर कसती है । मोहन परमार की ‘थली’ कहानी की नायिका उसका शारिरीक शोषण करने वाले ठाकुर के सामने हँसिया लेकर खड़ी हो जाती तो उसका कोई मूल्य न होता । लेकिन नायिका तो ‘मुझे आपके साथ चुमौना करना है’ कह कर अस्पृश्यता को लेकर दोहरे मानदण्ड रखने वाले ठाकुर की बोलती बंद कर देती है । गांधीजी आन्तर धर्मी विवाहों को प्रोत्साहन देते थे, जबकि हमारे समय में ओनर किलिंग के नाम पर हत्याएँ होती है । हिमांशी शेलत की ‘नगर ढिंढोरा’ की नायिका भले गांधी को न जानती हो परन्तु वह चली है गांधी के मार्ग पर । हत्यारा भले पिता हो या भाई लेकिन वह प्रेमी के हत्यारे को बक्षने के लिये तैयार नहीं है । परिवार और घर छोड़ने के लिए तैयार यह नायिका सत्य के पक्ष में खड़ी रहती है । इन तमाम औरतों की ठंडी ताकत के पीछे केवल नारीवादी आन्दोलनों का प्रभाव नहीं है । शोषक और ज़ालिमो के ख़िलाफ़ इस तरह से लड़ने का ढंग बरसों पहले गांधी हमें सिखा गये थे । याद रखना होगा कि स्त्री मुक्ति की तथा स्त्री-पुरुष समानता की मशाल गांधी ने ही जलाई थी ।

वैश्विकरण के प्रभाव से बढ़ते जाते औद्योगिक साम्राज्यों और पर्यावरण की असमतुला की भी बात गुजराती कहानियों में कलात्मक स्तर पर हुई है । गाँवों का उजड़ना और शहरों का विकसित होना, ये तो अब पुरानी बात हो गई है । इधर शहर फैलकर गाँवों को निगलने लगें हैं, गाँवों के परंपरागत व्यवसाय और छोटे मोटे गृह उद्योगों को वैश्विकरण ने हड़प कर लिया है । सोडा और सिकन्जी को पैप्सी और कोला वालों ने निगल लिया है (नवनीत जानी की विशिष्ट शैली में लीखी गई ‘वी. वी. ब्राण्ड डबल टैस्टेड (विक्टरी) (280 ML)]’), खेतों के टुकडों पर जिन्दगी गुजारने वालों के खेतों को सेझ निगल गया (विपुल व्यास का ‘लिलियां’, नवनीत जानी की ‘तला’), शादी में ढोल बजाकर साल भर का दाना-पानी ज़ुटाते लोगों के पेट पर बैण्ड-बाज़ा वालों ने लात मारी (नवनीत जानी की ‘दाना पानी’), अकाल के विकट दिनों में रास्तों पर मोरिया खोद कर दो जून की रोटी पाते लोगों की मजदूरी को राक्षसी JCB मशीन खा गये (नवनीत जानी की ‘उस किनारे की बस्ती’); ये सारी कहानियाँ औद्योगिकरण के इन संकटों को वास्तव की भूमि पर चित्रित कर रही है जिन संकटों से बरसों पहलो हमें गांधी ने आगाह किया था । इधर स्वच्छ भारत का अभियान चल रहा है, ऐसे में महेन्द्र सिंह परमार की कहानी ‘पोलिटैकनिक’ को नये नज़रिये से देखना होगा । सरकार शौचालय बनाने के लिए पैसे दे रही है, लेकिन शहर की झोपड़पट्टीयों में बैठने की भी जगह नहीं है ।

मूल्यों की उथल-पुथल, भौतिक जगत की बोलबाला, पतन की गर्ता में जाती शिक्षा व्यवस्था को कई कहानियों में व्यक्त किया गया है । हर्षद त्रिवेदी की ‘साहेब’ कहानी में वर्षो तक सच्चाई और प्रमाणिकता के पाठ पढाने वाले सिद्धान्तवादी शिक्षक बदले हुए मूल्यों के ज़माने में अपने आदर्श बचा नहीं पाते और बेटे की नौकरी के लिए अपने ही छात्र रहे अधिकारी के पास सिफारिश लेकर जाते है तब कहानी के नायक जितना ही आघात पाठक को भी लगता है । हरीश नाग्रेचा की ‘द्रोहकाण्ड़’ कहानी जीवन मूल्य और शिक्षा के बीच बढ़ती जाती दूरी को उजागर करती है । हमारा अध्यापक जगत कैसा छिछोरा हो गया है उसकी बात कन्दर्प देसाई ‘पीछे मुडकर’ कहानी में करते है । Ph.D. करती छात्राओं की विद्वान मार्गदर्शक कैसी तो दुर्दशा करते है । इसी बात को कल्पेश पटेल ‘कामिनी’ कहानी में कुछ अलग ढंग से करते है । साम्प्रत समय में वैभवशाली जीवनशैली और आसानी से मिलते पैसों के आगे जीवन मूल्य या सिद्धान्त की कोई कीमत नहीं है इस बात को हरीश नाग्रेचा की ‘बाँसुरीवाला’ कहानी में कहा गया है । सम्बन्ध से ज्यादा भौतिक सुविधायें महत्त्वपूर्ण बन जाती है । सुमन्त रावल की ‘धन्धो’ कहानी में प्रमोशन और भौतिक सुविधा इन्सान को विनिपात की ओर ले जाती है उसका आघातजनक वर्णन है । यही प्रश्न कन्दर्प देसाई की कहानी ‘मेरी ही बेटी’ की माँ के विषय में होता है ।

बदलते समय के साथ जीवन मूल्य भी काल की गर्त में गुम हो गये । आज नैतिकता और प्रमाणिकता नई पीढी को दुर्गुण लगते है । नवनीत जानी की ‘समाप्त’ या ‘हरी भाभा की एक दिन की जिन्दगी’ कहानी में सन्तानों को पिता से यही शिकायत है कि आपने भ्रष्टाचार कर के पैसे इकट्ठे नहीं किये, सिफारिश का उपयोग नहीं किया । प्रमाणिकता जैसे अब गुण नहीं अवगुण बन गई है !

समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार अनेक रूप से आज समस्याओं का घर बन गया है । नई पीढी और पुरानी पीढी का अंतर, रिश्तों और नातों में प्रेम, उष्मा और परवाह के स्थान पर केवल औपचारिकता और स्वार्थ बचा है । बडे होते जाते सन्तानों की जिन्दगी में से धीरे धीरे हटते जाते माँ-बाप की व्यथायें कई कहानियों में है । बिपिन पटेल की ‘पसन्द न आये तो’ कहानी में एक ही घर में रहने के बावजूद बेटे के साथ केवल चिट्ठी का व्यवहार बचा है । घर में बिलकुल अनचाहे व्यक्ति के रूप में जीते पिता को बेहरापन आशीर्वाद रूप लगता होगा । इसीलिए डॉक्टर से बिलकुल सुनाई न पड़े ऐसी मशीन मांग बैठे होंगे न ! कहीं पिता का तेज़ स्वभाव (नवनीत जानी की ‘समाप्त’), कहीं बहु की ज़बान (कल्पेश पटेल की ‘भांजघड’), कहीं बेटे की बेपरवाही (कन्दर्प देसाई की ‘घटमाल’), कहीं अहम् और कड़वे वचन (मणिलाल ह. पटेल की ‘बाबा का अन्तिम पत्र’) सम्बन्धों के सूख जाने के कारण अनेक है ।

प्रत्येक क्षेत्र में प्रवर्तित मूल्य ह्रास और संवेदनशून्यता के बीच टिकने के लिए झूझते आम आदमी की लगभग तमाम समस्याओं को ’८० के बाद की गुजराती कहानी वाचा देती है । यहाँ पर उल्लेख़ित कहानियों के अलावा और कितनी ही कहानियाँ है जिसने बदलते समय को, संक्रांति काल के मूल्य ह्रास को कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है । एसी कितनी कहानी है जो हमें हताश कर देती है । गांधी के देश की यह कैसी भीषण नियति है एसा प्रश्न ’८० के बाद के कहानीकार ने कलात्मक स्तर पर उठाया है । मुझे ख़ुशी इस बात की है कि ’८० के बाद के गुजराती कहानीकारों की सिद्धि यह है की उन्होंने प्रचारात्मकता और दस्तावेज़ीकरण से बच कर जीवन तथा कला के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बरकरार रखी है ।

डॉ. शरीफा वीजलीवाला, प्रोफेसर एन्ड अध्यक्ष, गुजराती विभाग, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनिवर्सिटी, सूरत, पीन-395007