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गोविंद मिश्र के “पाँच आँगनों वाला घर” उपन्यास में चित्रित संयुक्त परिवार

गोविंदमिश्र हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक हैं । उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध, नाटक, यात्रा वृतान्त आदि हिंदी साहित्य के अनेक विधाओं में इन्होंने लेखन कार्य किया है । गोविंदमिश्र को उनके उपन्यास ‘लाल पीली जमीन’ के लिए आर्थर गिल्ड ऑफ इंडिया के पुरस्कार, ‘हुजूर दरबार’ के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के प्रेमचंद पुरस्कार, ‘धीर समीरे’ के लिए भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के पुरस्कार, ‘पाँच आँगनों वाला घर’ के लिए 1998 के व्यास सम्मान, ‘कोहरे में कैद रंग’ के लिए 2008 के साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा समग्र साहित्य योगदान 2001 में राष्ट्रपति द्वारा सुब्रह्मण्य भारती पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। गोविंदमिश्र के उपन्यासों में ‘पाँच आँगनों वाला घर’ महत्वपूर्ण माना जाता है । यह उपन्यास 1985 में लिखा गया है । उपन्यास की कथा 1940 से 1990 तक के काल खंड को आधर बनाकर लिखी गयी है । उपन्यास में भारतीय संस्कृति के आधरभूत स्तम्भ माने जानेवाले संयुक्त परिवार के स्वरूप को दर्शाया गया है जो आधुनिक संदर्भ के लिये अति आवश्यक है ।

भारत कृषि प्रधान देश है और यह तो सर्व विदित है कि कृषि के लिए जनों अर्थात् ज्यादा से ज्यादा लोगों की जरूरत पडती है । इसीलिए प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में पारिवारिक व्यवस्था कुछ इस प्रकार की रही जिसमें सभी एक छत के नीचे निवास करते रहे। जिसे संयुक्त परिवार के नाम से जाना जाता है। संयुक्त परिवार की सबसे बडी विशेषता यह है कि यहाँ सब एक दूसरे से एक माले में मोती के समान बिंधे हुए हैं। सभी एक-दूसरे के दु:ख-सुख के सहयोगी हैं। प्रेम, त्याग, निष्ठा, आपसी भाईचारे की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी हुई होती है। जो समय-समय पर एक-दूसरे के लिये देखने को मिलती रहती है। संयुक्त परिवार की सबसे बडी विशेषता यह है कि इसमें वयोवृद्ध व्यक्ति बरगद के उस वृक्ष के समान होता है जो सबको छांव देता है। इस व्यवस्था में परिवार के वयोवृद्ध को ही परिवार का मुखिया समझा जाता है और उसी की आज्ञा से ही परिवार निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर गतिमान रहता है । साथ ही परिवार के अन्य सदस्य उस वयोवृद्ध की छत्रछाया में रहकर स्वयं को गौरावांवित और सुरक्षित महसूस करते हैं। ‘गोविंद मिश्र’ के उपन्यास ‘पाँच आँगनोंवाला घर’ में भी संयुक्त परिवार के रूप दिखाई देते हैं जिसमें एक संयुक्त परिवार के सभी सदस्य प्रेम और आपसी सहयोग की भावना के साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं और सभी की जरूरतों की पूर्ति एक ही घर के अंदर की जाती है। उपन्यास में जोगेश्वरी अपने चारो पुत्रों जिसमें तीन विवाहित हैं और एक अविवाहित है उन सभी को लेकर एक ही घर में रहती है। जिसका उल्लेख लेखक ने इस प्रकार है- एक घर में फैला पूरे का पूरा संसार । जोगेश्वरी के चारों लडके उसी घर में रहते थे । सबसे बडे मुंशी राधेलाल वकील जिनके राजन समेत तीन लडके और एक लडकी थी । दूसरे नंबर पर घनश्याम जिनकी पत्नी रामनगरवाली थी, तीसरे बाँके जिसकी पत्नी शिवपुर वाली । चौथे सन्नी अविवाहिता । (13)

‘संयुक्त परिवार’ नाम से ही विदित हो जाता है कि जहाँ लोग इकट्ठा होकर रहते हैं । सभी को अनुशासन में रखना, अपनी-अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रखना ये कार्य कोई आसान कार्य नहीं है किंतु घर का मुखिया इस कार्य को आसानी पूर्वक करता है और अन्य सदस्य मुखिया की आज्ञा का पालन करते हुए अपने-अपने कार्यों के प्रति सजग रहते हैं। संयुक्त परिवारों के घरों की महिलाओं और बहन-बेटियों के लिये भी आसान नहीं होता कि वे इतने सारे लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु घर के समस्त कार्यों को निपटाना। किंतु ये महिलाओं एक साथ मिलकर बडे से बडे कार्यों को चुटकियों में निपटा देती हैं । इससे इनकी सहनशीलता और आत्मीयता के साथ-साथ एकता का भी भाव दिखाई देता है। किसी भी संयुक्त परिवार का आधार स्तम्भ ये घर की स्त्रियाँ ही हैं जो सभी को एकता के सूत्र में बांधे हुए नजर आती हैं और कठिन से कठिन कार्य को आसानी से हल करने का हुनर जानती हैं। ऐसा ही एक संदर्भ का उल्लेख ‘गोविंद मिश्र’ के उपन्यास ‘पाँच आँगनोवाला घर’ में देखने को मिल जाता है। जिसमें लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि संयुक्त परिवार की महिलाएँ किस प्रकार सैकडों लोगों का खाना प्रतिदिन एक ही चूल्हे में बनाती हैं। रोटियाँ बेलने और सेंकने के लिए दो-दो औरतों की पारियाँ बंधी होती हैं। ऐसी ही ड्यूटी दूसरों के लिए भी बंधी होती हैं। ये कार्य आसान नहीं होते । आपसी सौहार्द्य और प्रेम का होना ही इन कार्यों की सफलता का सूचक है और ही संयुक्त परिवार की निसानी भी। जिसका उल्लेख इस प्रकार है- पूरे घर का चूल्हा एक था जिसमें कोई सौ लोगों का तो खाना रोज बनता ही था, बेलन और सेंकने के लिए दो -दो औरतों की पारी बँधी थी । दूसरों के लिए भी ड्यूटी बँधी हुई थी । (14)

इंसान जीवन में जो भी अच्छा बुरा सीखता है और दुसरों के प्रति उसका जो भी व्यवहार होता है वह अधिकांशत: इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी परवरिश कैसी हुई है। क्योंकि मानव अपने जीवन में अपने माता-पिता और अन्य बुजुर्गों या पारिवारिक सदस्यों से जो भी सीखेंगे अन्यथा प्राप्त करेंगे वही वह दूसरों को प्रदान करेंगें। ये सारे सदस्य हमारे जीवन में तभी सम्मिलित हो सकते हैं जब हम संयुक्त परिवार में रहते हैं और बुजुर्ग हमारा मार्गदर्शन करते हों। क्योंकि तब घर एक पाठशाला बन जाता है जहाँ सही-जलत और स्वार्थ-नि:स्वार्थ इत्यादि का ज्ञान प्राप्त होता है। दूसरों की मदद का जो गीता ज्ञान है वो केवल सम्मिलित परिवारों से ही सीखा जा सकता है। सुख होने पर अति उत्साहित न होना और दु:ख होने पर स्वयं को टूटने से बचाने का रहस्य भी हमें सम्मिलित परिवारों से ही सीखने को मिलता है क्योंकि अकेले रहकर मानव इन सबसे सदैव अनभिज्ञ रह जायेंगे। एक प्रकार से देखा जय तो संयुक्त परिवार व्यक्ति के जीवन में एक ऐसे अभेद्य किले का काम करते हैं जिसे कोई भी समस्या आसानी से भेद नहीं सकती हैं। जीवन के इस अमूल्य दर्शन का विस्तृत विवरण हमें ‘गोविंद मिश्र’ के उपन्यास ‘पाँच आंगनोंवाला घर’ में प्राप्त हो जाता है जिसमें सन्नी चाचा राजन को संयुक्त परिवार के मूल्यों को कुछ इस तरह से बताते हुए नजर आते हैं- हमारे परिवार वे स्कूल हैं जहाँ हमें निस्वार्थ होने, दूसरों के लिए कुछ करने की बुनियादी शिक्षा मिलती है । सम्मिलित परिवार थे . . तो समाज में स्नेह भी ज्यादा था । जीवन के दुखों को सही ढंग से लेने- इस तरह कि वे हमें तोड न जाये, ऐसा दर्शन हमें उस परिवार से मिल जाता था, सुख- दुख ऐसे गड्डमड्ड तरीके से और इतनी जल्दी- जल्दी आते-जाते रहते थे । (123)

संयुक्त परिवारों में अक्सर यह देखा जाता है कि सदस्यों की संख्या बहुत ज्यादा होती है। अगर कोई बाहरी व्यक्ति रिश्तों की जानकारी लेने बैठ भी जाये तो वह असमंजस में पड जायेगा। उसे यही समझने में अच्छा खासा समय लग जायेगा कि कौन किसका क्या लगता है। किंतु इनमें प्यार अटूट होता है ढेर सारे बच्चे जब दूसरे की माँ को भी खुद की माँ का संबोधन देते हैं, कहीं एक बच्चे के दादा जी सभी बच्चों के दादा जी बन जाते हैं इत्यादि रिश्तों का हेर-फेर हो जाता है। किंतु यह सब सुनने में बहुत अच्छा लगता है। यही सारे सदस्य मिलकर एक परिवार बनाते हैं और इनसे ही एक पूर्ण घर बनकर तैयार होता है। कभी-कभी तो परिवार का मुखिया सभी के पिता के संबोधन से संबोधित किया जाता है, रिश्ता क्या है इससे कोई फर्क़ नहीं पडता बस आत्मीयता और स्नेह मुख्य होता है। रिश्तों का यह हेर-फेर ‘गोविंद मिश्र’ के उपन्यास ‘पाँच आँगनोंवाला घर’ में आसानी से देखने को मिल जाता है जिसमें उपन्यास की पात्र जोगेश्वरी की सास को सभी बच्चे दादी कहकर ही संबोधित करते थे, बल्कि जोगेश्वरी स्वयं दादी थी। ऐसे ही अन्य का वर्णन इस प्रकार दिया गया है- जोगेश्वरी की सास सब बच्चों की दादी अम्मा थीं, जोगेश्वरी स्वयं बडी अम्मा । राजन के बाबूजी सब बच्चे के बाबूजी और उसकी अम्मा सब बच्चों की अम्मा । (141)

भारतीय समाज में रिश्तों की अहम भूमिका है। साथ ही इन रिश्तों को महत्व भी बहुत दिया जाता है। भारतीय समाज रिश्तों पर ही तो टिका हुआ है। भारतीय समाज में एक ऐसा ही रिश्ता है भाभी का जो माँ के बाद सर्वोच्च महत्व रखता है, तो कहीं ससुराल में बहू के लिये देवर पुत्र के समान हो जाता है जिसके सामने उसका वात्सल्य बाहर झलकने लगता है। ऐसे कितने ही रिश्ते हैं इस समाज में किंतु इन सभी रिश्तों में नारी का स्थान सर्वोच्च है। देवर और भाभी का प्यार-दुलार वाला एक उदाहरण ‘गोविंद मिश्र’ के उपन्यास ‘पाँच आँगनोंवाले घर’ में देखने को मिल जाता है। जिसमें उपन्यास का राजन उच्च शिक्षा हेतु अपने बडे भाई मोहन के साथ रहता है। वहाँ उसकी भाभी ओमी उसकी कई प्रकार से मदद करती है। अपनी भाभी के बारे में राजन इस प्रकार सोचता है कि ओमी भाभी . . . नागपुर में ऐसा स्नेह दिया, उनकी ऐसी देखभाल की क्या कोई माँ करेगी । (117)

संयुक्त परिवारों का बनाये रखना एक असाधारण कार्य है। इसके पीछे उस घर की महिलाओं का हाथ होता है। संयुक्त परिवारों की सफलता उस घर की महिलाओं की एकता पर निर्भर करती है । अगर घर की महिलाएँ आपसी प्रेम और सौहार्द्य से रहेंगी तो उस घर के अन्य सदस्य भी निश्चिंत होकर अपने-अपने कार्यों में निरंतर प्रगति की ओर बढते रहेंगे और घर की सुख शांति भी बनी रहेगी। साथ ही सास और बहू का रिश्ता संयुक्त परिवार में महत्वपूर्ण माना जाता है । अगर ये दोनों आपस में मेल-जोल के साथ माँ-बेटी जैसे रिश्ते बनाकर रहती हैं तो घर एक स्वर्ग जैसा प्रतीत होता है किंतु अगर इनके रिश्तों में दरार पड जाये तो यही संयुक्त परिवार रणभूमि से कम नजर नहीं आयेगा जहाँ प्रतिदिन लडाई-झगडे देखने को मिलते रहेंगे । जिससे घर की शांति भंग होगी और संयुक्त परिवार की परिकल्पना से भी लोगों का भरोसा कम हो जायेगा। किंतु उपन्यासकार ‘गोविंद मिश्र’ ने अपने उपन्यास ‘पाँच आँगनोवाला घर’ में सास और बहू का ऐसा चित्रण किया है जिसमें एक बडे घर की बेटी बहू बनके आते ही अपने माता-पिता के घर के ठाठ-बाट छोड कर अपनी सास को ही अपनी माँ समझकर उनके साथ काम करती है। जिसका उल्लेख लेखक ने इस प्रकार किया है- शांति ने ससुराल में कदम रखते ही मायके के ताट-बाट मन से झाड वहाँ जैसे माँ थी यहाँ सास के पीछे पीछे बराबरी से काम । (17)

संयुक्त परिवार तभी निरंतर आगे की ओर अग्रसर हो सकता है जब उसे एक अच्छा और योग्य मुखिया मिल जाये जो उन्हें सदैव सही मार्ग के चयन में सहायता प्रदान करे। अक्सर ऐसा होता है कि घर के बुजुर्ग ही संयुक्त परिवार में मुखिया की भूमिका में नजर आते हैं किंतु कहीं–कहीं बात कुछ अलग होती है। कभी-कभी बडे भाई के कंधे पर भी ऐसी जिम्मेदारी आ जाती है कि उसे अपने घर में मुखिया की भूमिका निभानी पडती है। परंतु जब बडे भाइयों पर ऐसी जिम्मेदारी आ जाती हैं तब अक्सर देखा जाता है कि वे बखूबी इस जिम्मेदारी को निभाते हैं और सबको साथ लेकर चलते हैं। भले ही वे अपने हक को खो दें किंतु अपनों के हक के लिए वे जी–जान लगा देते हैं। साथ ही जिम्मेदारी आने पर बडे भाईयों में विनम्रता का भाव स्वत: ही आ जाता है। इस संदर्भ का निरूपण गोविंद मिश्र के पाँच आँगनेवाला घर उपन्यास में है। उपन्यास का मोहन सब पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों का एक प्रतिरूप है। पिता के बाद वह अपने भाई बहनों के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। अपने बडे भाई के बडप्पन देखकर छोटा भाई राजन सोचता है –लेकिन मोहन भैया में कैसे सबका निचोड आ गया हो। किसी के लिए कैसे जी जान से करेंगे और जब उनके अपने हक का मौका आये तो तटस्थ हो पीछे हो जायेंगे। बडे ही विनम्रता और स्वाभाविकता के साथ।(117)

व्यष्टि परिवार की तारीफ या कमियाँ निकालना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता किंतु जो भी व्यक्ति व्यष्टि परिवार में रह रहा है उनका ऐसा मानना है कि संयुक्त परिवार ही श्रेष्ठ हैं। सबसे बडी बात संयुक्त परिवार कभी भी किसी भी व्यक्ति को अकेलापन महसूस नहीं होने देता उसकी मदद के लिये सदैव कै हाथ तैयार खडे होते हैं। परिवार के मूल्यों को सही अर्थों में अगर समझना है तो संयुक्त परिवार की ओर ही रुख करना होगा। जो लोग संयुक्त परिवार को छोड कर व्यष्टि परिवार की ओर रुख कर गये हैं आज वो फिर संयुक्त परिवार की ओर जाने का मन कर रहे हैं। इस संदर्भ का उल्लेख 'गोविंद मिश्र' ने 'पाँच आँगनोवाला घर' उपन्यास में चित्रित किया है। उपन्यास का राजन बुढापे में सोचता है -एक बनारस का पाँच आँगनों वाला घर था । सबको अपने से बॉधे रहता, जो बाहर जाये उन्हें अपनी तरह खींचता रहता। जो लौटकर न भी आ पाते उनके भीतर वापस वही पहुँचने की कोशिश तो बनी ही रहती । ( 205)

उपर्युक्त विश्लेषण से यह तो साफ जाहिर हो जाता है आज के इस आधुनिक युग में हमने संयुक्त परिवार की संकल्पना को खो दिया है। एक ऐसी संकल्पना जिसमें सब साथ-साथ मिलजुल कर रहते थे एक-दूसरे का हाथ बंटाते थे। एक-दूसरे के सुख-दु:ख के साथी थे। परिवार में बच्चों को नैतिक मूल्य का पाठ पढाया जाता था। बुजुर्गों का आशीर्वाद पाकर दिन की शुरुआत करना और उनके मार्गदर्शन में जीवन पथ पर अग्रसर रहना इत्यादि यह सब हम खो चुके हैं। हमने रिश्तों को भी खो दिया है भैया, भाभी, देवर, बहन, दादा, दादी इत्यादी रिश्तों को भी हमने अब तिलांजलि देना शुरू कर दिया है जो कि भविष्य में अकेलेपन की निशानी को दर्शाता है। किंतु उपन्यासकार ‘गोविंद मिश्र’ ने अपने उपन्यास पाँच आँगनों वाला घर’ में यह सब दिखाने के साथ-साथ यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि लोग व्यष्टि परिवार से ऊब रहे हैं और वे संयुक्त परिवार की ओर वापस लौटना चाहते हैं। उनकी झटपटाहट साफ तौर से देखी जा सकती है। तीन-तीन पीढियों की झलक एक साथ हमें उनके इस उपन्यास में देखने को मिल जाती है। संयुक्त परिवार के महत्व को दर्शाने वाला उनका यह उपन्यास पारिवारिक जीवन के कई अर्थों को एक साथ समेटे हुए चलता है जो कि पारिवारिक जीवन मूल्यों का एक ग्रंथ है।

संदर्भ ग्रन्थ

  1. पाँच आँगनों वाला घर- गोविंद मिश्र, राधकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

डॉ. पी. सरस्वती, सहायक प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई- 05