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21वीं शताब्दी : हिन्दी भाषा के अनुप्रयोगों का सुवर्ण काल

आज का युग सूचना क्रांति का युग है | जहाँ ज्ञान-विज्ञान का निरंतर विकास होता जा रहा है | परस्पर सम्पर्क क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है | अत: ऐसी स्थिति में वह भाषा अधिक सर्वप्रिय और बहुउपयोगी मनी जा सकती है जो अंतर्राष्ट्रीय सभी आवश्यकताओं की पूर्ती कर सके | 21वीं शताब्दी में जो महत्वपूर्ण घटनाएँ अंतरराष्ट्रीय एवम्‌ राष्ट्रीय फलक पर अवतरित हुई उनमें विज्ञान और टेक्नोलॉजी तथा व्यापार के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिले । टेक्नोलॉजी ने भारतीय मानस पर भी व्यापक प्रभाव डाला है । भारतीय भाषाएँ भी अपवाद नहीं है | जहाँ तक हिंदी की बात है, आज की हिंदी भूमंडलीकरण के दौर में वह सामर्थ्य अर्जित कर चुकी है जिसके आधार पर वह अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपना स्थान बनाने में पूर्ण समर्थ है | हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अब बहुत चिंतित होने की जरुरत नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही है। एक भाषा के तौर पर वह अपने सभी प्रतिद्वंदियों को पीछे छोड़ दी है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतर्राष्ट्रीयविकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है यह उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद ही विश्व में किसी भाषा का हिंदी के तर्ज पर इस तरह फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं, यह एक अलग विमर्ष और शोध का विषय है |

सबसे पहले टेलीविजन ने मानव-जीवन को व्यापक और गहरे रुप से प्रभावित किया । टेलीविजन की भाषा ने भाषा को भी प्रभावित किया । क्योंकि टेलीविजन मनोरंजन एवम जानकारी का माध्यम है, लोगों के जीवन में दोनों तरह से उसका लोकप्रिय होना स्वाभाविक था । प्रारम्भ में केवल दूरदर्शन चेनल ही था और उस समय हिन्दी साहित्य पर अथवा जीवन की वस्तविकता से जुड़ी सिरियले और फिल्मे अधिक रहती थीं । विज्ञापनों की दुनियाँ भी अभी वैश्विकीकरण और बाजारवाद की चपेट में नहीं आई थी । इसलिए उस समय हिन्दी भाषा पर उन सभी पहलुओं का आक्रमण नहीं हुआ था ।

अर्थात वैश्विकीकरण, बाजारवाद और उपभोक्तावाद का सबसे पहला प्रभाव टेलीविजन की दुनिया पर पड़ा । टेलीविजन क्योंकि समाज की मानसिकता पर व्यापक और गहरे रुप से प्रभाव डालने का माध्यम था, इसलिए उसने समाज-जीवन को परिवर्तित करना प्रारम्भ किया । व्यक्ति की निजी जीवन शैली और समाज-जीवन की मान्यताएँ बदलती है तो स्वाभाविक रुप से समाज और व्यक्ति की भाषा का स्वरुप और उसकी शब्दावली बदलती जाती है ।

मोबाईल फोन ने भी हिन्दी भाषा के स्वरुप और शब्द बदलने में बडी़ भूमिका निभाई । उसकी टेक्नोलॉजी से जुड़े शब्दों का प्रचलन हिन्दी में शुरु हुआ । मेसेजिस, जिसमें व्यक्ति को पढ़ना-लिखना होता है, सीधे उसकी भाषा को प्रभावित करता है । कुल मिलाकर टेलिविजन और मोबाईल बाजारवाद और उपभोक्तावाद के वे सशक्त माध्यम हैं, जिन्होंने समाज-जीवन और व्यक्ति के निजी जीवन को गहरे रुप से प्रभावित किया । इन दोनों के माध्यम से हिन्दी भाषा मे उन नए शब्दों और वाक्यो का प्रचलन शुरु हुआ, जो इससे पहले नहीं था ।

हिन्दी भाषा ने अपनी क्षमता और प्रवाहिता तथा लचीलेपन से टेक्नोलॉजी और बाज़ारवाद के कारण आए नए शब्दों और वाक्य रीतियों को अपने में समाहित कर लिया और अपनी क्षमता और उपादेयता को अक्षुण्ण बनाए रख्खा ।

वैश्विक भाषा अंग्रेजी भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवम्‌ बाजारवाद के कारण भारतीय समाज-जीवन तक पहुँची । एक विश्वव्यापी वर्चस्व वाली भाषा और भारत के भीतर वर्चस्व वाली भाषा ने सहअस्तित्व कायम कर लिया है । हिंदी के प्रचलन और लोकप्रियता में व्रुध्धि का एक कारण मीडिया और बाजार है । हिंदी बोलने वालों की संख्या ज्यादा थी, इसलिए उसने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का फायदा उठा लिया । इसके ज़रिए हम आधुनिकता के युग में एक नई भाषा के उद्‍घाटन क्षण पर; एक बार एक नए कोण से निगाह डाल सकते हैं । हिंदी दुनिया की छठे नम्बर की भाषा है, जिसके बोलने, समझने, पढ़ने और लिखने वालों की संख्या कोई साठ से नब्बे करोड़ के बीच है । भूमंडलीकरण और भाषा के रिश्तों का अध्ययन करने वालों ने मान लिया है कि यदि दुनिया में भाषाओं की एक इमारत बनाई जाय तो अंग्रेजी, मंड।रिन, स्पेनी, रुसी, अरबी, बांग्ला, पुर्तगीज, मलय, जापानी और जर्मन के साथ हिंदी को भी ऊपर के तल्ले में रखना पड़ेगा । चूँकि इसके बोलने-समझने वाले भारत, नेपाल, पकिस्तान, फीजी, सुरिनाम, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रिका और तमाम पश्चिमी देशों में फैले हुए हैं, इसलिए इसकी ठीक-ठीक गिनती नहीं की जा सकती ।

हिंदी के इस नए मानचित्र में समाज-विज्ञान द्वारा मान्य रंगों की भी खासी बहुतायत है । मसलन, समाज के लगातार बढ़ते हुए राजनीतिकरनण की प्रक्रिया ने हिंदी को उन मंचों पर आसिन कर दिया है, जहाँ पहले उसकी आवाज़ अंगेजी की अदाबाजी में दब जाती थी । ये मंच हैं विधायिकाओ के, यानी लोक्सभा, रज्यसभा और विधानसभाओं के । हालाँकि विधायिकाओ में आशु-अनुवाद की मशीनी व्यवस्था होती है, पर हिंदी वालों की बढ़ती हुई संख्या की बातें मूल रुप में समझने के लिए गैर-हिंदी भाषी सांसदों के बीच हिंदी सिखने की जरुरत का एहसास बढ़ता जा रहा है ।

“हिंदी के प्रचलन का ताजा उदाहरण भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में बैठने वालों द्वारा इम्तहान की भाषा चुनने के आँकड़ों से मिलता है । हर गुजरते साल के साथ हिंदी में यह परीक्षा देने वालों की संख्या बढ़ते हुए पच्चीस फीसदी तक पहुँच चुकी है । जिन लोगों को यह समझ में न आ रहा हो कि सिविल सर्विस की परीक्षा में इतने हिंदी वाले कहाँ से आ गए, उन्हें दिल्ली विशविद्यालय में एम.फिल. और पींएच.डी. कर रहे छात्रों के भाषाई माध्यम पर निगाह डालनी चाहिए । केवल राजनीतिशास्त्र विभाग में ही पचास फीसदी से ज्यादा छात्र हिंदी माध्यम के हैं और अब उन्हें अपना शोध प्रबंध भी हिंदी में लिखने में पहले की तरह संकोच नहीं रहा ।“ (1)

“बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में आए हिंदी-प्रियता के मूल में हिंदी की बढ़ी हु़ई व्यवसायिक ताकत है । आज हिंदी में अखबार और पत्रिका निकालना बहुत फायदेमंद रहता है । हर साल होने वाला राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण बताता है कि हिंदी प्रकाशनों ने प्रसार संख्या में अंग्रेजी प्रकाशनों को बहुत पीछे छोड़ दिया है ।“(2) हिंदी में प्रति अखबार पाठक संख्या तेजी से बढ़ रही है । पहले एक अखबार को अगर अनुमानत: पाँच लोग पढ़ते थे, तो अब उनमें से दो लोग अपना अखबार खरीदने लगे हैं । एक हिंदी प्रकाशक के अनुसार देश में इस समय 36 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पढ़ सकते हैं, पर जिनके पास अभी तक अखबार पहुँचा ही नहीं है या कहिए कि वे अभी खबर तक नहीं पहुँचे हैं । इनमें से दो तिहाई हिंदी के सम्भावित पाठक और विज्ञापनों की निगाह में सम्भावित उपभोक्ता हैं । हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं का पाठक वर्ग टीवी के न्यूज चैनलों की दर्शक संख्या बढ़ने के साथ कम नहीं होता, बल्कि और बढ़ता है । यह एक दिलचश्प तथ्य है कि जब से समाचार चैनलों की संख्या बढ़ी है, अखबार और भी बिकने शुरु हो गए हैं । छपा हुआ शब्द और देखा हुआ शब्द एक-दूसरे को पानी देता है ।

सांस्कृतिक सत्ता का समीकरण उलटने की शुरुआत की तरह इशारा करने वाले कुछ और सबूत इस प्रकार हैं : पहले अंग्रेजी प्रेस के मालिक पूरक धंधे के रुप में हिंदी के अखबार भी निकालते थे, जिनकी हैसियत प्रकाशन गृह के भीतर सौत के पूत जैसी होती थी । अब हिंदी के दो बड़े अखबार वालों ने अंग्रेजी का एक दैनिक निकालना शुरु किया है जिसकी कामयाबी ने पिछले दिनो सबका ध्यान खींचा है । (भारत के पहले और दूसरे नम्बर के अखबारों, दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण, ने मिलकर डीएनए— डेली न्यूज़ एंड एनालिसिस, प्रकाशित किया है, जो मुम्बई में पहले से स्थापित अखबारों को करारी टक्कर दे रहा है) दूसरे, नई दिल्ली का एक बड़ा समाचारपत्र समूह विज्ञापनदाताओं को बता चुका है कि उसके घराने से निकलने वाले हिंदी दैनिक के पाठकों का आर्थिक स्तर ऊँचा उठ चुका है । अब उन्हें सम्भावित खरिदारो की तरह देखना शुरु कर देना चाहिए । देश भर के विज्ञापक पहले ही मान चुके थे कि हिंदी के पाठक वर्ग के पास खरीद की ताकत आ चुकी है, और वह महानगरों में तेजी से उभरते हुए शोपिंग मॉल्स में जाकर कॉफी पीने से लेकर ब्राण्डेड वस्त्र खरीदने की शक्ति रख रहा है । चूँकि बड़े शहरों का बाज़ार संतृप्त हो गया है, इसलिए विज्ञापक छोटे शहरों, ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण इलाकों पर ज़ोर दे रहे हैं, जहाँ केवल हिंदी प्रेस का ही बोलबाला है ।

हिंदी के प्रसार और अहमियत में बढ़ोतरी का एक उल्लेखनीय आयाम यह है कि उसने विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच बौध्धिक सम्पर्क सूत्र के रुप में धीरे-धीरे अंग्रेजी की जगह लेनी शुरु कर दी है । इसका सबसे बड़ा उदाहरण अनुवाद का क्षेत्र है । भारतीय भाषाओं में आपस में अनुवाद करने के लिए हिंदी में अनुदित कृति को आधारभूत टेक्स्ट बनाने का रुझान शुरु हुआ है । पिछले पचास साल में अन्य भाषाओं के साहित्य का जितने बड़े पैमाने पर हिंदी में अनुवाद हुआ है, उसके कारण भी यह स्थिति बनी है । पूर्व या दक्षिण की कई महान कृतियों का अनुवाद केवल हिंदी में उपलब्ध है । अगर उन्हें ऊर्दू या पंजाबी में ले जाना है, या मराठी में अनुवाद करना है, या मान लीजिए कि किसी तेलुगु कृति को बांग्ला में लाना है तो हिंदी के ज़रिए हो सकता है । पिछले पचास साल में बौध्धिक—राजनैतिक साहित्य हिंदी में खूब प्रकाशित हुआ है । संपूर्ण गाँधी वांग्मय, संपूर्ण लोहिया साहित्य, अन्य समाजवादी विचार साहित्य, सर्वोदयी साहित्य, अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का साहित्य, धर्म सम्बन्धी साहित्य और बड़े पैमाने पर मार्क्सवादी साहित्य पहले से ही हिंदी के पास मौजूद है । पहले केवल साहित्य और साहित्यकारों की भाषा समझी जाने वाली हिंदी की पत्रकारिता अपनी स्वतंत्र भाषाई अस्मिता स्थापित कर चुकी है ।

इनसान की जिंदगी में इन्टरनेट से ज्यादा नई चीज़ अभी तक कोई और नहीं आई है । हिंदी का यह मानचित्र इन्टरनेट के साथ हिंदी के रिश्ते का ब्यौरा दिए बिना पूरा नहीं हो सकता । “इन्टरनेट एक नया, लेकिन तेज़ी से फैलता हुआ माध्यम है । बतौर ‘भाषा’ हिंदी का प्रौध्योगिकी के साथ एक उध्यमहीन और हिचकता हुआ रिश्ता रहा है । इसलिए यह देख कर ताज्जुब नहीं होता कि बीस और तीस के पेटे में चल रहे नौजवानों ने ब्लॉगिंग जैसा ताजातरीन माध्यम जमकर अपनाया है । हालाँकि हिंदी के ब्लॉग संख्या में पाँच सौ के आसपास पहुँच गए हैं, पर अभी यह इलाका हिंदी के प्रारम्भिक दिनों की ही याद दिला रहा है ।“(3) हिंदी ने इस देश में उत्तर-औपनिवेशिक भाषाई महाशक्ति के रुप में अंग्रेजी की हैसियत के साथ उसने एक तरह का तालमेल बैठा लिया है । वैसे तो हिंदी वालों को शिकायत है कि सरकार ने उनसे किया गया वायदा पूरा नहीं किया, लेकिन वे भी वाणिज्य-बाजार की दुनिया को नीची निगाह से देखते रहे हैं । “विडम्बना यह है कि ख़ास तौर से उदारीकरण के बाद आए जमाने में तरह-तरह की सामग्री के भूखे और ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं, पाठकों और दर्शकों के दम पर पनपने वाले मीडिया बाज़ार(जिसमे उन्नीसवीं सदी से पनप रहा प्रिन्ट मीडिया, तीस के दशक से बन रही फिल्मे, फिर आया रेडियो और बाद में आया टीवी तथा मोबाईल और इन्टरनेट भी शामिल है) ने हिंदी को दुनिया की सबसे बड़ी भाषाओं में से एक बनने की संभावनाओं से लैस कर दिया है ।“(4)

साहित्यिक हिंदी भाषा अपने क्षेत्र में वैश्विकिकरण, उदारीकरण और बाजारवाद और बाजारवाद से राष्ट्रीय, सामाजिक और व्यक्ति की निजी जिवनशैली में और जिवन-मुल्यो में आए परिवर्तन को नई भाषा और नए परिवेश को अपने-अपने अंदाज़ मे अभिव्यक्त कर रही है । 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में सामने आए उपन्यास एवम्‌ कहानियों में इस भाषाई एवम्‌ परिवेशगत परिवर्तन को देखा जा सकता है । ममता कालिया का ‘दौड’ उपन्यास इसका एक सुंदर उदाहरण है ।

कुल मिलाकर वैश्विकीकरण, उदारवाद, बाज़ारवाद, टीवी और मोबाईल-इन्टरनेट के आगमन से भारतीय समाज-जीवन में आए भाषा सम्बंधी एवम परिवेश सम्बंधी परिवर्तनों को हिंदी भाषा ने अपनी प्रवाहिता और लचीलेपन से अपने में समाहित करते हुए यह सिध्ध कर दिया है कि क्षेत्र चाहे कोई भी हो – साहित्य का, पत्र-पत्रिकाओ का, टीवी का या मोबाईल और इन्टरनेट का – भाषा के रुप में हिंदी की प्रायोगिकता या उपादेयता अनिवार्य है ।

संदर्भ :-

  1. हिन्दी में हम’ आधुनिकता के कारखाने में भाषा और विचार, अभयकुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली ।
  2. नेशनल रीडरशीप सर्वे, 2006 के बारे में द हिंदू, नयी दिल्ली की रिपोर्ट, 30 अगस्त, 2006
  3. रविकांत, ‘वर्चुअल कम्फ्रंत्स द रियल’, तहलका, नई दिल्ली
  4. वही

डॉ.संजय निमावत, Smt.P.N.R.Shah Mahila Arts-Commerce Collage, Palitana. Email: smnimavat2011@gmail.com