भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी और सूफी संगीत
जब भी बात भारतीय उपमहाद्वीप की होगी तो उसके दो स्वरुप सहज ही मन में आते हैं, एक वर्त्तमान स्वरुप और दूसरा पूर्वकालीन स्वरुप | वर्त्तमान स्वरुप से तात्पर्य है, एक वैश्विक आपसी सहमति एवं सहयोग से | जब से पूरा विश्व एक परिवार की अवधारणा के अनुरूप बनने की कोशिश में है तब से आधुनिक समय सही मायनों में आया है | इसी के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं प्रकाश में आयीं और इस प्रकार की संस्था ने समूचे विश्व में शांति एवं सहयोग स्थापित करने का प्रयास भी किया है | जब ऐसी संस्थाएं बनी तो अन्य शक्तिशाली राष्ट्र के लिए दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर पाना संभव नहीं रह गया | जिसके परिणाम स्वरुप आधुनिक समय में मसलन बीसवीं शताब्दी में अनेक राष्ट्रों का अस्तित्व प्रकाश में आया | आधुनिक समय में ही ऐसे कुछ राष्ट्र एशिया के दक्षिणी हिस्से में भी अस्तित्व में आये | जो मुख्यतः भारत के हिस्से से ही अलग होकर दो राष्ट्र बनें; पहला पाकिस्तान और दूसरा बांग्लादेश | इस प्रकार जब भी हम भारतीय उपमहाद्वीप की बात करेंगे तो उसका सन्दर्भ तो दो रूपों में सहज ही आयेगा एक वर्त्तमान स्वरुप एवं दूसरा पूर्वकालीन स्वरुप | वैसे तो भारतीय उपमहाद्वीप एशिया के दक्षिणी हिस्से में स्थित है | जब भी भारतीय उपमहाद्वीप नामक शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इसकी परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में दी जाती है | कुछ परिभाषा में श्रीलंका, भूटान एवं नेपाल को शामिल किया जाता है तो कुछ परिभाषा में अफगानिस्तान एवं म्यांमार को | लेकिन मुख्य रुप से तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को ही शामिल किया जाता है | और यहाँ हम भी भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी संगीत के सन्दर्भ में भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को ही मुख्य रूप से भौगोलिक दृष्टि के अंतर्गत शामिल करेंगे | वैसे तो पूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत अनेक देश आते रहे, जैसे- भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्री लंका, मालदीव लेकिन हमारा संदर्भ उपर्युक्त उल्लेखनीय देशों से ही है |
सूफी शब्द की उत्पत्ति को लेकर यद्यपि विद्वानों में मतभेद है, लेकिन इस बात पर भी सभी सहमत है कि सूफी शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया गया है, जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक सांसारिक सुख-सुविधाओं से मुहँ मोड़कर अपने लिए अध्यात्म-साधना का दुर्गम पथ निर्धारित किया | “साहित्य में भी पहले-पहल सूफी शब्द का प्रयोग सन्यासियों के एक विशेष वर्ग के लिए किया गया था |”1 सूफी शब्द की उत्त्पत्ति के सन्दर्भ में अनेक मत हैं | सर्राज का कहना है कि “सूफी शब्द का प्रयोग इस्लाम से पूर्व भी आदरणीय व्यक्तियों के लिए किया जाता था | शामी जाति के पैगम्बर एवं संत मोटे ऊनी वस्त्र घारण किया करते थे | अरब कि प्रथा है कि लोगों को संबोधित करने के लिए उन्हें उन वस्त्रों के अनुसार जो वे धारण करते हैं, पुकारा जाता है | कुरआन में हजरत ईसा के साथियों को ‘हव्वारीयून’ कहने का कारण यह है कि वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे |”2 जहाँ तक सूफी शब्द की व्युत्पत्ति का सम्बन्ध है, सूफी शब्द के मूल में ‘सफा’, ‘सफ’, ‘सुफ्फा’ और ‘सुफ’ को लेकर विभिन्न विचारकों ने अपना मत व्यक्त किया है | कुछ विद्वान इसे ‘सफा’ अर्थात पवित्रता से बना हुआ मानते हैं तथा उनके अनुसार सूफी वह है जिसका ह्रदय सांसारिक वासनाओं से पवित्र होता है | कुछ का विचार है कि सूफी शब्द सफ अर्थात पंक्ति से बना है | इनके अनुसार सूफी वह है, जिसे क़यामत के दिन प्रभु के समक्ष प्रथम पंक्ति में खड़ा किया जायेगा | क्योंकि उसके जीवन-पर्यंत केवल प्रभु स्मरण ही किया है | कुछ दूसरे यह मानते हैं कि पहले-पहल उन लोगों को सूफी कहा गया, जिन्होंने हजरत मुहम्मद के प्रेम में घर-बार त्यागकर हिजरत में उनका साथ दिया था | ये लोग क्योंकि हजरत की बनवाई हुई मस्जिद के बाहर वाले चबूतरे पर बैठे रहते थे | इसलिए इन्हें अहले-सुफ्फा अर्थात चबूतरे पर बैठे लोग कहा जाने लगा | अधिकतर विचारक यह मानते हैं कि सूफी शब्द सुफ अर्थात ऊन से बना है | अंतिम मत के समर्थकों ने भाषा की दृष्टि से भी शेष व्युत्पत्ति पर आपत्ति की है कि यदि सूफी शब्द सफा से बना होता तो इसका रूप व्याकरण की दृष्टि से सफवी होता; सफ से बना होता तो इसका रूप सफी होता; तथा यदि यह शब्द सुफ्फा से बना होता तो इसका रूप सुफ्फी रहा होता | क्योंकि भाषा की दृष्टि से सूफी शब्द के मूल में सुफ का होना ही व्याकरण सम्मत ठहरता है, इसलिए वे अन्य तीनों मतों को अस्वीकार करते हैं |
कतिपय सूफियों ने भी सूफी शब्द की उत्पत्ति सुफ शब्द से ही स्वीकार की है | खल्दून तथा हुज्वेरी जैसे सूफी विचारकों ने सूफी शब्द को सुफ से बना ही स्वीकार किया है | क्योंकि “इस्लाम से पूर्व साधुओं में सुफ के वस्त्र पहनना चिरकाल से प्रचलित था | ईसा का बपतिस्मा करने वाले सेंट जान को भी सुफधारी बताया जाता है |”3 “संसार से विरक्त लोगों के लिए प्राचीन अरबी-साहित्य में भी सुफधारी विशेषण का प्रयोग हुआ है |”4 “इस्लाम के प्रारंभिक वर्षों में भी मुसलमान साधक सुफ के वस्त्रों का प्रयोग करते रहे हैं | अबू वक्र के संसार से विरक्त होकर ‘गिलीम’(ऊनी वस्त्र) धारण करने की कहानी से भी यही संकेत प्राप्त होता है |”5 इसके अलावा एक मत और भी अत्यंत व्यापक रूप से सूफी उत्त्पति के सन्दर्भ में स्वीकार किया जाता है; जो पवित्रता एवं शुद्धता से सम्बंधित है | अली हुजवेरी “सूफी शब्द की उत्पत्ति सफा शब्द से मानते हैं |”6
“सूफी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हजरत मुहम्मद साहब के देहावसान के लगभग 200 वर्षों पश्चात् 9वीं शताब्दी के मध्य बसरा के अरबी लेखक जाहिज ने किया | ‘जानी’ के अनुसार सर्वप्रथम इसका प्रयोग कुफा के अबू हाशिम के लिए हुआ | पुनः 50 वर्ष के अन्दर इसका तथा दो सौ वर्षों में सभी मुस्लिम रहस्य वादियों के लिए इसका व्यवहार होने लगा ये सभी लोग उज्ज्वल जीवन व्यतीत करते थे |”7 ऐसा लगता है कि सूफियों का दृढ़ विश्वास है कि परमात्मा का साथ उनको तभी मिल सकेगा जब वह संसार के मोह से अपने को मुक्त रख सकेंगे | इस तरह के विचार से कुछ विद्वानों ने अपनी सहमति भी व्यक्त की है जैसे श्री ए.जे.अरबेरी के कथन को देख सकते हैं, “तसव्वुफ़ की निरुत्त्पत्ति अल कुशैरी के अनुसार सफा शब्द से हुई है, जिसका अर्थ शुद्ध होना है, और इसका सम्बन्ध ‘सुफ’ वस्त्र से नहीं है |”8
वैसे यह सच है कि सूफी संप्रदाय की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कोई सटीक प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, सब कुछ एक मोटा-मोटी अनुमान ही है | जिसमें कुछ लोग ऊनी वस्त्र धारण करने के कारण सूफी स्वीकार किये जाते हैं तो कुछ शुद्धता को अपनाने के कारण सूफी माने जाते हैं, इन दोनों के पास जैसा कि अपना-अपना गंभीर तर्क है, चूंकी ऐसी स्थिति में प्रमाणिक जानकारी न होने से किसी भी पक्ष को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है |
ऐसा कहा जाता है कि सूफीवाद इस्लाम का एक रहस्यवादी पंथ है, जो इस्लाम की अनेक मान्यातओं को स्वीकार भी करता है और कुछ अस्वीकार भी, क्योंकि यह इस्लाम से ज्यादा उदार पंथ है, केवल इस्लाम से नहीं अपितु विश्व के अनेक धर्मों से यह उदार पंथ है | यह इराक के बसरा नगर में तकरीबन एक हजार साल पहले जन्मा | राबिया, अल अदहम, मंसूर हल्लाज जैसे शक्सियतों को सूफी अपना प्रणेता मानते हैं | मसलन 9वीं एवं 10वीं शताब्दी तक सूफी समाज का अस्तित्व प्रकाश में आ गया था | यह लगभग स्वीकृत है कि भारत में सूफी पंथ का आगमन अरब देश के रास्ते से ही आया, और अबुल हसन हज को असल में सूफी मत का प्रचारक माना जाता है | इन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में इस्लाम का प्रचार किया, लेकिन इनका तरीका सूफियाना था | भारत के उत्तर भाग में या यूँ कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर भाग में यह 12वीं शताब्दी में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती के माध्यम से आया और प्रचार-प्रसार हुआ | इसमें कोई संशय नहीं कि यहाँ खाव्जा मुईनुद्दीन चिस्ती से पहले सूफी पंथ को जड़ ज़माने में सफलता मिली हो, असल में सूफी संप्रदाय को इनके समय में ही भारतीय उपमहाद्वीप में जड़ जमाने में सफलता मिली और सूफी संप्रदाय को पहचान भी | साथ ही यहाँ यह खूब फली-फूली भी | दक्षिण भारत में फखरुद्दीन ने करीब 13वीं शताब्दी में सूफी मत का प्रचार-प्रसार किया |
सूफी मुख्यतः एकेश्वरवादी होते हैं | सूफियों के बारे में ऐतिहासिक विवरण भी भारतीय सन्दर्भ में मिलता है | ऐसा उल्लेख है कि अकबर के दरबार में सूफियों का अत्यंत आदर एवं सम्मान किया जाता था | इतना ही नहीं, 13वीं शताब्दी में दिल्ली पर मुस्लिम शासक अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे और उन्होंने भी सूफी संप्रदाय को आदर एवं संरक्षण खूब दिया |
“दिल्ली साम्राज्य के प्रतिनिधि मुस्लिम सूबेदारों की छत्रछाया में सूफियों और कव्वाली को दक्षिण में दूर-दूर तक फैलाने का अवसर मिल चूका था | फलतः मुकाम पद्धति का प्रचार और प्रसार सुदूर दक्षिण तक हो चूका था |”9
दुनियां के ज्यादातर धर्मो में ऐसा प्रायः देखने को मिलता है कि धर्म के मुख्यतया दो स्वरूप नज़र आते हैं एक तो बाह्य स्वरुप दूसरा आतंरिक स्वरुप | बाह्य स्वरुप से आशय है, एक बाहरी आवरण जो धर्म का दृश्यमान रूप होता है | इसी उद्देश्य के चलते दुनियां के ज्यादातर धर्मो में या यूँ कहें कि दुनियाँ के सभी धर्मों में एक अलग-अलग असमानता दिखलाई देती है; यह असमानता आवरण,परिधान एवं स्वरुप के स्तर पर सहज ही देखे जा सकते हैं | जैसे- यहूदी, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख, मुस्लिम और हिन्दू धर्मो का आवरण, परिवेश, पोशाक, रहन-सहन, विशिष्ट पर्व, धर्मस्थल, अनुयायियों की संस्कृति एवं ईश्वर से प्रार्थना, इबातात एवं पूजा का तरीका अलग-अलग होता है | तो वहीँ धर्म के दूसरे स्वरुप के अंतर्गत जो आतंरिक पक्ष पर आधारित रहता है, उसमें प्रायः देखने को मिलता है कि ज्यादातर विश्व के सभी धर्मों में आतंरिक पक्षों में एक ख़ास समानता दिखती है | वे ही धर्म जो अभी बाहरी परिवेश के कारण अलग-अलग दिखाई दे रहे थे; लेकिन आतंरिक आधार पर वे मनुष्यता के कल्याण की भावना से युक्त नज़र आते हैं | इस दूसरे पक्ष में मनुष्य कल्याण की भावनाएं, मनुष्य के विकास की भावनाएं एवं समाज की सुरक्षा की भावनाएं अन्तर्निहित रहती हैं | इन्हीं दूसरे पक्ष के अंतर्गत जो आतंरिक मूल्य पर आधारित धर्म है; ज्यादातर सूफियों की भी भक्ति रची एवं गढ़ी गयी है | सूफियों का इबादत का तरीका कुछ अलग है वे बेशक पांच वक्त की नमाज अदा करते हैं लेकिन वो अल्लाह को नमाज तक सीमित नहीं रखते हैं | वे उन्हें नृत्य के माध्यम से याद करते हैं साथ ही संगीत में भी उन्हें याद करते हैं | तमाम विशेषताओं से युक्त सूफी सम्प्रदाय में संगीत भी एक प्रमुख विशेषता है | जब सूफी भारतीय उपमहाद्वीप में आये तो अपने साथ वो अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक आचार-विचार भी लेकर आये | जो भारतीय समाज में समय के साथ इस प्रकार घुल गये कि आधुनिक समय में यह अलगाव कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सा रीती-रिवाज वास्तव में इस देश का है और कौन बाहर का | इसके भी कई कारण हैं | भारतीय उपमहाद्वीप में एक गजब की सामर्थ्य है, सबको पचा जाने की या यूँ कहें कि सबको इस प्रकार अपने में समेट लेना कि ज्ञात ही न हो पाना कि वास्तव में मूल क्या है | ऐसी उदार एवं सहिष्णु सांस्कृतिक विशेषता के कारण ही हमेशा से भारतीय समाज और भारतीय संस्कृति लोगों को आकर्षित करती रही है | आधुनिक समय में या इस प्रकार कहें कि वर्त्तमान समय यानि 21वीं सदी में जब भी सूफी नाम लिया जाता है तो ये अपने आतंरिक एवं बाह्य विशेषता के कारण ही सहज याद आ जाते हैं | इस विशेषता में मुख्यतया उनका सफेद लिबास वाला काया सहज मानस पटल पर आ जाता है और गोल-गोल होकर नृत्य करते हुए एक हाथ ईश्वर एवं अल्लाह के स्मरण में आकाश की ओर तो दूसरा नीचे जमीन की ओर किये हुए, उनकी यह तस्वीर नहीं भूलती |
जब भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी सम्प्रदाय आया तो अपने साथ मसलन अरब देश और ईरान देश के संगीत तो लाये ही परन्तु यहाँ पहुँचने पर उनके संप्रदाय में अनेक भारतीय उपमहाद्वीप के पारम्परिक संगीत भी जुड़ गए | क्योंकि यह सहज ही ज्ञात है कि भारतीय उपमहाद्वीप अपने सांस्कृतिक धरोहर एवं कलाओं के लिए सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता था, और ऐसी स्थिति आज भी बनी हुई है | भारतीय उपमहाद्वीप की परम्परा में संगीत अत्यंत समृद्ध कला के तौर पर ख्यात था | यह सच है कि अंग्रेज जब भारत में हुकूमत करने लगे तो बड़े पैमाने पर कलाओं का क्षरण हुआ | कुछ क्षरण तो असहिष्णु मुसलमान शासक जो संख्या में थोड़े थे, उनके द्वारा भी हुआ | इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना जरुरी है कि अनेक मुसलमान शासकों ने भारतीय कलाओं का विकास भी बड़े पैमाने पर किया | कुछ बाहरी आक्रमणकारियों एवं लुटेरे शासकों के कारण भी भारतीय उपमहाद्वीप में कलाओं की क्षति बड़े पैमाने पर हुई | मसलन वो जब भी आक्रमण करने आते तो उस क्रम में अनेक बड़े कलाकारों की हत्या भी कर देते | इसके बावजूद जब सूफी 12वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में आये तो भारतीय उपमहाद्वीप अपनी सांस्कृतिक कलाओं की समृद्धि के लिए सुविख्यात था |
सूफियों द्वारा प्रयुक्त संगीत को ‘समा’ कहा जाता है | समा अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है पढ़ना एवं गाना | ऐसा कहा जाता है कि आरम्भ में सूफी एक जगह जमा हो जाते थे तथा सामूहिक रूप से ईश्वर के नामों का जाप करते थे, जब ये जाप करते थे तो उसमें एक प्रकार के संगीत की लय निकलती थी | जिसे ‘समा’ कहा जाता था | सूफियों का मानना था कि जब वो समा करते हैं तो उससे एक प्रकार की आनदं की अभिव्यक्ति होती है | तथा ईश्वर के प्रेम की ज्वाला ह्रदय में भड़कती है तब वह लोग भावोद्रेक के कारण अचेत हो जाते हैं झूमते-झूमते गिर जाते हैं और उन्हें हाल आ जाता है | सारांशः वे समा की पराकाष्ठा पर पहुँचकर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं | लेकिन धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन हुआ, हजरत मोहम्मद साहब के प्रशंसा में गीत गाये जाने लगे | और सामूहिक नृत्य भी होने लगे | और कुछ वाद्यों का भी उपयोग होने लगा | जिसके कारण धर्माचार्यों द्वारा बहुत आलोचना होने लगी | जबकि यह सच है कि यदि ध्यान से कुरान का अध्ययन किया जाय तो कहीं भी उसमें संगीत का त्याज्य नहीं मिलता है |
सूफियों की परंपरा में सबसे मुख्य पक्ष है प्रेम | पूरे सूफी संप्रदाय का मुख्य आधार प्रेम है | जिसे इश्क भी कहते हैं और अरबी में इसके लिए तसव्वुफ़ शब्द का प्रयोग होता है | सूफी परम्परा इश्क मजाजी से इश्क हकीकी तक पहुंचें की परम्परा का अनुमोदन करती है | प्रेम का मूल है श्रृंगार रस और श्रृंगार रस की अभिव्यंजना के लिए संगीत से बेहतर कोई सशक्त माध्यम नहीं हो सकता | परिणामतः सूफी संतों ने अपने प्रचार-प्रसार एवं अपने सिद्धांतों एवं आदर्शों को स्थापित करने के लिए संगीत को माध्यम रूप में चुना | चूंकी संगीत एक ऐसा माध्यम था जिससे लोगों में सहज ही अपनापन की भावना कायम की जा सकती थी | प्रत्येक समुदाय को निकट लाने एवं प्रेम-सौहाद्र को बढ़ाने में संगीत एक बेहतर कारक हो सकता था | संभवतः यही कारण था कि सूफी तात्कालिक संगीत के कई तत्वों को आत्मसात कर दोनों संस्कृतियों के सम्मिश्रण से निर्मित एक नवीन सूफियाना संगीत को जन्म दिया |
इस प्रकार ‘समा’ में गाई जाने वाली गायन शैलियाँ यद्यपि गायन के मूल प्राण प्रबंध को नहीं समझ सके, तथापि भारतीय संगीत की स्वरावलियों ने उन्हें आकर्षित किया | इसी कारण उन्होंने अरबी एवं फारसी दोनों का सम्मिश्रण कर कुछ प्रमुख संगीत के प्रकार निर्मित किये जैसे- कौल, कल्बाना, नक्शगुल, कव्वाली, गजल, तराना आदि अनेक गायन विधाएं विकसित की |
कव्वाली की उत्पत्ति व विकास के सन्दर्भ में डाक्टर शर्मा का मानना है कि कव्वाली की मुख्य विशेषता अरबी-फारसी, ईरानी-भारतीय संगीत का सम्मिश्रण है, परमात्मा की प्रशंसा या उसको विरहावस्था में उसका स्मरण करना कव्वाली के माध्यम से संम्पन्न होता है | कव्वाली सूफियाना संगीत की विशेष गायकी है, जिसका मूल रूप आध्यात्म को स्पर्श करता है, यह एक रूप से समा का ही रूप है | कव्वाली में सूफी दर्शन और हुस्नों इश्क की रंगीनियत भरी शोखी जैसे मसले शामिल होते हैं | यह वर्त्तमान समय में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है |
सूफी संगीत में ‘कौल’ एक महत्वपूर्ण प्रकार है, यह अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ कथन, वचन एवं प्रवचन होता है | कौल में गंभीर राग के प्रकार प्रयुक्त होते हैं |
‘धमार’ उस गाने का नाम है, जो सूफियों के महफिल में गाया जाता है| जब सुफियायें करम खड़े होकर एक दूसरे का हाथ पकड़कर और वृत्त बनाकर नृत्य करते तब सबके पाँव कव्वाल के इस गाने के वजन पर उठते और बढ़ते हैं, साथ ही इसमें जो ताल बजाई जाती है वो धमार ताल में बंधी होती थी | जिसे आधुनिक काल में धमार कहा जाता है |
उपरोक्त गायन शैलियों के साथ-साथ अन्य विधाएं जैसे तराना एवं ठुमरी भी हिन्दुस्तानी संगीत गायकी में सूफी परम्परा के तत्व दिखाती है | तराना गायकी में यद्यपि निरर्थक शब्द होते थे लेकिन सूफियों ने उसमें फारसी शायरी जोड़ कर उसे भी सार्थक आयाम दिया |
ठुमरी गायकी भी सूफियों के यहाँ बहुत प्रसिद्ध है, ठुमरी गायकी वियोग अथवा विप्रलंभ श्रृंगार से ओत-प्रोत है | इसमें भावों का विशेष महत्त्व होता है | जिस प्रकार जीवात्मा परमात्मा के वियोग में व्याकुल होता है, यह विरहावस्था भी सामान्य होकर भी विशिष्ट व सूफियाना होती है |
इस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी संगीत की परम्परा से अनेक अनमोल रत्न प्राप्त हुए | सूफियों ने तराने को जहाँ सार्थक आयाम दिया तो कव्वाली जैसी अनूठी गायन शैली का प्रभाव हिन्दुस्तानी भक्ति संगीत कीर्तन व सत्संग पर भी खूब पड़ा | सूफी संगीत लोकगीत पर आधारित थी, इस कारण भारतीय लोक जीवन में सूफी संगीत अत्यंत लोकप्रिय रही, क्योंकि कलाएं सबसे ज्यादा सहिष्णु होती हैं किसी भी धर्म में सहजता से घुल-मिल जाती हैं, और यह आभास भी नहीं होने देती कि इनकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है, किस समाज से हुई है | सूफी संगीत इसका बेहतरीन मिसाल है |
यह सच है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी संगीत विकसित हुई और यह भी उतना ही सही है कि सूफी संगीत ने भी भारतीय उपमहाद्वीप के संगीत को परिमार्जित एवं विकसित किया | दोनों ने एक दूसरे को ज्यादा उदार एवं सामंजस्यवादी ढंग से विकसित करने का प्रयास किया और यह स्थिति आज भी बनी है | क्योंकि वर्त्तमान हालत में जिस प्रकार से कलाओं को किसी खास विचारधारा के आधार पर सीमा रेखा या भौगोलिक परिधि में कैद करने की कोशिश की जा रही है, वह न तो समाज के लिए ठीक है न ही एक उन्मुक्त विकासशील रचनात्मक कलाओं के लिए ही, क्योंकि जब कलाएं सीमा रेखाओं में कैद होने लगेंगी तो उनमें जो एक सहिष्णु सामंजस्यवादी संस्कृति के मेल से एक नया रचनात्मक शैली विकसित होती रही है वह न हो पावेगी | इसलिए जरुरी है कि कलाओं को अपने सहज स्वरुप से आने दें, उन्हें स्वयं ही अनेक समाज, धर्म और सीमा रेखा में मिलने दें | तनिक सोचिये यदि सूफी संगीत को अरब के भौगोलिक परिधि में ही रहने दिया जाता तो भारतीय उपमहाद्वीप कितना कुछ न जान पाता तथा यही स्थिति सूफी संगीत के साथ भी होता कि यदि वह भारतीय उपमहाद्वीप में न आया होता तो अपने स्वरुप, अपने कला का विकास इतना वैविध्य रूप में क्या कर सका होता? इसलिए एक दूसरे के विकास के लिए सभी को थोड़ा ज्यादा उदार, थोड़ा ज्यादा सहिष्णु होकर सोचने की जरुरत है | तभी हम सभी के साथ अथवा ज्यादा से ज्यादा लोगों के अथवा चीजों के बारे में न्याय कर सकते हैं |
सन्दर्भ सूची-