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भीष्म साहनी की कहानियाँ : युग और संवेदना का दस्तावेज़

भीष्म साहनी की कहानियों पर कुछ लिखने से पूर्व ही स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहाँ उनकी सम्पूर्ण कहानियों के लेकर नहीं, स्वयं कहानीकार द्वारा चयनित-सम्पादित-संकलित प्रतिनिधि कहानियों पर चर्चा की जाएगी । सन् 1997 में स्वयं भीष्म सहानी ने अपनी कहानियों का ‘आधार चयन’[1] आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित करवाया था, जिसका दूसरा संस्करण सन् 2000 में प्रकाशित हुआ था । इस संग्रह में उनकी 15 कहानियों के अतिरिक्त आरंभ में एक संक्षिप्‍त ‘प्रस्तावना’ भी है । यह ‘प्रस्तावना’ भीष्म साहनी के रचना-समय के साहित्य ही नहीं, समाज को देखने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । यह सही है कि रचनाकार की रचनाएँ ही स्वयं अपनी बात कहती हैं, किन्तु उसके वक्तव्य को भी नजरअन्दाज़ नहीं किया जा सकता है, विशेषकर भीष्म साहनी जैसे सजग रचनाकार का वक्तव्य । केवल यह जान लेना पर्याप्‍त नहीं है भीष्म साहनी ने इस ‘प्रस्तावना में क्या लिखा है, अपितु यह भी जानना आवश्यक है कि उन्होंने ऐसा क्यों लिखा? कहानियों के साथ इस प्रस्तावना पर भी चर्चा करना आवश्यक है ।

भीष्म साहनी ने सर्वप्रथम संकलन में संगृहित कहानियों की दृष्टि के सन्दर्भ में लिखा है, “कहानियाँ चुनते समय यह कोशिश रही कि अपने रचनात्मक जीवन के प्रत्येक कालखण्ड को प्रतिनिधित्व मिल सके ।” हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि “किसी व्यक्ति के जीवन को तो कालखण्डों में बाँटा जा सकता है, पर उसके लेखन को कालखण्डों में बाँटना भ्रामक हो सकता है ।” इसका कारण प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं, “वक्‍त बीतने पर भले ही किसी लेखक के शिल्प और शैली में थोड़ी परिपक्‍ता या बदलाव आ जाए, विचार और चिन्तन के धरातल पर भी उसकी दृष्टि में बदलाव आ सकता है, उसका अनुभव क्षेत्र भी अधिक विशाल हो सकता है, पर मैं समझता हूँ उसके संवेदन का मूल स्वभाव नहीं बदलता । इसलिए इस बात का दावा नहीं किया जा सकता कि एक कालखण्ड के बाद दूसरे कालखण्ड में प्रवेश करते हुए कोई लेखक अलग तरह की कहानियाँ लिखने लगेगा ।” स्पष्ट देखा जा सकता है कि यहाँ भीष्म साहनी कहानी का अस्तित्व उसके रूप-तत्व में नहीं, अपितु कहानीकार के ‘संवेदन’ में मानते हैं, जिसे रचनाकार की भावधारा एवं विचारधारा प्रभावित करती है । नई कहानीकारों के एक वर्ग की तरह उन्होंने रूप के नएपन में ही कहानी को ढूँढ़ने की बजाए लेखकीय संवेदना में उसका होना माना है । उन्होंने स्पष्ट रूप में लिखा है, “किसी लेखक का लेखकीय व्यक्तित्व मूलतः उसके संवेदन में ही बनाता है । संवेदना की मौलिकता में ही उसके लेखन की मौलिकता निहित होती है । उसकी शैली और शिल्प उसके संवेदना के अनुरूप ही विकास पाते हैं । किसी विचारक ने कहा था कि लेखक की शैली में ही उसका व्यक्तित्व झलकता है । बात शायद एक ही है । लेखक का संवेदन उसकी शैली में ही चरितार्थ होता है ।” स्पष्ट शब्दों में संवेदना को रचना का मूल स्रोत मानते हुए उन्होंने उसे साहित्य एवं व्यक्तित्व से जोड़ा है । लेखक के परिवेश के साथ सम्बन्धों, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों, विचारधारा और साहित्य के सम्बन्ध, यथार्थवाद, सोवियत संघ का उत्थान और विघटन आदि पर गहराई से, किन्तु संक्षेप में, उन्होंने विचार प्रस्तुत किए हैं । अपने समकालीन स्थितियों का उन्हें पूर्ण बोध था । कहानी की परम्परा, उसमें यथार्थवाद और विचारधारा के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा, “निश्‍चय ही हमारा परिवेश वह नहीं रहा जो पचास वर्ष पहले था ।” अर्थात् एक रचनाकार के रूप में न केवल वे परम्परा को समझते थे, अपितु अपने समकालीन समय के उससे बदलावों के लेकर भी सचेत थे । उसके अनुसार रचनाकार की संवेदना में परिवर्तन होना स्वाभाविक है, जो उनकी विवेचित कहानियों में देखने को मिलती है ।

कोई भी रचना एक व्यक्ति की तरह होती है, सामाजिक व्यक्ति तरह । यदि साहित्य की सुदीर्घ इतिहास परम्परा में रखकर देखा जाए तो वह इतिहास के साथ द्वन्द्वात्मक सह-सम्बन्ध स्थापित किए होती है । व्यक्ति या रचना, परम्परा से अलग होने का चाहे जितना दावा करे, लेकिन इतिहास की धारा में उसका स्थान बनना लाज़मी है, जो सदा परिवर्तनीय होता है । कोई भी रचना इतिहास को केवल प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि इतिहास और वर्तमान से स्वयं प्रभावित भी होती रहती है । इसलिए परम्परा कोई ठहरी हुई वस्तु नहीं है, वह वर्तमान के साथ नया अर्थ प्राप्‍त करती है, तो कभी पूराने अर्थों में बहिष्कृत हो जाती है, तो कभी उन्हीं पूर्वप्राप्‍त अर्थ के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो उठती है । अपनी संक्षिप्‍त-सी प्रस्तावना में जब भीष्म साहनी कहानी की संवेदना, उसकी शैली अर्थात रूप-पक्ष, साहित्य और विचारधारा, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर की स्थितियाँ, यथार्थवाद आदि पर चर्चा करते हैं, तो इसके कारण उनके समकालीन साहित्यिक धाराओं और परम्परा की जड़ों में देखने मिलते हैं । यह बिल्कुल अकस्मिक नहीं है कि वे इन्हीं बिन्दुओं को उठाते हैं और प्रस्तुत करते हैं । वे ऐसा क्यों करते हैं उसके कारणों को जानने के लिए हमें उनके समकालीन साहित्य, जब यह कहानियाँ लिखी जा रही थी और जब संकलित हो रही थी, को जान लेना आवश्यक है ।

भीष्म साहनी ने जिन वस्तु और रूप, साहित्य और विचारधारा, साहित्य से समाज के सम्बन्ध, प्रतिबद्धता मुद्दों को उठाया है वे हिन्दी आलोचना-साहित्य में चर्चा की विषय रहे हैं । विशेष तौर पर स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में नई कविता, नई कहानी आन्दोलनों के भीतर लिखनेवाले दो भागों में बँटे साहित्यकारों, आधुनिकतावादी एवं प्रगतिवादियों, में यह हमेशा से विवाद का विषय रहे हैं । यह विवाद हमेशा राजनीति तो कभी उससे निःसृत ‘विश्‍वदृष्टि’ का हिस्सा रहे हैं । साहित्य के वैचारिक एवं प्रतिबद्ध रूप को दबाने के प्रयास शीतयुद्ध की राजनीति और ‘कॉग्रेस फॉर कल्चरल फ्रिडम’ के प्रयासों से भारत में आयातीत विचारों से जुडते हैं । इसकी ओर इशारा करते हुए गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा था, “आपको याद होगा, सन् 1951-52 के अनन्तर, साहित्य क्षेत्र से, विशेषकर काव्य क्षेत्र से, प्रगतिवादी विचारधारा को खदेड़कर बाहर करने के लिए, नयी कविता के बुर्ज से शीतयुद्ध की गोलंदाजी की गई थी । यह शीतयुद्ध, मेरे लेखे विश्‍व में चल रहे राजनैतिक शीतयुद्ध की साहित्यिक शाखा के रूप में था ...एक नया वातावरण उत्पन्‍न हुआ ....यह वातावरण विशेष समूह द्वारा, लगभग संघटित रूप से, तैयार किया गया था ...इस शीतयुद्ध के समय प्रचलित सिद्धान्तों की छाप अभी भी नयी कविता पर है ।”[2]

इसी क्रम में डॉ.रामविलास शर्मा ने स्वतंत्रता के बाद की सन् पचास के पूरे दशक तक की साहित्यिक प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हुए उसमें सामाजिक दायित्वों से पलायन, साहित्य को जबरन तत्कालीन सामाजिक हलचलों से दूर रखकर ‘कला के लिए कला’ के आत्मप्रशंसक आन्दोलन, प्रगतिवादी साहित्य में संकिर्णतावाद तथा साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक प्रभाव के बतौर नयी कविता में अस्तित्ववाद के प्रभाव को सविस्तार बताया था । जबकि डॉ.नामवर सिंह ने आज़ादी के बाद सन् पचास तक के हिन्दी साहित्य में नव-रोमान्टिक प्रवृत्तियों को विवेचित करते हुए, 60 के दशक को ‘मोहभंग का दौर’ कहा था। उन्होंने 1962 के आस-पास मोहयुग का अन्त और मोहभंग की शुरुआत मानी । स्वतंत्रता के बाद के लगभग पच्‍चीस वर्षों के साहित्य को उन्होंने ‘मोह’ और ‘मोहभंग’ के मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास किया । इस सन्दर्भ में मैनेजर पाण्डेय ने उपरोक्त दोनों आलोचकों की मान्यताओं के ठीक विपरित मत किया है । उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर राजसत्ता के दमनात्मक चरित्र को उभारकर दमन बनाम ‘प्रतिरोध’ की पारिभाषिकी के माध्यम से साहित्य को समझने-समझाने का प्रयास किया है । उन्होंने डॉ.रामविलास शर्मा की तरह इस युग को केवल नकारात्मक या डॉ.नामवर सिंह की तरह मोह और उसके भंग को लेकर निर्णयात्मक मत नहीं दिए, अपितु इस दौर के साहित्य में यथार्थवाद एवं कलावादी-रूपवादी प्रवृत्तियों के संघर्षों को रेखांकित किया । ‘विरोधों का सामंजस्य’ नहीं विरोधों का संघर्ष वे इस युग के साहित्य में देखते हैं, जिसे वे इस दौर की मुख्य प्रवृत्ति मानते हैं । ‘आलोचना’ के जनवरी-मार्च, 1979 के अंक में प्रकाशित ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ’ शीर्षक लेख में उन्होंने डॉ.नामवर सिंह के ‘सांस्कृतिक नवजागरण’ के मत का सतर्क खण्डित किया है, जिसका तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाओं से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था । इसके पश्चात उन्होंने 1962 में हुए भारत-चीन सीमा संघर्ष का हिन्दी साहित्य पर कोई निर्णायक प्रभाव होने की बात को भी नकार दिया है । डॉ.सिंह द्वारा प्रस्तावित मोह और मोहभंग को भी एक कल्पना मात्र मान हुए वे स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में दूसरा महत्त्वपूर्ण मोड़ 1967 में मानते हैं, जब हिन्दी ही नहीं अधिकांश भारतीय भाषाओं में ‘प्रगतिशील आन्दोलन पुनः संगठित होने लगा था’ । प्रगतिशील आन्दोलन कहने का अर्थ यह है कि गद्य और पद्य साहित्य पर इसका समान प्रभाव होना । ध्यान रहे कि हिन्दी में प्रगतिवादी साहित्य ने ही गद्य और पद्य की वैचारिक एवं साहित्य से समाज के सम्बन्धों की फाँक पहली बार दूर की, जो द्विवेदी युग और छायावाद में बराबर देखने को मिलती है । जैसे द्विवेदी युग और छायावाद के समय गद्य और पद्य की प्रवृतियाँ कई मायनों में भिन्‍न थी, किन्तु प्रगतिवाद में आकर दोनों ने, गद्य और पद्य ने, यथार्थवाद का दामन थामा और विशाल जन-चेतना को अभिव्यक्ति देने का हिस्सा बने । मानो, दूसरी बार वही साहित्य का युग लौट आया, किन्तु भिन्न रूप में, भिन्न परिस्थितियों में । पहले के समय में उपनिवेशवादी जॉन के शासन का क्रूर दौर था, तो दूसरे में जनार्दन का ।

आधुनिकतावादी-रूपवादी-कलावादी प्रवृत्तियों से संघर्ष करते हुए हिन्दी गद्य साहित्य में प्रेमचन्द की परम्परा को कायम रखना और साहित्य को बदले हुए अधिक सूक्ष्म एवं क्रूर नए यथार्थ से जोड़ना साहित्यकारों के लिए आवश्यक हो गया था । साहित्य में यथार्थ के चित्रण को अधिक सूक्ष्म और संवेदनशील बनाने आवश्यकता महसूस की जाने लगी । ऐसे में भैरवप्रसाद गुप्‍त, मार्कण्डेय, अमरकान्त, शेखर जोशी, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई और राजेन्द्र यादव जैसे समर्थ कहानीकार सामने आए, जिन्होंने समय की नब्ज़ को अपनी कहानियों के माध्यम से पकड़ने का प्रयास किया ।

राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि “नयी कहानी का नामकरण नयी कविता की तरह अपनी पिछली परम्परा से अलगाने के लिए हुआ था ।”[3] और इस नएपन के आग्रह में इस समय के कई कहानीकारों के सामने समस्या थी की यशपाल की परम्परा की मार्क्सवादी परम्परा स्वीकार की जाए या अज्ञेय की बुर्जुआ व्यक्तिवादी? और देश की परिस्थितियों को देखते हुए अधिकांश ने दूसरे का चुनाव किया, जो ‘नए’ को रूप के स्तर तक सीमीत करके देखने का क़ायल था । अतः नई कहानी आन्दोलन पर व्यक्तिवाद क्रमशः हावी होता गया । नई कहानी का जो आन्दोलन आरंभ में प्रगतिशील कहानीकारों के हाथों में था वह विचार की अपेक्षा अनुभूति, समाजवाद की अपेक्षा मानवता, प्रतिबद्धता की अपेक्षा व्यक्ति स्वातंत्र्य, सामाजिकता की अपेक्षा वैयक्तिकता, आदर्श की अपेक्षा जीवन, संघर्ष की अपेक्षा जीना-भोगना, सामाजिक-यथार्थ की अपेक्षा प्रामाणिक अनुभव आदि रूपवादी-व्यक्तिवादी प्रवृतियों को तरजीह देनेवाले कहानीकारों के हाथों में चला गया । इस दौर में साहित्य में विचारधारा का खूब जमकर विरोध किया गया । नई कहानी में एक ही समय आगे बढ़नेवाली इन दोनों परम्पराओं की पहचान किए बगैर नई कहानी आन्दोलन एवं उसके कथ्य-रूप को समझना असंभव है । जब भीष्म साहनी अपने कहानी-संकलन की ‘प्रस्तावना’ में साहित्य के इन मुद्दों को उठा रह थे तो उनमें साहित्य में संवेदन बनाम रूपवाद और विचारधारा बनाम विचारधाराहीनता, साहित्य की समाजसापेक्षता बनाम कलावाद-व्यक्तिवाद की इस लम्बी बहस से जोड़कर देखा जाना चाहिए । इस अर्थ में उनकी कहानियाँ उनके वक्तव्य को सार्थक करती हैं और वे परम्परा का विकास अपने युगानुरूप करते हुए देखे जा सकते हैं । उनकी प्रस्तावना में भी यही बात देखने को मिलती है ।

हिन्दी कहानी के इतिहास के सन्दर्भ में ‘नई कहानी’ और उसके बाद के दौर के कहानीकारों में भीष्म साहनी का अपना विशिष्ट स्थान दो अर्थों में है, पहला यह की उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत के अन्य कहानीकारों की तरह कई बेहतरीन कहानियाँ लिखी, तो दूसरे अर्थ में वे आधुनिकतावाद के आकर्षण समय में भी अमरकान्त आदि तत्कालीन कहानीकारों की तरह परिवेश से जुड़े रहे । उनकी कहानियों में आधुनिकता है, आधुनिकतावाद नहीं है । परिवेश के प्रति उनका दृष्टिकोण- उनकी कहानियों के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है, जिसमें अभिशप्‍त-शोषित मनुष्य के प्रति उनका संवेदनात्मक एवं विचारधारात्मक लगाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है । फिर चाहे वह चाचा मंगसैन (चाचा मंगसैन), वाङ्चू (वाङ्चू), जग्गा (साग-मीट), अहमदू (मुर्गी की कीमत), माँ (चीफ़ की दावत) या फिर मनोहरलाल-उसकी पत्‍नी एवं शकूर-जैनब (पाली) जैसे तमाम पात्रों के लिए उनकी कहानियों में संवेदनात्मक विचारधारा देखने को मिलती है । यह संवेदनशीलता मात्र भावनात्मक लगाव ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील लेखक के रूप में वे इसमें न्याय को तरजीह देते दिखाई देते हैं । उनके द्वारा चयनित अधिकांश पात्र निम्‍न या निम्‍न-मध्यवर्गीय हैं । उनकी स्थितियाँ अधिकांश उनके वर्ग-चरित्र के अनुकूल हैं । उनकी नियति की अपेक्षा उनकी स्थितियों से कहानी को गति मिलती है और इसी के अनुसार उनका विद्रोह कभी उठता है तो कभी शमित हो जाता है तो कभी दबा दिए जाने पर विवश किया जाता है । यही पात्र चयन, उनके अनुसार वातावरण-परिस्थितियों के निर्माण किये जाने की आवश्यकता के कारण ही भीष्म साहनी की कहानियों में एक निश्‍चल एवं सादे रूप में लिखी गई हैं । उनकी कहानियों में वस्तु एवं शिल्प-सौन्दर्य को अलग से आसानी से अलगाया नहीं जा सकता है । उनके शिल्प-सौन्दर्य की नवीनता एवं विशिष्टता इसी में है कि वह पात्रों, उनकी परिस्थितियों-परिवेश के अनुसार अपना रूप स्वयं ग्रहण करती हैं । वह जाने-पहचाने परिवेश के कहानीकार हैं, यही उनकी कहानियों की वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर नवीनता है । सामान्य जन-जीवन से उठाए गए प्रसंगों-पात्रों-परिवेश के कारण प्रायः पाठक उनकी कहानियों के परिवेश से पहले से ही परिचित होता है, इसलिए वह चौंकता नहीं, आतंकित होता नहीं, बल्कि सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है । यही कारण है कि उनकी कहानियाँ रूपवाद से अपनी लड़ाई स्वयं लड़ती हैं । पाठक के संवेदन और परिवेश के अधिक समीप जाते हुए ।

उनकी कहानियों का परिवेश अधिकांशतः मध्यवर्गीय समाज है, किन्तु लेखक मध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों को खोलने के लिए उसे निम्‍न-मध्यवर्गीय पात्रों-परिस्थितियों में तनाव दिखाना नहीं भूलता है । ‘साग-मीट’ इसी तरह की कहानी है । शास्त्रीय शब्दावली में कहे तो यह कहानी एकालाप शैली का बेहतरीन नमूना है । कहानी में बार-बार दोहराए जानेवाले वाक्य ‘मर्द लोग समझदार होते हैं’ एवं ‘इनका दिल तो समंदर है’ से मध्यवर्ग की स्वार्थपरकता और स्त्री का पुरुषवादी सत्ता के प्रति अनुकूलन अभिव्यक्त होता है, जिससे कहानी में एक प्रकार के व्यंग्य का भी निर्माण हुआ है । घर का नौकर जग्गा बेहतरीन साग-मीट बनाता है और अपने मालिक के घर के पीछेवाले घर में रहता है । मालिक का भाई जग्गा के पत्‍नी से जबरन अनैतिक सम्बन्ध बनाता है । नौकर होने के कारण इस अत्याचार की कहानी किसी से नहीं कह पाता है और आत्महत्या कर लेता है । जग्गा का मालिक उसे अपने रंग में रँगकर पुलिस के सामने प्रस्तुत करता है और उसे सिर्फ इसलिए याद करता है कि वह साग-मीट अच्छा बनाता था । स्त्री होन के नाते न घर की मालकिन जग्गा की पत्‍नी के लिए कुछ नहीं कर सकती और मध्यवर्गीय संवेदनहीनता होने के नाते वह कुछ कर सकती है । जग्गा की आत्महत्या को पाठक चाहे तो निम्‍न वर्ग का विद्रोह भी कह सकता है या फिर स्थितियों से पलायन भी । दोनों स्थितियों में कहानी एक सामाजिक त्रासदी को अभिव्यक्त करती है । ‘पिकनिक’, ‘शिष्टाचार’ ‘राधा अनुराधा’ इसी प्रकार मध्यवर्ग की लिजलीजी संवेदना को उजागर करती हैं । इन कहानियों में वर्गगत तनाव और निम्‍न वर्गीय पात्रों की स्थितियों का यथार्थ चित्रण एवं कभी-कभी उनके मौन विद्रोह की भी अभिव्यक्ति हुई है । जग्गा का कुछ न कहना और अन्त में आत्महत्या कर लेना, केवल मौन के सहारे व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । मौन की अभिव्यंजना को नारे के रूप में प्रयोग में लानेवाले अज्ञेय आदि आधुनिकतावादियों को मानो यह कहानी वस्तु और रूप के ‘कनकुंडलवत्’ मनिकांचन योग के द्वारा स्वयं उत्तर दे रही है ।

भीष्म साहनी की ‘अमृतसर आ गया’ ‘पाली’ आदि कई कहानियों को भारतीय विभाजन की विभीषिका को सशक्‍त ढंग से अभिव्यक्‍त करनेवाली कहानियाँ कहा जाता है, किन्तु वे मात्र इतने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इससे बढ़कर वे अमानवीय परिस्थितियों में सामान्य मनुष्य की प्रतिक्रिया एवं उसमें मानवीयता की तलाश से जुड़ी हुई कहानियाँ हैं । वे केवल भारतीय विभाजन को ही नहीं लिख रहे थे, बल्कि तत्कालीन संवेदनशीलता, अमानवीयता आदि आधारभूत संवेदनाओं को अपनी कहानियों में रेखांकित कर रह थे । इस सन्दर्भ में लुसिए गोल्डमान का कहना है कि “घटिया लेखक केवल ऐतिहासिक काल को प्रतिबिम्बित करता है और उसकी रचना का मूल्य एक दस्तावेज़ के रूप में होता है; परन्तु महान साहित्य बड़ी समस्याएँ उठाता है और उसमें आन्तरिक संगति इसलिए होती है कि वास्तव में महान लेखक अपने समय की आधारभूत प्रवृत्तियों से अपना तादात्म्य स्थापित करता है, जो उसे यथार्थ की सुसंगत अभिव्यक्‍ति करने योग्य बनाता है ।”[4] भीष्म साहनी की जितनी कहानियाँ भारतीय विभाजन से जोड़ी जाती हैं, वे इतिहास की इस दुर्घटना को परिवेश के रूप में ग्रहण करते हुए मानवीय संवेदशीलता-संवेदनहीनता को अभिव्यक्त करती हैं । ‘पाली’ इसी प्रकार की बेहतरीन कहानी है । पाली तीन वर्ष का एक ऐसा बालक है, जो विभाजन के समय दुर्घटनावश पाकिस्तान में ही छूट जाता है, जिसमें विभाजन का सम्पूर्ण परिवेश कारण बनता है । लेखक की यह टिप्पणी कि “शरणार्थियों के अपने दिलों में रहम के सोते सूख चुके थे । यही पाली जब एक बार अपने कस्बे में खो गया था तो सारा कस्बा उसे ढूंढ़ने निकल पड़ा था ।” परिस्थितियों में मानवीय विवशता को अभिव्यक्त करती हैं । पाली सन्तानहीन पाकिस्तानी दम्पति अहमद और जैनब को मिल जाता है । उधर पाली की माता कौशल्या पाली को खोने के सदमें में पागल-सी हो गई । इसलिए पिता मनोहरलाल को उसे ढूँढ़ने के हर प्रयास जारी रखने पड़े । इधर पाली को ‘काफिर का बच्‍चा’ कहकर धर्म के ठेकेदार उसकी सुन्‍नत करवाते हैं और वह इल्ताफ़ बना दिया जाता है । दो साल तक बच्‍चा पूरी तरह अहमद और जैनब का हो जाता है, किन्तु इसके बाद मनोहरलाल पाली को ढूँढ़ निकालता है । अजीब कश्मकश है, पाली अपने ही जन्मदाता पिता को पहचान नहीं पाता । मनोहरलाल जैनब के आगे अपनी पत्‍नी की स्थिति बताता है । एक माँ ही समझ सकती है, दूसरी माँ का दर्द । और जैनब इस शर्त के साथ कि ‘हर साल ईद के मौके पर हमारे पास भेजोगे’ इल्ताफ (पाली) को मनोहर को सौंप देती है । कहानी में ऐसी कई घटनाएँ हैं, जहाँ साम्प्रदायिकता पर लेखक ने कड़ी चोट की है, टिप्पणी नहीं । अन्त में जब इल्ताफ को जबरन पाली बनाया जाता, उसका मुंडन किया जाता, यहीं पर आकर बगैर किसी प्रतिक्रिया के कहानी समाप्‍त हो जाती है । अन्त में रह जाता है, सीसकियाँ भरता पाली ऊर्फ इल्ताफ या एक पाँच-छः वर्षों का बालक, जो ठीक से धर्म का अर्थ भी नहीं जानता, दूसरी बार धर्म परिवर्तित करवाया जाता हुआ ।

विभाजन को परिवेश के रूप में ग्रहण करते हुए भी ‘अमृतसर आ गया’ अपने संवेदन और कथ्य में ‘पाली’ की अपेक्षा ‘वाङ्चू’ ‘मुर्गी की कीमत’ और ‘साग-मीट’ के अधिक करीब है । जग्गा का प्रतिरोध अपने आप को खत्म करने में था, तो ‘अमृतसर आ गया’ के बाबू का विद्रोह किसी अनजान व्यक्ति को खत्म करने के प्रयास में था, जिसमें शायद वह सफल भी हुआ होगा । कितना भयावह महौल था कि एक व्यक्ति लोह की छड़ से किसी को मारने का प्रयास करता है और डिब्बे के सारे प्रवासियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता है, वह आराम से सोते रहते हैं । यह संवेदनहीनता को रेखांकित करनेवाली कहानी है । दंगों जैसी अमानवीय स्थितियों में असंवेदनशीलता को कहानी में प्रमुखता दी गई है । इसमें उस बाबू का लोहे की छड़ से मारना उतना भयावह नहीं है, जितना अन्य व्यक्तियों का इसे देखकर भी अनदेखा कर देना । यह संवेदनहीनता को कहानी का मुख्य कथ्य है, जो परिस्थितियों की देन है । जैसे ‘वाङ्चू’ में परिस्थितियों का आधार केवल मानवीय संवेदनहीनता-संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करने के लिए ही किया गया है । यदि भारत-चीन सीमा संघर्ष के स्थान पर किन्हीं अन्य देशों के सन्दर्भ में भी यह कहानी दिखाई जाती तो, कहानी के संवेदन में कोई अन्तर नहीं पड़ता । कहानी में एक व्यक्ति को विशिष्ट देश में रहने या बाशिन्दा होने के कारण शक की निगाह से देखा जाता है । समाज से कटी हुई और कर्मरहित ज्ञानसाधना पर भी अप्रस्तुत रूप से कहानी में प्रहार किया गया है । वाङ्चू अपने परिवेश से कटा हुआ व्यक्ति है । वह कहीं का नहीं है । व्यवस्था ऐसे व्यक्‍तियों के सांस्कृतिक मूल्य को नहीं समझती और वह सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को । वाङ्चू परिस्थितियों से लड़ता-भीड़ता नहीं है, मौन साधना करता हुआ अपने अन्त को प्राप्त करता है, एक प्रकार के निरर्थक अन्त को । संभवतः मौन साधना की यही परिणति ठीक थी, जो कहानी में दर्शायी गई है । यह कहानी अपने समय की व्यक्तिवादी साहित्यिक धाराओं का सटिक उत्तर है ।

‘यादें’ वयोवृद्ध स्त्रियों की यादों की बारात है, जहाँ वे स्वतंत्रता से अपना जीवन आनन्द से व्यतीत करती थी, किन्तु समाज, परिवार एवं मर्दवादी मूल्य कदम-कदम पर रास्ता रोका करते थे, किन्तु यही उनके लिए सुनहरे दिन थे । संवेदना की दृष्टि से वयोवृद्धों पर लिखी गई हिन्दी की बेहतरीन कहानियों में यह कहानी गिनी जा सकती है । इसमें कथा-तत्व बहुत ही कम है । स्मृतियों के सहारे एक निश्‍चल एवं स्वतंत्र जीवन को प्रस्तुत किया गया है । ‘चचा मंगलसैन’ भी वृद्ध-जीवन पर लिखी गई कहानी है, किन्तु इन दोनों कहानियों में अन्तर है । चचा मंगलसैन नए परिवेश के साथ अपने-आप को जोड़ नहीं सकता, इसलिए वह उसी परिवेश में लौट जाता है, जिसका वह आदि था । ‘यादें’ के वृद्ध अपने परिवेश से लड़ते-भीड़ते कभी समझौता करते हुए उसी परिवेश में अपना जीवन व्यतीत करते हैं । ‘चीफ़ की दावत’ की वृद्ध माँ उपेक्षित होकर भी अपने पुत्र की ईच्छाओं से समझौता करती है, किन्तु उसे किसी भी तरह का अपमान नहीं महसूस होता है, वह केवल पाठकों के मन में करुणा उत्पन्‍न करती है । ‘सलमा आपा’ कहानी में आनेवाला वृद्ध अपनी करुण मानवतावादी दृष्टि के कारण पाठकों को याद रह जाता है । कहानी का शीर्षक भले ही ‘सलमा आपा’ हो किन्तु कहानी के केन्द्र में कब वह पाकिस्तानी वृद्ध आ जाता है, पाठक को पता ही नहीं चलता । ‘लीला नन्दलाल’ की कहानी में आए तीनों वृद्ध अपनी परिस्थितियों से घिरे हुए हैं । माँ मध्यवर्गीय अन्तर्विरोधों के चलते इतनी धार्मिक हो गई है कि अंधश्रद्धालू कही जा सकती है, पिता और चाचा जी के बीच होनेवाली तू-तू मैं-मैं का कारण भी मध्यवर्गीय मजबूरियाँ ही हैं । इस दृष्टि से देखा जाए तो उनकी कहानियों में आनेवाले वृद्ध भी अन्य कई पात्रों की तरह परिस्थितियों के हाथों मजबूर हैं । ध्यातव्य है कि प्रेमचन्द के पात्र भी परिस्थितियों में फँसे हुए हैं, किन्तु भीष्म साहनी के पात्र बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार बदल गए हैं, जिस बदले हुए यथार्थ का उल्लेख उन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की ‘प्रस्तावना’ में किया है । इसे एक रचनाकार का युगबोध के साथ परम्परा का विकास करना कहा जाता है ।

लेख के उपान्त भाग में एक बात और कह देना आवश्यक है कि भीष्म साहनी के अधिकांश साहित्य को विभाजन पर केन्द्रित मानकर उसकी व्याख्या की जाती है, किन्तु जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है, वह विशेष अमानवीय परिस्थितियों में मानवीय संवदेना की तलाश कहानियों के माध्यम से करते हैं । इसके अतिरिक्त वह कहानियाँ अपने स्तर पर साम्प्रदायिकता से लड़ती हुई भी दिखाई देती हैं । भीष्म साहनी की यह कहानियाँ पढ़ते हुए भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र का वह बलिया वाला भाषण स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने साम्प्रदायिक समन्वय पर ज़ोर दिया था और सबको ‘एक-दूसरे का हाथ थामने’[5] के लिए कहा था, । इसी प्रकार प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचन्द ने भी इस समस्या को उठाया था और 1997 में भीष्म साहनी भी अपनी कहानियों के माध्यम से इस साम्प्रदायिक के ज़हर से लड़ रहे थे । भारतेन्दु, प्रेमचन्द, मुक्तिबोध, धूमिल और भीष्म साहनी आदि रचनाकार अपने युग में फैली साम्प्रदायिकता एवं सत्ता की क्रूरता से लड़ते हुए देखे जा सकते हैं । अपने युग के महान रचनाकार हमेशा इस मानवनिर्मित समस्या से जुझते हुए देखे जा सकते हैं ।

भीष्म सहानी की कहानियों की कहानियों के रूप के सन्दर्भ में चर्चा करते समय उनकी भाषा को सामान्य जन-जीवन की भाषा, निश्‍चल एवं सम्प्रेषणीय आदि विशेषण दिए जाते हैं । वास्तव में साहित्य रूप भी यथार्थवाद का हिस्सा होते हैं । यदि रचनाकार यथार्थवादी है, तो उसके साहित्य का रूप भी यथार्थ से जुड़ेगा । भीष्म सहानी की कहानियों के परिवेश में पाठक सहज प्रवेश कर जाने का एक प्रमुख कारण उनका परिचित होना है और इस परिचय में उनकी कहानियों के रूप के अंग भी आते हैं । यदि परिवेश और पात्रों के वर्ग-चरित्र के साथ रचनाकार का रूप नहीं जुड़ता तो, उसका यथार्थ छद्म सिद्ध होता है । उनकी कहानियों में रूपवादियों की तरह रूप के प्रति अतिरिक्त सावधानी भले ही न हो, किन्तु वह रूप के स्तर पर शिथिल कहानियाँ नहीं हैं, वह स्वाभाविक कहानियाँ हैं, रूपवादी-कलावादी नहीं । उन्होंने शैली को संवेदना का अंग माना है और संवेदनात्मक स्तर पर उनकी कहानियाँ अपने समय से जुड़ते हुए विकसित होती हैं, ऐसे में परिवेश एवं संवेदना मिलकर उनकी कहानियों का रूप स्वयं गढ़ते हैं । संवेदना, विचारधारा और परिवेश मिलकर भीष्म साहनी कहानी को चरितार्थ करते हैं और स्वयं अपने व्यक्तित्व को निश्‍चल-साफ़ शैली का निर्माण होता जाता है । ‘मोहि तो मेरे कबित्त बनावत’ की तरह ।

सन्दर्भ संकेत

  1. आधार चयन : कहानियाँ - भीष्म साहनी, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, दूसरा संस्करण : 2000
  2. नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र-मुक्तिबोध, पृ.56-57
  3. कहानी-स्वरूप और संवेदना-राजेन्द्र यादव, पृ.41
  4. दि हिडन गॉड-लुसिए गोल्डमान, से सोशलॉजी ऑफ लिटरेचर-एलन स्विंगवुड, द्वारा पुर्वोद्धृत, पृ.68
  5. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास-रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा उद्धृत

डॉ. मोबिन जहोरोद्दीन smobin304@gmail.com फोन 9441277413