वैदिक साहित्य: पुरुषार्थ का उत्तम मार्ग
वेद चार हैं :- चार ग्रंथ, चार पुरुषार्थ, चार देव । वेद केवल धर्म की पुस्तकें भर नहीं है। इनके पीछे छिपा हुआ दर्शन बहुत गहरा और जीवन के अर्थों को समेटे हुए है। ये केवल मंत्रों से भरे ग्रंथ नहीं हैं। संपूर्ण मानव जीवन का सार इनमें समाहुआ है। मानव जीवन में चार प्रमुख पुरुषार्थ हैं धर्म,अर्थ, काम, और मोक्ष। चारों वेद इन चार पुरुषार्थों का प्रतीक हैं। इन चार वेदों के चार प्रमुख देवता हैं अग्रि, वायु, सूर्य और सोम। ऋग्वेद के देवता अग्नि को माना जाता है, यजुर्वेद के देवता वायु, सामवेद के देवता सूर्य और अथर्ववेद के देवता सोम माने गए हैं। ये चारों देवता और चारों वेद इन चार पुरुषार्थों के प्रतीक हैं।
ऋग्वेद :- चार पुरुषार्थों में पहला अर्थ है, शास्त्रों का मानना है कि गृहस्थ का सबसे पहला धर्म है, जीवनयापन के लिए आवश्यक साधन जुटाए । ऋग्वेद अर्थ का ग्रंथ है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक अनुशासन और ज्ञान की बातें हैं। अर्थ केलिए श्रम की आवश्यक है और श्रम केलिए ऊर्जा या शक्ति। अग्नि ऊर्जा और शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए ऋग्वेद के प्रमुख देवता अग्नि को माने गए हैं । अर्थ के लिए परिश्रम करना होता है परन्तु यह परिश्रम भी अनुशासन के अनुसार हो, अधर्म के मार्ग से प्राप्त किया गया अर्थ पुरुषार्थ नहीं है।
यजुर्वेद :- यजुर्वेद काम का ग्रंथ है, यहां काम का अर्थ केवल विषय भोग से नहीं है। काम में कर्म, कामनाएं और मन तीनों शामिल है। यह कर्मकांड प्रमुख वेद है। इसमें यज्ञ का महत्वहै, जो कर्म का प्रतीक भी है। यजुर्वेद के प्रमुख देवता वायु को माना गया है। वायु मन का प्रतीक है, मन वायु की तरह ही तेज चलता है और अस्थिर है। कर्म में श्रेष्ठता के लिए मन को साधना आवश्यक है। मन को साधने से ही उसमें कामनाओं का लोप होता है। मन सद्कर्मों और शक्ति, धर्म के संचय में लगता है। कामनाओं का लोप होने के बाद ही हम किसी भी कार्य को एकाग्रता से कर सकते हैं।
सामवेद :- साम वेद उपासना का वेद है, धर्म का ग्रंथ है। धर्म के लिए भक्ति अर्थात् उपासना का होना आवश्यक है। जब अर्थ और काम दोनों का साध लिया जाए यानी सांस्कृतिक और धार्मिक अनुशासन से इन्हें जीवन में उतारा जाए तब धर्म का प्रवेश होता है, जीवन में भक्ति आती है। भक्ति और ज्ञान प्रकाश के प्रतीक हैं, इसलिए सामवेद के देवता सूर्य माने गए हैं। जीवन में ज्ञान और भक्ति का बहुत महत्व है। इनको साधने से ही धर्म आता है।
अथर्ववेद :- यह ग्रंथ परमशक्तियों या पराशक्तियों का है। जब अर्थ, काम और धर्म तीनों जीवन में उतरते हैं तब मोक्ष का मार्ग खुलता है। मोक्ष कर्म और जन्म के अलग से मुक्ति है, यह मुक्ति ज्ञान से आती है, इसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं। अथर्ववेद ऐसे ही ज्ञान का वेद है। जो मुक्ति का ज्ञान हमें सारे संकटों से राहत देता है, अर्थात् शीतलता देता है। इसलिए इस ग्रंथ के देवता चंद्र अर्थात् सोम माने गए हैं, जो शीतलता देते हैं।
मानव की उन्नति पुरुषार्थ पर ही आधारित है, यह सार्वकालिक सिद्धांत है । पुरुषार्थ के समन्वय में ऐतरेय ब्राह्मण में हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को दिया गया उपदेश विशेषतः उल्लेख्य है –
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जनः इन्द्र इच्चरतः सखा ।
चरैवैति चरैवैति ।।
अर्थात् श्री,धन, कीर्ति, ऐश्वर्य, उन्नति आदि सर्वविध संपन्नता उसी पुरुष को प्राप्त होता है, जो थक जाने तक पुरुषार्थ करता रहता है । ‘नृषद्वर’ अर्थात् सुस्त निकम्मा मनुष्य पापी है और प्रयत्नशील मनुष्य ही पुण्यात्मा होता है । परमेश्वर प्रयत्नशील की ही सहायता करता है । अतः ब्राह्मण ग्रन्थ कहता है की मनुष्यो ! पुरुषार्थ करो । जब तक थक न जाओ, पुरुषार्थ करते रहो । उक्त ब्राह्मण आगे कहता है –
पुष्पिण्यो चरतो जंघे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरे अस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः ।
चरैवैति चरैवैति ।।
चलने वाले की जाङ्घे फूलकर पुष्ट हो जाती है । मनुष्य का पुरुषार्थ ही अभ्युदय प्राप्त करनेवाला और फल मिलने तक प्रयत्न करनेवाला होता है । इसकी सभी बाधाएँ तथा संकट श्रम के कारणबीच मार्ग में ही क्षीण हो जाते हैं । अतएव उन्नति केलिए पुरुषार्थ करो । अथर्ववेद में कहा गया है- कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहित: । यानी यदि पुरुषार्थ मेरे दाएं हाथ में है तो सफलता मेरे बाएं हाथ का खेल है। जो कठिन परिश्रम करते हैं, ईश्वर उन्हीं का सच्चा साथी है।
ऐतरेय ब्राह्माण में कहा गया है कि जो पूरी शक्ति से परिश्रम नहीं करते, उन्हें लक्ष्मी(धन) नहीं मिलती । परिश्रम करने वाले आदमी को सफलता कदम-दर-कदम मिलती है। ऐसा आदमी आत्मप्रतिभा संपन्न होता है। जो व्यक्ति बिना श्रम किए सब कुछ पाना चाहता है, उसकी आत्मा में रोशनी नहीं आ सकती । पुरुषार्थ विहीन मनुष्य का ऐश्वर्य भी सो जाता है । पुरुषार्थ के लिए सदैव सिद्ध रहनेवाले पुरुषार्थी का ऐश्वर्य भी उसके सामने खड़ा रहता है । सोनेवाले पुरुष का ऐश्वर्य सोता रहता है और पुरुषार्थ का ऐश्वर्य उस के साथ साथ चलता रहता है । यही तथ्य ऐतरेयब्राहण इन्द्र के मुख से प्रकट करता है –
आस्ते भग आसीनस्य उर्ध्वं तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः ।
चरैवैति चरैवैति ।।
आगे श्रुति कहती है -
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते ।
चरैवैति चरैवैति ।।
वेद शास्त्रों में जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए हैं। ये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सृष्टि के नियमों के मुताबिक चलना धर्म है। परिश्रम एवं सचाई से श्रम कर धन कमाना अर्थ है। कार्य में लगातार लगे रहना, ऊर्जा का संचय करना तथा पितृऋण से मुक्ति पाने के लिए संतान पैदा करना काम है। दुखों से छुटकारा, आवागमन से मुक्ति तथा अनंत काल तक ईश्वर के आनंद में घूमते रहना मोक्ष कहलाता है। ये चारों ही पुरुषार्थों के लिए श्रम करना होता है। उन्हें पाने का वही एक रास्ता है। जो लोग कलियुग का बहाना करके बैठे रहते हैं, उन्हें सफलता कभी नहीं मिल सकती। इसीलिए कहा गया है, कि सोने वालों के लिए सदा ही कलियुग है। जिस व्यक्ति ने परिश्रम करने का विचार कर लिया, उसके लिए द्वापर शुरू हो गया और जिस आदमी ने श्रम के लिए कमर कस ली, उसके लिए त्रेता का आरंभ हो गया । जिसने काम शुरू कर दिया, उसके लिए उसी क्षण सतयुग आ गया । अर्थात् जब मनुष्य सभी कर्म छोडकर निद्रा का आलिङ्गन करता है तो वह अकर्मण्य पुरुषार्थ हीन कलियुग में स्थित हो जात है । इसके विपरीत जब मनुष्य संजिहान स्थिति में अकर्मण्यता त्यागते हुए कर्म केलिये उद्यत है तो वह द्वापर युग में स्थित होता है । निरन्तर कर्म करने के लिये उद्यत रहना ही त्रेता युग की अवस्थिति है तथा नित्य कर्मरत होते हुए भी आत्मस्वरुप के बोध में अवस्थिति कृत या सत्ययुग है । इसप्रकर उत्तरोत्तर उन्नत पुरुषार्थ के मार्ग वेद द्वारा आलोकित है । इसके पुरुषार्थ का विशेष लाभ श्रुति आगे कहती है-
चरन्वै मधु विन्दति चरन्त्स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेयाणाम् यो न तन्द्रयते चरं चरैवैति ।।
अर्थात् मधुमक्षिका नित्य पुरुषार्थ करके ही मधु प्राप्त करती है । आकाश में दूर दूर तक विचरण करनेवाले पक्षी नित्य नूतन मिठे फल को प्राप्त करते हैं । सूर्य की शोभा को देखो, वह भ्रमण करता हुआ आलस्य और निद्रा तो सर्वथा दूर रखता है ।
वैदिक धर्मं मानव को पुरुषार्थ में प्रवृत्त करनेवाला धर्म है । देश राष्ट्र देव ईश्वरीय सत्ता एवं मानव के कल्याण के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । मानव जीवन तभी सुजीवन हो सकता है, जब जीवन पुरुषार्थमय हो । देवता भी तब तक सहायता नहीं करते, जब तक मनुष्य स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता । ऋग्वेद में कहा है –
न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: ।
अर्थात् पुरुषार्थ के लिए सदैव उद्यत रहने वालों की मित्रता के लिए देवता भी लालायित रहते हैं । इतना ही नहीं परमेश्वर को भी ताप और प्रयत्न के पश्चात् ही जगत धारण की क्षमता प्राप्त हुई है । गोपथ ब्राह्मण में कहा है –
ब्रह्म हा वा इदमग्र आसीत् स्वयम्भेकमेवतदैक्षत । महद्वै यक्षं तदेकमेवास्मी हन्ताहं मदेव मन्मात्रं द्वितियम् देवं निर्मम इति । तदभ्य श्राम्यदभ्यातपत समतपत । तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य सन्तप्तस्य ललाटे स्नेहो यदद्रयमाजायत । स भूयो श्राम्यद भूयो तप्यद भूय आत्मानं समतपतस्यश्रान्तस्य तप्तस्य सन्तप्तस्य सर्वेभो रोमगर्तेभ्य पृथक्स्वेदधारा प्रास्यन्दन्त। तदब्रवीदाभिर्वा अहमिदं सर्वं धारयिष्यामि यदिदं किञ्चेति।
उपर्युक्त वर्णन यद्यपि आलंकारिक है तथापि उसमें महान पुरुषार्थ करने की प्रेरणा का ही संकेत मिलता है । श्रम करना पुरुषार्थ करना सानन्द कष्ट सहना तथा तप करना इत्यादि से ही उन्नति एवं सफलता प्राप्त होती है । उन्नति एवं अभ्यूदय का साधन पुरुषार्थ ही है ।
उपर्युक्त उदाहरण में आत्माशब्द आया है । जिसका अर्थ है निरन्तर पुरुषर्थी “अतसातत्यगमने” धातु से आत्मा शब्द निष्पन्न होता है । सतत हलचल, अर्थात् सदा पुरुषार्थ करना आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । आलसी मनुष्य अपनी आत्मा के इस स्वाभाविक धर्म को छोडने के कारण अधोगति को प्राप्त करके दु:खी ही रहता है । अथर्ववेद में कह है –
ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेणलोकांस्तपसा पिपर्ति ।
अर्थात् ब्रह्मचारी सबको अपने स्वाध्याय श्रम से संतुष्ट करता है । ऋग्वेद में भी अथक पुरुषार्थ एवं स्वावलम्बन का सुन्दर उपदेश मिलता है –
न श्राम्यन्ति न वि मुञ्चन्त्येते वयो न पप्तू रघुया परिज्मन् ।
जिस प्रकार वेगवान पक्षी आकाश में सर्वत्र भ्रमण करते हुए दौडते हैं उसी प्रकार वे परिश्रम करणे से थाकटे भी नहीं ओर प्राम्भ किया कार्य को बीच में छोडते भी नहीं । ऋग्वेद में कहता है –
न मा तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रन् न वोचाम ।
अर्थात् मेरे लिये अज्ञान न हो,थकावट न हों, आलस्य न आये तथा हम वृथा न बोलें। अज्ञान अकर्मण्यता आलस्य और वृथा जल्पाना करने का स्वभाव ये चार अवगुण है, जो मनुष्य को पुरुषार्थ से दूर करते हैं । अतः ज्ञान एवं उत्साह शक्ति के साथ पुरुषार्थ के मार्ग पर चलना श्रेयस्कर है । पुरुषार्थ प्राप्ति में शत्रु कौन है ? इस के विषय में वेद कहता है –‘दु:शंसो मर्त्यो रिपु:’ अर्थात् अपकीर्ति से युक्त मनुष्य समाज का शत्रु कहलाता है । अतएव श्रुति कहती है- ‘मानो दु:शंस ईशत’ लोक निन्दित मनुष्य हमारा स्वामी न बनें । हमारे विचार दुष्ट न हो, दुष्टों का वर्चस्व कहीं पर भी न हो ।
मानो दु:शंसो अभिदिप्सुरीशत ।
प्र सुशंसा मतिभिस्तारिषीमही ।।
इस मन्त्र से दुराचारी की निंदा तथा सदाचारी की प्रशंसा की गयी है । अतः उन्नति का मार्ग यही है कि मन,वाणी, और कर्म से सुविचार रखनेवाले सदाचारियों का अनुसरण किया जाय । इससे ही अभ्युदय और पारलौकिक नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है ।
समित्तमघमश्नवद् दु:शंस मर्त्यं रिपुम् ।
ये अस्मत्रा दुर्हणावां उप द्वयुः ।।
यह मन्त्र पापी के विशेषणों पर प्रकाश डालती हुई बताती है पापाचारी कपटी होता है। वह तुरंगी नीतिवाला अर्थात् बाहर से मीठा ओर अन्दर से कडुवा तथा क्रूरता के साथ घातक होता है । मन्त्र में द्वयुः शब्द उसी कुटील नीतिवाले व्यक्ति का वाचक है, जो मनुष्य ‘मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्येकं दुरात्मन:’ होता है । वेद उसे समाज का शत्रु कहता है–
मा नो अघ गवां स्तेनो मा अवीनां वृक ईशत ।
यहाँ गाय, भूमि, ज्ञान, आदि की चोरी करने वाले हमारा स्वामी न बनें । जैसे एक भेडिया निरापद अजसमूह का विनाश का कारण बनता है वैसे ही दुष्ट व्यक्ति प्रजा का शासक होते ही थोड़े ही दिनों में वह प्रजा के विनाश का कारण बन जाता है । अतः वेद चेतावनी देता है कि तुम्हारी शिथिलता अथवा अकर्मण्यता से शासक पद पर दुराचारी कभी प्रतिष्ठित न हो | इसलिए अपने पुरुषार्थ को जागृत रखो । इस मंत्र में दो शब्द ‘गवां स्तेन’ और ‘अवीनां वृक’ विशेष माननीय है । गवां स्तेन’ का अर्थ है गाय, दूध, घी, प्रकाश, रत्न, बाण, भूमि, शब्द, वाणी, वक्ता, सरस्वती, सभ्यता, जल, घर आदि का अपहरण करने वाले को कहा जाता है ।
इसी प्रकार ‘अवीनां वृक’ का अर्थ है भेड़ बकरियों के चोर का आतंरिक भाव है- अशक्तों का घातक, गरीवों का नाशक, रिश्वत से अपना उदर भरने वाला । क्योंकि अवि का अर्थ प्रगती ओर प्रेम करने वाला,दयालु, उत्साहवर्धक, पर्वत, हवा, स्वामी, राजा, अधिकारी । इन सबका क्रूरता से घातक वृक है । निर्बलों के साथ आचरणीय व्यवहार के संबन्ध में वेद कहता है–
वधैर्दु:शंसां अप दूढ्यो जहि दूरेवा ये अन्ति वा केचिदत्रिण: ।
अपभाषीण बुरा बोलनेवाले, सर्वदा पापकर्म में रत बुद्धिवाले, ‘अत्रिणः’ दूसरों को हडपने वाले, दूसरों का घात कर उदरपोषण करनेवाले तथा विषय लोलुप वाले, ये सभी वेद की दृष्टि से दुष्ट होने से वध्य हैं । इस प्रसंग में वेद कि पुअकर है –
ताविद् दुःशंसं मर्त्यं दुर्विद्वांसं रक्षस्विनम् ।
आभोगं हन्मना हतम् ।।
बुरा बोलनेवाले अपभाषी दुष्टज्ञान संपन्न, अपने भोग केलिये दूसरों का क्षय करनेवाले, सर्वथा अपना भोग बढानेवाले मरने योग्य दुष्ट दुर्जन के हनन का विचार करके निश्चय ही उसका हनन कीजिए ।
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जगत में अनीति पर नीति की विजय, कुविचार पर सुविचार की विजय, दुष्टों का सज्जनों के हाथ पराजय, बलवान से दुर्बल की रक्षा, धनवान से निर्धन की रक्षा तथा आर्त्तजनों का परित्राण यह सब वेदोक्त पुरुषार्थ के अधीन है । अतः एकमात्र वेद ही पुरुषार्थ का मार्ग है ।
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