‘आकांत’ मराठी आत्मकथा में चित्रित समस्याएँ
आदिवासी साहित्य सन् 1960 से लिखित रूप में आगे आ रहा है। आदिवासी साहित्य की मैखिक परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। जिस प्रकार दलित साहित्य में आत्मकथा लिखने के बाद साहित्य के क्षेत्र में हलचल मच गयी है। जैसे- दया पावर की ‘बलूत’, शरण कुमार लिंबाले की ‘अक्करमासी’, लक्ष्मण गायकवाड़ की ‘उचक्या’, लक्ष्मण माने की ‘उपरा’, अशोक पवार की ‘बिर्हाड’, इसादास भड़के की ‘बाप्तीस्माते धर्मान्तर’ आदि आत्मकथाएँ लोकप्रिय रहीं है। ‘आत्मकथा’ की शुरूआत आदिवासी साहित्य में हो चुकी है। आदिवासी साहित्य में फुले आंबेडकरी विचारधारा ने अपना प्रवाह पकड़ा है। वंचित, शोषित लोगों में चेतना लाने वाले आंदोलन की शुरुआत हो गयी है। आदिवासी अब दलितों की तरह जाग्रत हो रहा है वह भी अंबेडकर के साहित्य को पढ़ने लगे है। दलितों की तरह वंचित, शिक्षा से दूर रहने वाला आदिवासी भी अब अपने हक के लिए लढ़ने लगा है। आदिवासी समाज अत्यंत भयानक जीवन जी रहा है इसलिए उनके जीवन का यथार्थ चित्रण करने के लिए आदिवासी लेखक अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से जनता के सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं इसलिए आत्मकथाओं को जानना अत्यंत आवश्यक हैं।
मराठी आदिवासी साहित्य में आत्मकथाएँ लिखी गयी हैं उनमें बाबाराव मडावी की ‘आकांत’(1997), नंजुबाई गावीत की ‘तृष्णा’(1999), संतोष पवार की ‘चोरटा’(2007) आदि तीन आत्मकथाएँ महत्वपूर्ण मानी जाती है। आदिवासी रचनाकार बाबाराव मडावी लेखन कार्य के अलावा समाज सुधारक के रूप में भी कार्यरत हैं। आदिवासी, दलित, घुमन्तू, विमुक्त जनजातियों में परिवर्तन लाने का कार्य पहले आत्मकथाकार बाबाराव मडावी ने किया है।
आदिवासी रचनाकार बाबाराव निंबाजी मडावी मराठी आदिवासी के पहले आत्मकथाकार के रूप में जाने जाते हैं। आधुनिक दुनिया के नायक और आदिवासी समाज सुधारक के रूप में इनकी गणना होती है। इन्होंने भारतीय समाज को जागृत करने के लिए साहित्य का सृजन किया है। उपन्यास, कहानी, कविता तथा नाटकआदि साहित्य से भी ज्यादा उनकी आत्मकथा महत्वपूर्ण बन गयी है क्योंकि बाबाराव मडावी की आत्मकथा में प्रकृति तत्वों, जंगल, पहाड़, नदी-नाले वन्य जीवों में पशु-पक्षी मानवीय जीवन के आदिम सरोकार तथा सामूहिकता, कृषिकर्म के साथ निर्भरता, अपने में खुलापन, भोलापन, समृद्ध संस्कृति, स्वार्थ, लोलुपता, आदि का यथार्थ चित्रण आत्मकथा में किया गया हैं।
अब हम आलोच्य कृति ‘आकांत’ आत्मकथा के नामकरण के बारे में चर्चा करेंगे इस आत्मकथा का मराठी नाम ‘आकांत’ है जिसका सामाजिक अर्थ से तात्पर्य जीवन की जद्दोजहद, उपेक्षित और समस्याओं से ग्रसितों से होना है। यदि इसका मूल शब्दश: हिंदी शब्द कोश के अनुसार अर्थ लेगें तो इसका अर्थ होगा- ‘आकांत’, उँची आवाज में रोना, शोक, जोर-जोर से रोना, विलाप करना, रोना, आक्रोश, आदि इन सभी पर्यायवाची अर्थो से सटीक और सार्थक अर्थ ‘विलाप’ होगा आत्मकथा का अध्ययन करने के पश्चात ही हम यह निर्णय ले सकते है कि ‘आकांत’ मूल मराठी के इस नाम के लिए ‘विलाप’ शब्द ही सार्थक प्रतीत होता है।
आदिवासी, दलित, घुमन्तू, विमुक्त जनजातियों में परिवर्तन लाने का तथा उन्हें सचेत करने का कार्य भी बाबाराव मडावी ने किया है। बाबाराव मडावी ने आत्मकथा में आदिवासी जातियों का भी उल्लेख किया है जो महाराष्ट्र में स्थित सैंतालिस आदिवासी जातियाँ हैं जिनमें गोंड़, कोलाम, भील, परधान, कोरकू, माडिया, वारली, कातकरी पारधी, महादेव कोड़ी आदि जातियाँ है यह जातियाँ शिक्षा से वंचित है। पहनने के लिए कपड़े नहीं है फिर भी किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे हैं। उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय है।
बाबाराव मडावी के साथ-साथ अनेक समाज सुधारकों ने आदिवासियों को सचेत करने के लिए और उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए, सरकारी उपायोजनाओं के अधिकारों की माँग करने के लिए जुलूस, मोर्चे निकाल कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए आदिवासियों को प्रोत्साहित किया। नकली आदिवासियों को पकड़ कर उन्हें सजा दिलाना, विस्थापन की सुरक्षा हेतु घरों की माँग करना, उपजाऊ जमीन की माँग करना, भूख की समस्याओं का निवारण करना, कुष्ठरोगियों की समस्याओं का निवारण करना आदि अनेक समस्याओं को हम इस आत्मकथा में देख सकते हैं। इसका एक उदाहरण द्रष्टव्य है- “कुष्ठरोगी कह रहे थे, क्या करे साहब, भीख नहीं माँगेगें तो पेट कैसे भरेगा? रिश्तेदार भी गुस्सा करते हैं। जब तक जान है तब तक कुछ तो करना ही पड़ेगा। भीख माँगने के अलावा हमारे पास क्या है? हमें कोई काम नहीं देता। हमें देख कर लोग दूर-दूर भागते हैं। हम इन्सान हैं- लेकिन यह सड़ा हुआ शरीर हमारी किस्मत में है इसमें हमारी क्या गलती हैं?”[1]
आदिवासी समाज सचेत हो रहा है और अपने व्यवसायों में परिवर्तन ला रहा है लेकिन वर्णवादी व्यवस्था आज भी घर कर बैठी है। जैसे- “टाकली बोबडे के यहाँ महारों के घर जला दिए गए क्योंकि महारों ने बैंड बजाने से इनकार कर दिया था।”[2] इसका विरोध कर उन्हें न्याय दिलाने के लिए बाबराव मडावी और पूरे आदिवासी लोगों ने यवतमाळ के कलेक्टर कचहरी के सामने महारों का मोर्चा निकाला। इस मोर्चे में अनेक समाज-सुधारक मौजूद थे। महारों को उनके जले हुए घरों को बांध कर दे और जिन्होंने यह कृत्य किया है उने सजा मिलनी ही चाहिए। इस तरह से उपेक्षितों को न्याय दिलाने के लिए बाबाराव मडावी हमेशा तत्पर रहते थे। यह आत्मकथा सिर्फ उनके स्वयं का जीवन ही नहीं हैं बल्कि आदिवासियों के समुदाय का दस्तावेज है।
लेखक ने अन्त में अपने परिवार और पूरे आदिवासी समुदाय को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है। लेखक के जीवन में अनेक परेशानियाँ आई हैं पर इन्होंने हिम्मत नहीं हारी आगे बढ़ते गए। जैसे स्वयं लेखक कहते है- मेरे जीवन में अनेक परेशानियाँ पहाड़ की तरह गिर पड़ी थीं फिर भी मैं हिम्मत से आगे बढ़ता गया। मैं रोटी के लिए तरसा, भूख को बर्दाश्त किया। शांत मन से बैठा रहा, मैं रोया चिल्लाया फिर शांत बैठा रहा। जीवन जीने के लिए हिम्मत चाहिए, इन्सान को एक बार में ही हार नहीं माननी चाहिए हार मान लेने से वह क्रांति नहीं कर पाएगा। मैं हाथ में मशाल लिए उपेक्षितों के लिए स्वतंत्रता की माँग करना चाहता हूँ, मैं मोर्चे निकालता हूँ पर यह लड़ाई एक तरफा नहीं है बल्कि यह लड़ाई सब की है। जब भी मैं मुसिबत में रहा हूँ तब मुझे मेरे लोग ही हिम्मत देने के लिए दौड़ कर आते हैं। मैने देखा जीवन के चालीस साल और चालीस साल बाद भी यह लड़ाई और बरकरार रहेगी यह मैं कह सकता हूँ क्योंकि मैं आशावादी हूँ मैं घबराने वालों में से नहीं हूँ।
इस प्रकार इस आत्मकथा में आदिवासी समाज की सामाजिक, आर्थिक स्थिति के सच्चे दर्पण को परख सकते हैं। आदिवासी समाज अनेक समस्याओं से जूझ रहा है इन समस्याओं से वह निजाद पाना चाहता है। उपर्युक्त विश्लेषण के अनुसार कहा जा सकता है। आदिवासी समाज में जन्म लेने के कारण उन पर होने वाले अन्याय और अत्याचार तथा उनके प्रति रचे जाने वाले षडयंत्र सामने आते हैं।
बाबाराव मडावी आदिवासी समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं इन्होंने भारतीय आदिवासी समाज को जागृत करने के लिए साहित्य का सृजन किया है। इस दृष्टि से उपन्यास, कहानी, कविता तथा वैचारिकी साहित्य से भी ज्यादा उनकी आत्मकथा महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि बाबाराव मडावी की आत्मकथा में आदिवासी समुदाय की स्थिति का चित्रण किया गया है। ‘आकांत’ (विलाप) आत्मकथा में आदिवासी जीवन, उनकी जद्दोजहद की समस्याएँ देखने को मिलती है।
बाबाराव मडावी की ‘विलाप’ (आकांत) आत्मकथा महाराष्ट्र के आदिवासियों पर रचित पहली आत्मकथा है। बाबाराव मडावी ने अपने इस आत्मकथा में आदिवासी समाज का विस्तृत रूप में वर्णन किया है। जैसे आदिवासी समाज का रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, पर्व-त्यौहार आदि। साथ-ही-साथ इनमें अनेक समस्याओं को भी इन्होंने अपनी आत्मकथा के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मातंग समाज की समस्याएँ, डोम जाति की समस्याएँ, वृद्धों की समस्याएँ आदि अनेक समस्याओं से जूझते आदिवासी समाज का यथार्थ चित्रण इस आत्मकथा में किया गया है। अन्याय, अत्याचार, शोषण, अपमान, दरिद्रता आदि उपेक्षाओं से यह समाज अपना जीवन यापन कर रहे हैं। आज के दौर में इस समाज की स्थिति वैसे ही है जैसे पहले थी। इसलिए इस समाज में परिवर्तन की अत्यंत आवश्यकता है। इन सभी प्रश्नों की ओर इस आत्मकथा में संकेत किया गया है।
उपर्युक्त सभी प्रश्नों को इस आत्मकथा में दिखाया गया है। यह सिर्फ लेखक के जीवन की गाथा नहीं है बल्कि आदिवासी समाज का दर्पण है। इस लिए यह आत्मकथा आदिवासी समाज के लिए महत्वपूर्ण बन जाती है।
एक ओर आदिवासी समाज में शिक्षा का अभाव है तो दूसरी तरफ शिक्षा लेने के बाद भी रोजी-रोटी के लिए और नौकरी के लिए तरसना भी है नौकरी के लिए आत्मकथाकार फिरता ही है साथ ही मजदूरी की तलाश में भी घूमता है। लेखक के साथ-साथ इनके मित्र भी बेकार बैठे हैं। लेखक बी.ए परीक्षा पास करने पर भी नौकरी न मिलने पर खेत में जाकर काम करने के लिए विवश हो जाता है। आत्मकथा में यह इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है- “बेटा तू तो इतना पढ़ा-लिखा है फिर गढ्ढे क्यों खोद रहा है रे....?” यह शब्द मानों गरम शीशे की तरह कानों में धस रहे हो ऐसा लग रहा था। कैसे कहूँ इन्हें समझाकर कि इस देश की शिक्षा व्यवस्था बेकार-बरबाद करने वाली है कैसे कहूँ... कैसे? इस देश की लोकशाही गरीबी में पढ़ने वाले युवाओं के कार्यक्रमों के यह लोग वो भी असुशिक्षित क्या ये समझ पाएंगे?”[3]
शिक्षा के कारण ही नहीं बल्कि आदिवासी समाज को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए काम नहीं मिल रहा है जिसकी वजह से आदिवासी भूखे मर रहे हैं। आज आदिवासियों की स्थिति जर्जर हो गया है इसका यथार्थ चित्रण इस आत्मकथा में किया गया है। सच ही कहा है किसी ने आदिवासियों की स्थिति को आदिवासी ही बखूबी जानता है। देहाड़ी काम नहीं मिलने पर लोग कुपोषण के शिकार हो कर मर रहे है तो कुपोषण से संतान अपाहिज जन्म ले रही है। आदिवासी तो सरकार से माँग कर रहे हैं। हम मेहनत करने के लिए तैयार है हमें उपजाऊ जमीन दो जिसमें हम फसल उगा कर जीवन बीता सके।
वैज्ञानिक युग के बढ़ते प्रभाव के बावजूद भी समाज से अंधविश्वास की जड़े समाप्त नहीं हुई हैं। हजारों वर्ष से चली आ रही परम्पराओं के कारण लोगों में विश्वास, अंधविश्वास बन गया है या परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किया गया है। जब हम जनजातीय समाज की बात करते हैं तो इसका प्रभाव उस समाज में अभी भी अधिक स्तर पर पाया जाता है। ‘विलाप’ आत्मकथा में विशेष रूप से आदिवासी समुदाय में अंधविश्वास विद्यमान है। वर्षा ऋतु नहीं होने पर मनुष्य की बलि दी जाती है जैसे- “यह लोग बारिश नहीं होने पर मनुष्य की बलि देते हैं। बलि दिए हुए पुरूष के खून को कीलों से लगाकर खेतो में गाड़ते हैं तभी पानी आएगा ऐसी उन लोगों की विचार धारा थी। कीलों को लोग बहुत सारे पैसो में खरीद कर लाते क्योंकि तभी बारिश होगी ऐसी उनकी विचारधारा थी।”[4]
इस प्रकार आदिवासी समाज अंधविश्वास में जी रहा है। महाशिव रात्रि का वृत रखना घरों पर शुभ-लाभ लिखना, त्रिशूल को कुंकुम लगाकर घरों के सामने गाड़ना, नीबूं को त्रिशूल की नोक पर लगाए रखना आदि इस आत्मकथा में उल्लेख किया गया है। जो आदिवासी समाज में विश्वास करते है इसका अभाव इस आत्मकथा में देख सकते हैं।
किसानों के सामने अनेक समस्याएँ आती हैं पानी दगा देने पर भूखे मरना पड़ता है तो दूसरी ओर आदिवासियों के पास कंकरों से भरी जमीन रहने से खेत में फसल नहीं उग रही है। उनकी मेहनत बेकार चली जाती है, खाने के लाने पड़ रहे हैं। सरकार से आदिवासी किसान माँग कर रहे है कि हमें उपजाऊ जमीन दो ताकि हम फसल उगा सके हम मेहनत करना चाहते हैं हमारे हाथों को काम दो यह याचना आदिवासी किसान कर रहा है जैसे एक उदाहरण देख सकते है:- “बंजर जमीन पर फसल उगाएंगे पर सरकार फसल उगाने नहीं देती हम जंगल के राजा तो कहलाते हैं पर हमें पैर रखने के लिए जगह भी नहीं है। जंगल में शिकार नहीं मिलता है भीख माँगने के अलावा दूसरा इलाज नहीं है।”[5]
इस प्रकार आदिवासी किसान फसल उगाने के लिए तरस रहा है क्योंकि इनके पास उपजाऊ जमीन नहीं है इसलिए समस्याओं का निवारण जरूरी है।
इस आत्मकथा के अंतर्गत तमाम कुष्ठरोग से ग्रसित एवं पीड़ित व्यक्तियों की स्थिति के बारे में वर्णन किया गया है। लेखक कुष्ठरोगियों से मिलकर उन्हें हिम्मत देते हैं और उनके हितों के लिए कार्यक्रमों का आयोजन भी करते हैं। कुष्ठरोगियों को समझाते भी हैं कि कुष्ठरोग यह दवादारू से ही ठीक होगा इसलिए वे पीड़ितों को दवाखानों में जाने के लिए प्रेरित करते हुए उन्हें वे कहते हैं- जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए। उन्हें पुन: जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। कुष्ठरोगी भी हमारे समाज का एक हिस्सा है लेकिन उन्हें समाज से अलग समझा जाता है। लेखक और डॉ.काले, यशवंत नैताम पूरे कुष्ठरोगी से पूछताछ कर रहे थे-आप लोग भीख माँगते हो हमने पूछा तब कुष्ठरोगी कह रहा था- “क्या करे भीख नहीं माँगंगे तो पेट कैसे भरेगा? घरवाले गुस्सा करते है। जब तक जान है तब तक कुछ तो करना पड़ेगा भीख माँगने के अलावा हमारे पास क्या है? काम कोई नहीं देता हमें देख कर लोग दूर भागते हैं। हम इन्सान हैं– यह सड़ा हुआ शरीर हमारी किस्मत में है...। हम ने उन्हें हिम्मत रखने के लिए कहाँ।”[6]
कुष्ठरोगियों की स्थिति बहुत ही खराब है। रोग के कारण घर में जगह नहीं है। जो मंदिरों के बाहर अपना स्थान बनाकर अपना जीवन बिता रहे हैं तो कुष्ठरोगी मर जाने पर नगरपालिका उनका अंतिम संस्कार करती है उन्हें समाज तुच्छ नजरों से देखता है, दूर-दूर भागता है, कुष्ठरोगियों की अत्यंत दयनीय स्थिति को आत्मकथा में दिखाया गया है।
आदिवासी समाज के सामने बहुत बड़ी समस्या है- विस्थापन एक ओर इन्हें भारत का मूल निवासी कह कर गणना की जाती है, तो दूसरी ओर उन्हें अपने ही भूमि के लिए तरसना पड़ता है। महाराष्ट्र में आदिवासी, पारधियों की जमीन छीन ली गयी थी पुन: उनके जमीन को दिलाने का कार्य बाबाराव और अनेक समाजकर्ताओं ने मिलकर किसानों को उनकी जमीन दिलवाई। साथ ही साथ जो बेघर है, शिक्षा से वंचित है उनके लिए यवतमाड़ में 1993 में अदिवासी पारधों (जात) के लिए मोर्चा निकाला क्योंकि यह लोग बेघर है उन्हें उनकी जमीन दिलवाने के लिए आंदोलन छेड़ कर वे स्वयं ही पास के ‘काठोड़ा ताड़ा’ नामक जगह पर अतिक्रमण कर के बस्ती बना ली। यह पारधी लोग ‘आखेटक’ इस गाँव में ही अतिक्रमण किए हुए जमीन पर फसल भी उगा रहे हैं। स्वयं लेखक भी रहने के लिए घर नहीं रहने पर अतिक्रमण किए हुए घर में रहते हैं। सरकार इन्हें रहने के लिए जगह का इन्तजाम नहीं कर के देती है लेखक के साथ पूरा आदिवासी समाज भी जमीन के लिए, घरों के लिए तरसता रहा है। जैसे:- “इस देश में रहने वालों को जगह नहीं मिल रही है। लेकिन इन गरिबों के जान पर यह शासकिय यंत्रणा पहुँचा रहे है। इस जिले का कलेक्टर वातानुकूल परिसर में रहता है। उनके कार्यालय और घर में कुलर है। उन्हें ग्रीष्म काल में लहराती हुई हवा चाहिए गरीब अपने बाल बच्चे लेकर रहने के लिए जगह की माँग कर रहे है। यह सभी लोग खुली जगह में रहते हैं। फिर भी अधिकारियों की नींद नहीं खुलती।”[7]
कोई अपनी झोपड़पट्टियों के टूटने से रो रहा है तो कोई जमीन के लिए तो कोई घर के लिए इस तरह से आदिवासी अपने घरों से बेघर होकर सरकार के दरबार में जाकर अपने रहने का इन्तजाम करो कह कर अपने अधिकार माँग रहे है।
लेखक को जातिगत प्रताड़ना का सामना भी बचपन से सहना पड़ा। सिर्फ लेखक ही नहीं समाज में जिन्हें भी पारधी दलित विद्यार्थियों के साथ बच्चे स्वयं शिक्षक भी बुरा बर्ताव करते हैं। जैसे पारध्यों को हाथ न लगाना, उन्हें दूसरे बच्चों से मारने के लिए कहना आदि तो बाबाराव मडावी जी ने महेन्द्र गोयल उच्च जाति का जिगरी दोस्त था। खेत दिखाने के लिए खुद ले जाता है उसे बैगन लेने के लिए जबरदस्ती कहता है पर चाचा के सामने देख कर बाबाराव मडावी घबरा जाते हैं यह किसका बेटा है। महेन्द्र ने कहा लिम्बा प्रधान का है यह सुनकर उन्हे बहुत गुस्सा आया उनके शब्दों को हम देख सकते है:- “तेरे जेबों में क्या है रे ..बैगन है महेन्द्र ने दिया है मैने कहा तब मैं थर-थर काँप रहा था, निकाल बैगन- वह कहेगा कुएँ में कुद जा तो क्या तू कूद जाएगा! चोर कही का! मैं एक-एक कर के जेब से बैगन निकाल कर दे रहा था तब वह तहने लगे फोकट के है क्या बैगन यह सुनकर मेरा ह्रद्य पसिज गया महेन्द्र बाद में इस घटना पर हसता रहा। मेरी जाति का उपहास भी किया गया गरीबों को अमीर लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यहाँ पर जात देखी जाती है पैसों से इन्सान को तोला जाता है उसे यह बच्चपन से सिखाया और डराया जाता है। भारतीय नागरिक बहुत अजीब किस्म के है गरीबों के साथ बहुत भेदभाव करते हैं।”[8]
इस प्रकार जातिगत भेदभाव का सामना कर के जातिगत भेदभाव सुधार कर, उनमें परिवर्तन लाने के लिए सतत प्रयत्न कर रहे है फिर भी जातिगत भेदभाव की दरार आज भी विद्यमान है।
इस आत्मकथा में वृद्धों की अत्यंत दयनीय स्थिति को दिखाया गया है। वृद्ध लोग समाज में बिना संतान के ही अपना जीवन जी रहे हैं। अपाहिज वृद्ध लोग दारू बेच कर अपना जीवन बिता रहे है। कोई भूखा मर रहा है तो कोई अपनी समस्याओं को जनता के सामने, समाज सुधारकों के सामने रख रहा है। जिसे हम इस उदाहरण के माध्यम से देख सकते है:- “एक बुजुर्ग उम्र अस्सी साल, सफेद दाढ़ी बढ़ाई हुई थी जो कार्यक्रम में ही सभी के सामने आकर कहने लगा- मेरे पीछे कोई नहीं है मै भीख माँग कर खाता हूँ। अब मैं थक चुका हूँ चार घर जाकर भीख माँगना नहीं हो रहा है क्या करूँ साहब... मैं किसी दिन मर गया तो किसी को पता भी नहीं चलेगा मैं मर गया तो साहब मेरा अच्छे से क्रियाक्रम करना साहब आप का उपकार होगा।”[9]
इस तरह से अनेक समस्याओं से जूझते वृद्धों को इस आत्मकथा में बाबाराव मडावी ने उद्धृत किया है यह स्थिति आदिवासियों की ही नहीं है पूरे भारत में इस समस्याओं से हम रू-ब-रू हो सकतें है।
घुमंतू जातियों के लोग अपने दु:खो को साथ लेकर घूम रहे हैं इनकी स्थिति बहुत बेकार है। जिनमें है नाथ योगियों की बस्ती जो पाँच छ: बार बिखर गयी है। नाथयोगि अपना सामान लेकर गाँव- गाँव घूम कर अपना जीवन बिताते है। लेखक स्वयं उनसे मिलते हैं उनकी स्थिति का उल्लेख इन शब्दो में करते है: तुड़क्या जोगी कहता है- “साहब हमारे हालात के बारे में क्या पुछते हो हम दूरदूर तक भीख माँगने के लिए जाते है हमारा धन्दा भीख माँगने का है। पारधी समाज में स्त्रियाँ भीख माँगती है तो नाथ जोगियों में पुरूष भीख मागते है हमारी घुमंतू जात है कभी-कभी तो बच्चे-बूढ़े मरने पर भी हमें नहीं मालूम होता है।”[10]
इस प्रकार घुमंतू जाति का बड़ी मार्मिकता से उल्लेख किया गया है। आज भी महाराष्ट्र में यह जातियाँ मौजूद है जो आज भी भटकते हुए नजर आ रहे है।
इस प्रकार इस आत्मकथा में अनेक समस्याओं से जूझते आदिवासी समुदाय का यथार्थ चित्रण किया गया है। पर सबसे बड़ी विशेषता है इस में अधिकारों को पाने की जद्दोदहद देखने को मिलती है आत्मकथा के अंन्त तक लेखक यही कहता है कि हमें हार नहीं माननी चाहिए आगे बढ़ते रहना चाहिए। यह संदेश वह सभी को देते है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची-