आदिवासी केन्द्रित हिन्दी उपन्यासों में नारी : शोषण तथा संघर्ष
आधुनिक हिन्दी साहित्य समाज का वह दर्पण है जिसमें समकालीन परिवेश की घटनाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। इक्कीसवीं सदी में जहाँ समाज में नई विचारधाराओं ने दस्तक दी वैसे ही हिन्दी साहित्य में भी नए विमर्शपल्लवित होने लगे।स्त्री, दलित, किन्नर, आदिवासी इत्यादि विमर्शों की उत्पत्ति का एक मात्र लक्ष्य था हशिए के समाज को केंद्र में लाना और मानव जाति का उत्थान करना। आदिवासी एक ऐसा समाज है जो सदियों से हशिए में जी रहा है। आदिवासी विमर्श हशिए में जी रहे मानव जीवन की समस्याओं, संघर्षो एवं शोषण आदि कोप्रकाश में लाने का एक माध्यम है।
‘आदिवासी’ शब्द ‘आदि’ और ‘वासी’ दो शब्दों से मिलकर बना है जिसमें ‘आदि’ का अर्थ है आरंभ और ‘वासी’ का अर्थ है वास करने वाला। अर्थात् ‘आदिवासी’आरंभ से वास करने वाली किसी देश की प्राचीन प्रजाति है। आदिवासियों को गिरिजन,वनवासी, भूमिपुत्र, वन्यजाति, जंगली, वनपुत्र आदि नामों से भी पुकारा जाता है ।आदिवासी को पारिभाषित करते हुए जेकब्स तथा स्टर्न लिखते है- “एक ऐसा ग्रामीण समुदाय या ग्रामीण समुदायों का ऐसा समूह जिसकी समान भूमि हो, समान भाषा हो, समान सांस्कृतिक विरासत हो और जिस समुदाय के व्यक्तियों का आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे के साथ ओत-प्रोत हो, जनजाति कहलाता है।"[1]
आदिवासी के विषय में डॉ॰ विनायक तुकाराम लिखते हैं कि"आदिवासी आर्यों से पूर्व का मनुष्य समूह है । वह इस भूमि का मूल मालिक है । सही अर्थ में वह ही क्षेत्राधिपति है।"[2]
आदिवासी साहित्य के विषय में रमणिका गुप्ता का कहना है कि “मैं आदिवासी साहित्य उसी को मानती हूँ जो आदिवासियों ने लिखा और भोगा है। उसे आदिवासी समस्याओं सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थितियों व उनकी जीवन शैली पर आधारित होना होगा। अर्थात् आदिवासियों द्वारा आदिवासियों के लिए आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य कहलाता है।”[3]
सृष्टि के आरंभ से ही जो समाज शोषित एवं प्रताड़ित होता रहा है भला उस समाज की महिलाओं की स्थिति सभ्य समाज में कैसी हो सकती है यह हम स्वयं ही विचार कर सकते हैं। वैसे आदिवासी समाज में नारी का विशेष महत्व है क्योंकि आदिवासी नारी अपना सम्पूर्ण जीवन परिवार व समुदाय को समर्पित कर देती है। हाशिये पर रहने के कारण आदिवासी समाज शिक्षा से वंचित रहा है। अशिक्षित होने के कारण आदिवासी समाज अपने मौलिक अधिकारों से भी अनभिज्ञ रहा, जिसका भरपूर फायदा गैरआदिवासियों ने उठाया और आदिवासियों का खुले आम शोषण किया। अपने सरल स्वभाव तथा आदिवासी होने के कारण आदिवासी नारियों का शोषण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होता आया है। अतः आदिवासी नारी का जीवन आदिवासी पुरुष की अपेक्षा अत्यंत त्रासद एवं संघर्षमय है। परिणामस्वरूप आधुनिक हिन्दी साहित्यकारों ने उपन्यास के जरिये आदिवासी नारी के जीवन संघर्ष एवं शोषण के मार्मिक दृश्यों को बड़ी ही बारीकि से उकेरा है।
हिन्दी ऑक्सफोर्ड लिविंग डिक्शनरी में शोषण को इस प्रकार से पारिभाषित किया गया है- “शोषण अर्थात् सोखना, दूसरे के श्रम का अनुचित लाभ उठना अथवा क्षीण या दुर्बल करना।”[4]
ब्रहम्वीर सिंह द्वारा रचित उपन्यास ‘दंड का अरण्य’ एक ऐसी दुनिया से हमें रुबरू करवाता है जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। यह उपन्यास नक्सलवाद, पुलिस और राजनेताओं के बीच फंसे हुए निर्दोष आदिवासियों के भयानक जीवन के दृश्य प्रस्तुत करता है । ‘दंड का अरण्य’ एक ऐसे अरण्य की गाथा है जहाँ प्रतिदिन पुलिस और राजनेता अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु निर्दोष आदिवासियों की बलि चढ़ाते हैं।आदिवासी समाज में परिवार के भरण-पोषण का सम्पूर्ण दायित्व महिला के कंधों पर होता है। जिसे आदिवासी महिलाएँ न सिर्फ पूरी निष्ठा से निभाती है बल्कि परिवार रूपी वृक्ष को निरंतर अपने श्रम से सींचती है। घर-परिवार, खेत-खलिहान से लेकर आर्थिक आय के क्षेत्र में भी अपनी भागीदारी निभाती हुए पतिव्रत धर्म का पालन करती है। आदिवासी नारी का सम्पूर्ण जीवन स्वयं के लिए नहीं अपितु अपने समुदाय के लिए समर्पित होता है। पूर्णत: सर्वगुण सम्पन्न होने के बावजूद भी आदिवासी नारी का चरित्र कलंकित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता तथा जातिगत भेदभाव के कारण गैर आदिवासी समाज, आदिवासी नारी के चारित्रिक गुणों को अनदेखा कर उनका शारीरिक शोषण तो करते ही हैं साथ ही उनके चरित्र पर कीचड़ भी उछालते हैं। ‘दंड का अरण्य’ उपन्यास में पुलिस के जवानों द्वारा बुधरी का समूहिक बलात्कार कर उसे बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता है। पुलिस अधिकारियों पर कोई उंगली न उठे इसीलिए बेगुनाह बुधरी के पास कुछ हथियार रखकर उसे नक्सली साबित किया जाता है। लखु जब अपनी पत्नी की गुमसूदगी की सूचना थानेदार को देता है तो थानेदार व्यंग्यात्मक रूप से कहता है कि “जाकर देखो जंगल में रंगरलियाँ मनाते मिल जाएगी। तुम लोगो का क्या है, कोई भी किसी के साथ निकाल जाता है। तुम लोग नक्सलियों के ख़िदमतगार हो, तुम्हारी लुगाइयाँ उनकी रखैल हैं।”[5]
कानून व्यवस्था तथा पुलिस का गठन मानव की रक्षा हेतु की गयी है। कानून के समक्ष सम्पूर्ण मानव जाति का अस्तित्व एक समान है। किन्तु जहाँ बात आदिवासी समाज की आती है न जाने क्यों पुलिस प्रशासन अपना कर्तव्य भूल जाती है और पक्षपात पर उतर आती है। यदि कानून के रखवाले ही न्याय की जगह अन्याय और रक्षण की जगह भक्षण पर आमादा हो जाए तो भला मानव जाति कैसे सुरक्षित रह पायगी। जातिवाद के समर्थक पुलिस अधिकारी अपने पद तथा अधिकार के मद में खुलेआम इंसानियत का खून करते हैं। पुलिस अधिकारियों का रवैया आदिवासी नारियों के प्रति अत्यंत निंदनीय रहा है। ‘दंड का अरण्य’ उपन्यास में बुधराम, पुलिस द्वारा अपनी पत्नी तथा अन्य आदिवासी महिलाओं के साथ हुए अन्याय की घटना के संदर्भ में कहता है कि “महिलाओं को देखकर टूट पड़े। जवानों ने बलात्कार की कोशिश की, मेरी पत्नी ने विरोध किया। पत्नी का हौसला देखकर बाकी औरतें भी मारपीट पर उतारू हो गई। पुलिस ने पहले मेरी पत्नी को गोली मारी, फिर महिलाओं को मार दिया।”[6]
आदिवासी नारी जीवन की यह विचित्र विडम्बना रही है कि वो उपभोग की ऐसी वस्तु समझी जाती आयीं हैं, जिनका भोग करना पुरुष वर्ग अपना अधिकार समझता है। आदिवासी नारी की कोई इज्जत आबरू नहीं होती क्योंकि उसे तो मनुष्य की परिधि से ही बाहर रखा गया है। यदि उनका कोई वजूद है भी तो वह मात्र देह के कारण क्योंकि आदिवासी नारी गैर आदिवासी समाज के दैहिक भूख कि तृप्ति का एक अत्यंत सरल एवं सस्ता साधन है। अक्सर यह देखा गया है कि मात्र आदिवासी होने के कारण किसी नारी का समूहिक बलात्कार कर उसे बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता है। विचित्र बात तो यह है कि इस प्रकार के कुकृत्य पर न तो पुरुष वर्ग को कोई ग्लानि होती है और न ही कोई पछतावा। पुलिस के जवानों द्वारा बुधरी का सामूहिक बलात्कार तथा हत्या किए जाने के बावजूद, थानेदार भावे अपने जवानों का पक्ष लेते हुए बड़ी ही निष्ठुरता एवं अभद्रता से कहता है कि “औरतों के साथ सोने का मन हो जाता है कभी-कभार। हम लोग भी इंसान हैं। नक्सलियों को परोस सकते हो, हमको नहीं। हमारे क्या कांटे उगे हैं।”[7]
हरीराम मीणा द्वारा रचित 'धूनी तपे तीर' उपन्यास राजस्थान के डुंगरपुर-बांसवाड़ा के आदिवासी क्षेत्र की सामंती पृष्ठभूमि पर रचित उपन्यास है। इसकी कथा शोषण, संघर्ष एवं बलिदान पर आधारित है। उपन्यास के केंद्रीय पात्र गुरु गोविंद है जो ‘संप-सभा’ का संगठन कर आदिवासियों में एकता और जागृति लाते हैं। जिससे शोषण तथा अन्याय के खिलाफ वे आवाज़ उठा सकें। वैसे यह उपन्यास आदिवासी समाज के इतिहास एवं उन पर हुए अत्याचार को प्रमाणित तौर पर उद्घाटित करता है। आदिवासी ही मानव सभ्यता के वास्तविक जनक हैं। आदिवासी आधुनिक मानव के वो अतीत है जो प्राचीन मान्यताओं तथा नैतिक मूल्यों को आज भी जीवितरखे हुएजीवन जी रहे हैं।किन्तु हमारा शिक्षित तथा सभ्य कहा जाने वाला गैर आदिवासी समाज अपने अक्षर ज्ञान के अहं में यह अक्सर भूल जाता हैकि कोई भी आदिवासी किसी की व्यक्तिगत संपत्तिनहीं है बल्कि मूलनिवासी है। मानव सभ्यता के जनक होने के बावजूद भी महाजन, ठेकेदार, जमींदार, पुलिस, नेता आदि पुरुष सत्तात्मक विचारधारा से ग्रसित पुरुष आदिवासी महिला को अपनी जागीर समझते हैं। ‘धूनी तपे तीर’ उपन्यास का पात्र ठाकुर किसन सिंह आदिवासी किशोरी को अपनी लोलुप निगाहों से ताड़ते हुए कहता है कि“वाकई छोरी वनपरी ही है। जैसा सूबेदार ने बताया था वैसे ही टन्न गिन्दोड़ी! किसी के घर भी पैदा हुई हो लेकिन बैमाता ने गढ़ा तो हमारे ही लिए है।”[8]
समाज में हर रोज़ स्त्री-पुरुष की समानता पर बड़े बड़े उपदेश दिये जाते हैं। किन्तु जब मानव होने के बावजूद भी आदिवासी को हाशिये पर रखा गया है तो भला आदिवासी नारी का अस्तित्व सभ्य समाज में कैसा हो सकता है इसकी कल्पना भी कर पाना असंभव हैं। हिन्दी उपन्यास समाज के इस कटु सत्य को उद्घाटित करता है किआदिवासी नारी का अस्तित्व पुरुष वर्ग के लिए भोग्या से ज्यादा कुछ नहीं है। पशु तो मात्र अपनी पेट की शुदा शांत करने के लिए अन्य पशुओं का शिकार करते हैं। किन्तु हवस के भूखे मनुष्य, खूंखार पशुओं से भी अधिक बेरहमी से आदिवासी बालाओं का शिकार करते हैं। यदि विरोध करे तो उसे इतनी शारीरिक प्रताड़णा दी जाती है जिसके असहनीय दर्द से वह मौकाएवारदात पर ही दम तोड़ दे। इतना ही नहीं अपनी वासनापूर्ति के पश्चात् आदिवासी बालाओं के रौंदे हुए शव को बड़ी ही निष्ठुरता से जंगल में कहीं भी फेक दिया जाता है। 'धूनी तपे तीर' उपन्यास का पात्र सूबेदार लियाकत अली दल्ली का बड़ी ही क्रूरता से बलात्कार करता है। उपन्यासकार के शब्दों में- “सूबेदार ने गुस्से में जबरदस्त थप्पड़ मारा था दल्ली के गाल पर। भाचीड़ मारी थी दीवार के और धान की पूली की तरह उठाकर पटका था पलंग पर। जैसे बकरी के जवान बच्चे को फफेड़ता है वैसे रौंदा था दल्ली को।... नाहर मगरा के नीचे बहने वाले नाले के कीचड़ में दल्ली की लाश मिली थी अगली सुबह।”[9]
मैत्रेय पुष्पा द्वारा रचित 'अल्मा कबूतरी' उपन्यास बुंदेलखण्ड की कबूतरा नामक जाति की सामाजिक व्यवस्था तथा नारी शोषण की सीमाहीनता को प्रस्तुत करती है। हमारा सभ्य तथा शिक्षित कहा जाने वाला आधुनिक समाज न जाने क्यों यह नहीं समझ पा रहा, कि किसी भी नारी का अस्तित्व जाति आधारित नहीं है। प्रत्येक नारी मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण है चाहे वह किसी भी जाति से संबन्धित क्यों न हो। किन्तु शिक्षित होने के बावजूद भी कज्जा, राजनेता, पुलिस इत्यादिमात्र जाति के आधार पर महिलाओं को अपमानित एवं प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। आश्चर्य की बात यह है कि उनके शोषण पर कोई आवाज़ तक नहीं उठा सकता क्योंकि समाज में इनके शोषण की परंपरा सदियों से चली आ रही है और अब यह एक संस्कार बन गयी है । पुलिस की हैवानियत उनकी बर्बरता को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है जब वे कबूतरा महिलाओं के साथ अत्यंत क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते हैं जो सर्वथा अमान्यतथा मानवता को सर्मसार करने वाला है। लेखक के शब्दों में- “वो गयी/ पकड़ो साली को। मटके जैसा पेट/ लाओ इधर। हम बच्चा पैदा करते हैं। आदमी पैंट खोलने लगा। बच्चे कहाँ,मुर्गियाँ कहाँ, कबूतराओं को अपना संसार याद आने लगा। बकरी... बकरी का सर उद गया। अरहर की पत्तियाँ हरी से लाल हो गयी। डंडे वाला पीछे था, जांघों में डंडा घुसाने लगा। सरमन की औरत पूरी ताकत लागकर चीखी-खासियाडंडा।”[10]
हिन्दी उपन्यास जहाँ एक ओर आदिवासी नारी शोषण के भयावह दृश्य हमारे सामने प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर उनके संघर्षमय जीवन को भी दर्शाता है। आदिवासी महिलाएँ शारीरिक रूप से ताकतवर तो होती ही हैं साथ ही वे हथियार चलाने तथा निशानेबाज़ी में भी अचूक होती हैं। आदिवासी महिलाएं न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक तौर पर भी अत्यंत दृढ़ होती हैं। अपने दृढ़संकल्प तथा आत्मविश्वास के साथ वे जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मानती बल्कि परिस्थियों को अपने अनुकूल करने का हौसला रखती हैं।
अल्मा कबूतरी उपन्यास में भूरी, कदमबाई तथा अल्मा का चरित्र संघर्षरत नारी के रूप में उभरकर आता है। अल्मा अदम्य साहसी तथा संघर्षशील लड़की है। अल्मा, प्रेमी राणा से अलग होकर तथा पिता की मृत्यु के पश्चात् दुर्जन द्वारा सूरजभान को बेच दी जाती है। सूरजभान की कैद में अल्मा बार-बार प्रताड़ित होती है, कई बार उसपर बलात्कार किया जाता है जिससे उसका गर्भपात भी हो जाता है। इतना होने पर भी अल्मा पलायन नहीं करती बल्कि भूखी-प्यासी रहकर सरफरोसी का गीत गुनगुनाती है। खाट में बंधी अल्मा मुक्ति हेतु छटपटती बहुत है किन्तु भोजन को हाथ तक नहीं लगती। अल्मा की दृढ़ शक्ति तथा संघर्ष का परिचयनत्थू द्वारा धीरज को कहे गए शब्दों में देखने को मिलती है –“कहते हैं न कि धनबल की सत्ता न मानने वाले को कौन झुका सकता है?”[11]
आदिवासी नारियां वीरांगनाएँ हैं, इतिहास साक्षी है उनके साहस एवं शौर्य की। जब भी मातृभूमि का ऋण चुकाने का अवसर मिला उन्होंने कदम पीछे नहीं हटाये। हँसते हँसते अपने प्राणों की आहुती दी है। ‘धूनी तपे तीर’ उपन्यास में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए जब आदिवासी पुरुष शहीद होने लगे तब महिलाओं ने मोर्चा संभाला। पुरुषों की भांति ही महिला दल का नेतृत्व कर रही सुगनी जैसी कई महिलाओं ने हँसते हुए जन्मभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। एक ओर लाशें गिर रही थी तो दूसरी ओर पुनः महिलाएं युद्ध को तैयार खड़ी मिली। ये उनके अदम्य साहस तथा देशप्रेम को दर्शाता है। मंगली के रूप में आदिवासी नारी के मनोबल तथा साहस को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है - "उसने स्त्रियों का पुनः समूह बनाया। लड़ाई के लिए उनके मनोबल को ऊँचा उठाया। गोफन और कुल्हाड़ियाँ उनके हथियार थे। कुछ के पास धनुष-बाण भी। अनेक रणचंडी भवानियों की तरह वे अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रही थी।"[12]
हिन्दी साहित्यकारों ने आदिवासी नारी जीवन की विडंबनाओं को न सिर्फ समझा बल्कि उनके जीवन का यथार्थ तथा सूक्ष्म रूप में विश्लेषण भी किया। जिस कारण उनका त्रासदपूर्ण, शोषित एवं संघर्षरत जीवन हमारे सम्मुख खुलकर आ पाया।अतः यह कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी के हिन्दी उपन्यास उन शोषित, प्रताड़ित महिलाओं की पीड़ा, उनके दर्द की गूँज तो है ही साथ ही उनके साहस एवं संघर्षमय जीवन का दस्तावेज़ भी।
संदर्भ :-