कच्छी लोकसंस्कृति का अध्ययन
भारतीय उपखंड के एक भूभाग कच्छ प्रदेश का अपने आपमें बहुत महत्त्व रहा हे | भारतीय संस्कृतिकी एक अलायदी सी धरोहर को संझोके बैठा हे यह प्रदेश | उपखंड के पश्चिम और वायव्य दिशामें, मध्यपूर्व एशिया के ढेर सारे राष्ट्रों में आज भी एक समान संस्कारिता के अंश देखने को मिलता हे | और इसमे कच्छ प्रदेश अपने स्थानीक वैशिष्टय के साथ अति महत्त्वपूर्ण प्रदेश रहा हे | इसके अलावा भी सौराष्ट्र और सिंध के बीच कर्कवृत्त पर स्थित यहाँ प्रदेश समुद्र और खारा रण से घिरा हुआ एक विशिष्ट भूभाग हे | तकरीबंध १६० माईल लंबा और कहे कही पर ३५ से ७० माईल तक चौडाई वाले प्रदेशकी दक्षिण, और पश्चिम की और कच्छ का अखात और अरबी समुद्र हे | उसकी पुर्वी भाग में छोटा रण उत्तरी भागमें बड़ा रण हे | उपरांत सरहदकी और पाकिस्तान का प्रदेश हे |
कच्छ का सीमा विस्तार लगभग १७००० चोरस माईल का हे | कच्छ की अलायादी भौगोलिक रचना के हिसाब से इसको कच्छका अखात व कच्छ्का रण से भी पहचाना जाता हे | यहाँ पर लम्बी पथरीले परबतो की हारमाला हे| यहाँ पर एक और से बारीस भी कम पड़ती हे दूसरी और कोई बड़ी नदी भी नहीं जो सालभर चलती हे | पानी के बहुत कम स्रोत हे | ऐसे कच्छ प्रदेश की संस्कृति, उनकी जनजातिया, उनका रहना सहन, उनका धर्मं, उनके उत्सव, उनका साहित्य यह सब जानना पहचानना हमारी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए बहुत जरुरी हे |
सबसे पहले हम इस ‘कच्छ’ प्रदेश का जहा जहा उल्लेख मिलता हे उसकी जानकारी लेते हे क्युंकी इसकी वजहसे हमे यह पता चलेगा की यह ‘कच्छ’ प्रदेश कितना पुराना हे और इस प्रदेशको भिन्न भिन्न समयमे कौनसे भिन्न भिन्न नाम से जाना जाता था | ‘कच्छ’ संज्ञा प्रचलित हुइ इसके पहले राजकीय और भौगोलिक तौर पर इसको ‘अनूप’, ‘आभीर’, ‘अपरांत’ जैसे नामो से पहचाना जाता था |
कच्छ प्रदेशका इतिहास प्राग ऐतिहासिक काल तक हमें ले जाता हे | यहाँ पर प्रचीनतम सिधु सभ्यता का धोलावीरा शहर का अस्तित्व भी मिलता हे और सरस्वती, सिंधु जैसी नदी के अवशेष भी मिलते हे | अलबत्त सबसे पहले यहाँ पर किसका राज था, कौन सी प्रजा यहाँ पर सबसे पहले स्थायी हुई थी यहा सब तय करना मुश्किल हे लेकिन प्रयास के रूप में हमें साहित्यमे इनका उल्लेख देखने मिलता हे | रामायण : कच्छ प्रदेशमे बहती हुई ‘अघोरा’ १ नदीकी खीणमें दो गुफाए ‘काली’ और ‘हिंगुला’ नामके दो देवीयो के देवालय आज भी अस्तित्त्वमे हे | उस नदी में जो विरडा हे उसको लोग ‘रामकुप’ के नाम से जानते हे | कहा जाता हे की श्री राम और सीताने वनवास के दौरान उस अघोरा नदी के तट पर निवास किया था | वहा से श्रीराम और सीता ‘गोरक्षतडाग’ और ‘तुन्गभेर’ गए थे | वहा से आगे बढ के श्री राम और सीताजी हिन्गुलादेवी (हिंगलाज) की ओर दर्शन के लिए गए थे ऐसी मान्यता कच्छ में प्रचलित हे | २ महाभारत : महाभारत के भीष्म पर्व भी कई प्रदेशो का उल्लेख देखने को मिलता हे ३ जैसे की भोज, गोपराष्ट्र, आभीर, वाटधान, कालतोषक, अपरान्त, परांत, कुशबिंदु, गोपालकच्छ, इसके साथ कच्छ का भी उल्लेख मिलता हे | ४ साथ में महाभारत के सभा पर्व में सहदेव ‘कच्छ’ प्रदेशमे गए थे ऐसा भी उल्लेख मिलता हे | ५ जातककथा : बौद्धधर्म की जातकथाओमे कच्छ प्रदेश का उल्लेख देखने को मिलता हे | इतना ही नहीं कच्छकी व्यापार व्यवस्थाकी जानकारी भी इस जातककथा से मिलती हे | ६
शिल्प-स्थापत्य और उसके साथ जुडी हुई एतिहासिक धरोहर :
जैसे शिल्प एवं स्थापत्य किसी क्षेत्रकी संस्कृति का विस्तारपूर्वक विवरण करते है वैसे ही ताम्रपत्र, प्राचीन सिक्के एवं मुद्राए उसके क्षेत्रीय इतिहास के बारे में जानकारी प्रदान करते है।
"गधैया" नाम से विख्यात हुए प्राचीन सिक्के कच्छ के पुराने गाँव और खंडहरों जैसी पुरानी जगहों से मीले है। यह सिक्के अमूमन चांदी और तांबे के होते है। कच्छ का दरियाई प्रदेशो के साथ संबंध जबसे समुद्री व्यापार की शुरुआत हुई तब से रहा है। इसलिए कच्छ में अलग-लग देशों के बहुत से विदेशी सिक्के भी मिल जाते है। सन १९४९ में ध्रंग गाँव में तालाब और नाली की खुदाई के वक़्त "लारी" नामके दो पंख वाले चिमटे के आकर के चांदी के सिक्के मिल आए थे। यह सिक्के दो पंखों को बीच से चपटे किए हुए एक इंच लंबे बाहर के हिस्से में लिखावट अंकित किए हुए है। मुस्लिम काल के बीबी कई सिक्के कच्छ में मिल जाते है। लेकिन इन सब सिक्को में कच्छ में से गुप्तकाल के जो सिक्के हाथ लगे है उनका विशिष्ट महत्व है। स्कन्दगुप्त के हाथ लगे सिक्को से ऐसा फलित होता है की उसने अपने गुजरात-सौराष्ट्र के राज्य में कच्छ को भी मिलाया था। "भागवत महाराजाधिराज कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य" नामोल्लेख वाले कुमारगुप्त सिक्के भी कच्छ में महत्व के है। सन १९५५ में अंजार तालुके के कोटड़ा गाँव से ज़मीन में गढ़ा हुआ एक ताम्रपत्र हाथ लगा है। जिसमे से मिले "गधैया" और एक तरफ हाथी के चिन्ह वाला सिक्का भी महत्वपूर्ण है। इन सभी सिक्को का संग्रह भुज के सरकारी संग्रहालय में किया गया है। उसमे रामटांक का एक सिक्का, विश्वसेन क्षत्रप, विजय सेन के १६४ शकेन, रुद्रसेन, कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त के सिक्को का विशेष महत्व है। वह कच्छ के उस समय के राज्यमल की याद दिलाते है। कच्छ के पाटगढ़ से मिली एक प्राचीन मुद्रा का चित्र भी यहा दिया गया है।
ताम्रपत्र और महत्व के दस्तावेजी पत्र कच्छ के गांवों के ब्राह्मण, गरासिया, अतितो और कमीकसबी लोगो के घरों में होने की जानकारी मिलती है; लेकिन अमूमन वे लोग वह जानकारी साझा करने से इनकार करते है। कच्छ में से हस्तगत हुए ऐसे तीन ताम्रपत्रों की विगत इस प्रकार है, जिसपर से उस समय कच्छ पर अणहिलपाटण के राजाओ का वर्चस्व होने के सबूत मिलते है।
सवंत १९०५ यानी की जडेजा वंश के राज्य की भुज में शुरुआत होने के समय से पहले के शिलालेख और ताम्रपत्र की जानकारी हमने यहां विस्तार से साझा की है, हालांकि नारायण सरोवर, कोटेश्वर, भुज और मांडवी के कितने मंदिर, धीणोधर, रावाड़पीर, रियाणु और अन्य कई जगह जैसे की भुज की बाज़ार में लखपतजी का ताम्बे का आदेशपत्र, अंजार में टीम्बी कोहा का लेख, भड़ेश्वर और अजपाल मंदिर इत्यादि १९०५ के बाद के अर्वाचीन लेख भी उल्लेखनीय तो है ही। भन्द्रेश्वर में वसहि के देरासर में सावंत १८७२ का एक लेख है उसमे वहा के घीस चुके प्राचीन शिलालेखों का उल्लेख कर वीर सावंत ४५ के बाद कप्तान मॅकमर्डो ने उस मंदिर की मरम्मत करवाने का और असल दस्तूर मिलने का आदेश दिया तब तक के एवं सावंत १८८६ में चार्ल्स वॉकर ने मदद की तब तक का देरासर का समय-समय पर जीर्णोद्धार होने की जानकारी तथा ऐसे ही दूसरे सावंत १९३४ की साल के लेखो में भी वीर सावंत १३, वि. सं. १३२३ में जब जगड़ू ने पुनरोद्वार करवाया और उसके बाद कालक्रम से देरासर का समारकाम करने की माहिती अंकित की गई है।
कच्छ में मिले कितने समाधि स्तंभ पर लिखे लेख भी महत्व के है। गेड़ी का सं. १२६८ का क्षेत्रपाड़ का समाधि स्तंभ, भद्रेश्वर का सं. १३१९ का माह वद ५ और सोमें के उल्लेख वाला समाधि स्तंभ, सिंध के फतेहअली तालपुर ने जोधपुर के महाराजा के लश्कर को हराया उसके सवंत १८३९ के चौबारी गाँव के ५६ समाधि स्तंभ, भुज की छतेड़ी के और वागड़ में जगह-जगह आने वाले पुराने समाधि स्तंभ से लेकर दुधई के उत्तर में आई कप्तान और मिसिज़ रेना टर्क कुत्ते की याददस्त २९ जनवरी १८८३ की स्मरणशिला प्रेमशौर्य कथाओं की सुंदर याद देती है।
कच्छ के कई प्राचीन मंदिर, कोट इत्यादि खंडहरों में से कई टूटेफूटे शिलालेख मिल आते है। भद्रेश्वर में आशापुरा मंदिर के एक स्तंभ पर सं. ११५८ के उल्लेख वाला बिल्कुल घिस चुका एक लेख है। कंथकोट के जिनमंदिर के खंडहरों में सं. सवंत ११३२ श्रावण सुद ५ सोमे तथा सं १३४० का लेख है। और उसमे आत्मदेवसुत लाखु, साही और पासीड़ का उल्लेख है। भुअड़ में सं. १३४५ का वनराज चावड़ा और उसकी वंशावली के उल्लेख का एक घिस चुका लेख है। गेड़ी में राणा हरिदासजी के समय में माला ने बनवाई गई मालणवाव में सं. १५३३ का लेख है। चित्रोड़ के शिवालय में सं. १५५९ का लेख है। इसके अलावा भद्रेश्वर में, पीपर के पास जामहभा के कुबे में तथा धोलाय के पास मोड़ और देसर जुंजार के और दूसरे कुबो में कुफी घाटी की अरबी-ईरानी पद्धति में बनवाये शिलालेख भी मिल आते है। यह सारे शिलालेख या तो घिस चुके है या फिर ख़ूब धुंधले और टूटे फूटे है। इस लिए यहा सिर्फ ऐतिह्य वाले पूर्ण लेख ही उतारे है।
साल के निर्देश वाले गुजरात के पुराने से पुराने क्षत्रपकाल के शिलालेख कच्छ के आंधौ में से मिले है, उनमे तथा दुसरो में दिए गए विशेष नाम और विशिष्ट जानकारी उस समय उस प्रदेश में रहते लोगो में कैसे संस्कार, धर्म, रीति रिवाज थे इस बात लार कुछ रोशनी मुअय्या करते है; यानी कच्छ में से अभी तक मिले इतिहास में महत्व के ऐसे शिलालेख, ताम्रपत्र और मुद्रा की जानकारी उनके अक्षरांतरो, विवरण, और जहा ज़रूरी है वह सचित्र दी गई है।
कच्छ के साथ जुडी हुई चिकित्सा :
कच्छ, जिसने कई विशिष्टताओं और विषमताओं के बीच सदियों से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाए रखी है, कच्छियों के लिए एक सामर्थ्य है। इस सामर्थ्य की विशिष्ट पहचान को अस्मिता कहा जाता है। अस्मिता में हम संस्कार और संस्कृति के अग्रणी प्रतिबिंब को देख सकते हैं। यह इस संस्कार और संस्कृति के कारण है कि कच्छ के लोग दुनिया के किसी भी कोने में अपनी 'कच्छियत' को बनाए रखा है और बनाए रख रहे है।
जलवायु, आर्थिक विकास और भूगोल के संदर्भ में, कच्छ हमेशा प्रतिकूलताओं से भरा रहा है। यही कारण है कि कच्छ क्षेत्र में उगने वाले औषधीय पौधे इस विशेष क्षेत्र में सदियों से स्वास्थ्य का संदेश फैला रहे हैं, जो जलवायु की भौगोलिक और मानव निर्मित विषमताओं के बावजूद अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं।
वनस्पति विज्ञान के अनुसार, कच्छ एक 'जंगल देश' है । वनस्पति विज्ञान के दृष्टिकोण से, कच्छ में उगाए जाने वाले पौधों की एक विशेष पहचान और विशिष्टता है। आयुर्वेद के अनुसार, कच्छ क्षेत्र को 'जंगल देश' कहा जाता है। आयुर्वेद के प्राचीन शास्त्रों के अनुसार, जिस देश में कुछ पहाड़, पानी, पेड़, पौधे आदि होते हैं, उन्हें 'जंगल देश' कहा जाता है, आमतौर पर इस प्रदेशमें वायु प्रदूषण की प्रबलता देखने मिलती है। इसलिए उस जगह की जलवायु विषम होती है। पश्चिम-दक्षिण समुद्र और उत्तर-पूर्वी रेगिस्तान से घिरा, कच्छ का तापमान विषम है। ऋतुचक्र के अनुसार ऋतुएं तो यहाँ भी केवल तीन ही आती हैं, लेकिन बारिश का मौसम तो सिर्फ अपनी उपस्थिति को महसूस कराने के लिए ही आता है। अन्यथा, चिलचिलाती गर्मी या एक असहनीय ठंड का अनुभव करनेवाली शर्दी ही होती है। रेगिस्तान और समुद्र से घिरा, कच्छ की अधिकांश भूमि रेतीली है। इस प्रकार, जलवायु और क्षेत्रीय प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण, कच्छ वनस्पति परिवार के लगभग पचहत्तर औषधीय पौधों का उत्पादन करता है। जो अपनी विशिष्ट पहचान के कारण कच्छ के संतुलित और रचनात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। किसी भी क्षेत्र के संतुलित आर्थिक और सामाजिक विकास की नींव स्थानीय लोगों के स्थायी स्वास्थ्य में निहित है। अगर लोग स्वस्थ नहीं हैं तो किसी भी तरह का विकास मृगतृष्णा जैसा आभासी बनकर दूर ही दूर रहता है।
कच्छ में पाए जाने वाले जड़ी-बूटियों के लिए इसकी विशिष्टता के कारण, आयुर्वेद के इस श्लोक को "यस्य देशस्य यो जंतुस्तुजन तस्यौषधम् हितम्" के आधार पर कहा जा सकता है कि ' जो जीव, जो जगह या देश में रहते है, वही जगह , वही देश या प्रदेश में पैदा होती वनौषधियाँ उससे होते औषधसाध्य रोगों के समानार्थ में विशेष असरकारक और हितकारी है। कहने का तात्पर्य यह है कि, 'कच्छी माडु' को केवल ऐसी विशेषता वाली कच्छ की जड़ी-बूटियाँ कच्छ के प्रतिकूल जलवायु, जल आदि के कारण के कारण होने वाली विशेष औषधीय बीमारियों को ठीक करने में पूरी तरह सक्षम हैं। क्योंकि ये पौधे कच्छ में होने वाली अधिकांश बीमारियों का सरल, आत्मनिर्भर और किफायती उपचार है। कच्छ की जलवायु के मद्देनजर, अगर कुछ जड़ी बूटियों का नियमित रूप से सेवन किया जाता है, तो ऐसी विषमताओं के बीच भी, लोग इसे पूरे साल स्वस्थ रहने के लिए विशेष रूप से उपयोगी पाते हैं और पूर्ण प्रतिरक्षा भी दे सकते हैं ।
कच्छका लोकसाहित्य :
कच्छी आवाज है। विचारों को व्यक्त करने वाला एक धमकभरी बोली है। लोक-हृदय की भावना की भाषा की तरह, कच्छी बोली रहस्यमयी और सटीक है। कच्छी लिपि नहीं है इसलिए वह नहीं लिखी जा सकती इसलिए कच्छी बोली के साहित्य को कण्ठस्थ किया गया है और उसे जीवित रखा गया है। ऐसा लोगों की ज़ुबान पर चलता आ रहा लोकप्रिय साहित्य कच्छी बोली में परिचालित किया जा रहा है। परंपरा से चल रहा वह सच्चा साहित्य है।
कच्छी बोली अपने मूल रूप में प्राकृत जितनी शुद्ध रही है। हालांकि, कच्छ में बसे और कच्छ से गुजरने वाले लोगों की विचारधारा ने जनपदीय कच्छी बोली पर अपनी छाप छोड़ी है, इसलिए वर्तमान बोली जाने वाली कच्छी बोली, जो सिंधी, राजस्थानी और गुजराती का मिश्रण लगती है, कच्छ की सामाजिक स्थिति पर राजनीतिक उथल-पुथल के प्रभाव में विशेष लगती है। कच्छी बोलने वाले लोगों में, अब पढ़े-लिखे लोगों से लेकर कच्छ के लोग जो कच्छ के निवासी बन गए हैं, उन्हें कच्छी में बात करते सुनने मिलता है। इस तरह की बनी और अच्छी तरह से तैयार कच्छी में लोककथाओं के सभी श्रद्धेय रूप देखने मिलते हैं।
पारिजात से आया कच्छ का लोकसाहित्य ज्यादतर पद्य में हैं; और परंपरागत रूप से, बारोट, चरणो, भाटो और कथावाचक रावलो ने कच्छ के लोकसाहित्य की यह सच्ची सामग्री से कच्छ के लोकव्यवहार को दिलचस्प बनाए रखा है। आम जनता को इस समृद्ध लोककथा से उनके आचरण, भाषण, अनुष्ठान और धर्मधर्म के लिए आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता रहा है। कच्छी लोकगीतों के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में उनके भजनों, काफियों, दोहों, पहेलियों और गीतों का परिचय देते हुए, कच्छी भाषण बोली भी छिपी नहीं है। इसमें इतिहास और कहानी है, वातावरण की तैनाती का आकर्षण है, आनंद देने की शक्ति है।
कच्छ के लोकगीत या कहानी गीतों में, प्राचीन प्रेम की कहानियां सबसे आगे हैं। चाहे वह चरित्र प्रधान हो या प्रसंग प्रधान , उसकी कथा गतिविधियों का मूल हमेशा रोमांस रहा है। फिर उनमें से एक में सौंदर्य और जोबन, प्रतिस्पर्धा और समर्पण, मिलन और वियोग सबसे आगे रहा है; तो किसी में खानदानी,प्रतिष्ठा,बल,संघर्ष और शौर्य या देशभक्ति और बलिदान सबसे आगे रहते हैं; एक कहानी में मित्रता और उदारता, दया और सहिष्णुता, या न्याय और नीति के आदर्शों को एक विशेष रूप में सामने रखा गया है; तो एक बयान में, सच्चाई और शुद्धता, क्षमा और धर्म, भक्ति और प्रेम, आदि, आपस में जुड़े हुए हैं। इस तरह की दिलचस्प कहानियों में, अमर प्रेमी जोड़े सगई संघार और भेरुओ, करायल और कपूरी, आजी और पुनराजी, कोरू और पिंगल, फूलभादूओ और बोरीरानी,फूल और सोनल पुंअरो और राज, शेणी और हमीर, उढो और होथल,जेसल और तोरल, रूपा और विजल की प्रेम कहानियां सरल लोक हृदय को मानव प्रकृति के विभिन्न मूल्यों को छूती हैं। यह अपने वास्तविक रूप में लोककथाओं का प्रतिनिधित्व करता है। देश की लोक-कथाओं में सामान्य रूप से, दुखद और कामुक रोमांस की घटनाएं सबसे आगे हैं। ग्रामीण लोगों की जीवन शक्ति की भावना भी उनके शब्दों में परिलक्षित होती है।
कच्छका हुन्नर उद्योग :
कच्छ तो दुकाल का प्रदेश है। हरबार अछत हो जाती है। पर १९७३ के दुकाल के बाद तो गांव की प्रजा की सहाय के लिए ज्यादा से ज्यादा सरकार और विकास की एजेंसी आगे आयी हैं। साथ में पूरा देश विविध परिवर्तनों में से पसार हो रहा है तब ये परिवर्तन ग्राम्य स्तर को बी स्पर्श करने लगा है। इसीलिए सदियों पुरानी व्यवसथा डगमगाने लगी है। और बदलने लगी है तब प्रश्न होता है की कच्छ के ये हुन्नर उद्योग की परंपरा ये बदलते समय और आधुनिकीकरण के सामने टिक पाएगी ? । सबसे ज्यादा राष्ट्रीय अवॉर्ड बांधनिकाम में मिले हैं। इसके अलावा भरतकाम के लिए बन्नी प्रसिद्ध है। दुसरी और धडकी कला भी इस प्रदेश की संस्कृतिको उजागर करती हे । अजरख काम, रोगन मुद्रण कला, हस्तकला काम, मशरू कला, जरदोशी कला, चमड़े पर भरतकाम, रंगीन मिट्टी के बर्तनों के काम की पारंपरिक कला, माटीकाम, दीवार पर स्टेंटवर्क: घर की सजावट की कला, लकड़ी पर नक्काशी। चांदी का काम ऐसे कई हुन्नर उद्योग हे जो की यह प्रदेशकी विशेषता रही हे ।
इस तरह भारतवर्षकी यह भुभाग अपने आपमें हमारी पुरानी विरासत और संस्कृतिको संझोके बैठा हे ।
परिशिष्ट :
Acknowledgement : Dr. Bhavesh Jethava is thankful to ICSSR, New Delhi for Minor Research Project.(F.No.02\112\2019-20\MN-RP, dated:18-11-2019).